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Thursday, August 23, 2012

'कोयलेÓ की कालिख में कितना कालापन?



22.8
हरिराम पाण्डेय
पिछले दिनों कोयला घोटाला पर कैग की रिपोर्ट पर बवाल मचा हुआ है। वैसे अगर अर्थ शास्त्र के मनोविज्ञान को देखेंगे तो ऐसा होना ही था क्योंकि सन 197& में कोयला खदानों का राष्टï्रीयकरण खुद बुरी नीतियों के फलस्वरूप हुआ और गलत नीतियों के नतीजे भी गलत ही होते हैं। लेकिन उस समय इस नीति को लागू करते समय सरकार या अफसरों ने ऐसा नहीं सोचा था। तब कोयला क्षेत्र पूंजी के अभाव से ग्रस्त था और उसे आधुनिकीकरण की दरकार थी। श्रमिकों की स्थिति दयनीय थीं और अवैज्ञानिक खनन नीतियां अमल में लायी जा रही थीं। पूर्व कोयला सचिव वीएन कौल का मानना है कि कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण भारी भूल थी क्योंकि शुरू से ही राष्ट्रीयकृत खदानें देश की कोयला मांगों को पूरी कर पाने में नाकाम साबित हो रही हैं। वास्तविक खामी कोयला खदान राष्ट्रीयकरण अधिनियम की नीतियों में है , जिनकी उपयोगिता खत्म हो चुकी है लेकिन राजनीतिक विरोध के चलते राष्ट्रीयकरण की नीति की समीक्षा करने के तमाम प्रयास विफल रहे। कोयला खदानों का संपूर्ण राष्ट्रीयकरण भी लंबे समय तक नहीं टिका। वर्ष 1976 में इस्पात, ऊर्जा और सीमेंट जैसे बुनियादी ढांचे के महत्वपूर्ण क्षेत्रों को कोयले की आपूर्ति के लिए सार्वजनिक क्षेत्र का हस्तक्षेप कम करने और उत्पादकता बढ़ाने वाली नीतियां प्रस्तावित की गयीं। इस्पात के उत्पादन में संलग्न निजी कंपनियों को बंधक खदानों का स्वामित्व दे दिया गया और दूरदराज के इलाकों में निजी क्षेत्र को सब-लीजिंग की अनुमति दी गयी। 199& में सरकार ने कोयला क्षेत्र को पावर जेनरेशन और 1996 में सीमेंट उत्पादन के लिए खोल दिया। विवेकाधीन आवंटनों की नीति में अनेक बार संशोधन किया गया। वर्ष 2004 तक कोयला मंत्रालय की समझ में आ गया कि केंद्र और राÓय के अधिकारियों की स्क्रीनिंग कमेटी की अनुशंसाओं के आधार पर विवेकाधीन आवंटन नीति में पारदर्शिता का अभाव था। कोयला मंत्रालय ने कानून मंत्रालय से परामर्श लिया कि क्या कानून में बदलाव लाये बिना विवेकाधीन आवंटन के स्थान पर प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी की प्रक्रिया अपनायी जा सकती है? पहले तो कानून मंत्रालय ने कहा कि कार्यपालिका के आदेश से यह किया जा सकता है, लेकिन बाद में वह इसे लेकर बहुत निश्चित नहीं रह गया। कुछ राÓयों ने भी नीलामी का विरोध किया।
सन 2004 के बाद से ही प्रधानमंत्री का यह सोच रहा है कि प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी ही उचित तरीका है और उन्होंने कोयला मंत्रालय को तुरंत कार्रवाई के निर्देश देते हुए कैबिनेट में प्रस्ताव भिजवाने को कहा। दु:ख की बात है कि राष्ट्रीयकरण की अनुपयुक्त नीति को समाप्त कर कोयला क्षेत्र में आमूलचूल सुधार लाने की बात किसी ने नहीं सोची और कैग भी इसे रेखांकित कर पाने में नाकाम रहा। इसी पृष्ठभूमि में कैग की ऑडिट रिपोर्ट सामने आयी। मीडिया ने लोगों को बताया कि वर्ष 2005 से 2009 के बीच निजी कंपनियों को कोयला खदानों के मनमाने आवंटन के कारण सरकारी खजाने को 1.86 लाख करोड़ रुपयों का नुकसान हुआ। यह भी कहा गया कि सरकार ने प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी के लिए 28 जून 2008 की तारीख तय कर दी थी, लेकिन इसके बावजूद वर्ष 2009 तक विवेकाधीन आवंटन जारी रहा और इस तरह निजी कंपनियों को लाभ पहुंचाया गया। रिपोर्ट में कुछ अन्य महत्वपूर्ण तथ्य भी उजागर हुए हैं, लेकिन 57 बंधक खदानों के लिए 19 बड़े व्यावसायिक घरानों को लाभ पहुंचाए जाने के आंकड़े ही सुर्खियों में रहे। हालांकि मौजूदा हालात को देखते हुए सरकार और विपक्ष में राजनीतिक विभाजन अप्रत्याशित नहीं है। भाजपा ने प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग की है, लेकिन वह भूल गयी कि जब वह सत्ता में थी, तब उसने भी विवेकाधीन आवंटन की प्रणाली अपनायी थी। एनडीए और यूपीए दोनों की सरकारों ने कोयला क्षेत्र में विवेकाधीन आवंटन की पुरानी प्रणाली का समर्थन किया है। मनमोहन सिंह तो वास्तव में पहले ऐसे प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी की प्रणाली अमल में लाने का सुझाव दिया था। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी इस मौके का फायदा उठाकर पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप मॉडल अपनाने के लिए सरकार की आलोचना कर रही है और वही पुराना बाजार विरोधी राग अलाप रही है। वह यह नहीं समझ पा रही है कि प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी प्रक्रिया बुनियादी माक्र्सवादी आग्रहों के अनुरूप नहीं होगी। कैग की रिपोर्ट पर मीडिया का रवैया भी सनसनी फैलाने वाला ही रहा है। कैग की रिपोटर््स बहुत संस्थागत प्रयासों के बाद तैयार होती है और उनका ध्यान से अध्ययन करने की जरूरत होती है। कैग की अनुशंसाओं पर कोई धारणा बनाने से पहले पी ए सी में उनकी ब्योरेवार पड़ताल की जाती है। हम अभी यह नहीं जानते कि निजी कंपनियों को कथित रूप से लाभ पहुंचाए जाने के आरोपों की हकीकत क्या है।

लोकचेतना को भ्रष्टï होने से रोके मीडिया



23.8
हरिराम पाण्डेय
विख्यात चिंतक एवं वेदवेत्ता डॉ. उमाकांत उपाध्याय ने सन्मार्ग को टेलीफोन कर सामाजिक विपर्यय और राष्टï्र भावना शून्यता पर भारी क्षोभ जाहिर किया और कहा कि भारतीयों के संस्कारों को जिनेटिकली भ्रष्टï करने का षड्यंत्र चल रहा है। उन्होंने उसे रोकने के लिये मीडिया से अनुरोध किया। वस्तुत: यह चिंता का विषय है क्योंकि भारत राष्टï्र वसुधा पर ऐसी संस्कृति का संवाहक है जो प्रेम, करुणा, संवेदना के भावों से भरा है और समूची मानवता के कल्याण की बात करता है। ऐसी महान संस्कृति हमारे लिए प्रेरणा का कारण होनी चाहिए। किंतु गुलामी के लंबे काल खंड और विदेशी विचारों ने हमारे गौरव ग्रंथों व मान बिंदुओं पर गर्द की चादर डाल दी। इस पूरे दृश्य को इतना धुंधला कर दिया गया कि हमें अपने गौरव का, मान का, ज्ञान का आदर ही न रहा। यह हर क्षेत्र में हुआ। हर क्षेत्र को विदेशी नजरों से देखा जाने लगा। हमारे अपने पैमाने और मानक भोथरे बना दिये गये। स्वामी विवेकानंद उसी स्वाभिमान को जगाने की बात करते हैं। महात्मा गांधी से जयप्रकाश नारायण तक ने हमें उसी स्वत्व की याद दिलायी। सोते हुए भारत को जगाने और झकझोरने का काम किया। ऐसे समय में जब एक बार फिर हमें अपने स्वत्व के पुन: स्मरण की जरूरत है तो पत्रकारिता बड़ा साधन बन सकती है। भारत के संदर्भ में पत्रकारिता लोकजागरण का ही अनुष्ठान है। स्वाधीनता आंदोलन के दौर में ही देश में तेजी से पत्रकारिता का विकास हुआ। देशभक्ति, जनजागरण और समाज सुधार के भाव इसकी जड़ों में हैं। आजादी के बाद इसमें कुछ बदलाव आये और आज इस पर बाजारवादी शक्तियों का काफी प्रभाव दिख रहा है। फिर भी सबसे प्रभावशाली संचार माध्यम होने के नाते मीडिया की भूमिका पर विचार करना होगा। तय करना होगा किस तरह मीडिया लोक संस्कारों को पुष्ट करते हुए अपनी जड़ों से जुड़ा रह सके। साहित्य हो या मीडिया, दोनों का काम है - लोकमंगल । राजनीति का भी यही काम है। लोकमंगल सबका ध्येय है। लोकतंत्र का भी यही उद्देश्य है। संकट तब खड़ा होता है जब लोक नजरों से ओझल हो जाता है। लोक हमारे संस्कारों का प्रवक्ता है। वह बताता है कि क्या करने योग्य है और क्या नहीं। इसलिए लोकमानस की मान्यताएं ही हमें संस्कारों से जोड़ती हैं और इसी से हमारी संस्कृति पुष्ट होती है। मीडिया दरअसल ऐसी ताकत के रूप में उभरा है जो प्रभु वर्ग की वाणी बन रहा है, जबकि मीडिया की पारंपरिक संस्कृति और इतिहास इसे आम आदमी की वाणी बनने की सीख देते हैं। समय के प्रवाह में समाज जीवन के हर क्षेत्र में गिरावट दिख रही है। किंतु मीडिया के प्रभाव के मद्देनजर इसकी भूमिका बड़ी है। उसे लोक का प्रवक्ता होना चाहिए ऐसे में इसकी सकारात्मक भूमिका पर विचार जरूरी है। भारतीय संस्कृति में सामाजिक संवाद की अनेक धाराएं हैं, परंपराएं हैं। हमें उन पर ध्यान देने की जरूरत है। मीडिया इसी संवाद का केंद्र है। वह हमें भाषा भी सिखाता है और जीवन शैली भी प्रभावित करता है। खासकर दृश्य मीडिया पर आज जैसी भाषा बोली और कही जा रही है, उससे सुसंवाद कायम नहीं होता, बल्कि तनाव बढ़ता है। असम की घटना के बाद देश भर में जो हुआ वह इसका प्रमाण है। हमारे जनमाध्यम ही समाज में मची होड़ और हड़बड़ी को सहज संवाद में बदल सकते हैं, लेकिन बाजार आज सारे मूल्य तय कर रहा है और यह लोक को नष्ट करने का षड्यंत्र है। यह सही मायने में बिखरी और कमजोर आवाजों को दबाने का षडयंत्र भी है। इसका सबसे बड़ा शिकार हमारी बोलियां बन रही हैं। इसे बचाने के लिए, संरक्षित करने के लिए और इसके विकास के लिए समाज और मीडिया दोनों को साथ आना होगा। तभी हमारे गांव बचेंगे, लोक बचेगा और लोक बच गया तो संस्कृति बचेगी।

Sunday, August 19, 2012

मनोवैज्ञानिक जेहाद की साजिश



-हरि राम पाण्डेय
19 अगस्त 2012
उत्तर-पूर्व के निवासियों का दक्षिण भारत से लगातार पलायन जारी है और महाराष्टï्र में भारी तनाव व्याप्त है। इसे देख कर और सुन कर देश भर में सही सोचने वाले आशंकित हैं। लेकिन आम आदमी लाचार है। हम देख रहे हैं कि विगत 20 मई से इंटरनेट, विभिन्न सोशल मीडिया और मोबाइल फोन एवं आई पैड के माध्यम से प्रॉक्सी जिहाद चल रहा है। इसकी शुरुआत म्यांमार के राखिने प्रांत से हुई। वहां बौद्धों और राहिंगा मुसलमानों के बीच संघर्ष हो गया। इस संघर्ष में दोनों तरफ के लगभग 80 लोग मारे गये। दर असल रोहिंगा मुसलमानों को म्यांमार बंगलादेशी घुसपैठिया मानता है। इस संघर्ष के बाद वहां बड़े पैमाने पर लोग उस क्षेत्र को छोड़ कर चले गये। भारी पैमाने पर आंतरिक विस्थापन हुआ। उसी समय से भारत , बंगलादेश और म्यांमार के कुछ अज्ञात कट्टïरपंथी तत्वों ने इंटरनेट और सोशल मीडिया के जरिये म्यांमार की सरकार को बदनाम करना शुरू कर दिया और मुस्लिम एकजुटता प्रदर्शित करने लगा। म्यांमार के प्रेजिडंट सीन थीन ने ओ आई सी के प्रतिनिधिमंडल से बातें कीं। उन्होंने उस प्रतिनिधि मंडल को बताया कि कैसेे सोशल मीडिया और इंटरनेट के जरिये यह बताने की कोशिश की कि कैसे झूठी तस्वीरों और मनगढ़ंत खबरों के आधार पर सरकार को बदनाम किया जा रहा है। दरअसल ये अफवाहें न केवल म्यांमार को अस्थिर करने की साजिश हैं बल्कि बंगलादेश की शेख हसीना सरकार को भी अस्थिर करने का षड्यंत्र है। क्योंकि हसीना सरकार ने रोहिंगाओं को बंगलादेश में प्रवेश पर पाबंदी लगा दी है। साथ ही यह भारत में विद्वेष फैलाने का प्रयास है। इससे दोतरफा काम करने की कोशिश की जा रही है। यदि हसीना सरकार कमजोर होती है तो जेहादी ताकतवर होंगे और भारत पर दबाव बना सकते हैं, साथ ही भारत स्वयंमेव विपर्यय में उलझ जायेगा। चंद मुस्लिम कट्टïरपंथी ताकतें और समूह हैं जो रोहिंगा मुसलमानों पर जुल्मोसितम की झूठी तस्वीरें और ब्यौरे फैला रहीं हैं। इन तस्वीरों और ब्यौरों का असर धार्मिक विचारों वाले मुसलमानों के मन पर बड़ा तीखा होता है और उनमें क्रोध जमा होने लगता है। असम में भड़की हिंसा के विरोध में गत 5 अगस्त को मुम्बई के आजाद मैदान में सभा के बाद उपद्रव इसी गुस्से की अभिव्यक्ति थी। सोशल मीडिया पर डाली गयी तस्वीरों और झूठे ब्योरों से गुस्साये लोगों के समक्ष मुस्लिम नेताओं के भड़काऊ भाषणों ने आग में घी का काम किया। भीड़ ने पुलिस पर हमले किये यहां तक महिला पुलिस के सदस्यों पर भी हमले किये गये, एक अनाम सैनिक के स्मारक को तोड़ डाला और मीडिया के लोगों को पीटा। मीडिया के लोगों पर हमले के बारे में उनका कहना था कि वे सही बात नहीं बता रहे हैं। दरअसल उस भीड़ का अचेतन तो सोशल मीडिया पर डाली गयी तस्वीरों और कहानियों को ही सच मान रहा था इसलिये मीडिया के ब्यौरे को वे गलत मान रहे हैं और मीडिया से क्रोधित हैं। कई मुस्लिम नेताओं ने मुम्बई उपद्रव की निंदा की है। मुम्बई के बाद इन कट्टïर पंथियों ने दक्षिण भारत में अपनी साजिश शुरू कर दी। दक्षिण भारत में बड़ी संख्या के पूर्वोत्तर वासी पढ़ रहे या काम काज कर रहे हैं। यहां यह अफवाह फैलायी जा रही है कि भारत सरकार चूंकि असम में रह रहे बंगलादेशियों को नागरिकता नहीं दे रही है इसलिये इस इलाके में पूर्वोत्तर के लोगों को भी नहीं रहने दिया जायेगा। यहां यह गौर करने वाली बात है कि यह मनोवैज्ञानिक जेहाद धर्म आधारित नहीं है बल्कि क्षेत्र आधारित है। जो लोग दक्षिण भारत या मुम्बई-पुणे से भाग रहे हैं उनमें केवल हिंदू नहीं हैं, बल्कि ईसाई भी हैं। अब पलायन कर रहे ये लोग जब अपनी विपदगाथा के साथ पूर्वोत्तर में अपने घर पहुंचेंगे तो साम्प्रदायिक तनाव की एक नयी लहर शुरू होगी। आजादी के बाद से उत्तर-पूरब के लोगों और भारत की शेष आबादी के मन में एक खास किस्म का विभाजन था जिससे विभिन्न तरह के विद्रोह हो रहे थे। विगत दस वर्षों में ये विद्रोह धीमे पडऩे लगे थे। पूर्वोत्तर के नौजवानों की एक बड़ी संख्या अपने को भारत से साथ जोडऩे लगे थे जिससे विद्रोही संगठनोंं को मिलने वाले जांबाज नौजवानों की तादाद घट गयी और दूसरी तरफ वहां के युवक युवतियां देश के अन्य भागों में जाने लगे। इस नये मनोवैज्ञानिक जेहाद से डर है कि कहीं फिर ना मानसिक विभाजन हो जाये और पूर्वोत्तर तथा देश के शेष भाग के बीच एक बड़ी और चौड़ी खाई ना बन जाये। दुर्भाग्यवश हमारी सुरक्षा एजेंसियां इस मनोवैज्ञानिक जेहाद को समय पर नहीं भांप सकीं और ना अभी दोषियों को ढूंढ कर उन्हें निष्क्रिय करने की कोशिश होती दिख रही है। जो लोग इस जंग को अंजाम दे रहे हैं उन्हें तत्काल नेस्तनाबूद किया जाना चाहिये और साथ ही पलायन करने वाले लोगों में सुरक्षा का विश्वास पैदा किया जाना चाहिये वरना आने वाले दिन बड़े भयानक परिणाम ला सकते हैं।

राजनीतिक दलों के एकजुट होने की जरूरत



-हरि राम पाण्डेय
18 अगस्त 2012
बंगलुरू से उत्तर पूर्व, खासकर, असम के लोगों में भगदड़ मची हुई है। सरकार के लाख आश्वासन के बावजूद वे आश्वस्त नहीं हो पा रहे हैं। असम के कोकराझाड़ में रहवासियों और घुसपैठियों में संघर्ष के बाद कुछ निहित स्वार्थी तत्वों ने उसे मुस्लिमों के खिलाफ हिंसा का रूप दे दिया और अफवाहों की चिंगारी छोड़ दी जिसने दावानल का रूप ले लिया है। अफवाह बम सुनियोजित अंतरराष्ट्रीय साजिश का हिस्सा है। सुरक्षा एजेंसियों को इसकी भनक तो थी, लेकिन जिस तरह इसे अंजाम दिया गया उससे वे भी सकते में हैं। आई बी के वरिष्ठ अधिकारी मान रहे हैं कि असम हिंसा के बाद जिस तरह का अभियान चलाये जा रहा है वह बेहद खतरनाक है। सोशल मीडिया के जरिए चलाए जा रहे इस अभियान का मकसद देश में अल्पसंख्यकों को मास मोबिलाइज करना है। आई बी के एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक, इस मुहिम के पीछे वे जिहादी ताकतें हैं जो भारत में अस्थिरता फैलाना चाहती हैं। मुंबई में हुई हिंसा इसकी बानगी भर थी। एनआईए सूत्रों के मुताबिक, इस मुहिम के पीछे लश्कर-ए-तायबा और आईएसआई का हाथ है। सूत्रों के मुताबिक, चार सालों में लश्कर ने देश में ऐसे ओवर ग्राउंड ग्रुप खड़े कर दिए हैं जो कभी भी कुछ भी करने को तैयार हैं। आतंकवादी संगठनों के लिए खुलेआम काम करने के लिए लाखों लोग हाजिर हैं। कुछ जनप्रतिनिधि भी इस मुहिम में शामिल हैं। सोशल मीडिया ने इसमें अहम भूमिका निभायी। बंगलुरू और कर्नाटक के अन्य शहरों में फैलने वाली अफवाहें असुरक्षा के एक खास दुष्चक्र की तरफ इशारा करती हैं। कर्नाटक में पिछले कुछ सालों से सामाजिक असहिष्णुता की एक लहर सी चल रही है, जिसे बीजेपी के नेतृत्व वाली राज्य सरकार का अघोषित समर्थन प्राप्त है। वहां दिनदहाड़े चर्च जलाए गये तो तत्कालीन मुख्यमंत्री बी एस येदयुरप्पा ने इसे धर्मांतरण के विरुद्ध स्वाभाविक प्रतिक्रिया बताया। ऐसे में अपने खिलाफ कोई अफवाह फैल जाने के बाद सुरक्षा के सरकारी दावों पर यकीन कैसे करे? इसमें कोई शक नहीं कि कुछ निहित स्वार्थी तत्व असम के दंगों को एक बड़े सांप्रदायिक तनाव जैसा रूप देने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि कुछ अन्य लोग उनकी इस कोशिश को अपनी सियासत का मोहरा बना लेने का जुगाड़ भी बिठा रहे हैं। बंगलोर से जा रहे लोगों का कहना था कि जरूरत पडऩे पर उनकी मदद के लिए कोई आगे आयेगा, इसका उन्हें कोई भरोसा नहीं है। बहुलतावादी संस्कृति में यकीन रखने वाले एक लोकतांत्रिक समाज के लिए इससे ज्यादा शर्मिंदगी की बात और क्या हो सकती है? इसलिये जरूरी है कि जब तक असम और म्यांमार में साम्प्रदायिक स्थिति नियंत्रित नहीं हो जाती तबतक देश भर की पुलिस और खुफिया एजेंसियों को बेहद सतर्क रहने की जरूरत है। यही नहीं पुलिस और राजनीतिक नेतृत्व के लिये भी जरूरी है कि वह इस स्थिति पर मुस्लिम नेताओं के निकट सम्पर्क में रहें और उनसे हालात को सुधारने के लिये सहयोग लें। उन्हें बताएं कि असम और अन्य तनावग्रस्त क्षेत्रों में सरकार क्या कदम उठा रही है तथा वे इस स्थिति का राजनीतिक लाभ न उठाएं। अगर कोई मुस्लिम नेता इस सलाह को न माने तो पुलिस को कानून के अनुसार उस पार कार्रवाई जरूर करनी चाहिये और राजनीतिक नेतृत्व को इस मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। यही नहीं सभी राजनीतिक दल एक जुट होकर इस अफवाह को रोकने और समग्र रूप में देश वासियों में कानून के प्रति भरोसा पैदा करने का प्रयास करें।




Tuesday, August 14, 2012

मानवीय सहायता रोकें नहीं



असम में भड़की हिंसा की चिनगारी मुम्बई न केवल पहुंची है बल्कि उसके शोलों की आग भी महसूस होने लगी है। मानवीय कानून जाति भेद नहीं मानता है, ना किसी नस्ल या क्षेत्र का भेद मानता है और न घुसपैठियों और रहवासियों में फर्क करता है, यहां तक कि अपराधी अथवा दुर्दांत आतंकवादी भी अगर हिरासत में हैं तो उन्हें भी भोजन और औषधि दिये जाने का प्रावधान होता है। अंतरराष्टï्रीय कानून के अंतर्गत हर देश को घुसपैठियों को रोकने का अधिकार है और इसके लिये सीमा पर कंटीले तारों की बाड़ लगाने या फौज को तैनात करने और उसे घुसपैठियों को देखते ही गोली मार देने तक का आदेश देने तक का अधिकार है। अगर कोई घुस आया भी तो उसे कानून के अंतर्गत गिरफ्तार करने और सीमा से बाहर कर देने का अधिकार है। संसद में भाजपा के नेता ने असम के दंगे पर बयान देते हुए कहा कि वह घुसपैठियों और असम के मूल निवासियों के बीच का संघर्ष था। बेशक ऐसा ही था लेकिन क्या इससे हिंसा का औचित्य प्रमाणित हो जाता है। जब तक वे घुसपैठिये हमारे देश में हैं तब तक अंतरराष्टï्रीय मानवीय कानूनों के अंतर्गत उनकी जान की हिफाजत करना , उन्हें भोजन तथा औषधि इत्यादि देना सरकार का दायित्व है। सरकार इससे इंकार नहीं कर सकती है। लेकिन खबरें मिल रहीं हैं कि असम , बंगलादेश और म्यांमार के कई क्षेत्रों में हाल की हिंसा के परिप्रेक्ष्य में मुसलमानों के समूह को घुसपैठिया मानकर सरकारें अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रही हैं। म्यांमार के राखिने प्रांत में अभी हाल में रोहिंगा मुसलमानों और बौद्धों में संघर्ष समाचारों के बीच शिकायतें मिलीं हैं कि रोहिंगाओं को बंगलादेशी घुसपैठिया करार देकर म्यांमार की सरकार और सेना कोई सहायता नहीं दे रही है। पश्चिमी देशों की कुछ सरकारों ने जैसे फ्रांस ने म्यांमार की सरकार से अनुरोध किया है कि वह रोहिंगाओं की दशा पर ध्यान दे। बंगलादेश की सरकार ने भी कथित तौर पर राखिने में मारकाट के बाद वहां से पलायन करने वाले रोहिगाओं को मानवीय सहायता नहीं देने का आदेश दिया है साथ ही 1990 से शरणार्थी शिविरों में रह रहे रोहिंगाओं को दी जाने वाली सहायता को भी रोक देने का आदेश दिया है। जुलाई के आखिरी हफ्ते तक मिली जानकारी के मुताबिक बंगलादेश सरकार ने रोहिंगा शरणार्थी शिविरों में राहत का काम कर रहे ब्रिटिश और फ्रांसिसी दलों से कहा है कि वे राहत कार्य बंद कर दें क्योंकि इससे और शरणार्थी यहां पहुंचने लगेंगे। अमरीकी सरकार और राष्टï्रसंघ शरणार्थी उच्चायोग ने बंगलादेश सरकार से अनुरोध किया है कि वह राहत स्थगन आदेश वापस ले। बंगलादेश के कोकराझाड़ और बोडो इलाके में हाल के दंगों के बाद बड़ी संख्या में मुस्लिम आबादी अपने घरों से पलायन कर राहत शिविरों में आ गयी। अब खबरें मिल रहीं हैं कि सरकार राहत दिये जाने के मामले में भारतीय मुसलमानों और उस पार से आये मुसलमानों में भारी विभेद कर रही है। अगर ये खबरें सच हैं तो इस स्थिति को तत्काल खत्म किया जाना चाहिये।
अंतरराष्टï्रीय कानूनों का पालन करने और मानवीय सहायता कार्यों को करने में भारत का प्रशंसनीय रिकार्ड रहा है। यह सच है कि भारत में बंगलादेशी घुसपैठियों की भारी संख्या है और वे हमारी सुरक्षा के लिए खतरा भी हैं लेकिन जब तक वे यहां हैं तब तक अंतरराष्टï्रीय कानूनों के तहत हिफाजत के हकदार हैं। जब तक ऐसा हो सकता है तब तक बिना भेदभाव के राहत कार्य चलना चाहिये वरना यह गुस्सा उन्हें ठेलकर आतंकियों के खेमे में पहुंचा देगा।