CLICK HERE FOR BLOGGER TEMPLATES AND MYSPACE LAYOUTS »

Tuesday, March 31, 2020

अब सियासत नहीं विज्ञान की बातें हों

अब सियासत नहीं विज्ञान की बातें हों 

वर्तमान में जो महामारी विश्व के सामने है उससे कठिनाइयां बढ़ रही हैं और यकीनन इसके बाद दुनिया वह नहीं रह जाएगी जो आज तक रही है। बड़ी संख्या में लोग मारे जा रहे हैं और संक्रमित हो रहे हैं। इसे रोकने के लिए दुनिया भर की सरकारों से जो कुछ बन पड़ा है वह किया जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरे देश में लॉक डाउन करवा दिया। बेशक ऊपर से देखने में तो यह कुछ ज्यादा ही लग रहा है। खासकर ऐसे मौके पर जब देश की बहुत बड़ी आबादी रोज खाने कमाने वाली है । अर्थव्यवस्था की स्थिति सुस्ती में है तथा लॉक डाउन के बाद जब काम बंद हो जाएगा तो लोगों का बड़ी संख्या में पलायन होगा। पलायन के दबाव के लिए सरकार ने कोई तैयारी नहीं की है। फिर भी जो कुछ किया जा रहा है और सरकारों से जो कुछ बन पड़ा है वह हो रहा है। कोरोना वायरस के इस प्रसार में अगर कोई कहे कि इसमें कुछ सकारात्मक भी है तो हैरत होगी। लेकिन अगर उन सकारात्मक पहलुओं पर गौर करें तो इससे हमें अपने रीति-रिवाजों और परंपराओं पर सोचने मदद मिल सकती है। जिन रिवाजों को हमने अब तक पिछड़ापन कह कर किनारा कर दिया है कोरोना ने इस बात को स्पष्ट कर दिया है सामाजिक स्वास्थ्य और कल्याण के मामलों में हमारा खास करके एशियाई मॉडल पश्चिमी तौर-तरीकों से कहें बेहतर है। हमारे सामुदायिक स्वास्थ्य और सेवा प्रेरित नौकरशाही की अधिकतम ताकत का इस्तेमाल इस बीमारी के नियंत्रण में किया जा रहा है। जबकि दुनिया के अन्य देशों में ऐसा नहीं हो रहा है। इन दिनों एक कहावत निकल गई है, "कोरोनावायरस का जितना इलाज डॉक्टर नहीं कर पा रहे हैं उससे कहीं ज्यादा इलाज पुलिस कर रही है। कम से कम आपके दरवाजे पर खड़ा एक वर्दीधारी सिपाही यह आपको याद दिलाता है कि बाहर निकलना वर्जित है।  बाहर नहीं निकलने से जिन समस्याओं से हम बचे रहेंगे उसके बारे में सब जानते हैं।" कहते हैं कि शासन की त्वरित कार्रवाई में लोकतंत्र बाधक होता है, लेकिन हमारे देश भारत ने इसकी मिसाल कायम की है कि अगर उद्देश्य सही हो तो कहीं कोई बाधा नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोगों से आह्वान किया कि जनता कर्फ्यू लगेगा और लोगों ने  इसे मान लिया। कर्फ्यू लग गया । लोग एहतियात बरतने लगे। शायद यूरोप और अमेरिका में ऐसा देखने को नहीं मिलेगा। अगर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने राष्ट्रीय आपातकाल कानून और स्टेफर्ड कानून के प्रावधानों को ससमय लागू कर दिया होता तो अमेरिका आज के जैसे आर्थिक संकट से नहीं गुजर रहा होता। डोनाल्ड ट्रंप मैक्सिको सीमा पर दीवार बनाने के लिए आपातकाल की घोषणा करने के लिए तैयार थे लेकिन महामारी से लड़ने के वक्त वह ऐसा नहीं कर सके। पश्चिमी समाजशास्त्री और समाज वैज्ञानिक अक्सर यह कहते सुने जाते हैं कि छोटी आबादी वाले देशों में सामाजिक नीतियां प्रभावी ढंग से लागू की जा सकती हैं लेकिन भारत छोटी आबादी का देश नहीं है। यहां के एक राज्य या आबादी से दुनिया के कई देशों की आबादी कम है। अब समय आ गया है कि दावोस या इसकी तरह के अन्य शिखर सम्मेलनों पर ध्यान देना छोड़ें और इसके बजाय स्वास्थ्य और सामाजिक नीति विशेषज्ञों के शीर्ष स्तरीय सम्मेलन को प्रोत्साहित करें। सार्वजनिक स्थलों पर थूकना भारत में लंबे अरसे से चली आ रही एक सामाजिक बुराई है और इसके बारे में कई बार कहा सुना जा चुका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने व्यापक पैमाने पर स्वच्छता अभियान की शुरुआत की लेकिन कोरोना वायरस के डर से अब यह  सफलता का क्षण हो सकता है। यह तो प्रमाणित है कि थूक से कैसे टीबी फैलती है। अब यह भी लोग जानने लगे हैं कि खासने और थूकने से कोरोना वायरस का संक्रमण हो सकता है और लोग अपनी इन आदतों को नियंत्रित करेंगे ।  उनके बाद आदतें संभवत सुधर जाएंगे इसलिए पल्ले व्यवहार का लाभ उठाते हुए भारत सरकार को थूकने के खिलाफ एक व्यापक अभियान चलाना चाहिए जैसा खुले में शौच के खिलाफ चलाया गया। यदि ऐसा किया जाता है तो हमें नाटकीय परिणाम मिलेंगे ।  इस समय तो लोग सहयोग के लिए तैयार हो जाएंगे। लोगों ने मास्क पहनना शुरू कर दिया है । वह थूक अवरोधक भी है। थूकने वाले को मास्क पहनकर मुंह से पिचकारी चलाने का आनंद नहीं मिल सकता है।
      कुल मिलाकर सब ने देखा होगा इस समय राजनीति समाचार का विषय नहीं है। सब जगह समाचार बनाने वालों और समाचारों का संकलन करने वालों के साथ-साथ संपूर्ण समाज के सोच में हो रहे एक मनोवैज्ञानिक परिवर्तन का संकेत मिल रहा है। इन दिनों आतंकवाद और राजनीतिक उथल-पुथल के बारे में नहीं सुनना या कम सुनना कितना राहत दिलाने वाला है यहां तक कि कश्मीर के रिपोर्टर आतंकवाद के बजाय घाटी के वीरान पार्कों और बागो पर ध्यान दे रहे हैं ।वे पर्यटकों की कमी की बात कर रहे हैं और शायद ही कभी हिंसा की बात करते हैं । नतीजतन जहां कभी नेता हावी रहते थे वहां अब वैज्ञानिकों और ज्ञानियों की बातों को महत्व दिया जा रहा है इस कारण वास्तविक विशेषज्ञों को अपनी बात सामने रखने के लिए एक मंच प्राप्त हो रहा है हम जिस पक्षपातपूर्ण राजनीतिक बयानबाजी को झेल रहे थे उससे अब शायद लंबे समय तक सामना नहीं हो पाएगा या हो सकता है ऐसी स्थिति में परिवर्तन दिया है हो सकता है कोरोनावायरस के बारे में ज्यादा जानने के लिए सभी को थोड़ा गंभीर अध्ययन करना पड़े किताबों पर ज्यादा ध्यान जाएगा ग्रामर पॉलिटिक्स की बजाए अर्थशास्त्र या रामचरितमानस ज्यादा ध्यान आकर्षित करेंगे एक और बड़ा सुधार आएगा और इसका श्रेय  कोरोनावायरस हो जाता है जिन फिरंगी ओं के साथ खड़े होकर हम अपने को गौरवान्वित महसूस करते थे उस से दूरी बनाने लगेंगे क्योंकि विदेशों से  आए यह लोग ही वायरस के वाहक हैं विदेश यात्रा से लौटने वाले लोग अब फॉरेन रिटर्न की ठसक नहीं दिखा पाएंगे हालात इतने बदल गए हैं की पानी जा पनीर भी संदेह के घेरे में है इससे हमारे डेयरी उद्योग को मजबूती मिल सकती है अगर हल्के-फुल्के अंदाज़ में करें तो इस वायरस नहीं हैंड शेक जैसे चलन को बंद करना शुरू कर दिया है अब लोग नमस्ते तथा प्रणाम करने लगे हैं अभिवादन का यह स्वरूप लैंगिक रूप से निष्पक्ष और सार्वजनिक स्थानों पर स्त्री पुरुष संपर्क की हमारी संस्कृति के अनुरूप भी है। अर्थशास्त्र में चाणक्य ने कहा है कि मानवता की "अधिकांश समस्याएं अकेले में चुपचाप बैठ कर सोच पाने की हमारी अक्षमता के कारण पैदा हो रही हैं। " इसलिए स्वयं घर में बंद रहें और दूसरों को भी इसके लिए प्रोत्साहित करें।


Monday, March 30, 2020

डब्ल्यूएचओ अंतरराष्ट्रीय राजनीति का नया अखाड़ा

डब्ल्यूएचओ  अंतरराष्ट्रीय राजनीति का नया अखाड़ा 

21वीं सदी के शुरुआती दशक में एक महामारी आई थी सार्स। उससे बहुत लोग मारे गए थे। उससे पैदा हुए खौफ और दहशत की कल्पना से ही अंदाजा लगाया जा सकता है की कोरोनावायरस ने कैसे दुनिया को उथल-पुथल कर दिया। वर्तमान की तरह उस समय भी चीन ने सार्स महामारी के प्रसार को विश्व समुदाय को बताने में देरी की थी। लेकिन उस वक्त और आज के दिन में एक बड़ा फर्क है। सार्स की खबर मिलते ही विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने तुरंत सूचना जारी कर दी और यात्राओं पर अविलंब रोक लगा देने की सलाह दी। उसने सार्स की महत्वपूर्ण सूचना देने में देर के लिए चीन को आड़े हाथों लिया था। क्योंकि उसका कहना था कि अगर यह खबर पहले मिल गई होती तो बहुतों को बचाया जा सकता था। सार्स को काबू कर लेने का जश्न डब्ल्यूएचओ ने मनाया और चेतावनी दी कि कोरोना वायरस एकदम नए अवतार में लौट सकता है और इससे दुनिया को खतरा बना रहेगा। डब्ल्यूएचओ के तत्कालीन महानिदेशक डॉक्टर ग्रो हरलेम ब्रंड्टलैंड ने पूरी दुनिया से अपील की थी की पशुओं के रेहड़ की जांच करें क्योंकि उनसे भविष्य में महामारी फैल सकती है। उन्होंने यह भी सुझाव दिया था कि वायरस के विस्तार पर और शोध करने की आवश्यकता है। चीन के उन बाजारों को खासतौर पर चिन्हित किया गया था जहां तमाम तरह के पशुओं को लोगों को खाने वाली वस्तु के तौर पर बेचा जाता है। यहां वायरस सकते हैं और मनुष्यों  में प्रवेश कर सकते हैं। 2007 में एक शोध पत्र में कहा गया था वायरस की अस्थिर प्रकृति और चीन का तीव्र शहरीकरण  मिलकर "टाइम बम" का निर्माण कर सकते हैं ।  2015 में निर्णय किया गया कि कोरोनावायरस के रोग अनुसंधान और विकास को सबसे ज्यादा प्राथमिकता वाली सूची में रखा जाए, क्योंकि यह एक उभरती हुई बीमारी है और बड़ी महामारी का कारण बन सकती है। इस आकलन को डब्ल्यूएचओ की वार्षिक समीक्षा 2018 में दोहराया गया। इन सारे हालात को देखते हुए हैरत होती है कि जब दिसंबर में वुहान में निमोनिया वाले वायरस का पता चला  था और डब्ल्यूएचओ के पास इससे संबद्ध आंकड़े भी थे जो सार्स पर वर्षों के अध्ययन से हासिल हुए थे तब आखिर इतनी सुस्ती क्यों बरती गई? डब्ल्यूएचओ के वर्तमान महानिदेशक डॉक्टर ट्रेडोस ए गब्रेसेस ने जनवरी में महामारी के शुरुआती दौर में पारदर्शिता के प्रति प्रतिबद्धता के लिए चीन को शाबाशी दी थी। जबकि इसका खंडन करने वाले अनेक सबूत हैं।
     जब चीन में संक्रमण का पहला मामला सामने आया तो उसके अगले ही दिन डब्ल्यूएचओ ने दावा किया कि कोरोना वायरस के इंसान से इंसान को संक्रमण का सबूत नहीं है। इस संगठन को इस बारे में दिसंबर में ही सावधान कर दिया गया था। चीन ने 31 दिसंबर डब्ल्यू एच ओ को सूचित किया कि इस वायरस से अक्टूबर में ही मनुष्य का संक्रमण हो गया है। इसके बावजूद डब्ल्यूएचओ ने चीन की सरकार को नाराज न करने की पूरी सावधानी बरतते हुए वहां कोई जांच दल भेजने की गंभीरता नहीं दिखाई। डब्ल्यूएचओ और चीन की संयुक्त टीम फरवरी के मध्य में वहां गई।  इसमें  डब्ल्यूएचओ के   12  विशेषज्ञ थे  और चीन के  13 अधिकारी थे।  इस  टीम ने  जो रिपोर्ट दी उसमें चीनी तर्क भरे पड़े थे।
         इस बीच कोरोना से फैलने वाली महामारी के लक्षण दिखाई पड़ने लगे। डॉक्टर ट्रेडोस और उनकी टीम ना केवल सार्वजनिक स्वास्थ्य इमरजेंसी की घोषणा करने में नाकामयाब रही बल्कि उल्टे उसने पूरी दुनिया को यात्राओं पर रोक लगाकर दहशत और डर फैलाने से परहेज करने की अपील कर दी। इस अंतरराष्ट्रीय संगठन ने यात्राओं पर रोक लगाने के लिए अमेरिका की आलोचना की और इसे अतिवादी कदम बताया। डब्ल्यू एच ओ की सलाह पर यूरोपियन सेंटर फॉर डिजीज प्रीवेंशन एंड कंट्रोल ने सुझाव दिया कि इस वायरस से यूरोपीय संघ को खतरा कम है, इसलिए इसके देश में यात्रा पर रोक में देरी हुई। डब्ल्यूएचओ के शुरुआती गलत कदम के कारण पूरी दुनिया में हजारों लोग इस वायरस के शिकार हो गए उनके जीवन पर इसका लंबा असर पड़ सकता है। यही नहीं इससे आर्थिक मंदी भी आ सकती है।
     यही नहीं इस  महामारी का एक रणनीतिक पहलू भी सामने आ रहा है। यह बदलते अंतरराष्ट्रीय शक्ति संतुलन का एक और मोर्चा बन गया है। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। 50 और 60 वाले दशकों में डब्ल्यूएचओ खुद को सोवियत संघ के कम्युनिस्ट ब्लॉक और अमेरिका के बीच कसरत करता हुआ पाता था। 90 और दो हजार वाले दशकों में वह दवाओं बौद्धिक संपदा के अधिकार और दवाओं तक पहुंच के सवालों पर बहस में उलझा हुआ था। अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में चीन के बढ़ते दबदबे के कारण अंतरराष्ट्रीय राजनीति में नई खाईयां बन रही हैं और डब्ल्यूएचओ इसका पहला शिकार हुआ है। यहां यह ज्ञातव्य है की मार्गेट चान के नेतृत्व में डब्ल्यूएचओ उन पहले अंतरराष्ट्रीय संगठनों में था जिसने चीन की विवादास्पद "बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव" के तहत आधुनिक स्वास्थ्य प्राथमिकताओं को आगे बढ़ाने के लिए एमओयू पर दस्तखत किया था। चीनी और और कनाडाई मूल के चान का चीन के मेन लैंड से काफी प्रगाढ़ संबंध हैं। डॉक्टर ट्रेडोस को भी चीन समर्थित उम्मीदवार माना गया था और हाल के सप्ताहों में वह धारणा मजबूत हुई थी। दुनिया ने अब जवाब देना शुरू कर दिया है। हाल ही में विश्व बौद्धिक संपदा संगठन के नए महानिदेशक के चुनाव में सिंगापुर के उम्मीदवार की जीत हुई और इस विजय ने एक महत्वपूर्ण नियामक की मानक संस्था पर कब्जा करने की चीन की कोशिश को नाकाम कर दिया है। सवाल है कि क्या डब्ल्यूएचओ अब अंतरराष्ट्रीय राजनीति का नया अखाड़ा बनेगा ?


Sunday, March 29, 2020

वायरस को कहर ढाने की छूट नहीं दे सकते

वायरस को कहर ढाने की छूट नहीं दे सकते 

अभी हाल में बंगाल में शीतला पूजा गुजरी है। शीतला मां इसी तरह के संक्रमण की बीमारियों को समाप्त करने वाली देवी मानी जाती हैं। इसी हफ्ते रामनवमी भी आएगी यह उस राम के जन्म का समय है जिस राम ने 14 वर्षों के वनवास के बाद मानवता के दुश्मन रावण का वध किया था। आज कमोबेश वही हालात पैदा हुए हैं। लॉक डाउन में पूरा देश है और प्रवासी मजदूरों में भगदड़ मची हुई है। कुछ पूछते हैं क्या ऐसा ही चलेगा लेकिन शायद नहीं। कोरोना वायरस नाम के इस दैत्य से मुकाबले के लिए लोगों में मनोबल भरने का काम हमारे रिपोर्टर कर रहे हैं। उनका काम बंद नहीं है। यह देख कर बड़ा सुकून मिलता है कोई लड़की एयरपोर्ट से खबरें देती है तो कोई पुलिस वालों की मदद की खबरें पहुंचा रही है। कोई रिपोर्टर बीमारियों का सही हाल जानने के लिए अस्पतालों में घूम रहा है। यह गतिविधि एक उम्मीद है। यकीनन इस दौर में पत्रकारिता शायद हमारे जीवन की सबसे खतरनाक स्टोरी होगी। बड़ी बड़ी लड़ाई हो की खबरें जुटाने वाले उन संवाददाताओं से भी ज्यादा भयानक इन बच्चों के काम हैं। इस साहस को सलाम!
      कोरोना वायरस के संक्रमण के दौर में दो मान्य सच्चाइयों का जिक्र जरूरी है। पहली हकीकत है कि "जो कल करे सो आज कर" और दूसरी हकीकत है विख्यात अर्थशास्त्री केंस का वह  कथन कि " सबको एक दिन मरना है।" आज हताशा का मौसम चारों तरफ फैला हुआ है और ऐसे में एक खास किस्म की नाउम्मीदी लोगों के मन में कायम है और जो इस तरह की नाउम्मीदी  की बात नहीं करते उन्हें असंवेदनशील कहा जा सकता है। लेकिन पिछली पीढ़ियों से पहले आज तक की इतिहास का सबसे खतरनाक वायरस दुनिया में घूम रहा है। इसकी तुलना चाहे जिस से कर ली जाए या मिसालें चाहे जो गढ़ ली जाएं लेकिन सच तो यह कि इस वायरस से दुनिया के आम आदमी से बादशाह तक डरे हुए हैं। यह सबको अपनी चपेट में ले रहा है। महामारी विशेषज्ञों का कहना है कि अब तक इस वायरस के लिए कोई वैक्सीन नहीं बनी है या सामूहिक रोग प्रतिरक्षा या दोनों सफल नहीं होते दिख रहे हैं और शायद 50 से 80% लोग इससे संक्रमित हो सकते हैं। लेकिन यह आंकड़े बेमानी हैं। इंसानी फितरत है कि वह हर मुश्किलों से लड़ना सीख जाता है।  कभी मलेरिया से ग्रस्त होकर विश्वविजय का मंसूबा रखने वाला सिकंदर एड़िया रगड़ कर मर गया लेकिन आहिस्ता - आहिस्ता इंसान ने उस मलेरिया की दवा खोज लिए और आज वह कुछ नहीं है। बेशक कोरोनावायरस से भी कुछ लोग मर सकते हैं लेकिन कम से कम 98% लोग हमारे देश के इससे निपट लेंगे। अगर आप आलसी हैं ,भाग्यवादी हैं और हताशा वादी को तो आपके लिए बात दूसरी है केंस की बात कि आखिर हमें एक दिन मरना है। लेकिन यहां दो सवाल उभरते हैं । पहला क्या हम मौत का इंतजार करें । अधिकतर लोग इंतजार नहीं करते ज्यादा से ज्यादा लंबा जीवन जीने के लिए जी जान एक कर देते हैं। जहां तक वायरस का प्रश्न है वह तो संपूर्ण जैविक प्राणी ही नहीं है महामारी विज्ञान की विशेषज्ञता इस समय फैशन में है इसलिए जितने महामारी विशेषज्ञ या अर्थशास्त्री हैं या रामबाण दवा बताने वाले हैं वे बिल्कुल सही नहीं है कुछ विशेषज्ञ यह कह पाए जाते हैं कि जुलाई तक लाखों भारतीय मारे जाएंगे और 50 करोड़ से ज्यादा लोग संक्रमित हो जाएंगे। दूसरी छोर पर हमें यह बताया जा रहा है कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला है वायरस हमें छोड़ कर आगे बढ़ जाएंगे हमारे यहां का गर्म मौसम उनके जीवन के लिए मुफीद नहीं है । लेकिन शायद वह इस बात को नजरअंदाज कर दे रहे हैं की दक्षिण एशियाई लोगों में रोग से लड़ने की क्षमता कितनी जबरदस्त है ऐसे विशेषज्ञ यह मानकर चल रहे हैं कि हमारे देश के 136 करोड़ लोग अपने सामूहिक और व्यक्तिगत भविष्य को बचाने के लिए कुछ नहीं करेंगे? कोई भी देश आंकड़े बाजो के उन मनमाने अनुमानों के आगे हथियार नहीं डाल सकता। जिनमें सरकारों के और लोगों की कोशिशों को शून्य मान लिया जाता है। ग्लोबल मीडिया में बड़े अविश्वास के साथ सवाल पूछे जाते हैं कि भारत में इतनी कम मौतें कैसे? इस तरह की बात करने वाले लोग गलत है। क्योंकि वे इस बात की अनदेखी कर देते हैं कि सामने वाला क्या कर रहा है? दूसरा पक्ष क्या कर रहा है? वह दूसरा पक्ष हम हैं । यानी आम भारतीय। हम वे लोग हैं जिनका अपना लोकतंत्र है, स्वतंत्र मीडिया है ,सिविल सोसायटी और शोर-शराबा है । इस भारत में आप मजदूरों को सैकड़ों मील दूर अपने घर की ओर पैदल जाते देखते होंगे यह दृश्य आपको बेचैन कर देता होगा और सरकारों को भी कुछ न कुछ करने के लिए मजबूर कर देता होगा।  इसका छोटा जवाब केंस उस बात का जवाब  है एक दिन सबको मरना है। इस सब को अंत में मरना तो है लेकिन मरने का इंतजार क्यों करें ? जीवन को लंबा खींचने के लिए कुछ न कुछ करते रहेंगे । हमें अपने कल को बेहतर बनाने के लिए आज का पूरा उपयोग करने की जरूरत है। कल तो आएगा ही
        तब आप पूछ सकते हैं कि यह लॉक डाउन क्यों ? बेशक इस लॉक डाउन से हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था को सांस लेने का समय मिल जाएगा। जो गंभीर आपदा आने वाली है उसका सामना करने में हमारे अस्पताल कारगर हो जाएंगे। हर दिन नई समस्या उभर रही है और हर दिन उसके समाधान के उपाय किए जा रहे हैं । आगामी दिनों में यही सबसे अहम चुनौती साबित होगी और उसके बाद "सर्वे भवंतु सुखिन सर्वे संतु निरामया । "


Friday, March 27, 2020

उम्मीद तो दिखाई पड़ने लगी है

उम्मीद तो दिखाई पड़ने लगी है 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोशल डिस्टेंसिंग का जो उपाय सुझाया है उससे कोरोना वायरस का प्रभाव घटता नजर आ रहा है और उम्मीद है कि जब 21 दिन पूरे होंगे तो हालात काबू में रहेंगे। हालांकि सोशल मीडिया और टेलीविजन के समाचारों में कई ऐसी चीजें दिखाई पड़ रही है जिससे लगता है सब कुछ बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो गया है और कुछ नहीं तो लोग खरीदारी में जुटे हुए हैं। जरूरत के सामान इकट्ठे कर रहे हैं सैनिटाइजर और मास्क बाजार से गायब हैं।  इन दृश्यों का विश्लेषण किया जाय और यह जानने की कोशिश की जाए कि समाज में क्या बदल रहा है और लोग कैसा आचरण कर रहे हैं तो  कई चीजें  हासिल हो सकती  हैं।
      बुधवार को प्रधानमंत्री ने वाराणसी के लोगों को संबोधित करते हुए मदद का हाथ बढ़ाने की अपील की थी। लेकिन जो खबरें आ रही हैं उनसे तो ऐसा लगता है आम आदमी इस बदलाव को काबू में करना चाह रहा है और यह देख कर हैरत हो रही है चिंता भी और डर भी हो रहा है कि लोग सामान इकट्ठा कर रहे हैं। इसका अर्थ है कि वह जल्दी ही बहुत ज्यादा जमा कर लेना चाह रहे हैं। जो लोग बीमार हैं बुजुर्ग हैं और जिन्हें उपचार की जरूरत है उन पर कोई भी नहीं सोच रहा है। कुछ ज्ञान गुमानी लोग हैं जो यह कहते नहीं थक रहे हैं कि हालात जल्दी ही काबू में आ जाएंगे। सुनकर हैरत होती है। हालात के काबू  में आने का अर्थ हमारे भारतीय समाज में क्या है। भूख से तड़पते सामान से लदे घर को लौट रहे मजदूर या सरकार से तुरंत व्यापक पैमाने पर राहत पैकेज की मांग करने वाले नेता जो यह बताना चाह रहे हैं कि बिगड़ती स्थिति में वे किस तरह सचेत हैं। कोई भी राष्ट्रीय संसाधनों के बारे में और उन संसाधनों की सीमाओं के बारे में सोचने को नहीं तैयार है। कोरोना वायरस की महामारी ने भयानक चिकित्सकीय, भावपूर्ण मनोवैज्ञानिक और सामाजिक संकट खड़ा कर दिया है। जिसके लिए ना हम तैयार हैं ना प्रशिक्षित। विख्यात अमेरिकी समाज वैज्ञानिक एरिक क्लाइनबर्ग ने "सोशियोलॉजी टुडे" में हाल में एक बहुत ही महत्वपूर्ण लेख लिखा था जिसमें उन्होंने यह बताने की कोशिश की थी कि "यह समय समाजिक एकजुटता का  है जिसके तहत अंतर निर्भरता, कमजोर लोगों की हिफाजत, समान हितों की चिंता और जनता के कल्याण की बात सोचना जरूरी है।" लगभग यही बात प्रधानमंत्री ने भी अपने  संबोधन में कही थी। सचमुच उम्मीद तो है कि हम इस चुनौती पर विजय प्राप्त कर लेंगे लेकिन अब से 21 दिन के बाद हम कहां होंगे, हमारे चिंतन कहां होंगे समझ पाना बड़ा कठिन है । इसीलिए प्रधानमंत्री ने कहा कि आप कम से कम 9 लोगों की मदद करें। अगर यह 9 लोग दूसरे 9-9 लोगों की मदद के लिए हाथ बढ़ाते हैं तो आनन-फानन में 81 लोगों को मदद मिल सकती है। यही कारण है कि राज्य सरकारें स्थानीय प्रशासन अपने स्तर पर मुस्तैदी से काम करने में जुटे हुए हैं। सरकार के इन प्रयासों को कई धर्मार्थ संस्थाएं और गैर सरकारी संगठन सफल बनाने में जुटे हैं ताकि देश में ज्यादा से ज्यादा लोगों की जिंदगी को बचाया जा सके।
    अगर सामाजिक कार्यों का दावा करने वाले रजिस्टर्ड एनजीओ भी इस काम में जुट जाएं तो जरूरतमंदों को ज्यादा मदद मिल सकती है। जितने एनजीओ हैं उनके आधे भी प्रधानमंत्री की बात का अनुसरण करते हुए अपनी कमर कस लें तो इस चुनौती का सामना करना आसान हो सकता है। यह गैर सरकारी संगठन आगे आकर पलायन कर रहे असंगठित क्षेत्र के मजदूरों और दिहाड़ी पर काम करने वाले मजदूरों को कम से कम भोजन और अस्थाई आवास की व्यवस्था करने के कामों में जुड़ जाए तो बहुत बड़ा जनकल्याण हो सकता है। जिसका एनजीओ उद्देश्य बताकर अपना अस्तित्व कायम किया है हमारे देश में वर्तमान में लगभग 35 लाख पंजीकृत एनजीओ है और इन एनजीओ को केंद्र तथा राज्य सरकारों से अरबों रुपए की आर्थिक सहायता मिल चुकी है । कई संगठनों को तो विदेशों से भी आर्थिक मदद मिलती है। आंकड़े बताते हैं कि इन संगठनों को केंद्र और राज्य सरकारों से हर साल 1000 करोड़ रुपए की मदद मिलती है। अगर यह संगठन संकट की घड़ी में अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करें और असहाय लोगों की ओर मदद का हाथ बढ़ाएं तो कोई कारण नहीं है की हम इस चुनौती पर विजय न हासिल कर सकें।  लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा है क्योंकि यह सब संगठन कागजी है।
       कुछ लोग सोशल डिस्टेंसिंग के सुझाव को अमान्य करने में लगे हैं और इस दौरान पुलिस की भूमिका पर उंगलियां उठ रही हैं। लेकिन भारत में फिलहाल जो स्वास्थ्य सेवाएं हैं वह इतनी सक्षम नहीं है के इस महामारी कर सीधे-सीधे मुकाबला कर सकें। ऐसे में इस महामारी के बारे में जानकारी का होना सबसे ज्यादा जरूरी है। गौर करने की बात है कि इसका प्रभाव वहीं हो रहा है जहां लोगों को इसके बारे में स्पष्ट और संपूर्ण जानकारी नहीं है। इस वायरस की उम्र कम है और इसे एक दूसरे के बीच फैलने से यदि रोक दिया जाए तो इससे छुटकारा मिल सकता है। अभी इस वायरस के उपचार के लिए कोई टीका अथवा दवा नहीं निकली है इसलिए जरूरी है इसके संक्रमण को फैलने से रोका जाए और इस काम में देश के सभी लोग व्यक्तिगत रूप से मदद कर सकते हैं।  जैसा कि प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कहा था की यह आपके लिए है ,आपके परिवार के लिए है आपके राष्ट्र के लिए है । भारत ने टोटल लॉक डाउन कर इस बीमारी को रोकने की दिशा में निर्णायक कदम बढ़ा दिया है। भारत के पास इसके अलावा कोई उपाय भी नहीं है। सरकार ने उपचार व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए लंबी रकम का प्रावधान किया है, साथ ही लोगों के मनोभाव और मनोबल को कायम रखने के लिए तरह तरह के उपाय भी किए जा रहे हैं। उम्मीद है कि इस वायरस पर हम जरूर विजय प्राप्त कर लेंगे । क्योंकि तीन-चार दिनों में ही संक्रमित लोगों संख्या घटने लगी है।  यह  बहुत ज्यादा उल्लेखनीय नहीं है लेकिन तब भी शुरुआत तो हुई। उम्मीद तो दिख रही है कि कल को कुछ ज्यादा ही हासिल हो जाएगा। उम्मीदों पर ही यह दुनिया कायम है।


Thursday, March 26, 2020

मदद का हाथ बढ़ाएं

मदद का हाथ बढ़ाएं 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चुनाव क्षेत्र वाराणसी की जनता को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से संबोधित किया। यह संबोधन राष्ट्रीय संबोधन के एक दिन पश्चात हुआ। बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी के लोगों की धार्मिक भावनाओं को स्पर्श करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि महाभारत का युद्ध 18 दिनों में जीता गया था लेकिन कोरोनावायरस के खिलाफ युद्ध 21 दिनों तक चलेगा । उन्होंने सोशल डिस्टेंसिंग का वही फार्मूला बताते हुए कहा कि बीमारी भेदभाव नहीं करती इसलिए एक दूसरे से दूर रहें । उन्होंने स्पष्ट कहा कि कौन क्या है और क्या करता है इन सब बातों पर मत सोचें, सोचें यह कि बीमारी कितनी भयानक है। कुछ लोग अपने कानों से सुनते हैं ,देखते हैं फिर भी सावधानी नहीं बरतते। वे समझते ही नहीं एक नागरिक के रूप में उनका क्या कर्तव्य है और उस कर्तव्य को पूरा करना है या नहीं करना है। घबराहट ना फैले इसके लिए प्रधानमंत्री ने स्पष्ट कहा कि कोरोना वायरस से संक्रमित एक लाख लोग ठीक भी हो चुके हैं।
    डॉक्टरों से दुर्व्यवहार पर प्रधानमंत्री ने कहा, अस्पतालों और क्लीनिकों में सफेद कपड़े पहने लोग अभी हमारे लिए भगवान की तरह हैं। उनका सम्मान किया जाना चाहिए। इस महामारी से बचाने के लिए जो लोग लगे हैं उनके साथ दुर्व्यवहार करने वालों के प्रति  प्रशासन को  कठोर कदम उठाने के लिए कहा जा चुका है। यह डॉक्टर ,नर्स और सफाई कर्मी खुद को खतरे में डालकर हमारा जीवन बचा रहे हैं। प्रधानमंत्री ने जोर देते हुए कहा यह वायरस ना हमारी संस्कृति मिटा सकता है और ना हमारे संस्कार । उन्होंने कहा कि आज नवरात्रि है और अगले ही दिन से आप 9 गरीब परिवारों की मदद कर सकते हैं। मां भगवती की इससे बड़ी कोई पूजा नहीं है। हमारे आसपास पशुओं की चिंता करें उनके लिए चारे का संकट है।
       प्रशासन ने भी इस संकट में अपनी भूमिका तय की है। भारत में संक्रमितों  की संख्या 600 पार कर चुकी है जिसमें 533 अभी संक्रमित हैं और 42 ठीक हो चुके हैं। इससे मरने वालों की संख्या 10 हो चुकी है। इस परिस्थिति में सरकार ने फैसला किया है कि कोरोना वायरस संक्रमण के कारण राष्ट्रव्यापी लॉक डाउन के फलस्वरूप आम लोगों को तकलीफ ना हो इसके लिए सरकार हर संभव प्रयास में जुटी है। इसी कड़ी में 80 करोड़ राशन लाभार्थियों को पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए बुधवार से राशन की दुकानों के जरिए सब्सिडी प्राप्त खाद्यान्नों का मासिक कोटा 2 किलोग्राम से बढ़ाकर 7 किलोग्राम प्रति व्यक्ति कर दिया गया है। इस योजना में गेहूं दो रुपए किलो दो और चावल तीन रुपए किलो  दिया जाएगा।  इस उद्देश्य के लिए सभी राज्यों को कहा गया है कि वह केंद्र से खाद्यान्न ले लें। जहां तक देशव्यापी लॉक डाउन का प्रश्न है हमारे सिटी आफ जॉय में इसका असर तो पड़ा है लेकिन महानगर के कई बाजारों में खरीदारी करने वालों के बीच अफरातफरी की स्थिति रही। सामाजिक दूरी बनाए रखने की अपील के बावजूद सुबह शाम बाजार में उमड़ते देखे गए।
       यद्यपि प्रधानमंत्री ने 21 दिन की बात कही है लेकिन आर्गेनाइजेशन फॉर इकोनामिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट ओईसीडी ने चेतावनी दी है कि कोरोनावायरस महामारी से उबरने में विश्व को सालों लग जाएंगे । ओईसीडी के महासचिव एनकेल गुरिया के अनुसार कोरोना से लग रहा आर्थिक झटका किसी वित्तीय संकट से कहीं गंभीर है। उन्होंने कहा कि यह मानना सपने जैसा है कि दुनिया इस संकट से जल्दी ही उबर पाएगी। सभी सदस्य देशों से उन्होंने अपील की है कि वे अपने खर्च बढ़ाएं ताकि अधिक से अधिक  मरीजों के इलाज में जल्दी हो सके। उन्होंने कहा कि मौजूदा स्थिति में मार्शल प्लान जैसा कुछ लागू करने की जरूरत पड़ सकती है, जिसकी मदद से दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूरोप के पुनर्निर्माण मैं मदद मिली थी।
   बेशक प्रधानमंत्री को इसकी जानकारी होगी लेकिन उन्होंने देश का साहस बढ़ाने के लिए 21 दिनों की बात की है तथा उससे लोगों को जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं । सबसे बड़ी बात है  कि  प्रधानमंत्री का यह प्रयास लोगों को स्वेच्छा से  लोकहित में कदम बढ़ाने के लिए प्रवृत्त करेगा और यह भारत जैसे देश के लिए आवश्यक है क्योंकि सरकार इतनी बड़ी आबादी की  जरूरतें पूरी नहीं  कर सकती है।


Wednesday, March 25, 2020

कोरोना हारेगा जीतेगा इंडिया

कोरोना हारेगा जीतेगा इंडिया

मंगलवार की शाम ढलते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को संबोधित करते हुए आगाह किया कि कोरोना  वायरस बहुत तेजी से फैल रहा है और इससे मुकाबले के लिए 21 दिन का लॉक डाउन रखा जाएगा। यह लॉक डाउन एक तरह से जनता कर्फ्यू है लेकिन उससे भी कठोर है। घर से बाहर नहीं निकलने की मुनादी करवा दी गई है। भारत जैसे विकासशील देश में 21 दिन का लॉक डाउन बेशक एक लंबा समय है लेकिन देशवासियों के जीवन की रक्षा और उनके परिवार की रक्षा के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। प्रधानमंत्री मोदी ने उम्मीद की कि हर भारतीय इस संकट की घड़ी में सरकार और स्थानीय प्रशासन के निर्देशों का पालन करेगा। उधर प्रधानमंत्री मोदी भारत के 130 करोड़ लोगों को संबोधित कर रहे थे और इधर विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े जारी हो रहे थे। जिसके अनुसार दुनिया में 186 देशों में यह वायरस हमला कर चुका है। एक मायावी कहानी की तरह यह बात सुनने में लग रही है कि इस वायरस के प्रभाव से पूरी दुनिया में 20,000 लोगों की मौत हुई है और 400000 लोग संक्रमित हैं। भारत जैसे देश में 491 से ज्यादा मामले पाए गए हैं और 10 लोग काल कलवित हो गए। कुछ सैडस्टिक लोगों का कहना है कि इस के लिए लॉक डाउन करने की क्या जरूरत थी ? इससे ज्यादा लोग तो दुर्घटनाओं में और विभिन्न बीमारियों से मारे जाते हैं। लेकिन उन्हें यह समझ में नहीं आ रहा है कि अगर वायरस का प्रसार बढ़ता गया तो    शायद उनका परिवार भी संक्रमित होने से नहीं बचेगा। सिर्फ इटली में मंगलवार को 743 लोगों की मौत हुई और वहां मरने वालों की कुल संख्या 6820 हो गई। चीन के बाद इटली, अमेरिका , जर्मनी , ईरान, फ्रांस और दक्षिण कोरिया में कोरोना वायरस संक्रमण के सबसे ज्यादा मामले दर्ज हुए हैं। भारत सरकार ने सरकारी और निजी संस्थानों से कहा है कि लॉक डाउन के दरमियान न वेतन काटें ना छटनी करें। प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम संबोधन में स्पष्ट कहा की इस वायरस से मुकाबले के लिए देश में इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करने के उद्देश्य से 15 हजार करोड़ रुपए की राशि मुहैया कराई गई है। प्रधानमंत्री ने इस लॉक डाउन को कोरोना के खिलाफ एक निर्णायक जंग की संज्ञा दी। उन्होंने स्वीकार किया इसकी आर्थिक कीमत चुकानी पड़ेगी लेकिन लोगों की जान को बचाना सबसे पहली प्राथमिकता है। मोदी का लहजा घर के उस बुजुर्ग की तरह था जो घर के किसी सदस्य के गंभीर बीमार पड़ने पर हुआ करता है। उनके बॉडी लैंग्वेज में देश के प्रति स्पष्ट चिंता देखी जा सकती थी। उन्होंने कहा कि हर आदमी के दरवाजे पर एक लक्ष्मण रेखा खींची गई है उससे बाहर कदम को रखा जाना कोरोना को भीतर आने के लिए आमंत्रित करना है। प्रधानमंत्री ने इस बिंब को अभिव्यक्त कर रामचरितमानस के उस खतरे को प्रतीक बनाया जिसमें सीता ने कदम बाहर रखा था लक्ष्मण रेखा से और  राक्षसराज रावण  अपहरण कर ले गया।
विशेषज्ञों की राय है जिस व्यक्ति में कोरोना है उसमें इसके लक्षण दिखने में कई दिन लग सकते हैं। इस दरमियान यह कई लोगों को संक्रमित कर सकता है। प्रधानमंत्री के अनुसार दुनिया में कोरोना से संक्रमित लोगों की संख्या जहां एक लाख पहुंचने में 67 दिन लग गए थे वही महज 11 दिनों में एक लाख और केसेज जुड़ गए और इसे तीन लाख पहुंचने में केवल चार दिन लगे थे। इससे समझा जा सकता है यह कितनी तेजी से फैल रहा है। इसके प्रसार को रोकना बड़ा कठिन है। बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं के बावजूद इटली ,फ्रांस, स्पेन, जर्मनी और अमेरिका जैसे देश में इसके हालात बेकाबू हो गए। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा "जब तक जान है जहान है। धैर्य और अनुशासन की घड़ी है। जब तक देश में लॉक डाउन की स्थिति है तब तक हमें अपना वचन निभाना है संकल्प निभाना है।"
       मोदी जी द्वारा इस तरह के कदम को उठाया जाना उस समय सही लगता है जब हम आंकड़ों को देखते हैं। सबसे बड़ी गलती तो तब हुई जब इसकी शुरुआत हुई थी तो हमने इस पर ध्यान नहीं दिया और अब इसने महामारी  का  रूप ले लिया है।  अस्पतालों के आंकड़े काफी डरावने लग रहे हैं। करोना के पक्के मामलों की संख्या 50 से कम दिनों में दुगनी होने वाली है अमेरिका में मामले हर 2 दिन पर दुगनी रफ़्तार से बढ़ रहे हैं भारत में जिस रफ्तार से इसके मामले बढ़ रहे हैं विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के मुताबिक पक्के मामलों में मौत के 3.4% दर को देखते हुए भारत में मई के अंत तक इसके 10 लाख से ज्यादा पक्के मामले आ सकते हैं और 30 हजार से ज्यादा लोग मारे जा सकते हैं। बायो सांख्यिकीविदों का यह अनुमान कि आंकड़े और बढ़ सकते हैं तथा 10 लाख मामले पंद्रह मई तक सामने आ सकते हैं। मामलों का इस तरह अचानक बढ़ना और पक्के  मामलों के अनुपात का बढ़ जाना खुद में कितना खतरनाक हो सकता है इसे सिर्फ सोचा जा सकता है। मोदी जी ने इसी चिंता के कारण लॉक डाउन की व्यवस्था की। क्योंकि आम आदमी यह नहीं समझ पा रहा है कि आगे कितना बड़ा संकट हो रहा है। भारत में यह इसलिए महत्वपूर्ण है यहां अधिकतर कामगारों को रोजगार की सुरक्षा नहीं हासिल है। संकट का जो लंबा समय आ सकता है उसे देखते हुए पूरे भारत में कुछ खास मुआवजा पैकेज की घोषणा जरूरी है। कुछ राज्यों को भारी संकट से जूझना पड़ सकता है। क्योंकि, स्वास्थ्य सेवाओं के संदर्भ में भारत के राज्यों में काफी अंतर है। गरीब राज्य स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में बेहद कमजोर हैं। जून 2019 में स्वास्थ्य सेवाओं के संदर्भ में नीति आयोग ने एक रैंकिंग तैयार की थी उस रैंकिंग के मुताबिक कुछ राज्यों में स्वास्थ्य सेवाएं मध्य अथवा उच्च आय वर्क के कुछ देशों की स्वास्थ्य सेवाओं के बराबर है। उदाहरण स्वरूप नवजात शिशु मृत्यु दर के मामले में केरल ब्राजील के बराबर है । कुछ राज्यों में स्वास्थ्य सेवाओं खासकर दुनिया के सबसे गरीब देशों की स्वास्थ्य सेवाओं के बराबर है। मसलन नवजात शिशु मृत्यु दर उड़ीसा का  सिएरा लियोन के समकक्ष है। बिहार में प्रति एक लाख लोगों के लिए अस्पताल का एक बेड उपलब्ध है जबकि गोवा में 20 बेड उपलब्ध है। छत्तीसगढ़ में जिला अस्पतालों में विशेषज्ञ डॉक्टरों के 71% पद खाली पड़े हैं। बिहार में प्रथम रेफरल यूनिटों में से केवल 15% ही काम कर रहे हैं। इसका रातो रात निदान तो नहीं हो सकता इसलिए सबसे सुरक्षित उपाय है जो प्रधानमंत्री ने सुझाया कि अपने घरों में कैद रहें ताकि एक दूसरे का संक्रमण न लग सके।


Tuesday, March 24, 2020

लॉक डाउन: शासन और जनता के संबंधों का नया समीकरण

लॉक डाउन: शासन  और जनता के संबंधों का नया समीकरण 

दुनिया में इस समय भय का वातावरण है। चारों तरफ उथल-पुथल मची हुई है और इस उथल-पुथल के बीच एक उम्मीद तथा निश्चिंतता  यही दिखती है कि हमारे देश में प्रधानमंत्री ने जो लोगों को अपने अपने घरों में बंद रहने की सलाह दी और उस सलाह का सख्ती से पालन करने के लिए जो व्यवस्था की है उससे भारत एक सर्वशक्तिमान राष्ट्र का विचार पुनर्स्थापित कर रहा है। विगत कई दशकों से वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजी करण के उपरांत हमारे देश को संकट की इस घड़ी में अपनी सरकार से उम्मीद है तथा शासन के पूर्ण नियंत्रण के हित में नागरिक अपनी व्यक्तिगत आजादी का स्वैच्छिक बलिदान कर रहे हैं। जनता इस बलिदान के माध्यम से सरकार को प्रेरित कर रही है या उससे  मांग कर रही है कि वह निगरानी बढ़ाए तथा उनकी जिंदगी पर नजर रखने की व्यवस्था विकसित करे। सोशल डिस्टेंस, सामाजिक अलगाव और लॉक डाउन अब सबको स्वीकार्य है। सरकार इसके बारे में निर्देश देती है और लोग उस निर्देश को मानने के लिए तैयार रहते हैं। यहां एक तथ्य गौर करने के लायक है कि आखिर नियंत्रण की यह मांग या प्रेरणा का यह स्वरूप क्यों हुआ? स्पष्ट सा उत्तर है, पिछली सरकारों ने मजबूत प्रतिक्रियात्मक रणनीति तैयार नहीं की या कह सकते हैं रणनीतियां तैयार करने में नाकामयाब रही।
     यह केवल भारत में ही नहीं हुआ है। यूरोप के कई देशों में शुरुआती समय में वायरस का संक्रमण और उसका परीक्षण करने के उपाय नहीं निकल पाए थे लेकिन उन्होंने इस दिशा में अपनी पूरी ताकत झोंक दी और कुछ हद तक वायरस के प्रकार को रोकने में सफल रहे। भारत के संसाधन उतने व्यापक नहीं है इसलिए भारत सरकार ने जनता की निगरानी पर अपनी क्षमता बढ़ाने का फैसला किया। यह रणनीति आवश्यक है ,परंतु  इसे अपनाए जाने के साथ ही शासन और समाज के संबंधों की प्रकृति और जन व्यवहार को बदलने में शासन की क्षमता की भूमिका में भारी बदलाव आने की संभावना है। देश अधिक पाबंदियों के लिए स्वयं को तैयार कर है। शासन के सामर्थ्य की नाकामयाबी की पड़ताल करना इसमें महत्वपूर्ण है।   इसी नाकमयाबी के कारण लॉक डाउन लगाना पड़ा है।  यह व्यवस्था अपरिहार्य भी महसूस हो रही है ,क्योंकि यही एक तरीका है जिसके उपयोग से नागरिकों की सलामती की सुनिश्चितता के साथ-साथ सरकार की ताकत भी नियंत्रित रहती है।
        हमारे देश में पिछली सरकारों ने स्वास्थ्य प्रणाली को विकसित करने पर जोर नहीं दिया।  आज वह विरासत की तरह एक दूसरे के सिर पर आती गई। नतीजा यह हुआ कि सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में हमारा देश नाकाम रहा और यह नाकामी किसी से छिपी नहीं हमारा स्वास्थ्य ढांचा अपर्याप्त  साधनों वाला है। स्वास्थ्य सुविधाएं पूरी नहीं है। इलाज की गुणवत्ता खराब है।
नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2019 के आंकड़ों के अनुसार अगर कोरोना वायरस के मामलों में वृद्धि जारी रही तो  भारत के ग्रामीण इलाकों से आने वाले के लिहाज से हमारे अस्पतालों में पर्याप्त सुविधा नहीं है। यहां तक कि बेड भी नहीं है। रिपोर्ट बताती है कि देश में करीब 26000 सरकारी अस्पताल हैं। इनमें से 21000 ग्रामीण क्षेत्रों में और 5000 शहरी इलाकों में। मरीज और उपलब्ध बेड की संख्या अनुपात बेहद चिंताजनक है। हर सत्रह सौ मरीज पर एक बेड है जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह अनुपात 3100 है।  यह अनुपात बेहद चिंताजनक है। 2011 की जनगणना के मुताबिक केवल बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में करीब 10 करोड़ लोग रहते हैं हर बेड पर करीब 16000 मरीज हैं।
ऐसी स्वास्थ्य प्रणाली की मौजूदगी में वायरस के प्रसार के नियंत्रण में लॉक डाउन अधिक सरल और सक्षम उपाय दिख रहा है । यही कारण है कि हमारे देश की जनता ने लॉक डाउन की दिशा में आगे बढ़ने की सरकार की अपील को पूरा समर्थन दिया है। लेकिन विडंबना यह है कि हमारे देश में जहां जनसंख्या का घनत्व बहुत ज्यादा है सोशल डिस्टेंसिंग को कायम रखना संभव नहीं है।  हर दिन संक्रमण के बढ़ते मामले हमारी स्वास्थ्य प्रणाली को मजबूत करने का आह्वान कर रहे है। अगर स्वास्थ्य प्रणाली को मजबूत नहीं किया गया तो मौजूदा प्रयास पर्याप्त नहीं होंगे। यहां यह बता देना जरूरी है कि इन  नाकामियों के बावजूद हमारा शासन मिशन मोड में शानदार काम कर रहा है। शिक्षा स्वास्थ्य जैसे बुनियादी प्रशासनिक कार्य करने में निरंतर नाकाम रहने वाला शासन अच्छी तरह चुनाव करा सकता है और इसे देखते हुए एक संबंधित मिशन मोड के रूप में पहल करना असंभव नहीं है।
सरकार को तीन उपाय करने की जरूरत है सबसे पहले इस वायरस के परीक्षण की आक्रामक व्यवस्था । आईसीएमआर धीरे-धीरे परीक्षण संबंधी प्रोटोकॉल को बदल रहा है और इसमें निजी क्षेत्र को भी शामिल किया जा रहा है। लेकिन इस दिशा में और भी कई काम करने जरूरी है । दूसरा उपाय है, सरकार सुविधाओं को उन्नत करते हुए बिस्तरों की संख्या बढ़ाकर और जरूरी उपकरणों की खरीद कर सुनिश्चित करे। अस्पतालों को तैयार रखने पर जोर दे सकती है इसके लिए लालफीताशाही कम करने और खर्चे में तेजी लाने की आवश्यकता है। तीसरा उपाय जो बहुत महत्वपूर्ण है वह मानव संसाधन। हमारे देश में डॉक्टरों की संख्या पर्याप्त नहीं है ।रूरल हेल्थ  स्टैटिसटिक्स  के मुताबिक  ग्रामीण भारत में 26000 लोगों पर  एक डॉक्टर है। डब्ल्यूएचओ के नियम के अनुसार  डॉक्टर और मरीजों का  यह अनुपात हर एक हजार मरीज पर एक डॉक्टर  होना चाहिए।  हमारे देश में  रजिस्टर्ड एलोपैथिक डॉक्टरों की संख्या लगभग  1.1 करोड़ है लेकिन देश के कई हिस्सों में  स्नातक डॉक्टरों की क्षमता का पूरा उपयोग नहीं हो पा रहा है।  उपायों को कारगर बनाने के लिए राजनीति को त्यागना पड़ेगा। केंद्र राज्य संबंध के तंत्र को मजबूत करना होगा। इस मामले में केंद्र सरकार को रणनीति विशेषज्ञता और मानव संसाधन की साझेदारी को लेकर समन्वयक की भूमिका निभानी होगी। इस महामारी ने शासन की भूमिका और नागरिकों के साथ उसके संबंधों की ओर हमार ध्यान आकर्षित किया है। अब भारत में शासन का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा आज हम किस तरह के विकल्पों को अपनाते हैं और यह विकल्प स्वास्थ्य प्रणाली को मजबूत करने और सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था में हमारा विश्वास कायम करने का है ।


Monday, March 23, 2020

लड़ेंगे - जीतेंगे

लड़ेंगे - जीतेंगे 

कोरोना वायरस  दानवी आतंक बन रहा है लेकिन भारत में मोर्चे पर डटे सब डॉक्टरों, चिकित्सा कर्मियों, सुरक्षाबलों, सप्लाई चैन के बहादुर जांबाज और हर उस हिंदुस्तानी का जैसे संकल्प गूंज उठा है - लड़ेंगे जीतेंगे । सब ने मानो कसम खाई है घर से बाहर नहीं निकलेंगे। ' मुश्किल वक्त भारत सख्त । ' करोना वायरस से  दुनिया भर में  14,600 से ज्यादा लोग  काल के गाल में समा गए  और इसके बाद भी मौतों का सिलसिला नहीं थम रहा । आमतौर पर लोग गलतियां करते हैं लेकिन उन्हें दंड नहीं दिया जाना चाहिए बल्कि उन्हें अपनी ताकत बढ़ाने और इस तरह की चीजों से लड़ने की क्षमता बढ़ाने के लिए समर्थन किया जाना चाहिए। ताकि वे आगे अच्छा काम कर सकें। विख्यात समाजशास्त्री जॉन जिगलर ने ट्वीट किया है कि आपस में कोरोना वायरस को लेकर एक दूसरे पर दोष न लगाएं । इसमें दो चीजें समझ में आती हैं कि दोष लगाना है और किसी उंगली उठाने है तो सही दिशा में उठाई जाए। अब सवाल उठता है कि सही दिशा कौन सी है ?
     कुछ लोग इसके फैलने के कई कारण बता रहे हैं। लेकिन इसके फैलने का मुख्य कारण है कि जहां-जहां मांसाहार का प्रचुर प्रयोग होता है वहां यह वायरस तेजी से फैल रहा है। कुछ लोग जो मांसाहारी हैं वह इस बात को समझने के लिए तैयार नहीं है और उसकी कीमत पूरी दुनिया को चुकानी पड़ रही है। दूसरी बात यह है लोग खासकर जो अपने को बहुत ज्यादा ज्ञानी समझते हैं वह कोरोना वायरस के प्रभाव पर ज्यादा बोल रहे हैं ना की कारणों पर। जबकि इस किस्म की महामारी के लिए सबसे जरूरी है इसके कारणों पर ध्यान दिया जाए और उसके निदान पर ध्यान दिया जाए। प्रभाव पर बातें करने से आतंक ज्यादा फैलता है। प्रधानमंत्री  मोदी ने जो जनता कर्फ्यू की बात कही वह निदान की बात थी ,रोकथाम की बात थी। प्रभाव के आतंक की बात नहीं थी। अभी तक हम जो कुछ भी जानते हैं वह है कि यह बीमारी चीन के बुहान प्रांत से फैली है। कारण है कि  बुहान कानूनी और गैरकानूनी मांस व्यापार का केंद्र भी है। क्या बीमारी उस बाजार से बनती है जहां तरह-तरह के मांसाहार के उत्पादन तैयार होते हैं?  उनमें मोर और चमगादड़ जैसे पक्षी भी शामिल हैं। यहीं से उन जानवरों या पक्षियों से यह बीमारी धीरे-धीरे फैली है और महामारी का रूप ले चुकी है। प्रधानमंत्री मोदी ने लोगों को घरों के भीतर कैद रहने का सुझाव देकर या लॉक डाउन की व्यवस्था करके सबसे पहला काम किया कि बाजारों में मिलने वाले ऐसे खाद्य पदार्थों और इंसान के बीच का संपर्क काट दिया। इससे सबसे बड़ी सफलता यह मिलेगी कि इस तरह के पदार्थों का विक्रय आहिस्ता आहिस्ता बंद हो जाएगा। इसका एक प्रभाव और पड़ेगा कि जो जंगली जानवर हैं पक्षी हैं उनका विनाश रुक जाएगा और इससे पर्यावरण का संतुलन बढ़ेगा। चाइनीज अकेडमी ऑफ इंजीनियरिंग द्वारा तैयार किए गए आंकड़ों के मुताबिक चीन में वार्षिक तौर पर 57 बिलियन डॉलर का मांसाहार का जायज व्यापार होता है और राष्ट्र संघ के अनुमान के मुताबिक समानांतर गैर कानूनी व्यापार लगभग 23 बिलियन डॉलर का होता है। अगर इसे पूरी तरह आर्थिक मामला माना जाए तब भी एक कठोर की की जरूरत है।
कोरोना वायरस एक तरह से  हमारी इंसानियत के अंत को  आवाज दे रहा है। हम सामाजिक प्राणी हैं मगर इस बीमारी ने हमारी स्वभाविक गतिविधियों को जानलेवा कमजोरी में बदल दिया है हमें अपनी पुरानी दिनचर्या और आदतों को बदलना होगा तौर-तरीकों को बदलना होगा। अपने आचरण को इस महामारी के हिसाब से ढालना होगा। जिस किसी चीज के संपर्क में आ रहे रहे हैं या कोई और आ रहा है वह चीज वायरस का संवाहक हो सकती है ऐसे में जरूरी है कि इसे फैलने से रोका जाए। बड़े माइक्रोबायोलॉजिस्ट कह रहे हैं कि "यह आपके जीवन के  दौर ऐसा है जब आपका एक कदम किसी की जिंदगी बचा सकता है हो सकता है हाथ धोने जैसे मामूली काम किसी एक की दो कि 50 की या फिर हजारों की जिंदगी बचा दे।" हाथ धोते वक्त हमें याद रखना चाहिए अब हमें ऐसे काम करने की आदत डालनी पड़ेगी जो अशिष्ट और अभद्र माने जाते हैं जैसे सोशल डिस्टेंस। इस महामारी के दौर में हमेशा हमारा व्यवहार ही लाखों की किस्मत का फैसला करेगा। इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सुझाव दिया है के सब लोग मिलकर समाज के लिए अच्छा काम करें अच्छा सोचें जिस तरह के हालात पैदा हुए हैं उनमें  बड़े पैमाने का कोई दंगा होने की आशंका नहीं है। भय का प्रसार कई बार समाज  करता है , कई बार डर के कारण ऐसा होता है कई बार बेवकूफ यों के कारण ऐसा होता है लालच और लोभ के कारण ही ऐसा होता है। दुनिया खतरनाक नजर आने लगती है तो लोगों का डर बढ़ता जाता है और इस डर से तनाव बढ़ता जाता है। यही कारण है कि बाजार में लोग  खरीदारी कर रहे हैं। बिहेवे रियल साइंस का यह मानना है इस समूह वाद का प्रसार किया जाए ।सबको अपने समुदाय के बारे में सोचने याद दिलाई जाए ताकि लोगों को एहसास सब मिलकर इसका सामना कर रहे हैं और इसके लिए जरूरी है कि भारत सरकार ने जो सुझाव दिया है उसका अनुपालन करे।कम से कम यह दिखे तो कि लोग सड़कों पर नहीं निकल रहे हैं एक दूसरे से दूरी बनाए हुए हैं। समूह वाद का यह एक अच्छा उदाहरण है इसी  करा करोना वायरस के प्रति प्रधानमंत्री के आह्वान का केवल नकारात्मक प्रभाव ही नहीं है जैसा कि कुछ विपक्षी कह रहे हैं हमारे समाज पर कुछ अनदेखे सकारात्मक प्रभाव भी पड़ रहे हैं। सबके घर के भीतर रहने के कारण प्रदूषण स्तर में भारी कमी आई है। प्रदूषण के आंकड़े बताते हैं की वायु प्रदूषण में देश में नाइट्रोजन डाइऑक्साइड की भारी कमी आई है। कारखानों के बंद होने और कारों सड़कों पर नहीं चलने के कारण ऐसा हुआ है। बड़ी संख्या में लोग घर से काम कर रहे हैं आने वाले समय में जब जगहों की कमी होगी तो शायद इस स्थिति को अपनाने उम्मीद जताई जा रही है। यही नहीं धरती को गर्म करने वाली कार्बन डाइऑक्साइड गैस भी अच्छे पैमाने पर कम हो रही हैं । पानी की गुणवत्ता में सुधार आया
है लोकप्रिय  डेस्टिनेशन में सड़कें पूरी तरह खाली होने से वहां पानी इत्यादि की जो खपत थी वह भी कम हो गई है। गंगा के प्रदूषण पर काम करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि पानी में धीरे-धीरे सुधार आ रहा है अगर ऐसा ही रहा कुछ दिनों में पानी बिल्कुल साफ हो जाएगा। ऑफिस या घर में काम करने वाले लोग और भागदौड़ में लगे लोग आमतौर पर अपने आसपास के लोगों को भूल जाते थे या उनसे थोड़ा कट जाते थे। इस वायरस के बढ़ते संक्रमण और इससे मुकाबले के लिए मोदी जी के सुझाव की वजह से लोग अपने घरों में हैं तथा विभिन्न साधनों से करीब आ रहे हैं। रविवार की शाम को थाली, शंख या ताली बजाकर लोगों ने एक दूसरे के प्रति एकजुटता जाहिर की । बशीर बद्र से क्षमा याचना सहित-
     कोई हाथ भी न मिलाएगा
       जो गले मिलोगे तपाक से
       यह नए मिजाज का वक्त है
        जरा फासले से मिला करो


Sunday, March 22, 2020

जनता कर्फ्यू : मनोवैज्ञानिक तनाव से बचाने का अच्छा तरीका

जनता कर्फ्यू : मनोवैज्ञानिक तनाव से बचाने का अच्छा तरीका 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सुझाया गया जनता कर्फ्यू बेहद सफल हुआ यह बड़ा सुखद है। बीमारी और समाज के प्रति लोग सरकार की  गंभीरता पर भरोसा करने लगे हैं। वरना विपक्षी दलों का यह जुमला था  सरकार यह जो कुछ भी कर रही है वह अपने लाभ के लिए कर रही है। पहला अवसर देखने को मिला है जब लोगों ने सरकार की बात पर भरोसा किया यहां तक कि महात्मा गांधी के सत्याग्रह आंदोलन, असहयोग आंदोलन तथा नमक आंदोलन से भी लोग इस तरह नहीं जुड़े थे। बेशक उसके अपने कारण होंगे, लेकिन इस बार कोरोना के खिलाफ आंदोलन ने लोगों में एकजुटता पैदा कर दी है।
        कोरोने का  आतंक दुनिया भर में फैल चुका है। इसके दो कारण हैं पहला की दुनिया बहुत छोटी हो गई है पूरी वसुधाथा कुटुंब बन गई है और दूसरा  लोगों में सरकार के प्रयासों के प्रति भरोसा पैदा हो रहा है। गुरुवार को प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में बिल्कुल सही कहा कि आज कोई भी देश एक दूसरे की मदद नहीं कर सकता। हमें अपनी मदद खुद करनी पड़ेगी। प्रधानमंत्री की यह बात बिल्कुल सही है । हमारा भारत इस मामले में अकेला है और देश की  स्थिति अत्यंत जटिल है । पीएम ने अपने संदेश में कहा था डॉक्टरों ,अस्पताल के कर्मचारियों, सरकारी अफसर आदि की तरह मीडिया भी आवश्यक सेवाओं में शामिल है। प्रधानमंत्री द्वारा मीडिया को आवश्यक सेवाओं में शामिल किया जाना एक सुखद बदलाव है ऐसी स्थिति में मीडिया को यकीन  होना चाहिए की वह महत्वपूर्ण आवश्यक सेवाएं देता है। मीडिया का नियति बोध सब कुछ इस आस्था से निकलता है।  उसकी अहमियत है। सत्ता से मीडिया का मतभेद है और हमेशा रहेगा यह लोकतंत्र में होता है।
     इसी स्तंभ में एक बार बताने की कोशिश की गई थी की कोरोना वायरस ने दुनिया के करोड़ों लोगों का जीने का अंदाज बदल दिया है। वह जिस तरह की जनसंख्या को प्रभावित कर रहा है उसे भारी बदलाव आ रहा है। यही नहीं  वायरस ने इतिहास बदल दिया है। इसके पहले भी बीमारियों ने इतिहास बदला है। बीमारियों की वजह से सल्तनतें तबाह हो  गई हैं। बीमारियों की वजह से साम्राज्यवाद का विस्तार ही हुआ और इसका दायरा भी सिमटा है। यहां तक कि बीमारियों के कारण दुनिया के मौसम में भी उतार-चढ़ाव आया है। इतिहास के पन्ने पलटें  और इतिहास बदलने के कारणों का विश्लेषण करें तो पता चलेगा की 14 वीं शताब्दी के पांचवें और छठे दशक में प्लेग का यूरोप में दिल दहलाने वाला तांडव हुआ। इस बीमारी से यूरोप की एक तिहाई आबादी काल के गाल में समा गई । लेकिन इतनी मौतों के बाद भी यूरोप के कई देशों के लिए बीमारी वरदान साबित हुई। कई देशों ने इतनी बड़ी संख्या में लोगों की मृत्यु के बाद खुद को हर लिहाज से इतना आगे बढ़ाया कि आज वह दुनिया के अमीर मुल्कों में गिने जाते हैं। किसानों के पास जमींदारों से सौदेबाजी की क्षमता बढ़ गई। परिणाम - सामंतवाद व्यवस्था टूटने लगी। किसान जमींदारों की कैद से आजाद होने लगे।इस बदलाव ने मजदूरी पर काम करने की प्रथा का जन्म दिया। इसके फलस्वरूप पश्चिमी यूरोप ज्यादा में धनी व्यापारी और नगदी आधारित अर्थव्यवस्था  की शुरुआत हो गई। यही नहीं, समुद्री यात्राओं फिर भी शुरुआत हुई। तकनीक में निवेश होने लगा । अर्थव्यवस्था  की आधुनिक काल में नई-नई तकनीकों विकसित करने की राह खुली ।
        अनुमान है कि अगले 3 महीनों में वायरस के मामले कमजोर हो जाए ।जड़ से खात्मा नहीं माना जा सकता । इसमें वक्त लगेगा। यही नहीं इस तरह से सब कुछ बंद भी तो नहीं हो सकता है । इससे होने वालाहै आर्थिक नुकसान विध्वंसकारी हो सकता । इस वायरस  का खात्मा कब होगा या पाबंदियां हटाते हैं यह लौटेगा या  मामले तेजी से बढ़ेंगे यह भी तय नहीं है। सरकार का उद्देश्य और समस्या है कि इससे कैसे पार पाया जाय। यह वायरस इस समय दुनिया की सबसे बड़ी चुनौती है। खासकर डॉक्टरों के लिए। क्योंकि डॉक्टर एक अक्खड़  इंसान और नियम तोड़ने वालों यह दिलचस्प  मिश्रण होते हैं। वे किताबों में नियम बनाते हैं और इलाज के दौरान तोड़ देते हैं । लेकिन तब भी हर डॉक्टर की कोशिश होती है इसका पीड़ादायक नतीजा ना हो।   वैसी स्थिति का क्या हो जिसके बारे में अभी तक किसी ने देखा या सुना नहीं है । डॉक्टरों को यह नहीं मालूम है इससे कैसे निपटा जाए। लोग कैसे बचें। लोगों को क्वॉरेंटाइन में भेजने की बात होती है लेकिन इसके लिए अपने गुण दोष हैं। कोरोना वायरस का सबसे पहला केस चीन में 17 नवंबर 2019 पाया गया था और चीनी डॉक्टरों ने इसलिए चेतावनी देनी शुरू कर दी थी, लेकिन चीनी सरकार ने इस पर पाबंदी लगा दी और उनको बाहर नहीं जाने दिया। चेतावनी देने वाले डॉक्टरों को गिरफ्तार कर लिया गया। चीन के लोग कोरोना वायरस से  अनजान अपने काम में लगे रहे। 2 महीनों के बाद चीन की सरकार को यह महसूस हुआ यह बीमारी फैल रही है और 22 जनवरी 2020 और चीनी सरकार ने औपचारिक तौर पर आपात स्थिति की घोषणा की। तब तक देर हो चुकी थी। यद्यपि यूरोप की राजनीतिक स्थिति अलग है। पश्चिम की राजनीतिक स्थिति वैसी नहीं जैसी चीन  की है और वहां क्वॉरेंटाइन ज्यादा जरूरी है।  इधर भारत में खुद को क्वॉरेंटाइन में रखने के लिए सरकार ने यह तरीका अपनाया कि घर के भीतर ही रहें वहीं से काम करें घर से बाहर ना निकलें। रविवार को जनता कर्फ्यू है यह बता दिया। इस पर सरकार का साथ जनता दे रही है। घर के भीतर रहने या होम क्वॉरेंटाइन का एक विशेष फायदा भी है कि ऐसी स्थिति में लोगों को मनोवैज्ञानिक तनाव कम होता है। लेकिन शोध से यह देखा गया है कि अगर इस तरह की स्थिति में सही सही जानकारी लोगों तक पहुंचती है तो मनोवैज्ञानिक तनाव बिल्कुल नहीं होता है। मोदी जी ने तनाव विहीन एकाकीपन का यह तरीका अपनाकर देश की बड़ी आबादी के लिए जहां कल्याण का काम किया है वही देश में मेडिकल सुविधाओं के अभाव को भी खटकने का अवसर नहीं दिया है।


Saturday, March 21, 2020

प्रधानमंत्री की अपील - आत्म संयम और सोशल डिस्टेंसिंग

प्रधानमंत्री की अपील - आत्म संयम और सोशल डिस्टेंसिंग 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के नाम अपने संबोधन में कहा कि "हम स्वस्थ तो जग स्वस्थ।"  उन्होंने कोरोना से मुकाबले के लिए खुद पर संयम बरतने और सोशल डिस्टेंसिंग की सलाह दी। उन्होंने जनता से अपील की कि वे "जनता कर्फ्यू लगाएं।" प्रधानमंत्री ने देश की जनता से कहा कि उन्होंने अब तक देश से जो कुछ मांगा है वह मिला है और अब बस एक ही अनुरोध है कि जनता पूरे देश में एक दिन 22 मार्च को दिन भर के लिए जनता कर्फ्यू लगाए। इस दौरान सब लोग अपने अपने परिवार के बीच रहें और कहीं नहीं जाएं। साथ ही शाम 5:00 बजे  अपने घर के बाहर  खड़े होकर तालियां, थालियां और सीटियां इत्यादि बजाकर लोगों को संकेतों से एकजुट होने का संदेश दें। यह कार्य 5 मिनट तक करना है। एकजुटता के लिए  और  समान लक्ष्य की प्राप्ति के लिए इस किस्म का प्रयोग अभिनव है। प्रधानमंत्री ने कहा कि यह जनता का साहस आगे बढ़ाएगा और बताएगा इस किस्म की वैश्विक महामारी  से लड़ाई के लिए भारत कितना तैयार है और उस तैयारी को देखने परखने कर भी समय है।ऐसे समय में हमें 1899 बंगाल में आए प्लीज के दौरान स्वामी विवेकानंद के प्लेग मेनिफेस्टो याद करना चाहिए। यह मेनिफेस्टो हमें मनोवैज्ञानिक तौर पर समस्याओं से लड़ने की शक्ति प्रदान करता है इस मेनिफेस्टो में स्वामी जी का कहना है "भय से मुक्त रहें क्योंकि भय सबसे बड़ा पाप है। सदा मन को प्रसन्न रखें । मृत्यु तो अपरिहार्य है उससे डरना क्या? कायरों को मृत्यु का डर सदा सताता है। उन्होंने इस डर को दूर करने का आग्रह किया। अपनी कमर कस लें और सेवा कार्य क्षेत्र में प्रवेश करें। हमें शुद्ध और स्वस्थ जीवन चाहिए रोग महामारी का डर आदि ईश्वर की कृपा से विलुप्त हो जाएगा।"

प्रधानमंत्री ने कहा संपूर्ण विश्व इस समय संकट के गंभीर दौर से गुजर रहा है आमतौर पर कोई संकट जैसे प्राकृतिक आपदा यह इस तरह की महामारी आती है तो वह विश्व के किसी एक ही क्षेत्र में केंद्रित रहती है और उसका प्रभाव भी कमोबेश उसी क्षेत्र में पड़ता है लेकिन कोविद 19 नाम की इस महामारी ने पूरी दुनिया को लपेट लिया है पूरी मानव जाति संकट में है।
         प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम संबोधन में  भारत के 130 करोड़ लोगों से कहा कि विगत 2 महीनों में उन्होंने इस वैश्विक महामारी का डटकर मुकाबला किया है। आवश्यक सावधानियां बरती है । लेकिन, पिछले कुछ दिनों से ऐसा लग रहा है कि हम थोड़े ढीले हो गए । हम संकट से बचे हैं। सब कुछ ठीक है। प्रधानमंत्री ने लोगों से अपील की यह सब कुछ ठीक है का भाव सही नहीं है प्रत्येक देशवासी को से सजग रहना होगा और सतर्क रहना होगा अभी तक इस महामारी से बचने की कोई दवा नहीं निकली है और ना ही इसका कोई टीका निकला है और बीमारी का संक्रमण तेजी से फैल रहा है प्रधानमंत्री ने कहा कि हम इस फैलाव पर नजर रखे हुए हैं। प्रधानमंत्री ने कहा कि हमें और हमारे देशवासियों को अपना संकल्प और मजबूत करना पड़ेगा । यह हमारा कर्तव्य है और इस कर्तव्य का पालन करना ही होगा प्रधानमंत्री ने घर से ही काम करने की सलाह दी और यह भी सलाह दिया रूटीन चेकअप के लिए अस्पताल जाने से बचें।
           प्रधानमंत्री ने देश की जानकारी दी की इस महामारी से उत्पन्न मुश्किलों और समस्याओं के कारण बढ़ रही आर्थिक चुनौतियों पर नजर रखने के लिए वित्त मंत्री के नेतृत्व में एक इकोनामी रिस्पांस टास्क फोर्स का गठन किया गया है। वह इस बात पर नजर रखेगा  कि आर्थिक मुश्किलों भूख कम करने के लिए जो कदम उठाए गए हैं उन पर आगे  काम हो रहा है कि नहीं। प्रधानमंत्री ने साफ कहा इस दौरान खाने-पीने की वस्तुएं दूध दवाएं इत्यादि जरूरी चीजें पूरी तरह उपलब्ध हो और इसके लिए कोई कमी ना हो इस उद्देश्य की पूर्ति की जा रही है। सभी तरह के उपाय किए जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि देश में लॉक डाउन की अफवाह उड़ाई जा रही है लेकिन इससे घबराने की जरूरत नहीं है सभी वस्तुएं जिस तरफ से उपलब्ध थी उसी तरह से उपलब्ध रहेगी।
          लेकिन प्रधानमंत्री के इस संबोधन के बाद बाजार का रुख नहीं बदला और लोगों के भीतर "पैनिक बाइंग" की बढ़ती प्रवृत्ति देखी देखी जा रही है । प्रधानमंत्री का आश्वासन निसंदेह हिम्मत बढ़ाने वाला है लेकिन बाजार की हकीकत दूसरी दिखाई पड़ रही है। प्रधानमंत्री ने देश को पूरी तरह से आश्वस्त करने की कोशिश तो जरूर की है लेकिन यह कोशिश कहां तक पूरी होगी यह आने वाला समय बताएगा।


Thursday, March 19, 2020

कोरोना का सामाजिक साइड इफेक्ट

कोरोना का सामाजिक साइड इफेक्ट 
कोरोना से बचने के लिए लगभग सभी देशों की सरकारों ने एक बहुत सरल उपाय निकाला है कि एक दूसरे से दूरी बनाए रखें और घर में ही रहें। हमारे देश भारत में भी स्कूल कॉलेज बंद कर दिए गए हैं, कई परीक्षाएं स्थगित कर दी गई हैं।  विदेशों में भी यही हो रहा है। एक ऐसे समय में जब सामाजिक तनाव बढ़ रहा है  और एक दूसरे से मिलजुल कर आपसी भेदभाव मिटाने की बात चल रही है वैसे में सब लोग अलग रहने की बात कर रहे हैं दूरी बनाए रखने की बात कर रहे हैं, दोस्तों परिवारजनों तथा विभिन्न लोगों से कम से कम मिलने की बात कर रहे हैं । कभी सोचा है एक दूसरे से गले लग कर हम अपने भीतर  के कितने तनाव को खत्म कर देते हैं:
हम अपनी रूह तुम्हारे भीतर छोड़ आए हैं
गले लगाना तो बस एक बहाना था
हम एक दूसरे से बातें करके, हंसी मजाक करके कितना आनंदित महसूस करते थे और भीतर के तनावों से कितनी राहत मिलती थी। ऐसा करने से यकीनन हमारी जीवनी शक्ति बढ़ जाती थी। लेकिन कोरोना वायरस के भय ने जीवन के इस पक्ष को खत्म कर दिया।
         इस बीमारी के लिए सबसे बड़ी  सावधानी है एक दूसरे से दूरी बनाए रखें। सचमुच यह उपचार बहुत बुरा नहीं है और कम से कम जान बचाने के लिए तो सही है। लेकिन , जैसे सभी दवाइयों के साथ होता है इस दूरी बनाए रखने का भी एक साइड इफेक्ट है। मनोविज्ञान कहता है कि सामाजिक तनाव को मिटाने के लिए आपसी मेलजोल बहुत जरूरी है।  इस मेल जोल को जितना हो सके बढ़ाए रखना भी नितांत आवश्यक है। सामाजिक तौर पर दूरी बनाए रखने के जो साइड इफेक्ट होते हैं  वह बहुत ही खतरनाक होते हैं। जिस समाज ने जितनी ज्यादा दूरियां बनाए रखी है वह समाज उतना ही विखंडित हुआ है।आपस में मेलजोल के लिए कई समाज में लोग तरसते हैं । यही कारण था कि जब स्वामी विवेकानंद ने विश्व धर्म सम्मेलन में कहा कि "माई ब्रदर्स एंड सिस्टर्स "  अमेरिका तो लोग गदगद हो गए। यह मामूली सा शब्द अमेरिका और भारत को कितनी प्रगाढ़ता से जोड़ दिया । लोग कई दिनों तक उनके भाषण को सुनने के लिए वहां जमे रहे। तनाव के बढ़ने से जो गड़बड़ियां होती हैं उसका गवाह हमारा देश भी रह चुका है । भारत के बंटवारे के समय उत्पन्न तनाव ने  लाखों लोगों की जिंदगियां खत्म कर दी और उसका असर हम आज तक देख रहे जो लोग एकाकीपन में जीते हैं  उनके भीतर कॉर्टिसोल नाम का हार्मोन ज्यादा पाया जाता है । यह हार्मोन रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी तनाव और विषाणु के प्रति ज्यादा संवेदनशील बनाता है।
        समाजशास्त्र में एक बहुत ही लोकप्रिय पंक्ति है "मानव सामाजिक प्राणी है। " अब बीमारी के जान का खतरा होने से फैले तनाव के वक्त मिलना जुलना मना कर दिया गया। बेशक मनाही का अर्थ और उद्देश्य सकारात्मक एवं रचनात्मक है । यह प्राणी मात्र के जीवन की रक्षा के लिए है। अब जिन लोगों को आइसोलेशन या क्वॉरेंटाइन में रखा जा रहा है  और उन लोगों से मिलना जुलना रोका जा रहा है उनके साथ यह नए किस्म की व्याधि भी पैदा  होने की गुंजाइश ज्यादा है । ऐसे लोगों के भीतर  ऑक्सीटॉसिन  नाम का एक  हार्मोन  पैदा लेता है और अगर  यह हार्मोन भीतर आ गया तो बीमारी से लड़ने की क्षमता भी घट जाएगी । यही नहीं अकेलापन लोगों को और ज्यादा प्रभावित करता है तथा चिंतित बना देता है। अब अगर वायरस के डर से लोगों को अलग-थलग कर दिया लिया या उसे एकदम इससे मिलने जुलने पर रोक लगा दी गई तो मनोविज्ञान के मुताबिक ऐसे लोग अंतर समूह चिंता के शिकार होने लगते हैं और जब दूसरों से मिलते हैं तो उन के भीतर एक खास किस्म का अविश्वास पैदा होता है।
        स्वस्थ रहने के लिए और सुखी रहने के लिए मानवीय स्पर्श भी बहुत जरूरी है। पीठ ठोकने या गले लगाने के सकारात्मक पक्ष पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए स्पर्श और आलिंगन एक खास किस्म का हार्मोन ऑक्सीटॉसिन पैदा करता है यह हार्मोन हमारी जीवनी शक्ति को बढ़ाता है और बीमारियों से लड़ने की ताकत देता है यही कारण है कि जिस समाज में लोग सबसे ज्यादा एकाकीपन में जीते हैं उस समाज के लोग इस वायरस के प्रभाव में ज्यादा हैं। 

Wednesday, March 18, 2020

फिर भी भारत में कम फैला कोरोना

फिर भी भारत में कम फैला कोरोना

कोरोना का प्रसार बढ़ता ही जा रहा है और यह भारत में स्टेज- 2 पर पहुंच चुका है। पश्चिम बंगाल में भी इसका असर पाया गया, कोलकाता में भी इसका एक मरीज पाया गया है। लेकिन वह नेटिव नहीं है बल्कि  इंग्लैंड से लौटा हुआ है।  संभवत वह वहीं से इसकी छूत लेकर आया है।  लेकिन इस पर नजर रखने वालों का कहना है कि अब भी भारत में दूसरे देशों की तुलना में कम फैला है।  इस कम प्रसार का सबसे बड़ा कारण है सरकार की सचेतनता और गंभीर प्रयास। प्रधानमंत्री मोदी ने ना केवल मेडिकल स्तर पर इसके खिलाफ अभियान चलाया बल्कि देश के लोगों में जागरूकता पैदा की। बचाव के उपायों का प्रसार किया तथा कूटनीतिक स्तर पर भी इसके रोकथाम के लिए प्रयास किए। वरना दुनिया भर में इस सूक्ष्म वायरस का दानवी प्रसार तो भयानक होता जा रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के  आंकड़ों के अनुसार दुनिया के 158 देशों में इसका प्रसार हुआ है जहां
5500 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। इनमें इटली में 368 ईरान में 245 और स्पेन में 152 लोग शामिल हैं। दुनिया भर में कुल मिलाकर  लगभग दो लाख लोग इससे प्रभावित हुए हैं। हो सकता है  जब तक आप इसको पढ़ें  तब तक  और लोगों की मौत हो जाए या कुछ और लोग इससे संक्रमित हो जाएं ।
इस वायरस के प्रसार की गति और इससे उत्पन्न भय को देखते हुए ऐसा लगने लगा है कि दुनिया के कुछ देश ठप होने के कगार पर पहुंच गए हैं। क्या दुनिया के कई देशों को क्वॉरेंटाइन करने की नौबत आ सकती है। यह तो  महामारी घोषित हो चुका है और भारत में भी कई प्रांतों में इसे महामारी घोषित किया जा चुका है। एक छोटा सा वायरस दुनिया की महाशक्तियों के  आगे एक बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है। पब्लिक हेल्थ सिस्टम या कह सकते हैं लोक स्वास्थ्य व्यवस्था भारी दबाव में है। यही नहीं इससे मुकाबले के लिए दुनिया भर में जो फंड तैयार किया है वह कम है। इसका अंदाजा सिर्फ शेयर बाजार के गिरने से नहीं लग सकता बल्कि पहले से सुस्त चल रही अर्थव्यवस्था में यह गिरावट भयंकर तबाही ला सकती है।
लेकिन भारत में इसका प्रसार अभी भी कम है। इसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मीडिया और डॉक्टरों की पीठ ठोकी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन को मोदी का यह काम पसंद आया। भारत में सुरक्षा के मद्देनजर पचासी ट्रेनों का परिचालन रद्द कर दिया गया है साथ ही अफगानिस्तान, फिलिपिंस ,मलेशिया से आने वाले यात्रियों के प्रवेश पर तत्काल पाबंदी लगा दी गई है। इन देशों से कोई भी विमान भारत के लिए उड़ान नहीं पड़ेगा।
          अब यहां यह गौर करने लायक है कि भारत में आखिर संक्रमण इतना कम क्यों हुआ?  विशेषज्ञों का मानना है कोरोना वायरस टेस्ट को लेकर भारत काफी गंभीर है और लगातार गंभीर होता जा रहा है। सवा अरब से ज्यादा आबादी वाले इस देश में जांच और उपचार के केंद्र लगातार बढ़ाए जा रहे हैं कह सकते हैं कि सरकार इस बदलती स्थिति के अनुसार अपनी नीतियां बड़ी तेजी से बदल रही हैं। देश-विदेश से लेकर हर मामले पर नजर रखी जा रही है इसके लिए एक कोऑर्डिनेटर नियुक्त किया गया है। सरकार के अनुसार मध्य पूर्व एशिया के लोगों के लिए कोई नीति तय नहीं है। हर दिन लोग वहां से आ रहे हैं और नई नई चीजें सामने आ रही है।  सरकार ने सुझाव दिया है कि जनता को पैनिक में आने की कोई जरूरत नहीं है। सभी राज्यों के लिए निर्देश तैयार किए जा चुके हैं और उन्हें लागू किया जा रहा है।  फिलहाल 72 आईसीएमआर प्रयोगशालाएं  काम कर रही हैं। इस महीने के आखिर तक 49 और प्रयोगशालाएं  खुल जाएंगी ताकि लोगों को जांच कराने में सुविधा मिले। आईसीएमआर के महानिदेशक डॉ बलराम भार्गव के अनुसार देश में दो उच्च तकनीक से सुसज्जित प्रणालियों पर भी काम हो रहा है जो तेजी से परीक्षण करने वाली प्रयोगशाला में हैं। इनका संचालन दो स्थानों पर किया जाएगा। इन प्रयोगशालाओं में 1400 नमूनों का रोज परीक्षण किया जा सकता है। आईसीएमआर के महामारी और संचारी रोग के प्रमुख रमन आर्यन गंगाखेड़कर के अनुसार जांच क्षमता कोई मुद्दा नहीं है क्योंकि भारत में वर्तमान 52 प्रयोगशालाओं में प्रतिदिन 10,000 नमूनों की जांच 60,000 जांच के उपकरण उपलब्ध हैं और अतिरिक्त दो लाख किट के आदेश दिए गए हैं ।  इस रोग से ज्यादा भयभीत होने की अब जरूरत नहीं है सरकार ने जो भी तैयारियां की हैं उसकी मदद से इस बीमारी से निपटा जा सकता है।


Tuesday, March 17, 2020

आदतें बदल देगी यह महामारी

आदतें बदल देगी यह महामारी

कोरोना वायरस से आक्रांत स्थितियों को देखकर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पिछले हफ्ते इसे एक महामारी घोषित की है। उसके बाद दुनिया के सभी देशों में भीड़ में जाना आना मना कर दिया गया है। भारत में स्कूल कॉलेज इत्यादि इस महीने के आखिर तक बंद कर दिए गए हैं। पश्चिम बंगाल में तो यह छुट्टी 15 अप्रैल तक घोषित कर दी गई है । यह एहतियातन किया गया है। हालांकि दुनिया के 118 देशों में इस महामारी के संक्रमण को पाया गया है जिस में सबसे आगे इटली, स्पेन, फ्रांस और अमेरिका हैं। जिन देशों मैं आवाजाही कम है जैसे भारत और मिस्र वहां इसका संक्रमण थोड़ा कम है। लेकिन बहुत ज्यादा कम नहीं। आज के राजनीतिक नेताओं को शायद ऐसे वाकये से कभी पाला नहीं पड़ा है या कुछ ने इस तरह है हालात देखे होंगे। क्योंकि संभवत यह पहला अवसर है जब महामारी का असर अर्थव्यवस्था पर भी पड़ रहा है । अभी तक यह निश्चय नहीं हो पाया है की इसके रोकथाम के लिए अचूक मेडिकल उपाय क्या क्या हैं। सारे कदम केवल सावधानी के लिए उठाए जा रहे हैं। पूरी दुनिया के डॉक्टर , वैज्ञानिक तथा उपचार  करने वाले सब के हाथ-पांव फूल रहे हैं। बेशक इस किस्म की महामारी एक वैश्विक समस्या है और इसके उपचार प्रोटोकॉल, औषधियां इत्यादि पर सामूहिक रूप से काम होना चाहिए।
          कोरोना वायरस की वजह से कारोबार ठप पड़ गए हैं। कई देशों में अंतरराष्ट्रीय यात्राएं रद्द कर दी गई है। कई जगहों पर होटल , रेस्तरां इत्यादि बंद कर दिए गए हैं या फिर लोग  उनमें जाने से बच रहे हैं। कई कंपनियां खासतौर पर आईटी सेक्टर की कंपनियां अपने स्टाफ के लोगों को वर्क फ्रॉम होम सुविधा दे रही हैं। जिन लोगों पर वायरस पीड़ित होने का शक है उन्हें बाकी लोगों से अलग थलग रखा जा रहा है। भारत में पहले  से चल रही है आर्थिक   सुस्ती  में करोना के दस्तक ने और मुश्किल में डाल दिया है। इससे आने  वाले वक्त में लोगों की आवाजाही या सामाजिक मिलन जैसी आदतों  में भी बदलाव आने की संभावना है। इस बीमारी ने हमारे समाज के  सोचने के ढंग को बदलना आरंभ कर दिया है। यहां तक कि अर्थव्यवस्था के कई सेक्टरों में भी बहुत सी चीजें बदलने वाली हैं और हो सकता है बाद में यह बदलाव स्थाई रूप ले ले। फिलहाल आईटी सेक्टर को छोड़कर किसी भी क्षेत्र में वर्क फ्रॉम होम की सुविधा मुश्किल है। लेकिन जब से इस वायरस का संक्रमण घातक हुआ है तब से कंपनियों ने अपने काम करने के ढंग में बदलाव लाना शुरू करसे दिया है। मैन्युफैक्चरिंग को छोड़कर शायद सभी क्षेत्रों में यह बदलाव देखने को मिलेगा। इससे लोगों के आवागमन आदतें बदलेगी। लोग सार्वजनिक परिवहन प्रणाली में आने जाने से खुद को रोकेंगे। 2003 में सीवियर एक्यूट रेस्पिरेट्री सिंड्रोम (सार्स) और 2012 में मिडिल ईस्ट रेस्पिरेट्री सिंड्रोम (मर्स) से मिले सबक को हमने याद नहीं रखा। जबकि यह करोना से बड़ी बीमारियां थीं। जहां तक बदलाव कालेकिन प्रश्न है उसमें जो भी बदलाव आए वह पूरी तरह रिसर्च और नीतिगत स्तर पर आधारित होना चाहिए। भारत जैसे विशाल देश में लोगों को सार्वजनिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम लागू करना एक बात देता है अब उनमें साफ सफाई इत्यादि पर ज्यादा ध्यान दिया जाएगा। पढ़ाई का तरीका बदल सकता है और इसके तहत वर्चुअल क्लासेस शुरुआत हो चुकी है। तमाम स्कूल कॉलेज भी भविष्य में ऐसा कर सकते हैं। खानपान और व्यक्तिगत हाइजीन की आदतें भी बदल सकती हैं और उनमें बदलाव दिखाई पड़ने लगा है।
       विभिन्न  मांगों के लिए किये जाने वाले प्रदर्शन थी अब बंद हो सकते हैं।  देश में सीए ए और एनआरसी के विरुद्ध चल रहे प्रदर्शनों खासकर शाहीन बाग जैसे प्रदर्शन को अब बंद कर दिया जाना चाहिए। अगर प्रदर्शनकारी नहीं बंद करते हैं तो सरकार को मजबूत हाथों से इसे सार्वजनिक स्वास्थ्य को देखते हुए बंद कर देना चाहिए। जो लोग ऐसे प्रदर्शनों को हवा दे रहे हैं वह समाज के दुश्मन कहे जा सकते हैं । क्योंकि शाहीन बाग के धरने से प्रेरित होकर लखनऊ, पटना ,बेंगलुरु और कोलकाता में भी धरने चल रहे थे। कुछ लोगों ने इसे फैलाना अपना कर्तव्य मान लिया था। इसलिए उन पर दबाव पड़ना चाहिए की वे इन धरनों को रोकें। क्योंकि मानव समाज को भारी खतरा है। यही नहीं हमारे देश में पर्याप्त संख्या में लोगों की जांच नहीं कर बहुत बड़ी गलती की जा रही है। करोना वायरस से लड़ने के तौर-तरीकों को देखते हुए कई स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने इस तरह की चेतावनी दी है। वर्तमान में हजारों की संख्या में लोग संक्रमित हो सकते हैं जिसे कम्युनिटी ट्रांसमिशन के नाम से जाना जाता है और हमें यह पता ही नहीं है यह संक्रमित कई हजार लोगों को भी संक्रमित कर रहे हैं। इस वायरस से लड़ने में दक्षिण कोरिया की सफलता का श्रेय बड़ी संख्या में  जांच को जा सकता है। भारत सरकार को भी चाहिए कि वह जल्दी से जल्दी जांच की व्यापकता को बढ़ाए। वरना कारण चाहे जो हो बड़ी संख्या में अगर घरों से बीमार निकलेंगे तो इसका दोष सरकार पर ही जाएगा।


Monday, March 16, 2020

भारत का वायरस विरोधी कदम

भारत का वायरस विरोधी कदम

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रविवार को दक्षेस राष्ट्रों के शासनाध्यक्षों की एक बैठक को टेली कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से संबोधित किया और कोरोना वायरस से लड़ने के लिए अगला कदम उठाने योजनाओं पर विचार विमर्श किया। इन्होंने इस माध्यम से राष्ट्रों का साहस भी बढ़ाया ,वरना चारों तरफ एक खास किस्म की उदासी का तथा भय का वातावरण बना हुआ है। यह उदासी और भय मिलकर नाउम्मीदी का सृजन करते हैं। प्रधानमंत्री मोदी का यह कदम इस निराशा में उम्मीद को पंख देगा। वरना जो हालात हैं अगर उसकी व्याख्या करें  तो लगता  है देश विदेश के लोग इस नेटवर्किंग की दुनिया में एक दूसरे से सवाल कर रहे हैं कि सुरक्षित कैसे रहा जाए। हवाई यात्राएं सुरक्षित हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन स्थितियों से लड़ने की एक उम्मीद पैदा की। बेशक उसमें यानी प्रधानमंत्री के भाषण में चिकित्सकीय विशेषज्ञता नहीं थी, हो भी नहीं सकती है। लेकिन इसका एक मानवीय पक्ष भी है जिसको प्रधानमंत्री ने रेखांकित किया। बेशक इस पर काबू पाने के लिए ज्यादा विशेषज्ञ सूचनाओं की आवश्यकता है। जहां तक अभी देखने को मिल रहा है उससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि किसी विशेष उद्देश्य के तहत यह अफवाह फैलाई जा रही है। वायरस का संक्रमण है पर उतना खतरनाक नहीं है जितना कि उसे बताया जा रहा है।  सारी दुनिया में मरने वालों की संख्या को देखते हुए कहा जा सकता है कि खतरा बहुत ही कम है। शायद प्रधानमंत्री ने इस समाज वैज्ञानिक तथ्य को समझा है और उन्होंने अन्य लोगों को समझाने की कोशिश की है । इसमें जो सबसे बड़ा खतरा उन्हें है जो लोग इलाज में जुटे हुए हैं या संक्रमित लोगों से  जुड़े  हैं अथवा उन पर निर्भर  बुजुर्ग लोगों को ज्यादा खतरा है। हो सकता है कुछ और लोगों को इस संक्रमण से मृत्यु हो जाए लेकिन किसी भी मुद्दे पर यह कोई व्यक्तिगत समस्या नहीं है। लोगों का इससे इस तरह आतंकित होना बहुत सही नहीं है। आज बाजार की स्थिति देखें तो हैरत होती है । औषधि विक्रेताओं के यहां सैनिटाइजर मास्क और पेरासिटामोल के स्टॉक बढ़ते जा रहे हैं। अगर इसका समाज वैज्ञानिक विश्लेषण करें तो पता चलेगा कि   विभिन्न सरकारों ने लोगों के बीच फैलाया  है और आम आदमी इससे डरा हुआ है।
         ऐसी महामारी के तीन चरण होते हैं। पहला प्रभावित लोगों की पड़ताल की जाए और उनसे अलग कर दिया जाए, दूसरा ऐसे लोगों की पड़ताल की जाए जो प्रभावित लोगों के बीच रह रहे हैं और तीसरा चरण सरकार की भूमिका के बारे में है।  वह इसका ज्यादा प्रचार ना करें एवं इसकी रोकथाम की व्यवस्था करें। हालांकि कोरोना वायरस जब चीन से बाहर दुनिया के लोगों की निगाह में पहुंचा तब तक बहुत बड़ी संख्या में लोग वहां से बाहर जा चुके थे। जब यह महामारी फैली तो बहुत लोग इसके बारे में जानते ही नहीं थे। यहां तक कि स्वास्थ्य कर्मचारी भी इससे अनजान थे। अभी भी जो कुछ हो रहा है वह आतंक से हो रहा है स्कूलों को या अन्य शिक्षण संस्थाओं को बंद करने से कितना प्रभाव पड़ेगा यह अभी किसी को मालूम नहीं है या केवल ट्राई चल रहा है। ज्यादा प्रयास संक्रमण को रोकने का हो रहा है। हालांकि कोरोना वायरस के संक्रमण को समझने के लिए बहुत सी बातों को जानना जरूरी है। इसलिए ऐसी स्थिति में इसकी प्रक्रिया और उद्देश्यों के बारे में लोगों को बताना जरूरी है। यही सबसे बड़ी भूल हो जा रही है हमें यह मालूम नहीं सरकार क्या कर रही है। खुद सरकारी विभागों को भी नहीं मालूम है कि संबंधित विभाग इस बारे में क्या कर रहे हैं। अभी हाल में विश्व स्वास्थ्य संगठन में कहा था की हम एक ऐसी दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं जिसके बारे में कोई जानकारी नहीं है ऐसी महामारी ओं में सबसे बड़ी विपत्ति यह होती है कि अगर सरकार असफल होती है तो सब जानते हैं लेकिन सरकार अगर सफल होती है तो किसी को मालूम नहीं होता। हम सरकार की सफलताओं को नजरअंदाज कर देते हैं या फिर उस पर सवाल उठाने लगते हैं। इसी कारणवश प्रधानमंत्री ने सार्क देशों के प्रमुखों से वार्ता की। उनकी कोशिश थी कि हम इसे खत्म करने की बात करें ना कि इसके प्रसार की।


Sunday, March 15, 2020

वायरस का भारत पर आर्थिक प्रभाव

वायरस का भारत पर आर्थिक प्रभाव 

कोरोना वायरस का आतंक इतना ज्यादा है  कि भारत में लगभग सभी स्कूल, कॉलेज, शिक्षण संस्थान ,जिम ,सिनेमाघर इत्यादि सब बंद कर दिए गए हैं।सैनिटाइजर और मास्क की कीमतें आकाश छूने लगी हैं।  कई क्षेत्रों में इसका प्रभाव देखा जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र कॉन्फ्रेंस ऑन ट्रेड एंड डेवलपमेंट के अनुसार करोना वायरस से दुनिया की जो 15 अर्थव्यवस्थाएं  बुरी तरह प्रभावित हुई है उनमें भारत सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। चीन में आने वाली दवाओं पर उत्पादन में कमी  के प्रभाव से भारत के व्यापार पर भी असर पड़ा है और इससे हमारे देश को करीब 34.8 करोड डॉलर तक का नुकसान उठाना पड़ सकता है। यूरोप के आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओ ई सी डी) ने भी 2020- 21 में भारत के अर्थव्यवस्था के विकास की गति का पूर्वानुमान जो लगाया था उसमें 1.1% घटा दिया है। ओ ई सी डी ने पहले अनुमान लगाया था कि भारत की अर्थव्यवस्था की विकास दर 6.2 प्रतिशत रहेगी लेकिन अब उसमें उसने कमी कर दी है और इसे 5.1% कर दिया है।
     भारत सरकार ने एक नारा दिया है कि "करोना से डरना नहीं लड़ना है।" यानी, सरकार की कोशिश है कि इस बीमारी या कह सकते हैं महामारी के कारण देशभर में आतंक न व्याप जाए। हालांकि विपक्षी दलों ने इस वायरस से होने वाले आर्थिक नुकसान के बारे में सरकार से पूछताछ शुरू कर दी है। नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री डॉ अमर्त्य सेन ने कहा है कि "किसी भी देश पर आर्थिक प्रभाव केवल आर्थिक नहीं है ऐसे प्रभाव की एक मानवीय कीमत भी होती है।" अब जैसे वायरस का प्रभाव दवा कंपनियों पर पड़ा है और दवाइयों की कीमत बढ़ गई है लिहाजा गरीबों के लिए दवाइयां धीरे-धीरे दुर्लभ होती जा रही हैं और रोगी जिनके पास साधन नहीं है वे हीनता बोध से ग्रस्त होने के साथ-साथ अपनी जिंदगी की जंग भी हारते नजर आ रहे हैं। उधर जिन लोगों में करुणा सहानुभूति नहीं है वैसे दवा विक्रेता ऊंची कीमत पर सैनिटाइजर और मास्क जैसी वस्तुएं बेच रहे हैं। कोलकता शहर की कई दवा दुकानों में मास्क की कीमत ₹500  हो गई है। सैनिटाइजर तो लगभग गायब हो चुका है। जेनेरिक दवाओं का भारत दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक है और चीन में इन रोगों के फैलने यह कारण कई दवाओं का भारत में उत्पादन बंद हो चुका है या रोक दिया गया है। ऐसे में जहां दवाइयां अनुपलब्ध होती जा रही हैं वहीं बेकारी के साथ-साथ बीमारी भी बढ़ती जा रही है । रसायन एवं उर्वरक मंत्री श्री मनसुख मंडवारिया के अनुसार देश में दवाओं की कमी रोकने के लिए टास्क फोर्स बनाने का सुझाव दिया गया है। मंत्रियों का एक स्थाई समूह लगातार हालात का आकलन कर रहा है। पर्यटन उद्योग पर भी  इसका व्यापक असर पड़ रहा है।  लोगों ने आना जाना बंद कर दिया है जिसके कारण पर्यटन स्थल पर साधारण विक्रेताओं से लेकर पर्यटकों की आवभगत में लगे पांच सितारा होटलों तक पर भारी प्रभाव पड़ा है। यही नहीं जिन और जूलरी बाजार पर भी इसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है।
       कच्चे तेल की कीमत गिर गई है और जहां इसका लाभ आम जनता को मिलना चाहिए था सरकार ने अबकारी शुल्क में वृद्धि कर जनता की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। इस दौर में जहां राहत की जरूरत थी वहीं कठिनाइयां बढ़ गई है। कारोबार खतरे में पड़ गए हैं। बड़ी कॉन्फ्रेंस रद्द हो गई है । हमारे देश की आर्थिक तरक्की की रफ्तार गिर चुकी है। महामारी के आने से पहले ही आशंका जताई जा चुकी थी इस देश की जीडीपी ग्रोथ रेट 5% से नीचे रहने वाली है अब कितनी कमी होगी इसका अनुमान लगाना तभी संभव है जब यह स्थिति साफ हो जाए। कोई नहीं कह सकता है कि वायरस का प्रभाव कब तक रहेगा और उसका कितना असर भारत की अर्थव्यवस्था पर और हमारी आपकी जेब पर पड़ेगा। तेल की कीमत गिरने के साथ ही सरकार ने पुरानी चाल चलनी शुरू कर दी और उसने डीजल पेट्रोल पर ड्यूटी ₹3 प्रति लीटर बढ़ा दी है। सरकार का कहना है कि इससे होने वाली आय से ढांचा और विकास कार्यों पर खर्च के लिए जरूरी रकम मिलेगी लेकिन इसमें यह बात छिपी हुई है कि सरकार अपने खाली खजाने को भरने के लिए फिर से जनता की जेब काटने लगी है। यह वृद्धि सीधे एक्साइज ड्यूटी में नहीं की गई है, बल्कि स्पेशल एडिशनल एक्साइज ड्यूटी रोड इंफ्रास्ट्रक्चर से बनाया है इसका मतलब है कि केंद्र सरकार इसमें से राज्यों को भी हिस्सा नहीं देती होगी यहां सवाल है कि अगर अंतर्राष्ट्रीय बाजार में दाम नहीं गिरे होते तो सरकार क्या करती? कीमतें गिरने के बाद ही सरकार को यह सब क्यों याद आया? अगर यह रकम सरकार छोटे व्यापारियों और आम जनता के बीच जाने देती है तो अर्थव्यवस्था में रफ्तार लाने के इस मौके का सही इस्तेमाल कर सकती थी जिस मौके का देश को इंतजार है।


Friday, March 13, 2020

कोरोना का कहर

कोरोना का  कहर  

यह कहने का एक चलन है कि  दुनिया बाजारवाद से नियंत्रित होती है लेकिन पिछले दो-तीन दिनों से यह देखने को मिल रहा है कि इंसानी हकीकत है और उसकी जरूरतें बाजार को घुटनों पर ला सकती हैं। बाजारवाद निस्सहाय सा दिखने लगता है। अभी गुरुवार की बात है कोरोना वायरस के भय से भारतीय बाजार सहित दुनिया भर के शेयर बाजारों पर कहर टूट पड़ा है। मुंबई स्टॉक एक्सचेंज सेंसेक्स 8.18% गिरकर बंद हुआ इसके कारण लगभग 12 करोड रूपये डूब गए। मुंबई स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध कंपनियों का बाजार पूंजीकरण 137.12 लाख रुपए से घट कर 125. 86 लाख पर बंद हुआ। अमेरिका, चीन, जापान, यूरोप सहित पूरी दुनिया के शेयर बाजार दिनभर लाल निशान के नीचे रहे। तेल की कीमत इस तरह गिरी कि कई तेलशाह देश बिलबिला उठे। ईरान ने 1962 के बाद पहली बार अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष से कर्ज मांगा है। भारत में भी इस बीमारी से मौतें होने लगी हैं। पहली बार गुरुवार को  सऊदी अरब से लौटे  एक बुजुर्ग की कर्नाटक में मौत हो गई। देशभर वायरस के संक्रमण के मामले बढ़ते जा रहे हैं। 6 नए मामले पकड़ में आए हैं। इनमें एक एक महाराष्ट्र , दिल्ली, लद्दाख, उत्तर प्रदेश और आंध्र प्रदेश में है। दिल्ली से छत्तीसगढ़ तक स्कूल-कॉलेज बंद कर दिए गए हैं। सिनेमाघरों पर रोक लगा दी गई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देशवासियों को धैर्य धारण करने की सलाह दी है और आश्वासन दिया है इस सरकार इससे लड़ने के लिए पूरी तैयारी में है । मंत्रियों के विदेश दौरे पर रोक लगा दी गई है।
      इससे पहले 2009 में स्वाइन फ्लू को महामारी घोषित किया गया था। विशेषज्ञों के मुताबिक स्वाइन फ्लू से कई लाख लोग मारे गए थे। जहां तक करोना वायरस का प्रश्न है इसका अभी तक कोई इलाज नहीं निकला है। इसलिए दुनिया भर के सामने इसके फैलने से रोकना सबसे महत्वपूर्ण है। अब हम अपने देश की बात करें। हमारे देश का कानून लगभग 123 वर्ष पुराना है और यह एक विचारणीय प्रश्न है कि इस कानून के माध्यम से इस बीमारी से कैसे निपटा जा सकता है। कर्नाटक ने इसी पुराने कानून के माध्यम से एक अधिसूचना जारी की है महामारी कानून 1897 नाम के इस कानून का इस्तेमाल विभिन्न स्तर पर अधिकारियों द्वारा शिक्षण संस्थाओं को बंद करने इसी इलाके में आवाजाही रोकने और मरीज के  अस्पताल में पूरे इलाज की सुविधा देने की बात है। इस अधिसूचना को नहीं मानने वाले या इसका उल्लंघन करने वाले पर भारतीय दंड संहिता की धारा 188 के तहत मुकदमा कराया जा सकता है। इसकी सजा 6 महीने की जेल या ₹1000 जुर्माना या दोनों है।
       खबरों की अगर माने तो दुनिया भर में अभी तक इस वायरस से लाखों लोग संक्रमित हुए हैं लेकिन इससे व्याप्त आतंक को देखते हुए लगता है कि यहां आंकड़े बहुत सही नहीं है क्योंकि यह आंकड़े जितने ज्यादा फैलेंग उतने ज्यादा आर्थिक नुकसान होंगे। इनमें बाजार की कीमतें गिरने से लेकर रोजगार खत्म होने तक सब कुछ शामिल है। आर्थिक सहयोग और विकास संगठन के मुताबिक अगर दुनिया भर में घरेलू उत्पाद विकास में आधा प्रतिशत की गिरावट आती है तो इसका असर व्यापक होता है। जो यात्राएं रद्द किए जाने , कारखाने बंद होंगे ,आपूर्ति की कड़ियां टूटने और इस तरह की अन्य गतिविधियों में दिखाई पड़ेगी। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि अगर इस वायरस पर जल्दी काबू नहीं किया जा सका तो हम इस वर्ष शून्य विकास के मुकाबिल होंगे। हाथ धोने और दूरी बनाए रखने से ऐसा लगता है कि इसका संक्रमण थोड़ा धीमा हो जाएगा परंतु जो प्रसार अफवाहों के कारण हो जाएगा और जो उसका प्रभाव पड़ेगा उसे देखते हुए इस संक्रमण के धीमे  प्रसार बहुत कम है । क्योंकि अभी पर्यावरण परिवर्तन, जल सुरक्षा, आपसी झगड़े, कृत्रिम इंटेलिजेंस तथा कई अन्य समस्याएं हमारा इंतजार कर रही हैं। इसके लिए जरूरी है कि हम अपनी छोटी ही सही सामूहिक भूमिका निभाएं और इसके प्रसार के आतंक को कम करने का प्रयास करें। डर या आतंक को कम करके इसका उपचार खोजने में सहयोग की जरूरत है वरना हम हाथ धोते रह जाएंगे और दूरियां बनाते रह जाएंगे बीमारी सिमट कर हम तक चली आएगी। 


Thursday, March 12, 2020

कोरोना वायरस बना महामारी

कोरोना वायरस बना महामारी 

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने नवल कोरोनावायरस फिर पसार को एक महामारी घोषित की है। संगठन के महानिदेशक ट्रेडॉस ऐड हेनोम गिब्रेयसूस ने कहा  कि   "कोरोना वायरस जैसी महामारी  आज से पहले  हमने नहीं देखी।  साथ ही  हम यह भी कहना चाहते हैं कि पूरी दुनिया इसकी रोकथाम में सहयोग करे ।" उन्होंने  आपस में एक दूसरे की सहायता करने की अपील की है। यूरोप में ब्रिटेन ने वायरस का टीका बनाने और लोगों को राहत दिलाने के उपायों के लिए अरबों पाउंड का फंड जारी किया है।  चांसलर एंजेला मर्केल ने चेतावनी दी है कि "अंततः दो तिहाई जर्मन इससे प्रभावित हो जाएंगे।" जबकि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इसे उतनी गंभीरता से नहीं लिया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चीन द्वारा उठाए गए कड़े कदम की प्रशंसा की है। लेकिन यह भी कहा है कि यह बंदिशें जब उठाई जाएंगी तो  क्या होगा, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। इटली में इसके सबसे ज्यादा मरीज पाए गए हैं।
       दूसरी तरफ भारतीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने बुधवार को एक महत्वपूर्ण बैठक कर फैसला किया कि कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के उद्देश्य से 15 अप्रैल तक सभी वीजा निलंबित किए जाएं। स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन अध्यक्षता में हुई इस बैठक में कोरोना वायरस कोविड 19 के संक्रमण को फैलने से रोकने पर चर्चा हुई। बैठक में 15 अप्रैल तक राजनयिक ,सरकारी, संयुक्त राष्ट्र और अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं एंप्लॉयमेंट तथा प्रोजेक्ट वीजा को छोड़कर सभी अन्य प्रकार के वीजा 15 अप्रैल तक के लिए निलंबित किए जाने का फैसला किया है। साथ ही ओसीआई कार्ड धारकों को दी जाने वाली वीजा मुक्त यात्रा की सुविधा पर भी 15 अप्रैल 2020 तक के लिए पाबंदी लगा दी गई है। यह पाबंदी सभी हवाई अड्डों और बंदरगाहों पर 13 मार्च 2020 को मध्यरात्रि से लागू हो जाएगी साथ ही सरकार ने सभी को हिदायत दी है कि बेहद जरूरी ना होने पर वह भारत ना आयें। सरकार का कहना है कि भारत आने पर उन्हें कम से कम 14 दिनों तक क्वारंटाइन पर रखा जा सकता है। गिब्रेयसूस ने कहा है कि अब तक दुनिया के 14 देशों में इसके संक्रमण के मामले सामने आ चुके हैं। दिन में 90 फ़ीसदी मामले मात्र 4 देशों में हैं जिनमें चीन और कोरिया शामिल हैं। दुनिया भर में अब तक करोना वायरस से 1,18000 से अधिक मामलों की पुष्टि हुई है और 4291 लोगों की मौतें हुई है। संगठन का कहना है अगर सरकारें अपने नागरिकों में इस संक्रमण की जांच करें और उन्हें दूसरों से अलग करें तो उनका इलाज करें और लोगों को इस बारे में बताएं तो काफी हद तक इसके फैलने की गति पर काबू पाया जा सकता है।
       भारतीय स्वास्थ्य मंत्रालय के प्रवक्ता संजीव कुमार के अनुसार अब तक देश में करोना वायरस के संक्रमण के 60 मामलों की पुष्टि हुई है 10 मार्च तक करोना वायरस 50 मामले दर्ज किए गए थे। नए मामलों में 8 केरल के एक दिल्ली और एक राजस्थान से हैं।
     इटली में कोरोना वायरस संकट  हर बीतते दिन के साथ गंभीर होता जा रहा है। बीते 3 दिनों में हर दिन 1000 से अधिक नए मामले सामने आए हैं मरने वालों की तादाद 631 हो गई है जबकि 70000 से अधिक लोग संक्रमित हैं। बीते 24 घंटों में इटली में 168 लोगों की मौत हुई है जबकि 529 नए मामले आए हैं। सरकार ने वायरस को रोकने के लिए बेहद सख्त प्रतिबंध लगाए हैं। समूचे इटली में यात्रा प्रतिबंध है और लोगों के जुटने पर रोक है।
       महामारीविदों का मानना है की तेजी से बढ़ने वाले इस रोग से 1 वर्ष से भी कम समय में पूरी दुनिया में एक करोड़ से अधिक दो मर सकते हैं और आने वाले 10 -15 वर्षों में इस तरह के प्रकोप की और बड़ी आशंकाएं हैं। महामारीविदो के मुताबिक कोरोना वायरस और अन्य वायरस उपभेदों की संख्या वर्तमान में परिसंचारी और संक्रमण के कारण अभूतपूर्व स्तर तक फैल गये हैं।  इसके अभी और फैलने की आशंका है। अगर दुनिया आपस में सहयोग कर इस पर रोक नहीं लगाती है तो आने वाले दिनों में यह एक किस्म का हथियार के रूप में विकसित होगा और परमाणु बम से ज्यादा घातक साबित हो सकता है । अभी तो शुरुआत है। विख्यात दार्शनिक और वैज्ञानिक बट्रेंड रसैल ने अपनी किताब "द फेट ऑफ द अर्थ " में आशंका जाहिर की है कि" आने वाले दिनों में परमाणु बम से ज्यादा घातक जैविक हथियार हो जाएंगे और इन हथियारों पर आसानी से न रोक लगाई जा सकती है और ना ही इसके निर्माण उत्पादन को बाधित किया जा सकता है।" नागासाकी और हिरोशिमा पर परमाणु बम गिराए जाने के बाद उन्होंने ब्रिटिश पार्लियामेंट में अपने भाषण में कहा था कि" अगर अगर दुनिया जैविक हथियारों की तरफ कदम बढ़ाती है तो इस पृथ्वी पर क्या हो सकता है इसका एक मामूली उदाहरण परमाणु बम है।"


Wednesday, March 11, 2020

सिंधिया रंगे नमो के रंग में

सिंधिया रंगे नमो के रंग में

कहते हैं कि फूलों की पंखुड़ी से पत्थर का कलेजा कट जाता है लेकिन कल जो मध्यप्रदेश में हुआ उसने यह साबित किया कि फूलों की पंखुड़ियों से सत्ता के पाये भी कट जाते हैं। कमल की पंखुड़ियों में कमलनाथ की गद्दी के पाए काट डाले।
      मध्य प्रदेश में पिछले कुछ दिनों से  राजनीतिक उथल पुथल मचा हुआ था और कई तरह की संभावनाएं व्यस्त हो रही थी। अंत में होलिका दहन के दिन यानी 9 मार्च को ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस से इस्तीफा दिया और उसे  पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी को भेज दिया। हालांकि तब बात बहुत ज्यादा प्रचारित नहीं हुई। लेकिन  उन्होंने  इस्तीफा देने के बाद  ट्वीट जरूर किया  और  उस ट्वीट की भाषा  स्पष्ट थी।  उन्होंने लिखा था  वह कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे रहे हैं  लेकिन इस रास्ते की शुरुआत एक साल पहले ही हो चुकी थी। होली की सुबह बात उठने लगी दूसरी ओर कांग्रेस का दावा है कि सिंधिया को पार्टी विरोधी कार्यों के कारण पार्टी से निकाल दिया गया है। सिंधिया के भाजपा में जाने को भाजपा से जुड़े लोग देशहित और राष्ट्रहित के समीकरण से देख रहे हैं तो कांग्रेसी नेता उनके लिए गद्दार जैसे शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं। यद्यपि कांग्रेस के सेंट्रल लीडरशिप की ओर से अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है।  ज्योतिरादित्य की बुआ यशोधरा राजे सिंधिया ने कहा है यह घर वापसी है। माधवराव सिंधिया ने अपनी राजनीति का ककहरा जनसंघ से ही पढ़ना शुरू किया था। यशोधरा राजे सिंधिया ने कहा कांग्रेस में ज्योतिरादित्य को नजरअंदाज किया जा रहा था। मध्य4 प्रदेश के कांग्रेस अध्यक्ष रह चुके अरुण यादव ने भी कहा कि "सिंधिया द्वारा अपनाए गए चरित्र पर जरा भी अफसोस नहीं है। सिंधिया खानदान में स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी अंग्रेज हुकूमत और उनका साथ देने वाली विचारधारा की कतार में खड़े होकर उनकी मदद की थी।" सिंधिया के इस्तीफे पर राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा , " 5 भाजपा देश की अर्थव्यवस्था,4 राजनीतिक संरचना और न्यायपालिका को खत्म करने पर तुली हुई है तो ऐसे समय में भाजपा से हाथ मिलाना स्वार्थ की राजनीति को दर्शाता है। सिंधिया ने जनता के भरोसे और विचारधारा को धोखा दिया है ऐसे लोग सत्ता के भूखे होते हैं और जितनी जल्दी पार्टी छोड़ दें तो उतनी ही बेहतर बात है।"
     अब सोनिया गांधी को इस्तीफा भेजने के बाद और उन्हें पार्टी से निकाले जाने के बाद एक सवाल उठता है कि उन्होंने ट्वीट में जो लिखा कि इसकी शुरुआत साल भर पहले हो गई थी तो क्या हुआ था साल भर पहले यह तो सभी राजनीतिक पर्यवेक्षक जानते हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया विगत कुछ समय से अपने राजनीतिक करियर के सबसे लो पॉइंट पर चल रहे थे। हालांकि 2018 में जब मध्यप्रदेश में कांग्रेस की वापसी हुई इसमें सबसे महत्वपूर्ण योगदान सिंधिया का ही था। उन्होंने ही मध्यप्रदेश में सबसे ज्यादा चुनावी सभाओं को संबोधित किया था। उन्होंने राज्य में करीब 110 चुनावी सभाओं को संबोधित किया था और इसके अलावा 12 रोड शो किए थे उनके मुकाबले कमलनाथ ने महज 68 चुनावी सभाओं को संबोधित किया था। अब कई नेताओं को डर है कि राजस्थान भी उसी रास्ते जाएगा जिस रास्ते को मध्यप्रदेश ने लिया है वहां अशोक गहलोत और उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट में रस्साकशी चल रही है। कर्नाटक और कई अन्य राज्यों में भी पार्टी को नए अध्यक्ष नहीं मिल पा रहे हैं और पार्टी आंतरिक झगड़े से उबर नहीं पा रही है। सिंधिया राहुल गांधी के करीबी थे लेकिन मुश्किलें अभी थीं। खुद राहुल गांधी ने कांग्रेस सर्वे सर्वा का पद छोड़ दिया था और सिंधिया और उसके समर्थकों कि कहीं कोई सुनवाई नहीं थी। अब सिंधिया बीजेपी में चले गए तो सवाल है कि उन्हें क्या हासिल होगा? मुख्यमंत्री बनने से तो रहे। बहुत संभव होगा तो उन्हें  केंद्र में एडजस्ट किया जा सकता है। सिंधिया के लिए भाजपा कोई नई जगह नहीं है और भाजपा के लिए सिंधिया की कोई नए नहीं है की दादी मां विजय राजे सिंधिया भाजपा की संस्थापक सदस्यों में रही। दो दो बुआएं सिंधिया वसुंधरा राजे और यशोधरा राजे अभी भाजपा में हैं। 49 साल के ज्योतिरादित्य सिंधिया को मालूम है उनके पास अभी समय है लेकिन वे नहीं चाहेंगे कि पिता की तरह उन्हें भी मध्य प्रदेश की सत्ता हासिल करने का मौका ही नहीं मिले । यही कारण है कि अपने राजनीतिक करियर के सबसे लो पॉइंट पर पहुंचने के बाद भी ज्योतिरादित्य अपने इलाके के लोगों से संपर्क बनाए रखे हैं। कभी इन्वेस्टमेंट बैंकर के तौर पर काम करने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया को यह अच्छी तरह मालूम है कि वह जो आज निवेश कर रहे हैं आने वाले दिनों में उसका बेहतर रिटर्न होगा। उन्हें यह भी मालूम है कि बाजार गिरने पर निवेशक ना तो निवेश बंद करता है और ना ही निवेश को बाहर निकाल लेता है । सिंधिया को अपने समय और अपनी बारी का इंतजार है।
   


Tuesday, March 10, 2020

कोरोना वायरस के बरअक्स रूस अमरीका की राजनीति

कोरोना वायरस के बरअक्स रूस अमरीका की राजनीति 

तेल निर्यातक देशों के संगठन- ओपेक और उनके सहयोगियों के बीच तेल उत्पादन में कटौती को लेकर समझौते पर बहुत दिनों से बातें चल रही थी लेकिन समझौता नहीं हुआ और पूरी दुनिया में तेल की कीमतों में भारी गिरावट देखने को मिल रही है। रूस ने वायरस के प्रभाव से मुकाबले के लिए आपूर्ति में कमी से इंकार कर दिया है। इससे तेल के भाव गिर गए हैं कई देशों में शेयर बाजार भी लुढ़क गए हैं। ओपेक देश इस वायरस के कारण तेल के दाम पर पड़े असर को रोकने के लिए उत्पादन कम करना चाहते हैं। फिलहाल ब्रेंट क्रूड आयल की कीमत 36 डॉलर प्रति बैरल है जबकि अमरीकी जब डब्लू टीआई फ्रिज की कीमत 32 डालर हो गई है। भारतीय रुपए में गिरावट का सिलसिला सोमवार को भी जारी रहा । अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपया 16 पैसे और टूटा और उसकी कीमत 70.03 पर आ गया। घरेलू शेयर बाजार में तेज गिरावट और कोरोना वायरस के चलते आर्थिक मंदी की आशंका के कारण रुपए पर दबाव देखने को मिल रहा है। ओपेक की स्थापना 1960 सऊदी अरब  ,वेनेजुएला,  कुवैत  और इराक ने मिलकर की थी। वर्तमान में 14 देश इस समूह में हैं। ओपेक पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संगठन  अपने सदस्य देशों की पेट्रोलियम नीति का समन्वय  करता है और तेल बाजारों को स्थिर करता है।
         तेल के खेल को अक्सर अंतरराष्ट्रीय राजनीति माना जाता है जो अमेरिका, रूस और सऊदी अरब के बीच चलता रहता है और इससे शीत युद्ध के जमाने की महाशक्तियों के बीच की राजनीति प्रभावित होती है। मौजूदा संकट असल में आपूर्ति का मामला है। चीन दुनिया में तेल का एक बड़ा मार्केट है और कोरोना वायरस के प्रसार के कारण तेल की डिमांड में भारी कमी आई है। यही नहीं इस साल के आखिर में अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव भी होने वाले हैं। ओपेक ने तेल का उत्पादन कम करने का प्रस्ताव दिया है जिससे रूस ने इंकार कर दिया। रूस चाहता है वैश्विक बाजार में तेल की कीमत 50 डॉलर प्रति बैरल से कम बनी रहे। जिससे अमेरिकी तेल बाजार में संकट आ जाए। इससे ट्रंप की लोकप्रियता पर आघात लगेगा और हो सकता है और चुनाव भी हार जाएं। तेल का  दाम कम होने से अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर भी दुष्प्रभाव  पड़ेगा। तेल के इस खेल में दो कारक सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है एक रूम और दूसरा कोरोना वायरस। कोरोना वायरस ने संकट शुरू कर दिया और इसलिए तेल की कीमतें गिर गई हैं। रूस और सऊदी ने तेल के उत्पादन बढ़ा दिए हैं, जबकि उन्हें घटाना चाहिए था। परिणाम यह हुआ कि बाजार में  तेल उपलब्धता बढ़ गई है इसी साल अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव होने वाले हैं। नतीजा यह हुआ है कि रूस चाहता है कि तेल की कीमत गिरने से वहां की अर्थव्यवस्था में कमजोरी आएगी और चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की पराजय हो सकती है। तेल के दामों में कमी होने से रूस पर फर्क नहीं पड़ेगा। जबकि चुनावी साल होने से अमेरिका पर इसका असर होगा। अगले तीन चार महीने संकट चलता रहा तो लाखों लोग बेरोजगार हो जाएंगे जिससे अमेरिकी लोगों में असंतोष बढ़ेगा और चुनाव प्रभावित हो सकता है। अमेरिका ही नहीं है इससे भारत भी प्रभावित होगा। भारत भारत अपनी कुल खपत का 85% तेल का आयात करता है और अगर तीन चार महीने से ज्यादा यह सिलसिला तो भारत के लिए मुश्किल हो सकते हैं पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था में मंदी आ जाती है तो भारत से कैसे बचेगा? एक करोड़ से ज्यादा भारतीय लोग खाड़ी के देशों में नौकरी करते हैं और उन देशों की अर्थव्यवस्था तेलों से ही चलती है। तेल की कीमत गिर जाने से उन देशों में प्रोजेक्ट रुक जाएंगे और बड़ी संख्या में भारतीयों की नौकरी जा सकती है। प्रवासी भारतीयों द्वारा लगभग 65 अरब डॉलर खाड़ी के देशों से आता है। अगर उन देशों की अर्थव्यवस्था गड़बड़ा जाती है तो आयात भी प्रभावित होंगे और भारतीय अर्थव्यवस्था भी उस से अछूती नहीं रहेगी। ऐसी स्थिति में अमेरिका के पास मौजूदा समय में कोई विकल्प नहीं है। अमेरिका अपने मित्र देशों और सऊदी अरब से तेल के उत्पादन को घटाने को कह सकता है और अमेरिका का प्रयास यह होना चाहिए करोना वायरस के हड़कंप को रोके और दुनिया की अर्थव्यवस्था को सुधरने का मौका दे।


Sunday, March 8, 2020

रस और शब्द की सूक्ष्म अभिव्यक्ति है होली

रस और शब्द की सूक्ष्म अभिव्यक्ति है होली 

कल निशीथ काल के बीतते ही कोयल ने कूक भरी, पपीहे ने पुकारा पी कहां और निशा ने बड़ी चुहल बाजी से उषा को रवि की ओर धकेल दिया। उषा का चेहरा सुर्ख हो गया और उस सुर्खी से पूरी फिजां सुर्ख हो गई। 10 घोड़ों के रथ  पर सवार सूरज ने अपने रथ पर रखे रंगो को शैतान लड़की की तरह धरती पर बिखेर दिया। पूरी प्रकृति रंगों से नहा गई। टेसू के लाल फूल और सरसों के पीले फूलों की पतली कमर बल खा उठी और बरबस ही गा उठी
गढ़े कसीदे नेह के हम तो पूरी रात
अब जब हम मिलेंगे तो करनी क्या क्या बात
उधर पलाश, हरसिंगार ,अमलतास और अशोक के फूलों से पूरी प्रकृति पुलकित हो गई। क्षितिज पर धरती और आकाश आलिंगन में बद्ध दिखने लगी। हेमंत के पियराय पत्ते झर गए और यह वसंत  प्रकृति ने परिधान धारण कर लिया। गांव की गलियों से कंक्रीट के जंगलों तक होली का उमंग का असर दिखाई पड़ने लगा। प्रकृति ने सबकी आंखों में बसंत का अंजन आंज दिया।  दशमी के अगरु, धूप, चंदन से चर्चित दिन अचानक फूलों से लदे दिवस में बदल गया। शायद ऐसे ही किसी दिन विदुर के घर कृष्ण आए थे और दरवाजे पर उनकी आवाज सुनकर विदुर की पत्नी आनंद विभोर होकर स्नानागार से निर्वस्त्र बाहर आ गई थी। लेकिन, कृष्ण को विदुर पत्नी का प्रेम दिखा उसके वस्त्र नहीं ,उसकी देह नहीं। ऐसी सूक्ष्म दृष्टि हम कहां से लाएं। यह संवेदनशीलता हमारे भीतर अगर आ जाए तो हमारा हर पल होली संपूर्ण जीवन एक उत्सव बन जाए।
       होली का पर्व हमें बताता है कि मानव समुदाय को प्रकृति के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए और कम से कम एक दिन उस कृतज्ञता के भाव में ओत प्रोत हो जाना चाहिए। संपूर्ण मानव समुदाय की अंतिम इकाई मनुष्य में इमानदारी और स्वाभिमान कायम रहेगा। हमारे ऋषि बिम्बों से कहानियां रचते थे। होलिका दहन की कहानी ऐसी ही है। होली के एक दिन पहले हम अपने भीतर की  वासना का दहन कर दें और प्रहलाद की भांति निष्ठा को बचा लें तो जीवन सुखमय हो जाएगा। होली से कहानी और जुड़ी है। वह है कामदेव का शिव की समाधि को भंग करने का प्रयास और शिव ने अपने तीसरे नेत्र से उसे जलाकर भस्म कर दिया, तो वहां मौजूद प्रकृति के नटखट पुत्र वसंत के लिए वरदान हो गई। अधोगत काम हम से अनर्थ करवाता है लेकिन जब काम उन्नयन की संस्कृति बन जाता है राधा और कृष्ण का स्वरूप हो जाता है और कालिदास टैगोर तथा गेटे  जैसे वरदान देता है। होली के रंग में शराब और और अबीर गुलाल से लगा मन जब उल्लास के पंखों पर होता है तो हर पोर ऐसे आनंद में बदल जाता है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता और तब होली अपनी पूरी मादकता के साथ लहराती है। होली हमारे देश में शास्त्रीय मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाले सहजानंद की अभिव्यक्ति है और यही कारण है कि आज बेशक जीवन के अर्थ बदल गए हैं। होली भारतीय दर्शन में प्रेम और आनंद की अभिव्यक्ति है और संदेश है कि प्रेम के बिना जीवन व्यर्थ है। प्रेम और आनंद केवल शरीर का सुख नहीं है। यह आत्मा का भी श्रृंगार है। राधा और कृष्ण युगल होकर भी असंतृप्त है और तब भी एक आत्मा। यही कारण है कि आधुनिकता के युग में भी जीवन का सत्य कायम है। होली की ठिठोली कायम है। होली का आनंद हमारे भीतर अब भी रोमांच पैदा करता है और बसंत पूरी मादकता के साथ लगता है।


Friday, March 6, 2020

दिल्ली के दंगे और हमारा भारत

दिल्ली के दंगे और हमारा भारत

कई दिनों से दिल्ली के दंगों पर बहस चल रही है और इसमें इसके विभिन्न पक्षों का विश्लेषण किया जा रहा है। दंगों का ऐतिहासिक पक्ष बहस का एक मसला है। क्योंकि, इतिहास ही इंसानी विचार में अवचेतन का निर्माण करता है।  उस अवचेतन से ही हमारी चेतना और हमारी क्रिया शैली संचालित होती है। सबसे पहली बात है इन दंगों का ऐतिहासिक उत्स क्या है? क्या भारत में यह हाल की बात है? जिन्हें हम कह सकते हैं कि अंग्रेजों ने हवा दिया था बांटो और राज करो के माध्यम से या फिर इसकी जड़े 12 वीं सदी में भारत के इतिहास के उस हिस्से से जुड़ी हैं, जिसमें मोहम्मद गोरी और पृथ्वीराज चौहान की युद्ध की बात है। हाल के दिल्ली के दंगों ने इस बहस को फिर से हवा दे दी है। अगर दंगे के समाज विज्ञान का विश्लेषण करें एक  बात स्पष्ट सामने आएगी कि अब मोर्चे खुल गए हैं। कई उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष और वामपंथी भारतीय इस बात पर जोर देते हुए कहते हैं कि ब्रिटिश राज के पहले भारत की एक सामंजस्य पूर्ण संस्कृति थी। जबकि कुछ लोग इसे अपने "टी एन टी"( टू नेशन थ्योरी) यानी दो राष्ट्र सिद्धांत के हवाले से कहते हैं कि सांप्रदायिकता हमेशा से भारतीय इतिहास की विशेषता रही है। भारत हिंदू राष्ट्र रहा है।
       हाल में सांप्रदायिकता का जो स्वरूप देखने को मिला वह बेशक एक हालिया घटना थी। लेकिन, इसका मतलब यह नहीं है कि भारत में अतीत में सांप्रदायिक संघर्ष नहीं होते थे। जिस तरह भारतीय इतिहास में हिंदू और मुस्लिम शासकों द्वारा एक दूसरे की धार्मिक परंपराओं के संरक्षण के और आम लोगों की मिश्रित हिंदू मुस्लिम पहचान के असंख्य उदाहरण हैं। अकबर से लेकर फर्रुखसियर तक कई शासकों ने गौ हत्या पर रोक लगाई। मस्जिदों और मंदिरों को नष्ट किए जाने तथा होली या मोहर्रम के दिन सड़कों पर जुलूस निकालने के लिए कई स्थानीय झगड़े हुए , लेकिन इन विवादों ने कभी सांप्रदायिकता का रूप नहीं लिया।
    अंग्रेज भारत आए तब भी मुगल शासन का दौर चलता रहा। अंग्रेजों ने अपनी निरंकुशता और जातियों को कानून के शासन का जामा पहनाया। ब्रिटिश और भारतीय राष्ट्रवादी  लोगों ने ही मध्ययुग के भारत को अंधेरे युग के रूप में चित्रित किया। वे भूल गए की ईरानी अरबी प्रभाव के बिना हिंदुस्तानी संगीत उर्दू ग़ज़लें नहीं होती।
     लेकिन यह सब बदल गया। सबसे पहले उपनिवेशवाद भारत में सभ्यताओं के टकराव की अवधारणा लेकर आया। सैमुअल हंटिंगटन की पुस्तक के बहुत पहले यूरोप का हिस्सा इतिहास और यूरोप के लोग धर्म युद्ध के समय से लेकर 18 वीं सदी और उसके बाद इस्लाम के खिलाफ सक्रिय रहे थे जब ताकतवर ऑटोमन साम्राज्य  के दरवाजे पर दस्तक हुई और जब ब्रिटिश भारत आए तो वह उस पूर्वाग्रह को नहीं छोड़ पाए । बल्कि उन्होंने इसे एक राजनीतिक हथियार के रूप में उपयोग करना शुरू कर दिया।   यहीं नहीं जनगणना के लिए तय प्रावधानों की भी इसमें भूमिका थी। लोगों को खुद को हिंदू या मुसलमान के रूप में चित्रित करने को कहा गया। अब ऐसे में मिश्रित पहचान बनाए रखना संभव नहीं था। धीरे धीरे यह पहचान बनती है और पहचान पक्की होती गई और फिर परस्पर विरोधी बनती गई । हर बार जनगणना में दोनों पक्षों के कट्टरपंथी जमात  लोगों से सही धर्म का उल्लेख करने के लिए हंगामा करते हैं। बात यहीं तक खत्म हो जाती तो कोई बात नहीं थी 1870 के बाद स्थानीय निकायों के चुनाव आरंभ हुए।  जनगणना आधारित जनसांख्यिकी और संख्याओं पर आधारित राजनीतिक शासन के संयोजन भारत में सामुदायिक पहचान बनने से बढ़िया राजनीतिक शासन का संयोजन बना और इसकी दशा बदल गई। यह लोकतंत्र के विपरीत चला गया। जैसा कि आज हम देख रहे हैं। यह संख्या आधारित बहुसंख्यक वाद ने अपने अलग मुहावरे भी गढ़ लिए । महिलाओं को शत्रु समुदाय में जाकर उनकी जनसांख्यिकी ताकत को बढ़ाने में योगदान से रोकने के लिए हिंदुत्व समर्थकों का लव जिहाद से लड़ना भी इसी का उदाहरण है।
    ईसाई धर्म, इस्लाम और बौद्ध धर्म जैसे धर्मों के अतीत और वर्तमान दोनों से यह स्पष्ट है कि लोगों की पैदाइश और उनके निवास के भौगोलिक नक्शों में कभी पूर्ण साम्य  नहीं रहा। हमेशा ही अपने भीतर कई राष्ट्र भाषा और राजनीतिक  संस्कृतियों को समेटे रखा। आंतरिक बहुत ही धार्मिक विचारों की जीवनदायिनी है। क्योंकि यह आंतरिक आलोचनाओं और टकराव से ही विकसित होती है। धर्म समय के प्रभाव से भी विकसित होता है जैसा कि सूफी और भक्ति परंपराओं के आपसी संवर्धन के इतिहास से साबित होता है। धर्म को राष्ट्र तक और राष्ट्र को धर्म तक सीमित किए जाने से न सिर्फ राष्ट्रों को ही गरीब और कमजोर किया जा सकता है बल्कि समाज को भी अशक्त किया जा सकता है।यह दिल्ली के दंगों से साबित हुआ है।  इसे ही रोकने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने "सबका साथ सबका विकास" का नारा दिया। लेकिन राजनीति की भीतरी धाराओं ने इसे नजरअंदाज करने के लिए और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह बताने के लिए कि उनकी विचारधारा सही नहीं है ऐसे दंगों और विरोधियों की सृष्टि की । गौर करें यह दंगे सी ए ए के विरोध की नींव पर खड़े थे । सीएए का विरोध कितना सही कितना गलत है यह बताने की आवश्यकता नहीं है।


Thursday, March 5, 2020

नफरत भरी बातें और बातों से नफरत

नफरत भरी बातें और बातों से नफरत 

सोशल मीडिया के व्यापक प्रसार इस जमाने में हर इंसान सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों जानकार खुद को समझता है और उसकी जानकारियों का आधार सोशल मीडिया है। यह विभिन्न प्लेटफार्म पर लगाए गए पोस्ट्स के संदर्भ होते हैं। जो लोग पोस्ट लगाते हैं उनका उद्देश्य सही जानकारी देना नहीं होता वह अपनी पसंद के मुताबिक स्थितियों को तोड़ मरोड़ कर पेश करते हैं तथा बाकी लोग सिर्फ उसे आगे बढ़ाते हैं। इन बातों से नफरत फैलती है। यह मनोवृति नफरत भरी बातें पर किसी भी प्रकार की सार्थक चर्चा से रोक देती है। इसमें जो सबसे महत्वपूर्ण है वह है कि ऐसा समाज नफरत भरी बातें और खतरनाक बातों के अंतर को मिटा देता है। यह मिटाना जाने समझे तौर पर होता है और वह उनकी अपनी मनोवृति के मुताबिक होता है। अभी कुछ दिन पहले दिल्ली में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव को ही देखिए उसमें कई स्तरों पर जहर  बुझी बातें हुईं जो आगे चलकर चुनावी भाषणों में बदल गयीं। यह भाषण  केवल अपमानजनक थे। बल्कि इनमें सौजन्यता की भारी कमी थी। अगर इन भाषणों का सही-सही विश्लेषण किया जाता तो इन नेताओं को चुनाव लड़ना तो क्या सड़क पर घूमने तक नहीं दिया जाता। उन्हें पुलिस जेल में डाल सकती थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। दिल्ली पुलिस आश्चर्यजनक तौर पर लापरवाह रही और उसने केवल बोलने की आजादी या कहें अभिव्यक्ति की आजादी का पर्दा आंखों के सामने लगा लिया। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। भारत के पुलिस अधिकारी अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर ऐसा कई बार कर चुके हैं। हैरत तो तब होती है जब ऐसे नेता भाजपा के नेताओं पर इस किस्म के आरोप लगाते हैं और सोशल मीडिया पर सरकार की आलोचना करते हैं। यकीनन इन आलोचनाओं में कोई दम नहीं होता। अब जैसे कल की ही बात है। मोदी जी ने 8 मार्च को सभी सोशल मीडिया से खुद को अलग करने एलान किया। चाहे कारण जो हो उसे बताया जा रहा है कि चूंकि वह महिला दिवस है और लड़कियां मोदी जी को तंग ना करें इसलिए उन्होंने ऐसा किया है। जहां "लड़कियों" नामक शब्द पर विशेष जोर है और इशारा कुछ दूसरा है। वह दूसरा इशारा आप आसानी से समझ सकते हैं। ऐसे ही कोई और बातें होती हैं और इन बातों से भारतीय लोकतंत्र को खतरा हो जाता है। इतना ही नहीं लोगों को भड़काया जाता है वह इस तरह के नारे लगाए जिसमें देश के प्रति जिम्मेदारी या देशभक्ति ना हो
            भारतीय कानून जो बोलने पर पाबंदियां लगाते हैं वे सौहार्द को भी भंग करते हैं। राजनीतिज्ञों के खिलाफ शायद ही मुकदमे दर्ज किए जाते हैं। देश में राजनीतिक विचार विमर्श आरंभिक दिनों से ही  बहुत लंबा है। कोई भी नेता इससे बचा नहीं है। कोई यह जानने के लिए तैयार नहीं है कि नफरत फैलाने वाली बातों और खतरनाक बातों में क्या फर्क है? खतरनाक बातों का स्पष्ट मतलब है कि श्रोताओं को हिंसा के लिए भड़काया जाए और नफरत फैलाने वाली बातें तात्कालिक प्रतिक्रिया विशेषत तौर पर हिंसक प्रतिक्रिया जाहिर करने के लिए उकसाती है । यह ज्यादा खतरनाक है और यही कारण है कि लोकतंत्र में इसके खिलाफ कानून है। खतरनाक बातों का मुकाबला चुनौती भरा होता है क्योंकि, इसमें वरिष्ठ राजनीतिज्ञ शामिल होते हैं। अगर सरकार इस पर कार्रवाई नहीं करती है या कर पाने में सक्षम नहीं होती है तो इसका अर्थ है उसे मालूम है कि इसका स्रोत कहां है। कौन लोग इसमें शामिल हैं। अभी जैसे दिल्ली में दंगे हुए। उन दंगों को भड़काने में जो लोग शामिल थे सरकार इसके बारे में जानकारी है लेकिन इक्का-दुक्का लोगों को छोड़कर किसी पर कोई कार्यवाही होती नहीं दिख रही है। हालांकि और उसने जो हानि पहुंचाई है उसका कोई आकलन करना बड़ा कठिन है।
         इस तरह की बातें केवल स्थानीय स्तर पर होती है।  सोशल मीडिया के दौर में यह भावना पूरे देश में पाई जाती है। अफवाहों की भरमार और नफरत भरी बातें सांप्रदायिक हिंसा को जन्म देती है और इसका प्रसार तुरंत होने लगता है। इसने सांप्रदायिक संघर्ष और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण यह बीच की दूरी को कम कर दिया है। सांप्रदायिक संघर्ष कुछ ही देर में राष्ट्रीय मसला बन जाता है और स्थानीय घटनाओं के जरिए एक बड़ा सांप्रदायिक कथानक तैयार हो जाता है। कुछ लोग अक्सर फेक न्यूज़ और सांप्रदायिक संघर्ष की बातों को फैलाने में सोशल मीडिया की भूमिका का विश्लेषण में  हम बहुत कम ही इस पर विपरीत सवाल करते हैं कि किसी स्थानीय सांप्रदायिक घटना के बाद सोशल मीडिया की भूमिका क्या है। सांप्रदायिक हिंसा कब और कैसे होती है। इसे सोशल मीडिया ने पूरी तरह बदल दिया है। इसके सिद्धांतों में भारी परिवर्तन हो गया है राजनीतिक विश्लेषक सांप्रदायिक घटनाओं के लिए सबको जिम्मेदार बताते हैं ताकि हुए खुद को सही साबित कर सकें लेकिन हकीकत यह है की एक समूह ज्यादा हिंसा करता है राष्ट्रीय स्तर पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण अब स्थानीय सांप्रदायिक घटनाओं को एक साथ पैदा करने को प्रेरित करता है। ताकि स्थानीय कारकों की भूमिका कम हो सके। जैसा कि दिल्ली के दंगों में दिखाई पड़ रहा है हम भारत के पुराने सांप्रदायिक तनाव की नई वास्तविकता का सामना करने के लिए मजबूर हैं। लेकिन हम इस बात से गुरेज करते हैं कि नफरत भरी बातें और जिन बातों से नफरत पैदा होती है  उस में क्या फर्क है जब तक इसका फर्क नहीं जाना जाएगा तब तक ऐसी मनोवृतियों   पर लगाम नहीं लगाई जा सकती।