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Thursday, May 31, 2018

चुनाव महज  नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के बीच नहीं 

चुनाव महज  नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के बीच नहीं 

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से जब  पूछा गया कि क्या  कांग्रेस-मुक्त भारत के  मोदी के आह्वान के जवाब के रूप में वह  "आरएसएस-मुक्त-भारत" चाहते हैं, तो उनहोंने नकारात्मक  जवाब दिया।

जिन्होंने गांधी के भाषणों और राजनीतिक प्रदर्शनों को देखा है, वे आश्चर्यचकित नहीं होंगे। क्रोध, हिंसा और घृणा के इस युग में, जब गांधी "प्रेम की राजनीति" की बात करते हैं तो गांधी एक "शांत उपहास" की तरह दिखते हैं। अनिवार्य रूप से सुलह, संवाद, सहिष्णुता और आपसी सम्मान जब बढ़ते आपसी द्वेष  और अस्पष्ट नफरत के रूप में सामाजिक  विभाजन को बढ़ाती हैं, तो गांधी की प्रेम की राजनीति  अपमानजनक रूप से पीड़ादायी दिखती है। क्रोध, हिंसा और घृणा के इस दौर में, गांधी 'प्यार की राजनीति' की बात करते हैं, लोग इसे ढोंग कह रहे हैं।  ऐसी बातें  टीवी चैनलों के लिए प्राइम-टाइम खबर  नहीं बनाती है। सच्चाई तो यह है कि हम मुख्यधारा की मीडिया की कर्कश आलोचनाओं द्वारा खुद को बेवकूफ बना रहे हैं। पागलपन पर दयालुता, नफरत पर करुणा पसंद करना मानव स्वभाव  है। समाज इन आधारभूत मूल्यों पर आधारित हैं, जहां वैकल्पिक दृष्टिकोण के लिए जगह है और विरोधाभासी आवाजों को बहुसंख्यक शक्ति का उपयोग करके दबाया नहीं जाता है। भारत एक "भरोसेमंद दुखी" देश है,जो चुनाव की तैयारी की चमकती धूप में  ज्यादा सुस्त दिख रहा है। देश के नेताओं को इसके लिये बहुत कुछ करना होगा। कॉर्पोरेट दुनिया में यह लगभग सर्वसम्मति है कि एक कंपनी अपने " लीडर " के व्यक्तित्व के आयामों को समझती है।  जोखिम लेने वाले, असाधारण महत्वाकांक्षी, प्रगतिशील नेता के पास एक अभिनव कार्य संस्कृति, नए उत्पादों -बाजारों की भूख होगी। ऐप्पल पर एक नज़र डालें,  आप क्या देखते हैं? एक  नजर आपको बताएगी कि स्टीव जॉब्स की उत्साही प्रतिभा अभी भी अपने मुख्यालय, बिक्री कक्ष और  तकनीक-उत्पादों में चमकती है। सीईओ के रूप में एक शानदार  उत्तराधिकारी टिम कुक ने अपने लोगों के सामने अपनी यौन वरीयता व्यक्त की, जो कि अपने कर्मचारियों से मेलजोल  और खुलेपन को दर्शाती है। ऐसे कई उदाहरण हैं जो व्यापारिक नेताओं के अपने संगठनों को अपने गतिशील नियंत्रित उद्यमितावाद के माध्यम से भारी तरक्की दिलाने के उदाहरण हैं। देश उससे अलग नहीं है। राष्ट्र अक्सर चुने गए नेताओं की तरह बन जाते हैं। इन दिनों देश की राजनीति में   विचारधाराओं का युद्ध चल रहा है और हमारे नेता  उसका प्रतिनिधित्व करते हैं।

एडॉल्फ हिटलर का जर्मनी,   एर्डोगन का तुर्की ,  व्लादिमीर पुतिन का रूस,  मार्गरेट थैचर का ब्रिटेन , रिचर्ड निक्सन का अमरीका इत्यादि   अपने नेता के चरित्र को दूसरी प्रकृति के रूप में प्रतिबिंबित करते हैं। अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी दोनों में एक असाधारण समानता है - वे अनिवार्य रूप से अधिनायकवादी हैं। अपनी छवि प्रबंधन के परिणामों को देखते रहने का उन्हें जनून है। दोनों आप्रवासियों और अल्पसंख्यकों के प्रति संदिग्ध रहते हैं  और धार्मिक कट्टरता तथा बहुसंख्यक सर्वोच्चता का स्पष्ट रूप से समर्थन करते हैं। उन्होंने जनोत्तेजक नेतृत्व का अभ्यास किया  है। ट्रम्प और मोदी दोनों ने स्वतंत्र  प्रेस के प्रति व्यापक अवमानना ​​प्रदर्शित की है। ट्रम्प ने उन्हें नकली खबरों का पुलंदा कहा है तो  मोदी ने अब तक एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं किया है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। फिर भी, देश में भय , असुरक्षा, कारपोरेट वर्चस्व जैसे हालात को ट्रम्प और मोदी ने ही पैदा किया है। अमरीका और भारत दोनों ने इन विशिष्ट अभिव्यक्तियों को विनियमित किया है। माइकल वोल्फ की पुस्तक "फायर एंड फ्यूरी" के अनुसार "व्हाइट हाउस में विचित्र दुनिया है जहां राजनीतिक  अश्लीलता परेशान करने वाली दिखती है।" भारत में, कोई प्रकाशक सर्वशक्तिमान शासक की  बेदखल करने की साजिश के सिद्धांतों  का पर्दाफाश करने की हिम्मत नहीं करेगा। पत्रकारों को वर्तमान सरकार पर सवाल उठाने के नियमित लेखों के लिए बलात्कार और मौत की धमकी मिली है। लेकिन सत्ता के मंडपों में बिल्कुल चुप्पी है। दोनों नेता अपनी भुजाएं चमका रहे हैं  और अतिराष्ट्रवादी राग पूरी शक्ति से अलाप रहे हैं। भारत में अल्पसंख्यक झुकाव एक  खेल बन गया है। उधर,  अमरीका में नस्लवाद में  वापसी हुई है। ट्रम्प और मोदी आवधिक दिखाऊ आश्वासन प्रदान करते हैं। यह एक चतुर बकवास  है। लेकिन वे अपने कट्टरपंथी अनुयायियों के बीच बेहद लोकप्रिय  हैं। ट्रम्प और मोदी ने इस हथकंडे  को अपनी मूल राजनीतिक रणनीति बना ली है। जबकि शुद्धतावादियों ने उनकी रणनीति को बकवास कहा है।  नेता ने अपने  भक्तों, जो विकृत झूठ को सोशल मीडिया समूहों और व्हाट्सएप के आगे भेजते हैं, को शाबाशी देते रहते हैं। यह आश्चर्य की बात है कि अमरीका और भारत दोनों फेसबुक जैसे प्लेटफार्मों का उपयोग करके अफवाहों और लक्षित दुर्व्यवहार से जूझ रहे हैं। इसलिए, राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी उन लोगों के बीच नहीं हैं जो मुख्यधारा के मीडिया के बीच में हैं। राहुल गांधी का भारत सहिष्णु, लोकतांत्रिक, उदार, प्रगतिशील, समावेशी, धर्मनिरपेक्ष और सर्वसमावेशी है। यह भारत का सबसे महत्वपूर्ण विचार है जिसके लिए महात्मा गांधी ने 70 साल पहले   गोली खायी  थी। यह युद्ध अंततः दो विचारधाराओं, दो विपरीत विषयों, प्रेम की राजनीति और  नफरत के तंत्रों के बीच है। 2019 में, भारत को नफरत और प्रेम के बीच चुनाव करना है। ।

Wednesday, May 30, 2018

500 में 499 ! हे भगवान !!

500 में 499 ! हे भगवान !!

एक जमाना था जब हायर सेकेंडरी या माध्यमिक की परीक्षाओं में 60 या 65 प्रतिशत अंक वाले वाले छात्र की चर्चा होती थी , प्रशंसा होती थी। 60 या 70 के दशक में मेडिकल या इंजीनियरिंग में इतने अंक लाने वालों के सीधा नामांकन हो जाते थे। वे बच्चे कोर्स के अलावा अंग्रेजी या हिंदी की क्लासिक इतना पड़ जाते थे कि आज के एम ए पास छात्रों को भी उतने मालूमात ना होते। यकीन नहीं होगा यह सुन कर कि यहां के एक विख्यात विश्वविद्यालय से हिंदी में एम ए पास एक कन्या से पूछा गया कि गालिब कौन था? तो उसने दिमाग पर बहुत जोर दे कर कहा कि एक पोलिटिकल लीडर था। आज वह कन्या मीडिया में रिपोर्टर है। यहां कहने का अर्थ यह है कि इन दिनों स्कूल और कॉलेज कारखाने बन गये हैं भारी- भारी अंकपत्रों के साथ नौजवान मैन्युफैक्चर करने के। इन दिनो सुबह एक अजीब नजारा दिखता है छोटे छोटे बच्चे अपने वजन के बराबर किताबों का वजन उठाये स्कूल जा रहे हैं। उनके पीछे दौड़ते से चल रहे हैं उनके मां- बाप। 

इसलिए, जब सीबीएसई कक्षा 12 बोर्ड परीक्षाओं में एक लड़की को 499/500 मिलते हैं, तो खुशी नहीं हैरत होती है। बेशक यह एक बड़ी उपल​ब्धि है। कोई इस बात को काट नहीं सकता। जिस छात्रा को ये नम्बर आये हैं उसकी प्रतिभा और परिश्रम की प्रशंसा किये बिना नहीं रहा जा सकता। परंतु, यदि भारतीय संदर्भ में इस ​िस्थति की व्याख्या करें तो लगता है कि ऐसे छात्र पूरे साल या सम्पूर्ण छात्र जीवन हाइबरनेशन में चले जाते हैं और रिजल्ट के बाद ही उस हाईबरनेशन से निकलते हैं। सोचिये, इस पूरे सिस्टम में बच्चे से ज्यादा महत्वपूर्ण उसे मिलने वाले नम्बर हैं। एक बच्चे की एग्जाम को लेकर आतंकित मां- बाप भी सामान्य जीवन नहीं बिता पाते। ऐसा लगता है कि उनकी भी परीक्षा है। वही नहीं उनके पड़ोसियो तथा रिश्तेदारों के लिये भी नम्बर ही प्रमुख है। इसके अलावा जहां तक नम्ब्ग्रगें का सवाल है इसमें एक महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि एक छात्र नागरिक शास्त्र या ह्यूमैनिटीज या अंग्रेजी लिटरेचर में सौ में सौ कैसे ला सकता है जबकि इन दोनों विषयों में कल्पना और विश्लेषण की असीम संभावनाएं हैं। बाइबिल के उस प्रसंग की तरह " ऐज द लॉर्ड एप्रोच्ड द सी " की तरह। जिसकी असंख्य व्याख्याओं में से एक व्याख्या थी " शी बीकैम ब्लशड।" यह व्याख्या 12 साल के एक बच्चे ने की थी जो आगे जा कर महाकवि बायरन बना। यहां कहने का अर्थ है कि एक छात्र अंग्रेजी में 99 या मनोविज्ञान में 100 कैसे ला सकता है। क्योंकि इन विषयों में कल्पना और रचनात्मकता के लिए एक अनंत गुंजाइश है। यह एक व्यक्ति को बताने के लिए है कि आपने जो लिखा है वह परम है। रचनात्मक लेखन को इतनी हद तक कैसे प्रमाणित किया जा सकता है कि कोई भी इसे बेहतर नहीं कर सकता? एक विषय के रूप में भाषाएं कैनवास की तरह हैं, वे निर्बाध हैं और उनकी कोई सीमा नहीं होनी चाहिए। यहां इसके बजाय हमारे पास एक दूसरे के पीछे एक एक नम्बर से  पीछा करने वाले छात्र हैं, सात बच्चे  देश भर में तीसरे स्थान पर आने के लिए 497 अंकों के साथ छटपटा रहे  हैं। इस साल सीबीएसई बोर्डों की कक्षा 12 में लगभग 12,000 छात्र 95 प्रतिशत से ऊपर रहे हैं, इसके  प्रभावों को कल्पना करना भी मुश्किल है। 

पिछले साल दिल्ली विश्वविद्यालय में नामांकन के लिये "कट ऑफ"  99.6 प्रतिशत था। यानी 90 प्रतिशत से ऊपर नम्बर वाले छात्रों के लिये भी कॉलेज में प्रवेश मिलने की कोई गारंटी नहीं है। जो नम्बर 70 या 80 के दशक में ॣाोल्डेन माने जाते थे आज वे फकत औसत हैं और किसी काम के नही हैं। 

यह एक ऐसी शिक्षा प्रणाली है जहां नम्बर तर्क के किसी भी स्तर से  आगे बढ़ गए हैं? यह अंकन प्रणाली अनगिनत अन्य बच्चों को कहां छोड़ती है जिन्होंने "अच्छी तरह" से स्कोर नहीं किया? अंक अर्जित करने को इतना महत्व देकर और टॉपर्स हम अपने बच्चों को बहुत कम उम्र में विजेताओं और हारने वालों में विभाजित नहीं कर रहे हैं, इसके बजाय हमें सभी को बराबर के रूप में प्रोत्साहित करना चाहिए?

हमारे छात्रों के बीच अवसाद और चिंता एक बढ़ती वास्तविकता है और ये मुद्दे  एक अक्षम स्कोरिंग सिस्टम के साथ बोझ बन रहे हैं। पढ़ाई  के  दबाव के कारण खुदकुशी करने वाले छात्रों के आंकड़े हम सी देखते हैं पर पर कुछ करते नहीं। मनोचिकित्सकों की चेतावनियां हम नहीं सुनते। वे बार बार कहते हैं कि परीक्षा का भय हमारे बच्चों में एक खतरनाक बीमारी के रूप में बढ़ता जा रहा है। पिछली ही साल का वाकया है कि एक बच्चे की कॉपी का जब पुर्नमूल्यांकन हुआ तो उसका स्कोर 68 अंकों से उस विशेष विषय में 84 हो गया  और माता पिता समझ नहीं पाए थे कि स्कोरिंग में इतना बड़ा अंतर कैसा हुआ था। ऐसी ​िस्थतियों भाग्य को प्रोत्साहित करती है। एक अन्य छात्र ने पांच के प्रश्न  अनुत्तरित  छोड़ दिये थे  फिर भी इस विषय में उसे 99 प्रतिशत मिले। हम 12 वीं कक्षा के नतीजे को सबसे बड़ी उपलब्धि क्यों मानते हैं? हम में से कितने पिछले टॉपर्स को याद करते हैं या उस मामले के लिए जब आखिरी बार किसी ने आपको अपने रसायन शास्त्र के बारे में पूछा था? दुनिया बदल गई है, इंजीनियरिंगया मेडिकल  ही एकमात्र पेशा नहीं है, लेकिन हम भारतीयों का तर्क है  कि चांद पर जो पहला आदमी गया था उसका नाम सब जानते हैं दूससरे को कोई याद नहीं करता। यानी, अंत में केवल आपके अंक मदद करते हैं। शायद वे करते हैं, लेकिन किस कीमत पर? हमारे बच्चे सभी प्रतिभाशाली हैं, बस एक ही क्षेत्र में नहीं। हमें कब पता चलेगा कि संगीत या नृत्य में उत्कृष्टता एक बड़ी उपलब्धि है और इसके लिए भौतिकी में 100 प्रतिशत वास्तव में जरूरी नहीं है? हमे सदा यह याद रखना चाहिये ​कि एक बच्चा अंकों के स्कोर से हमेशा अधिक महत्वपूर्ण होता है। जिस बच्चे ने इस साल 500 में से 499 अंक पाये हैं उससे पूछें कि वह आखिरी बार कब बारिश में भीगा था, पक्षियों का कलरव सुना था शायद उसे याद नहीं होगा। नम्बरों की इस भूल भुलै्यया में ना जाने कितने बचपन भटक गये। 

Tuesday, May 29, 2018

कश्मीर में नयी रणनीति की ज़रुरत

कश्मीर में नयी रणनीति की ज़रुरत

विदेश मंत्री सुषमा स्वराज मैं सोमवार को  कहा  कि पाकिस्तान से   बातचीत कब होगी जब वह आतंकवाद  बंद करेगा शांति वार्ता और आतंकवाद दोनों साथ साथ नहीं  चल सकते स्वराज ने कहा पाकिस्तान जब तक आतंकवाद बंद नहीं करेगा या उसका साथ नहीं छोड़ेगा तब तक वार्ता नहीं होगी।उन्होंने  कहा कि  बातचीत के लिए “ हम हमेशा तैयार हैं  लेकिन आतंकवाद और बातचीत साथ साथ नहीं चल सकते, जब सीमा पर जनाजे उठते हों तो  वार्ता की आवाज अच्छी नहीं लगती। उधर, भारत की  प्रमुख खुफिया एजेंसी रॉ  के पूर्व प्रमुख   ए एस दुलत ने कहा है कि “ शांति वार्ता के बगैर कश्मीर समस्या का हल हो ही नहीं सकता।”  दूसरी तरफ, कश्मीर में हर सफल मुठभेड़ के बाद आतंकवाद में नए नौजवान जुड़ते जा रहे हैं और आतंकवाद को काबू करने के लिए तैनात सुरक्षा एजेंसी इस पहेली में उलझ कर रह जा रहे हैं। एक तरफ, जहां सरकार वार्ता की बात कर रही है दूसरी तरफ कश्मीर में सुरक्षा बल दो परस्पर विरोधी  हालात से जूझ रहे हैं। जिस तरह हर क्रिया के विपरीत और बराबर प्रतिक्रिया होती है उसी तरह सुरक्षा बल द्वारा हर रोज  उपद्रवियों को मारे जाने के बाद रक्तबीज की तरह और नौजवान आतंकवाद में शामिल हो जा रहे हैं। अभी हाल में दक्षिण कश्मीर के लोगों की एक बड़ी भीड़  सुरक्षा बल पर लगातार पथराव कर  रही थी मजबूर होकर सुरक्षाबलों को समझदारी भरा फैसला लेना पड़ा। सुरक्षा बल के जवानों ने फायरिंग की।  इसमें तीन नागरिक और एक आतंकी मारा गया। पथराव करने वाली  भीड़  की मंशा थी कि  ऐसे हालात पैदा कर दिए जाएँ  कि आतंकी सुरक्षा बलों का घेरा तोड़कर फरार हो जाएँ । इसके बाद विरोध और उग्र होता गया तथा मजबूरन सुरक्षाबलों को अपना ऑपरेशन स्थगित करनापड़ा। उस समय हालात और भी ख़राब हो गए जब स्थानीय लोगों का और भी बड़ा हुजूम वहाँ जमा होकर जश्न मनाने लगा। इसके बाद एक वीडियो वाइरल हुआ जिसमें यह दिखाया गया कि आतंकवादियों की रक्षा के

लिए लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा और आतंकवादी मोटर साइकिल पर सवार होकर निकल भागे। उस विडियो में यह बताने की कोशिश की गयी है कि सुरक्षा बल के जवान झुक गए। जबकि हकीकत यह थी कि अगर कार्रवाई की जाती तो सैकड़ो लोग मारे जाते।

    यहाँ यह कहना बेमानी होगा कि मुठभेड़ या हिंसक प्रदर्शन के दौरान सुरक्षा बलों की कार्रवाई में होने वाली हर मौत के बाद प्रदर्शन में और लोग जुड़ जाते हैं तथा प्रदर्शन और उग्र हो उठता है। यह एक सिलसिला सा बन गया है। लगातार प्रदर्शन और उसके बाद मौतें। हर बार किसी की मौत होती है और पुलिस स्टैण्डर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर के तहत उस इलाके में नागरिकों की आवाजाही पर रोक लगा देती है और उस इलाके में इंटरनेट ब्लॉक कर देती है। इससे गुस्सा और भड़क उठता है। 2018 में बमुश्किल पञ्च महीने गुजरे हैं और 56 नए नौजवानों के आतंकवाद में शामिल होने की खबरें भी परेशान करने वाली हैं क्योंकि इस बीच बड़े पैमाने पर नौजवानों ने हथियार डाले हैं, इसके बावजूद ऐसा हो रहा है। पिछले साल भी ऐसा ही हो रहा था। जितने मारे जाते उससे ज्यादा नए बन जाते। कश्मीर आई बी की रिपोर्ट के मुताबिक़ बड़े पैमाने में निकाले गए जनाजे उस मौत को रोमानी बना देते हैं और उसी रूमानियत के जाल में फँस कर नौजवान आतंकी बन जाते हैं। गुजरते महीने के साथ हालात और बिगड़ते जा रहे हैं।

    ऐसे में निर्वाचित प्रतिनिधिओं का कर्तव्य है कि वे युवाओं के बीच जाएँ और उन्हें आतंकवाद से अलग होने के लिए समझाएं पर उन्होंने यह हिम्मत नहीं दिखाई। वास्तव में , कोई  भी राजनीतिक पार्टी वहाँ आतंकवाद का विरोध नहीं करती उलटे राजनीतिक नेता कई अवसरों पर आतंकियों के सामने आत्म समर्पण कर देते हैं। इससे साफ़ पता चलता है कि इस समस्या से निपटने में राजनीतिक संस्थान अक्षम हैं। ऐसी स्थिति में भारत को नया दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। फ़्रांसिसी अपराधशास्त्र में अपराध करने की मंशा भी अपराध है। अब छोटी घटना की भारी जांच होती।ऐसे क़ानून लागू करने से आतंकवादियों की भारती और ट्रेनिंग जैसी अन्य लोजिस्टिक सुविधाएं मुहैया कराने वालों पर भी कार्रवाई की जा सकेगी। यही नहीं , शहादत के महिमामंडन की गाथा को तैयार करने और उसका प्रचार करने वालों पर भी रोक लगानी होगी। कुल मिला कर आतंकवाद विरोधी रणनीति में बदलाव की ज़रुरत है।            

 

 

Monday, May 28, 2018

कांग्रेस के फंदे में उलझ गए मोदी

कांग्रेस के फंदे में उलझ गए मोदी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। बड़ी-बड़ी बातें करते हैं वे, अक्सर कहा करते हैं कि पहले के मुकाबले अब व्यापार करना भारत में ज्यादा सरल है। लेकिन क्या ऐसा है? हम इस बात की समीक्षा आगे करेंगे।
पिछले हफ्ते मोदी जी की सरकार के 4 वर्ष पूरे हुए। इस अवसर पर कई लेख लिखे गए। मोदी जी के पक्ष में और विपक्ष में भी । बड़े-बड़े आंकड़े खोजे गए और दार्शनिक बातें कही गयीं लेकिन जानने की कोशिश नहीं की गई की मोदी जी कहां उलझ गए और क्यों उलझ गए। 4 वर्षों के शासनकाल में मोदी जी ने दो बड़ी गलतियां कीं और इससे इनकी सारी बातें व्यर्थ साबित हो गयीं।
उनकी पहली सबसे बड़ी गलती थी राहुल गांधी की सूट बूट की सरकार जैसी टिप्पणी पर कुछ कहना। यह टिप्पणी बहुत चालाकी से लगाया गया फंदा था और उसमें बड़ी-बड़ी बातें करते हुए मोदी जी फंस गए। मोदी जी ने अपने जवाब में कहा कि हम इतनी आर्थिक समृद्धि लाना चाहते हैं जिस देश का निर्धनतम व्यक्ति भी सूट बूट खरीद सके। इसी जुमले के साथ वह फंदे में उलझ गए। उनकी बात से जो संदेश गया वह था कि वह भारत को नई आर्थिक दिशा नहीं देंगे बल्कि उसी रास्ते पर ले चलेंगे जिस पर कांग्रेस चला करती थी वही समाजवादी रास्ता। उन्होंने इस घोषणा के साथ ही यह व्यक्त कर दिया कि वह गरीबों के साथ हैं । इसका साफ अर्थ है की वह गरीबों को प्यार करते हैं क्योंकि गरीबी मिटने वाली नहीं है। यह रहेगी। यह शाश्वत है। शायद उन्हें याद होगा उन्होंने संपन्नता का वादा किया था गरीबी को गौरवान्वित करने का नहीं । यही नहीं, वह गरीबी को गौरवान्वित करने के  चक्कर में रामदेव बाबा का पागलपन कर बैठे वही काले धन का मामला। हम में से बहुतों को इंदिरा गांधी का वो ज़माना याद होगा जब राजनीतिज्ञों की जेब गर्म करने वाले दरबारी सेठों को छोड़कर अन्य पूंजीपति अपराधी माने जाते थे। उद्यमी भारतीयों के सपनों को कुचल दिया जाता था और केवल सरकारी नौकरी ही विकल्प थी। अब मोदी जी की विपदा देखिए कि वह खुद को गरीबों का साथी कहते है और विपक्ष उन पर आरोप लगाता है कि वह अमीरों के सहयोगी हैं। यदि उन्होंने साहस दिखाया होता और नई आर्थिक राह पकड़ी होती, मनरेगा पर खर्च कम किया होता और किसानों की कर्जमाफी के बदले ग्रामीण भारत में रोजगार का बंदोबस्त किया होता है तो आज परिदृश्य ही दूसरा होता। 2019 के चुनाव में विजय सुनिश्चित होती । भारतीय किसान विश्व बाजार में खड़ा होता। मनरेगा में जो खर्च हुआ उसे अगर कृषि आधारित ग्रामीण उद्योग पर खर्च किया गया होता तो हवा का रुख दूसरा होता। मोदी जी की दूसरी सबसे बड़ी भूल थी कि उन्होंने हिंदुत्व झंडा उठाए लोगों के हुजूम को खुलकर खेलने दिया । यह लोग गौरक्षा के नाम पर मुसलमानों को मारते हैं और  प्रधानमंत्री चुप रहे इससे यह समझा गया की इस मारकाट में उनकी सहमति है। एक बार उन्होंने हिंदुत्व से जुड़े लोगों के खिलाफ कहा था और वह तब जबकि हमले का शिकार व्यक्ति  दलित था। इसलिए मुस्लिम समुदाय यह मानता है कि उसे खतरनाक साजिश के तहत दूसरे दर्जे का नागरिक बनाया जा रहा है ताकि इस देश को हिंदू राष्ट्र घोषित किया जा सके । चूंकि वह अल्पसंख्यक हैं इसलिए इसमें उनकी कोई जगह नहीं होगी। वैसे उनका यह सोचना भी गलत है क्योंकि वह अल्पसंख्यक नहीं भारत के दूसरे सबसे बड़े समुदाय के सदस्य हैं और जैसा कि यह हिंदुत्ववादी कहते हैं कि उन्हें पाकिस्तान चला जाना चाहिए अगर अगर वह जाते हैं तो भारत माता का एक बहुत बड़ा हिस्सा भी निकल जाएगा।
  पिछले हफ्ते कर्नाटक में नए  मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में विपक्ष के नेताओं के हुजूम को बहुतों में देखा होगा। देखकर हैरत होती है की धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सनकी लोगों का यह गिरोह जमा हुआ है। यह वही लोग हैं जो बार-बार कहते रहे हैं कि अगर मोदी जी प्रधानमंत्री हुए तो मुसलमानों पर कहर बरपा होगा। आज वे हैं कि उनकी बात सही हो गई।  गौ मांस के नाम पर जिस दिन पहला मुसलमान मारा गया था उस दिन अगर मोदी जी ने सख्ती से कुछ कहा होता तो आज यह लोग हिंदुत्व का झंडा उठाए पागलों की तरह नहीं घूमते होते और अपने मारने की वीडियो क्लिपिंग नहीं लगाते होते। नफरत भरा यह खून खराबा बहुत पहले खत्म हो गया होता। मोदी भक्तों का तर्क है कि कथित धर्मनिरपेक्ष सरकारों के शासनकाल में भी भयानक दंगे हुए हैं और मरने वाले ज्यादातर मुसलमान ही रहे हैं। बेशक । लेकिन जब दंगे खत्म हो जाते हैं तो हर आम आदमी चाहे वह किसी भी पेशे का हो अपने सामान्य जीवन की ओर लौट आता है। लेकिन जब दंगों के बदले नफरत भरे अपराध होते हैं तो खतरा ज्यादा होता है। ऐसा वातावरण बनता है जिसमें स्थाई रूप से भाई कायम रहता है। देशभर में मुस्लिम समुदाय के साथ जो हो रहा है जल्दी कुछ नहीं किया गया तो  वह एक स्थाई वातावरण में बदल जाएगा।
यह वातावरण वैसा नहीं है जिसमें नेता कारोबार की सहूलियत की बात करें । प्रधानमंत्री कहते हैं कि इन दिनों कारोबार की पहले से ज्यादा  सहूलियत है लेकिन यह सच नहीं है। अगर यह सच होता तो निजी निवेश की बाढ़ आ जाती और लाखों रोजगार पैदा होते  तथा अर्थव्यवस्था बेहद विकसित हो जाती। जाति पांति की समस्या ,नफरत से पैदा हुई मुश्किलें सब अपने आप सदा के लिए खत्म हो जाती लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ इन 4 वर्षों में।