28 नवम्बर 2015
संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि भारत में हर साल कुपोषण के कारण मरने वाले पांच साल से कम उम्र वाले बच्चों की संख्या दस लाख से भी ज्यादा है। दक्षिण एशिया में भारत कुपोषण के मामले में सबसे बुरी हालत में है। राजस्थान और मध्य प्रदेश में किए गए सर्वेक्षणों में पाया गया कि देश के सबसे गरीब इलाकों में आज भी बच्चे भुखमरी के कारण अपनी जान गंवा रहे हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर इस ओर ध्यान दिया जाए तो इन मौतों को रोका जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र ने भारत में जो आंकड़े पाए हैं, वे अंतरराष्ट्रीय स्तर से कई गुना ज्यादा हैं। संयुक्त राष्ट्र ने स्थिति को ‘चिंताजनक’ बताया है। भारत में फाइट हंगर फाउंडेशन और एसीएफ इंडिया ने मिल कर ‘जनरेशनल न्यूट्रिशन प्रोग्राम’ की शुरुआत की है। एसीएफ की रिपोर्ट बताती है कि भारत में कुपोषण जितनी बड़ी समस्या है, वैसा पूरे दक्षिण एशिया में और कहीं देखने को नहीं मिला है। रिपोर्ट में लिखा गया है, ‘भारत में अनुसूचित जनजाति (28%), अनुसूचित जाति (21%), पिछड़ी जाति (20%) और ग्रामीण समुदाय (21%) पर अत्यधिक कुपोषण का बहुत बड़ा बोझ है।’ विश्व बैंक ने इसकी तुलना ‘ब्लैक डेथ’ नामक महामारी से की है जिसने 18 वीं सदी में यूरोप की जनसंख्या के एक बड़े हिस्से को निगल लिया था। कुपोषण को क्यों इतना महत्वपूर्ण माना जा रहा हैं? विश्व बैंक जैसी संस्थाएं क्यों इसके प्रति इतनी चिंतित हैं? सामान्य रूप में कुपोषण को चिकित्सीय मामला माना जाता है और हममें से अधिकतर सोचते हैं कि यह चिकित्सा का विषय है। वास्तव में कुपोषण बहुत सारे सामाजिक-राजनैतिक कारणों का परिणाम है। जब भूख और गरीबी राजनैतिक एजेंडा की प्राथमिकता नहीं होती तो बड़ी तादाद में कुपोषण सतह पर उभरता है।
भारत का उदाहरण लें जहां कुपोषण उसके पड़ोसी अधिक गरीब और कम विकसित पड़ोसियों जैसे बंगलादेश और नेपाल से भी अधिक है। बंगलादेश में शिशु मृत्युदर 48 प्रति हजार है जबकि इसकी तुलना में भारत में यह 67 प्रति हजार है। यहां तक कि यह उप सहारा अफ्रीकी देशों से भी अधिक है। भारत में कुपोषण की दर लगभग 55 प्रतिशत है जबकि उप सहारीय अफ्रीका में यह 27 प्रतिशत के आसपास है। भारत एक मजबूत लोकतंत्र है, जो मंगल तक अपना उपग्रह भेज चुका है। पर यहां के बच्चे अफ्रीका के निर्धनतम देशों की तुलना में कहीं ज्यादा कुपोषित हैं। लोकतंत्र की गंभीर विफलता का प्रतिनिधित्व करता भारत वैश्विक कुपोषण का केंद्र बन गया है। सरकारी आंकड़ों के (दूसरे आंकड़े तो और भी ऊंचे हैं) मुताबिक 39 फीसदी भारतीय बच्चे कुपोषण से ग्रस्त हैं। इस मामले में भारत की हालत बर्किना फासो, हैती, बंगलादेश या फिर उत्तर कोरिया जैसे देशों से भी बदतर है। तकरीबन 20 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में कुपोषण की तस्वीर तो और भी भयावह है। खुद सरकारी आंकड़े इसकी तस्दीक करते हैं कि राज्य में पांच वर्ष से कम उम्र के ज्यादातर बच्चे कुपोषित हैं। 2015 की वैश्विक पोषण रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तर प्रदेश की हालत अफ्रीका के तमाम देशों से खराब है। कुपोषण से शारीरिक विकास पर तो असर पड़ता ही है, इसका सबसे ज्यादा असर बच्चे के मानसिक विकास पर पड़ता है। बचपन में कुपोषण बच्चे के मानसिक स्वास्थ्य को वह नुकसान पहुंचाता है, जिसकी पूर्ति कभी नहीं हो सकती। कुपोषित बच्चे का दिमाग ठीक से विकसित नहीं हो पाता। यही वजह है कि बीच में पढ़ाई छोड़ने वालों में कुपोषित बच्चों का औसत ज्यादा होता है।
कुपोषण वास्तव में घरेलू खाद्य असुरक्षा का सीधा परिणाम है। सामान्य रूप में खाद्य सुरक्षा का अर्थ है 'सब तक खाद्य की पहुंच, हर समय खाद्य की पहुंच और सक्रिय और स्वस्थ जीवन के लिए पर्याप्त खाद्य'। जब इनमें से एक या सारे घटक कम हो जाते हैं तो परिवार खाद्य असुरक्षा में डूब जाते हैं। खाद्य सुरक्षा सरकार की नीतियों और प्राथमिकताओं पर निर्भर करती है। भारत का उदाहरण लें जहां सरकार खाद्यान्न के ढेर पर बैठती है (एक अनुमान के अनुसार यदि बोरियों को एक के ऊपर एक रखा जाए तो आप चांद तक पैदल आ-जा सकते हैं)। पर उपयुक्त नीतियों के अभाव में यह जरूरत मंदों तक नहीं पहुंच पाता है। अनाज भण्डारण के अभाव में सड़ता है, चूहों द्वारा नष्ट होता है या समुद्रों में डुबाया जाता है पर जनसंख्या का बड़ा भाग भूखे पेट सोता है। बाल कुपोषण के मामले में भारत की दयनीय हालत की वजह क्या है? इसे लेकर दो तरह की बातें सामने आई हैं। पहले विचार के मुताबिक, समाज में महिलाओं की खराब स्थिति का मातृ कुपोषण पर उससे कहीं ज्यादा असर पड़ता है, जितना अब तक माना जाता था। प्रिंसटन यूनिवर्सिटी की अर्थशास्त्री डायने कॉफे के मुताबिक, भारतीय परिवारों में ज्यादातर महिलाएं अंत में भोजन करती हैं, जिससे 42 फीसदी भारतीय महिलाओं का वजन गर्भावस्था से पहले काफी कम होता है। यही नहीं, गर्भावस्था के दौरान महिलाओं का जितना वजन होना चाहिए, भारतीय महिलाएं उसके आधे तक ही पहुंच पाती हैं। गर्भावस्था के अंतिम दौर में एक औसत भारतीय महिला का वजन उससे कम होता है, जितना कि उप-सहारा अफ्रीका की औसत महिला का गर्भावस्था की शुरुआत में होता है। नतीजतन बहुत-से भारतीय बच्चे गर्भ में ही कुपोषित हो जाते हैं, जिससे वे कभी उबर नहीं पाते।