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Thursday, June 29, 2017

हम गरीब क्यों हैं

हम गरीब क्यों हैं
हमारा देश भारत जहां करोड़ो लोग गरीब हैं और गुरबत लगातार बढ़ती जा रही है जबकि कहाह जाता है कि हमारा देश तेजी से बड़ती हुई अर्थ व्यवस्था है। जब गरीबी पर बात आती है तो हमारे नेता और अर्थ शास्त्री हाथ मलते हुये कहते हैं कि दरअसल देश में संसाधनों का अभाव है। सच तो यह है कि इस तरह के बोलने वालों के इरादों में अच्छाई की कमी​ है तथा असहयोग की प्रवृत्ति है। गरीबी इसलिये कम नहीं हो रही है कि हमारे नीति निर्माताओं के विचार का तरीका गलत है या वे विचार गलत है जिसके तहत वे गरीबी का मूल्यांकन करते हैं। सच कुछ और है। सरकार जो कह रलह रही है वह आधा सच है। अब देखिये सरकार ककिहना है कि 1990 केआर्थिक विकास का यह फल है। लेकिन आंकड़े बताते हैं कि 1993 में देश में 45 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे थी जो 2004 में 37 प्रतिशत हो गयी और 2011 में ाट कर 22 प्रतिशत हो गयी। यह कहना आसान है कि देश में आर्थिक विकास हो रहा है। परंतु सच तो यह है कि हर आकलन के समय गरीबी रेखा नीचे खिसका दी जाती है। नतीजतन कुछ लोग जो पहले उस रेखा के नीच थे अचानक ऊपर आ जाते हैं और आंकड़ों में दर्ज हो जाता है कि उनकी संख्या में गिरावट आयी है। वर्तमान में हमारे देश की गरीबी रेखा दुनिया के अत्यंत कम विकसित देशों में निर्धारित रेखा से भी नीचे हैं। फिलहाल भारत में जो व्यक्ति 1.90 डॉलर(लगभग 100 रूपये) प्रतिदिन खर्च कर सकता है वह गरीब नहीं माना जाता है सरकार की नजर में। 2015 के आंकड़े के अनुसार अब 1.90 डालर टाइप लोगों की देश की औसत जनसंख्या में 60 प्रतिशत तथा ग्रामीण आबादी में 70 प्रतिशत अनुपात है।  जो लोग कृषि पर निर्भर होते हैं उनके साथ एक दिक्कत है कि मौसमों की अनिश्चितता उनकी गरीबी को और बड़ा देती है। क्योंकि फसल मारी गयी तो खर्चे भी कम हो गये इस लिये इनका अनुमान लगाना कठिन हो जाता है। यही नहीं किसानों की व्यय वृत्ति फसल कटाई के बाद कुछ होती है और फसल की बुवाई के समय कुछ और होती है। इसलिये इनके बारे में निश्चित अनुमान लगाना या गणना कर पाना कठिन होता डहै और जो आंकड़े आते हैं वे फरेबी होते हैं। यही नहीं भारत में एक बहुत बड़ी आबादी ऐसी है जिनकी औसत आय में काफी उतार चढ़ाव होता है। ऐसे लोग कई बार गरीबी से उबर जाते हैं और कई बार गरीबी के शिकंजे में फंस जाते हैं। उनकी गणना सरकार अलग से नहीं करती। चूंकि ऐसे लोगों के अस्तितव के बहारे में सरकार को कुछ मालूम नहीं ह तो उनके लिये अलग से बंदोबस्त कैसे किया जा सकता है। अतएव फाइलों में सबकुछ गुलाबी- गुलाबी दिखता है। अगर ऐसी आबादी , जो यकीनन बहुत बड़ी है, का अलग से आकलन किया जाय तो गरीबी की सही जानकारी मिल सकेगी। एक गैर सरकारी आंकड़े के अनुसार देश में लगभग 55 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं जो साल भर में कई खंडों में गरीबी झेलते हैं। खास कर असंठित क्षेत्र के मजदूर , दिहाड़ी मजदूर और छोटे किसान। यही नहीं सरकार या नीति निर्माण के समय गरीबी दूर किये जाने के उपायों में सबसे अच्छा उपाय माना जाता है कि गरीबी की रेखा के नीचे वालों को ऊपर लाया जाय। लेकिन यहां दो सवाल हैं पहला कि लोग गरीब होते क्यों हैं और दूसरा कि क्या गरीब लोग गरीब ही पैदा होते हैं?बेशक एक गरीबी का एक भाग पीढ़ियों से चला आता है। इसके विपरीत कुछ लोग पहले सही थे, खाते पीते थे और काल के प्रवाह में गरीब हो जाते हैं। हाल के अध्ययन से पता चला है कि भारत में गरीब हो जाने की घटनाएं तेजी से बड़ीं हैं। गरीबों की तादाद में लगभग आधे लोग ऐसे हैं जो गरीब पैदा नहीं हुये थे। बाद में अपने जीवनकाल में वे गरीब हो गये। गरीबी की चाल और फितरत दो तरफा होती है। कुछ लोग खाते पीते होते हैं और गरीब हो जाते हैं और कुछ गरीबी से उठकर सम्पन्न हो जाते हैं। सरकारी अफसर जब् किसी खास समाज में गरीबी का आकलन करते हैं तो यह नहीं देखते कि इसमें से कितने बाहर जा चुके हैं और कितने नये गरीब बन चुके हैं। वे यह नहीं ध्यान देते कि समाज के हर खंड के लिये गरीबी का मापदंड अलग अलग होता है। वे यह भी देखते कि 1.90डालर वाली स्थिति से ऊपर उठ कर 2.00 डालर के हाशिये पर निते लोग खड़े हैं और कितने लोग आगे निकल गये हैं। सरकार की नजर में 1.90 डालर वाली श्रेणी से उठते ही आदमी अमीरों में शुमार होने लगते हैं।

अब सवाल उठता है कि भारत सरकार गरीबी दूर करने के जो प्रयास कर रही है वह कितना असरदार है। दो कठिनाइयां सरकार के प्रयास को सीमित कर देती हैं। इसमें पहला है कि ऊपर से नीचे तक सामूहिक दृष्टिकोण। सरकार का मानना है कि सबको एक ही फारमूले से हल किया जा सकता है। यह फारमूला सार्वदैशिक है। दूसरी कठिनायी है कि सरकार जो राष्ट्रीय कार्यक्रम लागू करती है उसमें इस बात पर जोर नहीं होता है कि आखिर गरीबी बढ़ी क्यों है? ये सारे कार्यक्रम गरीबी के कारणों पर बल नहीं देते और ना उसे कम करने के उपायों पर ​विचार करते हैं। वे लोगों की क्षमता को विकसित कर गरीबी का स्थाई समाधान नहीं करते बल्कि गरीबी मिटाने के नामपर राजनीति की रोटी सेंकते हैं।

बड़े अफसरों के ट्रांसफर पोस्टिंग की दलाली में लगे हैं सम्पादक

बड़े अफसरों के ट्रांसफर पोस्टिंग की दलाली में लगे हैं सम्पादक

हरिराम पाण्डेय

जबसे भारतीय जनता पार्टी की सरकार सत्ता में आयी है तबसे मीडिया और सियासत के ‘गंगा - जमुनी’(काले- सफेद ) रिश्ते को लेकर तयह तयह की बातें उठ रहीं हैं। फेक न्यूजऔर फैकट न्यूज की भूल भुलैया ही काफी थी इसी बीच नेताओं और पत्रकारों की दुश्मनी – दोस्ती को लेकर भी कहानियां गढ़ी जाने लगीं। कई बार नेताओं की तरफदारी में मीडिया का एक हिस्सा गोयबल्सनुमा बारम्बारता से झूठ को सच बनाता हुआ देखा जाता है तो कई बार सच को खारिज करते हुये भी देखा जाता है। जाहिर है कि सबकुछ नफा नुकसान को ध्यान में रख कर कियाग् जाता है। लेकिन यह सब अब तक केवल बातें ही थीं। कोई ऐसा सबूत किसी के पास नहीं था कि कोई उंगली रख कर कह सके कि मीडिया ने किसी स्वार्थ के लिये किसी बड़े नेता से कहा हो याखिल्लम खुल्ला सिफारिश की हो। पर पिछले पखवाड़े एक ऐसा वाकया सामने आया जिससे ताकतवर मीडिया ने किस तरह एक ताकतवर नेता से अफसरों के तबादले – तैनाती के लिये सिफारिश की है।
मीडिया को लोकतंत्र का चौथा खम्भा कहते हैं और आम जनता इसे देश की आंख और कान मानती है। खासकर अंग्रेजी मीडिया का तो इतना रोब है कि आम लोग उसे ‘होली काउ’ मानते हैं और उसकी ईमानदारी – निष्पक्षता – बौद्धिकता पर उंगली उठाने का साहस नहीं करते। लेकिन जो सबूत मिले हैं उनके आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ये वह सब करते हैं जो समाचार से अलग है। अभी पिछले पखवाड़े देश के अग्रणी कहे जाने वाले अंग्रेजी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया के  एक सम्पादक ने आयकर विभाग के एक अधिकारी अनुपम सुमन की लंदन में तैनाती के लिये वित्तमंत्री अरुण जेटली से सिफारिश की। कहते हैं कि गलतकारी चाहे जितनी चालाकी से की जाय कोई ना कोई चूक हो ही जाती है और वही चूक जानलेवा हो जाती है। इस मामले में भी ऐसा ही हुआ। टाइम्स ऑफ इंडिया के एक सम्पादक ​दिवाकर अस्थाना ने आई आर एस अफसर दिवाकर सुमन को यह बताया था कि उनहोंने अरुण जेटली से उनकी(सुमन की) सिफारिश की है। परंतु गलती से यह वाट्सएप टाइम्स ऑफ इंडिया के दिल्ली ब्यूरो के ग्रुप का था जो समाचारों पर आपसी विचार विमर्श के लिये बना है। अस्थाना ने 31 मई को शाम चार बजे दिये गये इस संदेश में अनुपम सुमन को बताया था कि उन्होंने और एक अन्य सम्पादक पी आर रमेश ने नार्थ ब्लॉक में वित्त मंत्री से मिल कर उनकी तैनाती के बारे में बातें की हैं। यह संदेश गलती से टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप पर पोस्ट हो गया। 15 मिनट के बाद अस्थाना को यह बात पता चली तब तक देर हो चुकी थी। लगभग हर पत्रकार उस संदेश का स्क्रीन शॉट ले चुका था और बतरस आरंभ हो चुका था। पी आर रमेश कभी इकोनॉमिक टाइम्स के ब्यूरो प्रमुख हुआ करते थे और फिलहाल ओपन पत्रिका के सम्पादक हैं। अनुपम सुमन अध्ययन के लिये छुट्टी पर हैं और वे चाहते हैं कि उनकी यहां उच्चयोग में तैनाती हो जाय। यह पद विशेष तौर पर निर्मित किया गया है और बहुत महत्वपूर्ण है। आई आर एस अफसरों को कालेधन पर नजर रखने के लिये यहां उच्चयोग में फर्स्ट सेक्रेटरी के पद पर नियुक्त किया जाता है। यह पद बहुत महत्वपूर्ण है। (काले धन की राउंड ट्रिपिंग और नोटबंदी का इस शहर से क्या ताल्लुक थे इस बात की जांच में जुटा है सन्मार्ग। जैसे ही पूरी जानकारी हासिल होगा सन्मार्ग अपने पाठकों को बतायेगा।)   
इस संदेश के सामने आने पर यह बात स्पष्ट हो गयी कि सम्पादकद्वय – दिवाकर अस्थाना और पी आर रमेश – की वित्तमंत्रालय में अच्छी पष्ठ है और अरुण जेटली के निजी सचिव सीमांचला दास , आई आर एस, से भी गाढ़ी छनती है। क्योंकि इस बातचीत में वह भी शामिल थे। संदेश में दिवाकर ने दावा किया है कि अरुण जेटली और सीमांचला दास ने सेंट्रल बोर्ड ऑफ डायरेक्ट टैक्सेज के चेयरमेन से बात कर इस सुमन की लंदन में तैनाती के रास्ते की अड़चनों को दूर करें। सेंट्रल बोर्ड ऑफ डायरेक्ट टैक्सेज ने इस तैनाती पर आपत्ति की थी। बोर्ड का कहना था कि चूंकि सुमन अध्ययन अवकाश पर हैं इसलिये उन्हें इस महत्वपूर्ण पद पर तैनात नहीं किया जा सकता है। यहां यह बता देना जरूरी है कि लंदन कालेधन का केंद्र है। इसमें एक और अत्यंत दिलचस्प तथ्य उभर कर सामने आया कि सीमांचला दास ने वित्तमंत्री को सलाह दी कि अनुपम सुमन को लंदन में तैनात किया जासके इसके लिये वे सबी विदेशी पोस्टिंग रद्द कर दें।  जहां तक खबर है कि अभी इस पद पर विजय वसंत नियुक्त हैं और उनकी नियुक्त रद्द करवा कर सुमन को उनकी जगह नियुक्त कराने की कोशिश की जा रही है। इससे साफ जाहिर होता है कि ये दोनों सम्पादक आयकर विभाग में प्रमुख पोस्टिंग करवाने के काम में लगे थे।
यहां सबसे बड़ा सवाल है कि वित्तमंत्रालय में ऐसे भ्रष्टाचार कैसे होते हैं?  अरुण जटली इसपर रोक क्यों नहीं लगाते?कहीं ऐसा तो नहीं इस प्रकार के लाभ देकर ये नेता अपने एजेंडे के लिये कहीं अखबरों का इस्तेमाल तो नहीं कर रहे हैं। इससे एक सवाल और उठता है कि क्या जो अखबार या मीडिया समूह उन नेताओं से अच्छे रिश्ते नहीं रखते उन्हें तंग तो नहीं किया जा रहा है। यहां एक चिंताजनक तथ््य उभर सामने आता है कि वर्तमान सरकार में मीडिया और सरकार के बाच काम करने और करवाने का यह धंधा किस हद तक जड़ें जमा चुका है। वित्तमंत्रालय को छोड़कर और कौन से विभाग हैं जहां यह सब चल रहा है। अगर अखबार या उसके सम्पादक सरकार पर दबाव दे सकते हैं तो सरकार भी तो सम्पादकीय नीतियों को बदलने के लिये अखबारों पर दबाव डाल सकती है। शायद इसी हालात को भांप कर भारत में मीडिया के जनक जेम्स आगस्टस हिक्की ने पत्रकारों को सलाह दी थी के सत्ता के संचालकों से दूर रहें।
अंग्रेजी में भेजे गये वाट्सएप संदेश (स्क्रीन शॉट संलग्न) का हिंदी अनुवाद :
‘‘बाबू ने वित्तमंत्री से मुलाकात की। साथ में रमेश भी थे। उनसे आाई टी ओ यू के बारे में बातें हुईं। उन्होंने दास को बुलाया और दास ने वित्तमंत्री के सामने बताया कि ने गलत समझा है कि आप वहां तैनाती पर हैं जबकि आप अध्ययन अवकाश पर हैं। यह वित्तमंत्री के सामने ही स्पष्ट कर दिया गया कि आपके फेलोशिप के लिये सरकार ने खर्च नहीं दिया है। दास ने यह भी बताया कि यह सारा मामला अब वित्तमंत्रालय के हाथ में नहीं है क्योंकि सी बी डी टी ने उसे विदेशमंत्रालय के फॉरेन सर्विस बोर्ड को सौंप दिया है। दास ने सुझाव दिया कि हमलोग विदेशों में तैनाती की पूरी सूची ही रद्द कर दें क्योंकि केवल लंदन के लिये ऐसा करना अच्छा नहीं होगग। इसपर वित्तमंत्री ने कहा कि ओ. के. और कहा कि चलो। ’’

(जहां तक पता चला है ‘बाबू’ दिवाकर अस्थाना का तकिया कलाम है। वे सभी को बाबू कह के ही बुलाते हैं।) 

Wednesday, June 28, 2017

पीट-पीट कर मार डालना

पीट-पीट कर मार डालना
ईश्वर अल्लाह तेरे नाम के हिमायती हमारे देश भारत में इन दिनों गऊ की रक्षा के नाम पर लोगों को पीट पीट कर मार दिया जा रहा है। अभी विगत गुरूवार को पश्चिम बंगाल के दक्षिण दिनाजपुर में गऊ तस्करी के संदेह में तीन लोगों को पीट पीट कर मार दिये जाने की घटना के साथ में 2015 के आखिरी दिनों से अब तक गऊ रक्षा के नाम पर 16 घटनाओं में 24 लोग मारे गये। कुछ लोग कह सकते हैं कि भारत जैसे देश में यह संख्या बड़ी नहीं है पर ऐसी घटनाओं का देशव्यापी प्रसार का अर्थ होता हे कि हिंदु मनोवृति में बदलाव की शुरूआत। यह शुरूआत गलत है या सही यह अलग तर्क तथा विश्लेषण का विषय है पर उससे अलग जिस देश ने केवल सत्तर साल पहले हिंदू और मुसलमान के नाम पर इतना बड़ा खून खराबा देखा हो जिसकी विश्व इतिहास में मिसाल नहीं है उस देश में ऐसी मनोवृति के विकास के लक्षण सचमुच भयानक संकेत दे रहे हैं। सत्तर साल पहले जब इन्हीं दो सम्प्रदायों के नाम पर देश बंट गया था तो उस पक्रिया में लगभग 2लाख लोग मारे गये थे और 33 हजार हिंदू सिख महिलाओं को पाकिस्तान में रोक​ लिया गया था। ऐसी खून की नदी में  एक देश के दो टुकड़े बह गये और टोबा टेक सिंह इस मनोवृत्ति की पड़ताल करते- करते सीमा पर पर मर गया। तबसे यह मनोवृत्ति दोनों देशो में किसी ना किसी रूप में दिख रही है। अभी सियालकोट में जो हुआा वह भी ऐसी ही घृणा की अभिव्यक्ति है। हमारे देश में भी 1947 के बाद से दंगे होते रहे और आ यह नयी प्रक्रिया शुरू हुई है। इस तरह अी अबिव्यक्ति आरोप से जन्में आतंक के पहियों पर दौड़ती हैं और लोगों के गुस्से के ईंधन का उपयोग करतीं हैं। जब कभी ऐसा होता है तो कारण और तर्क केवल उफनते गुस्से तथा हिंसा के पक्ष में होते हैंऔर भीड़ जमा करने के लिये भावनात्मक ज्वार चल रहा होता है। ऐसा होता क्यों है और इसके पीछे का मनोविज्ञान क्या है?विख्यात आचार शास्त्री और नोबेल पुरस्कार विजेता जैव विज्ञानी कोनार्ड लोरेंज के मुताबिक जब कोई मनुष्य ऐसा करता है तो वह अपने भीतर एक दैवीय सिहरन का अनुभव करता है। लोरेंज ने अपनी पुस्ष्तक ‘एग्रेसन’ में लिखा है कि ‘ऐसा करते समय मनुष्य एक दैवीय अनुभूति को अपनी धमनियों में दौड़ता महसूस करता है। ऐसे कर्मो को वह अपने समुदाय या अपनी बिरादरी या अपने मत के लोगों के लिये वीरोचित कार्य मानता है। ’ एक छोटे से मसले पर चाहे वह गोमांस हो या गऊ तस्करी या इससी तरह का अन्य मसला, लोग देखते रहते हैं तथा इल्जामशुदा आदमी को काट डाला जाता है तथा सब लोग इस बर्बरता पर तालियां बजाते हैं अपने स्मार्टफोन से वीडियो बनाते हैं। हाल में चाहे वह भारत हो या पाकिस्तान या अन्य देश सत्ता के माध्यम से समाज में या सियासत में धर्म को पेवस्त कर दिया गया है। नतीजा यह होता है कि कोई भी आदिम विचार संस्कृति के नाम पर समाज में संचरित हो जाता है। स्कॉटिश विचारक चार्ल्स मैके ने अपनी किताब ‘एक्सट्रा ऑर्डिनरी पोपुलर डेल्यूजंस एंड मैडनेस ऑफ क्राउड’ में लिखा है कि ‘इंसान समूह में सोचता है। ऐसा देखा गया है कि समूह के उकसावे पर इंसान पागल हो जाता है जबकि वह धीरे धीरे शांत होता है।’ अब जब कोई बीड़ के उकसावे के प्रभाव आ जाता है तो  वह वह वही करता है जो भीड़ कर रही होती है। वह सही गलत नहीं सोच सकता। प्राणीशास्त्री रिचर्ड डॉकिन्स के मुताबिक संस्कृति के नाम पर फैलने वाले ये ये विचार हस्तांतरणीय होते हैं और उनहें केवल अनुकरण या अनुकृति की मदद से जन से समुदाय तक फैलाया जा सकता है। इनका कोई तार्किक कारण नहीं होता। चहाहे वह गणेश को दूदा पिलाने का मामला हो या गांवों में ओझा- भूत का मसला हो या किसी सिनेमाई चरित्र या राजनीतिक नेता के बोलचाल के ढंग या उसके लिबास का मामला हो। ये धार्मिक सांस्कृतिक विचार किसी समुदाय या समूह में एक दूसरे के दिमाग में छूत की बीमारी की तरह फैलते हैं। इन धार्मिक सांस्कृतिक विचारों का स्वरूप चाहे बिम्बों में हो या उद्धरणों एक मन से दूसरे मन में केवल ‘कट-पेस्ट’ होते हैं। संचार की तीव्रता के कारण इस प्रक्रिया में भी तीव्रता आ गयी है। यही नहीं आजकल के नौजवान इसे बहुत तेजी से स्वीकार कर भी लेते हैं। जब कोई भीड़ के साथ सक्रिय होता है तो उसके अवचेतन में एक यही तथ्य काम करता है कि जबतक वह खुद को सुरक्षित समझता है। फ्रायड ने अपने ‘थ्योरी ऑफ क्राउड बिहेवियर’ में कहा है कि जब कोई समुदाय में काम करता है तो खुद को ज्यादा ताकतवर महसूस करता है। गऊ रक्षा के पीछे ताकत का यही अहसास और दार्मिक सांस्कृतिक दैवीय चेतना का सिहरन काम करती है।  

Tuesday, June 27, 2017

मोदी- ट्रम्प की मुलाकात

मोदी – ट्रम्प की मुलाकात

पधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की सोमावार को वाइट हाउस में मुलाकात हुई। ट्रम्प ने खुद को भारत का सच्चा दोस्त बताया आहैर कहा कि दानाहें में समरनीतिक भागीदारी बहुत महत्वपूर्ण है। वायदों और आश्वासनों के बड़े – बड़े वायदा- आश्वासनों के बल पर सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे दोनो नेताओं की वार्ता का मुख्य विषय संभवत: समझौता-सौदा था और मुलाकात के बाद घोषणा पत्र में आतंकवाद से जंग और उसके खात्मे को मुख्य विषय बनाया गया। घोषणा पत्र में आतंकियों को सूचीबद्ध किये जाने के लिये ‘नयी परामर्श तकनीक ’ स्वागत योय है और इसका लम्बे समय से इंताजार था। इस प्रस्ताव के क्रियान्वित होने के पूर्व और भी बहुत कुछ किये जाने की जरूरत है। पाकिस्तान से सम्बंधित तथ्य का जिस जगह जिक्र का जिस जगह जिक्र आया है वहां यह सही है कि अमरीका भारत की इस बात को मानता है कि पाकिसतान की और से कई बार भारत पर हमले हुये। वे हमले पाकिस्तानी आतंकी गिरोहों ने किये। दोनों नेताओं ने सहमति जाहिर की कि अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद पर राष्ट्रसंघ में विस्तृत सम्मेलन का आयोजन किया जाना चाहिये। ओबामा प्रशासन इस प्रस्ताव पर लगातार ना नुकुर करता रहा था। दोनों नेताओं ने कहा कि यह एक सशक्त संयुक्त घेषणा पत्र है जो भारत अमरीका सुरक्षा सहयोग का पाथ प्रशस्त करेगा। यह दोनों की पहली मुलाकात थी और इसमें संकेत मिले कि यह चालू रहेगा।  साथ ही अमरीका ने चीन के बॉर्डर बेल्ट रोड के प्रति भारत के रुख का अनुमोदन किया। वाइट हाउस के रोज गार्डन में चमकते सूरज की रोशनी में दोनों नेताऔ ने अमरीका वरिष्ठ अफसरों तथा पत्रकारों को सम्बोधित किया। पूरी वार्ता में दोनों ओर से एक दूसरे की प्रशंसा के पुल बांधे जा रहे थे। अमरीकी पक्ष ने पत्रकारों से सिफारिश की ​कि एक आदमी एक ही प्रश्न पूछेगा। पत्रकारों के सवाल के जवाब देने के प्रति मोदी जी की अनमयस्कता को देखते हुये उन्हें इस बात की​ ताकीद कर दी गयी कि प्रश्न केवल दानों नेताओं की वार्ता से ही सम्बंधित हों। ट्रम्प ने कहा कि ‘मैं भारत के लोगों का अभिवादन कर के रोमांचित महसूस करता हूं।’ लेकिन ट्रम्प अपनी आदत से बाज नहीं आये ओर उनहोंने विशेष तौर पर इस बात का जिक्र किया कि ‘दोनो देशों में साफ् सुथरा और बराबरी का कारोबार होना चाहिये और व्यारिक अवरोध हटाये जाने चाहिये तथा भारत के साथ जो अमरीका का व्यापार घाटा है उसे पूरा करने का प्रयास किया जाना चाहिये।’ भारत के साथ अमरीका का व्यापार घाटा 30 अरब डालर का है जो चीन की तुलना में बहुत कम है। सोमवार को उस प्रेम प्रदर्शन से भरे वातावरण में एकमात्र यही एक तीखी बात थी पर उसे ट्रम्प ने यह कर ततकाल संभाल किया कि इंडियन एअर लाइंस ने 100 विमानों का आर्डर दिया है इससे हजारों लोगों को रोजगार मिलेगा। अब तक अमरीका के हर राष्ट्रपति ने भारत के प्रति मीठी वाणी का ही इस्तमाल किया है पर शायद पहली बार किसी ने खुल कर भारत के समर्थन में कहा कि आतंकवाद का खात्मा दोनो देशों में सबंधों का महत्वपूर्ण महत्वपूर्ण कारक है। हम दोनों ‘कट्टर इस्लामी आतंकवाद को खत्म करलने के प्रति कृतसंकल्प हैं।’ ट्रम्प ने मंच से जब यह घोषणा की तो मोदी उन्हें एकटक देख रहे थे। अमरीका ने यहां अपनी सत्ता का प्रदर्शन किया। प्रथम पंक्ति में उपराष्ट्रपति माइक पेंस और अमरीका की प्रथम महिला मेलानिया ट्रम्प तथा उनके मंत्रिमंडल के सबी सहयोगी उपस्थित थे। इस पुरी मुलाकात का सबसे हैरतअंगेज हिस्सा वह घोषणा थी जिसमें कहा गया कि भहारलत में आयोजित होने वाली ग्लोबल इंटरप्रेनियरशिप समिट में ट्रम्प की पु1ा इवांका ट्रम्प शरीक होंगी। मोदी ने कहा कि वे इवांका की आगवानी के लिये उत्सुक हैं।

ट्रम्प के बाद उतने ही विशेषण भरे शब्दों से मोदी ने बी उनकी बात का जवाब दिया। उन्होने कहा कि दोनों की मुलाकात द्विपक्षी सम्बंधों के इतिहास में दर्ज होगी। उन्होंने इसके कारण गिनाये कि यह वार्ता आपसी भरोसे के आधार पर हुई। दोनों देश मूल्यों, भय और त्रासदी के समान भागीदार हैं। दोनों देश वैश्विक विकास के प्रमुख वाहक हैं। मोदी ने कहा कि दोनो देशों की समरनीतिक भागीदारी एक नयी ऊंचाई को स्पर्श करेगी। उन्होंने यकीन है कि ताकतवर अमरीका भारत के लिये लाभदायी होगा। मोदी ने ट्रम्प और उनके परिवार को भारत आने का न्यौता दिया। सारे विशेषणों और प्रशंसाओं के बावजूद इसे कायम रखने के लिये बहुत कुछ करना होगा।

    

Monday, June 26, 2017

कोई हंगामा करो ऐसे गुजर होगी नहीं

कोई हंगामा करो ऐसे गुजर होगी नहीं

 

 भारत एक ऐसा देश है जहां सदा खेतिहर या किसान का इस्तेमाल किया गया चाहे वह भावनाऔं को भड़काने के लिये किया गया हो या फिर राजनीति की सुलगती आग की आंच को बढाने के लिये।

जरा सा तौर तरीकों में हेरफेर करो

तुम्हारे हाथ में कालर हो आस्तीन नहीं

 

पौराणिक काल में राजा जनक का हल चलाना इसी भावावेग को त्वरित करने की कथा थी। दूर जाने की जरूरत नहीं है लगभग 30-40 साल पहले 19601970 में भारतीय किसान यूनियन ने हजारों किसानों से दिल्ली को भकभोर दिया था। इसके बाद 1988 में दिलली का बोट क्लब एक बार फिर किसानों के नारों से गूंज उठा था। 60 के दशक में चौधरी चरण सिंह किसान नेता के ऱ्प में उभरे थे जिनकी यात्रा प्रधानमंत्री के पद तक हुई। सियासत की चालाकी ने उस किसान आंदोलन को जाति आंदोलन में बदल दिया और वह हिंदुत्व के रूप में ढल गया। लेकिन हाल में किसान आंदोलन फिर से उभर गया। यह आंदोलन 1991के उत्तरकाल में विकास की जो दिशा है उसी का सामाजिक आर्थिक प्रतिफल है। इस विकास की दौड़ में ग्रामीण भारत पिछड़ गया और शहरी भारत आगे निकल गया। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की रपट के मुताबिक 1993-94 में भारतीय गांव में प्रतिव्यक्ति मासिक खर्च 281 रुपये थे जबकि उसी अवधि में शहर में प्रति व्यक्ति मासिक खर्च 458 रुपये थे। 2007-2008 में यह अंतर और बड़ गया। इस अवधि में ग्रामीण भारत में प्रतिव्यक्ति मासिक खर्च बढ़कर 772 रुपये हो गया जबकि शहरी भारत में यह 1472 रुपये हो गया। 2011-12 आते आते यह अंतर और बढ़ गया। इस अवधि में ग्रामीण भारत में प्रतिव्यक्ति खर्च 1430 रुपया था। सरकार या हमारे नेता कहते हैं कि यह 1430 रुपया 2007-2008 के 772 रुपये से 85 प्रतिशत ज्यादा है। जबकि इसी अवधि में शहरी बारत का प्रतिव्यक्ति मासिक खर्च 2630 रुपये हो गया। जो कि 2007-2008 की तुलना में 79 प्रतिशत बड़ी। हमारे राजनीतिज्ञ कहते हैं कि आलोच्य अवधि में शहरी भारत की खर्च करने की औकात ग्रामीण भारत से कम हुई है। इसी आंकड़े के बल पर गांवों के विकासे की सुनहरी तस्वीर खींचते हैं।

तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है

मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है

यह अंतर कृषि के धीमते विकास के कारण हुआ। 2005-06 और 2011-12 में 2004-05 की स्थिर कीमतों पर औद्योगिक विकास दर 7.5 प्रतिशत था, सेवा क्षेत्र में यह दर 9.95 प्रतिशत थी, लेकिन इसी अवधि में कृषि के विकास की दर महज 3.8 प्रतिश थी। यह कृषि की तरफ से सरकार की उदासीनता का सबूत है। कहने के लिये सरकार ने गांवो में रोजगार के लिये मनरेगा लागू किया था जिसमें पैसा ही नहीं था।  2017 के बजट के बाद उसकी हालत थोड़ी सुधरी है। मनरेगा गरीब किसानों के लिये था पर वे गरीब इसका लाभ नहीं उठा सके उल्टे लगातार दो वर्ष तक सूखे का प्रहार झेलते रहे। नोटबंदी ने इस प्रहार को और भी मारक बना दिया। नगदी के लिये बेहाल किसान अपने उत्पादनों को औने पौने दाम में बेचने लगे। इससे भी नहीं काम चला तो कर्ज लेने लगे और कर्जे से दब गये। कई बार तो 20 प्रतिशत मासिक व्याज के दर पर भी कर्ज लेने की घटना सुनने में आयी है। हालात इतने नहीं बिगड़े होते अगर सरकार ने निम्नतम समर्थन मूल्य सही रखा होता। यही नहीं खाद पर सब्सीडी कम हो गयी और बिजली की दर बढ़ गयी। किसान और संकट में फंस गया।

देखे हैं हमने दौर कई अब खबर नहीं

पैरों तले जमीन है या आसमान है

उसे इस संकट से निकालने के लिये सरकार ने अबतक केवल एक आयोग का गठन किया जबकि कर्मचारियों के लिये सात- सात आयोग बने। किसानों के लिये गठित आयोग की सिफारिशें अभी तक लागू नहीं हो सकी है।

 

जो उलझ कर रह गयी है फाइलों जाल में

गांव तक वो रोशनी आयेगी कितने साल में

 

हर दल किसानों को अपना वोट बैंक माना और उनसे चुनाव के दौरान मीठे और झूठे वायदे किये। कुछ पूरा नहीं किया जा सका और पीड़ा बढ़ती गयी। नतीजा यह हुआ कि किसानों मेंआत्म हत्या की प्रवृति बढ़ने लगी। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक 2014के मुकाबले किसानों की आत्म हत्या में 42 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।

सोचा था उनके देश में महंगी है जिंदगी

पर जिंदगी का भाव यहां और भी खराब है

किसानों के झूठे पैरोकार झूठे वायदों के बल पर संसद में जाते हैं, किसानों की पीड़ा का सर्वे करवाते हैं, उन्हें तराजू पर तौलते हैं, राहत के नाम पर कुछ सिक्के उछाल दिये जाते हैं जो वर्षों बाद आते हैं और नया घाव दे जाते हैं। पूरे देश का पेट पालने वाले किसान कर्ज, व्याज, कर्ज माफी , न्यूनतम समर्थन मूल्य, योजनाऔं , घोषणाओं और खैरातों की भूलभुलैय्या में फंस जाते हैं। कोई राह नहीं दिखती तो आत्महत्या कर डालते हैं। हमारे नेता इन हत्याओं का रिकार्ड तथा ज डी पी के आंकड़े देखते हैं। नयी घोषणा करते हैं।   

पक गयी​ हैं ये आदतें बातों से सर होंगी​ नहीं

कोई हंगामा करो ऐसे गुजर होगी नहीं