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Tuesday, January 31, 2017

बजट : एक हाथ से दे एक हाथ से ले

बजट : एक हाथ से दे एक हाथ से ले

आज देश का बजट है। सरकार ने इसे एक महीना पीछे सरका लिया हैइसके चाहे जो कारण हों पर बज सदा से जनता और उसकी माली हालत को बनाने – बिगाड़ने वाला रहा है। इसलिये वह चर्चा का विषय रहा है। यह बजट दर असल बहुत महत्वपूर्ण इस लिये है कि यह इस सरकार का अंतिम ऐसा बजट है जो इसके अगले चुनाव पर असर डालेगा। पिछले चुनाव में मोदी जी ने बहुत उम्मीदें दिलायीं थी। इस बजट में उन उम्मीदों को पूरा करने का अंतिम अवसर है। क्योंकि इस बजट के बाद आर्थिक स्थिति को सुधरते सुदारते 2019 आ जायेगा।

एक कथा है कि एक बार मंत्री जी ने भेड़ों की सभा में घोषणा की कि सभी बेड़ों को एक इक कमबल दिया जायेगा। सब बेड़ें खुश हो गयीं और उनकी हर्षधनि से फिजां गूंजने लगी। इसी बीच एक भेड़ ने कहा कि यारों कम्बल का ऊन कहां से आयेगा? सबकी बोलती बंद। जाहिर था कि ऊन के लिये तो उन्हीं बेड़ों को मूड़ा जाता। वही बात इस बार के बजट में होने वाली है। जैसे मसल के लिये लें कि वित्त मंत्री ने वादा किया था कि कारपोरेट टैक्स की सीमा 2018-19 तक 25 प्रतिशत कर दी जायेगी। फिलहाल यह टैक्स 30 प्रतिशत है और सेस इत्यादि मिलाकर 34 प्रतिशत आता है। अगर अरूण जेटली सही बोलते हैं तो इसका एक हिस्सा इस बजट में कम होना चाहिये वरना उस साल अचानक 5 प्रतिशत टैक्स घटाने से आर्थिक स्थिति में भारी गड़बड़ी हो सकती है। अतएव विश्लेषकों का मानना है कि इस बजट में सरकार कारपोरेट टैक्स 27 या 28 प्रतिशत कर सकती है। उल्लेखनीय है कि इंग्लैंड ने कारपोरेशन टैक्स को 20 प्रतिशत कर दिया है और ट्रंप इसे 15 प्रतिशत करने की बात कर रहे हैं।अगर भारत के कारपोरेट टैक्स को घटा कर 27 अथवा 28 प्रतिशत कर दिया गया तो 30 प्रतिशत पर्सनल टैक्स तर्क संगत नहीं रह जायेगा उसे घटाना ही पड़ेगा। वरना विपक्ष को एक मौका और मिल जायेगा शोर मचाने का। वैसे ही यह सरकार ‘सूट-बूट की सरकार के नाम से बदनाम है।’ अतएव पर्सनल टैक्स की सीमा को 27 या 28 प्रतिशत लाना होगा या कहें की करने की जरूरत पड़ सकती है। इसके साथ ही आयकर में छूट की सीमा 3 लाख करने की बात है। ऐसे में पर्सनल टैक्स में लाभ का असर केवल वेतनभोगी वर्ग या मध्यवर्ग को हासिल हो सकता है। गरीबों का क्या होगा? सोचिये बजट के बाद ही पांच राज्यों में चुनाव है। ऐसे क्या हो सकता है कि बजट पांचों राज्य में हवा पलट दे। इसका उभर है यू बी आई यानी यूनिवर्सल बेसिक इनकम। यह पश्चिमी देशों के सोशल सिक्यूरिटी की अवधारणा से प्ररित है। सभी बेरोजगार व्यस्कों को आधार कार्ड के माध्यम से बैंकों में 1500 रुपये हर महीने दिये जाने हैं ताकि वे जीवन यापन कर सकें। देश में लगभग 20 करोड़ बेरोजगार नौजवान हैं। इनके हिसाब से यह राशि करीब 3 लाख करोड़ बैठती है। क्या सरकार के पास इतना धन है? अतएव सरकार महात्मागांदा ग्रामीण रोजगार योजना को इसमें शामिल कर सकती है। और हो सकता है कि पहले वर्ष में गरीबी रेखा से नीचे के लोगों को ही यह दिया जाय। अब अगर सरकार कारपोरेट टैक्स घटाती है, पर्सनल टैक्स घटाती है और बीपीएल का खर्च बढ़ाती है तो इतना धन उसके पास नहीं है और उसे कहीं और से धन का बंदोबस्त करना पड़ेगा।हो सकता है इसका कुछ भाग प्रत्यक्ष कर और परोक्ष कर में वसूली बढ़ने से पूरा हो जाय। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक प्रत्यक्ष कर में 8-9 प्रतिशत वृद्धि हुई जबकि परोक्ष कर में 15-16 प्रतिशत वसूली बढ़ी है। लेकिन बाकी के लिये सरकार को सर्विस टैक्स पर निर्भर होना पड़ेगा। इस साल से जी एस टी लागू हो रहा है साथ ही वर्तमान सर्विस टैक्स की दर 14 प्रतिशत (अधिभार मिलाकर 14.5 प्रतिशत ) से बढ़ाकर अगर 18 प्रतिशत किया जाता है तो सरकार को 4 प्रतिशत का लाभ होगा। इधर सरकार ने जीएस टी से राज्यों की अर्थव्यवस्था को कम से कम पांच साल तक प्रभावित होने से बचाये रखने का वादा किया है। अतएव वह परोक्ष करों में ज्यादा ऊपर नीचे नहीं कर सकती। यही नहीं जी एस टी की दर तय करने के लिये मुख्यमंत्रियों की एक कमिटी जिममेदार होगी ना कि केंद्र सरकार। अतएव सरकार के हाथ में केवल प्रत्यक्ष कर ही घटाने बढ़ाने को बचे।

इसके साथ ही यह पांच राज्यों में चुनाव का वक्त है यानी भाजपा की अग्निपरीक्षा। नोटबंदी के के कारण बने घावों पर मरहम लगाने का समय है यह और प्रत्यक्ष करों का सीधा असर पड़े उससे पहले उसमें कटौती जरूरी है।

अब बजट के जरिये आर्थिक विकास को बढ़ावा देने की जहां तक बात है तो सरकार के पास उत्पादन बढ़ाने के अलावा कोई चारा नहीं है। उत्पादन बढ़ाने के लिये जरूरी है ढांचागत सुदार में निवेश। जिन क्षेत्रों में ढांचागत सुधार का असर नहीं होता है उनमें जी एस टी या परोक्ष टैक्स दरों में मामूली कटौती की जा सकती है। लेकिन ओ चाटने से प्यास नहीं बुझती। इसके लिये जरूरी है कि आमदनी के स्रोत बढ़ाये जाएं और यह टैक्स में वृद्धि के अलावा कोई रास्ता नहीं है। यानी व्रिमंत्री एक हाथ देंगे और दूसरे हाथ से ले लेंगे। भड़ों को कम्बल देने के लिये भेड़ों का ही मुंडन किया जायेगा।   

‘धरती धोरां री’ के गौरव को खत्म करने की कोशिश को रोका जाना जरूरी   

‘धरती धोरां री’ के गौरव को खत्म करने की कोशिश को रोका जाना जरूरी   

पद्मावति फिल्म की शूटिंग का विरोध जायज

हरिराम पाण्डेय

कोलकाता :‘पद्मावती’ फिल्म को लेकर जयपुर से उठा विवाद सोशल मीडिया के जरिये पूरे देश में व्याप्त हो गया है। राजस्थान से बाहर राजस्थानियों की सबसे बड़ी आबदी कोलकाता में है इसलिये यहां के समाज में उसे लेकर बेचैनी महसूस हो रही होगी। लोग इतिहास का हवाला दे रहे हैं और पद्मावती को साहित्यिक रचना बना कर उसपर विवाद को हवा दे रहे हैं। जो लोग ज्ञानगुमानी हैं उनका कहना है कि साहित्यिक रचना पर विरोधी विवाद नाजायज है। इस तथ्य पर आगे बढ़ने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि पद्मावती है क्या? पद्मावती की रचना 1540 में मल्लिक मोहममद जायसी ने की थी​। यह काल तुलसीदास के रामचरित मानस की रचना से पहले का काल है। जायसी ने यह बताने की कोशिश की है कि चित्तौड़ की राजपूत रानी ने दिल्ली के सुल्तान के समक्ष आत्म समर्पण करने के बदले आत्मदाह कर लिया। अवधि की यह रचना इतनी सशक्त थी कि इसे इतिहास मान लिया गया। लोगों का तर्क है कि यदि यह साहितियक रचना है तो इतना बवाल क्यों?

आगे बढ़ने से पहले राजस्थान की जातीय संरचना को पहले देखना जरूरी है, क्योंकि सामाजिक आचरण उसी से निर्देशित होते हैं। राजपूतों के नाम पर बना कभी राजपूताना आज के राजस्थान में राजपूत इन दिनों जनसांख्यिक अल्पसंख्यक हैं। आजादी के बाद की चुनावी राजनीति ने ब्राह्मणों और जैनियों और जाट, गुज्जर , माली और मेघवालों जैसे पारम्परिक शक्तिशाली समूहों को विकसित किया और राजपूतों का पतन हुआ। सच तो यह है कि भैरों सिंह शेखावत के अलावा कोई राजपूत मुख्यमंत्री पद तक नहीं पहुंच सका। कभी के राजस्थान के शासक राजनीतिक तौर पर शक्तिशाली समूह के तौर पर नहीं उभर सके। राजनीतिक और सामाजिक क्षरण के बाद वे धंदो की ओर झुकने लगे। कभी के शान - ओ-शौकत का प्रतीक हवेलियां होटल बनने लगीं और राजपूत नौजवान गाइड बन गये।

अब जहां तक फिल्म की शूटिंग के विरोध की बात है तो समाजवैज्ञानिक तौर पर यह राजपूत इतिहास तथा राजपूत स्मृति के बीच एक चौड़ी खाई के कारण है और इस खाई के फलस्वरूप इस समाज में भारी चिंता और भय है। यहां राजपूतों खासकर राजपूताना के राजपूतों के बारे में भी जानना जरूरी है। राजपूतों ने खुद को मुस्लिम शासकों के अंतिम विरोधी के तौर पर पेश किया है। उन्होंने इस विरोध के लिये भारी त्याग का भी दावा किया है। यह त्याग राजपूत रानियों में भी दिखता है , उन्होंने मुस्लिमों के हाथ जलील होने से बेहतर सती होना या जौहर कर लेना ठीक समझा। राजपूत होना इसी गर्व का प्रतीक है। इस प्रतीक को साहित्य तथा इतिहास में और सशक्त किया गया है। मुस्लिम विरोध का यह बिम्ब रज्य भर में बिखरा पड़ा है। राजाओं की मूर्तियां लगीं हुईं हैं जो देखने वाले को राजपूताना के गौरव की याद दिलाती है। चेतक पर सवार महाराणा प्रताप सर्वोच्च राजपूत गौरव के प्रतीक हैं जो राज्य या प्रांत या जाति से ऊपर हैं। महाकवि कन्हैया लाल सेठिया की ‘धरती धोरां री’ राजस्थान के गर्व का वाचिक बिम्ब  है जो मनोवैज्ञानिक तौर पर रेगिस्तान को प्रतिबिम्बिन नहीं करता बल्कि एक ऐसी धरती के ​चित्र बनाता है जो वीरता और असम परिस्थितियों में परम त्याग की कथा कहता है। हालांकि राजपूत इतिहास अपने चारों तरफ विरोधी युद्ध का ढांचा बना चुका है लेकिन इसका कुछ भाग सामाजिक मौन ने भी रचा है। कवियों ने तो राजपूतों की उत्पति सूर्य और अग्नि से हुई बतायी जाती है साथ ही उन्हें साहसी घुमक्कड़ माना गया है। 15वीं सदी के बाद राजपूतों ने सगोत्रीय विवाह शुरू किया। इसके बावजूद राजपूतों की पदवियां बाहर की जातियों को भी दी जाने लगीं। मराठों और सिखों में भी कई राजपूत जातियां मिलतीं हैं। सजातीय विवाहों ने इसे उच्चवर्गीय बना दिया।

असहज स्मृतियां

लेकिन राजपूतों की पसलियों में एक कांटा अभी भी खटकता है वह है बेटियों की शादी मुसलमान सरदारों करने की मजबूरियां। उस काल में राजसत्ता के लिये दूसरी जातियों विवाह कोई असामान्य बात नहीं थी। राजपूतों और मुगलों के बीच शादियों का मुख्य कारण उनका उच्चवर्गी होना था। 16 वीं शताब्दी के मध्य से 18 वीं सदी तक अकबर से लेकर फारुखशियार तक लगभग 27 राजपूत राजकुमारियों के मुस्लिमों से शादियों का इतिहास है। यही नहीं कई राजपूत राजा भी मुगलों के चाचा, मामा, भतीजा , भानजा होने का गौरव हासिल कर चुके हैं। कर्नल टॉड ने राजस्थान का इतिहास लिखते हुये कहा है कि रणथम्मौर के दुर्ग के समर्पण में सुरजन सिंह हाडा और अकबर में बेटी नहीं सौंपना ही शर्त थी। यह भी कहा जाता है किबिकानेर के शासकों ने इतिहासकारों को केवल इसलिये पैसे दिये थे कि वे उन तथ्यों पड़ताल करें जिससे प्रमाशित हो कि उन्होंने मुगलों को अपनी बेटियां नहीं दी थीं। रमैया श्रीनिवासन ने अपनी  पुस्तक ‘‘द मेनी लाइव्स ऑफ राजपूत क्वीन : ​हिरोइक पास्ट इन इंडिया- 1500-1900 ’’ में पद्मावत का उल्लेख करते हुये लिखा है कि ‘अलाउद्दीन खिलजी के चित्तौड़ पर कब्जे के लगभग 200 साल बाद लिखी रचना देश भर में प्रसिद्ध हुई। अंग्रेजी, हिंदी , उर्दू तथा बंगला में अनुवाद के दौरान कैसे इसे एक राष्ट्रीय पहचान के बदले जातीय पहचान से जोड़ दिया गया। ’  

यद्यपि , पद्मिनी या पद्मावती एक कथा है या सूफी आदर्श यह राजस्थान के राजपूतों के लिये मायने नहीं रखता। उनके लिये यह एक हकीकत है और राजपूत शौर्य का बिम्ब है। तुर्कों, मुगलों, मराठों, पिण्डारियों , ब्रिटिश और लोकतंत्र के कारण राजस्थान के राजपूतो की हुई क्षति  का लम्बा इतिहास है लेकिन इसके साथ ही यह विरोध और शौर्य की गाथ भी है कि महिलाओं ने मुस्लिमों के सामनशे आतम समर्पण करने की बजाय आत्मोत्सर्ग कर दिया। यह राजपूत होने का गौरव है। फिल्मों के कारण पद्मिनी का गुम हो जाना या उसका चरित्र बदल जाना राजपूत स्मृति तथा राजपूताना की स्मृति के लिये बहुत बड़ी हानि होगी। इसलिये इसका विरोदा होना उचित है। फिल्म बनाने वाले को यह समझना चाहिये कि इतिहास समाज की रचना नहीं करता है बल्कि इतिहास का डानामिक्स समाज के रस्मोरिवाज हैं। यही नहीं सदियों से कायम मान्यताओं और भावनाओं को आहत कर रुपया कमाने की यह साजिश भी​ है।

Monday, January 30, 2017

भा ज पा का अंकगणित

भाजपा का अंकगणित

चुनाव फिर से आ गये। अलग –अलग क्षेत्रफल , आबदी, सामाजिक संरचना, आर्थिक स्थिति वाले पांच राज्यों में चुनाव होने हैं। हालांकि लोकसभा चुनाव अभी दूर हैं लेकिन इन चुनावों के नतीजे दूरगामी प्रभाव वाले होंगे। इन राज्यों में दो अखिल भारतीय और दो क्षेत्रीय दल सत्ता में हैं। ये चुनाव इनकी किस्मत का निर्णय करेंगे लेकिन दुखद यह है कि किसी के पास कोई प्रभावशाली दावा नहीं है। सबके सातने एक ही कठिनायी है। गोवा, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भाजपा के साथ आंतरिक कठिनाइयां हैं तो कांग्रेस की अपनी समस्याएं हैं। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में कांग्रेस के कई नेता भाजपा में शामिल हो गये जबकि मणिपुर में सत्तारूढ़ दल की हालत खराब है और पंजाब में घरघराहट अभी कायम है। समाजवादी पार्टी पारिवारिक कलह से ग्रस्त है। कहने का मतलब है कि शासन और संगठन के मामले में सभी दल एक ही तल पर खड़े हैं। हालांकि भाजपा चूंकि केंद्र में सत्रारूढ़ है और बहुमत में है अतएव उसकी स्थिति थोड़ी अच्छी है। बिहार की भांति यू पी भी भाजपा के लिये निकष होगा। यू पी में काहंग्रेस की सीमाओं और बहुकोणीय संघर्ष के बावजूद भाजपा की सीमाएं स्पष्ट दिख रहीं हैं। 2014 में भाजपा को उत्तर प्रदेश में जो भारी विजय मिली थी वह इस बार उसके लिये बोझ सा दिखने लगी है। यही नहीं वह भारी विजय राज्य में पार्टी में भितरघात और गुटबाजी की संभावनाओं को भी मजबूत कर रही है। लोकसभा चुनाव में उसे 403 विधान सभा चुनाव खंडों में से 327 खंडों में विजय मिली थी जो इस बार संबव नहीं दिख रही है। इस बार वे सब नहीं चलेंगे जो 2014 में उनकी विजय के लिये कारक थे। अगर यू पी में भाजपा ने विजय नहीं पायी तो इसका बड़ा घातक प्रभाव हो सकता है। विडम्बना यह है कि इस बार का चुनाव सपा के लिये अन्कमबेंट टेस्ट नहीं होगा उल्टे भाजपा के लिये होगा कि यह 2014 का अपना रिकार्ड कायम रख्ग सकती है या नहीं। अब सुप्रीम कोर्ट ने 1 फरवरी को बजट पेश करने की इजाजात दे दी है तो इससे यकीनन उसे थोड़ा लाभ मिलेगा। भाजपा चाहे जो कहे लेकिन मतदाताओं का फोकस राष्ट्रीय मसलों पर चला जायेगा। बजट के शोर शराबे में मतदाताओं और मीडिया का ध्यान विभाजित हो जायेगा। बजट का स्वरूप कैसा होगा और इसके बाद से भाजा कौन सी समर नीति अपनाती है उसके आधार पर कहा जा सकता है कि गैर भाजपाई दलों के गणित गड़बड़ हो कते हैं। इसके बावजूद कई अन्य कारण है तथा बजट भी उनमें एक कारण है , भाजपा रक्षात्मक जंग लड़ने के लिये बाध्य है और उसके सामने कई जटिल चुनौतियां आ सकतीं हैं। अब बजट की ही बात लें तो भाजपा इसे लेकर दुविधा में है। संभवत: इस सरकार के लिये अर्थ व्यवस्था में भारी परिवर्तन लाने वाला बजट पेश करने का अंतिम अवसर है। यह बजट ही 2019 तक व्यवहारिक परिवर्तन ला सकता है। लेकिन इस बजट का समय और सरकार की प्रवृति से लगता है कि यह लोकलुभावन होगा। अतएव नोटबंदी की ही भांति बजट में जो कड़े कदम उठाये जायेंगे उनके कड़ुवेपन को दूर करने के लिये सरकार को एड़ी चोटी का जोर लगाना होगा। चाह जे हो भाजपा को दबाव में काम करना होगा। यही नहीं नकारात्मक जनमत को सकारात्मक बनाने के लिये नरेंद्र मोदी सहित पूरी पार्टी को अपने सभी हथकंडे अपनाने होंगे। जनता और भाजपा का जो मधुमास था वह अब खत्म होता जा रहा है। अब अगर चुनाव में उसे बरी बहुमत मिलता है तो यह मधुमास फिर से शुरू हो सकता है। 2014 के चुनाव के नतीजों को यदि अखिल भारतीय स्तर पर देखें तो पता चलेगा कि जनादेश स्पष्ट था। मतदाताओं ने न केवल भाजपा को एक दल की तरह कबूल किया बल्कि नरेंद्र मोदी को अपना सारा भरोसा सौंप दिया था। मोदी जनभावना के प्रतिनिदि बन गये थे और साथ ही इस उम्मीद के भी प्रतिनिदि थे उनके नेतृत्व में भाजपा सब कुछ ठीक कर देगी। मोदी और जनता या मतदाताओं के मध्य एक अजीब समबंदा दिखने लगा था। वह सम्बंध मोदी से प्रेम और उममीद का मिलाजुला स्वरूप था। इसमें भाजपा की कोई बूमिका नहीं थी। यही कारण है कि बाद के चुनाव में अगर पार्टी हारी भी तो लोगों मोदी के प्रति आास्था और उम्मीद कायम रही। लोकसभा चुनाव के बाद जो बी विदान सबा चुनाव हुये उसमें भाजपा का रिकार्ड बहुत अच्छा नहीं रहा। जैसे जैसे समय बीतता गया मोदी का तिलिस्म घटता गया। मोदी ने नोटबंदी के माध्यम से कुछ करिश्मा दिखाने की कोशिश की थी पर कामयाबी नहीं मिल सकी। अब आने वाले चुनाव में मोदी और भाजपा कुछ करिश्मा कर सकेंगे यह तो समय ही बतायेगा। अगर मोदी के शासनकाल ना समाज वैज्ञानिक विश्लेषण करें तो दिखेगा कि मतदाताओं और मोदी में एक अजीब समबंदा था। इस सम्बंध से देश में खुशहाली नहीं आ सकी हालांकि मोदी का व्यक्तितव कायम रहा लेकिन चुनाव मशें विजयी बनाने का लाभ जनता को उम्मीद से कम मिला। लोग अब ‘अच्छे दिन’ के बारे उत्तर देने में हिचकिचाते हैं। सच तो यह है कि मोदी जी ने अच्छे दिन के स्टेज को कालाधन के खत्मे के मंच में तब्दील कर दिया। आंशिक तौर पर ही सही जनता ने इसे भी मान लिया। लेकिन कोई खास बदलाव तो नहीं आया। अब मोदी और भाजपा के लिये सामने चुनौती है।  

Sunday, January 29, 2017

बापू की शहादत

बापू की शहदत

हरिराम पाण्डेय

आज जबकि समाज में आवांतर सत्य (पोस्ट ट्रुथ ) का वार्चस्व तेजी से बढ़ता जा रहा है और कई देशों में लोकतंत्र कं मुखौटे में अधिनायकवादी शासनका जोर बढ़ता जा रहा है, समाज में धार्मिक असहिष्णुता का पसार हो रहा है और पर्यावरण की स्थिति खराब होती जा रही है तो प्रतीत होता है कि गांधी आज पहले से ज्यादा प्रासंगिक हो गये हैं। लेकिन भारत में हम गांधी को भूलते जा रहे हैं। एक दशक से भी ज्यादा समय गुजर गया होगा , कोलकाता के राजभवन में महात्मा गांधी के पौत्र और पश्चिम बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी पर चर्चा हो रही थी और उस दरम्यान उन्होंने गांधी की भवितव्यता पर बात में कहा कि ‘उनका हाल बुद्ध का होगा। हमने उन्हें मानना छोड़ दिया और एशिया ने उन्हें गले लगाया।’ आज के दिन ही 1948 में गांधी की​ हत्या कर दी गयी थी। उन्हें मारने वालों तर्क है कि वे पाकिस्तान को बनने देने के लिये उसे 55 करोड़ रुपये देने के लिये भारत सरकार को बाध्य करने के जिम्मेदार थे साथ ही उनकी मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के कारण मुसलमानों ने भारत में खून खराबा किया था। इसलिये समाज में भारी गुस्सा उपजा था और उनकी हत्या कर दी गयी। लेकिन इतिहास का अगर बारीकी से अध्ययन किया जाय तो पता चलेगा कि ये दलीलें लोगों को गुमराह करने की शातिर हरकतें हैं। बंटवारे के आसपास के दिनों में गांधी सियासत की अत्यंत असम वीथियों में व्लझे हुये थे। जब बंटवारे का प्रस्ताव आया तो स्थिति काफी हिंसक हो गयी थी और तनाव के कारण दंगे भड़क गये जिसमें मानव इतिहास में सबसे ज्यादा लोग मारे गये। जो देसी मुसलमान थे उनकी निगाह में गांधी हिंदू नेता थे और पाकिस्तान के विरोधी थे जबकि हिंदू उन्हें मुसलमानों के हिमायती मानते थे और वे उन्हें अपने भाइयों के खून का प्रतिशोध लेने से रोकने वाले दिखते थे। गोडसे ऐसे ही चरमपंथी विचारों की संतान थे। गांधी की हत्या वर्षों के मानस शोधन (ब्रेन वाशिंग )का परिणाम थी। गांधी कट्टर हिंदुओं के मन में फांस बन गये थे और बाद में यह क्षोभ एक मानसिक भीति में बदल गयी। 1934 से 1948 के बीच गांदा की हतया की 6 बार कोशिशें हुईं और अंत में 30 जनवरी 1948 को कोशिश कामयाब हुई। गोडसे इससे पहले दो बार 1944 और 1946 में कोशिशें कर चुका था। अगर 1934 के बाद के हालातों को समाजवैज्ञानिक कसौटी पर परखें तो पता चलेगा कि पाकिस्तान को बनाने में जितना देसी मुसलमानों की भावना जिम्मेदार है उतनी ही हिंदुत्व की तीखी प्रतिक्रिया भी जिम्मेदार है।सोचिये वह कैसी मनोदशा रही होगी कि ‘‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा ’’ लिखने वाले शायर ने ही पहली बार पाकिस्तान की अवधारणा प्रस्तुत की। यही नहीं प्रांतीय हिंदु महासभा पुणे द्वारा प्रकाशित ‘स्वातंत्र्य वीर सावरकर’ (ख्घ्ंड 6 पृष्ठ 296) में लिखा गया है कि 1937 में  अहमदाबाद में हिंदू महासभा के खुले अधिवेशन में वीर सावरकर ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था ‘भारत को अब एकरूप और समशील राष्ट्र नहीं कहा जा सकता है , यहां अब दो राष्ट्र हैं , हिंदू और मुसलमान।’

भारत और हिदुत्व बच गया

इतिहास बताता है कि अगर गांधी की हत्या नहीं हुई रहती तो भारत अभी​ और भी कई बार बंटता। 30 जनवरी की घटना के दूसरे दिन यानी ज्जिनवरी 1948 को  रिटायर्ड आई सी एस ऑफिसर माल्कम डार्लिंग ने अपती डायरी में लिखा कि ‘कल गांधी की हत्या कर दी गयी अब भारत का दुबारा टूटना अपरिहार्य है। लगता है हमें (अंग्रेजों को) जल्दी ही भारत लौटना होगा।’ माल्कम की इस शंका को बहुतों ने जाहिर किया था और सब कह रहे थे कि बारत 18 वीं सदी में लौट जायेगा जब छोटे छोटे राज्य हुआ करते थे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। कारण यह कि दो बड़ें नेताओं की आपसी लड़ाई गांधी की मौत के साथ ही खत्म हो गयी। गांधी के दो सहायक जवाहर लाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल में कई बातों को लेकर भारी मतभेद था। देश आजाद हो चुका था। नेहरू प्रधानमंत्री थे और पटेल गृहमंत्री। मतभेद इतना गहरा था कि दोनाहें अपने पदों से इस्तीफा देने जा रहे थे। कोई भी एक दूसरे के साथ काम करने को तैयार नहीं था। 30 जनवरी के उस अभागे दिन को प्रार्थना सभा के पहले गांदा ने पटेल से लम्बी वार्ता की और प्रार्थना के बाद नेहरू से बतचीत का कार्यक्रम था। गांधी की हत्या ने इन दोनों को मतभेद भुला देने के लिये मजबूर कर दिया। गांधी की मृत्यु के बाद नेहरू ने पटेल को लिखा ‘सबकुछ बदल गया है और अबे हमें एक अन्य और जटिल दुनिया से मुकाबिल होना है। पुराने विवाद किसी काम के नहीं हैं और अब समय है मिलजुल कर काम करने का।’ पटेल ने जवाब दिया ‘मैं भी यही समझता हूं। मैंने बापू को लिखा थ कि मुझे मुक्त कर दें , पर उनकी मौत ने सबकुछ बदल दिया। अब विपदाग्रस्त इस देश के लिये हमें मिल कर काम करना होगा।’ इसके तुरत बाद पटेल और नेहरू आकाशवाणी गये। पटेल ने जनता से अपील की कि वे ‘बदले की बात मन से निकाल दें और महात्मा जी के प्रेम और अहिंसा के सबक का अनुपालन करें। जब तक वेजिवित थे हमने उनके पथ का अनुसरण नहीं किया अब उनकी मौत के बाद तो अनुसरण करें।’ नेहरू ने अपने भाषण में कहा कि ‘एकजुट हो जाएं और साम्प्रदायिकता के जहर का मुकाबला करें।’ बात ने असर दिखाया। हिंसा रुक गयी। मुसलमानों पर हमले बंद हो गये। पाकिस्तान बनने का गुस्सा दब गया। हिंसा दबने के बाद नेहरू और पटेल ने संविधान की ओर ध्यानन देना शुरू किया। देश में राजशाही का विलय शुरू हो गया। स्वतंत्र आर्थिक और विदेश नीति की नींव रखी गयी। यह सब कुछ ना होता अगर नेहरू और पटेल में जोर आजमाइश होती रहती और हिंदू मुस्लिम दंगे होते रहते। गांदा की शहादत ने दोनों नेताओं को मंच पर लाने और एक दूसरे खून के प्यासे दो सम्प्रदायों में गुस्से को दबाने का काम किया और नतीजतन भारत की एकता कायम रही।

गांधी​ कुछ ऐसा ही चाहते थे। 1924 के सितम्बर में उन्होंने साम्प्रदायिक सौहार्द के लिये दिल्ली में दो हफ्तो का उपवास भी रखा था। उपवास के पहले उन्होंने कहा था कि‘मैं जानता हूं कि हिंदू क्या चाहते हैं, पर हमें मुसलमानों का मन भी तो जानना होगा। मैं दोनों मित्रता कराने का माध्यम बनना चाहता हूं , क्यों नही यह में खून से ही क्यों ना हो।’ 1946 से ही मुसलमानों का ध्रुवीकरण शुरू हो गया था और दंगे भड़क चुके थे। यह सब 1948 के पहले महीने के पहले हफ्ते तक चलता रहा। दूसरे हफ्ते में उनहोंने साम्प्रदायिक शांति के लिये पांच दिनों का उपवास किया। दंगे थम तो गये पर सबमें एक बेचैनी थी जो उनकी शहादत के बाद खत्म हो गयी।

55 करोड़ रुपयों का सच

गांधी जी के बारे में एक बहुत बड़ा दुष्प्रचार है कि उन्होंने पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने के लिये सरकार पर दबाव डाला। पर ऐतिहासिक अबिलेखों में इसका जिक्र नहीं मिलता है। 12 जनवरी की संध्या प्रार्थना सभा में अपने संकल्प की घोषणा की पर उसमें उन 55 करोड़ का जिक्र नहीं था। अगहर यह शर्त होती तो उन्होंने जरूर इसकी घोषणा की होती। 13 जनवरी के भाषण में भी इसका कोई जिक्र नहीं है। 15 जनवरी को अनशन केउद्देश्य के बारे में पूछे गये सवाल में उन्होने इसका कोई उल्लेख नहीं था। भारत सरकार द्वारा जारी प्रेस रीलिज में भी ऐसा कुछ नहीं था। यहां तक कि डा. राजेंद्र प्रसाद के नेतृत्व में गठित समिति ने जो आश्वासन दिया था इसमें भी उसका उल्लेख नहीं था। अब यह बात कैसे आयी कहां से आयी यह तो वही बतायेंगे जो इसका प्रचार कर रहे हैं।