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Wednesday, May 25, 2011

एक और हरित क्रांति की जरूरत


हरिराम पाण्डेय
24.05.2011
हाल ही में देश की तेल बेचने वाली कंपनियों द्वारा पेट्रोल के दामों में की गयी 5 रुपये प्रति लीटर की बढ़ोतरी देश के करोड़ों लोगों को भारी पड़ रही है। पिछले एक वर्ष में 11 बार पेट्रोल के मूल्यों में थोड़ी-थोड़ी बढ़ोतरी के बाद इस बार सबसे अधिक मूल्य वृद्धि महंंगाई की आग में घी का काम कर रही है। इतना ही नहीं सरकार द्वारा डीजल और रसोई गैस के दामों की वृद्धि की तैयारी ने आम आदमी के चेहरे पर महंंगाई की चिंताओं को बढ़ा दिया है। निश्चित रूप से वैश्विक बाजार में बढ़ते हुए तेल मूल्यों से भारत का तेल बाजार भी प्रभावित हो रहा है। महंंगाई को रोकने की कुछ बुनियादी जरूरतों पर भी ध्यान दिया जाना जरूरी है। पिछले दिनों वल्र्ड डेवलपमेंट मूवमेंट (डब्ल्यूडीएम) की रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत सहित पूरी दुनिया में खाद्यान्न की बढ़ती कीमतों के लिए दुनिया के तीन सबसे बड़े सट्टेबाज बारक्लेज कैपिटल, गोल्डमैन सैन्स और मॉर्गन स्टैनली जिम्मेदार हैं। इन सट्टेबाजों की मुनाफाखोरी के चलते थालियों में रोटियों की कमी के कारण करोड़ों लोग भूख एवं कुपोषण से जूझ रहे हैं।
देश में खाद्यान्न उत्पादन बढ़ रहा है। एशियन डेवलपमेंट बैंक (एडीबी) ने अपनी अप्रैल 2011 की अध्ययन रिपोर्ट के आधार पर चेतावनी दी है कि भारत में अनाज की कीमतों में 10 प्रतिशत उछाल आ जाने से ही भारत के ग्रामीण इलाकों में 2.30 करोड़ और शहरी इलाकों में 66.80 लाख लोग गरीबी रेखा के नीचे चले जाएंगे। अगर अनाज की कीमतें 20 प्रतिशत बढ़ती हैं तो ग्रामीण इलाकों में 4.56 करोड़ और शहरी इलाकों में 1.33 करोड़ भारतीय बुरी तरह प्रभावित होंगे। एडीबी ने कहा कि गरीब अपनी आय का 60 प्रतिशत से ज्यादा अनाज पर खर्च करता है। अगर अनाज के दाम और बढ़े तो करोड़ों परिवारों में बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य रक्षा के लिए उसके पास थोड़े पैसे भी नहीं बचेंगे।
मुद्रास्फीति पर नियंत्रण के लिए रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया तथा वित्त मंत्रालय को और कठोर कदम उठाने होंगे। पिछले दो वर्षों में रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय के सारे प्रयासों के बाद भी इस समय खाद्य मुद्रास्फीति उच्चस्तर पर बनी हुई है। बहरहाल, रिजर्व बैंक ने अब तक ब्याज दरों में वृद्धि के जो छोटे कदम उठाए हैं वे बेबी स्टेप ही कहे जा सकते हैं। इनसे महंंगाई नियंत्रण पर कुछ खास फर्क नहीं पड़ा है। लिहाजा अब वित्त मंत्रालय एवं रिजर्व बैंक की ओर से बड़े कदम उठाने की उम्मीद की जा रही है। देश में महंंगाई पर नियंत्रण और बढ़ती जनसंख्या के कारण खाद्यान्नों की बढ़ती मांग को पूरा करने के साथ-साथ खाद्य सुरक्षा कानून के क्रियान्वयन के लिए भी देश में कृषि क्षेत्र के कई मोर्चों पर जूझकर कृषि की वृद्धि दर बढ़ाने की जरूरत है। आंकड़े बताते हैं कि पहली पंचवर्षीय योजना यानी 1950-51 से लेकर 2010-11 तक जीडीपी की वृद्धि दर 300 प्रतिशत रही, लेकिन कृषि क्षेत्र की वृद्धि सिर्फ 75 प्रतिशत रही है। ऐसे में कृषि क्षेत्र में एक और हरित क्रांति की जरूरत है।

देश की आबादी के बड़े हिस्से पर महिलाओं का शासन


हरिराम पाण्डेय
23.05.2011
देश की वर्तमान महिला मुख्यमंत्रियों में अब तक की अंतिम मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने शुक्रवार को शपथ ली। इसी के साथ देश की आबादी के सबसे बड़े हिस्से पर महिलाओं का शासन हो गया। यह भारत के इतिहास में तेरहवीं सदी में रजिया सुल्तान के बाद पहली ऐसी स्थिति है। इंदिरा गांधी जरूर लंबे अर्से तक भारत की प्रधानमंत्री रहीं, लेकिन एक प्रधानमंत्री का देश की रोजमर्रा की जिंदगी पर उस तरह सीधा दखल नहीं होता, जैसा किसी मुख्यमंत्री का हो सकता है। अतएव इस दौर की इन पांच महिलाओं, ममता, जयललिता, मायावती, शीला दीक्षित और सोनिया गांधी, को रजिया सुल्तान की वारिस कहा जा सकता है। नारी सशक्तीकरण के पैरोकारों को यह योग बेशक खुश कर सकता है।
लेकिन जब हम उम्मीद करते हैं कि ऊंचे पदों पर ज्यादा महिलाएं आएं, तो इसके पीछे हमारा एक खास सोच काम कर रहा होता है। हम यह सोचते हैं कि चलो, मर्दों का राज तो बहुत देख लिया, क्या पता औरतें उनसे बेहतर साबित हों। जब वे परिवार को चलाती हैं, तो मां, बहन, बेटी या बीवी होती हैं और हर रोल में वे प्यार बरसाती हैं। जब वे पी एम या सी एम होंगी, तो वे अपने राज्य की निगरानी उसी प्यार और फिक्र के साथ करेंगी। हम पुरुष शासकों की तुलना देवताओं से नहीं करते, लेकिन महिला शासकों को देवी की इमेज ओढ़ लेने में देर नहीं लगती। हम उनसे उदार शासन की उम्मीद करने लगते हैं, जिसका जिक्र सिर्फ किताबों में होता आया है। पावर में महिलाओं की कामयाबी का मतलब क्या है? क्या सियासत या पावर की दुनिया में महिलाओं के आने से महिला-पुरुष बराबरी के अलावा कुछ और भी बदलता है? क्या हम उनसे कुछ ऐसे और बेहतर की उम्मीद कर सकते हैं, जो मर्द लीडरों से नहीं कर सकते?
घर में मर्द और औरतों के रोल और बर्ताव में फर्क है, क्योंकि इसका इंतजाम समाज ने इतने वक्त से किया है कि संस्कार भी बदल गया है, लेकिन ऑफिस में यह बात मायने नहीं रखती। लिहाजा सियासत भी औरताना और मर्दाना नहीं होती। सीएम-पीएम चाहे मर्द हों या औरत, उन्हें एक सी ही जिम्मेदारियां उठानी होती हैं। इसलिए हम देखते हैं कि ममता बनर्जी, जयललिता, शीला दीक्षित, मायावती और सोनिया गांधी में समानताएं नहीं हैं। उनके स्टाइल जुदा-जुदा हैं और इमेज भी। ममता काफी तेज-तर्रार, लेकिन सादगी पसंद हैं, जबकि जयललिता के शाही लाइफ स्टाइल के किस्से मशहूर हैं। उन पर करप्शन के भी ढेरों इल्जाम हैं और एक सी एम के तौर पर उनका कामकाज औसत ही माना जाता है। शीला स्टाइलिश और हाई क्लास हैं, लेकिन उनकी पड़ोसी मायावती के पास इन शौकों में उलझने की फुरसत नहीं है। वे अपने बेबाक अंदाज में दलित क्रांति की मसीहा बनने पर आमादा हैं। ठीक इस समय वे सोनिया से तीखी तकरार में मशगूल हैं, जो उन्हें किसी न किसी तरह यूपी की गद्दी से उखाड़ फेंकने का ख्वाब देख रही हैं।
क्या इन महिलाओं ने अपने इलाके में ऐसा कुछ किया है, जो एक महिला होने के नाते वे ही कर सकती थीं। इसका जवाब है- नहीं। ममता कैसी सीएम साबित होंगी, यह आगे चलकर ही पता चलेगा, लेकिन जयललिता और मायावती का रेकॉर्ड कोई यादगार नहीं रहा है। शीला के जमाने में दिल्ली ने बहुत तरक्की की है और वह बार-बार इलेक्शन जीतती रहती हैं, लेकिन फिर भी देश के सबसे नामी लीडर्स में उन्हें अभी नहीं गिना जाता। जो हैसियत राजशेखर रेड्डी ने (मृत्यु के पहले) आंध्र में, मोदी ने गुजरात में और नीतीश ने बिहार में बना ली, वह इन महिलाओं से कहीं आगे है, और ये सभी पुरुष हैं। जैसे अच्छा या बुरा होना जेंडर से तय नहीं होता, वैसे ही अच्छा या बुरा शासक होने के लिए मर्द और औरत का फर्क जरूरी नहीं। पावर गेम में जेंडर अगर मायने रखता है, तो कुछ चालों को चलने के तरीके के मामले में रखता होगा। पर्सनल स्टाइल का, लोगों से बर्ताव का फर्क हो सकता है, लेकिन जो भी नतीजा होगा, उस पर जेंडर का ठप्पा नहीं बचेगा। होता भी होगा, तो वह नजर नहीं आएगा, क्योंकि अच्छे या बुरे फैसले का असर उससे नहीं बदलेगा। मसलन मोदी के अच्छे फैसले गुजरात का उतना ही भला करेंगे, जितना ममता के अच्छे फैसले बंगाल का।
तो रजिया सुल्तान के बाद महिलाओं को मिली इस कामयाबी का असली मतलब क्या है? सिर्फ यही कि हम सदियों के भेदभाव से बाहर निकल रहे हैं। जिस मुल्क में औरतों और मर्दों के बीच बराबरी पर सवाल बने हुए हों, उसमें इतनी सारी महिलाएं सबसे ऊंचे ओहदे तक जा पहुंचीं- यह बदलते और सुधरते भारत की मिसाल है। 1236 में जब इल्तुतमिश ने अपने नाकारा बेटे को पीछे छोड़कर बेटी रजिया को सुल्तान मुकर्रर किया था, तो उसने जेंडर के फर्क पर काबिलियत को तरजीह दी थी। वह ऐसे वक्त में बराबरी के लिए खड़े होने की मिसाल थी, जो दुनिया में और कहीं नहीं देखी गयी। इतनी सदियों बाद आज भी जब कोई महिला अपने सिर पर ताज रखती है, हम बराबरी के उस सपने की तरफ एक कदम बढ़ जाते हैं। बराबरी की तरफ उठा हर कदम सोसायटी को बेहतर बनाता है। औरतों का सत्ता में आ जाना करप्शन और खराब शासन का अंत नहीं है। वह उस समाज का अंत जरूर है, जो आखिरकार करप्शन और खराब शासन को पैदा करता है।

ये लापरवाहियां क्यों?


हरिराम पाण्डेय
22.05.2011
होम मिनिस्ट्री और सीबीआई की लापरवाही का खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ेगा। इस लापरवाही के कारण आतंकवाद के खिलाफ भारत की लड़ायी कमजोर पड़ सकती है। पहले तो पाकिस्तान भारत के दावे को गलत कहता था, हो सकता है अब पूरी दुनिया भारत के किसी भी दावे को गंभीरता से ही ना ले। सरकार के इस गैर-जिम्मेदाराना हरकत के बाद हुई फजीहत के बाद सीबीआई ने कुछ एक्शन लिया है। उसने अपनी वेबसाइट्स से मोस्ट वांटेड की लिस्ट हटा ली है। साथ ही उनके खिलाफ जारी रेड कॉर्नर नोटिस को भी हटा दिया है। साथ ही सीबीआई टीम का कहना है कि वह पूरी लिस्ट की जांच दोबारा से करेगी। हालांकि, सरकार का कहना है अभी पाकिस्तान से मोस्ट वांटेड की लिस्ट नहीं मंगायी जाएगी। पूरी जांच के बाद यह निर्णय लिया जाएगा। एक के बाद एक मोस्ट वांटेड देश में ही मिल रहे हैं। वजहुल कमर खान के ठाणे में होने की बात सामने आयी ही थी कि गुरुवार को पता चला कि एक और मोस्ट वांटेड मुंबई के आर्थर रोड जेल में बंद है। आनन-फानन में सीबीआई ने अपनी गलती मानी ली। दूसरे खुलासे के बाद एक सीबीआई इंस्पेक्टर को सस्पेंड कर दिया गया, जबकि 2 सीनियर अधिकारियों का ट्रांसफर कर दिया गया। गृह मंत्रालय के एक अधिकारी के मुताबिक, सीबीआई वालों ने कहा है कि उन्होंने जब भगोड़े अपराधियों की सूची होम मिनिस्ट्री को भेजी थी, तो वे खान का नाम हटाना भूल गये थे। इस बीच, राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने भी अपनी सफाई दी है। एनआईए ने एक बयान में कहा है कि 50 अपराधियों की सूची में उसने 10 भगोड़ों के नाम दिए थे। एनआईए की जांच के मुताबिक ये सभी भारत में नहीं हैं। माना जा रहा है कि ये सभी पाकिस्तान में छिपे हैं। सी बी आई और एन आई ए के बयानों में एक बात कॉमन है कि शीर्ष पदों पर बैठे लोगों में किसी किस्म की जिम्मेवारी का भाव नहीं है। सारा ठीकरा मातहतों के सिर फूटता है। हर मामले में किसी ना किसी को बलि का बकरा बना दिया जाता है और उसे छुट्टïी पर भेज दिया जाता है। बाकी लोग अगली घटना तक तनाव मुक्त होकर कुर्सियां तोड़ते रहते हैं। जिन्हें दंडित किया जाना चाहिये वे गुलछर्रे उड़ाते रहते हैं और अधिक से अधिक लाभ पाने का प्रयास करते रहते हैं। मोस्ट वांटेड सूची से लेकर कॉमन वेल्थ घोटाले तक किसी भी मामले को देखें, सब में किसी ना किसी जूनियर को दंडित किया गया है जबकि कई मामलों में बड़े अफसर भी दोषी होंगे। क्योंकि लगभग सभी निर्णायक समितियों में बड़े अफसरों को महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां सौंपी जाती हैं। या यों कहें कि बिना उनकी मंजूरी अथवा दस्तखत के कोई भी काम नहीं हो सकता। वह चाहे बिल पास करना हो या ठेका अथवा कोई सूची ही बनाना क्यों ना हो सबमें शीर्ष अफसरों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है्र। लेकिन किसी में भी किसी बड़े अफसर को दंडित होते देखा- सुना नहीं गया है। जब तक शीर्ष पदों पर बैठे अफसर दंडित नहीं होंगे तब तक यह सिलसिला जारी रहेगा।

Saturday, May 21, 2011

कंधे पर चढ़ सूरज ने देखा इतिहास को बनते हुये

हरिराम पाण्डेय
20 मई 2011
ज्येष्ठï कृष्ण पक्ष तृतीया सम्वत् 2068 तद्नुसार 20 मई 2011 को राजभवन के हरियाली सेे आच्छादित लॉन में दोपहर 1 बजकर 1 मिनट पर ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। यह शपथ ग्रहण समारोह कई मायनों में ऐतिहासिक कहा जा सकता है। ममता जी ने 34 वर्ष लम्बे वामपंथी शासन से लगभग दो दशक तक जंग कर उसे पराजित किया। शपथ ग्रहण के बाद जेठ की इस भरी दोपहरी में वे राजभवन से राइटर्स बिल्डिंग (सचिवालय) तक पैदल आयीं साथ में था भारी जनसमूह। हम लोगों में बहुतों ने देखा और सुना होगा कि 1993 में राइटर्स बिल्डिंग से इसी ममता बनर्जी को केश पकड़ कर बेहद अपमान के साथ सरकार ने पुलिस के हाथों बाहर किया था और उसी दिन उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि वे जब तक वाममोर्चा को भू लुण्ठित नहीं कर देंगी तब तक इस राइटर्स में प्रवेश नहीं करेंगी। आज वह प्रतिज्ञा पूरी हुई। विशाल जनसमूह और बूट चटकाते पुलिस वालों की सलामियों के बीच ममता जी लगभग पौने पांच बजे राइटर्स बिल्डिंग में दाखिल हुईं। यह करीब- करीब वही समय था जब अबसे 18 साल पहले उनका केश पकड़ कर उन्हें बाहर निकाला गया था। एक अजीब भावुक माहौल था जब सफेद चादर से माथे का पसीना पोंछती वे उस सुर्ख इमारत के कालें रंग पुते दरवाजों से अंदर प्रवेश हुईं और वहां तैनात संतरी ने शस्त्र सलामी दी। चेहरे पर एक अजीब दर्प था। ममता जी ने पश्चिम बंगाल में राजनीतिक आचरण के एक नये अध्याय की शुरुआत की है। यहां यह गौर करने वाली बात है दुनिया के बहुत कम राजनीतिज्ञ समय की दो धाराओं पर एक साथ तैरते हैं। वामपंथी दलों के मोर्चे से तृणमूल कांग्रेस की ओर यह राजनीति का सफर हुआ और यह सफर एक ऐसे समय में हुआ जब आर्थिक गतिविधियों की दिशाएं अविश्वसनीय हैं और राज्य की जनता में तरक्की की भारी तड़प है। जनता ने अपना मुकद्दर एक ऐसे हाथ में सौंपा है जिसकी क्षमता और दूरदर्शिता से लोग परिचित नहीं हैं। दरअसल इस परिवर्तन की कथा ममता जी की विजय कथा के साथ- साथ पश्चिम बंगाल की जनता की भी विजय-कथा है। इस नये परिच्छेद का नायक बंगाल है। शपथ ग्रहण के बाद जब वे राइटर्स की ओर चलीं तो रास्ते में पत्रकारों ने उनसे दो ही बुनियादी सवाल किये पहला राज्य में सुरक्षा के माहौल का तथा दूसरा अर्थव्यवस्था के पुनरुद्धार का। यानी राज्य में इन दो स्थितियों का भयंकर अभाव देखा जा रहा है। इन प्रश्नों के उन्होंने क्या उत्तर दिये यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि न वह अवसर ऐसा था और ना स्थैतिक मनोविज्ञान वैसा था। लेकिन उनके संघर्ष की गाथा, उनकी चारित्रिक दृढ़ता और उनके आत्म विश्वास को देखकर सहज ही यकीन किया जा सकता है कि आने वाले दिनों में वे राज्य के कल्याण के लिये कोई कसर नहीं छोड़ेंगी।

आज से काम शुरू

हरिराम पाण्डेय
19 मई 2011 को 20 मई के लिखित
सुश्री ममता बनर्जी को राज्यपाल ने मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया है और आज वह अपने पद और गोपनीयता की शपथ लेंगी। यानी, सरकारी तौर पर आज से वे राज्य के शासन की बागडोर संभाल लेंगी। ममता जी ने अपनी इस महान विजय को पश्चिम बंगाल की आजादी की संज्ञा दी है। अब सवाल उठता है कि बंगाल उनसे क्या उम्मीदें करता है? लोकतंत्र में सुशासन के लिये जरूरी है कि सत्तारूढ़ दल अथवा समान विचार वाले दलों का प्रचुर बहुमत हो। क्योंकि इससे पार्टी और अन्य पक्षों को यह यकीन रहता है कि सरकार किसी सियासी संकट में नहीं फंसने वाली और वह अपना कार्यकाल सुगमता से पूरी कर लेगी। साथ ही जरूरी है कि सत्तारूढ़ दल पर ताकतवर विपक्ष का अंकुश भी रहे। तृणमूल कांग्रेस को जो बहुमत हासिल हुआ है वह डर पैदा करने वाला है। विचारवान और मेधावी लोगों के अभाव से ग्रस्त इस पार्टी का विधानसभा में विरोध हो ही नहीं सकता। लेफ्टिस्टों को जो आघात लगे हैं उससे उबरने में उन्हें लम्बा समय लग सकता है। इस सियासी हालात के कारण सरकार के सुस्त हो जाने या निरंकुश हो जाने का खतरा बढ़ जाता है। जिसके कारण वह किसी भी जायज मांग को अनसुना कर सकती है या दबा सकती है। वाम मोर्चे की पराजय के कारणों में निरंकुशता भी एक कारण थी। विधानसभा में कांग्रेस के साथ गठबंधन तो है पर राजनीतिक हैसियत एकदम असंतुलित है। इस स्थिति का सीधा प्रभाव केंद्र राज्य सम्बंधों पर पड़ेगा। क्योंकि अगले कुछ समय तक ममता जी को लगातार धनाभाव बना रहेगा और वे बार बार केंद्र से धन की मांग करेंगी। केंद्र अपने मानकों के आधार पर प्राथमिकताओं का आकलन करेगा और देरी होने या इनकार की सूरत में ममता जी शायद ही अपने गुस्से को काबू में रख सकें और यह गुस्सा समर्थन वापस लेने की धमकियों और उनके हकीकत बनने में भी बदल सकता है। आज से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन होने के बाद ममता जी की सबसे बड़ी प्राथमिकता होगी राज्य में व्यापकस्तर पर रोजगार के अवसर तैयार करना। वाममोर्चे ने अपने शासनकाल में यहां के उद्योग धंधों को चौपट कर दिया। इसका राज्य की अर्थ व्यवस्था पर भयंकर दुष्प्रभाव पड़ा। वामपंथियों ने अपने शासन काल के आखिरी दिनों में इस गलती को पहचाना और उसे सुधारने की दिशा में कदम उठाया। तबतक काफी देर हो चुकी थी। उसने उद्योगों के विस्तार के लिये जमीन का अधिग्रहण शुरू किया। ममता जी ने इसका विरोध किया। उनका कहना था कि उद्योगों के लिये सरकार उपजाऊ भूमि का अधिग्रहण ना करे। लेकिन अब ढांचागत विकास के लिये जब भूमि अधिग्रहण की जरूरत होगी तो यकीनन उसमें उपजाऊ जमीन का भी कुछ हिस्सा आयेगा। इसके लिये नयी सरकार को अपने भू अधिग्रहण कानून की समीक्षा करनी होगी और आवश्यक सुधार भी। राज्य की अर्थव्यवस्था में सुधार के लिये सकल घरेलू उत्पाद में विकास करना होगा और इसके लिये टैक्स की वसूली जरूरी है। साथ ही यहां की शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्थाओं का भी विकास करना होगा। ममता जी ने हर जिले में एक अस्पताल खोलने का वादा किया था पर शायद यह वादा पूरा ना हो सके लेकिन अभी यह जरूरी होगा कि जो वर्तमान अस्पताल तथा स्कूल हैं वे ठीक से चलें। उनमें राजनीतिक हस्तक्षेप समाप्त हो जाय। ममता जी बेहद ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठï हैं। इसमें किसी को संदेह हो ही नहीं सकता। लेकिन उनकी सरकार के अन्य लोग भी अपनी जिम्मेदारी ठीक से पालन करें यह देखना भी उनका ही कर्तव्य है। राज्य की कार्य संस्कृति को देखते हुए यह बड़ा ही दुष्कर लगता है। लेकिन लगता है वे अपने साथियों को प्ररित करने में सफल हो जाएंगी। अगर ऐसा हुआ तो भविष्य का सोनार बांगला हम देख सकेंगे।

विष कुम्भम् पयोमुखम्

हरिराम पाण्डेय
18 मई 2011
पश्चिम बंगाल के कई हिस्सों से लगातार हथियारों के भंडार मिल रहे हैं। पहले केवल कहा- सुनी की बातें थीं कि यहां हथियार जमा किये जा रहे हैं पर अब जब उन्हें पुलिस बरामद कर रही है तो लोग दांतों तले उंगली दबा रहे हैं। हथियारों के इतने बड़े जखीरे और इस संख्या में सबको हैरत में डालने वाले हैं, क्योंकि सियासी मदद और पुलिस तथा जिला प्रशासन के सहयोग के बिना इस तरह के शस्त्र इतनी बड़ी संख्या में जमा करना नामुमकिन था। सत्ता का रंग बदलते ही रोजाना सुनने में आ रहा है कि हथियार बरामद किये गये। जन कल्याण का दिन- रात ढिंढोरा पीटती माकपा का ऐसे कार्यों में सहयोग देना 'विष कुम्भम् पयोमुखम्Ó वाली कहावत चरितार्थ करती है। पुलिस अचानक हरकत में आ गयी है। पुलिस अचानक इस स्तर तक सक्षम हो जायेगी, यह बात गले नहीं उतरती। मतलब साफ है कि पुलिस को सब मालूम था कि हथियारों के भंडार कहां हैं पर चूंकि उसे हुक्म नहीं था कि उन्हें हाथ लगाये तो वह चुपचाप थी, क्योंकि ये हथियार कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) के काडरों ने ही जमा किया हुआ था और वे ही इसका इस्तेमाल करते थे और भविष्य में करने वाले थे। अचानक चुनाव ने सारा गुड़ गोबर कर दिया। इसमें जो सबसे खतरनाक तथ्य है कि पार्टी ने, जो कि खम ठोंककर खुद को ग्रास रूट स्तर की पार्टी कहती थी उसने हथियारों के भंडार बनने दिये। यहां यह कहने का इरादा बिल्कुल नहीं है कि अन्य पार्टियां हथियारों या 'ग्रे ऐटिट्युडÓ से अलग हैं और वे नाजायज हथियारों का इस्तेमाल नहीं करतीं, लेकिन दोषी माकपा ही कही जायेगी, क्योंकि वह सत्ता में थी। यदि माकपा निर्दोष होती अथवा उन हथियारों की मुखालिफ होती तो पुलिस पर दबाव देकर हथियार बरामद करवा सकती थी और उसकी सप्लाई रुकवा सकती थी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। क्यों? सरगोशियां तो हैं कि माकपा के कुछ बड़े नेता और काडर जिहादी आतंकियों तक को हथियारों की सप्लाई करते थे। हथियारों के सम्बंध में नयी सरकार के सामने स्पष्टï लक्ष्य है कि वह न केवल इन्हें बरामद करे तथा भंडारों को नष्टï करे, बल्कि उनकी आपूर्ति के स्त्रोत को भी बंद कर दे। साथ ही उन सभी लोगों को पकड़ कर दंडित करे जो इसमें शामिल थे। इसके लिये किसी के राजनीतिक रंग को ना देखा जाय। यह तभी संभव होगा जब जिला प्रशासन और पुलिस को खुली छूट देनी होगी। उस पर राजनीतिक लगाम नहीं होनी चाहिये। नयी सरकार पुलिस को ताकीद कर दे कि वह सत्ताधारी दल की न ठकुरसुहाती करे और ना सत्ता से गवां बैठे लोगों पर बेवजह सख्ती करे। अभी जो कानून हैं और जो व्यवस्था है अगर उसमें पुलिस और प्रशासन निष्पक्ष हो कर काम करे तो कम से गैरकानूनी हथियारों का आतंक खत्म हो जायेगा। पश्चिम बंगाल में नयी सरकार को अभी बहुत कुछ करना है इसलिये हथियारों का टंटा खत्म कर दूसरी दिशा में कदम उठाने जरूरी होंगे। हथियार चूंकि खतरनाक इरादों से जमा किये गये थे इसलिये समय रहते उसके हर पहलू की जांच कर दोषियों को दंडित करना जरूरी है वरना आगे न केवल काम करने में कठिनाई होगी बल्कि व्यापक खून खराबे की आशंका भी है।

Tuesday, May 17, 2011

पश्चिम बंगाल का उद्धार


हरिराम पाण्डेय
पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनाव में ऐतिहासिक विजय हासिल करने वाली ममता बनर्जी 20 मई को शपथ लेंगी। उनकी विजय के और माकपा की पराजय के कारणों के बारे में अब तक बहुत कुछ लिखा और कहा जा चुका है। इतनी बातें हो चुकी हैं कि राज्य गौण हो गया है। आखिर ममता जी की शासन का आधार यह राज्य ही है और इस पर विचार होना बाकी है कि उसका उद्धार कैसे हो? यूं तो माकपा के पास ठंडे दिमाग से सोचने वालों का अभाव नहीं था पर गड़बड़ी हुई उसके मनोविज्ञान से। माकपा अपने दीर्घ शासनकाल के कारण आत्ममुग्ध हो चुकी थी और इस दौरान उसे किसी की परवाह नहीं थी। उसने अपनी ऐंठ और अहंकार के कारण लोकसम्पर्क को अवरुद्ध कर दिया था तथा लोकमानस में व्याप्त गुस्से की जानकारी देने वाले प्रेस को नजर अंदाज कर दिया था। यही कारण था कि राज्य के विकास के लिये जब तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टïाचार्य ने राज्य से उजड़ गये उद्योगों को पुन: स्थापित करने के प्रयास स्वरूप उद्योगपतियों को आमंत्रित किया और उन्हें स्थापित करने के लिये सिंगुर तथा नंदीग्राम में भूमि अधिग्रहण आरंभ किया तो जैसा अक्सर होता है गांव वालों ने विरोध शुरू कर दिया। उस विरोध को दबाने की गरज से सरकार ने अपने काडरों को उतार दिया। प्रेस ने इसे भयानक जुल्म की संज्ञा देकर प्रचारित कर दिया। लेकिन गलती यहां भी नहीं हुई क्योंकि चुनाव प्रेस नहीं लड़ते। लेफ्टिस्टों से बड़ी गलती यह हुई कि इस स्थिति का लाभ उठाने का अवसर ममता जी को हासिल होने दिया। अनवरत जुझारू उस महिला ने सड़कों पर व्याप्त आतंक के प्रति जनता में साहस पैदा करने का काम किया। ठीक वही जो महात्मा गांधी ने चम्पारण में निलहे किसानों में किया था। बाकी का काम जनता ने कर दिया। इसके पहले चर्चा थी कि ममता जी में भी भाषण देने का वही पुराना रोग है जो वामपंथियों में था। यह सच भी था। वे शायद ही किसी की बात सुनती थीं, लेकिन चुनाव के कुछ पहले यह देखा गया कि वे दलीलों और बातों के प्रति थोड़ी संवेदनशील हुई हैं। वे बातें- दलीलें भी सुनती हैं और उनका वजन भी देखती हैं। उन्हें इस बात का इल्म है कि उनके चारों तरफ सियासी और बौद्धिक तौर पर अयोग्य तथा निहायत पाखंडी लोग जमा हैं। हालांकि राजनीति में ऐसा होना असामान्य नहीं है। क्योंकि राजनीति में सबसे महत्वपूर्ण शर्त पार्टी के प्रति अंधभक्ति (लॉयल्टी) होती है और ऐसी स्थिति में बौद्धिकता पंगु हो जाती है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मेधावी लोग सियासत में नहीं होते। जरूर होते हैं और वे अपनी मेधा का उपयोग अपने विरोधियों को परास्त करने में करते हैं। लेकिन उक्त प्रकार का उपयोग तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टी में संभव नहीं है क्योंकि यहां तो एक ही नेता सब कुछ तय करता है। अतएव नयी सरकार में मेधावी लोगों का भारी अभाव है। ममता जी थोड़े से रिटायर्ड नौकरशाहों के बल पर बंगाल का पुनरुद्धार करने जा रहीं हैं। मसलन चेम्बर ऑफ कामर्स के अमित मित्रा, जिन्हें वित्त मंत्रालय मिलना तय है, बेशक उत्तर भारत के उद्योगपतियों से अच्छा सम्बंध रखते हैं पर 80 के दशक के बाद अर्थव्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन हुआ है और उद्योग अब कृषि को बढ़ावा देने के बदले सेवा क्षेत्र को विकसित करते हैं। इसलिये दक्षिण भारतीय उद्योगों में तेज विकास हुआ है और श्री मित्रा दक्षिण भारतीय उद्योगपतियों से उतने हमवार नहीं हैं। जहां तक आई टी क्षेत्र का सवाल है वह इस समय अराजक दौर से गुजर रहा है। इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था एक नये दौर से गुजर रही है और अभी से कहना संभव नहीं है कि कौन सी आर्थिक गतिविधि इस समय देश के आर्थिक विकास के लिये उपयोगी होगी। इन दिनों पश्चिम और उत्तर भारत में जो औद्योगिक विकास हुआ है उसका आधार वाहन और कपड़ा उद्योग है जो कि विशाखापत्तनम, चेन्नई, कोयम्बटूर, गोवा जैसे अत्यंत विकसित बंदरगाहों पर निर्भर है। यह मॉडल पश्चिम बंगाल में संभव नहीं है, क्योंकि यहां ले- देकर एक कामचलाऊ बंदरगाह है हल्दिया। यहां पर्यटन उद्योग को विकसित किया जा सकता है , क्योंकि राज्य में पर्यटन स्थलों और रिसोट्र्स के लिये प्रचुर संभावनाएं हैं। ममता जी को राज्य के आर्थिक विकास के लिये अपना फारमूला तय करना होगा जिससे राज्य का पुनरुद्धार हो सके।

पेट्रोल मूल्य वृद्धि: विरोध का वह स्वरूप कहां गया


हरिराम पाण्डेय
भारतीय तेल कम्पनियों ने पेट्रोल के दाम में अब तक की अपनी सबसे बड़ी वृद्धि की है। इसकी कीमत में प्रति लीटर पांच रुपये का इजाफा कर दिया गया है। पेट्रोल के दाम में यह वृद्धि पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के नतीजों के एक दिन बाद हुई है। इस वृद्धि की विपक्षी पार्टियों ने निंदा की है। अधिकारियों के मुताबिक सरकार द्वारा संचालित तीन तेल कम्पनियां घरेलू ईंधनों को सब्सिडी के तहत बेचे जाने से होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए कीमत में वृद्धि कर रही हैं। पिछले वर्ष से यह आठवीं वृद्धि है।
पेट्रोलियम पदार्थों के मूल्यों में की गयी इस वृद्धि का सबसे खराब पहलू है कि इसके खिलाफ आम जनता अभी तक गोलबंद होकर प्रतिवाद करती नजर नहीं आ रही है। क्या वजह है कि महंगाई के खिलाफ जनता के प्रतिवाद आम जीवन से गायब हैं? इस मूल्य वृद्धि को सरकार हाशिए पर डालने में सफल क्यों है? अन्य महत्वपूर्ण राष्टï्रीय समस्याओं पर भी आम लोगों में जिस तरह की तेज प्रतिक्रिया होनी चाहिए वह दिखायी क्यों नहीं देती? आखिरकार महंगाई को वर्चुअल बनाने में केन्द्र सरकार कैसे सफल रही है? इत्यादि सवालों के हमें समाधान खोजने चाहिए।
सन 1994-95 के बाद जबसे साइबर संस्कृति का विस्तार हुआ राजनीतिक संवाद आम जीवन से चुपचाप गायब हो गया और उसकी जगह टेलीविजन केन्द्रित राजनीतिक विमर्श आ गया। टीवी विमर्श ने जनता को गूंगा और बहरा बनाया है। इसने हमें राजनीति का दर्शक बना दिया भागीदार नहीं। हमारे राजनीतिक दलों को इस स्थिति को बदलने की कोशिश करनी चाहिए।आज हम यथार्थ से प्रभावित तो होते हैं लेकिन उसे स्पर्श नहीं कर सकते, बदल नहीं सकते। अपदस्थ नहीं कर सकते। अब मंहगाई महज सूचना बनकर आती है। नये मीडिया वातावरण में अब प्रत्येक वस्तु,विचार, राजनीति, धर्म, दर्शन, नेता आदि सब को सूचना या खबर में बदल दिया गया है। यही वजह है कि चीजें हम सुनते हैं और सक्रिय नहीं होते। जब हर चीज खबर या सूचना होगी तो वह जितनी जल्दी आएगी उतनी ही जल्दी गायब भी हो जाएगी। लाइव टेलीकास्ट में पेट्रोलियम पदार्थों में वृद्धि की खबर आयी और साथ ही साथ हवा हो गयी। सूचना का इस तरह आना और जाना इस बात का संकेत भी है कि सूचना का सामाजिक रिश्ता नहीं होता। सूचना का सामाजिक बंधनरहित यही वह रूप है जो सरकार को बल पहुंचा रहा है। मंहगाई के बढऩे के बाबजूद सियासी दलों पर कोई राजनीतिक असर नहीं हो रहा। हर चीज के खबर या सूचना में तब्दील हो जाने और सूचना के रूपान्तरित न हो पाने के कारण ही आम जनता की आलोचनात्मक प्रवृत्ति का भी क्षय हुआ है। एक खास किस्म की पस्ती, उदासी, अनमनस्कता, बेबफाई, अविश्वास,संशय आदि में इजाफा हुआ है। सूचना या खबर अब हर चीज को हजम करती जा रही है । उसमें भूल, स्कैण्डल, विवाद, पंगे आदि प्रत्येक चीज समाती चली जा रही हैं। उसमें सभी किस्म की असहमतियां और कचरा भी समाता जा रहा है और फिर री-साइकिल होकर सामने आ रहा है। इससे अस्थिरता, हिंसा, कामुकता, सामाजिक तनाव, विखंडन, भूलें आदि बढ़ रही हैं। इस प्रक्रिया में हम ऑब्जेक्टलेस हो गये हैं। हमारे अंदर नकारात्मक शौक बढ़ते जा रहे हैं। इनडिफरेंस बढ़ा है। यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां पर हमें ठंडे दिमाग से इस समूचे चक्रव्यूह को तोडऩे के बारे में सोचना चाहिए।

Sunday, May 15, 2011

दादा गये, दीदी आईं


हरिराम पाण्डेय
13 अप्रैल 2011
पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम इससे चामत्कारिक हो ही नहीं सकते थे। अगर इससे ज्यादा होते तो अविश्वसनीय होते। जिस तरह से तृणमूल कांग्रेस गठबंधन को बहुमत मिला, उससे साफ जाहिर होता है कि चुनावों के फैसले अब जनता के बीच होंगे। पश्चिम बंगाल में राजनीतिक आचरण का नया इतिहास लिखा गया। जनता ने धमकियों और घुड़कियों को अनदेखा करके, वायदों को नजरंदाज कर, उम्मीदों को वोट दिया है। ममता की लहर और वामपंथ से नाराजगी तथा उम्मीदों के पक्ष में जनादेश, अगर इन सबके परिप्रेक्ष्य में बंगाल के चुनाव को देखें तो महसूस होगा कि राज्य एक राजनीतिक क्रांति से गुजर रहा है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि बंगाल का जनमत ममता जी के पक्ष में है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि विजेता आराम से बैठ जाये या आत्मसंतुष्ट हो जाये अथवा जो पराजित हो गये हैं उनका सफाया हो गया। पहले ही कहा जा चुका है कि यह जनादेश उम्मीदों के आधार पर दिया गया है। बेशक ममता जी के पैरों तले लाल गलीचा बिछ गया है। पश्चिम बंगाल ने राजनीति के विकेंद्रीकरण के लिए ऐसी आतंक मुक्त जमीन तैयार कर दी है, जो आने वाले वर्षों में अन्य राज्यों तथा केन्द्र में सत्ता के समीकरण की स्थापित मान्यताओं को बदल कर रख देगी। वाममोर्चा को जोरदार शिकस्त मिली है लेकिन इसका मतलब यह नहीं माना जा सकता है कि वाममोर्चा सियासत से बाहर हो गया है। वामपंथ के सियासी तिलस्म की गारण्टी पीरियड अभी खत्म नहीं हुई है और इस बिसात पर हाथी, घोड़े या वजीर की चालें न सही लेकिन पैदल या प्यादे के तौर पर वह कोई बड़ी चालें तो चल ही सकता है। भारतीय सियासत, राज-काज, डेमोक्रेसी या सोसाइटी में दिलचस्पी रखने वाले किसी भी आदमी के लिए लेफ्ट को नजरंदाज करना मुमकिन नहीं है। जरा सोचिये कि जयप्रकाश नारायण की मोटरकार के सामने उछलकूद मचाने वाली एक युवती, स्लम की साधनहीन लड़की, वहीं अपने खास अंदाज में सोसाइटी का एक दमदार मोहरा बन जाती है और उसे सियासत के कारगर नुख्से में बदलती हुई केन्द्रीय सत्ता तक पहुंचती है और देश के सबसे बुद्धिजीवी प्रांत की सत्ता को उलट पलट देती है। दुनिया में बहुत कम नेता ऐसे होते हैं, जो एक ही वक्त में राजनीति की दो धाराओं में तैरते हैं। बुद्धदेव से ममता की ओर सियासत का सफर होना था, हुआ और यह हुआ भी अपने वक्त पर ही। क्योंकि देश के सबसे बौद्धिक राज्य में तरक्की की तड़प बहुत देर से थी। इस हिसाब से देखा जाये तो इस चुनाव की कथा न ममता जी की है और न बुद्धदेव बाबू की पराजय की है? इस कहानी का नायक बंगाल है। अपने मुकद्दर की जुस्तजू में निकली भारत के एक राज्य की पिछड़ी आबादी ने अपनी वक्ती जरूरत के हिसाब से अपना शंहशाह चुन लिया, पहले वामपंथ और उसके बाद ममता बनर्जी। इसलिए ममता जी की वास्तविक चुनौतियां अब शुरू होंगी। शिक्षा का प्रसार तो है पर नौकरियों की किल्लत है, भ्रष्टाचार बहुत ज्यादा है और निवेशकों ने राज्य से मुंह मोड़ लिया है, बिजली की कमी है और जो है, बहुत महंगी है। आम जनता को गरीबी से बाहर निकालने की राह नहीं सूझ रही है। ममता जी की सियासी चाबी चाहे जितनी 'लार्जर देन लाइफÓ हो जाये पर उनके सिर पर कांटों का ताज रखा हुआ है। पश्चिम बंगाल के चुनावी नतीजे रोमांचक हैं और राजनेताओं को इससे सबक लेनी चाहिए।

एक अलग दिशा दिखायेगा इस बार का चुनाव


हरिराम पाण्डेय
10 अप्रैल 2011
पश्चिम बंगाल की जनता ने इस बार अपना अंतिम मतदान पूरा कर लिया। आज उस मतदान का परिणाम सामने आयेगा। चैनल वाले और चुनावी पंडितों ने परिवर्तन की भविष्यवाणी की है और उसमें दम भी लगता है। सामाजिक हालत भी कुछ ऐसी ही है। परंतु इस परिवर्तन में विजयी और विजित में कितना अंतर होगा और सियासी समीकरण का अंतिम स्वरूप क्या होगा यह कहना अभी मुनासिब नहीं होगा या उसे जल्दबाजी में लिया गया निर्णय कहा जा सकता है। लेकिन 2011 के चुनाव के समय जो सामाजिक हालात देखे गये, उनसे तो ऐसा लगता है कि नतीजे स्थानीय व्यक्तित्व के आधार पर तय होंगे। इस बार का हर मुकाबला लोकल दिग्गजों में जोर आजमाइश की तरह था और वामपंथी दलों या कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी यही थी कि उनकी नीति लोकल कम अंतरराष्ट्रीय तथा राष्ट्रीय ज्यादा थी। इस बार के चुनाव में यह साफ लगने लगा था कि गमलों में लगी कलमें जमीन में उगे पौधों के आगे बेकार हैं। पश्चिम बंगाल में ' मां, माटी, मानुषÓ का उद्घोष करने वाली ममता बनर्जी किसी देवालय की दुर्गा नहीं बल्कि सलवटों वाली साड़ी और हवाई चप्पल पहने सड़क किनारे रखी काली की प्रतिमा का मूर्त रूप हैं, जो विगत दो दशकों से वामपंथ से लोहा ले रही हैं। ममता जी ने भी कई बार घोर पराजय का मुख देखा है पर आज वे भारत की लेक वालेशा हैं। एक ऐसी नेता, जिसने देश की सबसे पुरानी कम्युनिस्ट सत्ता को लोकतांत्रिक पद्धति के माध्यम से पराजित करने की चुनौती दी है। देश में तृणमूल कांग्रेस के बारे में बहुत लोग न ही जानते हैं और न यह जानते हैं कि उस दल के और कौन नेता हैं और न यह जानते हैं कि उस पार्टी के क्या कार्यक्रम हैं और यह कैसा शासन चलायेगी? इस चुनाव में, जैसे कि संकेत मिल रहे हैं, ममता जी के जीतने की संभावना प्रबल है। इस मौके पर कांग्रेस को भी अपने सियासी अनुभवों की समीक्षा करनी होगी कि ममता जी की भांति कुदरती नेता को वह पार्टी क्यों नहीं प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर तैयार कर सकी और क्या कारण है कि प्रतिभाशाली लोकल नेता देर-सबेर पार्टी छोड़कर चले जाते हैं। पश्चिम बंगाल में इस बार का विधानसभा चुनाव व्यक्तित्व आधारित चुनाव था और अगर यह फार्मूला सफल रहा तो लोकसभा चुनाव भी इससे अलग नहीं होगा। यहां चाहे चुनावी पंडित जो कहें लेकिन एक बात तय है कि ममता जी के साथ खड़े जितने भी लोग थे वे अपनी जमीन से गहरे जुड़े थे, अपनी जमीन की राजनीतिक संस्कृति और आचरण से उनका गहरा जुड़ाव था। बेशक इस मौके पर राष्ट्रीय नेताओं का अन्य पार्टियों की ओर से आगमन हुआ लेकिन उनका कोई खास असर होगा यह नहीं लगता। चुनाव का निर्णय अपने क्षेत्र के लोकप्रिय व्यक्तित्वों से होगा। पार्टी के कार्यक्रम चाहे जितने लुभावने हों या गठबंधन के समीकरण चाहे जितने बेहतर हों लेकिन राष्ट्रीयस्तर के नेताओं की इस बार पूछ नहीं है।

विवादित स्थल पर नया फैसला : देश को बचाना जरूरी


हरिराम पाण्डेय
9 अप्रैल 2011
देश को राजनीतिक, सामाजिक और साम्प्रदायिक रूप में गहरे तक विभाजित कर देने वाले मसले, रामजन्मभूमि विवाद, में एक और नया मोड़ उस समय आ गया, जब सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को इस विवाद में इलाहाबाद हाई कोर्ट के 30 सितंबर-2010 के फैसले को स्थगित कर दिया और साथ ही फैसले पर अचरज भी जाहिर किया। अदालत ने अपने फैसले में यह ताकीद किया है कि विवादित स्थल से जुड़े 67.730 एकड़ भूमि पर भी कोई धार्मिक कार्यक्रम संपन्न नहीं होगा। इसके पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट के लखनऊ पीठ ने यह मान लिया था कि 1428 ईस्वी में रामलला के मंदिर की छत को तोड़कर ऊपर मस्जिद की छत ढाली गयी थी और फिर 1992 में मस्जिद तोड़ दी गयी थी। यहां यह बता देना जरूरी है कि राममंदिर विवाद अपने वर्तमान स्वरूप में धार्मिक कम और राजनीतिक ज्यादा है। इस बार जो सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया है, उसका आधार कि क्या अदालती फैसले आस्थाओं के आधार पर हो सकते हैं या उनके लिए वास्तविकता और साक्ष्य तथा कानून का आधार जरूरी है। अब सवाल उठता है कि अयोध्या मसले में अब अंतिम निर्णय क्या होगा और उस निर्णय का हमारे देश के मानस पर क्या असर पड़ेगा? यहां एक प्रश्न विचारणीय है कि इसके संबंध में उचित क्या होना चाहिए? क्या हम अपने देश की सामाजिक बुनावट को और मजबूत करना चाहते हैं अथवा उसे छिन्न - भिन्न करना चाहते हैं? रामजन्मभूमि का मसला देश के हिंदू साइक में राजनीति की सीढिय़ां चढ़कर पहुंचा है। राजनीतिक लाभ के लिए जनभावनाओं को भड़काने हेतु इसका उपयोग किया जाता रहा। नतीजा यह हुआ कि हमारे देश का 'सर्वधर्म समभावÓ का चरित्र ही संदेहास्पद लगने लगा। हर तरह के प्रयास किये गये। यह मसला सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक तौर पर हल नहीं किया जा सका और फिर यह विवाद घूम फिरकर अदालत में पहुंच गया है। हाई कोर्ट ने इस ओर प्रयास भी किया था पर संबंधित पक्षों में किसी ने इसे नहीं माना एवं अब सुप्रीम कोर्ट के सामने समस्या है कि यदि वह कानून, साक्ष्य और सबूत के आधार पर निर्णय करता है तो क्या निहित स्वार्थी राजनीतिक तत्व इसका लाभ उठाने से बाज नहीं आयेंगे। यह तो तय है कि सन् 1992 की स्थिति अब नहीं है। समाज वैचारिक तौर पर काफी आगे बढ़ चुका है। इसके दो ज्वलंत सबूत हैं। पहला कि, जब इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला सन् 2010 में आया था तो उस समय आशंका थी कि देश में एक बार फिर धर्मोन्माद की लहर फैलेगी पर वैसा कुछ नहीं हुआ और दूसरी बार जब सोमवार को सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया तो देश के किसी भाग में कोई सामाजिक हलचल नहीं हुई। ऐसी स्थिति में उम्मीद नहीं है कि धार्मिक मुद्दों पर जनमत इधर से उधर हो सकता है। हालांकि संभव है कि कुछ तत्व धार्मिक उन्माद भड़काने का प्रयास करें पर यह कार्य समाज के बुद्धिजीवियों का है कि वे उन तत्वों की कोशिशों को नजरंदाज करने के लिए देश के मानस को तैयार करें।
'ये जब्र भी देखा है तारीख की नजरों ने
लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पायी।Ó

ममता जी! अब चुनौतियों से होगी रस्साकशी!!


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हरिराम पाण्डेय
ममता जी का मुख्य मंत्री बनना निश्चित है वैसे विधायक दल के नेता चुने जाने की उनकी औपचारिकता भी पूरी हो गयी और शपथ ग्रहण की रस्म अदायगी होनी है। ममता जी ने चुनाव के पहले जिन उम्मीदों को बंगाल की जनता के भीतर जगाया है उससे लगता है कि बंगाल 21वीं सदी में राष्ट्र की मुख्य धारा का हिस्सा हो सकता है। यह एक नया बंगाल होगा जो अपनी अकर्मण्यता की बदनामी, खंडित तथा विविध ग्रामीण पृष्ठभूमि के बावजूद विकास और बदलाव का व्यापक केंद्र बनेगा। जी हां, बंगाल के लोगों ने अपने मन की बात कह दी है। उन्होंने विकास की निरंतरता का वायदा करने वाली सरकार को चुना है और फिर से सदियों पुरानी कम्युनिस्ट अवधारणा के जरिये विकास की बात करने वालों को बाहर का रास्ता दिखा दिया। अब माकपा को अपनी सोच में बदलाव लाना होगा और आत्मचिंतन करना होगा कि कौन सी सोच उनके राजनीतिक भविष्य के लिए खतरनाक बन गयी। लेकिन इस भारी जीत के बाद, ममता जी के सामने चुनौतियां और बढ़ गयी हैं। लोगों ने विकास के प्रति विश्वास जताया है और अगले 5 वर्षों में उनकी उम्मीदें और बढ़ेंगी। लोग चाहेंगे कि चुनाव प्रचार के दौरान जो वायदे किए गए सरकार उसे पूरा करे।
जवाबदेही और उत्तरदायित्व ही बंगाली जनता का पैमाना होगा जिसकी कसौटी पर पर वे सरकार को जांचेंगे और अपना अगला फैसला सुनाएंगें। अगले 5 साल तक ममता जी किसी भी प्रकार की उदासीनता के लिए केंद्र को दोषी नहीं ठहरा सकेंगी , क्योंकि केंद्र में भी वह हैं।
ममता जी और उनके सहयोगियों को साबित कर दिखाना होगा कि वे बंगाल में निवेश ला सकते हैं, उद्योगों की स्थापना करवा सकते हैं, बंगाल में रोजगार के अवसर मुहैया कराना होगा। उन्हें कानून व्यवस्था को बनाए रखना होगा। आपराधिक तत्वों पर नकेल कसनी होंगी। ईमानदार कर्मचारियों को अहमियत देनी होगी।
अभी तक किसी भी नेता ने इस सवाल का जवाब नहीं दिया कि विकास की रूपरेखा क्या होगी जिस पर ममता जी सरकार काम करेगी। नयी सरकार विविधताओं और संकीर्णताओं से भरे बंगाल में विकास के वायदे कैसे पूरी करेगी। सामाजिक एकता के लिए सरकार का क्या एजेंडा होगा। ममता जी की सरकार विकास के काम में ठेकेदारों और उनके मित्रों को मुनाफाखोरी से कैसे रोकेगी? साथ ही साथ सरकार नौकरशाहों के सामंती रवैयै को कैसे बदल पाएगी जो गरीबों तक सरकारी योजनाएं पहुंचने ही नहीं देते। तो सरकार इस तरह की दैनिक मुश्किलों से रूबरू होगी।
पत्रकार और राजनीतिक पर्यवेक्षक आने वाले दिनों में कई सवाल उठाएंगे। ममता सरकार अगर अपने वायदे में विफल रही तो आने वाले दिनों में उन्हें कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ेगा। मगर परिवर्तन के लिए डाला गया वोट अगले पांच साल में इस बात का आश्वासन है कि बंगाल भूख, गरीबी, कुशासन और भ्रष्टाचार के चंगुल में फिर से नहीं फंसेगा। अब उम्मीद है कि बंगाल के इस बदलाव में न्यूटन के बल का तीसरा नियम नहीं लागू होगा।
क्योंकि कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि लेफ्ट की हार का कारण अक्षम प्रशासन नहीं रहा है। कुछ गलतियां जरूर हुई होंगी, लेकिन रणनीतिक मामलों में भी लेफ्ट ने कई गलतियां की हैं। एक्सपर्ट्स का मानना है कि अगर 2009 में हुए लोकसभा चुनाव के पहले लेफ्ट पार्टियों ने यूपीए का साथ नहीं छोड़ा होता तो आज स्थितियां कुछ और होतीं। यूपीए के साथ रहने की स्थिति में तृणमूल और कांग्रेस मिलकर चुनाव नहीं लड़ पाते। दोनों अगर अलग-अलग चुनाव लड़ते तो लेफ्ट की जीत तय थी। इस बार वोटों का यह आंकड़ा उलट गया। लेफ्ट को करीब 41 प्रतिशत वोट मिले, वहीं 8 प्रतिशत बढ़त के साथ तृणमूल, कांग्रेस गठबंधन को 49 प्रतिशत वोट मिले। इन 8 प्रतिशत वोटों ने सीधी लड़ाई में तृणमूल गठबंधन की तकदीर बदल दी। पिछले चुनाव में दोनों पार्टियों को जहां 54 सीटें मिली थीं, वहीं इस बार 225 सीटें मिल गयीं। वहीं करीब 8 प्रतिशत के फर्क से लेफ्ट पार्टियों के सीटों की संख्या 233 से घटकर 63 पर आ गयीं। इसमें जो सबसे ध्यान देने वाली बात है, वह यह है कि लेफ्ट पार्टियों के वोट शेयर में बहुत ज्यादा गिरावट नहीं। यानी ये पार्टियां खत्म नहीं हुई हैं। इसलिये ममता लोगों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरना होगा वरना मुश्किलें आ सकतीं हैं।