केवल फांसी से नहीं बनेगी बात
बच्चियों से रेप के मामले में सरकार को गंभीरता से सोचना चाहिये। जैसे खुले में शौच या स्पष्ट आय असमानता एक नैतिक सामाजिक समस्या है उस तरह बच्चियों से बतात्कार एक नैतिक समस्या नहीं है बल्कि यह एक आपराधिक समस्या है। कैलाश सत्यार्थी ने कहा है कि बच्चों का बलात्कार और यौन शोषण भारत में एक "राष्ट्रीय आपातकाल" की तरह है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2016 में बच्चियों से बलात्कार के 18,862 के मामले दर्ज किए गए थे। यानी हर दिन 50 से अधिक या आधे घंटे में दो से ज्यादा बच्चियों से बलात्कार। यह तो दर्ज किया गया मामला है, वह संख्या और ज्यादा होगी जो पुलिस के पास आती ही नहीं या थाने में लाकर रफा- दफा कर दिया जाता हो। एक राष्ट्र के रूप में हमारी भावनाओं को प्रोत्साहित करने में धर्म, राजनीति, क्रिकेट और अब बच्चियों से बलात्कार। इस घटना को भावात्मक मुद्दा देने के लिये हम तख्तियां पकड़े बाहर सड़कों पर प्रदर्शन करते हैं। इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात है कि कभी- कभी बिगड़ती नैतिकता के इस सवाल पर समाज के कुछ लोग बातें करने तक से इंकार कर देते हैं। एक सुपरस्टार ने हाल ही में कहा था कि वह इस मसले पर बात नहीं करना चाहता। बात चली थी कठुआ में एक बच्ची से बलात्कार और हत्या की। यही है हमारी मौलिक समस्या। वह है हम अपनी अक्षमता और एक बदसूरत सच के बाध्यकारी निर्णय के विपरीत कोई विकल्प तैयार करने की िस्थति ही पैदा नहीं होने देते। महिलाओं और लड़कियों के सशक्तिकरण को समर्पित एक समूह ने अपनी रपट में कहा है कि बलात्कार व्यवहार का मसला नहीं हिंसा का मुद्दा है। इस रपट में अफगानिस्तान, बेल्जियम, चीन, भारत, इंडोनेशिया, जॉर्डन, लक्समबर्ग, नीदरलैंड, नाइज़ीरिया, पाकिस्तान, पेरू, सिंगापुर, ताइवान और यमन का उदाहरण देते हुये कहा गया है कि " इन मुल्कों में सेक्सिस्ट शब्दावली का प्रयोग कानूनन बलात्कार के समतुल्य माना जाता है। ।" भारत, जाहिर है, में पितृसत्तात्मक समाज है और पितृसत्ता चलती है। पिछले कुछ हफ्तों से तर्क दिया जा रहा है कि बलात्कार एक "सामाजिक अपराध" है और इसके लिये सामाजिक समाधान की व्यवस्था की जाय । लेकिन सत्य तो यह है कि - बलात्कार एक अत्यंत हिंसक अपराध है और इसके लिये कठोर कानून बनाये जाएं। बलात्कार की शिकार महिला जीवन भर के लिए हो कलंकित और परिवर्तित हो जाती है। यह समस्या नहीं है। आदत, नैतिकता और प्रवृत्ति को खत्म करने या उसे बदलने में सम्पूर्ण जीवन लग जाता है। समस्या एठक समाज के रूप में हमारे बारे नहीं है ब्रलक हमारे संस्थान हमें बार बार पराजित कर रहे हैं। हम अपने देश के चारों ओर एक ऐसी पारिस्थितिकी का सृजन नहीं कर पा रहे हैं जो नैतिकता के इक नवीन वातावरण को पेदा कर सके। बललात्कार के ज्यादातर मामलों में बलात्कारी से बच्चियां परिचित होती हैं और वे या तो निकट रिश्तेदार होते हैं या पड़ोसी। घटना के बाद बच्चियों का घर से निकलना बंद हो जाता है या फिर , यदि मुकदमा हुआ तो वे अदालत तक जाती हैं। जबकि बलालत्कारी सामान्य जीवन जीता है। यह वह जगह है जहाँ नैतिकता की बात आती है। क्योंकि ये वो लोग नहीं हैं जो सोशल मीडिया पर नैतिकता की बात करते हैं बल्कि वे लाखों बच्चे हैं जो न्याय के लिये जूझ रहे हैं। ये वे लोग हैं जो अपराध के शिकार हुये हैं और अपराध की नैतिकता को समझाने की जिम्मेदारी उनपर है। उनसे पूछा जाता है कि वे सतर्क क्यों नहीं थीं, उन्हें सतर्क और सावधान रहना चाहिये। यह बात गले से नहीं उतरती। हमारे समाज में सम्बंधों की ढेर सारी शाखाएं हैं ओर उन शाखाओं की उतनी ही प्रशाखायें और सबकों सामाजिक मान्यता मिली हुई है। अब जबकि घटना घट जाती है तो अनेक दबाव विन्दु सक्रिय हो जाते हैं। फिर या तो मामला कोर्ट तक नहीं जाता या फिर जाता है तो धन औरय सबूत के अभाव में खत्म हो जाता है।
सरकार ने इस अपराध के लिये फांसी की घोषणा की। यह बात सुनने में तो अच्छी ल67गती है पर व्यवहारिक नहीं है। कैलाश सत्यार्थी के फाउंडेशन के अनुसार अभी देश में 1 लाख रेप के मुकदमें अदालतों में झूल रहे हैं। यही नहीं, अगर अरुणाचल या गुजरात में एक रेप का मुकदमा दर्ज होता है तो सुनवाई तक पहुंचने में उसे कई साल लग जाते हैं। 2012 में एक सामूहिक रेप की घटना हुई थी। सुनवाई भी हुई और फांसी की सजा भी सुना दी गयी पर आज तक फांसी नहीं हुई। कानून बनाने से पहले उसके लागू किये जाने की व्यवस्था जरूरी है। यही नहीं कुछ और कदम उठाने होंगे। बलात्कार के अपराधी के बारे में देश के सभही दफ्तरों को सूचित कर दिया जाना चाहिये। इसके अलालवा बलात्कार की शिकार महिला या बच्ची के काउंसिलिंग के केंद्र भी जगह जगह खोले जाने चाहिये। इसके अलावा जांच मे ढिलाई बरनते वाले पुलिस अधिकारी को भी कठोर दंड दिया जाना चाहिये। जब तक ऐसा नहीं होगा केवल फांसी से बात नहीं बनेगी।