होली आनंद रस का सूक्ष्म बोध है
होली वसंत वसंत के आगमन का प्रतीक है। वह निरंतर प्रवहमान काल के उल्लास की व्यंजना है । वनों में कोयल का स्वर गूंजता है। शब्द- गंध - रस और वर्ण की छवि सब जगह दिखाई पड़ती है। यह देश का सौंदर्य है काल का सौंदर्य है। उल्लास सदा शीत विरोधी होता है सूरज की किरणें पृथ्वी और आकाश का हर्ष भी प्रकट करती है। काल विश्व के सघन तारतम्य में देश से संबद्ध है जैसे आकाश पृथ्वी से। यदि पृथ्वी आनंद से पुलकित है तो आकाश केवल शून्य नहीं रह जाता है। चुंबन का स्पर्श सुख देती हुई वसंत समीर धरती के अलावा आकाश को भी आनंद से चंचल कर देती है। जंगल प्रकृति की रचना शक्ति सिद्ध करते हैं। वृक्षों के भीतर की लाली पुष्पों के रूप में फूटकर बाहर निकल आती है। पग पग रंग जाते हैं और जगमगाने लगते हैं। रूप - रस- शब्द-गंध -स्पर्श बोध की एक विशेषता है रूप और गंध परिवर्तित होकर शब्द बन जाते हैं। उल्लास की अधिकता मानव रूप और सौंदर्य की सीमाएं मिटाकर उन्हें अन्य सूक्ष्म स्तर पर पुनर्गठित करती है। यह स्तर सूक्ष्म है किंतु अतिइंद्रिय नहीं। सूक्ष्मता है रूप या रस के बोध में शब्द या गंध की छाया पहचानने में। धरती और आकाश देश और काल यदि परस्पर सम्बद्ध हैं तो मनुष्य के विभिन्न इंद्रियबोध भी परस्पर क्यों न सम्बद्ध हों। वसंत ऋतु पत्तों नरम की हरियाली केवल दिखाई नहीं देती उसके सूक्ष्म स्वर को सुना भी जा सकता है। इसी सौंदर्य से अभिभूत होकर महाकवि निराला कहते हैं
अमरण भर वरण -गान
वन वन उपवन -उपवन
जागी छवि खुले प्राण
इसी खुले प्राण के उत्सव का चरमोत्कर्ष है होली। होली का दर्शन रस और सूक्ष्म बोध से भरा हुआ है यह समझ में नहीं आता इस उत्सव पर कहां धरती का सौंदर्य, कहां प्रकृति का और कहां नारी का है। यही कारण है कि होली का सौंदर्य और उसके धुन प्रकृति और नारी के श्रृंगार चित्र से आगे बढ़कर लोक गीत की धुन में भी व्याप गये। वसंत और उसका उल्लास सरस प्रदेश शब्दों में गुंथ कर भदेस लोकगीतों में भी आ गया। इसी लिये यह लोकोत्सव शास्त्रीय मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाला आनंद की सहज अभिव्यक्ति है।
यही कारण है कि आज भी आधुनिकता के नाम पर बेशक जीवन के अर्थ बदल गये हैं पर गांव-कस्बों तक होली का वही आनंद बिखरा दिखता है। महानगरीय जीवन की अभिजात्यता जरूर उसे कुछ औपचारिकता में ढाल देती है पर समय के बदलाव से होली के रंग फीके नहीं हुये। कृष्ण नृत्य और गायन के उपासक थे इसलिए राधा-कृष्ण की ठिठोली के बिना होली का आख्यान पूरा नहीं होता है। होली के अवसर पर गाये जानेवाले कितने ही फाग राधा-कृष्ण के रंग में सराबोर हैं। इस प्रेम रंग के बिना होली की संकल्पना ही अधूरी जान पड़ती है। होली वस्तुत: भारतीय दर्शन की ही अभिव्यक्ति है कि प्रेम और आनंद के बिना जीवन निरर्थक है। प्रेम और आनंद शरीर मात्र का सुख नहीं है, यह तो आत्मा का शृंगार हैं। श्रीकृष्ण ने गीता में सब विषय- योगों के बीच या अलिप्त रह कर या कर्तव्य करते हुए भी फल की कामना न करते हुए अपरिग्रह भाव से जीने का रास्ता बताया है। वही प्रेम और आनंद का मार्ग है। राधा और कृष्ण युगल होकर भी असंपृक्त हैं और असंपृक्त होकर भी एकात्म हैं। भारतीय चिंतन और दर्शन की वही विशेषता है जो हमें होकर भी नहीं होने का हुनर सिखाती है और न होते हुए भी होने की स्थिति में ला खड़ा करती है।
हजारों वर्ष बाद भी भारत में उल्लास के साथ होली के रूप में यह परंपरा जीवित है तो इसका अर्थ है कि हम आधुनिकता के इस भौतिक दौर में भी जीवन के सत्य को याद रखे हुए हैं। होली की ठिठोली में जीवन के इस मर्म को समझ लिया, तो समझिये मुक्ति मिल गयी।