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संघ प्रमुख मोहन भागवत द्वारा आरक्षण को लेकर दिए गए बयान से इस संवेदनशील मुद्दे पर देश में नए सिरे से चर्चा शुरू हो गयी है। भागवत ने यह सच कहा है कि बीते वर्षों में आरक्षण पर राजनीति की गयी और उसका दुरूपयोग किया गया है। कभी सामाजिक-आर्थिक कल्याण के उद्देश्य से शुरू यह व्यवस्था अब पूरी तरह राजनीतिक मसला बन गयी है। यह भी एक कारण है कि संघ की इच्छा के समक्ष अकसर दंडवत नजर आने वाली भाजपा के नेतृत्व केंद्र सरकार ने भी भागवत के विचारों से खुद को अलग दिखाने में देर नहीं लगायी। संभव है, इसके जरिये भाजपा और मोदी सरकार, हालिया समन्वय बैठक के बाद आयी संघ द्वारा क्लास सरीखी टिप्पणियों पर भी सफाई देना चाहती हो, लेकिन असल मंशा चुनावी खामियाजे से बचने की ही है। बिहार की राजनीति को उत्तर प्रदेश से भी ज्यादा जातीय शिकंजे में जकड़ी माना जाता है। बिहार में ताल ठोक रहे लालू प्रसाद भी हैरान रह गए होंगे। समझने में कोई कमी न रह जाए इसलिए अगले दिन केंद्र सरकार की तरफ से भी दो टूक शब्दों में दोहरा दिया गया कि दलित और पिछड़ों के लिए मौजूद वर्तमान आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था पर किसी सोच-विचार का सवाल ही नहीं उठता। भाजपा और केंद्र की तरफ से ऐसी त्वरित प्रतिक्रिया अपेक्षित थी क्योंकि इस एक मुद्दे पर बिहार चुनाव को फतह करने की भाजपा की तमाम रणनीति ताश के महल की तरह बिखर जाती। इस जंग के लिए भाजपा ने बिहार में जो विजय रथ तैयार किया है, उसके सारथी भले विकास की हुंकार भर रहे हों लेकिन इसके घोड़े और पहिए वहां के दुर्नाम जाति समीकरण के आंकड़ों के गुणा भाग से बने हैं। बिहार में सत्ता के लिए उसे सीधे मंडल के उत्तराधिकारियों से टकराना है और लोहे को तो लोहा ही काटता है। हैरत की बात है कि भागवत ने आरक्षण पर कोई नई बात नहीं कही थी बल्कि संघ का घोषित पक्ष ही दोहराया था। उन्होंने आरक्षण खत्म करने की बात ही नहीं कही थी बल्कि इसे असल जरूरतमंदों तक पहुंचाने की जरूरत बतायी थी। आरक्षण का जैसे ही नाम आता है लगभग सभी राजनीतिक दलो की बोलती बंद हो जाती है, और यदि बात आरक्षण को हटाने की हो तो इनकी सांसे ऊपर नीचे होने लगती है,क्योंकि बात आखिर वोट बैंक की है।कोई भी खुल कर बोलने की हिम्मत नही करता,राय जाहिर नहीं कर पाता, जैसे आरक्षण कोई भूत है। राजनीति अपनी जगह है लेकिन,देशहित का क्या? आज किस तरह से जल रहा है देश आरक्षण की आग में। कहते है कि आरक्षण दबे कुचले,कमजोर,पिछडे लोगो के लिए है,लेकिन क्या वास्तव में इसका फायदा उचित व्यक्तियों को मिल रहा है? आरक्षण को लेकर इस देश में सदैव वोट बैंक की राजनीति की गयी है। कभी एक जाति तो कभी दूसरी जाति को आरक्षण के नाम पर लुभाने का प्रयास किया गया है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि समाज में यह प्रवृत्ति बढती गयी और अनेक जातियां अपने को अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े वर्गों में शामिल करने की मांग को लेकर आन्दोलन के लिए सड़कों पर उतर आयी। इससे समाज में एक खाई पैदा हो गयी है। इस भेदभाव को मिटाने और कमजोर वर्ग को समाज के अन्य वर्गों कि बराबरी में लाने के लिए हमें जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था को समाप्त करना ही होगा। हमें यह तय करना होगा कि कोई व्यक्ति आरक्षण का एक बार लाभ लेकर अन्य वर्ग के बराबरी में कोई पंहुच गया है तो उसे सामान्य श्रेणी का मान लिया जाये और उसके परिवार को आगे आरक्षण का लाभ न मिले। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति सामान्य वर्ग का है और गरीब है तो उसे बराबरी में लाने के लिए आरक्षण का लाभ दिया जाए और जैसे ही वह बराबरी हासिल करले, उसे आरक्षण का लाभ बंद कर दिया जाए। इसके लिए समाज के सभी वर्गों के प्रतिनिधित्व वाली समिति बनायी जाए, जिसमे संविधान विशेषज्ञ और समाजसेवी लोग शामिल हों। राजनीतिक लोगों को भी इसमें शामिल किया जा सकता है लेकिन उसमे ऐसे लोग न हो जो जातिवाद की राजनीति पर ही अपना अस्तित्व कायम रखते आ रहे हों। यह सामजिक न्याय का मुद्दा है और न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिए, होते हुए दिखना भी चाहिए।
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