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Friday, March 23, 2018

सन्मार्ग ऐव सर्वत्र पूज्यते ....

सन्मार्ग ऐव सर्वत्र पूज्यते ....

कल रामनवमी है। अबसे सत्तर साल पहले इसी  दिन ही स्वामी करपात्री जी द्वारा सन्मार्ग की स्थापना की गई थी। वाराणसी से कोलकाता तक गंगा की यात्रा , राम शब्द और उसके समानांतर सन्मार्ग का खुद में बहुत व्यापक  पौराणिक अर्थ और बिम्ब समेटे हुए है। कोलकाता से आगे जा कर सगर पुत्रों का उद्धार करती हुई गंगा सागर में समा जाती है।या कह सकते हैं कि भगवान शिव की जाता से मुक्त होकर यह पावनसलिला कोलकाता से आगे बढ़ते ही अपना उद्देश्य प्राप्त कर लेती है।उसी तरह वाराणसी से कोलकाता आये सन्मार्ग का अपना एक उद्देश्य है। अब आप पूछ सकते हैं कि रामनवमी के दिन ही क्यों? इसलिए कि राम रसायन  है।इसमें  ‘र’ अग्निवाचक है। ‘अ’ बीज मंत्र है। ‘म’ का अर्थ है ज्ञान। यह मंत्र पापों को जलाता है, किंतु पुण्य को सुरक्षित रखता है और ज्ञान प्रदान करता है। यानी समाचारों के घटाटोप को भेद कर सच की ज्योति दिखाता है, सच को सुरक्षित रखने का हुनर सिखाता है और तब सत की ओर जाने वाले पथ पर आगे बढ़ने के लिए शिक्षित करता है और सन्मार्ग का उद्देश्य भी तो यही है। आज का समाज 

भयंकर अविश्वास और भीषण संशय से त्रस्त है । धर्म और मजहब  के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है वह लोग महसूस कर रहे हैं। ऐसे में इस शहर में धर्म के ताने बाने में सामाजिक सौहार्द के नये प्रकल्प  की कल्पना में  एक संत ने " नमोस्तुरामाय सलक्ष्मणाय  देव्यै च तस्यैजनकात्मजायै नमोस्तुरुद्रेन्द्रयमानिलेभ्यो । नमोस्तुचन्द्रार्कमरुद् गणेभ्यः" का शंख फूंका और रामराज परिषद के तत्वावधान में सन्मार्ग की स्थापना की। वह संत थे स्वामी करपात्री जी महाराज और सन्मार्ग  केवल अखबार नहीं उनके जीवन का दर्शन था, कर्म था।  आज  हवा में एक अजीब सी चेतावनी और आने वाली आंधी की भनक सुनायी दे रही है, यही हालात उस समय भी थे। यह  एक अस्वाभाविक और अनैतिक प्रक्रिया का स्वाभाविक और अनिवार्य परिणाम है। इतिहास में जब कोई प्रक्रिया अस्वाभाविक और अनैतिक होती है तो उसकी पृष्ठभूमि में कुछ ऐसी शक्तियों का निहित स्वार्थ होता है जो मनुष्य उसके सहज स्वभाव से हटाकर बाहरी छद्म की ओर ठेल देता है। जिस तरह हर झूठ को विश्वसनीय बनाने के लिये उसमें सत्य का कुछ अंश मिलाना जरूरी होता है उसी तरह हमारी परम्परागत धार्मिक भावनाओं का शोषण किया जा रहा है और देश के आम आदमी को धर्म से उन्मूलित कर साम्प्रदायिक बनाया जा रहा है। ऐसी परिस्थिति में सच क्या है यह बताने के लिये सन्मार्ग की स्थापना हुई और वह आज भी उसी उद्देश्य पर कायम है। 
आज सूचनाक्रांति के इस निविड़ संजाल में जहां सच हर लम्हा कतरा- कतरा तैरता हुआ सतह पर आ जाता है तब सच को बताने की क्या जरूरत है और जब जरूरत नहीं तो फिर सन्मार्ग का औचित्य क्या है? क्योंकि ऐसे में उसका उद्देश्य तो पूरा हो जाता दिख रहा है। लेकिन यहां एक भ्रम है ठीक वैसा ही जैसा यूरोप ने आत्मगौरव से तने अपने सिर को झुका कर नहीं देखा और यूरोप दो- दो महायुद्धों के गहरे अंधकार में डूब गया। आज जिसे हम सूचना का प्रचंड संजाल समझ रहे हैं वह असल में सूचना के आधुनिक तिलिस्म का मायावी धुंध है जो  परंपरा को ज्ञान और आलोक से हटाकर उसका सही और स्वस्थ स्वरूप प्रस्तुत करने से रोक रही है। जब सन्मार्ग की स्थापना हुई थी उस दिन हम आशंका के घने कोहरे में खड़े थे आज सूचना के गहरे धुंध  में खड़े हैं। सच उस दिन भी ओट में था ,आज भी नजरों से ओझल है , इसीलिये तो हमारा मानना है कि खबरें अनेक सच्चाई एक। हमारे पूर्वजो ने सन्मार्ग का शंख फूंका। असल में उनका जो भविष्य था वही तो आज हमारा वर्तमान है। उनहोंने अपने भविष्य के बारे में जो सपने देखे वही आज हम भोग रहे हैं। आज यह पूछा  जा रहा है कि सन्मार्ग की स्थापना महामना संत  करपात्री जी  ने क्यों की? ऐसे सवालों के उत्तर तत्काल नहीं मिलते। त्रेता में भी इसी से मिलता जुलता एक प्रश्न पूछा  गया था कि , राम का जन्म क्यों हुआ ? समय के पास इसका उत्तर नहीं था। कई सौ वर्षों के बाद त्रेता में इस प्रश्न का उत्तर कृष्ण ने दिया महाभारत के मैदान के बीच में खड़े हो कर- " विनाशाय च दुष्कृताम ! "  समय की अविरल धारा का कैसा प्रवाह है।  उसी प्रवाह में अगर आप आज की स्थिति का मूल्यांकन करें तो लगेगा कि हम एक भयावह संकट के दौर से गुजर रहे हैं जिसमें हमारी परंपरा पर प्रश्न उठ रहे हैं।उस परंपरा की रक्षा ही " परित्राणाय च साधूनां " है।  अब सवाल उठता है कि सन्मार्ग क्यों   इस आधुनिक युग उस प्राचीन परम्परा की हिफाजत में जुटा है और हमारे पूर्वजों ने ऐसा संकल्प क्यों लिया?

हमसे पूछा जा रहा है कि हम कौन है, परंपरा का अस्तित्व क्यों है और सन्मार्ग इस परंपरा को कायम रखने में क्यों जुटा है? ऐसी संकट की घड़ी में  अपनी परंपरा का मूल्यांकन करना एक तरह से खुद अपना मूल्यांकन करना है।अपनी अस्मिता की जड़ों को खोजना है। हम कौन हैं यह एक दार्शनिक प्रश्न ना रहकर खुद अपनी नियति से मुठभेड़ करने का एक तात्कालिक प्रश्न बन जाता है । यहीं परंपरा अपने भीतर की निरंतरता का बोध बन जाती है। वह अपनी तात्कालिकता में शाश्वत है इसलिए इतिहास से संत्रस्त ना होकर स्वयं हर ऐतिहासिक घटना का मूल्यांकन करने का साहस और सामर्थ्य रखती है। हम उसकी सम्पूर्णता में सम्पूर्ण हैं। सन्मार्ग की स्थापना के उद्देश्य को समझने के लिए हमे संस्कृति के प्रश्न पर पुनर्विचार करना होगा । हम संस्कृति को उन बिम्बों , प्रतीकों और मिथकों से अलग कर के नहीं देख सकते जो हमारे जीवन के साथ अंतरंग रूप से जुड़े हैं।  हमसे अभागा कौन होगा जो आधुनिकता की रौ में भारतीय सभ्यता की इस अनमोल निधि को नष्ट कर दे रहे हैं। हमारी कोशिश है कि इस निधि को बचाने के लिये लोगों के भीतर एक जज्बा कायम कर दें। हम यह गर्व से कह सकते हैं कि देश के अपने दस लाख पाठकों के भीतर सभ्यताबोध की इस ज्योति को जगाने में हम बहुत हद तक कामयाब रहे हैं और इस सफलता की व्यापकता में प्रसार हो रहा है। पर अब तक हम यह साहस नहीं जुटा पाये कि पश्चिमी बौद्धिक दासता से मुक्त होकर सोच- समझ के अपने औजार विकसित कर सकें और युवा पीढ़ी को अपनी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मनीषा के अनुरूप दीक्षित कर सकें। यहां यह बता देना प्रासंगिक होगा कि यूरोपीय चिन्तनधारा ने संस्कृति और सभ्यता में कन्फ्यूजन पैदा कर दिया है। एक तरफ जहां संस्कृति को धर्म संस्थानों से जोड़ दिया गया वहीं सभ्यता को बाह्य आवरण से।  आज भारत में यानी एक भगौलिक क्षेत्र में  हजारों साल से जो एक साथ बहुसंख्यक और सैकड़ों अल्पसंख्यक समुदाय रहते आये  हैं और उन्होने भारतीय सभ्यता को अमीर और दीर्घजीवी बनाया है। उसके मूल में भारत की संस्कृति ही है। इसलिये इसे बचाये  रखना जरूरी है।अब सवाल उठता है कि हमने वह लक्ष्य कहां तक पूरा किया? यहां यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि यह प्रतिज्ञा केवल व्यापक सभ्यता बोध के भीतर ही पूरी हो सकती है। भारत की भौगोलिक एकता केवल ऐसे परम्पराबोध में ही अर्थवान हो सकी है, जहां अनेक संस्कृतियां और धर्म-सम्प्रदाय सदियों से एक दूसरे से प्रेरणा पाते रहे हैं। दुनिया में भारत ही एक ऐसा देश है जिसकी राष्टीय अस्मिता दूसरों के विनाश से नहीं अपनी सभ्यता के विविध चरित्र से बनी है। महान संत करपात्री जी रामराज की बात की थी, गोरक्षा की बात की थी ओर सनातन धर्म के उत्थान-विकास की बात की थी ओर इसी उद्देश्य से उन्होंने राजनीति का पल्ला भी पकड़ा था। यहां प्रमुख मुद्दा यह है कि राज्यसत्ता अपनी वैधता का स्रोत क्या मानती है? पुराने जमाने में राजा अपनी वैधता का स्रोत दैवीय मानते थे लेकिन राजा की ज्यादतियां  प्रजा के लिये इसे दैवी मानना कठिन हो गया। क्रांति हुई और वह जन इच्छा में बदल गयी। लेकिन बात यहीं नहीं रुकी। यह जन इच्छा भी सर्वसत्ता वाद में बदल गयी। दो सौ वर्षो के कटु अनुभव के बाद हम समझ सके कि राज्यसत्ता की वैधता का स्रोत ना दैवीय है ना जनइच्छा । स्वामी करपात्री जी ने इसे धर्म बताया था और यहीं आकर उन्होने रामराज की सथापना की कल्पना की थी। इस कलपना को दरकिनार करने के लिये एक नया नारा निकला  कि राजनीति धर्मावलम्बी हो या धर्मनिरपेक्ष।  मूल बात यह नहीं है क्योंकि दोनो प्रक्रियाएं आधुनिक मनुष्य की खंडित मानसिकता का बोध कराती हैं। यहां जिस रामराज्य की बात है वह इस तरह के विभाजन को कृत्रिम और अर्थहीन मानता है। यह मानना एक संकल्प है। इस संकल्प को समझने के लिये हमें सन्मार्ग के मिथकों और बिम्बों को समझना होगा। उनके रहस्य खोलने होंगे। ऊपर कहा गया है कि महान संत करपात्री जी ने नमोस्तु रामाय सलक्ष्मणाय .... का शंख फूंका। यह स्वयं में एक बिम्ब है और इससे जुड़ा मिथक है सन्मार्ग ऐव सर्वत्र पूज्यते .... इन मिथकों और बिम्बों को जोड़ कर देखें तो जो दर्शन प्राप्त होगा वह है संधान के अधिकार और क्षमता के दुरुपयोग पर अंकुश । यानी फल की पवित्रता के लिए साधन की शुचिता आवश्यक है। पिछले वर्ष एक मुलाकात में जगदगुरू स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने कहा था कि " अशौच साधन से पवित्र साध्य उपलब्ध नहीं हो सकता। " आज खोजी पत्रकारिता और समाचार संधान के लिये अधिकारों का दुरुपयोग और साधन की शु​चिता से समझौता सत्य के लिये सबसे बड़ा संकट है। हमारे पूर्वजों ने यहीं मिथक गढ़ कर वर्जना कायम की थी - ..... नापथ: क्वचित। यानी संधान के अधिकार और क्षमता में एक सरल सहसम्बंध है जैसे देह अंगों को ढोती है या अंग देह यह पता करना संभव नहीं है।  जिस समय हमारे पूर्वजों ने सन्मार्ग का पहला अंक हाथों में लेकर देखा होगा वह वक्त कुछ ऐसा था जब आम आदमी को उसके सहज स्वभाव से  भटका कर छद्म लक्ष्य की ओर मोड़ा जा रहा था और हमारे पूर्वजों ने सन्मार्ग की पहली प्रति हवा में लहरा कर आगत काल को आश्वस्त किया होगा " हम रहें या नहीं पर यह रहेगा और  छद्म लक्ष्य की ओर बढ़ रहे समाज की दिशा को बदल कर रचनात्मक यथार्थ की ओर ले जाने की कोशिश में लगा रहेगा। "    सन्मार्ग का आप्त वाक्य , उसका  नाम और उसकी वर्जनाएं । यह भौतिकता का मूलभूत तत्व है यानी " सत" है। वह सत जो सच्चिदानंद का सृजन करता है। तुलसीदास ने कहा है 

सौरज धीरज तेहि रथ चाका । सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका ।।

बल बिबेक दम परहित घोरे । क्षमा कृपा समता रजु जोरे ।। 

  हमारे पहले अंक के साथ जो दीपशिखा प्रज्वलित हुई थी वह आज भी प्रकाशित है क्योंकि उस दीपक को  हमारे सुधि पाठक , विज्ञापनदाता और हितैषी अनवरत अपना " स्नेह" प्रदान करते रहे  हैं। हम इस दीपक को प्रकाशमान रखने के लिए उनके अत्यंत आभारी हैं।

सखा धर्ममय अस रथ जाकें । जीतन कहँ न कतहुं रिपु ताकें ।

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