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Thursday, November 21, 2013

पत्रकार हरिराम पाण्डेय को इंदिरा प्रियदर्शनी पुरस्कार

कोलकाता: हिन्दी के प्रख्यात पत्रकार व सन्मार्ग के सम्पादक हरिराम पाण्डेय को इंदिरा प्रियदर्शनी पुरस्कार से नवाजा गया। 'स्वर लहरी' संस्था की ओर से मंगलवार की शाम महाजाति सदन के एनेक्सी हॉल में आयोजित इस समारोह में वक्ताओं ने श्री पाण्डेय को युगांतकारी पत्रकार बताया। वक्ताओं का कहना था कि उनके सम्पादकीय में न सिर्फ सच के तेज है बल्कि निर्भीकता और स्पष्टता भी है। उनकी लेखनी में समाज को दिशा देने की लियाकत है जो देश की सामाजिक समरसता को कायम रखने में एक महती भूमिका का निर्वाह करती है। कार्यक्रम का संचालन कर रहे संस्था के अध्यक्ष श्याम सुंदर पोद्दार ने कहा कि हरिराम पाण्डेय ऐसे परिवार से जुड़े रहे हैं जिनका राष्ट्रीयतावाद से गहरा नाता है। वे एक ऐसे पुलिस अधिकारी के पुत्र हैं जिन्होंने अंग्रेजी शासनकाल में चंद्रशेखर आजाद को सूचना दी थी कि वे घटनास्थल से भाग जायें उनकी जान कर खतरा है किन्तु वहां से नहीं भागे। श्री पोद्दार ने कहा कि पाण्डेय जी के नेतृत्व में सन्मार्ग ने देश के कई प्रमुख समाचारपत्र घरानों के अखबारों से लोहा लिया है और पश्चिम बंगाल में अपनी एक नम्बर की स्थिति के बरकरार रखा है। कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर पूर्व न्यायाधीश चित्तरंजन बाग एवं समाजसेवी केदारनाथ धूत उपस्थित थे। इस अवसर पर संस्था के संयोजक विजय गुजरवासिया, महामंत्री राजेश खन्ना, समाजसेवी भानीराम सुरेका आदि उपस्थित थे।



साभार: भड़ास 4 मीडिया

Sunday, October 20, 2013

एक परीकथा: सपने में सोना

21.10 2013 एक कथित साधु ने सपना देखा कि एक ताल्लुकदार के किले की नींव में सैकड़ों टन सोना दबा हुआ है और चूंकि देश की अर्थव्यवस्था खस्ताहाल है इसलिये इससे मदद मिल सकती है। अब कहने को उस साधु ने वक्त के हाकिम को और अन्य लोगों को लिखा नतीजतन खुदाई शुरू हो गई। सोना नहीं मिला क्योंकि सपने में सोना मिलना और जमीन के भीतर सोना मिलने में काफी फर्क है। अब किले की खुदाई करने वाली संस्था जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (जी एस आई) वाले यह कहते चल रहे हैं कि उनका सोने से कुछ लेना- देना नहीं है बल्कि वे तो ऐतिहासिक तथ्यों की पड़ताल के लिये खुदाई कर रहे हैं। अब जहां तक डौंडिया खेड़ा, जिवा उन्नाव , उत्तर प्रदेश के किले के इतिहास का सवाल है तो यह किला राजा रामबख्श का था और वहां सिपाही विद्रोह के जमाने में अंग्रेज कमांडर कॉलिन कैम्पबेल के सिपाहियों से रामबख्श के नेतृत्व में विद्रोहियों की जंग हुई थी। खजाने की तलाश में चलती सरकारी कुदालों का यह नजारा भारत की पूरी दास्तान बयां कर देता था। यह एक बेजोड़ नजारा है, जहां भारत के भूत, भविष्य और वर्तमान एक साथ झलक रहे थे, इससे हम जान सकते हैं कि हम जो हैं, वह क्यों हैं। उन्नाव का यह गांव भारत का मिनिएचर मॉडल बन गया है। यह दास्तान उसी अवैज्ञानिक सोच और भाग्यवाद की है, जिसने भारत का इतिहास गढ़ा। पुराने सबूत बहस, तर्क और बौद्धिक उत्तेजना की एक लंबी परंपरा की गवाही देते हैं, जो भारतीय दर्शनशास्त्र के छह अंगों के बीच चली। हालांकि साइंटिफिक थिंकिंग में भारत का दावा तब भी कमजोर ही रहा, लेकिन जब से मिथक और भाग्यवाद के आगे घुटने टेक दिये गए, तब से चेतना का अंधकार युग ही चलता गया। किसी समाज को कुएं में धकेलना हो तो भाग्यवाद की घुट्टी से बेहतर जहर कोई और नहीं हो सकता। भाग्यवाद हमारा कर्मों में यकीन खत्म कर देता है। वहां खजाने सिर्फ सपनों में दिखते हैं और वहीं दफन भी हो जाते हैं। हम जमींदोज दौलत के ऊपर घुटनों में सिर दिए ऊंघते रहते हैं। उसी ऊंघ में हम गौरव और महानता के भी सपने देखते हैं और हमारा खून खौलता रहता है। वही तंद्रा हमें जातीय या धार्मिक जोश भरते हुए कुर्बानी के लिए बेचैन बना देती है। हमारे सपनों में वक्त ठहर जाता है। हमारा अतीत ही हमारा भविष्य बन जाता है। इस मोड़ पर हम यह जानते हैं कि भारत की दुर्दशा का इतिहास क्या था, लेकिन यह घटना बताती है कि इक्कीसवीं सदी में भी हम उसी सपने में जी रहे हैं। भाग्यवाद पर हमारी आस्था और साइंटिफिक सोच को सस्पेंड रखने की हमारी काबिलियत में जरा भी फर्क नहीं आया है। हम इस छल को कायम रखे हुए हैं कि 'सोने की चिडिय़ाÓ के पंजों के नीचे सोने का ज्वालामुखी फूट पड़ेगा। यहां तक कि हम अपने साइंस(जी एस आई पढ़ें) को भी सपने के हवाले कर देते हैं। तरक्की नींद से बाहर घटने वाली घटना है। असल तरक्की उन्हीं समाजों की है, जो अपने काम पर यकीन करते हैं, जो अतीत की ओर मुंह किए नहीं रहते या फिर जिनके पास कोई अतीत होता ही नहीं। उजड़े हुए समुदाय इसीलिए पुरुषार्थी होते हैं कि भाग्य पहले ही उनका साथ छोड़ चुका होता है। भारत की ट्रेजिडी यह है कि हर चोट के साथ इसकी नींद लंबी होती चली गई। क्या इसे बेहोशी कहा जाए? हजार साल लंबी बेहोशी? कुछ बरस पहले ऐसा लगने लगा था कि भारत इस नींद से बाहर आ रहा है। इस जवान देश में पीढ़ीगत बदलाव के साथ बहुत से खानदानी दोष बेअसर होते दिख रहे थे। उम्मीद बनी थी कि भारत अब अतीत के नहीं भविष्य के सपने देखेगा। यह घटना इस उम्मीद के खिलाफ ऐलान की तरह है। अगर आप पॉजिटिव ख्याल के हैं तो बस इतना सोच सकते हैं कि यह घटना नींद और चेतना के बीच, सपने और हकीकत, भाग्य और पुरुषार्थ, अतीत और भविष्य के बीच एक टकराव है, एक जंग है। यह जंग, उम्मीद है कि, तरक्की के पाले में ही जाएगी। भारत को पीछे ले जाने वाले खयालात की हार हम पहले भी देख चुके हैं। सोने का यह सपना हमारे भविष्य को हमेशा के लिये खोने से पहले जगा भी सकता है।

Saturday, October 19, 2013

प्रचार की झंझा में मोदी का झांसा

17 अक्टूबर 2013 चुनाव नजदीक आ रहे हैं और इसमें चुनाव सर्वेक्षणों का बाजार गरम है। हालांकि अपने देश के मतदाताओं को समझना बहुत मुश्किल है पर ये लोग जुटे हैं सर्वेक्षणों में। कहा जा रहा है कि वे अगले पी एम होंगे। मोदी या उनके प्रचारक गुजरात को ही विकास का माडल बना कर पेश कर रहे हैं, पर सच क्या है? सीएजी के मुताबिक राज्य में हर तीसरे बच्चे का वजन औसत से कम है। सी ए जी ने अपनी इस ताजा रिपोर्ट में साफ किया है कि गुजरात में हर तीसरा बच्चा कुपोषण से पीडि़त है। यहां पूरक आहार प्रोग्राम के लिए 223 लाख 14 हजार बच्चे योग्य थे, लेकिन इनमें से 63 लाख 37 हजार बच्चे छूट गए। कुपोषण के मामले में लड़कियों की स्थिति तो लड़कों से भी बदतर है। लड़कियों के पोषण कार्यक्रम में 27 से 48 फीसदी तक कमी देखी गई। रिपोर्ट के मुताबिक गुजरात में 1 करोड़ 87 लाख लोगों को बाल विकास योजना का फायदा नहीं मिल पाया है। सीएजी ने मोदी के गुजरात मॉडल की तस्वीर पेश करते हुए कहा कि आंगनबाड़ी के 9 से 40 फीसदी केंद्रों में साफ पानी, टॉयलेट और इमारत की सुविधा नहीं है। राज्य में 75, 480 आंगनबाड़ी केंद्रों की जरूरत थी जबकि केवल 52, 137 केंद्रों को ही मंजूरी दी गई जिसमें से 50, 225 ही काम कर रहे हैं। यही नही, गुजरात की आर्थिक विकास दर में उछाल भी नहीं आ रहा है? क्यों? वित्त मंत्रालय द्वारा प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2005 से 2011 के बीच महंगाई काटने के बाद देश के प्रमुख राज्यों की प्रति व्यक्ति आय में इस प्रकार की प्रतिशत वृद्धि हुई है- महाराष्ट्र 12.5, तमिलनाडु 12.2, बिहार 12.0, हरियाणा 9.3, कर्नाटक 7.7 और गुजरात 7.7। इनमें बाकी अग्रणी राज्य तमाम समस्याओं से ग्रसित हैं, जैसे बिजली की अनुपलब्धि और चौतरफा भ्रष्टाचार। फिर भी इनकी विकास दर गुजरात से ज्यादा क्यों है? गुजरात की विद्वान दर्शिनी महादेविया ने यह गुत्थी सुलझाई। उन्होंने बताया कि मोदी के नेतृत्व में विकास बड़े शहरों पर केंद्रित हैं। छोटे शहरों और गांवों की हालत कमजोर है। गुजरात सरप्लस बिजली को बेच रहा है जबकि 11 लाख परिवार अंधेरे में हैं। यह बिजली इन परिवारों को मिलती तो इनकी क्रयशक्ति बढ़ती और गुजरात की विकास दर में इजाफा होता। राज्य की आबादी का बड़ा हिस्सा 'विकास' से वंचित है। यहां न रोजगार है, न पक्का मकान और न सड़क। इनकी स्थिति जैसी 10 वर्ष पहले थी वैसी ही अब है। इसलिये दूसरे राज्यों की विकास दर गुजरात से ज्यादा है। गुजरात में आर्थिक विकास शहरों के ऊपरी और मध्यम वर्गों में केंद्रित है। यहां सब ठीकठाक है परंतु राज्य की आधी आबादी विकास से वंचित है। दूसरे राज्यों में शहर और गांव में ऐसा अंतर नहीं दिखाई देता। अत: सब कुछ अच्छा होते हुए भी गुजरात की विकास दर सामान्य है। व्यक्ति का दिमाग स्वस्थ हो परंतु शरीर को लकवा मार गया हो, ऐसा गुजरात का विकास दिखाई देता है। यही कारण है कि रघुराम राजन के नेतृत्व में गठित कमेटी ने विकास के मानदंड पर गुजरात को 12वें स्थान पर रखा है जबकि उद्यमियों से बात करें तो गुजरात निस्संदेह पहले स्थान पर है। राजन कमेटी ने विकास के मानदंडों में सामान्य आबादी से संबद्ध सूचकांकों को महत्व दिया है, जैसे बाल मृत्यु दर, महिला साक्षरता, पेयजल जैसी घरेलू सुविधाएं और प्रति व्यक्ति खपत। इन मानदंडों में सुधार तभी संभव है जब कमजोर वर्ग की आय में वृद्धि हो। शहरों में बसे खुशहाल वर्गों की आय में पांच गुना वृद्धि हो जाये तब भी गुजरात 'पिछड़ा' ही माना जाएगा, क्योंकि इन सूचकांकों में सुधार नहीं हो सकेगा। शहरी ऊपरी वर्ग मस्त है इसलिए गुजरात मॉडल लोकप्रिय है, परंतु गरीब पस्त है इसलिए गुजरात 'पिछड़ा' है। अब सवाल उठता है कि विकास का ऐसा झांसा देकर और प्रचार के बल पर देश में छा जाने की कोशिश करने वाला क्या देश के अधिकांश गरीबों का हमदर्द होगा? मोदी को राम का अवतार बताने वाले क्या ऐसे ही रामराज्य की कामना करते हैं?

यह कैसी आस्था है?

15 अक्टूबर 2013 उत्साह से सराबोर दुर्गापूजा समाप्त हो गयी। चार दिनों तक महानगर के लाखों लोगों को केवल उत्सव की सुध थी और कुछ नहीं। इस बीच तूफान आया, बारिश हुई पर उत्साह की चमक कहीं फीकी होती नहीं दिखी। कहते हैं दुर्गापूजा का इतना उत्साह दुनिया में कहीं देखने को नहीं मिलता। लेकिन विजयादशमी के दिन से ही जो बात सबसे ज्यादा खटकने लगी वह थी पूजा के दौरान सड़कों पर लगे मां दुर्गा और अन्य देवी , देवताओं के चित्र जो फट कर बिखर गये थे और पैरों से रौंदे जा रहे थे। इस बीच एक सुधी पाठक एस पी बागला ने टेलीफोन कर पूछा कि क्या देवी- देवताओं के चित्रों का ऐसा अपमान उचित है और इसे रोकने के लिये क्या उपाय किये जाएं? अचानक उत्तर नहीं सूझा। सचमुच , यह एक विकट समस्या है कि उन्मुक्त समाज को किसी ऐसे नियम से आबद्ध नहीं किया जा सकता जो सर्वमान्य न हो साथ ही ऐसे मसलों को रोकने के लिये कानून बनाने की बात सोची भी नहीं जा सकती। तब इसका एक मात्र तरीका है कि आस्थावान जन समुदाय में देवी- देवताओं के चित्रों के अपमान को रोकने की चेतना जागृत की जाय। आखिर क्यों जिन देवी-देवताओं की मंगलमूर्तियां अपने मन मन्दिर में संजोकर नित्य आराधना में तल्लीन रहते हैं उन देवी-देवताओं का अपमान अनजाने में हम किस तरह कर बैठते हैं इस पर मनन की आवश्यकता है। जब विदेशों में चप्पलों और अन्त: वस्त्रों पर देवी-देवताओं के चित्र छपते हैं तो इसका घोर विरोध होता है लेकिन अपने ही देश में और अपने ही घर में हम अपने देवी-देवताओं का अनवरत अपमान करते जा रहे हैं। इसी तरह विवाह निमंत्रण पत्रों पर देवी-देवताओं के चित्र देना गलत है, लगभग हर निमंत्रण पत्र पर विघ्नविनाशक अपनी पूरी सुन्दरता के साथ मौजूद होते हैं। अब आखिर कितने कार्ड संभाल कर रखे जा सकते हैं और वो भी कितनी देर ? इससे धार्मिक मूल्यों का अपमान होता है। विवाह के कार्ड के निमंत्रण पत्र पर देवी-देवताओं के चित्र तो लगाए जाते हैं लेकिन कार्यक्रम समाप्ति के पश्चात उन्हें कूड़ेदान में फेंक कर स्वयं ही अपमानित कर बैठते हैं। लोग जहां थूकते हैं या अन्य तरह की गंदगी करते हैं तो उन्हें रोकने के लिये उन गंदे स्थानों पर विभिन्न देवी देवताओं के चित्र बने टाइल्स लगाये जाते हैं, क्या आप अपने स्वर्गीय मां- बाप के चित्र वहां लगाने देेंगे? इतना ही नहीं सरसों तेल के डब्बे पर भगवान के ट्रेड मार्क को दिखा - दिखा कर और प्रचारित कर उत्पादक और विक्रेता अमीर हो गये उसी सरसों तेल के भगवान के चित्र लगे डब्बे जब टॉयलेट में इस्तेमाल किये जाते हैं और हम जरा भी ध्यान नहीं देते। अगर देवी- देवताओं के चित्र वाले चुनाव चिन्हों पर रोक लग सकती है तो इन चित्रों के ट्रेडमार्क के रूप में उपयोग पर क्यों नहीं बंदिशें लगायी जा सकती हैं? यही नहीं, घरेलू उपयोग के अन्य सामान अथवा किराने के रैपर , चाबी के छल्ले , अखबार के विज्ञापन, की होल्डर आदि में भी अलग- अलग देवी- देवताओं की तस्वीर नजर आ जाती है अब इनमे से कितनी चीजें संभाल कर रखी जा सकती हैं ? आखिर मंदिर के अहाते में बने बरगद, पीपल के पेड़ों पर भी आप कितनी तस्वीरें अर्पण कर सकते हैं। वहां से भी साफ -सफाई के बाद कूड़ा घर में ही जाती है यह सामग्री। प्यार और सम्मान तो हम अपने अभिभावकों का भी करते हैं पर क्या उनकी तस्वीरों का इस तरह सार्वजनीकरण कर अपमानित होते देख सकते हैं ? अपने इष्ट देवों को हम आत्मीय और अभिभावकों से भी ऊंचा दर्जा देते हैं फिर उनका इस तरह अपमान क्यों ? इस प्रकार हर स्थान पर बेवजह उनकी तस्वीरों का प्रयोग कर हम उनके प्रति सम्मान प्रकट कर रहे हैं या अपमान? क्या इस तरह अपने देवी- देवताओं का सार्वजानिक उपयोग कर हम उनका अपमान नहीं कर रहे हैं? क्या अपने देवी- देवताओं के प्रति सम्मान और श्रद्धा प्रकट करने का और कोई बेहतर विकल्प हमारे पास नहीं है। जरा सोचिये।

अपने मन का रावण मारें

10 अक्टूबर 2013 विजयादशमी आने ही वाली है। हम पराजित किस्म के लोग विजयादशमी मनाकर खुश होने का स्वांग भरते रहते हैं, क्योंकि इसी दिन भगवान श्रीराम को महाशक्ति दुर्गा ने विजयीभव का आशीर्वाद दिया था। महाशक्ति के आशीर्वाद से ही भगवान श्रीराम ने रावण पर विजय पायी। सीता को उसके चंगुल से ही नहीं छुड़ाया बल्कि जो वचन उन्होंने विभीषण को दिया था - लंकेश कहकर, उस वचन को भी निभाया। बाद में अपने भाई लक्ष्मण के साथ पुन: अयोध्या लौटे और अवध की संस्कृति को जन-जन तक पहुंचाया। यहीं नहीं उन्होंने मर्यादा की अद्भुत मिसाल कायम की। उस मर्यादा की जिसके कारण उनका एक नाम मर्यादा पुरुषोत्तम भी पड़ गया। लेकिन आज उसी देश की स्थिति क्या है जहां राम का जन्म हुआ था? हालात ठीक वैसे ही हैं जैसे राम के समय में थे। भारत की सभ्यता और संस्कृति व आध्यात्मिक शक्ति पर रावण की नजर थी, उसकी सेना और गुप्तचर अयोध्या की सीमा तक पहुंच चुके थे, स्थिति ये थी की कोई सुरक्षित नहीं था। महर्षि विश्वामित्र को इसका आभास था । इसलिए भारत को अखंड रखने के लिए, अपने यज्ञ को बीच में ही छोड़कर अयोध्या पहुंचते हैं और महाराज दशरथ से राम और लक्ष्मण को मांग लेते हैं। आज हम बाहर रावण का दहन करते हैं और अपने भीतर उसे पालते हैं। रावण का कद बढ़ता जा रहा है और राम बौने होते जा रहे हैं। अच्छे लोग हाशिये पर डाल दिए गए हैं। गाय की पूजा करेंगे और गाय घर के सामने आकर खड़ी हो जायेगी तो गरम पानी डाल कर या लात मार कर भगा देंगे। बुरे लोग नायक बनते जा रहे है। नयी पीढ़ी के नायक फिल्मी दुनिया के लोग हैं। राम-कृष्ण, महावीर, बुद्ध, गांधी आदि केवल कैलेंडरो में ही नजर आते है। यह समय उत्सवजीवी समय है, इसीलिए तो शव होता जा रहा है। अत्याचार सह रहे हैं लेकिन प्रतिकार नहीं। प्रगति के नाम पर बेहयाई बढ़ी है। लोकतंत्र असफल हो रहा है। देखे, समझें। और महान लोकतंत्र के लिए जनता को तैयार करें। बहुत हो गया ऊंचा रावण, बौना होता राम, मेरे देश की उत्सव-प्रेमी जनता तुझे प्रणाम। विजयादशमी संकल्प लेने का पर्व हैं ये उत्साह और जोश भरने का पर्व नहीं, बल्कि संकल्पित होकर देशसेवा के व्रत लेने का दिन है। अपने अंदर चरित्र निर्माण और देश निर्माण का व्रत लेने का पर्व है। वो भी व्रत कैसा, लाखों संकट क्यों न आ जाये, पर धैर्य नहीं खोना है। राम की तरह अटल रहना है। महर्षि वाल्मीकि की रामायण हो या तुलसी की श्रीरामचरितमानस अगर समय मिले तो पढ़े, पायेंगे कि राम ने सिर्फ दिया, लिया नहीं। जो देता है वही सर्वश्रेष्ठ है जो पा लिया वो कभी श्रेष्ठ नहीं हो सकता, सर्वश्रेष्ठ की तो बात ही भूल जाइये। यही कारण है कि राम के आगे सभी नतमस्तक हैं , कबीर की पंक्तियां हो या रविदास की पंक्तियां या इन पंक्तियों को पाकर किसी ने अपना जीवन धन्य-धन्य कर लिया हो, राम तो राम हैं, उन्हीं में समाने में आनन्द है, शायद विजयादशमी भी यही बार - बार कहता हैं कि जैसे राम ने रावण रूपी चरित्र का अंत कर दिया, आप भी अपने अंदर समायी हुई बुराई रूपी रावण का अंत कर लो, ताकि जीवन आपका राममय हो जाय।

Saturday, April 13, 2013

100 political clashes every month in Bengal: RTI


West Bengal witnesses 100 violent political clashes every month: RTINew Delhi: Political violence has been rising in West Bengal under the government of Chief Minister Mamta Banerjee. There have been 642 cases of violent clashes related to students politics in the first five months of Mamata Banerjee's tenure. While 27 people have lost their lives at least 926 political workers and 128 students have been injured in the clashes. Statistics reveal that there are 100 clashes every month in West Bengal. The State Crime Records Bureau (SCRB) has made the disclosure in reply to a RTI query by Singur resident Shyamal Mitra. Mitra had sought details of violent clashes which took place between May 13, 2011 and October 31, 2011 through RTI in the state. The RTI statistics has revealed that 5 Trinmool supporters and 10 CPM activists have died in the clashes. In the violence clashes 2 Congress activists and 10 others have also lost their life. In response to the RTI SCRB informed Mitra that 586 cases of political violence and 56 clashes between student groups took place in different places of the state. According to the RTI report 789 political activists, which does not include students, were injured. The injured included 446 Trinmool supporters, 274 from the CPM, 37 Congress activists and 41 from other parties like the RSP, Forward Block, Samajwadi Party and BJP. During the same period 128 students were injured in 56 cases of clashes.

West Bengal: A State in political violance


India’s eastern state of West Bengal made history in May 2011 when the All India Trinamool Congress, led by Mamata Banerjee, defeated the Left Front government that had ruled the state for 34 consecutive years. Two years later, however, Banerjee has disappointed many in the state, which has become a byword for backwardness and economic stagnancy over the past three decades.In the latest of many unflattering reports on the state, media recently revealed that a number of cadres from the ruling party were allegedly involved in a bout of violence and vandalism on the campus of Presidency College in Kolkata. The state was outraged over the large scale destruction to the campus as well as the violence against students, which included some threatening female students with rape. Students, professors and university leaders have taken to the streets in protest, demanding that the purported culprits be held legally responsible. According to reports, the accused Trinamool members attacked the campus in retaliation for the heckling of Banerjee and West Bengal’s Finance Minister Amit Mitra in New Delhi on April 9 by activists from the Student Federation of India (SFI), a student wing of the Communist Party of India (Marxist) (CPI-M). The student protestors were angered by the death of an SFI leader in West Bengali police custody on April 2. Banerjee called the death “petty,” angering the students. Political violence has been a reality in the state for quite some time, dating back to the 34-year reign of the Left Front government. Although many hoped that the Trinamool Congress would change this, the party has instead become a paragon of political intolerance.The enormous political upheaval that resulted from the Trinamool Congress uprooting the Left from power has not brought the kind of changes many hoped for. Instead, the old power structures and oppressive methods of rule have only changed hands. Furthermore, Banerjee demonstrates her proud sense of insecurity by branding the slightest dissent as Maoism. Last year a Jadavpur University professor was even arrested for circulating a picture poking fun at Banerjee and Railway Minister Mukul Roy. The party’s mandate in 2011 was not only to usher in a new political culture, but also to reenergize the state’s stagnant economy. However, little work has gone into changing West Bengal’s economic situation to date. Earlier this year, Banerjee held an investment summit in Kolkata, which failed to attract major investors, despite the fact that the area was once a leading industrial state in the pre-liberalization era.While in power she has not made any significant attempts to change her image in the eyes of industrial leaders. Last year Banerjee withdrew her support from the United Progressive Alliance (UPA) government in Delhi on the issue of Foreign Direct Investment (FDI) in the retail sector.If Banerjee is to spur positive change in West Bengal, she must address the parochial political outlook and economic stagnation going forward.

Friday, April 12, 2013

कल्पतरु एक्सप्रेस में दिनांक 12 अप्रैल 2013 को छपा एक आलेख

Friday, January 25, 2013

कोलकाता कल्लोलिनी है, तिलोत्तमा है

हरिराम पाण्डेय किसी शहर को सुंदरी के रूप में देखा जाना सचमुच बड़ी अजीब कल्पना है। लापियरे ने बेशक कोलकाता को जीवंत तौर पर परखा है लेकिन तिलोत्तमा के रूप में इस शहर की कल्पना के साथ ही कोलकाता के बारे में गालिब का वह शेर याद आता है कि, जिक्र कलकत्ते का तूने किया जो जालिम इक तीर मेरे दिल में वो मारा के हाय हाय। गालिबन मिर्जा गालिब दुनिया के पहले शायर थे जिन्होंने कोलकाता या कलकत्ता में दुविधाओं के बीच भी जीवन की राह तलाशनी शुरू की थी। कोलकाता ऐसा शहर है जहां सवाल ईमान और कुफ्र का नहीं, सवाल धर्मी और विधर्मी का नहीं, सवाल एक नयी रोशनी का है एक नये नजरिये का है। पता नहीं आपको मालूम होगा या नहीं कि जब हम किसी शहर को देखते हैं तो वह शहर भी हमें देखता है। हुगली नदी के किनारे तीस मील की लम्बाई में बसा हुआ महानगर, एक करोड़ के आसपास आबादी जिसके जवाब में सिर्फ टोकियो, लन्दन और न्यूयॉर्क के नाम लिए जा सकते हैं लेकिन इसमें उनसे कहीं ज्यादा वहशतें आबाद हैं। आसमान की बुलंदियों से नीचे देखें तो दूर-दूर तक हरियाली दिखाई देती है, कहीं गहरी सियाही, कहीं पीलाहट लिए हुए। लेकिन ये सारे रंग प्रदर्शन , अभिव्यक्ति के लिए बेचैन एक अनदेखी ऊर्जा का रूपक हैं। ठीक वैसे ही जैसे सोलहों सिंगार के बाद कोई सुंदरी दर्पण देखने को बेचैन होती है। आसमान से दिखने वाली इन्हीं हरियालियों में यहां-वहां चमकता, चौंकता, कौंधता हुआ पानी। झीलें, नहरें और नदी। एक तरफ हद्दे नजर तक फैली हुई चांदनी की चादर। एक नन्हा सा बिंदु इस लैंडस्केप में धीरे-धीरे फैलता जाता है और एक शहर की तस्वीर उभरती है। कुत्ते के पैर जैसी आकृति रखने वाली चौड़ी भूरी नदी के गिर्द बसा हुआ यह शहर, किनारों पर लंगर डाले कश्‍ितयां और जहाज, बड़ी बड़ी क्रेनेंं, मिलों की चिमनियां और कारखानों की जंग लगी लोहे की चादरों की छतें। फिर जरा और नीचे आने पर ताड़ के झुण्ड दिखते हैं। एक तरफ से झुण्ड से उभरता हुआ ब्रिटिश राज की यादों में बसे हुए पुराने गिरजे की सफेद खामोश मीनार जैसे स्कूली जमाने की किताबों में प्रेमी द्वारा दिये गये सूखे फूल। यह शहर अजीब द्वन्द्व का है और अनोखे टकराव भरे तजुर्बों का। गालिब ने लिखा है कि जब वे यहां से लौटे तो 'जेहन में आधुनिकता लेकर लौटे थे।Ó मैने कहा न कि टकराव भरे तजुर्बे का यह शहर है। ठीक एक शायर की तरह , चौदहवीं की रात में शब भर रहा चर्चा तेरा किसी ने कहा चांद है, मैंने कहा चेहरा तेरा लॉर्ड क्लाइव के खयाल में कलकत्ता दुनिया की सबसे बुरी बस्ती थी, लेकिन एक अंग्रेज अफसर विलियम हंटर ने एक रात अपनी प्रेमिका को लिखे पत्र में कहा 'कल्पना करो उन तमाम चीजों की जो फितरत में सबसे शानदार हैं और उसके साथ-साथ उन तमाम कलाकृत्तियों का जो कला के मामले में सबसे ज्यादा हसीन हैं, फिर तुम अपने आप कलकत्ता की एक धुंधली सी तस्वीर देख लोगी। Ó उन्नीसवीं सदी के अंत में चर्चिल ने अपनी मां से कहा था 'कलकत्ते को देखकर मुझे हमेशा ख़ुशी होगी क्योंकि इसे एक बार देखने के बाद दोबारा देखने की जरूरत नहीं रह जाती। ये एक शानदार शहर है। रात की ठण्डी हवा और सुरमई धुन्ध में ये लन्दन जैसा दिखाई देता है।Ó कोलकाता एक बहुवचनी नगर है। एक में अनेक - मोराज(फिल्म संग्रथन) की तरह। कोलकाता अर्धनारीश्वर महानगर है। एक अंग से राजनीति का तांडव है तो दूसरे से दुर्गा उत्सव, रवींद्र संगीत का लास्य-टू-इन-वन। 'भीषण सुंदरÓ या 'दारुण सुंदरÓ जैसे बंगला के विरोधाभासी शब्द युग्म विरोधों के सामंजस्य के प्रतीक हैं या विपरीतों के मिलनोत्कर्ष के? तभी तो 'वर्ग संघर्षÓ के 'भीषणÓ के साथ अमीरी का 'सुंदरÓ मजे में मिल कर रहता है। मुझे नहीं लगता कि सुरुचि, सौंदर्य, कोमलता, दर्शन, भक्ति, कल्पना, प्रेम, करुणा, उदासी जैसी भाव-राशि को कोलकाता ने वैज्ञानिक यथार्थवाद के दुद्र्धर्ष काल में भी कभी त्यागा होगा। शरद और रवींद्र कभी उसके जीवन से परे धकेले न जा सके। रवींद्र और नजरूल या सुभाष और राम कृष्ण की पूजा कोलकाता एक ही झांकी में बराबर से कर सकता है। तभी तो कोलकाता पूरे भारत का कोलाज बना हुआ है। कोलकाता का स्वभाव सुंदरियों की तरह लिरिकल है - गेय है। कोई भी शुभारंभ यहां बिना रीति के नहीं होता। आंदोलन या उग्र रैली (मिछिल) में भी जो नारे लगाए जाते हैं वे बोल कर नहीं गाकर लगाए जाते हैं। अन्याय अत्याचार के नारे भी गेय हैं और उसे 'चलने न देंगेÓ का उद्घोष भी गेय है - 'चोलबे ना, चोलबे नाÓ नारा भी वे ऐसा झुलाते हुए लगाते हैं कि उसे कहीं न गद्य का झटका लगे, न ठहराव आए। कभी आपने सोचा है कि कोलकाता पर लिखी प्राय: सभी कविताएं उसकी प्रशंसा और सामथ्र्य में क्यों लिखी गई हैं, जबकि दिल्ली पर लिखी कविताओं में दिल्ली के प्रति तल्खी, आशंका, भय और निंदा से भरी है? कोलकाता भी एक 'गोपनÓ का नाम है,और बंगाल भी। वह भी अपने मूल्यवान को दबाए-ढांपे हैं, यहां जो कुछ भी मूल्यवान और अप्रतिम है उसे आप सतह पर नहीं पा सकते - फिर चाहे वस्तु हो या व्यक्ति। कोलकाता का पारंपरिक और किसी हद तक वर्तमान वास्तु इसका प्रमाण है कि बाहर से देखने पर भीतर खुलने वाले भव्य और विराट का अनुमान नहीं लगा सकते।

Wednesday, January 23, 2013

हिंदू आतंकवाद या कांग्रेस का छद्म सेक्युलरवाद

हरिराम पाण्डेय 24 जनवरी 2013 गृहमंत्री महोदय ने कांग्रेस चिंतन शिविर के मंच से एक 'नायाबÓ रहस्योद्घाटन किया कि संघ की शाखाओं में हिंदू आतंकवादी तैयार किये जा रहे हैं। बाद में कुछ नेताओं ने उसे राजनीतिक रंग देने के लिये कहा कि उनका (गृहमंत्री का) मंतव्य था भगवा आतंकवाद से। भगवा आतंकवाद की बात तो हमारे चिदम्बरम साहब अरसे से उठा रहे हैं। अब कांग्रेसी भगवा से दूर जा कर हिंदू आतंकवाद की बात कर रहे हैं। वे तो बात यह भी कर रहे हैं कि महात्मा गांधी हिंदू आतंकवाद की भेंट चढ़ गये। शायद वे यह भी कहें कि इंदिरा जी सिख आतंकवाद की शिकार हुई और राजीव गांधी तमिल आतंकवाद के शिकार बन गये। भारत में आतंकवाद के बढऩे का कारण ही है उसे खांचों में बांट कर परिभाषित किया जाना और तदनुरूप उससे निपटने की कोशिश करना। जहां तक हिंदू आतंकवाद का सवाल है तो माननीय गृहमंत्री महोदय को यह तो मालूम होगा कि इस धरा पर कुल आबादी जितनी है उसमें हर छठा आदमी हिन्दू है। साथ ही हिंदुओं में आतंकवाद की भावना ना के बराबर होती है वरना यह कौम अपनी समस्त वीरता और दौलत के बावजूद सैकड़ों साल तक गुलाम नहीं रहती। इस बात के तमाम ऐतिहासिक, शास्त्रीय प्रमाण उपलब्ध हैं कि भारत की असली खूबी दरअसल इसकी सनातनी विचार धारा में है। इसी खूबी के कारण आज भी उसका अस्तित्व कायम है। यूनान मिस्र ओ रोमां सब मिट गये जहां से, अब तक मगर है बाकी नामोनिशां हमारा। कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी सदियों से रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा। यह हिंदुत्व ही है, जो भारतीय ईसाइयों या मुसलमानों को ब्रिटिश ईसाई और अरबी मुसलमान से अलग करता है और उसे उतनी इज्जत देता है, जितनी वह अपने साथी को देता है। दुनिया में हिन्दू ही एक ऐसी कौम है जो न केवल अवतारों पर भरोसा करती है बल्कि वह इस बात पर भी विश्वास करती है कि समय - समय पर विभिन्न स्वरूपों में भगवान का अवतरण हो सकता है - 'तदात्मानं सृजाम्यहम्।Ó अब तक का इतिहास गवाह है कि हिंदुओं ने कभी किसी पर हमला नहीं किया है और ना अपना धर्म जबरदस्ती मनवाने की कोशिश की है। तैमूरलंग द्वारा हिंदुओं के कत्ल-ए - आम से लेकर गोवा में ब्राह्मïणों का कत्ल और कश्मीरी पंडितों पर जुल्म इनके प्रतिकार के लिये क्या कभी किसी हिंदू संगठन ने कुछ किया? अगर गृहमंत्री जी को मालूम हो तो देश को बताएं। लोग अगर आतंकवाद को सांप्रदायिक नजरिए से देखने की आदत रखेंगे, तो भगवा आतंकवाद, लाल आतंकवाद, हरा आतंकवाद, हिंदू आतंकवाद, मुस्लिम आतंकवाद, सिख आतंकवाद, तमिल या लिट्टे आतंकवाद आदि मुहावरे बनेंगे और चलाए जाएंगे। यह नजरिया कहां तक उचित है, इस पर बहस होनी चाहिए और सही नजरिए से जो नजारे हमारी नजरों के सामने हैं, उसे देखने की कोशिश होनी चाहिए। इस प्रकार के बयान और विश्लेषण कांग्रेस खुद को सेक्युलर साबित करने के लिए करती है। बाबरी मस्जिद का गिरना कांग्रेसी छद्म सेक्युलरवाद के आस्मानी महल का गिरना था। यह उसके छद्म सेक्युलरवाद का प्रमाण है। अब रही बात संघ और बीजेपी की, तो उसके हाथ में भगवा झंडा है। मुंह में नारा है 'गर्व से कहो हम हिंदू हैंÓ, मगर कांग्रेसियों की तरह उसकी भी हिंदूवाद में निष्ठा नहीं है। इसका प्रमाण है- राम मंदिर का निर्माण नहीं होना। संघ-बीजेपी ने राम मंदिर के नाम पर देश के साधु-संतों से पैसे की उगाही करवाई और मंदिर बनाने के बदले उस पैसे से चुनाव लड़ा। सत्ता हासिल की और राम मंदिर नहीं बनाया। सत्ता में आने के बाद उसने भी कांग्रेसी तुष्टिकरण की राह पकड़ ली। यह संघ-बीजेपी के छद्म हिंदूवाद का प्रमाण है। भाजपा के छद्म हिंदूवाद को बदनाम कर सियासी लाभ लेने का छद्म सेक्युलरवादियों की कोशिश में बदनाम किया जा रहा समस्त हिंदू जाति को। क्या यह उचित है?

चिंतन नहीं चुनाव शिविर

हरिराम पाण्डेय 22 जनवरी 2013 कांग्रेस का तीन दिवसीय चिंतन शिविर समाप्त हो गया। शिविर में विचार- विमर्श के बाद जो घोषणाएं हुईं वे चारित्रिक तौर पर आत्ममंथन कम और 'युद्ध की हुंकारÓ ज्यादा महसूस हुई। ऐसा होना स्वाभाविक भी है। क्योंकि चुनाव सिर पर आ गये हैं और 2009 के बाद पार्टी की झोली में ऐसा कुछ नहीं है जिससे वह किसी तरह की खुशफहमी पाल सके। इसके अलावा इधर कुछ दिनों से पार्टी और सरकार दोनों आरोपों , भ्रष्टïाचार और नीतिगत शैथिल्य के महापंक में फंसी हुई है। इसलिये अपने कार्यकर्ताओं में नैतिक बल का संचार करने के लिए इस तरह की सियासी लंतरानियां जरूरी होती हैं। इस आत्ममंथन के क्रम में जो भी हुआ उसकी वैचारिक आपाधापी में पार्टी खुद से एक सवाल करना भूल गयी कि उसमें इतना ज्यादा वैचारिक रीतापन कैसे आ गया है। एक विचारशून्यता उसमें घर कर गयी है। पूरा अधिवेशन वैचारिक तौर पर निराश करता हुआ सा दिखा है लेकिन उसमें एक सुनहरी किरण भी दिखायी पड़ती है कि पार्टी ने हाल के कठोर सरकारी निर्णयों को मंजूरी दे दी, यही नहीं आगे भी सरकार का समर्थन करने का आश्वासन दिया। यही नही, पार्टी ने सरकार को ताकीद की कि वह जनता से बेहतर संवाद बनाये और महिलाओं तथा नौजवानों को अपने सिद्धांतों से प्रभावित कर उन्हें अपने साथ चलने के लिये प्रेरित करे। इनके अलावा चिंतन शिविर में जो भी हुआ वह तो बस राहुल के पद की औपचारिकता पूरी करनी थी। जैसे राहुल पहले भी पार्टी में नम्बर दो थे और उसी हैसियत से सारा काम देखते - करते थे बस उस पर पार्टी ने औपचारिकता की मुहर लगा दी। लेकिन इससे एक बात तो हो गयी कि राहुल को पद के साथ अब जिम्मेवारी भी सौंप दी गयी। अब सफलताओं का श्रेय उन्हें मिलेगा साथ ही असफलताओं की जिम्मेदारी भी उन्हें अपने सर लेनी होगी। अब उन्हें यह सहूलियत हासिल नहीं है कि वे किसी स्थिति में जब चाहें कूद नहीं सकते और वहां से इच्छानुसार बाहर नहीं निकल सकते हैं। अब उनकी नियुक्ति जिस कार्य के लिए हुई है उस काम को यदि वे सही ढंग से अंजाम देते हैं तो यह सब सार्थक होगा, वरना सब व्यर्थ है। शिविर के दौरान आतिशबाजियां एक मजाक और बचकानापन बन कर रह जाएंगी। फिलहाल कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी है कि वह स्वीकार नहीं कर पा रही कि 'अब के दौर में खेल के नियम बदल चुके हैं।Ó पहले की तरह तुष्टीïकरण और नफरत प्रदर्शन के दिन नयी सियासत में लद गये और अब जो नयी पीढ़ी है उनकी आशाएं - आकांक्षाए भिन्न हैं। आने वाले दिनों में वक्त के हाकिमों के इन नये मतदाताओं का ख्याल करना पड़ेगा ही। राहुल को पद दिया जाना संभवत: इसी नयी पीढ़ी से संवाद का प्रयास है।

सामाजिक असंतुलन की ओर बढ़ती दुनिया

हरिराम पाण्डेय 23 जनवरी 2013 आज से स्विट्जरलैंड के दावोस शहर में वल्र्ड इकॉनोमिक फोरम की चार दिवसीय बैठक हो रही है। इसमें दुनिया भर के राजनीतिक नेता और आर्थिक विशेषज्ञ भाग ले रहे हंै। इसमें भारत की ओर से कमलनाथ शामिल हुए हैं। दुनिया भर से गरीबी उन्मूलन के लिए काम करने वाली संस्था ऑक्सफेम ने इस इस बैठक के पूर्व जारी अपनी रिपोर्ट 'असमानता की कीमतÓ में कहा है कि धन के संकेंद्रण की वजह से ही गरीबी उन्मूलन के लिए की जाने वाली कोशिशें सफल नहीं हो पा रही हैं। रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर की कुल आबादी के महज एक प्रतिशत अमीर लोगों की आमदनी में पिछले बीस सालों में साठ फीसदी की वृद्धि हुई है। रिपोर्ट का कहना है कि एक ओर जहां दुनिया के सौ सबसे अमीर लोगों ने पिछले साल 240 अरब डॉलर की कमाई की वहीं दुनिया भर के बेहद गरीब तबके के लोगों को महज सवा डॉलर में एक दिन गुजारना पड़ा। रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ एक प्रतिशत लोगों के हाथों में धन का संकेंद्रण आर्थिक गतिविधियों को भी कमजोर करता है और इसका खामियाजा हर व्यक्ति को भुगतना पड़ता है। यह तथ्य हैरत में डाल देता है कि पिछले एक साल में दुनिया भर के 100 सबसे अमीर लोगों ने जितनी दौलत कमाई है उसका एक चौथाई हिस्सा भी दुनिया भर की गरीबी मिटाने के लिए पर्याप्त है। हमारे देश की स्थिति और भी खराब है। हालांकि प्रधान मंत्री ने रविवार को चिंतन शिविर में कहा कि महंगाई घटाने के सरकार के प्रयासों में कमी रही है। पिछले डेढ़-दो दशकों में देश में जिस तरह से अमीरों और गरीबों के बीच की खाई तेजी से बढ़ी और चौड़ी हुई है, उसके कारण गरीबी का दंश और गहरा और तीखा हुआ है। यह किसी से छुपा नहीं है कि देश में एक ओर अरबपतियों की संख्या और उनकी दौलत में दिन दूनी, रात चौगुनी वृद्धि हो रही है, वहीं दूसरी ओर, गरीबों की हालत बद से बदतर होती जा रही है। असल में, पिछले कुछ दशकों, खासकर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के डेढ़ दशक में देश में जिस तरह से आर्थिक गैर बराबरी और विषमता बढ़ी है, उसके कारण गरीबी अधिक चुभने लगी है। 70 और कुछ हद तक 80 के दशक शुरुआती वर्षों तक देश में गरीबी और अमीरी के बीच इतना गहरा और तीखा फर्क नहीं दिखाई देता था, जितना आज दिखने लगा है। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि पिछले डेढ़ -दो दशकों में पारंपरिक अमीरों के अलावा नई आर्थिक नीतियों का फायदा उठाकर एक नवधनिक वर्ग पैदा हुआ है जिसकी अमीरी और उसके खुले प्रदर्शन ने गरीबों और निम्न मध्यम वर्गों में गहरी वंचना का अहसास भर दिया है। इसमें कोई शक नहीं है कि नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में तेजी आई है। इस तेज वृद्धि दर के साथ देश में बड़े पैमाने पर सम्पदा और समृद्धि भी पैदा हुई है। लेकिन इसके साथ ही, यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि यह समृद्धि कुछ ही हाथों में सिमटकर रह गई है। इसका समान और न्यायपूर्ण बंटवारा नहीं हुआ है। इसका नतीजा यह हुआ है कि इस दौर में जहां अमीरों और उच्च मध्यवर्ग की संपत्ति और समृद्धि में तेजी से इजाफा हुआ है, वहीं गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों की स्थिति और खराब हुई है। सच तो यह है कि पिछले एक दशक में अमीरी अश्लीलता की हद तक और गरीबी अमानवीयता की हद तक पहुंच गई है। इसे देखने के लिए दूर जाने की जरूरत नहीं है। आप देश के बड़े महानगरों और शहरों के शापिंग मॉल्स में चले जाइए। वहां देश-दुनिया के बड़े-बड़े ब्रांडों के उपभोक्ता सामानों की मौजूदगी और उनकी चमक-दमक आंखें चौंधियाने के लिए काफी हैं। यही नहीं, आज देश में दुनिया के सबसे बड़े लक्जरी ब्रांड्स और उनके उत्पाद मौजूद हैं और अच्छा कारोबार कर रहे हैं। नतीजा, देश में अमीरों और उच्च मध्यवर्ग के उपभोग स्तर और दुनिया के अन्य मुल्कों के अमीरों के उपभोग स्तर में कोई खास फर्क नहीं रह गया है। आज देश में बड़े अंतर्राष्ट्रीय ब्रांडों की लाखों-करोड़ों की घडिय़ां, कारें, ज्वेलरी, सूट, फोन सहित भांति-भांति के इलेक्ट्रानिक साजों-सामान और यहां तक कि खाने-पीने की चीजें भी उपलब्ध हैं। जाहिर है कि इनके उपभोगकर्ताओं की संख्या और उनके उपभोग की भूख दोनों बढ़ी हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि यह सब अब दबे-छिपे नहीं बल्कि खुलकर और सबको दिखाकर हो रहा है। यह बढ़ती असमानता दुनिया में सामाजिक असंतुलन पैदा करने का काम कर रही है। असंतुलन से अशांति और आंदोलन का जन्म होगा जो सरकारों तथा समाज के लिए कठिन स्थिति होगी।

Saturday, January 19, 2013

तेल की धार में चला चनावी चक्कर


हरिराम पाण्डेय 19.1.2013 तीन तेल कम्पनियों का इस छमाही में कुल घाटा 1लाख 66 हजार 8 लाख करोड़ हो गया। पिछले साल इस अवधि में यह लगभग इतना ही था। सरकार ने घाटे के कुछ अंश को पूरा करने के लिये गुरुवार को तेल कम्पनियों को तेल की कीमतों में थोड़ी - थोड़ी वृद्धि करने की इजाजत दे दी। इसके बाद भी घाटे की जो राशि है उसे देख कर नहीं लगता कि इस वृद्धि से घाटा पूरा होगा। इसी कारण से तेल कम्पनियों ने सरकार को 85 हजार 586 करोड़ का बिल दिया है जिसके लिए भुगतान करने की हैसियत नार्थ ब्लॉक में नहीं है। कुल मिला कर कहा जा सकता है वर्तमान वित्त वर्ष तेल की अर्थव्यवस्था में बगैर किसी सुधार के समाप्त हो जायेगा। लेकिन इसका एक प्रभाव तो यह भी होगा कि सरकार ने महंगाई के बोझ तले दबे आम आदमी का बोझ और बढ़ा दिया है लेकिन सब्सिडी वाले गैस सिलेंडरों की संख्या साल में छह से बढ़ाकर नौ करके इस बोझ को कुछ हल्का करने की कोशिश जरूर की है। पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों को देखते हुए अभी ऐसे फैसलों की उम्मीद नहीं थी लेकिन सरकार ने निर्वाचन आयोग के सामने यह दलील रखते हुए इसकी मंजूरी प्राप्त कर ली कि यह निर्णय आचार संहिता लागू होने से पहले ही लिए जा चुके थे और इनकी घोषणा अब की जा रही है। सवाल यह है कि सरकार को डीजल को नियंत्रणमुक्त करने और सब्सिडी वाले रसोई गैस के सिलेंडरों की संख्या छह से बढ़ाकर नौ करने की इतनी जल्दी क्या थी? इन फैसलों को लागू करने के पीछे सरकार तर्क भले कुछ भी दे लेकिन सच यह है कि ये फैसले सरकार की दूरगामी सियासी सोच का नतीजा हैं। पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में विधानसभा चुनावों के अलावा 2014 में लोकसभा चुनाव भी होने हैं। जिसके चलते सरकार को अगले महीने पेश होने वाले आम बजट को लोक लुभावन बनाना है। बजट में सरकार ऐसी कोई घोषणा नहीं करना चाहती थी जिससे मतदाता कांग्रेस से विमुख हों, इसलिए उसने बजट से ठीक पहले डीजल को नियंत्रणमुक्त किए जाने का कड़ा फैसला ले लिया। सब्सिडी वाले गैस सिलेंडरों की संख्या साल में 12 किए जाने की सहयोगी दलों की मांग के बावजूद इसे नौ तक ही सीमित करने के पीछे भी सरकार की मंशा यह दिखती है कि वह देखना चाहती है कि इन फैसलों पर आम आदमी और सहयोगी दलों की क्या प्रतिक्रिया रहती है। अगर यह प्रतिक्रिया कड़ी होती है तो सरकार 28 फरवरी को पेश होने वाले आम बजट में रसोई गैस सिलेंडरों की संख्या नौ से बढ़ाकर 12 कर सकती है। लेकिन इन सबके बावजूद आम आदमी को राहत मिलने वाली नहीं है क्योंकि डीजल की कीमतों को नियंत्रणमुक्त किए जाने के दूरगामी परिणाम होंगे। भाड़ा महंगा होगा तो आम आदमी के इस्तेमाल की लगभग सभी चीजें महंगी हो जाएंगी। महंगाई बढ़ेगी तो रिजर्व बैंक ब्याज की दरों में वृद्धि करेगा, जिससे कर्ज महंगा होगा और उद्योगों में उत्पादन घटेगा। जीडीपी में महत्वपूर्ण योगदान रखने वाला कृषि क्षेत्र भी बुरी तरह प्रभावित होगा। किसानों को सिंचाई और जुताई के लिए डीजल महंगा मिलेगा तो उनकी आमदनी प्रभावित होगी और वे कर्ज लेने पर मजबूर होंगे। कर्ज न अदा कर पाने की स्थिति में किसानों की आत्महत्या की दर बढऩे का भी अंदेशा है। सरकार को चाहिए था कि डीजल की कीमतों को नियंत्रणमुक्त करने से पहले एक ऐसा खाका तैयार करती जिसमें खाद्य व अन्य आवश्यक वस्तुओं की ढुलाई पर लगने वाले भाड़े पर डीजल मूल्यवृद्धि का असर न होता, साथ ही किसानों को भी बिना किसी रोक-टोक के सस्ता डीजल मिलता रहता। अलबत्ता डीजल से चलने वाली लक्जरी कारों की कीमतें बढ़ाकर इसकी भरपाई की जा सकती थी लेकिन सरकार ने उच्च आय वर्ग के दबाव में लक्जरी कारों के दामों में वृद्धि करने के बजाए 'चुनावी चक्करÓ में आम आदमी पर ही महंगाई का बोझ और बढ़ा दिया।

सेना को सियासत में ना घसीटें

हरिराम पाण्डेय 18.1.2013 पाकिस्तानी सेना के नियंत्रण रेखा को पार करने और दो सैनिकों को मार डालने तथा उनमे से एक का सर काट डालने की घटना पर दो दिन पहले यानी गत 14 जनवरी को सेनाध्यक्ष विक्रम सिंह ने प्रेस के सामने जितना जोशीला भाषण दिया, उसे देख कर एक सवाल मन में उठता है कि 2011 में भी तो इसी तरह की घटना हुई थी पर उस समय सरकार या विपक्षी दलों में इतना जोश - ओ- खरोश नहीं दिखा। इस बार ऐसा क्या हो गया? इस बात को बहुत गोपनीय रखा गया कि घटना को लेकर जनता में बहुत ज्यादा गुस्सा नहीं था और ना ही दोनों देशों में चल रही वार्ता प्रक्रिया रुकी थी। गत 8 जनवरी को कुछ पाकिस्तानी फौजी नियंत्रण रेखा पार कर घुस आये और दो भारतीय सैनिकों को मार डाला तथा एक का सिर काट कर ले गये। इस घटना को जम कर प्रचारित किया गया। टी वी चैनलों पर मुबाहसे हुए और सेनाध्यक्षों ने जोशीले भाषण दिये। जनता में रोष भड़काने की हरचंद कोशिश की गयी। भाजपा के साथ कुछ विरोधी दलों ने भी निहित स्वार्थ के लिये बाकायदा आंदोलन किया और जन-भावना को भड़काने का प्रयास किया। सवाल उठता है कि 2011 और 2013 की इन घटनाओं में क्या फर्क है? एक फर्क तो सीधा दिख रहा है कि उस दौरान चुनाव दूर थे और 2013 अर्थात भविष्य में चुनाव काफी नजदीक हैं। राजनीतिक दलों का आकलन है कि जनता में भावुकता फैला कर वोट बटोरे जा सकते हैं। सबसे पहले भाजपा ने नारे लगाने शुरू किये। उसने मांग की, जो कि सबसे लोकप्रिय मांग है, कि पाकिस्तान को कठोर जवाब दिये जाएं, इसमें उससे वार्ता प्रक्रिया भी निरस्त कर दी जाय, यह भी शामिल है। कई रिटायर्ड फौजी तथा सिविल अफसर भी टी वी चैनलों द्वारा फैलायी जाने वाली उत्तेजनाओं में शामिल हो गये। जो नहीं शामिल हुए उन्हें मजाक की नजरों से देखा जाना लगा। इसका सबसे बड़ा प्रभाव मनमोहन सिंह पर दिखा। वे सेना दिवस के एक कार्यक्रम में गये थे। उन्होंने पाकिस्तान के विरुद्ध काफी कड़े शब्दों का प्रयोग किया जबकि वे पाकिस्तान से दोस्ती के हामी हैं। कुछ पत्रकारों से वार्ता के दौरान उन्होंने कहा कि जो लोग दोषी हैं उन्हें दंड दिया जायेगा और अब पाकिस्तान से पहले जैसे रिश्ते नहीं रह जायेंगे। सरकार पास्तिान की हुकूमत को यह बता देने का मन भी बना रही है कि वरिष्ठï नागरिकों का विजा रोका जायेगा , हाकी टीम का दौरा रद्द किया जायेगा और महिला क्रिकेट टीम को खेलने की अनुमति नहीं दी जायेगी। यह सरकार के नये रुख की पहचान है। साथ ही सरकार ने इस मसले पर वार्ता के लिये भाजपा को भी बुलवाने का निर्णय किया है। सरकार का यह रुख ज्यादा अवसरवादी लगता है। सरकार का यह रुख केवल इसलिये है कि इस आक्रोश का लाभ भाजपा न भुना ले। सरकार का यह हथकंडा तबतक जारी रहेगा जबतक जनता का आक्रोश ना खत्म हो। जैसे ही आक्रोश खत्म होगा सबकुछ सामान्य हो जायेगा। लेकिन इन मौकापरस्त हालात को बदलना ज्यादा जरूरी है ताकि भविष्य में ऐसा न हो और इसके लिए जरूरी है कि सरकार विपक्ष से परामर्श के बाद खुफिया- भेदिया कारोबार को फिर से गहन करे और पाकिस्तान की अंदरूनी गतिविधियों की जानकारी रखे। क्योंकि वहां जो कुछ हो रहा है वह भारत के लिये शुभ नहीं है। पाकिस्तान में मंगलवार को आये सुप्रीम कोर्ट के प्रधानमंत्री अशरफ़ को गिरफ़्तार करने के बाद पाकिस्तान एक बड़े राजनैतिक भूचाल की ओर मुड़ गया है। उधर लाखों लोगों को लेकर इस्लामाबाद में धरने में बैठे ताहिर अल कादरी साहब संसद तथा इलेक्शन कमिशन को भी बर्खास्त करने पर अड़े हुए हैं। कल के फ़ैसले के बाद पाकिस्तान के राजनैतिक हल्कों और मीडिया में ये चर्चा जोरों पर है कि सुप्रीम कोर्ट भी सेना के साथ इस लोकतांत्रिक सरकार को बर्खास्त करने की योजना में शामिल है। अगले अड़तालीस घंटों में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट दो बड़े मामलों में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को दोषी करार दे सकते हैं। इसमें से एक मामला आसिफ अली जरदारी के एक साथ दो पदों राष्ट्रपति, पार्टी के अध्यक्ष बने रहने का है। धीरे-धीरे पाकिस्तान फिर फौजी हुकूमत की ओर बढ़ता नजर आ रहा है। भारत के लिए सेना की सत्ता में वापसी के गंभीर परिणाम होंगे। हाल में सीमा पर जारी तनाव भी पाक सेना की इसी रणनीति का हिस्सा बताया जा रहा है। जिसमें मीडिया के द्वारा हाइप बनाने के बाद भारत पाक सेना की चालों मे फंसता नजर आ रहा है। भारत के लिये सबसे मुफीद नवाज शरीफ और जरदारी ही रहेंगे।

Tuesday, January 15, 2013

पाक पर हमला गैरजरूरी

- हरिराम पाण्डेय पिछले कुछ महीनों से विपक्षी दल किसी भी मसले को सरकार के खिलाफ गढ़ देने में महारत हासिल किया हुआ सा दिखने लगा है। हर मामले को देश और समाज से जोड़कर एक ऐसा चित्र पेश करता है देश की जनता के समक्ष कि खून लगता है खौलने। वे शगूफों के आधार पर देश में देशभक्ति का ऐसा जज्बा फैलाते हैं कि लगता है कि फौरन पाकिस्तान पर आक्रमण कर दिया जाय। यदि आक्रमण नहीं हो रहा ह्ै तो सरकार दोषी है। उसमें साहस नहीं है वह नपुंसक बन गयी है। चारो तरफ शोर मचा हुआ है पाकिस्तान पर हमले किये जाएं। जबकि मामूली अक्ल का इंसान भी जानता है कि हमले ऐसे नहीं हुआ करते है। राजनीतिक दल की तो रोटी ही लफ्फाजी से चलती है। हमारे कथित तेज तर्रार पत्रकार और रक्षा विशेषज्ञ भी यह नहीं पूछ पा रहे हैं कि जब हमने दो दिन पहले ऐन ऐसी ही कार्यवाही उसी सेक्टर में पाकिस्तानियों के खिलाफ की थी तो हम उसके पलटवार के लिए तैयार क्यों नहीं थे। दूसरे क्या इस घटना मे कोई गोली नहीं चली? चली थी तो दुश्मन की कोई हताहत क्यों नहीं हुआ। हमारे जवानों के पीछे सपोर्ट तंत्र क्यों नहीं था। अरबों रुपये खर्च करके लगाए गए हमारे निगरानी उपकरण कहां गये थे। ऐसा भी तो कहा जा सकता है कि क्या उन सारे उपकरणों की खरीद में हुआ गोलमाल इन शहादतों का जिम्मेदार है। पाकिस्तान में आज पहली बार लोकतांत्रिक सरकार अपना कार्यकाल पूरा कर चुकी है और अब वहां निष्पक्ष चुनाव आयोग और आम सहमती से चुनी केयर टेकर सरकार की देख रेख में अगले चुनाव होने जा रहे हैं। पहली बार वहां की सुप्रीम कोर्ट मे ऐसे जज हैं जो सेना के घोटालों और उनकी पिछली असाविधानिक गतिविधियों पर कड़े फैसले दे रहे हैं। वहां की मीडिया भारत का खतरा दिखा कर चौसठ साल ऐश करती रही सेना के तमाम दावों की पोल खोल रही है। सेना और आतंकवादियों के गठजोड़ की नीति के कारण आज पाकिस्तान खुद आत्मघाती हमलावरों, बम धमाकों से दहल चुका है। राजनैतिक तंत्र, सिविल सोसाइटी, व्यापारियों, न्यायपालिका के चौतरफा दबाव में वहां कि सेना को अपनी भारत विरोधी नीति को त्याग भारत से खुले व्यापार, सेना मुक्त वीजा नीति और अमन की आशा को स्वीकार करने के लिए मजबूर कर दिया है। आतंकवाद की नीति से किनारा कर लेने के परिणाम स्वरूप उसके पैदा किए हुए जिहादियों ने अपनी बंदूकें पाकिस्तानी सेना की ओर मोड़ दी हैं। अमरीका ने भी उससे किनारा कर लिया है और पाकिस्तान की दी जाने वाली सैन्य और आर्थिक मदद में भारी कटौती की है। चौतरफ़ा दबाव से बाहर निकलने का उसके पास एक ही रास्ता है कि वह ऐसी कोई खुराफ़ात करे जिससे भारत और पाकिस्तान के बीच चल रही अमन की आशा ध्वस्त हो जाए। भारत का सीधा हित इस भारत विरोधी इस्लामिक कट्टरपंथी बेलगाम सेना पर लोकतांत्रिक शासन की नकेल कसने से जुड़ा हुआ है।

Sunday, January 13, 2013

भावुकता का दोहन है बच्चा चोरी की अफवाह

महानगर में बच्चा चोरी की घटनाओं में वृद्धि की लगातार अफवाहें फैलायी जा रहीं हैं और विभिन्न इलाकों में इसे लेकर किसी को मारने पीटने की घटनाओं में वृद्धि हो रही है। हालांकि यह तय नहीं हुआ है कि बच्चा चोर बता कर जिन लोगों पर भीड़ ने जान लेवा हमले किये उन्होंने सचमुच बचा चुराया था या नहीं। पुलिस के रिकार्ड के मुताबिक जिन लोगों पर हमले हुये या जहां उन्हें बच्चा चुराने के संदेह में घेरा गया वहां किसी बच्चे को चुराने की घटना के सबूत नहीं है और ना ही कोई बच्चा चुराया गया बताते हैं। यानी फकत अफवाह फैला कर किसी को घेर कर मार डालने का प्रयास हो रहा है। जिन्हें मारा पीटा जा रहा है वे एक खास सम्प्रदाय के निहायत साधनहीन लोग हैं - कोई भीख मांगता है तो कोई ठोंगा बनाता है। सामाजिक विद्वेष फैलाने की इस खास किस्म की साजिश को गढऩे वाले बेशक अंधियारे में खड़े हैं , लेकिन उनकी करतूतों से उनके दिमाग का सुराग तो मिल ही सकता है। इसे जो लोग फैला रहे हैं तथा उससे उत्पन्न भावुकता को क्रियात्मक स्वरूप प्रदान कर रहे हैं , वे उन्हीं लोगों में से हैं जिन्हें वर्तमान सरकार को कमजोर करने का राजनीतिक लाभ मिल सकता है। लोकतंत्र में बेशक जनता अपना मुकद्दर लिखने वालों को चुनती है पर इस चुनाव के पीछे जनता के मानस को प्रभावित कर उनके विचारों को नियंत्रित करने का काम पार्टियों की मशीनरी करती है। हाल तक सत्ता का सुख लेने के कारण लोक से विमुख हो जाने वाली पार्टी को अफवाहें फैला कर जन भावना को उत्प्रेरित करने और उस उत्प्रेरण के प्रभाव से जन्में भावुकतापूर्ण गुस्से को अपनी मर्जी से उपयोग करने का हुनर मालूम है। वह कभी बच्चा चोरी तो कभी अन्य हिंसक घटनाओं को बहाना बना कर जनभावना को अनवरत भड़का रही है। पिछले दिनों की घटनाओं को अगर गौर से देखें तो लगेगा ये सारे वाकयात उन्हीं इलाकों में हुये हैं जहां पूर्व में उस पार्टी विशेष का गढ़ रहा है तथा पहले इस तरह की घटनाएं हो चुकी हैं। इन ताजा घटनाओं में आप पायेंगे कि बच्चा चोर बता कर कुछ लोगों का समूह एक आदमी को बुरी तरह पीट रहा है और कोई आदमी उस मार खाने वाले आदमी की तरफ से खड़ा हुआ नहीं दिख रहा है। इसके दो ही कारण हो सकते हैं पहला कि जो लोग मार पीट कर रहे हैं उन्हें वहां के क्षेत्रीय लोग पहचानते हैं और उनके खौफ के कारण हस्तक्षेप नहीं कर रहे हैं। वरना बंगाल की संस्कृति इतनी संवेदनशील है कि ऐसे मौकों पर आम जन चुप हो ही नहीं सकते। रवींद्रनाथ और विवेकानंद का नगर कोलकाता मानसिक तौर पर इतना संवेदनशील है कि किसी भी अफवाह की संभाव्यता को थोड़ा पुख्ता कर के उसे विश्वसनीय समाचार की शक्ल में बदला जा सकता है। बच्चा चोरी चूंकि एक संभावना है और सौ पचास लोग इस संभावना को दृढ़ कर उसे विश्वसनीयता प्रदान कर देते हैं। इसी विश्वसनीयता की अंधी दौड़ पर खौफ का धुंध डाल कर उसे सक्रियता में बदल देता है। यही कारण है कि व्यापक सामाजिक तंत्र वाले लोग इस तरह की गतिविधियों पर जल्दी ही कब्जा कर लेते हैं। चूंकि ऐसे कार्यों में भारी भीड़ संलग्नता होती है अतएव सरकार उनपर कठोर कार्रवाई नहीं कर सकती है और इस लाचारी का वे तत्व फायदा उठा कर शासन के नकारा हो जाने का भ्रम पैदा कर देते हैं। ऐसे मौकों पर सबसे जरूरी होता है कि अफवाहों पर न जाकर सच का संधान करना। कौवा कान ले गया तो कौवा के पीछे दौड़ पडऩे से उत्तम होता हे अपने कान को देख लेना। बच्चा चोरी की घटना में जिसे पकड़ा गया क्या उसने सचमुच बच्चा चुराया है। शक होने पर पुलिस की मदद लें, कानून को अपने हाथ में न लें। कानून का निर्णय हमेशा सही होगा।

मकर संक्राति हमारी सांस्कृतिक श्रेष्ठïता का प्रतीक है

-हरिराम पाण्डेय मकर संक्रांति यानी सूर्य का मकर राशि में प्रवेश को मकर संक्रांति कहते हैं। यही समय है जब सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण होता है। सूर्य उत्तरायण होना केवल शास्त्र समत नहीं बल्कि विज्ञान समत भी है। चूक सूरज धरती का केंद्र है और सारे ग्रह उसका चक्कर लगाते हैं। जितने समय में पृथ्वी सूर्य के चारों ओर एक चक्कर लगाती है उस अवधि को सौर वर्ष कहते हैं। धरती का गोलाई में सूर्य के चारों ओर घूमना 'क्रांति चक्रÓ कहलाता है। इस परिधि को 12 भागों में बांट कर 12 राशियां बनी हैं। हमारे पूर्वजों ने सितारों के समूह की आकृति के हिसाब से उन्हें नाम दे रखा था। जो सितारा समूह शेर की तरह दिखता था, उसे सिंह राशि घोषित कर दिया, जो लडकी की तरह उसे कन्या और जो धनुष की तरह दिखें धनु राशि। पृथ्वी का एक राशि से दूसरी में जाना संक्रांति कहलाता है। यह एक खगोलीय घटना है जो साल में 12 बार होती है। सूर्य एक स्थान पर ही खड़ा है, धरती चक्कर लगाती है। अत: जब पृथ्वी मकर राशि में प्रवेश करती है, एस्ट्रोनामी और एस्ट्रोलॉजी में इसे मकर संक्रांति कहते हैं। मकर संक्रांति त्योहार नहीं बल्कि व्रत है। व्रत शब्द वृ धातु से बना है, जिसका अर्थ होगा- वरण या च्वायस। संक्रांति का अर्थ है- संक्रमण या ट्रांजिशन। संक्रांति के समय सूर्य एक राशि से निकलकर दूसरी राशि में प्रवेश करता है। मकर संक्रांति के समय सूर्य धनु राशि से निकलकर मकर राशि में प्रविष्ट कर जाता है। यही वह समय होता है जब सूर्य उत्तरायण होने लगता है। आम आदमी इस तरह के वर्गीकरण से विरक्त रहता है। लेकिन भारतीय संस्कृति में व्रत उस तरह के पर्वों को कहते हैं, जो पूरे साल को एक वृत्त या गोले के रूप में देखते हैं। यह गोल घूमता हुआ गोला साल में अनेक व्रतों को जन्म देता है। यही कारण है कि मकर संक्रांति की स्थिति लगभग हर साल स्थिर या फिक्स रहती है। आजकल मकर संक्रांति हर साल 14 या 15 जनवरी को मनाई जाती है। आज से सौ वर्ष पहले यह 12 या 13 जनवरी को मनाई जाती थी। इस संबंध में नासा ने बड़ी दिलचस्प खोज की है। नासा के वैज्ञानिकों पृथ्वी के भ्रमण पथ का आकलन करते हुये पाया कि पिछले हजारों साल से धरती की रतार हर कुछ साल पर 72 घंटे धीमी हो जाती है। क्योंकि धरती की रतार लगातार धीमी होती जा रही है, अत: साल भर में 12 की जगह 13 राशियां हो चुकी हैं। ज्योतिष के विद्वान पता नहीं इसे मानते हैं या नहीं, पर नासा वालों का कहना है कि इस तेरहवीं राशि को गणना में न लेने की वजह से लगभग 84 प्रतिशत भविष्यवाणियां सटीक नहीं हो पाती हैं। यह मकर संक्रांति पर भी लागू है। यही कारण है कि 100 वर्ष पहले मकर संक्रांति 12 या 13 जनवरी को पड़ती थी। आज 14 या 15 जनवरी को पड़ती है। हो सकता है 200 वर्ष बाद यह 24 या 25 जनवरी को पड़े। यहां यह बताना जरूरी है कि व्रत व्यक्तिगत पर्व माना जाता है, जबकि त्योहार सामूहिक पर्व माने जाते हैं। मकर संक्रांति एक पर्व है, लेकिन होली एक त्योहार है। जो व्यक्तिगत पर्व होगा, उसमें अनुष्ठान ज्यादा होगा और उल्लास कम। जबकि सामूहिक पर्व में अनुष्ठान न के बराबर होता है, लेकिन उल्लास अपने अतिरेक पर होता है। यही कारण है कि मकर संक्रांति व्यक्तिगत पर्व होने की वजह से सेलेक्टिव हो जाता है। हम चाहें तो उसे मनाएं या न मनाएं। लेकिन होली के हुडदंग में हम शामिल हों या न हों, होली के असर से बच नहीं सकते हैं। दुनिया की हर संस्कृति में सूरज की पूजा होती है। सूरज की पूजा दुनिया के सभी प्राचीन सयताओं में होती है। शायद सूरज की पूजा करना इन धर्मों को बड़ा वैज्ञानिक बना देता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि धरती पर जीवन का जो भी लक्षण है, वह सूरज की मेहरबानी है। आज से करोडों साल बाद जब सूरज ठंडा हो जाएगा, तो धरती पर जीवन समाप्त हो जाएगा। अत:मकर संक्राति हमारी सांस्कृतिक श्रेष्ठïता का प्रतीक है।