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Tuesday, November 29, 2011

सामान्य राजनीतिक वातावरण के विनाश पर तुले हैं माओवादियों के हमदर्द

-हरिराम पाण्डेय
बाईबिल की एक पंक्ति है 'हू लिव्स बाई सोर्ड, डाइज बाई सोर्ड Ó यानी 'जो
हथियारों के बल पर जीवित रहता है वह हथियारों से ही मारा जाता है। Ó
कुख्यात माओवादी नेता एम कोटेश्वर राव उर्फ किशन जी के मामले में! यह बात
बिल्कुल सही है। किशन जी का मेदिनीपुर के जंगलों में पुलिस और
अद्र्धसैनिक बलों की संयुक्त कारवाई में मारा जाना जितनी बड़ी घटना है
उससे कहीं बड़ा उस घटना के बाद का प्रभाव कहा जा सकता है।
किशन जी के मारे जाने को लेकर पहले तो पश्चिम बंगाल के बुद्धिजीवी और
विभिन्न राजनीतिक दल कई गुटों में बंट गये हैं। आने वाले दिनों यहां की
सिविल सोसायटी में इस मसले को लेकर व्यापक आंदोलन शुरू होने की आशंका है।
माओवादियों के हमदर्द एवं विप्लवी कवि वारवरा राव ने तो पश्चिम बंगाल के
मुख्य सचिव से मिल कर किशनजी की मौत की जांच कराने की मांग की है।
माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े नेताओं ने किशन जी के पोस्टमार्टम
रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की मांग की है। माओवादियों से सहयोग करने वाले
शहर के बुद्धिजीवियों के संगठन गणतंत्र बचाओ संघ या ए पी डी आर
(एसोसियेशनफॉर प्रोटेक्शन ऑफ डिमोक्रेटिक राइट्स) ने सुप्रीम कोर्र्ट के
जज से जांच कराने की मांग कर रहा है। इनका कहना है किशन जी को पकड़ कर
मारा गया। खबर है कि किशन जी की मां ने ए पी डी आर के माध्यम से इस मौत
के विरोध में कोर्ट जाने की धमकी दी है। माओवादियों और राज्य सरकार के
बीच शांति के लिये मध्यस्थता करने वालों का कहना है कि इस मौत का शांति
वार्ता पर प्रतिगामी असर पड़ेगा। शांति के लिये मध्यस्थता करने वाले दल
के एक प्रमुख सदस्य का कहना है कि अब शायद ही माओवादी वार्ता के लिये
तैयार हों।
ये सारी हमदर्दी माओवादी नेता को लेकर है। अब सवाल उठता है कि जब माओवादी
नेता ने सैकड़ों लोगों को मारा, कई लोगों को मार कर पेड़ से लटका दिया,
सुरंगें लगा कर पुलिस वाहन उड़ा दिये तब कहीं कोई मानवाधिकार का शोर नहीं
उठा। किसी ने इन हत्याओं पर कुछ नहीं कहा। इनके हमदर्द जांच की मांग कर
रहे हैं पर जांच करेगा कौन? और अगर जांच किया भी तो उसके नतीजे को वे
मानेंगे।
अबसे कुछ माह पहले सरकार ने जंगलमहल (वन क्षेत्र)के दस हजार बेरोजगारों
को नौकरी तथा रोजगार देने की योजना बनायी थी। उसके लिये आवेदन आमंत्रित
किये गये थे। लेकिन उस क्षेत्र के सभी आदिवासियों के घरों पर रातोंरात
पोस्टर लग गये जिसमें आवेदन करने को मना किया गया था वरना जान जा सकती
है। इस बेरोजगारी को बढ़ाने वाले कदम के विरोध में किसी संगठन ने आवाज
नहीं उठायी। ऐसा क्यों हुआ?
यहां सियासी हलके में चर्चा है कि किशन जी को केवल इस लिये मारा गया कि
उसने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से बगावत कर दी। ममता बनर्जी की पार्टी
तृणमूल कांग्रेस के एक पूर्व वरिष्ठï नेता कबीर सुमन ने अपनी जीवनी
'निशानेर नाम तापसी मल्लिकÓ में ममता बनर्जी और किशन जी की मुलाकात का
पूरा ब्यौरा दिया है। यह मुलाकात तृणमूल कांग्रेस के मुख्यालय में हुई थी
और उस समय राजा सारखेल और प्रसून चट्टïोपाध्याय भी उपस्थित थे। राजा और
प्रसून अभी जेल में हैं। हालांकि कबीर सुमन अभी तृणमूल कांग्रेस में नहीं
हैं लेकिन किशन जी को ही समर्पित इस पुस्तक में जो कुछ भी लिखा है उसका
खंडन नहीं किया गया।
इस आरोप में चाहे जितना भी दम हो लेकिन क्या निरीह लोगों की हत्या के इस
'अपराधीÓ को मारा जाना क्या सचमुच मानवाधिकार का हनन है? वाक् विप्लवी
संगठन ए पी डी आर उन लोगों के लिये यह सब कर रहा है जिन्होंने लोकतंत्र
पर कभी भरोसा किया ही नहीं। जिस क्षण किसी ने गणतांत्रिक प्रक्रिया को
अस्वीकार कर बंदूक उठा लिया उसी क्षण उसका गणतांत्रिक अधिकार समाप्त हो
जाता है। यह अत्यंत सबल सत्य है कि एक आदमी की हत्या के बाद हत्यारे के
जीने का हक खुद ब खुद खत्म हो जाता है। किशन जी की मौत को लेकर
माओवादियों के हमदर्द बुद्धिजीवी या ये ए पी डी आर के कार्यकर्ता आखिर
क्यों इतने परेशान हैं? यह एक प्रश्न है जिसका उत्तर खोजा जाना जरूरी
है। माओवादियों के आदिवासी और पिछड़े हुए इलाकों में सांगठनिक विस्तार को
ही गंभीरता से देखें तो पाएंगे कि इनमें से अधिकांश इलाकों में वे तब ही
गए हैं जब वहां किसी न किसी प्रकल्प के लिए जमीन ली गयी, बांध बनाया गया,
कारखाना लगाया गया या अन्य किसी काम के लिए आदिवासियों को बेदखल किया
गया। आदिवासियों की बेदखली के पहले माओवादी इन इलाकों में नजर नहीं आते।
आदिवासी इलाकों में बेदखली के खिलाफ उनकी मांगें क्या हैं ? वे सारी
मांगें आदिवासी इलाकों के विकास से जुड़ी हैं। इनमें भी वे आदिवासियों को
उनकी जमीन पर अधिकार दिलाने या उनका मालिकाना हक बरकरार रखने पर च्यादा
जोर देते हैं।
माओवादी राजनीति के उभार के कारण नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह के शासनकाल
तक के दौरान हुए विकास की सीमाएं बड़ी तेजी से आम लोगों के सामने उजागर
हुई हैं। माओवादियों ने बुर्जुआ विकास की तमाम बातों की
महानरीय-मध्यवर्गीय सीमाओं को उजागर किया है।
माओवादियों ने अंधाधुंध विकास की नवउदारवादी नीतियों का देश के विभिन्न
इलाकों में जनांदोलन खड़ा करके प्रतिवाद किया है । अनेक स्थानों पर
उन्होंने सरकार को पीछे हटने के लिए मजबूर किया है। इसमें गरीबी को
उन्होंने अपनी हिंसा के लिए वैध अस्त्र ठहराया है।
माओवाद के खिलाफ कुछ लोग यह तर्क दे रहे हैं कि हमें उनके खिलाफ राजनीतिक
जंग लडऩी चाहिए। उन्हें जनता में अलग-थलग करना चाहिए। उनके खिलाफ जनता को
गोलबंद करना चाहिए। सवाल यह है कि क्या माओवादी हिंसा के समय जनता में
राजनीतिक प्रचार किया जा सकता है ? क्या माओवाद का विकल्प जनता को समझाया
जा सकता है? राजनीतिक प्रचार के लिए शांति का माहौल प्राथमिक शर्त है और
माओवादी अपने एक्शन से शांति के वातावरण को ही निशाना बनाते हैं,सामान्य
वातावरण को ही निशाना बनाते हैं, वे जिस वातावरण की सृष्टि करते हैं
उसमें राज्य मशीनरी के सख्त हस्तक्षेप के बिना कोई और विकल्प संभव नहीं
है। राज्य की मशीनरी ही माओवादी अथवा आतंकी हिंसा का दमन कर सकती है।
दूसरी बात यह है कि जब एक बार शांति का वातावरण नष्ट हो जाता है तो उसे
दुरुस्त करने में बड़ा समय लगता है। माओवादी और उनके समर्थक बुद्धिजीवी
माओवादियों की शांति का वातावरण नष्ट कर देने वाली हरकतों से ध्यान हटाने
के लिए पुलिस दमन,फर्जी मुठभेड़ आदि को बहाने के तौर पर इस्तेमाल करते
हैं।
माओवादी राजनीति या आतंकी राजनीति का सबसे बड़ा योगदान है सामान्य
राजनीतिक वातावरण का विनाश। वे जहां पर भी जाते हैं सामान्य वातावरण को
बुनियादी तौर पर नष्ट कर देते हैं। ऐसा करके वे भय और निष्क्रियता की
सृष्टि करते हैं। इसके आधार पर वे यह दावा पेश करते हैं कि उनके साथ जनता
है। सच यह है कि आदिवासी बहुल इलाकों से राजनीतिक दलों के लोग चुनाव के
जरिए विशाल बहुमत के आधार पर चुनकर आते रहे हैं। इसलिये किशन जी की मौत
को लेकर उठाये जा रहे सवाल एक खास उद्देश्य से प्रेरित हैं अत: न सरकार
को इस पर ध्यान देना चाहिये और जनता को इस झांसे में आना चाहिये।
अब सवाल उठता है कि क्या किशन जी मारे जाने से जो वैकुअम पैदा हो गया है
उसके कारण क्या यहां माओवादी आंदोलन शांत हो जायेगा या जंगलमहल शांत हो
जायेगा। शायद ऐसा नहीं होगा, क्योंकि ये सारा शोर शराबा केवल इस लिये है
कि सरकार अपना हस्तक्षेप बंद करे और माओवादियों को इस क्षति से उभरने तथा
किशन जी का विकल्प खोजने का अवसर मिल जाये।


Friday, November 25, 2011

दैनिक हिंदुस्तान के सम्पादकीय पृष्ठ पर 24 नवम्बर 2011 को प्रकाशित आलेख


दैनिक हिंदुस्तान के सम्पादकीय पृष्ठ पर 24 नवम्बर 2011 को प्रकाशित आलेख

Monday, November 7, 2011

अमर उजाला में दिनांक 8-11-11 को छपी एक रचना