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Tuesday, June 30, 2020

चीन के उम्मीदों पर एक और प्रहार



चीन के उम्मीदों पर एक और प्रहार


भारत सरकार ने 5जी की टेस्टिंग के लिए हुवाई कंपनी के प्रवेश पर रोक लगाकर जो उसकी उम्मीदों पर प्रहार किया था अभी उसका दर्द बाकी था कि भारत ने टिक टॉक समेत 59 एप्स पर प्रतिबंध लगा दिया भारत के बारे में जो जानकारियां तथा भारत के संप्रभुता के विरुद्ध काम करने का जो सपना था चीन का वह चकनाचूर हो गया। सरकार ने निजता की सुरक्षा के लिए यह कदम उठाया। सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 69 के अंतर्गत इसे लागू करते हुए मंत्रालय ने यह कदम उठाया।इस तरह से प्रतिबंध लगाए जाने के बाद अब भारत के करोड़ों स्माटफोन यूजर्स को यह सारे एप्स नहीं मिल पाएंगे क्योंकि एंड्रॉयड और आईओएस प्लेटफार्म से एप्स को हटा दिया जाएगा। जिनके मोबाइल में ऐप्स इंस्टॉल्ड हैं तब तक मौजूद रहेंगे जब तक वह उन्हें मैनुअली नहीं हटाते हैं। हालांकि, एप स्टोर से हट जाने के बाद उनके लिए अब अपडेट नहीं आएंगे। सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने एप्स को हटाए जाने के साथ ही कहा है कि विभिन्न स्रोतों से यह सूचना मिल रही थी कि मोबाइल एप्स का दुरुपयोग हो रहा है। चूंकि , इनका सर्वर देश से बाहर है इसलिए इसका दुरुपयोग बड़ा आसान हो जाएगा और इससे अंततोगत्वा हमारी संप्रभुता को और एकजुटता को खतरा पैदा होगा। पाबंदी की सूचना के बाद इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर्स को निर्देश जाएंगे कि वे इन एप्स को ब्लॉक कर दें। बहुत जल्दी इसे उपयोग करने वालों के पास सूचना आएगी कि इसका उपयोग सरकार आदेश के फलस्वरूप बंद कर दिया गया है। इसमें दिलचस्प बात यह है कि कुछ एप्स भारत में बेहद लोकप्रिय हैं खासकर टिक टॉक। आंकड़े बताते हैं कि भारत में इसके 10 करोड़ यूजर हैं। इसके अलावा भी कई बेहद लोकप्रिय एप्स हैं और बहुत संभव है कि लोग इसका विकल्प खोजने लगेंगे।


भारत की सदाशयता देखी थी अभी हाल में जनवरी 2020 में क्वालकम ने मोबाइल के लिए तीन नए चिपसेट स्नैप ड्रैगन 720जी, 662 और 460 बनाया था। इसमें नेविक ने भी सहयोग दिया था। नेविक एक क्षेत्रीय जिओ पोजिशनिंग सिस्टम है जो भारतीय भूमि के बारे में 1500 किलोमीटर के दायरे मैं मौजूद किसी भी वस्तु के बारे में सही सही जानकारी देगा। नेविक से 7 सेटेलाइट जुड़े हुए हैं और इनमें से3 हिंद महासागर में जियोस्टेशनरी आर्बिट में हैं और बाकी 4 जिओसाइनोक्रोनस आर्बिट में हैं। इसके माध्यम से चीन भारतीय सीमा की बिल्कुल सटीक जानकारी एकत्र कर लेता है।


कई चीनी प्लेटफॉर्म्स भारतीय निर्माता हैं। इसके बंद होने से उन लोगों की आमदनी बंद हो जाएगी जिनका यह एकमात्र स्रोत है। यही नहीं बड़ी संख्या में कार्यालय बंद हो जाएंगे और कुछ हजार नौकरियां चली जाएंगी। इन जाती हुई नौकरियों के साथ ही चीन के पक्ष में विचार बनाने के कुछ प्रोजेक्ट बंद हो जाएंगे। यह चीन के लिए बहुत बड़ा आघात होगा। क्योंकि, आधुनिक युद्ध के दौरान दुश्मन देश में एक बड़ा समूह वैचारिक समर्थन करता है तो उसके लिए सरलता होती है। सिकंदर ने जब भारत पर हमला किया तो निहत्थे चाणक्य ने उसके खिलाफ देश में वातावरण खड़ा कर दिया और नतीजा हुआ कि विश्वविजय का सपना देखने वाले सिकंदर को सिर झुकाए झेलम के तट से ही लौट जाना पड़ा। इस पाबंदी से लाभ तब होगा जब यह स्थाई हो। पिछले साल भी मद्रास हाई कोर्ट के आदेश पर इसे कुछ दिन के लिए बंद करना पड़ा था बाद में यह फिर से शुरू हो गया। लेकिन, इस बार सरकारी आदेश की भाषा और प्रतिबंध के समय को देखते हुए ऐसा लगता है कि यह स्थाई होगा। क्योंकि यह बड़े चीनी कारोबार के लिए एक चेतावनी के रूप में जारी किया गया है।





इस पाबंदी के लिए सरकार को कभी दोषी नहीं कहा जा सकता क्योंकि कई हफ्तों की बातचीत के बाद 26 जून को सिग्नल मिल गया कि बात बनने वाली और वार्ता अंधे मोड़ पर आकर खत्म हो गई है। पहली बार सार्वजनिक रूप से विदेश मंत्रालय ने कहा कि चीन ने लद्दाख में जो किया है उसके परिणाम दूर तक जाएंगे। अगर ऐसा है तो देश के हित में सोचना जरूरी है और सरकार ने जो किया वह बिल्कुल जायज है। क्योंकि आगे बातचीत से स्थिति और बिगड़ेगी। चीन नहीं चाहता शांति कायम हो।

Monday, June 29, 2020

ओली का आत्मविश्वास डगमगा रहा है



ओली का आत्मविश्वास डगमगा रहा है


विगत 2 महीनों से लग रहा है भारत सहित दक्षिणी एशिया के कई देश किसी ग्रह के चपेट में आ गए और उनके दिन खराब चल रहे हैं। भारत चीन को लेकर तथा भारत-पाकिस्तान को लेकर जो चल रहा था वह और सब जानते ही हैं अब नेपाल भी उसी संकट में पड़ गया है। नए नक्शे को लेकर भारत और नेपाल में जो तनाव शुरू हुआ वह बढ़ता हुआ चीन तक पहुंच गया। कहां नेपाल भारत से अतिरिक्त जगह पर दावा कर रहा था वहीं चीन ने नेपाल के 2 गांव पर कब्जा कर लिया। इस कब्जे का क्या जियो पोलिटिकल होगा यह तो पृथक विश्लेषण का विषय है लेकिन देश भक्ति का ज्वार लाने वाले नेपाल के प्रधानमंत्री के पी सिंह ओली को महसूस हो रहा है कि खिलाफ साजिशें चल रही है और उनका शासन खतरे में है। प्रधानमंत्री ने तो यह बात सार्वजनिक तौर पर कही है और यह भी कहा है भारत में उनके खिलाफ बैठकें में हो रही हैं। शुरू से आरंभ तक श्री ओली के मनोविज्ञान पर अगर ध्यान दें तो हर संकट के समय चाहे वह चुनाव हो या कोई और उन्होंने स्थिति से निपटने के लिए ऐसा ही कुछ कह कर कदम बढ़ाया है और इसे भी उनका इसी तरह का प्रयास माना जाना चाहिए। यह तो सर्वविदित है नेपाल के मामले से चीन द्वारा अपने लिए इस्तेमाल किया जाना साफ कहता है कि ओली इस कठिन परिस्थिति में देश को मजबूत नेतृत्व नहीं दे पाए। धीरे धीरे उनका विश्वास हो रहा है और जो बाहर दिख रहा है। इससे पहले भी उनकी सरकार के पतन का कारण बाहरी नहीं आंतरिक ही था। उनकी गतिविधियों को देखकर ऐसा लगता है कि वे मानसिक रूप से काफी घबराहट में हैं और शायद इससे उनकी ताकत कम हो जाए। प्रधानमंत्री की कार्यशैली को लेकर पार्टी के भीतर जो विरोध का स्वर उभरा है प्रधानमंत्री उसे अपने पक्ष में करना चाहते हैं।





ओली को उम्मीद कि भारत पहले की तरह उसके साथ खड़ा हो जाएगा लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पी सिंह ओली से विदेश नीति के ज्यादा समझदार है और उन्हें मालूम है ऐसे मौके पर नेपाल के साथ खड़ा होने का क्या है लेकिन ओली ने उम्मीद कर रखी थी। नरेंद्र मोदी ने भारत की ओर से कुछ नहीं किया। ना तो भारत की ओर से कोई दूत गया और ना ही भारत के विदेश मंत्री वहां गए । पार्टी के नेता उनसे पूछ रहे हैं और उनके पास कोई उत्तर नहीं है यह अपनी स्थिति को स्पष्ट करें। ओली अपनी राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को बढ़ा चढ़ा कर बताने के लिए विख्यात है वह बहुत चालाक आदमी हैंऔर पार्टी में अपने विरोधियों की बोलती बंद कर सकते हैं तथा कुर्सी पर बने रह सकते हैं। नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थाई समिति की विगत 6 महीने से कोई बैठक नहीं हुई और ओली इसे लगातार टाल रहे हैं क्योंकि उन्हें डर है की बैठक में उनकी खिंचाई होगी और कुर्सी भी हाथ से जा सकती है। लेकिन, उनके पास कोई उपाय नहीं और गत 24 जून को बैठक में उन्होंने भाग लिया। इसके पहले उन्होंने 22 और 23 जून को पार्टी के सह चेयरमैन दहल से लगातार मुलाकात की ताकि संकट को टाला जा सके। वैसे भी 44 सदस्यीय सेक्रेटेरिएट में ओली को सिर्फ 14 सदस्यों का समर्थन प्राप्त है। वे इसके पहले कई माओवादी नेताओं को भी पटाने की कोशिश में थे लेकिन कामयाबी नहीं मिली। हालांकि जैसे तैसे सेक्रेटेरिएट की बैठक में वे खुद को बचा ले गए लेकिन कब तक? नेपाल में जो सबसे बड़ी गलती की वह कि ओली ने भारत का विश्वास खो दिया। जबकि नेपाल की जनता पूजा विश्वास है कि भारत उनके साथ खड़ा रहेगा। चीन के साथ जो उसका संबंध है वह चीन के फायदे ना कि नेपाल की आम जनता के लिए। गढ़ी हुई विदेश नीति क्या आधार पर देश के स्थायित्व को शक नहीं करना चाहिए। भारत और नेपाल के संबंध ना केवल दो दोस्तों के हैं या 2 देशों के हैं बल्कि उनके बीच रोटी बेटी का संबंध है। हर भारतीय खासकर उत्तर बिहार के लोगों में से बहुत लोग नेपाल को दूसरा देश मानते ही नहीं हैं। दोनों देशों के बीच आना जाना लेन देन और खाना पीना लगातार होता है। इधर से उधर रिश्तेदारी भी हैं। दोनों देशों का साझा बाजार लगता है लेकिन अब सब खत्म हो रहा है। चीन से जो रिश्ता बना है वह हो सकता है नेपाल के उच्च वर्ग के लिए फायदेमंद हो लेकिन आम नेपाली जनता के लिए बेहद हानिकारक होगा। डर है वहां फिर आंदोलन ना आरंभ हो जाए। वर्तमान समय के सबसे बड़े चिंतक और विदेश नीति के जानकार नरेंद्र मोदी का इस संपूर्ण मामले पर चुप रहना नेपाल में किसी बड़े खतरे का संकेत है।

Sunday, June 28, 2020

चीन ने क्यों बनाया युद्ध का माहौल



चीन ने क्यों बनाया युद्ध का माहौल





लद्दाख में चीन ने बड़ी संख्या में फौजों को तैनात कर दिया है।उधर भारत ने भी 3 डिवीजन सेना को वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तैनात कर दिया है। यही नहीं भारत में आकाश मिसाइलें भी तैनात की हैं। चीन के खिलाफ 10 देश खड़े हो गए आसियान ने तो यहां तक कहा है चीन 1982 के संधि के आधार पर समुद्री सीमा को तय करे।अब सवाल है कि भारत इस सब का किस तरह जवाब दे। यह एक बड़ी गुत्थी है और इसका उत्तर खोजना जरूरी है। हमारी तो सबसे बड़ी कमजोरी है वह है हम अभी भी नवाब वाजिद अली शाह के शतरंज की बिसात में उलझे हुए हैं। हमारे रणनीतिकार या कथित विशेषज्ञ या नहीं समझ पाते की अब वह जमाना चला गया जब इसी युद्ध में राजा को घेरा जाता था और अगर राजा तो फिर विजय हो जाती थी। आज जमाना है कि दुश्मन को कई तरह की बाधाओं से इस तरह घेर लिया जाता है कि वह घुटने टेक देता है। चीन ने यही रणनीति अपनाई है। आज सोशल मीडिया को दुनिया भर में ज्ञान की बहती हुई नदी मान लिया गया है और तब जबकि अभी तक वायरस विशेषज्ञ बने बैठे विद्वान कीट विशेषज्ञ हो गए और सुशांत सिंह खुदकुशी करते ही मनोविज्ञानी हो गए और अब जबकि चीन ने हमला किया सब के सब रणनीतिकार बन गए। आज भारत और चीन ऐसी व्यवस्थाओं में बदल गए जो नई पेचीदगियों में उलझे हुए हैं और इस उलझन को इतनी आसानी से नहीं समझा जा सकता है। यहां फिर सवाल उठता है कि चीन लद्दाख में चाहता क्या है? 20 साल अतीत में जाएं और और देखें भारत किस तरह बल प्रयोग की कूटनीति के माध्यम से पाकिस्तान से निपट रहा है। भारतीय संसद पर 2001 में हमले के बाद भारत में ऑपरेशन पराक्रम शुरू किया था और इसी के माध्यम से बल प्रयोग की रणनीति आरंभ हुई थी जो बाद में बल प्रयोग की कूटनीति बन गई। इसके तहत भारत ने पाकिस्तान की सीमा पर सैनिक साजो सामान और सेना का इतना बड़ा जमावड़ा कर लिया कि मानों अभी युद्ध होने वाला है। आज लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीन की ओर से ऐसा ही कुछ किया जा रहा है। यह दिखावा इतना बड़ा है कि अमेरिकी विदेश सचिव माइक पॉम्पियो के अनुसार “अमेरिका ने इस तनाव को देखते हुए यूरोप से अपनी फौज हटाकर भारत के किनारे तैनात करने की सोच रहा है।” आज ऐसा लग रहा है लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर पूरब की ओर से भारत पर हमला होने वाला है। ऐसा लगता है कि चीनियों ने सुन जू या कन्फ्यूशियस ज्ञान के बदले यह हमीं से सीखा हो। अगर ऐसा होगा इसके जवाब में किस परिणाम की वे अपेक्षा कर रहे हैं? क्षण भर के लिए मान भी लें कि वह बल प्रयोग की कूटनीति कर रहा है यानी अगर भारत चाहता है कि वह उसके सिर पर से हट जाए भारत यह करें यह मत करें या फिर चुपचाप रहे या तीनों बातें करें। अब सवाल है कि चाहता क्या क्या है? और भारत इसका कैसे जवाब दे? इतिहास से पता चलता है कि सीमाएं कोई स्वार्थ तथ्य नहीं बल्कि गड़ी हुई वास्तविकता है सीमाओं को बेमानी बनाकर जमीन पर झाइयां बंद करने का जो हसीन सपना इन दिनों में मनमोहन सिंह देखते हैं उसे एक ऐसी दुनिया में साकार कर पाना मुश्किल होता जा रहा है जिसमें आक्रमणों पर संस्थागत संयम कमजोर पड़ता जा रहा है और सत्ता का बेबाक खेल नया चलन बन गया है। अगर संदर्भों को देखें इस बात का पता चल सकता है कि भारत में बल प्रयोग की अपनी खूबी से क्या हासिल किया था? तब उसके लक्ष्य क्या थे?... और पाकिस्तानियों ने इसका कैसे जवाब दिया था? लेकिन ऐसा लगता है उस प्रकरण को उदाहरण के तौर पर लेने में खतरे हैं, क्योंकि भारत पाकिस्तान नहीं है। नरेंद्र मोदी के साथ युद्ध का खेल खेलना खतरनाक हो सकता है। उस समय भी भारत में कभी भी युद्ध छेड़ने का इरादा नहीं किया था क्योंकि बल प्रयोग की कूटनीति तब तक कारगर नहीं हो सकती जब तक उससे युद्ध का खतरा न दिखने लगे। यह एक मजबूत देश हे जवाब की चाल थे आज जब हम वास्तविक नियंत्रण रेखा के पूरब की ओर देखते हैं ऐसा कुछ आभास नहीं होता। भारत को उस चाल से काफी कुछ हासिल हुआ और नहीं कई सालों तक अमन कायम रहा। लेकिन यहां यह बात नहीं है दोनों देश ताकतवर है और जंग की सूरत में कुछ भी हो सकता है अब ऐसे में अगर चीन बल प्रयोग का खेल खेल रहा है तो उसकी अपेक्षाएं अवास्तविक हैं। भारत ने भी कुछ ऐसी ही नीति अपनाई है। वास्तविक नियंत्रण रेखा पर पूरी तैयारी के साथ डटे रहो और सामने वाले को थका डालो। यहां यह याद रखना होगा दो घटनाएं एक समान नहीं होतीं। प्रेम हो या युद्ध इनमें कोई दो एक जैसे नहीं होते। इसलिए धमकी अगर हाथापाई में बदलती है तो हमें इसके लिए भी तैयार रहना पड़ेगा। क्योंकि प्रयोग की कूटनीति इतनी असली दिखनी चाहिए कभी-कभी हमें भी लगेगी जान का खतरा है। चीन की इस चाल का जवाब यही है दूसरे पक्ष की ओर से युद्ध की आशंका को इतना वास्तविक माना जाए कि वह इस पर यकीन करने लगे।

Saturday, June 27, 2020

चीन ने जमीन हथियाने के लिए हमला नहीं किया



चीन ने जमीन हथियाने के लिए हमला नहीं किया





वास्तविक नियंत्रण रेखा पर गलवान घाटी के संघर्ष बिंदु से भारत और  अपनी फौजें पीछे हटने लगी हैं लेकिन जैसी की खबर मिल रही है कि चीन ने इस बार देपसांग में तंबू गाड़ दिया है और घुसपैठ की कोशिश में है। चीन इस इलाके में काराकोरम दर्रे के पास वाले इलाकों में कब्जा करना चाहता है भारत में चीन के राजदूत ने कहा इस समय और संघर्ष तनाव का रास्ता है और गलत है। राजदूत में भारत से कहा है कि वह ऐसी कार्रवाई ना करें जिससे हालात और जटिल हो जाएं। दरअसल, वास्तविक नियंत्रण रेखा पर स्थित रणनीति का उद्देश्य सामरिक है जोकि स्वाभाविक है। किसी भी संघर्ष का अंतिम लक्ष्य अपनी शर्तों पर टिकाऊ शांति ही होता है। यद्यपि यह केवल कहने के लिए ही है। जहां कहीं भी दो राष्ट्रों के बीच प्रतिस्पर्धा होती है और उसके चलते संघर्ष होता है तो स्थाई शांति केवल यूटोपिया है। उधर चीन काराकोरम दर्रा के आसपास के इलाकों पर कब्जा करना चाहता है इसमें उसका स्वार्थ है। जब से भारत ने अधिकृत कश्मीर के आतंकी अड्डों को खत्म कर दिया है तब से पाकिस्तान को खतरा पैदा हो गया है कि हो न हो एक दिन भारत इस क्षेत्र पर कब्जा कर लेगा। इस क्षेत्र में जहां पाकिस्तान का अंदरूनी राजनीतिक स्वार्थ है वहीं चीन का आर्थिक स्वार्थ भी है। यही कारण है कि लद्दाख से काराकोरम तक जहां चीन ने मोर्चा खोला हुआ है वही पाकिस्तान ने भारत के विरुद्ध कूटनीतिक और आतंकवादी मोर्चा खोल दिया है। इससे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हो जहां परेशानी होगी वही आज पूरे देश में एक सुलझे हुए आदमी के खिलाफ वातावरण बनेगा। जहां भारतीय राजनयिकों को पाकिस्तान से निकाला जा रहा है और उन के साथ दुर्व्यवहार हो रहा है वही अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी भारत के खिलाफ बयानबाजी करने से पाकिस्तान चूक नहीं रहा है। अभी हाल में पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरेशी ने स्पष्ट कहा कि ” चीन ने भारत के खिलाफ कार्रवाई कर ठीक किया है क्योंकि भारत ने विवादित इलाके में निर्माण शुरू कर दिया था।” यह सब 2019 के फरवरी में पुलवामा पुलवामा हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच शुरू हुए तनाव को और बढ़ाता है और यह उम्मीद करना कि तनाव जल्दी दूर हो जाएगा ठीक उसी तरह है जिस तरह यह उम्मीद करना हमारी जिंदगी कोरोनावायरस से मुक्त हो गई है। पाकिस्तानी लोग खुश हैं कि भारत कूटनीतिक तौर पर अलग-थलग पड़ गया है और नरेंद्र मोदी परेशान हैं।


भारत की संप्रभुता और भौगोलिक अखंडता दांव पर है। सैन्य नजरिए से देखें लगता है कि भारत में चीन का हमला और अतिक्रमण रोक दिया है और किसी भी स्थिति के लिए सेना चौकस है। 15 और 16 जून के बीच की रात दोनों प्रतिद्वंद्वियों को स्थिति के नए सिरे से आकलन के लिए बाध्य कर दिया है। क्योंकि चीन को यह एहसास हो गया है कि जब घूसों और डडों की लड़ाईऔर बर्बर हो सकती है तो फिर आज के भारत की सेना के साथ हथियारबंद जंग कैसी होगी। चीन इसी कारण से गलवान घाटी से पीछे लौटने और कूटनीतिक वार्ता को आगे बढ़ाने पर तैयार हो गया। जो खबरें मिल रही हैं उससे तो ऐसा लगता है अब घाटी में चीनी सेना मौजूद नहीं है। वार्ताओं के पहले दौर में इन बातों पर सहमति हुई और 22 जून को दूसरे दौरे की बातचीत के बाद पूर्ववर्ती वार्ताओं में हुई सहमति में क्या बदलाव लाया गया किसी को मालूम नहीं है। वास्तविक नियंत्रण रेखा पर दोनों देशों सेना कहां रहेगी यह भी नहीं मालूम है। पहाड़ी इलाकों में संघर्ष ऊंचे ठिकानों पर नियंत्रण के लिए होते हैं और उस इलाके की घाटियां रसद के भंडारण और वाहनों के आने-जाने के काम आती है। इसलिए, अभी जो गलवान घाटी में हुआ वह केवल झलकियां हैं। भारत को चोटियों पर नियंत्रण करना चाहिए क्योंकि बिना उसके घाटियों पर नजर नहीं रखी जा सकती। उपग्रह चित्रों के मुताबिक फिंगर 4 और फिंगर आठ के बीच का इलाका अभी भी चीन के कब्जे में है। यह क्षेत्र काफी ऊंचाई वाला है और उन जगहों पर छीनने संजय सुविधाओं निर्माण किया है इस तरह करीब 40 वर्ग किलोमीटर का अपना इलाका अब चीन के कब्जे में है इस इलाके में अप्रैल तक भारतीय सेना मुस्तैदी से गश्त लगाती थी। पूरी लड़ाई समग्र रूप से देखें कार्रवाई सामरिक प्रभाव वाली है और उसे रणनीतिक रूप दिया गया है। इसका उद्देश्य है कि भारत के लिए एक अप्रिय स्थिति पैदा कर जवाबी कार्रवाई की ललकारना। जिससे पहले से परेशान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और ज्यादा परेशान हो जाए तथा उनकी प्रतिक्रिया युद्धक हो जाए तथा सारी दुनिया में इसे इस्तेमाल करना आरंभ कर दे।





1959 में भारत द्वारा दलाई लामा को शरण देना और इसके बाद सीआईए के साथ मिलकर कथित तिब्बती विद्रोहियों को ट्रेनिंग दिया जाना 1962 के युद्ध के प्रमुख कार्यों में शामिल था। क्योंकि तिब्बत की निर्वासित सरकार और तिब्बती सैनिकों की उपस्थिति को चीन अपनी संप्रभुता पर खतरा मानता था और तिब्बत की आजादी के लिए भारत द्वारा मदद को वह प्रमुख मानता था अब भी चीन मानता है कि अमेरिका और उसके सहयोगियों के साथ मिलकर भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर और विशेष रूप से दक्षिण चीन सागर तथा हिंद प्रशांत क्षेत्र में उसके सामरिक हितों को कमजोर कर रहा है। कुल मिलाकर देखें तो चीन चाहता है कि भारत क्षेत्रीय और वैश्विक स्तरों पर उसे “बड़ा भाई” मान ले। जबकि भारत चाहता है एक सीमित संघर्ष में हिना को झटका लगने पर भारत को अपने राजनीतिक लक्ष्यों को हासिल करना संभव हो जाएगा। हमारे पास चीन के मुकाबले के लिए पर्याप्त सैनिक क्षमता है लेकिन अभी हम जिस आर्थिक मोड़ से गुजर रहे हैं उस मोड़ पर चीन से संघर्ष के फलस्वरूप हम पीछे चले जाएंगे। शायद यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने राजनीतिक उद्देश्यों को हासिल करने के लिए अपने कूटनीतिक और सैन्य साधनों का कुशल प्रबंधन किया है ।

Thursday, June 25, 2020

कोविड-19 से लड़ाई में बढ़ रही है लापरवाही



कोविड-19 से लड़ाई में बढ़ रही है लापरवाही


पश्चिम बंगाल सरकार ने लॉक डाउन की अवधि बढ़ाकर 31 जुलाई कर दी है लेकिन जितनी छूट मिल रही है वह मिलती रहेगी। सरकार ने यह फैसला सर्वदलीय बैठक के बाद किया। वैसे भी कोरोना महामारी एक निर्णायक और खतरनाक दौर में पहुंच गई है। लॉकडाउन में देशव्यापी छूट दिए जाने के बाद सरकार और मीडिया का फोकस दूसरे मुद्दों पर चला गया। राजनीतिक नेताओं की प्राथमिकताएं बदल गयीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब घोषणा की कि लॉकडाउन धीरे धीरे पूरी तरह खत्म कर दिया जाएगा। इस घोषणा के बाद यह धारणा जोर पकड़ ली कि अनलाॅक डाउन1 के बाद अनलॉकडाउन 2 भी आएगा। अनलॉक डाउन 2 आएगा अथवा नहीं यह तो बाद की बात है लेकिन फिलहाल नए मामलों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। रोजी रोटी के लिए लॉकडाउन हटाना जरूरी था लेकिन इसके साथ ही यह जरूरी था कि प्रशासन का ध्यान इस पर रहे। पर्याप्त सोशल डिस्टेंसिंग हो, सफाई हो और रोगी के संपर्क में आने वालों की पहचान जरूरी हो। लोगों के मन में बैठाना होगा कि महामारी अगर बढ़ी लॉकडाउन और बढ़ा दिया जाएगा। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। यहां तक कि अनलॉक डाउन के बाद कोविड-19 के अस्पतालों में तैनात डॉक्टरों को भी संक्रमण लगा। लोगों को लगा आजादी मिल गई और लोग बिना मास के भीड़भाड़ वाली जगहों में घूमने लगे। कोलकाता महानगर के सबसे जनसंकुल बाजार बड़ा बाजार और कैनिंग स्ट्रीट में धक्का-मुक्की शुरू हो गई। किसी को इस बात की परवाह नहीं थी कि संक्रमण बढ़ सकता है और वह भी इसके शिकार हो सकते हैं। लॉकडाउन के दौरान लोगों में जो संगम देखा गया था वाह तेजी से टूटता देखा गया।


महामारी को काबू में करने के लिए पिछले 4 महीनों में देशभर में प्रशासन ने प्रशंसनीय काम किया। पूरे देश में एक तरह से वार रूम बनाकर जिस तरह से प्रशासन और राजनीतिक नेताओं ने काम किया तारीफ के काबिल था। उदाहरण के लिए कोलकाता महानगर के आसपास जितनी झोपड़पट्टी थी उसमें प्रशासन ने इसे फैलने से रोका। यही हाल मुंबई के धारावी में हुआ। इससे जाहिर होता है अगर प्रशासन किसी काम को मिशन मान ले और नेता उसमें समर्थन दें तो कहीं बेहतर प्रदर्शन हो सकता है। लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि मिशन वाली भावना अगर खत्म हो गई और चलता है वाला रवैया शुरू हुआ तो प्रशासन फिर पिछले ढर्रे पर लौट आएगा जो कुछ हासिल हुआ वह समाप्त हो जाएगा। कोलकाता में यही हुआ इनफ्लुएंजा आदि बीमारी की शिकायतें लेकर अस्पतालों में आने वालों की लाइन लग गई और फिर जांच के दौरान मामलों की संख्या बढ़ती गई यह सामुदायिक संक्रमण के स्पष्ट लक्षण हैं। मीडिया कामयाबी की खबरों की तलाश में घूमता रहेगा। लेकिन मीडिया ने या किसी और ने नतीजे पर ध्यान नहीं दिया। नतीजा तीन बातों पर निर्भर करता है वे हैं संयोग, दिशा और विकल्प। यहां आकर यह भी मानना होगा ऐसे मामलों में किस्मत भी अहमियत रखती है, पिछला इतिहास भी महत्व रखता है। यह भी महत्वपूर्ण है कि फैसले कितनी अच्छी तरह लागू किए जाते हैं और उसमें लोगों का कितना सहयोग मिलता है। ध्यान देने की बात है कि कई बार एक जगह के मुकाबले दूसरी जगह अच्छा काम हुआ। क्यों हुआ? मीडिया के हवाले से या सरकारी रणनीतियों की एक तस्वीर जरूर पेश करें लेकिन उपलब्ध होगी। विभिन्न तरह के मॉडल का प्रोजेक्शन करके यह जरूर बताया जा सकता है कि सब कुछ ठीक-ठाक है लेकिन ऐसी बातों से खतरा और बढ़ेगा। लोग जीत का एलान करने लगेंगे और ऐसे काम करने लगेंगे मांगो सब कुछ सामान्य हो गया। जीत के पहले जीत का जश्न मनाना खतरनाक होता है क्योंकि इसमें धोखे की गुंजाइश ज्यादा होती है और ऐसी मनोस्थिति से बचना जरूरी है। नेता और प्रशासन ऐसे मामलों की तस्वीर नहीं देखना चाहते। और इससे भी ज्यादा खतरनाक बात यह है कि इसकी तुलना आरंभ हो जाती है और सामने कसौटी पर वह जगह होती है जहां स्थिति बेहतर हो। ऐसी हालत में मामलों की संख्या कम दिखाने के लिए टेस्टिंग कम की जाती है। परिणाम यह होता है अचानक बड़ी महामारी सामने आ जाती है और सामुदायिक संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है। इस खतरे के मुकाबले के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय का एक पैमाना तय करना चाहिए और राज्य सरकारों पर छोड़ देना चाहिए कि वह कितनी टेस्टिंग कराना चाहती है। केंद्र सरकार प्रति सप्ताह 10 लाख आबादी पर 2500 टेस्टिंग का शुरुआती पैमाना तय करे। यह राज्यों, जिलों, नगर पालिकाओं पर लागू हो। यह शुरुआती पैमाना धीरे धीरे और जब तक उनकी पूरी आबादी के न्यूनतम 2% हर 10 लाख की आबादी पर 20000 टेस्टिंग ना हो जाए तब तक इसे बढ़ाते रहना चाहिए और फिर अपेक्षित पॉजिटिव रेट हासिल होने तक टेस्टिंग लागू रहे।





यही नहीं रोगी के संपर्क में आने वालों की पहचान कभी पैमाना तय किया जाए इसे हासिल करने के लिए बेहतर उपाय तैयार किए जाएं कोई चलताउ सूचना इस बारे में नहीं जारी किया जाए। लॉकडाउन के उद्देश्य महामारी के बढ़ते ग्राफ को सीधा करना था और स्वास्थ्य सेवा में सुधार करना था। लॉकडाउन के दौरान इसके तेज विस्तार को तो रोकने में कामयाबी मिली लेकिन स्वास्थ्य सेवा में कितना सुधार हुआ इसकी कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है। कोविड-19 के मामलों और मौतों की संख्या बताने वाले तो कई स्रोत है लेकिन टेस्ट की दर, टेस्ट पॉजिटिविटी की दर, अस्पतालों में उपलब्ध सुविधाओं इत्यादि के बारे में बताने वाले शिरूर हर जिले में होने चाहिए। खतरे को कम करने का यही एक उपाय हैं। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सभी दलों से बातचीत करके लॉक डाउन की अवधि तो बढ़ा दी है लेकिन इसके साथ ही अगर अन्य बातें नहीं हुईं जैसे टेस्टिंग, अस्पतालों में सुविधाओं का विस्तार इत्यादि तब तक इस वृद्धि से कोई लाभ नहीं होने वाला।

पीछे हटना तो तय हुआ पर समय सीमा क्या है?



पीछे हटना तो तय हुआ पर समय सीमा क्या है?


गलवान घाटी में भारत तथा चीन के बीच बहुत ही तीखा संघर्ष हुआ, सीमा की रक्षा करते हुए भारत के कई सैनिक शहीद हुए। इसके बाद दोनों देशों में सैनिक तथा कूटनीतिक स्तर पर बातें हुई एवं दोनों ने पीछे हटना मंजूर किया। बातचीत लगभग 11 घंटे चली इस वार्ता में समय सीमा नहीं तय हुई कि कब तक चीन पीछे हटेगा। मंगलवार को भारतीय सेना अध्यक्ष एमएम नरवाने दो दिवसीय दौरे पर लेह पहुंचे। घायल सैनिकों को देखने के लिए अस्पतालों में गए। उन्होंने अग्रिम मोर्चे का भी दौरा किया। वैसे चीन और भारत में पीछे हटने का जो करार हुआ उससे लगता है दोनों देश एक बफर जोन बनाना चाहते हैं। समझौते के अनुसार वहां सेना की संख्या कम करना और सैनिक शिविरों को हटाना भी है। बीजिंग में चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता झाओ ली जियान ने कहा कि दोनों देश चाहते हैं कि मतभेद को सही ढंग से सुलझा लिया जाए।


वैसे भारत और चीन सीमा पर मौजूदा विवाद की शुरुआत अप्रैल के तीसरे हफ्ते में हुई थी। रक्षा विशेषज्ञों के अनुसार उस समय वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीन की सैनिक टुकड़ियों और भारी ट्रकों की संख्या में भारी वृद्धि देखी गई थी। इसके बाद मई महीने में चीनी सैनिकों की गतिविधियां देखी गयीं। चीनी सैनिकों को लद्दाख में सीमा का निर्धारण करने वाली झील में भी गश्त करते देखे जाने की बात भी सामने आई। 2018-19 वार्षिक रिपोर्ट में भारत के रक्षा मंत्रालय ने कहा था कि सरकार ने सीमा पर 3,812 किलोमीटर सड़क निर्माण के लिये चिन्हित किया है। इसमें से 3418 किलोमीटर लंबी सड़क बनाने का काम बी आर ओ को दिया गया है और परियोजनाएं लगभग पूरी हो गई है। विशेषज्ञों के अनुसार यही निर्माण कार्य दोनों देशों की तरफ से विवाद का असली कारण है, लेकिन एकमात्र वजह नहीं है। यही नहीं पिछले वर्ष धारा 370 को हटानाभारत की विदेश नीति विषय में हुए बदलाव, चीन की आंतरिक राजनीति और कोरोना के इस दौर में विश्व राजनीति में अपना वजूद कायम रखने के लिए चीन के प्रयासों को भी इसमें जोड़कर देखा जाना चाहिए। इससे पहले 1975 में भारतीय सेना के गश्ती दल पर अरुणाचल प्रदेश में एल ए सी पर चीनी सेना ने हमला किया था। उसके बाद देशों के राष्ट्राध्यक्षों में कई मुलाकातें हुईं। ऐसा लगा कि के साथ सीमा पर सब कुछ ठीक हो गया। नरेंद्र मोदी जब से भारत के प्रधानमंत्री बने हैं उनकी चीन के राष्ट्रपति पिछले 6 वर्षों में 18 बार मुलाकात हुई है लेकिन इस संघर्ष के बाद दोनों देशों में तनाव बढ़ता सा दिख रहा है।





चीन और भारत में बातचीत को अगर देखें तो लगता है कि वह बहुत जल्दी और बहुत आसानी से मान गया लेकिन चीन का मनोविज्ञान ऐसा नहीं है कहीं ना कहीं उसके हाथ दब रहे हैं। क्योंकि इस समय हमारे देश में लोकतंत्र की अराजक प्रकृति और प्रधानमंत्री के बयान पर बेवजह भ्रमित करने वाले संदेशों पर मचे बवाल के परिपेक्ष्य में आसान नहीं है कि चीन इतनी जल्दी बातें मान ले।पूरी दुनिया में इस खूनी और क्रूर संघर्ष के जो संदेश पहुंचे दो तरह के थे। पहला की शोषित लोगों के सहारे फली फूली गैर पश्चिमी ताकत जिसे करोड़ों लोगों को दरिद्रता के गर्त से बाहर निकालने के कारण थोड़ा सम्मान मिला है वही चीन भारत पर धौंस दिखा रहा हैऔर वह भी कुछ वर्ग किलोमीटर जमीन के एक विवादित टुकड़े के लिये। ब्रिटेन जैसी औपनिवेशिक ताकतों के साथ किए गए समझौतों अवमानना पूर्ण सहायता के साथ नजरअंदाज करने वाला देश अपने साथी एशियाई महाशक्ति थोड़ी भी संवेदनशीलता नहीं दिखा रहा है। इससे साफ जाहिर है पूरी दुनिया में दोनों पक्ष की जीत के बारे में हुई संवेदनशीलता नहीं है। 1962 की जंग के बाद जवाहरलाल नेहरू अपमानित करने के बारे में उसने एक बार भी नहीं सोचा। सच तो यह है कि नेहरू के बाद के सभी प्रधानमंत्री जानते थे कि भारत अक्साई चिन वापस नहीं दे पाएगा। मोदी भी इस तथ्य को जान चुके थे।


ताजा संघर्ष का दूसरा संदेश दरअसल एक परिणाम है वह कि भारत की सेना में अपना हक जताने को लेकर अधिक आत्मविश्वास है। उसने ड्रैगन को सबक सिखा दिया और वह भी हथियार से नहीं विशुद्ध पराक्रम से। यह कारगिल 2.0 नहीं है बल्कि उसका 21वीं सदी का संस्करण और पाकिस्तान की जगह चीन है। इसका श्रेय प्रधानमंत्री मोदी को ही जाएगा क्योंकि भारतीय सैनिकों ने छक्के छुड़ा दिया और वह भी के कार्य काल में। भारतीय सैन्य इतिहास में एक निर्णायक मोड़ है। लगता है कि , यहीं थोड़ी जिच होगी।

Monday, June 22, 2020

चीन को आर्थिक नुकसान पहुंचाना होगा



चीन को आर्थिक नुकसान पहुंचाना होगा





चीन ने पकड़े गए सभी भारतीय सैनिकों को सकुशल वापस कर दिया। इससे जाहिर होता है कि डर है कि भारत कहीं किसी दूसरे मोर्चे पर हमले ना कर दे। चीन और भारत के बीच दो ही संबंध हैं एक सीमा को लेकरहै और दूसरा व्यापार को लेकर। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्पष्ट कहा कि भारत की सीमा में कोई नहीं घुसा और ना ही किसी क्षेत्र पर चीन ने कब्जा किया। सर्वदलीय बैठक में यद्यपि सभी दलों ने की रक्षा के मामले में प्रधानमंत्री का पूर्ण समर्थन देने का वादा किया चीनी सामानों के बहिष्कार का भी नारा लगाना शुरू कर दिया है। देशभर में चीनी सामान के बहिष्कार की मुहिम छिड़ी हुई है। आम लोग भी लगातार इस मुहिम से जुड़ कर चीन को आप शिक्षा देने के पक्ष में है। इसके साथ ही वोकल फाॅर लोकल के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नारे के साथ ही मांग भी उठ रही है देश में बने सामानों का ज्यादा से ज्यादा उपयोग हो।


साथ ही , अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा है कि वह भारत और चीन से बातें कर रहा है तथा इस चुनाव पर नजर रखे हुए हैं। ट्रंप ने पत्रकारों से कहा यह बहुत मुश्किल परिस्थिति है और दोनों के बीच बड़ी समस्या है हम देखेंगे कि आगे क्या होगा और हम उनकी मदद करने की कोशिश रहे हैं। लेकिन यहां एक सवाल उठता है कि अमेरिका ने इतनी देर से क्यों मुंह खोला वह अतीत में तो लगातार ऐसे मामलों पर बोलता रहा है। दक्षिण एशिया में अमेरिका अपनी मजबूत कूटनीति की स्थिति को लेकर हमेशा सजग रहा है और यही कारण है कि वह भारत-पाकिस्तान या भारत-चीन मामले में बोलने में देर नहीं करता।


इधर, भारत और चीन मैं सीमा विवाद और प्रतियोगी भावना हमेशा रही है लेकिन आर्थिक निर्भरता ओं के कारण यह भावना सबकी नजर आ रही थी। गलवान घाटी में हुई झड़प ने फिर से कड़वाहट को सामने ला दिया।


बेशक, चीनी सामानों पर भारत में प्रतिबंध लगा दिया जाए तो कमर टूट सकती है लेकिन इसमें ढेर सारे मामले में किंतु परंतु है और उनकी समीक्षा किए बगैर इस तरह का कदम उठाना उचित नहीं होगा। चीन के सामानों का बहिष्कार उन्मादी नारे लगाते विरोधी दल इस बारे में सोचते नहीं और इस संबंध में प्रधानमंत्री की चुप्पी व्याख्या दूसरे ढंग से करते हैं। एक बार जरा सोचें, चीन से आयात बंद कर दिया जाए और उसकी जगह कोरिया या जापान ले लें तो क्या होगा? चीन से लगभग 2.5 खरब डालर का आयात होता है जिसमें भारत का हिस्सा महज प्रतिशत है। चीन का विदेशी मुद्रा भंडार लगभग 3 खरब डॉलर है और उसका व्यापार बहुत ज्यादा है। अब इससे ही अंदाजा लगा सकते हैं कि हम वर्तमान में इस पर कितनी छूट पहुंचा पाएंगे। बहुत संभावना है कि अगर चीनी आयात बंद होता है तो उसकी जगह कोरियाई ले लेंगे। एडोल्फ हिटलर से राष्ट्र नायक सुभाष चंद्र बोस की बातचीत का एक हिस्सा याद आता है कि हिटलर ने मदद के लिए भारत में उपद्रव की शर्त रखी थी। वह दूसरे विश्वयुद्ध का जमाना था और “सुभाष चंद्र बोस ने साफ इनकार कर दिया कि वह ब्रिटिश गुलामी हटाकर जर्मन की गुलामी नहीं करना चाहते और ना भारत में ऐसा होने देंगे।” कहीं को हटाने के बाद भारत ऐसे ही स्थिति में ना पड़ जाए। दूसरी बात कि भारत में सबसे मामूली चीजों की मैन्युफैक्चरिंग बंद हो गई है और अगर वह चीजें बनती थी हैं तो उसकी लागत ज्यादा पड़ेगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना करने वाले यह कथित कट्टर राष्ट्रवादी शायद ऐसा नहीं सोच रहे हैं। इसका दूसरा पक्ष भी है अगर चीन जवाबी कार्रवाई की तो क्या होगा? यह सही है चीन का आयातित सामान भारत का विकल्प नहीं है। लेकिन सस्ता है और भारत में आम आदमी की पहुंच में है। यदि आयात बंद होता है तो उन चीजों की कीमतें बढ़ जाएंगी। फ्री ट्रेड कोई सरल काम नहीं है। 19वीं सदी के मध्य में जाकर ब्रिटेन फ्री ट्रेनर बना और वह भी तब जब औद्योगिक क्रांति के बाद बढ़त हासिल कर ली। अमेरिका कभी फ्री ट्रेड की पैरवी करता था आज वहां अमेरिका फर्स्ट का नया लग रहा है। आयात का विकल्प ढूंढना या जैसा कि प्रधानमंत्री ने कहा है आत्मनिर्भर बनना एक बहुत अच्छी बात है लेकिन जरूरी है पहले यह लक्ष्य हासिल कर लिया जाए। जिन देशों ने इसे हासिल किया है उन्हें अपने देश में पहले बाजार का अनुशासन कायम करना पड़ा है । भारत के साथ सबसे बड़ी दिक्कत है की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सत्ता में आने से पहले भारत एक ऐसा नरम राष्ट्र था जो विशेष स्वार्थ के आगे कमजोर हो जाता था। इसलिए प्रधानमंत्री ने कई बार कहा कि हमें आत्मनिर्भर बनना पड़ेगा और मेक इन इंडिया पर ध्यान देना होगा। यह आनन फानन में नहीं हो सकता। अब की स्थिति बन रही है उससे लगता है कि भारत और चीन के रिश्ते जल्दी ही फिर पटरी पर नहीं आएंगे क्योंकि भारत में भावनात्मक उफान आया हुआ है और ऐसे में भारत के पास खुद अपनी स्थिति मजबूत बनाने के सिवा कोई विकल्प नहीं है।





यह सब जानते हैं व्यापार का मकसद विक्रेता और खरीददार दोनों का मुनाफा होता है। इसमें राजनीति तो सब गड़बड़ हो जाएगा। यही कारण है कि मोदी जी धैर्य से काम ले रहे हैं। जैसा कि सुना जा रहा है भारत टेलीकॉम सेक्टर से अलग रखेगा क्योंकि इसके माध्यम से जासूसी का खतरा है। यही नहीं क्वालिटी के मामले में चीन बदनाम है इसलिए ऐसे मामलों में जिसमें क्वालिटी बहुत अच्छी चाहिए जैसे थर्मल पावर प्लांट इत्यादि। हो सकता है इसके जवाब में चीनयदि दवाओं के मामले में भारत पर रोक लगाता है जैसे का तैसा बर्ताव किया जाना चाहिए और जवाब में रेलवे का उसका ठेका रद्द कर दिया जाना चाहिए। मोदी जी की चुप्पी यह बताती है कि वे चीन पर निशाना साधेंगे लेकिन इसमें चालाकी और धैर्य जरूरी है।

Saturday, June 20, 2020

चीन को घेरना जरूरी



चीन को घेरना जरूरी





जो हुआ वह होना था लेकिन इतना दुखद था उससे कहीं ज्यादा विकट स्थिति हो सकती थी यदि भारत अभी स्पष्ट और उद्देश्य पूर्ण जवाब देने में हिचक दिखाता। चीन ने अब तक कई बार कई ऐसी कार्रवाई की है जिससे संकेत मिलते हैं कि वह भारत के खिलाफ प्रतिरोधात्मक कार्रवाई कर रहा है और नई दिल्ली इसे नजरअंदाज करती आई है। आज जब मामला बिगड़ा तो सब लोग लगातार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ उंगली उठा रहे हैं लेकिन कोविड-19 से दो-दो हाथ करने से लेकर मजदूरों के पलायन उनकी दुर्गति , अर्थव्यवस्था की निम्न गति और उस पर से चीन का हमला आखिर एक नेता कितनी मुश्किलों से उलझे। इसके लिए और भी लोग हैं और उन्होंने इस ओर शायद गंभीरता से इशारा नहीं किया। हां एक बात रेखांकित की जा सकती है कि भारत ने इस पर भी जोर दिया है कि वह चीन की घेराबंदी के किसी प्रयास में शामिल नहीं होगा। लेकिन, चीन अपनी बदतमीजियों से बाज नहीं आने वाला। उसके बताओ ना बिल्कुल स्पष्ट संकेत दिया है कि उसका उद्देश्य और उसके मंशा इस क्षेत्र में एकाधिकार कायम करने की है। इसी की उपलब्धि के लिए वह अपनी पूरी ताकत झोंक रहा है। एक निहायत अविश्वसनीय पड़ोसी है और आप सब कुछ कर सकते हैं पड़ोसी नहीं बदल सकते। चीन एक ऐसी ताकत है जिसके साथ भारत कभी भी शांति से नहीं रह सकता। उसका इरादा स्पष्ट है कि वह आगे रहने की होड़ में किसी की परवाह नहीं करता। इस बार हमला कर भारत के सामने यह स्पष्ट तौर पर विकल्प रख दिया है कि वह मैत्री और शत्रुता वैसे कुछ भी चुन ले। आज नहीं तो कल भारत को एक विकल्प चुनना ही होगा। चीन के बढ़ते कदम के आगे रोड़े अटकाना इसलिए जरूरी नहीं कि उसने भारतीय सैनिकों को मार डाला या वह विभिन्न तरीकों से भारत को घेरता रहा। उसे घेरना और रोकना इसलिए जरूरी है कि वह ऐसी कोई चीज नहीं छोड़ेगा जो आज तक करता आया है। वह पड़ोसियों पर हमले से बाज नहीं आएगा और ना वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तनाव घटाने की कार्रवाई में शामिल नहीं होगा। चीन का विरोध करना अब हमारी मजबूरी बन गया है। हालांकि, यह सरल नहीं होगा। भारत प्रशांत क्षेत्र में सबसे अमीर देश है और इसकी सैनिक क्षमता भी अन्य देशों की तुलना में कहीं ज्यादा है और बर्बर है। सैनिक क्षमता के बारे में केवल भारत ही इसके सामने टिक पाएगा।


युद्ध की संभावना से डरे सब देश सुन ले


यहां युद्ध भी है बुद्ध भी है जिसे चाहे चुन लें





यहां चीन की ताकत को ही हथियार बनाना होगा। चीन ने अपनी ताकत के अहंकार में अधिकांश पड़ोसी देशों को दुश्मन बना लिया है। उसकी आक्रामक व्यापार नीति ना केवल चिंता बढ़ाती है बल्कि कई देशों में चीन की बाजार में पैठ के खिलाफ आंदोलन सुगबुगाने लगे हैं। अभी चीन दक्षिणी चीन सागर को हथियाने के यह कदम आगे बढ़ा रहा है। चीन कभी संयम नहीं बरतता है और ना व्यवहारिकता दर्शाता है। यह चीन की एक गंभीर खामी है जो क्षेत्र को प्रभावित करती है। चीन की भौगोलिक स्थिति भी उसकी कमजोरी है। यह सही है ही संचार की आंतरिक रेखा वाले एक बड़े देश के अपने कुछ फायदे हैं और यह भारत समेत आस्ट्रेलिया तथा जापान जैसे देशों के बीच समन्वित कार्रवाई में मुश्किलें पैदा करते हैं। चीन कुछ ऐसे चेकप्वाइंट्स से घिरा हुआ है जो इसकी कमजोरी बन गया है क्योंकि व्यापार पर निर्भर देश है। विभिन्न क्षेत्रीय ताकतों के बीच समन्वय इन चेकप्वाइंट्स पर नियंत्रण हासिल करने और उन्हें पूरी तरह काट देने में मददगार हो सकता है बशर्तें कभी इसकी जरूरत पड़े। आर्थिक और सैन्य क्षमता के मामले में भारत प्रशांत क्षेत्र के ताकतवर देशों में एक है और अगर भारत को इंची नहीं लेगा तथा अन्य छोटी ताकतों की इच्छा कम होगी तो चीन की यह मंशा कभी पूरी नहीं हो सकती। नई दिल्ली ने अब तक ही माना है दूसरों के संतुलन साधने के प्रयासों के बीच स्वतंत्र राह अपना कर चला जा सकता है। लेकिन ऐसा तभी होता है जब दूसरे भी अपना भार खुद ही वहन करने के लिए पूरी तरह तैयार हों। लेकिन इस रवैये में थोड़ा रिस्क है क्योंकि सभी हित धारक ऐसे ही किनारा करेंगे तो नुकसान सबका होगा। यदि भारत जैसा एक ताकतवर देश अलग राह पर चलता रहे इस तरह की घेराबंदी और मुश्किल हो जाएगी। इसलिए भारत को सबसे पहले चीन से आर्थिक रिश्तों को सीमित करना पड़ेगा। भारत के 5जी सिस्टम से हुआवेई को तुरंत प्रतिबंधित करना होगा। यह न केवल रणनीतिक रूप से रूट पहुंचाएगा बल्कि इसके जरिए समझो इस भी जा सकता है भारत की प्रतिबद्धता क्या है। भारत को पाक अधिकृत कश्मीर के माध्यम से चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारे पर अपनी आपत्ति फिर से जाहिर करनी चाहिए और यही नहीं पाक अधिकृत कश्मीर को सैन्य बलबूते पर हासिल करने की योजना बनानी चाहिए। चीन को घेरने के लिए भारत को धुरी बनना होगा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस ओर कदम बढ़ा दिया है। क्योंकि इसके लिए इस तरह की छोटी लड़ाई जरूरी है लेकिन साथ ही ध्यान रखा जाना चाहिए यह एक क्षेत्र में ही सीमित रहे लेकिन यदि लड़ाई बड़ी हो गई इसके लिए भी तैयार रहा जाए। ध्यान रखा जाना चाहिए युद्ध हमारी पसंद के समय और स्थान पर हो। पर्वतीय क्षेत्रों में युद्ध में मौसम और जलवायु बड़ी भूमिका निभाते हैं। आज पूरा देश प्रधानमंत्री के पीछे खड़ा है और हमारी सेना लक्ष्य प्राप्त करने में किसी से पीछे नहीं है।


क्यों नहीं आसमान में सुराख हो सकता है





एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों

Friday, June 19, 2020

चीनी गतिविधियों से दोबारा हमले का अंदेशा



चीनी गतिविधियों से दोबारा हमले का अंदेशा 


हरिराम पाण्डेय





कोलकाताः चीन भारत पर दुबारा  की तैयारी में है और हो सकता है वह इस बार मध्य क्षेत्र से हमला करे। राजनयिक सूत्रों के मुताबिक चीन बहुत बड़ी संख्या में सेना को लॉजिस्टिक सपोर्ट के साथ ल्हासा से नरी की ओर ले जा रहा है। 1250 किलोमीटर के इस रेंज में तिब्बत की तरफ से बड़ी संख्या में ड्रोन भारत के किसी भी प्रयास की खबर देने के लिए साथ साथ चल रहे हैं। नरी नेपाल के उत्तरी पश्चिमी सीमा से सटता है। नेपाल की कम्युनिस्ट सरकार और उस पर से भारतीय सीमा को लेकर उससे तनाव और फिर चीन का उसके पास आकर बैठना अपने आप में खतरनाक लग रहा है।


यही नहीं, यहां चीनी महावाणिज्य दूतावास में बुधवार को बहुत ही गोपनीय बैठक हुई और इस बैठक में तय किया गया कि कम्यूनिस्ट रुझान वाले पश्चिम बंगाल में चीन समर्थक जनमानस तैयार किया जाए और इसके लिए कुछ चुनिंदा नेताओं को महावाणिज्य दूतावास में चाय पर आमंत्रित किया गया है। यहां यह बता देना प्रासंगिक होगा सोमवार की रात जो हमले हुए उनके पहले जिन ड्रोन से भारतीय सेना की गतिविधि का अध्ययन किया गया था वह नेपाल के रास्ते चीन से कोलकाता लाया गया था और वहां से उन्हें गलवान घाटी के पास पहुंचाया गया था।


सन्मार्ग बहुत पहले सेना की निगरानी के लिए ड्रोन्स का प्रयोग किये जाने के बारे में जानकारी दे दी थी। चीन के तिब्बत पर कब्जे का विरोध करने वाले एक तिब्बती लामा ने गुरुवार को दोपहर सन्मार्ग को बताया कि इतनी बड़ी गतिविधि की खबर भारतीय पक्ष को नहीं है। वैसे यहां खुफिया सूत्रों ने इस बारे में केवल मुस्कुरा कर जवाब दिया कि इस पर कार्रवाई की जा रही है। सूत्रों ने बताया कि चीनी सेना ने लगभग 2 ब्रिगेड सैनिकों को रवाना किया है। सेना के पास फिलहाल ये जानकारी है लेकिन चीन की सारी गतिविधि अभी उसकी सीमा में हो रही है इसलिए देखने के सिवा कोई चारा नहीं है। चीन की कोशिश है कि वह तिब्बत से गिलगित बालटिस्तान और जोड़ दे। सूत्रों के मुताबिक इसी प्रोजेक्ट के तहत उसने ल्हासा से कूच किया है। यह क्षेत्र गर्मियों और बरसात में सुगम है इसलिए अंदेशा है कि चीन इन्हें दो-तीन महीनों में कुछ करे।


सूत्रों के मुताबिक वह एक तरफ अति वामपंथी दलों जैसे माओवादी इत्यादि को धन और विस्फोटक मुहैया कराकर भारत के भीतर आंदोलन तथा आतंक का वातावरण तैयार कर सकता है और फिर भारत के सीमावर्ती स्थानों में चीन समर्थक विचारधारा का प्रचार करें और फिर कोई कदम उठाए जिससे भारत में अंदरूनी गतिविधियां ना हो सके। चीन केरल से लेकर उत्तर प्रदेश के अंत तक एक रेड कॉरिडोर बनाने की कोशिश में है। इसकी खबर खुफिया सूत्रों के पास पहुंच चुकी है और यही कारण है कि माओवादियों के हर प्रयास विफल हो रहे हैं।

प्रधानमंत्री को राजनीतिक फैसला लेना ही पड़ेगा



प्रधानमंत्री को राजनीतिक फैसला लेना ही पड़ेगा





महाभारत की कथा है कि जब कृष्ण ने शांति कायम करनी चाही तो उन्हें गिरफ्तार करने की कोशिश की गई उस समय कृष्ण को अपना विराट स्वरूप दिखाना पड़ा। आज भारत चीन सीमा पर कुछ ऐसा ही हो रहा है। भारत की शांति वार्ता को चीन मानने को तैयार नहीं है और वह हमले के लिए भुजाएं फड़का रहा है। ऐसे में भारत के पास केवल एक ही विकल्प है कि वह शांति वार्ता से अपेक्षित परिणाम की उम्मीद छोड़ दें और किसी और रास्ते की तलाश करे। लोकतंत्र में यह इतर रास्ता राजनीतिक फैसलों के गलियारों से होकर गुजरता है, इसलिए प्रधानमंत्री को राजनीतिक फैसलों कि ओर भी देखना होगा। जरा गौर करें, सोमवार की रात चीन और भारत की सेना में हिंसक झड़प हुई और भारतीय सेना के 20 जवान शहीद हो गए। यह सभी 16 बिहार रेजीमेंट के जवान थे। पहले जवानों की शहादत की खबर आई बाद में सेना के बयान के मुताबिक गंभीर रूप से घायल अन्य 17 जवान भी वतन पर कुर्बान हो गए। भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव ने अपने बयान में कहा कि वार्ता के जरिए दोनों देशों में तनाव कम करने पर सहमति बनी थी और लगा इस सब कुछ ठीक हो गया लेकिन 15 जून की रात में चीन ने अपना रुख बदल दिया। उसने यथास्थिति को नकार दिया और भारतीय चौकियों पर हमला कर दिया। भारतीय सेना के जवानों की शहादत की खबर पर देश में राजनीति गर्म हो गई और विपक्षी दलों ने प्रधानमंत्री से जवाब मांगना शुरू कर दिया। प्रधानमंत्री का एक वीडियो संदेश आया जिसमें उन्होंने कहा कि हमारे सैनिकों की शहादत बेकार नहीं और हमारे सैनिक दुश्मन की सेना को मारते हुए शहीद हुए हैं , यानी प्रधानमंत्री क्या कहना था कि केवल हमारा ही नुकसान नहीं हुआ है। हमारे देश के अखबारों में और अन्य समाचार मीडिया में यह खबर आई चीन के सैनिक भी मारे गए। कुछ मीडिया में तो भारतीय सैनिकों के हाथ मारे गए चीनी सैनिकों की संख्या भी बताई गयी, लेकिन चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने इसकी पुष्टि नहीं की है। प्रवक्ता ने कहा कि उनके पास कोई जानकारी नहीं है और दोनों पक्ष बातचीत के जरिए विवाद को सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं ताकि शांति कायम रहे। लेकिन अशांति की जड़ गलवान घाटी पर चीन ने अपना दावा जताया है। यहां तक कि बुधवार को भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर से चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने टेलीफोन पर बातचीत पर शांति की बात तो की पर साथ ही कहा कि घाटी पर उसका अधिकार है। चीनी विदेश मंत्री इस हमले को अचानक हुआ हमला बता रहे थे परंतु भारतीय विदेश मंत्री ने दृढ़ शब्दों में कहा कि यह सोची समझी गई योजना के तहत हुआ है। लेकिन चीन यह मानने को तैयार नहीं है और उसने कड़ी आपत्ति दर्ज कराते हुए भारत को कहा है कि वह अपने सैनिकों को शक्ति से रोके कोई भी एक तरफा कार्रवाई अगर फिर से हुई तो मामला जटिल हो जाएगा। चीन की बातों से लगता है कि उसके मन में कुछ और है और मुंह में कुछ और। वहां कम्युनिस्ट तानाशाही तो पहले से थी ही अब वह एक ठग राष्ट्र बनता जा रहा है वह ना तो अंतरराष्ट्रीय नियमों को मांगता है और ना ही द्विपक्षीय समझौतों का सम्मान करता है। अक्सर देखा गया है चीन द्विपक्षीय समझौतों का दूसरे राष्ट्र के खिलाफ इस्तेमाल करता है। 1962 के पहले हिंदी चीनी भाई भाई और पंचशील सिद्धांतों की रट लगाते हुए उसने भारत पर हमला कर दिया। वह द्विपक्षीय समझौतों को दूसरे राष्ट्रों के खिलाफ उपयोग तो करता है पर खुद कभी नहीं मानता। भारत का कहना है कि इस घटना से दोनों देशों के संबंधों पर बुरी तरह से प्रभाव पड़ेगा और चीन की आक्रामकता से द्विपक्षीय संबंध भंग हो जाएंगे। 1993 से आज तक भारत के साथ चीन के पांच सीमा समझौते हुए हैं लेकिन इन समझौतों से अतिक्रमण रोकने में कहीं कोई सहायता नहीं मिली। चीन ने चुपके से भारत के एक हिस्से को अपने कब्जे में कर लिया और अब कहता चल रहा है कि यह सदा से उसका हिस्सा रहा है। आज चीन जिस गलवान घाटी पर दावा किया है उस पर उसने अब तक नहीं किया। 1962 के युद्ध के बाद गलवान घाटी और आसपास की सभी रणनीतिक ऊंचाइयों पर कभी घुसपैठ नहीं की थी। भारत को महसूस हो रहा था इधर से खतरा नहीं है और उसने इन ठिकानों को बिना सैनिकों के छोड़ दिया। यह उसकी सबसे बड़ी गलती थी। यह इलाके सामरिक दृष्टिकोण से बहुत ही महत्वपूर्ण हैं।





आज भी भारत को यह भ्रम है कि तमाम समझोतों से मुकरने के बावजूद हमें लगता है कि बिना कुछ दिए भारत चीन को फिर से यथास्थिति में लाने का प्रयास कर सकता है या हम उन्हें कुछ दे सकते हैं और उसे सार्वजनिक करने की जरूरत नहीं है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने इसी रुख की तरफ इशारा किया, जब उन्होंने कहा - सभी विषय सही समय पर सामने लाए जाएंगे। डोकलाम संकट को शांत करने में राजनीतिक चतुराई का उपयोग किया गया था लेकिन आज स्थिति दूसरी है। चीन ने फेस ऑफ की जगह पर कोई बदलाव नहीं किया है लेकिन उसने डोकलाम पठार के अधिकतर हिस्से पर कब्जा कर लिया है और खतरनाक यह है कि भारत खामोश है। भारत की इस खामोशी को चीन ने उसकी कायरता समझ ली और दूसरी तरफ मोर्चा खोलने का साहस करने लगा। लेकिन इस बार हालात दूसरे हैं, बड़े ऊंचे सामरिक दांव लगे हुए हैं। ऐसे में चतुराई भरे समझौतों की कोई गुंजाइश नहीं है और लद्दाख को लेकर बिल्कुल अलग नजरिए की जरूरत है। इसे खतरा नहीं बल्कि एक आवश्य के रूप में देखा जाना चाहिए। चीन की नीति इस मामले में छल पूर्ण है। आज तक देखा गया है वह ऐसे किसी हमले के माध्यम से दो कदम आगे बढ़ जाता है और फिर समझौतों के नाम पर एक कदम पीछे चला आता है और इस तरह वह एक कदम पर कब्जा कर लेता है। गलवान घाटी, हॉट स्प्रिंग और पैंगाॅन्ग त्सो मुख्य क्षेत्र है जहां विवाद बना हुआ है। सेना प्रमुख एमएस नरवाणे इशारा किया है कि सेनाएं एक चरणबद्ध तरीके से अलग हो रही है और गलवान में काफी हद तक अलग हो चुकी हैं। लेकिन यह राजनीतिक जुमला है अलग होने का मतलब यथास्थिति बहाल हो जाना नहीं है और सैनिक सूत्रों के मुताबिक चीनी अभी भी नई जगहों पर बने हुए हैं और वहां भारतीय गश्ती दल को रोका जा रहा है। समझौते के नाम पर कुछ महीने गुजर जाएंगे और चीन अपनी पुरानी नीति के मुताबिक एक कदम पीछे लौट आएगा। इससे हमारी उपलब्धि क्या होगी? यह एक ऐसी समस्या है जिससे भारत को राजनीतिक तौर पर निपटना होगा और यह समस्या हमें ऐसा अवसर दे रही है। नरेंद्र मोदी अपने कड़े रुख के लिए और दृढ़ निश्चय के लिए विख्यात हैं और इस मौके पर उन्हें यह दिखाना होगा कि भारतीय सेना कमजोर नहीं है और वह चीनियों का मुकाबला कर सकती है लेकिन इसके पीछे राजनीतिक इच्छाशक्ति आवश्यक है। चीन ठग है और भारत को उसकी ताकत के झांसे में नहीं आना चाहिए । चीन के भीतर ही बहुत परेशानियां हैं और भारत में इतनी क्षमता है कि वह चीन की समस्याओं- ताइवान और दक्षिण चाइना सी - को लेकर उसकी ताकत को कमजोर कर सकता है। अब तक के तनावों का अगर मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें तो लगता है चीन भारत को हराना नहीं चाहता वह चाहता है भारत उसे बॉस मान ले। खाली इलाकों में कब्जा कोई कब्जा नहीं है यह तो एक तरकीब है जिसका उपयोग चीन ने भारत, भूटान और साउथ चाइना सी इलाके में कई दशकों तक किया है। भारत की राजनीतिक चार ऐसी हो उसके इस अमल पर रोक लग जाए। भारत का रुख ऐसा हो कि “चलें इससे निपट ही लेते हैं।” भारत के सामने इस समय आर्थिक संकट है और इसी वजह से चीन ने भारत की सामरिक स्वायत्तता को कमजोर करने की कोशिश की। भारत का रुख साफ होता जा रहा है। वह समझौतों के कंफर्ट जोन में लौट रहा है और यह केवल बैंड एड का काम करती है। भविष्य में राजनीतिक दुराचार की गुंजाइश रहेगी। अब बहुत हो गया अब सरकार को कोई ना कोई स्टैंड लेना चाहिए। चीनियों के दिमाग से इस बात को निकाल देना चाहिए कि वह भारत से बड़ी शक्ति है और भारत को झुका सकता है। चीन को यह स्वीकार करना होगा भारत कभी किसी खेमे में नहीं रहेगा लेकिन दांव पर लगे मुद्दों को देखते हुए वाह उन्हीं देशों के खेमे में बैठेगा जिनके साथ उसके साझा हित होंगे। बस भारत को अपना खेल ही से शुरू करना चाहिए। इसके लिए राजनीतिक फैसलों की बहुत बड़ी आवश्यकता है और अब वक्त आ गया है के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले की तरह कोई कठोर राजनीतिक फैसला लें। देश का सम्मान इसी से बचेगा।

Wednesday, June 17, 2020

खतरा आखिर किस ओर बढ़ रहा है



खतरा आखिर किस ओर बढ़ रहा है


भारत और चीन के बीच एक बार फिर तनाव बढ़ गया है। दोनों देशों की सीमा पर यह विवाद अप्रैल में तीसरे हफ्ते से शुरू हुआ। विवाद को खत्म करने के लिए बातचीत का सहारा लिया जाने लगा लेकिन कोई उपलब्धि नहीं हुई और विवाद ने हिंसक रूप ले लिया। अगर इस पूरे विवाद का बारीकी से विश्लेषण करेंगे तो इसके पीछे एक पूरा पैटर्न दिखाई पड़ेगा। सोमवार की रात जो हुआ उससे स्पष्ट हो गया कि सीमा विवाद का हल निकालने की जो कोशिश चल रही थी वह नाकाफी है और दोनों देशों को कुछ नए रास्ते अपनाने होंगे। जहां तक पैटर्न की बात है तो गौर से देखें पिछले साल चीन ने घुसपैठ की 650 कोशिशें की थी। यानी, चीन की तरफ से घुसपैठ की कोशिशें लगातार बढ़ रही हैं। यही नहीं चीन ने वास्तविक नियंत्रण रेखा के करीब एक अच्छी सड़क बना ली है। इस सड़क के माध्यम से वह सारा सामान, हथियार और सैनिक जल्द से जल्द वास्तविक नियंत्रण रेखा पर पहुंचा सकता है। इसके कारण चीनी सेना काईगो बढ़ा है और उसके प्रदर्शन में आक्रामकता बढ़ती गई है। जरा देखें , दोनों देशों में जब भी झड़पें हुई हैं हाथापाई तक ही सीमित रही हैं बंदूकों का उपयोग नहीं हुआ। यही नहीं, चीन की तरफ से घुसपैठ की कोशिशें एक जगह से नहीं कई जगहों से हो रही हैं। यही कारण है दोनों देशों में स्थिति इतनी तनावपूर्ण हो गई कि उसने हिंसा का रूप ले लिया। दिलचस्प बात यह है कि ऐसा तब हुआ जब दोनों देश अपनी सीमाओं पर से सेना को हटा रहे थे। 1962 की जंग के बाद दोनों देशों ने यह कोशिश की कि सीमा पर शांति और स्थिरता कायम रहे। विगत 2 वर्षों में दोनों देशों में अनौपचारिक शिखर वार्ता भी हुई। इस दौरान दोनों देशों के नेताओं ने आश्वासन दिया कि वह अपने अपनी सेना को शांति बनाए रखने का निर्देश देंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। फिलहाल, चीन के प्रति दुनिया में काफी आक्रोश है इसलिए चीन नहीं चाहेगा की परिस्थिति युद्ध वाली बने। उसके पास भारत से संबंधों को बिगाड़ने का कोई विकल्प नहीं है। यह वक्त दोनों देशों को सीखने और सबक लेने का वक्त है। अगर सीमा विवाद को सुलझा दिया जाए तो दोनों देशों की सेना के बीच जो कंफ्यूजन है वह खत्म हो जाएगा। लेकिन प्रश्न है कि दोनों देश इस विवाद को सुलझाएं कैसे? विवाद जिस जगह को लेकर है इस पर दोनों दावा कर रहे हैं। इसके कई तरीके हैं। पहला कि भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस तरह का दबाव बनाए कि चीन भी भारत की बात को मानने के लिए मजबूर हो जाए। दूसरा तरीका है कि दोनों देशों की पेट्रोलिंग टीम जब निकले इसके रूट की सूचना दे दे। इस तरह की सूचना का पहले से आदान-प्रदान से संघर्ष की स्थिति नहीं आएगी और अगर आती हुई है कम आएगी। तीसरा तरीका है कि दोनों देशों की जब फ्लैग मीटिंग हो तो दोनों देश अपने-अपने दावे वाली जगहों के नक्शों का आदान प्रदान करें। जहां तक खबर है उसके अनुसार दोनों देशों के बीच सेंट्रल सेक्टर के नक्शों का आदान-प्रदान हुआ है लेकिन पूर्वी और पश्चिमी इलाके का नहीं।


चीन की शिकायत है कि भारत ने जबरदस्ती वास्तविक नियंत्रण रेखा पर सरखेज यादी बनाई है जो द्विपक्षीय समझौतों को भंग करता है। ग्लोबल टाइम्स ने बहुत ही कठोर शब्दों में लिखा है के नई दिल्ली ने सीमा मसले पर बहुत ही कड़ा रुख इसके लिए दो गलतफहमियां जिम्मेदार हैं। भारत को यह मुगालता है कि अमेरिका के बढ़ते दबाव के कारण चीन संबंध नहीं करना चाहता है इसलिए वह उकसावे की कार्रवाई का जवाब नहीं देगा। हालांकि अखबार ने स्वीकार किया है दोनों देश बहुत बड़े देश है और सीमा पर शांति बनाए रखना चाहते हैं। इसलिए चीन सीमा मामले को युद्ध में नहीं बदलना चाहता।


वैसे आज का सबसे बड़ा हथियार अर्थव्यवस्था है और अर्थव्यवस्था के लिए बाजार जरूरी है। भारत चीन के लिए एक बहुत बड़ा बाजार है। दोनों देशों के बीच कारोबार में वृद्धि बहुत तेजी से हुई है। सन 2000 में दोनों देशों के बीच का कारोबार केवल 3 अरब डालर था और केवल 8 वर्षों में यह बढ़कर 51. 8 अरब डालर हो गया। भारत और चीन दोनों बहुत बड़े व्यापारिक साझेदार हैं । 2018 में दोनों देशों के बीच 95. 54 अरब डालर का व्यापार हुआ इसका मतलब है दोनों देश एक दूसरे की आर्थिक जरूरत हैं। लेकिन 2019 से व्यापार करने लगा और इस समय यह 92.7 अरब डालर है। भारतीय विदेश मंत्रालय की वेबसाइट के अनुसार 2018 में भारत ने जो सामान का निर्यात किया उसकी कीमत18.84 अरब डॉलर थी। अगर वार्ता के माध्यम से रिश्ते नहीं सुधरे तो इसका असर सीधे निवेश पर पड़ेगा और कोविड-19 के इस दौर में कोई भी इस जोखिम को उठाना नहीं चाहेगा। चीन को अगर बड़ी आर्थिक ताकत बना रहना है तो उसे भारत से रिश्ते सुधार नहीं होंगे और इसका राजनीतिक असर यह पड़ेगा कि अगर रिश्ते नहीं सुधरे तो जिनपिंग की सत्ता को भी खतरा है। जिनपिंग जानते हैं कि अगर उनकी पार्टी को पावर में रहना है तो भारत के साथ बिगाड़ महंगा पड़ेगा। दूसरी तरफ वर्तमान स्थिति है उसमें पड़ोसी देशों से रिश्ते खराब कर युद्ध जैसी स्थिति बनाना भारत भी नहीं चाहेगा। लेकिन, इस पूरे मामले में चीन की मंशा साफ दिखती है कि वह भारत को हड़काते रहना चाहता है ताकि भारत अमेरिकी पक्ष में ना चला जाए और उसका एक मजबूत बाजार खत्म हो जाए। सामरिक स्तर पर चीन की इस दोगली नीति से भारत को सतर्क रहना होगा । वैसे हमारे देशवासियों को भी हर चुनौती से मुकाबले के लिए तैयार रहना होगा। ऐसे कठिन समय पर अपनी निजी मान्यताओं और एजेंडो को अलग रखकर केवल देश के बारे में सोचना होगा। ….सतर्क रहना पड़ेगा इस खतरा किस ओर बढ़ रहा है।

नेपाल का अविवेकपूर्ण कदम



नेपाल का अविवेकपूर्ण कदम


नेपाल में संविधान संशोधन विधेयक पारित हो गया। 275 सदस्यों वाले सदन में इसके पक्ष में 258 वोट मिले। आर जे पी सदस्य सरिता गिरी ने इसका विरोध किया लेकिन पार्टी ने इस विरोध को वापस लेने के लिए मजबूर कर दिया। इस विधेयक के पारित हो जाने के बाद नेपाल ने भारत के साथ बातचीत के सारे दरवाजे बंद करें और इस मसले को सुलझाने के सभी अवसर गंवा दिए। भारत ने इस पर प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए कहा कि यह नकली विस्तार का दावा मान्य नहीं है क्योंकि यह सबूतों और ऐतिहासिक वास्तविकताओं पर आधारित नहीं है। यही नहीं सीमा मसले पर बाकी बातचीत के अवसरों को भी खत्म कर देता है। मंत्रिपरिषद के फैसले के तुरत बाद ओली सरकार ने भारत से बातचीत के दौरान पेश करने के लिए ऐतिहासिक वास्तविकताओं और सबूतों को इकट्ठे करने के लिए 9 सदस्यों की एक टीम का गठन किया। विख्यात नक्शा नवीस और नेपाल के पूर्व डायरेक्टर जनरल ऑफ सर्वे बुद्धि नारायण श्रेष्ठ ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि सरकार ने पहले ही नक्शा जारी कर दिया है अब इसके बाद ऐतिहासिक वास्तविकताओं और सबूतों को एकत्र करने के लिए विशेषज्ञों की टीम का गठन आखिर क्यों किया जा रहा है। पूर्व राजदूत दिनेश भट्टराई ने कहा कि मंत्रिपरिषद के निर्णय के बाद टीम का गठन ठीक वैसे ही है जैसे घोड़े के आगे गाड़ी लगाना। उनका विचार है इस तरह टीम से भारत के साथ वार्ता के दौरान नेपाल की स्थिति कमजोर हो जाएगी।


बहुत बाद में विदेश मंत्री ग्यावली शिपीशली ने कहा कि टीम का उद्देश्य सीमा मामले पर भारत से बातचीत के समय तथ्य मुहैया कराना है ना कि सबूत और ऐतिहासिक वास्तविकताओं को तलाशना। विदेश मंत्री इस मुगालते में हैं कि सीमा मामले पर गंभीर रुख अपनाने से नेपाल से बातचीत के लिए भारत अपने विशेषज्ञों के साथ काठमांडू दौड़ा आएगा ।


संसद में वोट के तुरंत बाद विदेश मंत्री ग्यावली ने घोषणा की कि हम जल्दी ही बातचीत शुरू करेंगे और कूटनीति के माध्यम से समस्या का समाधान होगा। अब सवाल उठता है कि नेपाल के सरकार ने संविधान संशोधन विधेयक के लिए क्यों जल्दबाजी की? ऐसा लगता है कि सरकार ने सोचा होगा कि सीमा मामले पर राष्ट्रीय बड़बोलेपन से विपक्षी दलों की जुबान बंद हो जाएगी और स्थितियां उनके पक्ष में हो जाएंगी। लेकिन सच तो यह है कि नेपाल में राष्ट्रवाद का ज्वार उफन रहा है और इसमें शासन गाैण हो गया है ऐसे में कोई भी ओली सरकार के खिलाफ मुंह नहीं खोलेगा। पूर्व प्रधानमंत्री एवं एनसीपी में वरिष्ठ सहयोगी जलानाथ खनाल ने कहा कि “ यहां कोई पार्टी नहीं है केवल ओली हैं।”


विपक्षी दल नेपाली कांग्रेस ने घोषणा की है कि जब आम जनता भूख से मर रही है व्यापारी और व्यवसायी मदद के लिए मुंह जोह रहे हैं अर्थव्यवस्था में वृद्धि की जरूरत है तो सरकार ने इनकी तरफ से आंखें मूंद ली हैं। इस बीच प्रधानमंत्री निवास के समक्ष प्रदर्शन शुरू हो गए जिसे बलपूर्वक तितर बितर किया गया और अब या देश भर में खाएंगे और जल्दी ही संकट का रूप ले लेगा तथा नक्शा राष्ट्रवाद इसमें कोई सहायता नहीं करेगा। 1000 से ज्यादा लोग काठमांडू में और सैकड़ों लोग देशभर में आर्थिक पारदर्शिता की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं और कोविड-19 के बेहतर प्रबंधन के लिए आवाज उठा रहे हैं। लोग क्वॉरेंटाइन की स्थिति में सुधार, पी सी आर के पूर्ण इस्तेमाल तथा कोरोनावायरस के प्रसार को रोकने के लिए किए गए धन के व्यय का खुलासा करने की मांग कर रहे हैं। इसमें शामिल होने वाले लोग अधिकांश नौजवान हैं और किसी पार्टी से नहीं जुड़े हैं तथा उन्होंने सोशल मीडिया के माध्यम से एक दूसरे से संपर्क किया और नियत स्थान पर एकत्र हुए। या विरोध प्रदर्शन पोखरा, विराटनगर , चितवन, और बीरगंज फैल गया। प्रदर्शन बिल्कुल शांतिपूर्ण हैं। इस बार प्रधानमंत्री निवास के समक्ष कुछ ज्यादा लोग करते हुए लेकिन उन्हें तितर-बितर करने के लिए आंसू गैस के गोले दागे गए जबकि प्रदर्शनकारियों के हाथ में केवल दफ्तियां थीं और वे सोशल डिस्टेंसिंग का पालन भी कर रहे थे। इसमें दिलचस्प बात यह है कि कुछ विदेशी भी माटीघर मंडल में इस प्रदर्शन में शामिल थे। पुलिस ने 7 विदेशियों को हिरासत में लिया है, इसमें चीनी, अमेरिकी ,फ्रांसीसी ,कनाडा और ऑस्ट्रेलिया के लोग हैं। नेपाल से पहला दल 11 तारीख को कुवैत से लौटा। यहां के लोग बड़ी संख्या में खाड़ी के देशों और मलेशिया में हैं तथा इन्हें वापस लाने के लिए बड़ी संख्या में विमान चाहिए। सरकार ने काठमांडू में चलने वाले वाहनों मे सम और विषम की प्रणाली लागू कर दी है। वहां मोटरसाइकिल चलाने की अनुमति तो दे दी गई है लेकिन पीछे किसी को बैठाने के लिए इजाजत नहीं दी गई है। जनता के दबाव के कारण सरकार लॉकडाउन में और ढिलाई देने पर विचार कर रही है। सरकार ने केंद्र, राज्यों और स्थानीय निकायों के माध्यम से 8.39 अरब रुपए खर्च करने का मोटे तौर पर हिसाब तैयार किया है। वहां पशुपतिनाथ का मंदिर अभी बंद रहेगा और कहा जा रहा है यहां चढ़ावे में लगभग 10 लाख रुपए रोज आते थे जो अभी बंद है इसके अलावा विदेशों से भी भारी संख्या में रुपए आते थे।


सरकार ने कोविड-19 की रोकथाम और नियंत्रण के लिए गठित उच्च स्तरीय कोऑर्डिनेशन कमिटी को भंग कर दिया है और इसी उद्देश्य के लिए गठित क्राइसिस मैनेजमेंट सेंटर ने इसकी जगह ली है। लेकिन सबसे बड़ा संकट यह है कि जब यह राष्ट्रवाद के नारे का ज्वार उतरेगा और यदि भारत ओली के ईगो को आघात पहुंचाएगा तब होली के सामने ऐसे जटिल सवाल खड़े होंगे जो इस समय देश के समक्ष हैं। ओली की अयोग्यता से सब वाकिफ हैं। मार्क मर्फी ने कहा था कि असली ज्ञान अपनी अज्ञानता को समझना है लेकिन ओली अपनी अज्ञानता से अवगत नहीं हैं और जो भी कदम उठा रहे हैं वह अविवेकपूर्ण है। ऐसी स्थिति भविष्य में पूरे देश के लिए घातक हो सकती है क्योंकि वहां चीन प्रवेश कर चुका है।

इस किरदार की जरूरत क्या थी



इस किरदार की जरूरत क्या थी





सुशांत सिंह राजपूत पढ़ने को तो इंजीनियरिंग पढ़ी थी पर लाइफ हो रफ्तार टी वी से मिली । सुशांत दुर्भाग्यवश उन कलाकारों की फेहरिस्त में थे जो युवा थे होनहार थे और संघर्ष के बावजूद कामयाब थे लेकिन जिन्होंने इस दुनिया को बहुत पहले अलविदा कह दिया। टीवी से वह फिल्मों में आए थे। लगभग एक दशक से कुछ साल पहले सुशांत को लोगों ने पहली बार टीवी पर देखा। एक सीरियल था किस देश में है मेरा दिल और फिर 2009 में दिल पर एक सीरियल आया था पवित्र रिश्ता जिसके माध्यम से सुशांत रातो रात भारत के नौजवानों के दिलों की धड़कन बन गए। रिस्क लेने की सुशांत की काबिलियत और उसका साहस गजब का था। जब रोजगार का साधन नहीं था तो इंजीनियरिंग छोड़कर एक्टिंग में कूद गए और मुंबई में एक थिएटर ग्रुप में शामिल हो गए। 2011 में उन्हें पवित्र रिश्ता मैं मुख्य भूमिका मिली लेकिन सुशांत ने उसे स्वीकार नहीं किया। उनके इनकार से सिनेमा की समझ रखने वाले सभी लोग चौक पड़े। लगभग 2 साल तक उनका अज्ञातवास चला । नए-नए सितारों से भरे टीवी और सिनेमा की दुनिया में 2 साल की गैर हाजिरी काफी लंबी मानी जाती है। 2013 में गुजरात के दंगों की पृष्ठभूमि में उनकी पहली फिल्म आई काई पो चे। किसी नई फिल्म मैं किसी नए कलाकार के लिए इसमें एक्टिंग बहुत ही चुनौतीपूर्ण की फिर भी इसमें सुशांत की एक्टिंग शानदार थी। सुशांत की दूसरी खूबी थी विविधता। वह विविधता से एक्सपेरिमेंट करते थे। अब जबकि एक्सपेरिमेंट था ही इसमें सफल और असफल दोनों होना होता है। 6 साल के फिल्मी जीवन में पर्दे पर वह कभी महेंद्र सिंह धोनी हो गए तो कभी ब्योमकेश बक्शी तो कभी शादी के रिश्ते पर सवाल उठाने वाले शुद्ध देसी रोमांस की भूमिका निभाने वाले रघु राम भी।मैं सबसे ज्यादा शोहरत मिली महेंद्र सिंह धोनी पर बनी फिल्म धोनीःअनटोल्ड स्टोरी के लिए। संजय लीला भंसाली करणी सेना लगातार विरोध कर रही थी और हमला कर रही थी तो सुशांत सिंह राजपूत विरोध स्वरूप अपना सरनेम ट्विटर से हटा दिया था और केवल सुशांत रख लिया।


इंजीनियर सेक्टर बने सुशांत को ज्योतिष का भी बहुत शौक था और लॉकडाउन के दौरान वह लगातार पोस्ट डालते रहते थे लेकिन उन्होंने अपना भविष्य नहीं देखा। एक फिल्म चंदा मामा दूर के में अंतरिक्ष यात्री के रूप में काम करने वाले थे और इसके लिए वह नासा जाकर एक अंतरिक्ष यात्री की मुश्किलों की बारीकियों से अध्ययन करना चाहते थे।





उन्होंने अपनी आदतों के प्रतिकूल सोन चिड़िया में लाखन नाम के डाकू का भी रोल किया था। उनका यह डायलॉग हमेशा याद रहेगा जब मनोज बाजपेई सुशांत से पूछते हैं कि उन्हें मरने से डर लग रहा है लाखन बने सुशांत कहता है “एक जन्म तो निकल गया इन बीहड़ों में दद्दा, अब मरने से काहे डरेंगे।”



भारत नेपाल को आपस में बातें करनी चाहिए





भारत और नेपाल में सीमा को लेकर तनाव चल ही रहा था सीतामढ़ी जिले के बॉर्डर पर नेपाल सीमा रक्षकों ने भारतीयों पर फायरिंग कर दी।इस घटना में सीमावर्ती गांव का एक नौजवान मारा गया। प्रत्यक्षदर्शियों का आरोप है मारे जाने के बाद उसके शव को पुलिसकर्मी सीट कर नेपाल सीमा में ले गए। जब ग्रामीणों ने आक्रोश जाहिर किया और हंगामा होने लगा तो वह उसे छोड़कर भाग निकले इसे लेकर ग्रामीणों में भारी तनाव है। इसकी शुरुआत नेपाल के नए नक्शे को लेकर हुई थी। नये नक्शे में भारत के कालापानी, लिपुलेख और लिंपियाधूरा को नेपाल का हिस्सा बताया गया है। इसे पिछले महीने नेपाल की सत्तारूढ़ पार्टी ने जारी किया था। भारत ने इस पर यह कहते हुए आपत्ति जतायी थी कि यह ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित नहीं है। हालांकि, नए नक्शे को लेकर भी नेपाल में सभी लोग एकमत नहीं हैं। कई लोगों का तो यह मानना है कि नेपाल के प्रधानमंत्री ओली नक्शे को देखकर अपनों को संतुष्ट करने में लगे हैं और राष्ट्रीय बड़बोले नारों के बीच देश की समस्याओं को नजरअंदाज कर रहे हैं। लोगों के सवाल पर वह ध्यान नहीं दे रहे हैं यहां तक कि वह संसद को यह भी नहीं बताना चाह रहे हैं कोविड-19 के लिए एकत्र किए गए 10 खरब रुपयों को कहां खर्च किया गया। इधर नक्शे का विवाद और उधर पुलिस की फायरिंग के कारण दोनों देशों के बीच संबंध तनावपूर्ण होते जा रहे हैं। भारत की तरह नेपाल में भी लॉक डाउन था। ओली का दावा है कि वुहान वायरस के बारे में किसी से भी ज्यादा जानते हैं। नेपाल में अभी स्थिति और खराब होने वाली जब अगले हफ्ते मध्य पूर्वी देशों में काम करने वाले प्रवासी श्रमिक अपने वतन लौटेंगे।


पिछले दिनों ओली ने संसद में कहा था नेपाली दोनों में दूसरों से ज्यादा इम्यूनिटी है। विपक्ष के नेता गगन थापा ने पूछा उनसे किसने यह कहा तो उनका उत्तर था उनका अपना दृष्टिकोण है। विपक्षी नेता डॉक्टर बाबूराम भट्टराई ने सही कहा था कि ओली एक खास किस्म के मनोवैज्ञानिक रोग से पीड़ित है। नेपाल के मॉलिक्यूलर डायनामिक्स के अनुसंधान निदेशक समीर मणि दीक्षित का मानना है कि ओली कोविड-19 को समझते ही नहीं हैं।


अब यहां सवाल उठता है काठमांडू में एक जिद्दी प्रधानमंत्री और सीमा पर ट्रिगर हैप्पी पुलिस क्या भारत और नेपाल के रिश्तो को नुकसान पहुंचाएगी? भारत और नेपाल में रोटी बेटी का संबंध है और सदियों से लोग इस संबंध को निभाते आए हैं। पिछले कुछ समय से भारत और नेपाल के संबंधों के बीच क्रांति भी जुड़ गई है। यानी नेपाल में जो भी राजनीतिक या सामाजिक क्रांति हुई है उसे भारत और भारत की जनता का सहयोग रहा है। उसी तरह भारत में राजनीतिक परिवर्तन के क्रम में नेपाल आश्रय स्थल रहा है और नेपाल की जनता का सहयोग रहा है। दक्षिण एशिया में विभिन्न देशों में आपसी संबंध है और उनका का सारा इतिहास रहा है। परंतु, नेपाल के मामले में यह अलग है। ब्रिटिश इंडिया पहले से भारत और नेपाल के संबंध रहे हैं। दोनों देश सामाजिक सांस्कृतिक और धार्मिक रूप से ही नहीं जुड़े हैं बल्कि इनमें प्राकृतिक संबंध भी रहा है। हिंद महासागर से निकला मानसून जब हिमालय से टकराता है तो उससे बारिश होती है। हिमालय की पहाड़ी श्रृंखलाओं से निकली नदियां उत्तर भारत की जमीन को उर्वर करती है। यही नहीं दोनों देशों के बीच खुली सीमा रिश्तो को अद्वितीय बनाती है।





ऐसा शायद बहुत कम सुना गया है दोनों देशों की सीमाओं पर गोलीबारी हुई हो। हालांकि उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल, सिक्किम तक फैली 1880 किलोमीटर लंबी सीमा ज्यादातर खुली हुई है और कभी कभार तनाव की खबरें भी आती है। लेकिन, वह दुर्भाग्यपूर्ण है। नक्शों को लेकर पहले से ही तनाव है और अब यह घटनाएं। खबर है कि हाल के दिनों में बारा, बर्दिया, झापा जैसे इलाकों में भी सीमा पर तनाव की खबरें आई हैं। नेपाल इन क्षेत्रों में एसएसबी के लोगों की गतिविधियों को रोकने की कोशिश कर रहा है। 11 मई को झापा में भारतीय किसानों की भीड़ को रोकने के लिए नेपाल के सीमा रक्षकों ने हवा में गोलियां चलाई थीं। आरोप है यह किसान जबरन नेपाल की सीमा में खेतों में घुसने की कोशिश कर रहे थे। बाद में स्थानीय स्तर पर इस विवाद को सुलझा लिया गया। हालांकि, इस तरह की घटनाएं शायद ही भारत नेपाल के संबंधों में असर डाले किंतु जन स्तर पर इसका प्रभाव तो पड़ेगा ही। यही नहीं यह भी जरूरी है कि स्थानीय क्रॉस बॉर्डर स्तर पर दोनों तरफ से तंत्र और टेलीफोन हॉटलाइन बनाई जाए ताकि दोनों तरफ के प्रतिनिधि मिलकर इसी विवाद को तत्काल सुलझा दें और आपसी सहयोग बनाए रखें। सीमा विवाद को लेकर भारत और नेपाल के संबंध अब तक के सबसे खराब है। संबंधों को ठीक करने के लिए वार्ता के अलावा कोई विकल्प नहीं है। दोनों पक्षों को बातचीत को प्राथमिकता देनी होगी वरना स्थितियां और बिगड़ती जाएंगी। 5 वर्ष में दूसरी बार भारत नेपाल के संबंध बेहद तनावपूर्ण हुए हैं। भारत साफ कर चुका है वह सीमा पर कोई बातचीत करेगा। पिछले कुछ दिनों में भारत के इस मुद्दे पर चुप रहने पर नेपाल का थ्यान था। नेपाल के प्रधानमंत्री इस बड़े कदम के बाद भारत ने नेपाल से बात करने से इंकार कर दिया था। सारी बातों को देखकर ऐसा लगता है चीन से निकटता के कारण नेपाल के प्रधानमंत्री भारत के साथ संबंधों में मूलभूत बदलाव चाहते हैं। केपी शर्मा ओली ने भारत विरोधी रूप दिखाकर दो बार चुनाव में विजय पाई है। उन्होंने अपराजेय राष्ट्रवादी छवि बना ली है। लेकिन यहां उचित होगा अतीत को ध्यान में रखकर नेपाल अपना ईगो त्याग दे और सीमा को लेकर वार्ता शुरू हो ताकि संबंध फिर से मधुर हो जाएं।

कोरोना के बाद अब बारिश का रोना



कोरोना के बाद अब बारिश का रोना





मौसम की भविष्यवाणी है कि शुक्रवार से बरसात शुरू हो जाएगी। सोमवार को वर्षा की पहली फुहार ने कोलकाता से दक्षिणेश्वर के बीच मौसम को गीला कर दिया लोग परेशान। कोविड-19 और उसी दौर में अम्फान के कहर अभी तटवर्ती क्षेत्र के लोग उबरे नहीं थे की बारिश का मौसम शुरू हो गया। कलकत्ते की बारिश और मुंबई की बारिश वैसे भी काफी दुखदाई होती है इस बार तो दुख का एक अलग अध्याय भी जुड़ गया। मौसम विज्ञानियों का मानना है कि मौसम की पहली बारिश मैं ही देश के कई भाग डूब जाएंगे। आने वाले दिनों में एक नई तस्वीर देखने के लिए तैयार रहिए। हो सकता है यह बात कुछ लोगों को कपोल कल्पित लेकिन विश्व पर्यावरण दिवस के ठीक पहले केंद्रीय जल आयोग द्वारा जारी आंकड़े बताते हैं कि देश के 123 बांधों या जल संग्रहण क्षेत्रों में पिछले 10 वर्षों में औसत 165% ज्यादा जलजमाव हो गया है। हालांकि इस वर्ष मानसून औसत दर्जे का होगा लेकिन बांधों में जो पानी जमा है यदि उनका ठीक से नहीं प्रबंधन हो सका तो काफी मुश्किलें आएंगी खासकर बंगाल और उड़ीसा में। जिन राज्यों में पिछले साल भी बेहतर जल प्रबंधन था वह राज्य हैं राजस्थान, झारखंड, उड़ीसा, बंगाल, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, तेलंगना, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु। लेकिन कई बार अच्छाई भी बुराई बन जाती है और मानसून के ठीक पहले बेहतर जल प्रबंधन बांध प्रबंधन अधिकारियों के लिए गंभीर समस्या बन जाएगा। हिमालय में भारी हिमपात भी उत्तर भारत की नदियों के लिए समस्या पैदा कर सकता है। भाखड़ा, व्यास प्रबंधन बोर्ड ने तो नदियों के जल ग्रहण क्षेत्र में भारी हिमपात की चेतावनी पहले ही दे रखी है। खबर है कि केरल में 12 जनरेटर पहले से ही खराब है जो बिजली बनाने के लिए पानी को नियंत्रित करते हैं। मानसून के पहले बांधों में बढ़ा हुआ जलस्तर सही नहीं है। यहां एक संभावित प्रश्न है कि जब इन बांधों में इतना पानी भरा हुआ है तो जहां पानी की जरूरत है वहां यह उपलब्ध क्यों नहीं है। केंद्रीय जल आयोग के पास इस प्रश्न की सारे तकनीकी जवाब हैं और नतीजा यह हैकी इन बांधों से पानी निकल नहीं रहा है और सिंचाई एवं दूसरी जरूरतों के लिए पानी मिल नहीं रहा है।





हर साल की तरह इस साल भी गर्मियों में देश के कई हिस्सों में पानी दुर्लभ था और यह तब हुआ है जब मौसम विभाग में पहले ही कह दिया है इस साल मानसून अच्छा रहेगा। लॉक डाउन के चलते नदियों में औद्योगिक कचरा कम हो गया है लेकिन उनमें बहाव की कमी साफ दिख रही है। पहली बारिश के साथ ही बांधों में पानी और लबालब हो जाएगा और नदियों का भाव भी चाहिए ऐसी स्थिति में बांधों की सुरक्षा के लिए उनके गेट खोल दिए जाएंगे। नतीजा यह होगा नदियों का बहाव और बढ़ जाएगा और देखते ही देखते देश के कई हिस्से पानी में डूब जाएंगे या तकनीकी तौर पर कहें तो बाढ़ की चपेट में आ जाएंगे। हमारे देश में हर दूसरे तीसरे साल ऐसा होता है।





जरूरत से ज्यादा भरे बांधों से अभी अगर पानी छोड़ा जाता तो इसका फायदा यह होता की नदियां खुद को साफ कर ले और मन में बहाव होने से मछलियों उत्पादकता बढ़ जाती। बहुतों को याद होगा कि कोलकाता के किनारे बहने वाली गंगा या हुगली नदी में लॉक डाउन के पहले मछलियां नहीं दिखती थी लेकिन लॉक डाउन के दौरान उसमें कई दुर्लभ मछलियां दिखीं। ऐसा केवल कोलकाता में नहीं देश के अन्य स्थानों पर भी पाया गया है। गंगा का बहाव कायम रहा और मछलियां पकड़ने की तर्कसंगत नियमों को लागू किया गया तो लाखों लोगों को रोजगार मिल सकेगा। अभी 2 दिन से देखा जा रहा है कि नदियों में लोग बारीक जाल लेकर उतर गए हैं और बेतरतीब ढंग से मछलियों को मार रहे हैं। यही समय है जब इस पर नियंत्रण किया जाए। यही नहीं अगर बांधों के गेट खोल दिए जाएं तो मानसून में नहीं खोलना पड़ेगा और शहरों के जल प्लावन का खतरा कम हो जाएगा। लेकिन सब कुछ जानते हुए भी ऐसा नहीं किया जा रहा है उल्टे चेतावनी दी जा रही है सावधान रहें। इसके पीछे लालफीताशाही की सोच यह है कि नदियों का पानी समुद्र में बेकार चला जाता है इसलिए पानी को रोककर उसका समुचित उपयोग किया जाना चाहिए। कोविड-19 संकट भी अफसरों सामान्य सबक नहीं दे पाया कि नदियों का समुद्र में मिलना प्राकृतिक और उसे रोकने की कोशिश पर्यावरण की समस्याओं को जन्म देती है। फरक्का बांध के बाद सागर सुंदरबन और हल्दिया तक में घुस आया और जमीन की उर्वरता खत्म हो गई। जो जमीन तीन फसल देती थी वह नमकीन पानी से भर गई है और एक फसल भी नहीं हो पाती। यही हाल गोदावरी कृष्णा नर्मदा यह किसी भी नदी का है। उन नदियों के मुहाने पर देखें तो बांध बनाकर जिन्हें रोका गया वहां समुद्र आगे बढ़ गया और जमीन खराब हो गई। मानसून दो-चार दिनों में आएगी जाएगा और बाढ़ की विभीषिका की तस्वीरें हमारे सामने आएंगी। कोविड-19 के कारण बिगड़ी अर्थव्यवस्था और भुखमरी की तस्वीरें गौण हो जाएंगी।

गंभीर होता भारत- नेपाल सीमा विवाद



गंभीर होता भारत- नेपाल सीमा विवाद





नेपाल के नए राजनीतिक नक्शे के लिए संविधान संशोधन के प्रस्ताव को नेपाल की संसद के निचले सदन प्रतिनिधि सभा में पारित कर दिया गया है। केपी शर्मा ओली की सरकार ने इस सिलसिले में नेपाल के नए राजनीतिक नक्शे और एक नवीन राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह को मंजूरी देने का प्रस्ताव प्रतिनिधि सभा के समक्ष रखा था। नेपाल की संसद में मंगलवार किस पर बहस हुई और संविधान में संशोधन मंजूरी दे दी गई। अब नेपाल अपना नया नक्शा बनाएगा जिसमें सुगौली संधि के अंतर्गत लिम्पियाधुरा, काला पानी और लिपुलेख नेपाली मानचित्र में दिखाया जाएगाा। और इसके बाद नेपाल का दावा होगा इस इलाके पर। यह संधि ब्रिटिश भारत के साथ 1816 में हुई थी। हालांकि भारत इस दावे को नहीं मानता है। संविधान संशोधन के इस मसले पर नेपाल के सदन में देर शाम तक चर्चा हुई और जब इसे मंजूरी मिल गई तो सांसद बहुत देर तक खुशी जाहिर करते रहे। अब यह नया संविधान संशोधन विधेयक राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी के पास मंजूरी के लिए भेजा जाएगा और फिर उनके हस्ताक्षर के बाद यह कानून बन जाएगा। नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप ज्ञावली ने नए मानचित्र को लेकर भारत के रुख पर चिंता व्यक्त की है। दक्षिणी नेपाल में एक जगह है सुस्ता जहां दो नदियां सीमा बनाते हैं और लिपुलेख-लिम्पयाधुरा को लेकर भारत और नेपाल गतिरोध है। नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप ज्ञावली का कहना है कि भारत ने इस विवाद को सुलझाने के नेपाल के कूटनीतिक प्रयास पर कोई प्रतिक्रिया नहीं जाहिर की। नेपाल के विदेश मंत्री का कहना है कि “ भारत के रुख से हम थोड़े सदमे में हैं। यदि भारत और चीन अपने मसले सुलझा सकते हैं तो ऐसा कोई कारण नहीं है भारत और नेपाल अपने मसले नहीं सुलझा सकें।” दूसरी तरफ भारत का कहना है कि उसने काठमांडू को बता दिया है कोविड-19 का संकट खत्म होने के बाद भी कोई बातचीत हो सकेगी। नेपाली मीडिया का कहना है कि” नेपाल की सरकार ने दिल्ली से अनुरोध किया है कि दोनों देशों के बीच वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से सचिव स्तर की वार्ता हो ताकि पारस्परिक विश्वास कायम हो सके लेकिन भारत ने अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं जाहिर की है।”


भारत का कहना है कि इस नक्शे को लेकर संविधान संशोधन करवाने में नेपाल इतनी जल्दीबाजी क्यों कर रहा है? यह जल्दबाजी ही संदेह का विषय है ।आमतौर पर सरकार किसी भी विधेयक को गजट में प्रकाशित करने में 1 महीने का वक्त लेती है। लेकिन, नेपाल ने यह उसी दिन शाम को कर दिया। सरकारी नियमों के अनुसार इसे मैच्योर होने में एक हफ्ते का वक्त मिलता है लेकिन सरकार ने इसे दो-तीन दिनों में ही कर दिया। आमतौर पर इसमें भी जो बहस होती है उस बहस और चर्चा में 3 हफ्ते से ज्यादा समय लगता है तब कहीं जाकर संशोधन होता है । लेकिन, जल्दी से जल्दी बिल को पास कराने के उद्देश्य से इन सारे नियमों को रोक दिया गया और मंत्री के अनुरोध पर अध्यक्ष ने बैठक बुला ली इस बैठक में सभी पार्टियों के मुख्य सचेतक शामिल थे ताकि जल्दी चर्चा हो। कहां जाता है इसमें सरकार की मंशा बिल्कुल जल्दी से जल्दी पास कराने और मामले की गंभीरता के बारे में पड़ोसी को इत्तिला देने की थी सभी पार्टी संशोधन और विवाद ग्रस्त क्षेत्र के दावे पर एकमत है। ऐसा लगता है केपी शर्मा ओली इसलिए जल्दी बाजी में है कि कहीं अन्य दलों के विचार न बदल जाए लेकिन नई दिल्ली में इसे लेकर असंतोष है और हो सकता है दिल्ली इस मामले में नेपाल के प्रति रुख कठोर कर दे।


संभवतः ओली यह नहीं समझ पा रहे हैं कि भारत कोविड-19 से उलझा हुआ है और द्विपक्षीय वार्ता से ज्यादा गंभीर है क्योंकि भारत के राष्ट्रीय स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था पर इसका प्रत्यक्ष असर पड़ेगा यही नहीं चीन भी सीमा पर गीदड़ भभकी दे रहा है। संविधान संशोधन विधेयक सूचीबद्ध होने 1 दिन बाद नेपाल में भारत के राजदूत के पास विशेष दूत भेजा था। इन सारे मामलों में जो सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक है वह प्रधानमंत्री जल्दी बाजी। उन्होंने भारत को यहां तक कह दिया कि चीन और इटली वायरस से ज्यादा खतरनाक भारतीय वायरस है। उन्होंने कहा कि पश्चिम एशिया से लौटने वाले प्रवासी मजदूरों की जब बड़ी संख्या में वापसी होगी तो उनके टेस्ट और उपचार की कोई व्यवस्था भारत में नहीं होगी।





यह विवाद ऐसे समय में शुरू हुआ है जब हाल के कई उच्च स्तरीय दौरों और लेनदेन के जरिए दिल्ली काठमांडू एक दूसरे के गले में बाहें डाले दिखाई पड़ रहे थे। कोविड-19 के कारण भारत ने कूटनीतिक पहल को रोक दिया है हमारे देश के कुछ ज्ञानियों का कहना है कि भारत को इस विवाद को खत्म करने के लिए कदम आगे बढ़ाना चाहिए। वह तो सही है इस विवाद को कूटनीतिक संवाद से ही सुलझाया जा सकता है लेकिन इस पूरी घटना का चरित्र देखकर ऐसा लगता है कि कहीं ना कहीं से उकसावे की कोशिश हो रही है। पौराणिक काल से एक दूसरे से जुड़े दोनों देशों को ऐसे उकसावे से बचना होगा।

Tuesday, June 9, 2020

सबसे खराब दौर अभी बाकी है



सबसे खराब दौर अभी बाकी है


सोमवार से अनलॉक दो आरंभ हुआ। हालांकि इस दौरान भी लॉक डाउन है लेकिन वह सख्ती नहीं है जो पहले थी। सब कुछ खुल रहा है मॉल, बाजार, मंदिर ,मस्जिद, गुरुद्वारे इत्यादि। कुछ लोगों का कहना है कि कोरोना की कड़ी टूट रही है।लॉक डाउन को लेकर बहस तो चल ही रही थी अब कोविड-19 को देख कर भी बहस चल पड़ी है। कुछ लोगों का मानना है कि देश में कोविड-19 पर काबू पा लिया गया है। ऐसा सोचने के पीछे उनके पास कुछ आंकड़े भी हैं और उसके आधार पर वह इसकी गणना कर रहे हैं और उसके प्रकाश में भारत में इसकी स्थिति की तुलना कर रहे हैं और इस तुलना में भारत की स्थिति थोड़ी बेहतर दिख रही है। अगर केवल आंकड़े देखें 31 मई तक पूरी दुनिया में 63.39 लाख लोग कोविड19 के शिकार हुए। जिनमें 3.76 लाख लोगों की मृत्यु हो गई। भारत संक्रमण के मामले में स्पेन को पीछे छोड़ता हुआ पांचवें स्थान भारत में अब तक 24 लाख46 हजार 628 लोग संक्रमित जिनमें 6929 लोग मारे गए हैं। इस आंकड़े को देखते हुए केवल अमेरिका, ब्राजील, रूस और ब्रिटेन ही भारत से ऊपर हैं। जनसंख्या के लिहाज से भारत चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा देश है इसलिए जनसंख्या के सापेक्ष कोरोना प्रभावितों की तुलना करने पर प्रभावितों की संख्या कम दिखती है। सरकार में शामिल लोग इन्हीं आंकड़ों का सहारा लेते हैं और दावा करते हैं कि भारत ने इसका मुकाबला सही तरीके से किया।


लॉक डाउन के दौरान ये आंकड़े बताते हैं कि भारत में मरने वालों की संख्या कम है और यह संख्या सकारात्मक दिशा को दिखा रही है। लेकिन यदि प्रति एक करोड़ पर होने वाले कोविड-19 देश तो देखा जाए तो यह एक संशय को जन्म देता है और वह संख्या है कई मौतें बिना जांच किए भी हो सकती है। किसी भी देश में कोरोना प्रभावितों की स्थिति का अनुमान संख्या को देखने पर लग सकता है लेकिन इससे सार्थक तुलना नहीं हो सकती। कुर्ला का प्रसार बिग डाटा एनालिसिस का विषय इसलिए विभिन्न देशों में नॉरमल डिसटीब्यूशन के नियमों का पालन कर सकता है शुरुआत में बनेगा बीच में अपने शीर्ष बिंदु पर रहेगा और अंत में नीचे की तरफ आएगा। किसी भी देश में यह कितनी तेजी से बढ़ेगा और शीर्ष बिंदु पर पहुंचकर कितनी तेजी से नीचे गिर जाएगा यह वहां के सरकार द्वारा इस महामारी की रोकथाम के लिए लॉक डाउन, टेस्टिंग , स्क्रीनिंग, क्वॉरेंटाइन इत्यादि कदमों पर बहुत हद तक निर्भर करता है। लेकिन शुरुआत में कुछ गलतियां हुईं और अपने सभी प्रयासों के बाद भी मोदी जी कहीं न कहीं नाकामयाब हो गए। इस नाकामयाबी की वजह हमारे देश की नौकरशाही है। बेशक भारत की नौकरशाही एक आइडियल टाइप व्यवस्था है लेकिन इसमें विशेषज्ञ नहीं हैं और जो है भी उन्होंने प्रधानमंत्री को निराश किया है। कारण चाहे जो भी हो लेकिन इस निराशा का नतीजा सरकार को ही भोगना पड़ा है। जहां तक नौकरशाही का प्रश्न है उसकी निर्णय क्षमताओं में रचनात्मकता नहीं हुआ करती है। इसलिए, संकट काल में नौकरशाही असरदार नहीं रह जाती।ऐसे फैसले निर्वाचित नेता ही कर सकते हैं। लेकिन, यह संकट इतना व्यापक था और हमारे नेता नरेंद्र मोदी इससे चारों तरफ से घिर गए थे इसलिए वह कई कार्यों में नौकरशाही पर निर्भर हो गए। ब्रिटिश जमाने से यह देखा गया है कि नौकरशाही ने खुद को सबसे कुशल माना है और इस क्रम में विशेषज्ञता को गौण कर दिया गया है। अगर नौकरशाह जनता से जुड़े होते हैं तो शायद प्रधानमंत्री को बता सकते थे कि लॉक डाउन से करोड़ों लोग संकट से गिर जाएंगे। यहां एक महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसी नौकरशाही की मौजूदगी में यह कह पाना बड़ा कठिन होगा इस देश में कोविड-19 के पहले मरीज की पहचान कब हुई थी। जिस किसी देश में सबसे पहले पहचान हुई होगी वहां यह बीमारी सबसे पहले शीर्ष पर पहुंचेगी क्योंकि वहीं से से नीचे उतरना है ।अगर अमेरिका, ब्रिटेन और भारत में कोविड-19 के रोजाना आने वाले मामलों और रोजाना उनसे हुई मौतों आंकड़ों की तुलना करें तो जो निष्कर्ष प्राप्त होगा वह काफी महत्वपूर्ण होगा।


जहां तक भारत का सवाल है यहां रोजाना कोविड-19 मिले सामने आ रहे हैं और उनसे मरने वालों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। ऐसे में यह समझ पाना बड़ा कठिन होगा की इन मामलों का ग्राफ कब शीर्ष पर पहुंचेगा और कब वहां से नीचे उतरना शुरू होगा यह बोल पाना मुश्किल है कि महामारी कब काबू में आएगी। कई राज्यों में रोगियों की संख्या फिर से बढ़ने लगी है। यह संख्या कहां पहुंचे रुकेगी यह कहना संभव नहीं है। ऐसा लगता है कि अभी सबसे बुरा दौर बाकी है।




Monday, June 8, 2020

भारत चीन सीमा विवाद पर बैठक



भारत चीन सीमा विवाद पर बैठक


लद्दाख के पूर्वी क्षेत्र में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारत और चीन में विवाद को समझाने के लिए शनिवार को लद्दाख की सीमा पर दोनों देशों के सेना अधिकारियों की बैठक हुई। भारत की ओर से भारतीय सेना की 14 वीं कोर के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल हरिंदर सिंह और चीन की ओर से मेजर जनरल लियु लिन के नेतृत्व में एक एक दल शामिल हुआ। बैठक में क्या तय हुआ या उसका क्या नतीजा निकला इस संबंध में अभी तक कोई विशेष खबर नहीं है। वार्ता 11:00 बजे आरंभ हुई और 3 घंटे तक चली। वैसे कुछ हलकों में चर्चा है कि वार्ता सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ रही है और दोनों देश पहले जैसी स्थिति कायम करने के लिए तैयार हैं। अगर इसे सही माना जाए तो पेगोंग झील , गोगरा हॉट स्प्रिंग इलाका और गलवान घाटी क्षेत्र से दोनों देश अपनी सेना हटा सकते हैं। यद्यपि, इसे लिखे जाने तक सेना की ओर से कोई बयान नहीं आया है। दोनों देशों के बीच लगभग 1 महीने से सीमा विवाद चल रहा है।


यह विवाद मुख्य तौर पर लद्दाख के पेंगाॅग झील और पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी के संवेदनशील इलाकों को लेकर है। शनिवार को जो वार्ता हुई वह भारत की पहल पर हुई। इसके पहले भारतीय सेना की उत्तरी कमान के कमांडिंग ऑफीसर लेफ्टिनेंट जनरल वीके जोशी ने लेह का दौरा किया था। इस दौरे का मकसद जमीनी स्तर पर लगातार बदलते विस्तार से समीक्षा करना। भारत चीन अक्सर अलग-अलग इलाकों में इस तरह के विवादों में उलझ जाते हैं, इसकी वजह क्या है?


यह सालों पुराना विवाद है। भारत और चीन के बीच 3488 किलोमीटर लंबी सीमा है। यह सीमा जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश रोककर गुजरती है। यह तीन सेक्टरों में बंटी है। पहला सेक्टर पश्चिमी सेक्टर यानी जम्मू और कश्मीर, मध्य क्षेत्र यानी मिडिल सेक्टर हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड तथा पूर्वी सेक्टर सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश का है। चीन का मानना है कि दोनों देशों के बीच अब तक पूरी तरह सीमांकन नहीं हुआ है। इसीलिए विवाद चल रहा है। चीन पश्चिमी सेक्टर में अक्साई चिन तक अपना दावा करता है जो फिलहाल चीन के नियंत्रण में है। बासठ के युद्ध के बाद फिननेस पर कब्जा कर लिया था। उधर, पूर्वी सेक्टर में अरुणाचल प्रदेश पर चीन दावा करता है। उसका कहना है कि यह दक्षिणी तिब्बत का हिस्सा है। चीन तिब्बत और अरुणाचल प्रदेश के बीच मैक महोन रेखा को भी नहीं मानता। विख्यात इतिहासकार डॉक्टर बी बी मिश्र ने अपनी पुस्तक” इंडिया हर यूनिट इन डिवीजन” मैं लिखा है कि “चीन मैक महोन रेखा को नहीं मानता। उसका कहना है कि 1914 में जब ब्रिटिश भारत से समझौता हुआ था उसमें बेशक तिब्बत के प्रतिनिधि थे लेकिन चीन का कोई नहीं था। उसका कहना है कि क्योंकि तिब्बत उसका है इसलिए वह( तिब्बत ) अकेले कोई फैसला नहीं कर सकता। “ इन्हीं विवादों के चलते दोनों देशों के बीच कभी सीमा का निर्धारण नहीं हो सका और यथास्थिति बनाए रखने के लिए वास्तविक नियंत्रण रेखा यानी एलएसी नामक व्यवस्था की गई। यही कारण है की विवादित क्षेत्र में कई बार दोनों देशों के सैनिकों के बीच झड़प हो जाती है क्योंकि दोनों को यह महसूस होता है सामने वाले देश की सेना उसके क्षेत्र में प्रवेश कर गई है सबसे ज्यादा विवाद पेंगाॅग त्सो झील के आसपास है । रणनीतिक तौर पर इस झील का काफी महत्व है क्योंकि यह झील चुशुल घाटी कि रास्ते में है और 1962 में चीन ने यहीं से भारत पर आक्रमण किया था। पिछले कुछ वर्षों में उसने झील अपनी और वाले इलाके में सड़कें बनाई थी। जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर और अंतरराष्ट्रीय मामलों की जानकार एसडी मुनि के अनुसार क्षेत्र भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह चीन के शिन जियांग, और लद्दाख तथा पाकिस्तान की सीमा से मिलता है। चीन क्षेत्र में भारत के किसी भी निर्माण को अवैध बताता है हालांकि वह पहले ही वहां जरूरी निर्माण कर रखा है और अब अगर भारत वहां निर्माण करना चाहता है तो उसकी भृकुटी तन जाती है। हालांकि, लगभग 6 साल पहले भारत और चीन के बीच गतिरोध पैदा हुआ था लेकिन सेना और कूटनीतिक वार्ताओं से यह शांतिपूर्ण ढंग से समाप्त हो गया। वह गतिरोध बड़े ही नाटकीय ढंग से आरंभ हुआ था। उस दौरान चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत आए और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ अमदाबाद में साबरमती के तट पर बैठे उस समय लगभग 1000 चीनी सैनिक भारतीय क्षेत्र के चुमार में घुस आए। चुमार तिब्बत से सटे दक्षिणी क्षेत्र में है। यह क्षेत्र लगभग 18000 जहां भारत की सड़क भी है और नक्शे के अनुसार एक बड़े नाले के दोनों ओर दोनों देशों की सीमाएं हैं। यहां मेरी सड़क बना रखी है लेकिन उसमें बड़े तीखे मोड़ हैं और भारी चीनी वाहन नहीं पहुंच सकते।





खबरों के मुताबिक शनिवार की बैठक में भारत ने 1993, 1996, 2012 और 2013 में जो समझौते हुए थे वैसे ही स्थिति बनाए रखें । लेकिन, अगर अभी समझौता हो भी जाता है तो यह गतिरोध बताता है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा हमेशा एक कांटा बनी रहेगी।शनिवार की बैठक चुनौतियों के बारे में कोई भी अधिकृत खबर नहीं है लेकिन चीन के मनोविज्ञान और परंपरा को देखते हुए कहा जा सकता है के भारत की बात वह सहमत हो गया होगा। तनाव को बढ़ाना और बीच में ही उसे छोड़ देना उसकी पुरानी आदत है और इस बार भी उसने ऐसा ही किया है। क्योंकि वह भी जानता है कि वर्तमान परिस्थितियों में युद्ध का अर्थ क्या होता है इसलिए वह पूर्णांग युद्ध का बिगुल नहीं बजाएगा। दोनों देश इस मौके पर यथास्थिति बनाए रखें और सीमा पर पुरानी चौकियों पर लौट जाए इसी में चीन का भी भला है। लेकिन हमें चीन के इस आचरण को हल्के तौर पर नहीं लेना चाहिए और पूरी तरह सचेत रहना चाहिए।

Saturday, June 6, 2020

बुलेट से नहीं वैलेट से हारेगा ड्रैगन



बुलेट से नहीं वैलेट से हारेगा ड्रैगन


चीन भारत को लगातार परेशान कर रहा है और भारत ने भी उसके मुकाबले के लिए कमरकस ली है। ऐसे में कोविड-19 महामारी ने भारत की ताकत को थोड़ा कम किया है। परंतु हम भारतीयों को गाइड करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसके मुकाबले के लिए एक लंबी रणनीति बनाई है और वह है आत्मनिर्भर भारत। चाणक्य का कहना था कि हर नीति का एक दर्शन होना जरूरी है। महात्मा गांधी के बाद नरेंद्र मोदी पहले नेता हमारे सामने आए हैं जिन्होंने आत्मनिर्भर भारत की बात कही। यह एक तरह से भारत छोड़ो आंदोलन का दूसरा अध्याय है। गांधी जी ने भी पहले देश को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश की और उसके बाद आंदोलन का शंख फूंका।इसके बाद धीरे धीरे हालात यह हुए अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा। भारत के विभाजन पर अत्यंत विख्यात पुस्तक सी एच फिलिप्स की “पार्टीशन ऑफ इंडिया” मैं कहा गया है कि अंग्रेजों ने भारत आंदोलनों और क्रांतियों के कारण नहीं छोड़ा बल्कि उसकी पूंजी को बढ़ रहे खतरे के कारण उसे भारत छोड़ना पड़ा। आत्मनिर्भर भारत के आह्वान से मोदी ने आंदोलन के लिए कदम बढ़ा दिया है और आज नहीं तो कल हम अपना उद्देश्य प्राप्त कर लेंगे। हां तो बात हो रही थी चीन की। चीन का मुकाबला बुलेट से नहीं हो सकता बल्कि वैलेट से हो सकता है। चीन सारी दुनिया की इसलिए परवाह नहीं करता कि उसके पास दौलत है और उस के बल पर वह चाहे जो कुछ कर सकता है। चीन हमारी सीमा पर खड़ा है और कई क्षेत्रों में कुछ किलोमीटर तक कब्जा भी कर रखा है। सीमा पर हमें डर नहीं है हमारी सेना उससे निपट लेगी लेकिन उसने जो हमारी अर्थव्यवस्था पर घुसपैठ कर रखी है उसे तो आम जनता के सहयोग से ही निपटा जा सकता है। मोदी हमारे नेता हैं और वह रास्ता दिखा सकते हैं उस राह पर चलना और मंजिल तक पहुंचना तो जनता का काम है। हम भारतीयों को स्वदेशी अपनाना होगा। लेकिन चीनी सामान का बहिष्कार इतना आसान नहीं है। भारत को भी चीन के सामान की लत पड़ गई है। यह केवल भारत की बात नहीं है दुनिया का शायद ही कोई ऐसा मुल्क होगा जहां मेड इन चाइना नहीं चलता हो। छोटे-छोटे सामान सुई, कपड़े, टीवी फ्रिज और अन्य घरेलू सामान यहां तक कि हमारे देवी देवताओं की मूर्तियां भी चीन की ही बनी है। सस्ते चीनी सामान का नशा देश की जेब खाली कर रहा है और ड्रैगन की ताकत बढ़ा रहा है आंखें तरेर रहा है।


चीन के बढ़ते प्रभाव के लिए उसकी ऊर्जा, और चीन की दूरदर्शिता को मानना पड़ेगा। चीन ने सबसे पहले सीखा कि जनता भूखी रहेगी तो क्रांति होगी और और जेब भरी हो तो क्रांति की सुध किसी को नहीं होती। वहां वेस्टमिंस्टर टाइप लोकतंत्र है नहीं इसलिए नियम कायदे जनता की राय के बन भी सकते हैं और लागू भी हो सकते हैं। चीन ने कम कीमत पर सस्ते माल बनाने का गुर अपनाया और साथ ही बाजार में किस चीज की मांग उस पर नजर रखना और सस्ती कीमत पर सप्लाई करना चीन का हुनर बन गया। अब होली के रंग हो यह दिवाली की रोशनी सब मेड इन चाइना ही है। जरा सोचें कि फूलों से बने रंग और पीतल की पिचकारी से होली का मजा कम थोड़े ही होता था लेकिन चीनी रंग और प्लास्टिक की पिचकारिया उनकी जगह आ गईं। रोजाना उपयोग के छोटे-छोटे सामानों से बाजार को कब्जा करने का सबसे बड़ा कारण वहां की सरकार द्वारा उद्योगों को पूर्ण किया जाना और मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराना है। हमारे देश में विगत 70 वर्षों में बनी सरकारों ने इस ओर ध्यान नहीं दिया और नतीजा हुआ हमारे बाजार चीनी सामान से भर गए। संकट काल में मोदी जी ने आत्मनिर्भर भारत का नारा दिया है वह तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक हमारा सामाजिक सोच ना बदले। हमारे देश के उद्योगपति भी अपना सामान बनाने चीन पहुंच गये। चाहे वह उषा के पंखे हों या रेड्डीस की दवाइयां। भारत में अब तक विकास एजेंडे पर नहीं था और अगर था भी तो हमारी सोच के कारण और माइंडसेट के कारण वह कामयाब नहीं हो सका। मोदी जी ने एक नारा दिया वोकल अबाउट लोकल और सेना की कैंटीन में 1000 से ज्यादा आइटम की लिस्ट आई पर उसे वापस लेना क्योंकि इसमें शामिल भारतीय कंपनियां विदेशी माल को अपनी पैकेजिंग में दें रही थी। यह एक संकेत है कि हमारी मैन्युफैक्चरिंग की स्थिति क्या है। कई योजनाएं बनती है और स्थानीय सरकारों के कारण असफल हो जाती हैं अगर इससे पार भी पाए तो सारी योजना लालफीताशाही में उलझ जाती है। श्रम कानूनों में सुधार के रास्ते में समाजवादी सोच का रोड़ा आ जाता है। श्रम कानूनों में सुधार के लिए सरकार कभी भी कड़े फैसले नहीं दे सकती क्योंकि विपक्षी दल झंडे उठाए उसकी मुखालफत करने में जुट जाएंगे।





कोविड-19 की महामारी के बाद कई अंतरराष्ट्रीय कंपनियां बाहर निकलना चाहती है और भारत उनको अपने देश में आकर्षित करना चाहता है। अभी दुनिया भर में चीन के खिलाफ जो सेंटीमेंट है उसका भारत फायदा उठा सकता है। वह मेक इन इंडिया की ओर आकर्षित कर सकता है। कहावत है जब लोहा गरम हो तो वार करना चाहिए। वार करने की इसी कोशिश के तहत प्रधानमंत्री ने आत्मनिर्भर भारत और वोकल अबाउट लोकल का नारा दिया। यहां गौर करने लायक बात है चीन का विरोध ना हो बल्कि चीनी सामानों का विरोध हो। यही चीन की ताकत हैं। भारत ने जेब पर मार कर ब्रिटिश शासन को भी घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था वही तरीका आज क्यों ना बनाया जाए ताकि हमारे देश की कोरोना आहत अर्थ व्यवस्था फिर से स्वस्थ हो सके। अब समय आ गया है भारत छोड़ो आंदोलन का दूसरा अध्याय पढ़ा जाए। इस महामारी ने हमें मौका दिया है स्वावलंबित बनने का क्या हम इसके लिए तैयार हैं?

Friday, June 5, 2020

भारत के लिए यह बस एक और तूफान है



भारत के लिए यह बस एक और तूफान है





कोविड-19 ने वैश्विक तौर पर दुनिया भर में व्यापार और अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाया है बेशक भारत को भी नुकसान पहुंचा है । लेकिन, मुश्किलों से निपटने की मोदी जी की क्षमता को देखते हुए यह कहा जा सकता है की यह वित्तीय संकट भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए तूफान जैसा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सीआईआई के वार्षिक सत्र में देश के बड़े व्यवसायियों को संबोधित करते हुए कहा कि भारत एक बड़ी उड़ान के लिए तैयार है। उन्होंने कहा कि दुनिया एक भरोसेमंद साथी की तलाश है लेकिन भारत में इसकी क्षमता ताकत और योग्यता सभी मौजूद है। बस आपको इस अवसर को आगे बढ़कर फायदा उठाना चाहिए। प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत को तेज विकास के पथ पर लाने के लिए पांच बातें बहुत जरूरी हैं। वे पांच हैं इंटैट, इंक्लूजन, इंफ्रास्ट्रक्चर, इन्वेस्टमेंट और इनोवेशन। प्रधानमंत्री ने कहा कि हमारे लिए सुधार का मतलब है फैसले लेने का साहस करना। प्रधानमंत्री ने भारत के बड़े कारोबारियों को विश्वास दिलाया विकास की राह फिर से पकड़ना उतना मुश्किल नहीं है जितना प्रचारित किया जा रहा है। सीआईआई के इस 125वें वार्षिक सत्र का थीम था गेटिंग ग्रोथ बैक यानी वृद्धि की राह पर लौटना। उन्होंने कहा कि आत्मनिर्भर का मतलब केवल रणनीति क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता नहीं है बल्कि देश को आत्मनिर्भर बनाना जरूरी है सरकार आपके साथ है आप आगे बढ़ने का संकल्प लें।


वैश्विक अर्थव्यवस्था की दर पिछले 3 साल से धीमी पड़ रही है। 2017 में यह 3.2% से गिरकर 2018 में 3% और 2019 में 2.3% तक आ गई है। इस महामारी से 1930 में जब महामंदी आई थी उसके बाद से आर्थिक विकास मैं अब तक सबसे खराब गिरावट देखी जा रही है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अनुमान लगाया है कि 2020 में विश्व अर्थव्यवस्था में तीन प्रतिशत की कमी आएगी और आर्थिक उत्पादन में 9 खरब डॉलर का नुकसान होगा और यह नुकसान महा लॉक डाउन के कारण होगा। इस आर्थिक गिरावट का असर विकासशील देशों पर और भी बुरा होगा क्योंकि इन देशों में जीवन और जीविका दोनों का ज्यादा नुकसान होने की आशंका है। इस महा लॉक डाउन में जो रोजगार का नुकसान होगा उसे आर्थिक गिरावट गति और बढ़ सकती है। इस बात को लेकर कि कुशल श्रमिक बहुत दिनों तक बेरोजगार रहे तो उनका कौशल हल्का पड़ जाता है और काम करने की प्रेरणा कम हो जाती है और वह आखिरकार कुशल श्रमिकों की जमात से बाहर हो जाता है। दुनिया भर में बेरोजगारी का स्तर बहुत ज्यादा है। अमेरिका में 4 करोड़ जॉब बेकार और बेरोजगारी 20% के करीब पहुंच गई है। यानी अमेरिका में हर पांचवा आदमी बेकार हो गया है। यूके में भी कुछ ऐसा ही है। यूरोपियन यूनियन देशों में जॉब सपोर्ट प्रोग्राम्स की वजह से बेरोजगारी कम है लेकिन 3 करोड़ से अधिक श्रमिकों को सरकार के वेतन समर्थन कार्यक्रम के माध्यम से पैसा दिया जाता है। नई कंप्यूटर तकनीको के कारण पहले ही रोजगार खत्म हो रहे थे और कोरोना वायरस की महामारी ने इन प्रवृतियों को हवा दे दी है क्योंकि लॉक डाउन के दौरान लगभग सभी कंपनियों को अपनी पूरी वर्क फोर्स के बगैर अपना काम चलाना पड़ा। कस्टमर सर्विस के बहुत से कामों के लिए इंसानी एजेंट्स की जरूरत पड़ती है लेकिन उनकी जगह आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस चैटबाॅट्स का उपयोग किया जा रहा है कोरोना वायरस औषधियों के टेस्ट के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद ली जा रही है। यहां तक कि बुजुर्गों की देखरेख मैं भी इसका इस्तेमाल हो रहा है। अब हमें टेक्नोलॉजी के इस हानिकारक प्रवृत्ति के साथ काम करना सीखना होगा और जो इसे नहीं अपनाएंगे वह शायद गायब हो जाएंगे।


दुनिया भर में यह बेरोजगारी वर्षों तक डिमांड को दबाए रखेगी जिससे निवेश घट जाएगा और विकास धीमा हो जाएगा। अमेरिका ने विश्व व्यापार संगठन को पहले ही बहुत हद तक निष्क्रिय कर दिया है और इसकी संभावना बहुत कम है कि वह इसे जीवित करेगा। बीजिंग के चलते एक नए शीतयुद्ध का संकेत मिल रहा है और चीन के निवेश द्वार के रूप में अमेरिका की भूमिका कम होती जा रही है। बीजिंग और वाशिंगटन के बीच लगातार बयानबाजी चल रही है । दुनिया में यह महामारी एक विशाल तूफान की तरह उठी है लेकिन भारत अपेक्षाकृत अच्छी स्थिति के साथ इस तूफान में दाखिल हो रहा है। भारत मैं नौजवान और स्वस्थ आबादी होने की वजह से कोरोना वायरस कम हुआ है और आगे भी कम होगा। भारत की आर्थिक स्थिति उसके मध्यम आय वाले प्रतिद्वंदियों जैसे मेक्सिको इंडोनेशिया और ब्राजील की तुलना में कहीं अथिक स्थिर है। अपने तकनीकी कौशल और आईटी के कौशल के मामले में भी भारत अच्छी स्थिति में है। फिर भी या तूफान हमारे विकास के लिए भयानक विपरीत हालत पैदा कर सकता है। इसके कई कारण हैं। पहला कि हमारे माल के निर्यात में भारी कमी हो सकती है दूसरा निवेश घट सकता है और तीसरा बाहर से आने वाला पैसा काफी कम हो जाएगा क्योंकि क्योंकि भारतीय जो बाहर रहते थे वह अपने देश लौट रहे हैं। लेकिन हमने संकट को अवसर में बदलना सीखा है। मोदी जी की सरकार और आत्मनिर्भर भारतीय साबित कर देंगे की जब भी दुनिया में कोई आर्थिक संकट आता है तो भारत कैसे उससे अलग बना रहता है।

अमेरिकी आंदोलन के वर्णपट में भारत



अमेरिकी आंदोलन के वर्णपट में भारत


अमेरिका के मिनियापोलिस पुलिस की गोलियों से मारे गये अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लायड को लेकर अमेरिका में भयानक गुस्सा देखा जा रहा है और धीरे धीरे पूरी दुनिया में फैल रहा है। यूरोप और ऑस्ट्रेलिया में भी प्रदर्शन शुरू हो गए हैं। इन प्रदर्शनों में जो सबसे महत्वपूर्ण है वह है कि इनमें श्वेत नौजवानों की बढ़ती भागीदारी। खबर है कि कई प्रदर्शनों में तो श्वेत नौजवान ज्यादा रहते हैं। अमेरिका में या कोई बड़ी बात नहीं है और ना ही कोई नई बात। 19वीं शताब्दी में अमेरिका के दक्षिणी प्रांतों में चल रही गुलामी की प्रथा को खत्म करने के लिए तो दोनों तरफ से श्वेत सैनिक ही लड़े थे और लगभग 10 लाख से ज्यादा श्वेत मारे गए थे। इसका मतलब है कि अश्वेतों को आजादी दिलाने के काम में श्वेत लोगों ने जान दी। अमेरिका में हजारों किलोमीटर दूर चल रहे उस संघर्ष को पुणे का एक नौजवान ज्योति राव फुले बड़े गौर से देख रहा था। आगे चलकर ज्योतिबा फुले के नाम से मशहूर उस नौजवान के जीवन पर संघर्ष का बहुत ज्यादा असर हुआ। गोरे इसलिए कुर्बान हो रहे थे कि काले आजाद हो जाए। भारत में शुद्रों की स्थिति उन काले नौजवानों की तरह जो अमेरिका में गुलाम थे। अमेरिका में नस्लवाद खत्म नहीं हुआ। मार्टिन लूथर किंग सहित कई नेताओं की अगुवाई में सिविल राइट्स मूवमेंट चले। इन सब में बड़ी संख्या में श्वेत भी शामिल हुए। ऐसे आंदोलनों में आज भी श्वेत नौजवानों की भागीदारी दिखती है।


राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस आंदोलन के लिए अमरीकी फासीवाद समूह एंटीफा पर दंगे भड़काने का आरोप लगाया है। उनका मानना है कि इस आंदोलन को एंटीफा ने हाईजैक कर लिया है। डोनाल्ड ट्रंप समूह पर पाबंदियां लगाने जा रहे हैं। डोनाल्ड ट्रंप ने इस हिंसा के पीछे वामपंथी संगठनों को जिम्मेदार बताया है। अमेरिका में यह फासीवाद विरोधी संगठन एंटीफा के नाम से मशहूर है। विरोध प्रदर्शन के कारण अमेरिका के 40 शहरों में कर्फ्यू लगा दिया गया है लेकिन इसके बाद भी लोग सड़कों पर उतर रहे हैं। अमेरिका की कई शहरों में पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच लगातार झड़पों की खबरें मिल रही हैं।जार्ज फ्लाएड की मौत के कुछ ही घंटों के बाद अमेरिका के बड़े शहरों में प्रदर्शन आरंभ हो गए और देखते ही देखते इसने आंदोलन का रूप ले लिया। इस घटना ने 2014 की एरिक गार्रनर की मौत की घटना को याद दिला दी। इस घटना में भी न्यूयॉर्क शहर के एक पुलिस अधिकारी ने एरिक गर्दन को तब तक घुटने से दबाए रखा जब तक उसकी मौत न हो गई। इस बार भी हिंसा भड़कने का एक बड़ा कारण आया था कि कई सालों से अश्वेत लोगों के खिलाफ पुलिस अत्याचार बढ़ गया था। समाजशास्त्र की विश्व विख्यात पत्रिका द सोशलॉजी टुडे के मुताबिक 2016 में 10 लाख लोगों में औसतन 10. 13 लोगों को गोली मारी इनमें अश्वेतों की संख्या 6.6 थी। अमेरिकन जर्नल ऑफ पब्लिक हेल्थ में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में प्रति एक लाख लोगों में पुलिस के हाथों मारे गए अश्वेतों की संख्या 2.4 है जबकि गोरों की संख्या केवल 0.7 है। यहां गौर करने की चीज है अमेरिका में अश्वेतों की आबादी केवल 13% और वहां पुलिस की गोली से मरे कुल लोगों में एक चौथाई अश्वेत नागरिक हैं। इसका अर्थ है अमेरिका में किसी निहत्थे गोरे व्यक्ति की तुलना में काले लोगों की मारे जाने की संभावना 4 गुना अधिक होती है। आंकड़े बताते हैं 2019 में पुलिस के हाथों मारे गए 1099 लोगों में 24% अश्वेत थे जबकि उनकी संख्या 13% ही है। अमेरिका में जार्ज फ्लाएड की मौत को लेकर गुस्सा इसलिए ज्यादा बढ़ गया कि लोग पुलिस की नीतियों से परेशान हो चुके हैं और पुलिस सिस्टम में पूरी तरह बदलाव चाहते हैं। इस बार के आंदोलन में हॉलीवुड के स्टार्स , बड़े नेता, बड़े कारोबारी और कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं अमेरिकी पुलिस के तौर-तरीकों के खिलाफ गुस्से में थी। अमेरिका मैं जो आबादी का घनत्व है उसे देखते हुए ऐसा लगता है कि वहां श्वेत सदियों तक वर्चस्व शाली रहेंगे





अब जरा परिदृश्य बदलिए और बताइए कि हमारे देश में क्या स्वर्ण जातीय अत्याचार और भेदभाव के खिलाफ संघर्ष में शामिल होंगे? यही उम्मीद की जा सकती है? यह तो देखा जा रहा है भारतीय स्वर्ण सेलिब्रिटीज और बुद्धिजीवी अमेरिका में अश्वेतों के लिए न्याय की मांग कर रहे हैं । लेकिन क्या भारत में ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि किसी दलित महिला की हत्या पर सवर्ण आवाज उठाएं। शायद ऐसा नहीं होता है वरना वी पी सिंह और अर्जुन सिंह यह हालत नहीं होती।लेकिन यह दूसरा दौर था। उस समय सवर्णों और दलितों के बीच की खाई इसलिए चौड़ा किया गया इसमें राजनीतिक स्वार्थ था। यहां इसमें एक अध्याय और जोड़ा जा सकता है कि जब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार बनी है तब से कई लोगों ने सवर्ण दलित और अल्पसंख्यक बहुसंख्यक इत्यादि जुमलों का प्रयोग शुरु कर दिया है। लेकिन, यहां अभी इस तरह की किसी आंदोलन आहट नहीं सुनी जा रही है। यह हमारे देश के वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व की क्षमता और उसकी सहृदयता का सबूत है। जोकि अमेरिका में देखने को नहीं मिल रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति जहर उगलने के लिए बदनाम है जबकि भारत के प्रधानमंत्री स्थितियों को संभालने और समरसता कायम करने के पक्षधर हैं । इस तरह के जातीय आंदोलन तभी होते हैं जब राष्ट्रीय नेतृत्व व्यवस्था को विशेषकर पुलिस व्यवस्था अपने राजनीतिक उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करने लगता है और जनता गौण हो जाती है। फिलहाल भारत में ऐसा कुछ नहीं है। कुछ लोग इसे स्वरूप देने की कोशिश में है लेकिन सरकार उनके प्रयासों को सफल नहीं होने दे रही है और इसका मुख्य श्रेय सरकार की सामाजिक विचारशीलता को है।

Wednesday, June 3, 2020

आपदा को मोदी ने अवसर में बदला



आपदा को मोदी ने अवसर में बदला





इस वर्ष फरवरी में जब कोविड-19 का दैत्य इस धरती पर आया तो लोग कहने लगे सारी नीतियां और पूरी दुनिया की जीवनशैली बदल जाएगी। धीरे धीरे इसका प्रसार होता है और यह महामारी के रूप में पूरी दुनिया में फैल गया। दुनिया के लगभग सभी देशों ने इसके मुकाबले के लिए असाधारण कदम उठाए। भारत भी पीछे नहीं रहा। अर्थव्यवस्था के ध्वस्त हो जाने के भय से सभी देशों के नेताओं ने कुछ न कुछ ऐसा करना आरंभ किया जो देश की अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए जरूरी था। एक तरफ ऑनलाइन लेन देन , शिक्षा तथा अन्य व्यवस्थाएं और दूसरी तरफ आर्थिक पैकेज। ऑनलाइन शिक्षा यह बारे में कहा जाने लगा सरकार इसके माध्यम से अमीरों और गरीबों के बीच एक दरार पैदा करना चाहती है वही आर्थिक पैकेज के बारे में टिप्पणियां होने लगी किससे 130 करोड़ जनता का विकास कैसे होगा? यह राशि गरम रेत पर पानी की बूंद की तरह है और इसके बाद क्या होगा? भूख और बेरोजगारी से व्याकुल लोग विप्लव पर उतर आएंगे। ऐसे आलोचक अपनी बात के लिए कई ऐतिहासिक तथ्य भी प्रस्तुत करते हैं। इन्हें कैसे बताया जाए कि इतिहास समय सापेक्ष होता है और उसकी धारा को प्रभावित करने के लिए कई कारक होते है। इतिहास के उद्धरण उन कारकों के अभाव में वर्तमान में देना बहुत सही नहीं है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने 193 देशों की वित्तीय और मौद्रिक हम नीतियों पर एक रिपोर्ट की है। उस रिपोर्ट के मुताबिक यह आर्थिक पैकेज अनुमानतः जीडीपी के आंकड़े 3:5 प्रतिशत है जो गरीब घरों, प्रवासी मजदूरों और कृषि में खर्च होते हैं। आंकड़े बताते हैं कि ब्राजील और पेरू में इससे ज्यादा खर्च हो रहे हैं। मौद्रिक और वित्तीय समर्थन स्तर भारत से ज्यादा केवल इंडोनेशिया में है जहां की आबादी भारत के बहुत कम है। आबादी के कंपोनेंट और वित्तीय समर्थन की अगर तुलना करें चीन भी लगभग भारत के बराबर होगा। जहां तक भारत में दिए गए पैकेज का प्रश्न है तो यह अतिरिक्त खर्च और के रूप में है। इसका सीधा असर होता है। अगर देखें तो सभी ज़ी 24 देशों में किए जाने वाले सभी वित्तीय उपाय लगभग भारत के समतुल्य हैं।


जहां तक भारत का सवाल है अगर भारत में किसानों को उनकी फसल के समर्थन मूल्य के रूप में दी जाने वाली मदद, खाद, बिजली , पानी आदि के रूप में जो सब्सिडी मिलती है और पिछले साल से प्रति किसान को जो 6000 रुपए दिए जाते हैं इन सब को यदि जोड़ा जाए यह राशि जीडीपी के 2% के बराबर होगी। इसमें किसानों को बैंकों से मिलने वाले क्यों ब्याज दरों पर दी जाने वाली रकम शामिल नहीं है। चूंकि , यह सारा कार्यक्रम देश के 14 करोड़ हेक्टेयर जमीन के लिए है। अब अगर प्रति हेक्टेयर खर्च देखें तो यह 30000 रुपए हो जाएगा। इसका अर्थ है हमारे देश में एक हेक्टेयर की जोत वाले की शाम को लगभग ढाई हजार रुपए लाभ दिए जाते हैं। अगर यह बात आप किसी किसान से कहेंगे तो वह आपका मजाक बना देगा। अब यह मामला इस रकम का है तो निरंतर संकटग्रस्त किसान के लिए न्यूनतम आय का विचार लागू करना संभव नहीं है। राजनीतिज्ञ किसानों की कमजोरियां जानते हैं इसलिए वे उनका उपयोग करते हैं। उदाहरण के लिए देखें तो भूजल के अधिक दोहन रासायनिक खादों के अत्यधिक प्रयोग से खेत ऊसर होते जा रहे हैं इसे रोका जाना चाहिए लेकिन इसके राजनीतिक असर को देखकर कोई भी दल ऐसा साहस नहीं करेगा। किसानों को बिजली लगभग मुफ्त या भारी रियायत के साथ उपलब्ध है। मोदी सरकार इस दूरी सब्सिडी को खत्म करने का प्रयास कर रही है क्योंकि लागत की भरपाई के लिए मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र से ज्यादा वसूल किया जा रहा है। इस पर राजनीतिक विवाद शुरू हो गए हैं । कहा जा रहा है की भूजल के अतिरिक्त उपयोग पर रोक लगाने से पंजाब में कम पानी वाले क्षेत्रों में धान की खेती और महाराष्ट्र में गन्ने की खेती बंद हो जाएगी। इस तरह चावल और चीनी के निर्यात को बनावटी बढ़ावा देना भी बंद हो जाएगा। लेकिन क्या किया जाए? अगर ध्यान से देखें तो यह एक तरह से पानी का निर्यात है।





लेकिन नरेंद्र मोदी ने अपने हिम्मत को बनाए रखा है और उनका दावा है की सारी आलोचनाओं के बाद भी 21वीं सदी भारत की होगी। हमें कोरोना पहले की दुनिया और बाद की दुनिया की तुलना करने का अवसर मिला है। जो स्थितियां बनी हैं उसे भी हम समझते हैं। जब हम दोनों काल खंडों को भारत के नजर से देखेंगे हमें लगेगा 21वीं सदी भारत की है और नरेंद्र मोदी ने इस संकट को अवसर में बदला है। कृषि पर ज्यादा बोझ ना पड़े इसके लिए मोदी जी ने आत्मनिर्भर भारत कल्पना की और कहा एशः पंथाः और इसे कहा यही एक रास्ता है यानी आत्मनिर्भर भारत ही एकमात्र रास्ता है। भारत ने आपदा को अवसर बना दिया और एक संकल्प के साथ उस अवसर को लाभदायक बनाने की राह पर चल पड़ा है।