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Friday, January 25, 2013

कोलकाता कल्लोलिनी है, तिलोत्तमा है

हरिराम पाण्डेय किसी शहर को सुंदरी के रूप में देखा जाना सचमुच बड़ी अजीब कल्पना है। लापियरे ने बेशक कोलकाता को जीवंत तौर पर परखा है लेकिन तिलोत्तमा के रूप में इस शहर की कल्पना के साथ ही कोलकाता के बारे में गालिब का वह शेर याद आता है कि, जिक्र कलकत्ते का तूने किया जो जालिम इक तीर मेरे दिल में वो मारा के हाय हाय। गालिबन मिर्जा गालिब दुनिया के पहले शायर थे जिन्होंने कोलकाता या कलकत्ता में दुविधाओं के बीच भी जीवन की राह तलाशनी शुरू की थी। कोलकाता ऐसा शहर है जहां सवाल ईमान और कुफ्र का नहीं, सवाल धर्मी और विधर्मी का नहीं, सवाल एक नयी रोशनी का है एक नये नजरिये का है। पता नहीं आपको मालूम होगा या नहीं कि जब हम किसी शहर को देखते हैं तो वह शहर भी हमें देखता है। हुगली नदी के किनारे तीस मील की लम्बाई में बसा हुआ महानगर, एक करोड़ के आसपास आबादी जिसके जवाब में सिर्फ टोकियो, लन्दन और न्यूयॉर्क के नाम लिए जा सकते हैं लेकिन इसमें उनसे कहीं ज्यादा वहशतें आबाद हैं। आसमान की बुलंदियों से नीचे देखें तो दूर-दूर तक हरियाली दिखाई देती है, कहीं गहरी सियाही, कहीं पीलाहट लिए हुए। लेकिन ये सारे रंग प्रदर्शन , अभिव्यक्ति के लिए बेचैन एक अनदेखी ऊर्जा का रूपक हैं। ठीक वैसे ही जैसे सोलहों सिंगार के बाद कोई सुंदरी दर्पण देखने को बेचैन होती है। आसमान से दिखने वाली इन्हीं हरियालियों में यहां-वहां चमकता, चौंकता, कौंधता हुआ पानी। झीलें, नहरें और नदी। एक तरफ हद्दे नजर तक फैली हुई चांदनी की चादर। एक नन्हा सा बिंदु इस लैंडस्केप में धीरे-धीरे फैलता जाता है और एक शहर की तस्वीर उभरती है। कुत्ते के पैर जैसी आकृति रखने वाली चौड़ी भूरी नदी के गिर्द बसा हुआ यह शहर, किनारों पर लंगर डाले कश्‍ितयां और जहाज, बड़ी बड़ी क्रेनेंं, मिलों की चिमनियां और कारखानों की जंग लगी लोहे की चादरों की छतें। फिर जरा और नीचे आने पर ताड़ के झुण्ड दिखते हैं। एक तरफ से झुण्ड से उभरता हुआ ब्रिटिश राज की यादों में बसे हुए पुराने गिरजे की सफेद खामोश मीनार जैसे स्कूली जमाने की किताबों में प्रेमी द्वारा दिये गये सूखे फूल। यह शहर अजीब द्वन्द्व का है और अनोखे टकराव भरे तजुर्बों का। गालिब ने लिखा है कि जब वे यहां से लौटे तो 'जेहन में आधुनिकता लेकर लौटे थे।Ó मैने कहा न कि टकराव भरे तजुर्बे का यह शहर है। ठीक एक शायर की तरह , चौदहवीं की रात में शब भर रहा चर्चा तेरा किसी ने कहा चांद है, मैंने कहा चेहरा तेरा लॉर्ड क्लाइव के खयाल में कलकत्ता दुनिया की सबसे बुरी बस्ती थी, लेकिन एक अंग्रेज अफसर विलियम हंटर ने एक रात अपनी प्रेमिका को लिखे पत्र में कहा 'कल्पना करो उन तमाम चीजों की जो फितरत में सबसे शानदार हैं और उसके साथ-साथ उन तमाम कलाकृत्तियों का जो कला के मामले में सबसे ज्यादा हसीन हैं, फिर तुम अपने आप कलकत्ता की एक धुंधली सी तस्वीर देख लोगी। Ó उन्नीसवीं सदी के अंत में चर्चिल ने अपनी मां से कहा था 'कलकत्ते को देखकर मुझे हमेशा ख़ुशी होगी क्योंकि इसे एक बार देखने के बाद दोबारा देखने की जरूरत नहीं रह जाती। ये एक शानदार शहर है। रात की ठण्डी हवा और सुरमई धुन्ध में ये लन्दन जैसा दिखाई देता है।Ó कोलकाता एक बहुवचनी नगर है। एक में अनेक - मोराज(फिल्म संग्रथन) की तरह। कोलकाता अर्धनारीश्वर महानगर है। एक अंग से राजनीति का तांडव है तो दूसरे से दुर्गा उत्सव, रवींद्र संगीत का लास्य-टू-इन-वन। 'भीषण सुंदरÓ या 'दारुण सुंदरÓ जैसे बंगला के विरोधाभासी शब्द युग्म विरोधों के सामंजस्य के प्रतीक हैं या विपरीतों के मिलनोत्कर्ष के? तभी तो 'वर्ग संघर्षÓ के 'भीषणÓ के साथ अमीरी का 'सुंदरÓ मजे में मिल कर रहता है। मुझे नहीं लगता कि सुरुचि, सौंदर्य, कोमलता, दर्शन, भक्ति, कल्पना, प्रेम, करुणा, उदासी जैसी भाव-राशि को कोलकाता ने वैज्ञानिक यथार्थवाद के दुद्र्धर्ष काल में भी कभी त्यागा होगा। शरद और रवींद्र कभी उसके जीवन से परे धकेले न जा सके। रवींद्र और नजरूल या सुभाष और राम कृष्ण की पूजा कोलकाता एक ही झांकी में बराबर से कर सकता है। तभी तो कोलकाता पूरे भारत का कोलाज बना हुआ है। कोलकाता का स्वभाव सुंदरियों की तरह लिरिकल है - गेय है। कोई भी शुभारंभ यहां बिना रीति के नहीं होता। आंदोलन या उग्र रैली (मिछिल) में भी जो नारे लगाए जाते हैं वे बोल कर नहीं गाकर लगाए जाते हैं। अन्याय अत्याचार के नारे भी गेय हैं और उसे 'चलने न देंगेÓ का उद्घोष भी गेय है - 'चोलबे ना, चोलबे नाÓ नारा भी वे ऐसा झुलाते हुए लगाते हैं कि उसे कहीं न गद्य का झटका लगे, न ठहराव आए। कभी आपने सोचा है कि कोलकाता पर लिखी प्राय: सभी कविताएं उसकी प्रशंसा और सामथ्र्य में क्यों लिखी गई हैं, जबकि दिल्ली पर लिखी कविताओं में दिल्ली के प्रति तल्खी, आशंका, भय और निंदा से भरी है? कोलकाता भी एक 'गोपनÓ का नाम है,और बंगाल भी। वह भी अपने मूल्यवान को दबाए-ढांपे हैं, यहां जो कुछ भी मूल्यवान और अप्रतिम है उसे आप सतह पर नहीं पा सकते - फिर चाहे वस्तु हो या व्यक्ति। कोलकाता का पारंपरिक और किसी हद तक वर्तमान वास्तु इसका प्रमाण है कि बाहर से देखने पर भीतर खुलने वाले भव्य और विराट का अनुमान नहीं लगा सकते।

Wednesday, January 23, 2013

हिंदू आतंकवाद या कांग्रेस का छद्म सेक्युलरवाद

हरिराम पाण्डेय 24 जनवरी 2013 गृहमंत्री महोदय ने कांग्रेस चिंतन शिविर के मंच से एक 'नायाबÓ रहस्योद्घाटन किया कि संघ की शाखाओं में हिंदू आतंकवादी तैयार किये जा रहे हैं। बाद में कुछ नेताओं ने उसे राजनीतिक रंग देने के लिये कहा कि उनका (गृहमंत्री का) मंतव्य था भगवा आतंकवाद से। भगवा आतंकवाद की बात तो हमारे चिदम्बरम साहब अरसे से उठा रहे हैं। अब कांग्रेसी भगवा से दूर जा कर हिंदू आतंकवाद की बात कर रहे हैं। वे तो बात यह भी कर रहे हैं कि महात्मा गांधी हिंदू आतंकवाद की भेंट चढ़ गये। शायद वे यह भी कहें कि इंदिरा जी सिख आतंकवाद की शिकार हुई और राजीव गांधी तमिल आतंकवाद के शिकार बन गये। भारत में आतंकवाद के बढऩे का कारण ही है उसे खांचों में बांट कर परिभाषित किया जाना और तदनुरूप उससे निपटने की कोशिश करना। जहां तक हिंदू आतंकवाद का सवाल है तो माननीय गृहमंत्री महोदय को यह तो मालूम होगा कि इस धरा पर कुल आबादी जितनी है उसमें हर छठा आदमी हिन्दू है। साथ ही हिंदुओं में आतंकवाद की भावना ना के बराबर होती है वरना यह कौम अपनी समस्त वीरता और दौलत के बावजूद सैकड़ों साल तक गुलाम नहीं रहती। इस बात के तमाम ऐतिहासिक, शास्त्रीय प्रमाण उपलब्ध हैं कि भारत की असली खूबी दरअसल इसकी सनातनी विचार धारा में है। इसी खूबी के कारण आज भी उसका अस्तित्व कायम है। यूनान मिस्र ओ रोमां सब मिट गये जहां से, अब तक मगर है बाकी नामोनिशां हमारा। कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी सदियों से रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा। यह हिंदुत्व ही है, जो भारतीय ईसाइयों या मुसलमानों को ब्रिटिश ईसाई और अरबी मुसलमान से अलग करता है और उसे उतनी इज्जत देता है, जितनी वह अपने साथी को देता है। दुनिया में हिन्दू ही एक ऐसी कौम है जो न केवल अवतारों पर भरोसा करती है बल्कि वह इस बात पर भी विश्वास करती है कि समय - समय पर विभिन्न स्वरूपों में भगवान का अवतरण हो सकता है - 'तदात्मानं सृजाम्यहम्।Ó अब तक का इतिहास गवाह है कि हिंदुओं ने कभी किसी पर हमला नहीं किया है और ना अपना धर्म जबरदस्ती मनवाने की कोशिश की है। तैमूरलंग द्वारा हिंदुओं के कत्ल-ए - आम से लेकर गोवा में ब्राह्मïणों का कत्ल और कश्मीरी पंडितों पर जुल्म इनके प्रतिकार के लिये क्या कभी किसी हिंदू संगठन ने कुछ किया? अगर गृहमंत्री जी को मालूम हो तो देश को बताएं। लोग अगर आतंकवाद को सांप्रदायिक नजरिए से देखने की आदत रखेंगे, तो भगवा आतंकवाद, लाल आतंकवाद, हरा आतंकवाद, हिंदू आतंकवाद, मुस्लिम आतंकवाद, सिख आतंकवाद, तमिल या लिट्टे आतंकवाद आदि मुहावरे बनेंगे और चलाए जाएंगे। यह नजरिया कहां तक उचित है, इस पर बहस होनी चाहिए और सही नजरिए से जो नजारे हमारी नजरों के सामने हैं, उसे देखने की कोशिश होनी चाहिए। इस प्रकार के बयान और विश्लेषण कांग्रेस खुद को सेक्युलर साबित करने के लिए करती है। बाबरी मस्जिद का गिरना कांग्रेसी छद्म सेक्युलरवाद के आस्मानी महल का गिरना था। यह उसके छद्म सेक्युलरवाद का प्रमाण है। अब रही बात संघ और बीजेपी की, तो उसके हाथ में भगवा झंडा है। मुंह में नारा है 'गर्व से कहो हम हिंदू हैंÓ, मगर कांग्रेसियों की तरह उसकी भी हिंदूवाद में निष्ठा नहीं है। इसका प्रमाण है- राम मंदिर का निर्माण नहीं होना। संघ-बीजेपी ने राम मंदिर के नाम पर देश के साधु-संतों से पैसे की उगाही करवाई और मंदिर बनाने के बदले उस पैसे से चुनाव लड़ा। सत्ता हासिल की और राम मंदिर नहीं बनाया। सत्ता में आने के बाद उसने भी कांग्रेसी तुष्टिकरण की राह पकड़ ली। यह संघ-बीजेपी के छद्म हिंदूवाद का प्रमाण है। भाजपा के छद्म हिंदूवाद को बदनाम कर सियासी लाभ लेने का छद्म सेक्युलरवादियों की कोशिश में बदनाम किया जा रहा समस्त हिंदू जाति को। क्या यह उचित है?

चिंतन नहीं चुनाव शिविर

हरिराम पाण्डेय 22 जनवरी 2013 कांग्रेस का तीन दिवसीय चिंतन शिविर समाप्त हो गया। शिविर में विचार- विमर्श के बाद जो घोषणाएं हुईं वे चारित्रिक तौर पर आत्ममंथन कम और 'युद्ध की हुंकारÓ ज्यादा महसूस हुई। ऐसा होना स्वाभाविक भी है। क्योंकि चुनाव सिर पर आ गये हैं और 2009 के बाद पार्टी की झोली में ऐसा कुछ नहीं है जिससे वह किसी तरह की खुशफहमी पाल सके। इसके अलावा इधर कुछ दिनों से पार्टी और सरकार दोनों आरोपों , भ्रष्टïाचार और नीतिगत शैथिल्य के महापंक में फंसी हुई है। इसलिये अपने कार्यकर्ताओं में नैतिक बल का संचार करने के लिए इस तरह की सियासी लंतरानियां जरूरी होती हैं। इस आत्ममंथन के क्रम में जो भी हुआ उसकी वैचारिक आपाधापी में पार्टी खुद से एक सवाल करना भूल गयी कि उसमें इतना ज्यादा वैचारिक रीतापन कैसे आ गया है। एक विचारशून्यता उसमें घर कर गयी है। पूरा अधिवेशन वैचारिक तौर पर निराश करता हुआ सा दिखा है लेकिन उसमें एक सुनहरी किरण भी दिखायी पड़ती है कि पार्टी ने हाल के कठोर सरकारी निर्णयों को मंजूरी दे दी, यही नहीं आगे भी सरकार का समर्थन करने का आश्वासन दिया। यही नही, पार्टी ने सरकार को ताकीद की कि वह जनता से बेहतर संवाद बनाये और महिलाओं तथा नौजवानों को अपने सिद्धांतों से प्रभावित कर उन्हें अपने साथ चलने के लिये प्रेरित करे। इनके अलावा चिंतन शिविर में जो भी हुआ वह तो बस राहुल के पद की औपचारिकता पूरी करनी थी। जैसे राहुल पहले भी पार्टी में नम्बर दो थे और उसी हैसियत से सारा काम देखते - करते थे बस उस पर पार्टी ने औपचारिकता की मुहर लगा दी। लेकिन इससे एक बात तो हो गयी कि राहुल को पद के साथ अब जिम्मेवारी भी सौंप दी गयी। अब सफलताओं का श्रेय उन्हें मिलेगा साथ ही असफलताओं की जिम्मेदारी भी उन्हें अपने सर लेनी होगी। अब उन्हें यह सहूलियत हासिल नहीं है कि वे किसी स्थिति में जब चाहें कूद नहीं सकते और वहां से इच्छानुसार बाहर नहीं निकल सकते हैं। अब उनकी नियुक्ति जिस कार्य के लिए हुई है उस काम को यदि वे सही ढंग से अंजाम देते हैं तो यह सब सार्थक होगा, वरना सब व्यर्थ है। शिविर के दौरान आतिशबाजियां एक मजाक और बचकानापन बन कर रह जाएंगी। फिलहाल कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी है कि वह स्वीकार नहीं कर पा रही कि 'अब के दौर में खेल के नियम बदल चुके हैं।Ó पहले की तरह तुष्टीïकरण और नफरत प्रदर्शन के दिन नयी सियासत में लद गये और अब जो नयी पीढ़ी है उनकी आशाएं - आकांक्षाए भिन्न हैं। आने वाले दिनों में वक्त के हाकिमों के इन नये मतदाताओं का ख्याल करना पड़ेगा ही। राहुल को पद दिया जाना संभवत: इसी नयी पीढ़ी से संवाद का प्रयास है।

सामाजिक असंतुलन की ओर बढ़ती दुनिया

हरिराम पाण्डेय 23 जनवरी 2013 आज से स्विट्जरलैंड के दावोस शहर में वल्र्ड इकॉनोमिक फोरम की चार दिवसीय बैठक हो रही है। इसमें दुनिया भर के राजनीतिक नेता और आर्थिक विशेषज्ञ भाग ले रहे हंै। इसमें भारत की ओर से कमलनाथ शामिल हुए हैं। दुनिया भर से गरीबी उन्मूलन के लिए काम करने वाली संस्था ऑक्सफेम ने इस इस बैठक के पूर्व जारी अपनी रिपोर्ट 'असमानता की कीमतÓ में कहा है कि धन के संकेंद्रण की वजह से ही गरीबी उन्मूलन के लिए की जाने वाली कोशिशें सफल नहीं हो पा रही हैं। रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर की कुल आबादी के महज एक प्रतिशत अमीर लोगों की आमदनी में पिछले बीस सालों में साठ फीसदी की वृद्धि हुई है। रिपोर्ट का कहना है कि एक ओर जहां दुनिया के सौ सबसे अमीर लोगों ने पिछले साल 240 अरब डॉलर की कमाई की वहीं दुनिया भर के बेहद गरीब तबके के लोगों को महज सवा डॉलर में एक दिन गुजारना पड़ा। रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ एक प्रतिशत लोगों के हाथों में धन का संकेंद्रण आर्थिक गतिविधियों को भी कमजोर करता है और इसका खामियाजा हर व्यक्ति को भुगतना पड़ता है। यह तथ्य हैरत में डाल देता है कि पिछले एक साल में दुनिया भर के 100 सबसे अमीर लोगों ने जितनी दौलत कमाई है उसका एक चौथाई हिस्सा भी दुनिया भर की गरीबी मिटाने के लिए पर्याप्त है। हमारे देश की स्थिति और भी खराब है। हालांकि प्रधान मंत्री ने रविवार को चिंतन शिविर में कहा कि महंगाई घटाने के सरकार के प्रयासों में कमी रही है। पिछले डेढ़-दो दशकों में देश में जिस तरह से अमीरों और गरीबों के बीच की खाई तेजी से बढ़ी और चौड़ी हुई है, उसके कारण गरीबी का दंश और गहरा और तीखा हुआ है। यह किसी से छुपा नहीं है कि देश में एक ओर अरबपतियों की संख्या और उनकी दौलत में दिन दूनी, रात चौगुनी वृद्धि हो रही है, वहीं दूसरी ओर, गरीबों की हालत बद से बदतर होती जा रही है। असल में, पिछले कुछ दशकों, खासकर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के डेढ़ दशक में देश में जिस तरह से आर्थिक गैर बराबरी और विषमता बढ़ी है, उसके कारण गरीबी अधिक चुभने लगी है। 70 और कुछ हद तक 80 के दशक शुरुआती वर्षों तक देश में गरीबी और अमीरी के बीच इतना गहरा और तीखा फर्क नहीं दिखाई देता था, जितना आज दिखने लगा है। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि पिछले डेढ़ -दो दशकों में पारंपरिक अमीरों के अलावा नई आर्थिक नीतियों का फायदा उठाकर एक नवधनिक वर्ग पैदा हुआ है जिसकी अमीरी और उसके खुले प्रदर्शन ने गरीबों और निम्न मध्यम वर्गों में गहरी वंचना का अहसास भर दिया है। इसमें कोई शक नहीं है कि नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में तेजी आई है। इस तेज वृद्धि दर के साथ देश में बड़े पैमाने पर सम्पदा और समृद्धि भी पैदा हुई है। लेकिन इसके साथ ही, यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि यह समृद्धि कुछ ही हाथों में सिमटकर रह गई है। इसका समान और न्यायपूर्ण बंटवारा नहीं हुआ है। इसका नतीजा यह हुआ है कि इस दौर में जहां अमीरों और उच्च मध्यवर्ग की संपत्ति और समृद्धि में तेजी से इजाफा हुआ है, वहीं गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों की स्थिति और खराब हुई है। सच तो यह है कि पिछले एक दशक में अमीरी अश्लीलता की हद तक और गरीबी अमानवीयता की हद तक पहुंच गई है। इसे देखने के लिए दूर जाने की जरूरत नहीं है। आप देश के बड़े महानगरों और शहरों के शापिंग मॉल्स में चले जाइए। वहां देश-दुनिया के बड़े-बड़े ब्रांडों के उपभोक्ता सामानों की मौजूदगी और उनकी चमक-दमक आंखें चौंधियाने के लिए काफी हैं। यही नहीं, आज देश में दुनिया के सबसे बड़े लक्जरी ब्रांड्स और उनके उत्पाद मौजूद हैं और अच्छा कारोबार कर रहे हैं। नतीजा, देश में अमीरों और उच्च मध्यवर्ग के उपभोग स्तर और दुनिया के अन्य मुल्कों के अमीरों के उपभोग स्तर में कोई खास फर्क नहीं रह गया है। आज देश में बड़े अंतर्राष्ट्रीय ब्रांडों की लाखों-करोड़ों की घडिय़ां, कारें, ज्वेलरी, सूट, फोन सहित भांति-भांति के इलेक्ट्रानिक साजों-सामान और यहां तक कि खाने-पीने की चीजें भी उपलब्ध हैं। जाहिर है कि इनके उपभोगकर्ताओं की संख्या और उनके उपभोग की भूख दोनों बढ़ी हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि यह सब अब दबे-छिपे नहीं बल्कि खुलकर और सबको दिखाकर हो रहा है। यह बढ़ती असमानता दुनिया में सामाजिक असंतुलन पैदा करने का काम कर रही है। असंतुलन से अशांति और आंदोलन का जन्म होगा जो सरकारों तथा समाज के लिए कठिन स्थिति होगी।

Saturday, January 19, 2013

तेल की धार में चला चनावी चक्कर


हरिराम पाण्डेय 19.1.2013 तीन तेल कम्पनियों का इस छमाही में कुल घाटा 1लाख 66 हजार 8 लाख करोड़ हो गया। पिछले साल इस अवधि में यह लगभग इतना ही था। सरकार ने घाटे के कुछ अंश को पूरा करने के लिये गुरुवार को तेल कम्पनियों को तेल की कीमतों में थोड़ी - थोड़ी वृद्धि करने की इजाजत दे दी। इसके बाद भी घाटे की जो राशि है उसे देख कर नहीं लगता कि इस वृद्धि से घाटा पूरा होगा। इसी कारण से तेल कम्पनियों ने सरकार को 85 हजार 586 करोड़ का बिल दिया है जिसके लिए भुगतान करने की हैसियत नार्थ ब्लॉक में नहीं है। कुल मिला कर कहा जा सकता है वर्तमान वित्त वर्ष तेल की अर्थव्यवस्था में बगैर किसी सुधार के समाप्त हो जायेगा। लेकिन इसका एक प्रभाव तो यह भी होगा कि सरकार ने महंगाई के बोझ तले दबे आम आदमी का बोझ और बढ़ा दिया है लेकिन सब्सिडी वाले गैस सिलेंडरों की संख्या साल में छह से बढ़ाकर नौ करके इस बोझ को कुछ हल्का करने की कोशिश जरूर की है। पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों को देखते हुए अभी ऐसे फैसलों की उम्मीद नहीं थी लेकिन सरकार ने निर्वाचन आयोग के सामने यह दलील रखते हुए इसकी मंजूरी प्राप्त कर ली कि यह निर्णय आचार संहिता लागू होने से पहले ही लिए जा चुके थे और इनकी घोषणा अब की जा रही है। सवाल यह है कि सरकार को डीजल को नियंत्रणमुक्त करने और सब्सिडी वाले रसोई गैस के सिलेंडरों की संख्या छह से बढ़ाकर नौ करने की इतनी जल्दी क्या थी? इन फैसलों को लागू करने के पीछे सरकार तर्क भले कुछ भी दे लेकिन सच यह है कि ये फैसले सरकार की दूरगामी सियासी सोच का नतीजा हैं। पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में विधानसभा चुनावों के अलावा 2014 में लोकसभा चुनाव भी होने हैं। जिसके चलते सरकार को अगले महीने पेश होने वाले आम बजट को लोक लुभावन बनाना है। बजट में सरकार ऐसी कोई घोषणा नहीं करना चाहती थी जिससे मतदाता कांग्रेस से विमुख हों, इसलिए उसने बजट से ठीक पहले डीजल को नियंत्रणमुक्त किए जाने का कड़ा फैसला ले लिया। सब्सिडी वाले गैस सिलेंडरों की संख्या साल में 12 किए जाने की सहयोगी दलों की मांग के बावजूद इसे नौ तक ही सीमित करने के पीछे भी सरकार की मंशा यह दिखती है कि वह देखना चाहती है कि इन फैसलों पर आम आदमी और सहयोगी दलों की क्या प्रतिक्रिया रहती है। अगर यह प्रतिक्रिया कड़ी होती है तो सरकार 28 फरवरी को पेश होने वाले आम बजट में रसोई गैस सिलेंडरों की संख्या नौ से बढ़ाकर 12 कर सकती है। लेकिन इन सबके बावजूद आम आदमी को राहत मिलने वाली नहीं है क्योंकि डीजल की कीमतों को नियंत्रणमुक्त किए जाने के दूरगामी परिणाम होंगे। भाड़ा महंगा होगा तो आम आदमी के इस्तेमाल की लगभग सभी चीजें महंगी हो जाएंगी। महंगाई बढ़ेगी तो रिजर्व बैंक ब्याज की दरों में वृद्धि करेगा, जिससे कर्ज महंगा होगा और उद्योगों में उत्पादन घटेगा। जीडीपी में महत्वपूर्ण योगदान रखने वाला कृषि क्षेत्र भी बुरी तरह प्रभावित होगा। किसानों को सिंचाई और जुताई के लिए डीजल महंगा मिलेगा तो उनकी आमदनी प्रभावित होगी और वे कर्ज लेने पर मजबूर होंगे। कर्ज न अदा कर पाने की स्थिति में किसानों की आत्महत्या की दर बढऩे का भी अंदेशा है। सरकार को चाहिए था कि डीजल की कीमतों को नियंत्रणमुक्त करने से पहले एक ऐसा खाका तैयार करती जिसमें खाद्य व अन्य आवश्यक वस्तुओं की ढुलाई पर लगने वाले भाड़े पर डीजल मूल्यवृद्धि का असर न होता, साथ ही किसानों को भी बिना किसी रोक-टोक के सस्ता डीजल मिलता रहता। अलबत्ता डीजल से चलने वाली लक्जरी कारों की कीमतें बढ़ाकर इसकी भरपाई की जा सकती थी लेकिन सरकार ने उच्च आय वर्ग के दबाव में लक्जरी कारों के दामों में वृद्धि करने के बजाए 'चुनावी चक्करÓ में आम आदमी पर ही महंगाई का बोझ और बढ़ा दिया।

सेना को सियासत में ना घसीटें

हरिराम पाण्डेय 18.1.2013 पाकिस्तानी सेना के नियंत्रण रेखा को पार करने और दो सैनिकों को मार डालने तथा उनमे से एक का सर काट डालने की घटना पर दो दिन पहले यानी गत 14 जनवरी को सेनाध्यक्ष विक्रम सिंह ने प्रेस के सामने जितना जोशीला भाषण दिया, उसे देख कर एक सवाल मन में उठता है कि 2011 में भी तो इसी तरह की घटना हुई थी पर उस समय सरकार या विपक्षी दलों में इतना जोश - ओ- खरोश नहीं दिखा। इस बार ऐसा क्या हो गया? इस बात को बहुत गोपनीय रखा गया कि घटना को लेकर जनता में बहुत ज्यादा गुस्सा नहीं था और ना ही दोनों देशों में चल रही वार्ता प्रक्रिया रुकी थी। गत 8 जनवरी को कुछ पाकिस्तानी फौजी नियंत्रण रेखा पार कर घुस आये और दो भारतीय सैनिकों को मार डाला तथा एक का सिर काट कर ले गये। इस घटना को जम कर प्रचारित किया गया। टी वी चैनलों पर मुबाहसे हुए और सेनाध्यक्षों ने जोशीले भाषण दिये। जनता में रोष भड़काने की हरचंद कोशिश की गयी। भाजपा के साथ कुछ विरोधी दलों ने भी निहित स्वार्थ के लिये बाकायदा आंदोलन किया और जन-भावना को भड़काने का प्रयास किया। सवाल उठता है कि 2011 और 2013 की इन घटनाओं में क्या फर्क है? एक फर्क तो सीधा दिख रहा है कि उस दौरान चुनाव दूर थे और 2013 अर्थात भविष्य में चुनाव काफी नजदीक हैं। राजनीतिक दलों का आकलन है कि जनता में भावुकता फैला कर वोट बटोरे जा सकते हैं। सबसे पहले भाजपा ने नारे लगाने शुरू किये। उसने मांग की, जो कि सबसे लोकप्रिय मांग है, कि पाकिस्तान को कठोर जवाब दिये जाएं, इसमें उससे वार्ता प्रक्रिया भी निरस्त कर दी जाय, यह भी शामिल है। कई रिटायर्ड फौजी तथा सिविल अफसर भी टी वी चैनलों द्वारा फैलायी जाने वाली उत्तेजनाओं में शामिल हो गये। जो नहीं शामिल हुए उन्हें मजाक की नजरों से देखा जाना लगा। इसका सबसे बड़ा प्रभाव मनमोहन सिंह पर दिखा। वे सेना दिवस के एक कार्यक्रम में गये थे। उन्होंने पाकिस्तान के विरुद्ध काफी कड़े शब्दों का प्रयोग किया जबकि वे पाकिस्तान से दोस्ती के हामी हैं। कुछ पत्रकारों से वार्ता के दौरान उन्होंने कहा कि जो लोग दोषी हैं उन्हें दंड दिया जायेगा और अब पाकिस्तान से पहले जैसे रिश्ते नहीं रह जायेंगे। सरकार पास्तिान की हुकूमत को यह बता देने का मन भी बना रही है कि वरिष्ठï नागरिकों का विजा रोका जायेगा , हाकी टीम का दौरा रद्द किया जायेगा और महिला क्रिकेट टीम को खेलने की अनुमति नहीं दी जायेगी। यह सरकार के नये रुख की पहचान है। साथ ही सरकार ने इस मसले पर वार्ता के लिये भाजपा को भी बुलवाने का निर्णय किया है। सरकार का यह रुख ज्यादा अवसरवादी लगता है। सरकार का यह रुख केवल इसलिये है कि इस आक्रोश का लाभ भाजपा न भुना ले। सरकार का यह हथकंडा तबतक जारी रहेगा जबतक जनता का आक्रोश ना खत्म हो। जैसे ही आक्रोश खत्म होगा सबकुछ सामान्य हो जायेगा। लेकिन इन मौकापरस्त हालात को बदलना ज्यादा जरूरी है ताकि भविष्य में ऐसा न हो और इसके लिए जरूरी है कि सरकार विपक्ष से परामर्श के बाद खुफिया- भेदिया कारोबार को फिर से गहन करे और पाकिस्तान की अंदरूनी गतिविधियों की जानकारी रखे। क्योंकि वहां जो कुछ हो रहा है वह भारत के लिये शुभ नहीं है। पाकिस्तान में मंगलवार को आये सुप्रीम कोर्ट के प्रधानमंत्री अशरफ़ को गिरफ़्तार करने के बाद पाकिस्तान एक बड़े राजनैतिक भूचाल की ओर मुड़ गया है। उधर लाखों लोगों को लेकर इस्लामाबाद में धरने में बैठे ताहिर अल कादरी साहब संसद तथा इलेक्शन कमिशन को भी बर्खास्त करने पर अड़े हुए हैं। कल के फ़ैसले के बाद पाकिस्तान के राजनैतिक हल्कों और मीडिया में ये चर्चा जोरों पर है कि सुप्रीम कोर्ट भी सेना के साथ इस लोकतांत्रिक सरकार को बर्खास्त करने की योजना में शामिल है। अगले अड़तालीस घंटों में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट दो बड़े मामलों में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को दोषी करार दे सकते हैं। इसमें से एक मामला आसिफ अली जरदारी के एक साथ दो पदों राष्ट्रपति, पार्टी के अध्यक्ष बने रहने का है। धीरे-धीरे पाकिस्तान फिर फौजी हुकूमत की ओर बढ़ता नजर आ रहा है। भारत के लिए सेना की सत्ता में वापसी के गंभीर परिणाम होंगे। हाल में सीमा पर जारी तनाव भी पाक सेना की इसी रणनीति का हिस्सा बताया जा रहा है। जिसमें मीडिया के द्वारा हाइप बनाने के बाद भारत पाक सेना की चालों मे फंसता नजर आ रहा है। भारत के लिये सबसे मुफीद नवाज शरीफ और जरदारी ही रहेंगे।

Tuesday, January 15, 2013

पाक पर हमला गैरजरूरी

- हरिराम पाण्डेय पिछले कुछ महीनों से विपक्षी दल किसी भी मसले को सरकार के खिलाफ गढ़ देने में महारत हासिल किया हुआ सा दिखने लगा है। हर मामले को देश और समाज से जोड़कर एक ऐसा चित्र पेश करता है देश की जनता के समक्ष कि खून लगता है खौलने। वे शगूफों के आधार पर देश में देशभक्ति का ऐसा जज्बा फैलाते हैं कि लगता है कि फौरन पाकिस्तान पर आक्रमण कर दिया जाय। यदि आक्रमण नहीं हो रहा ह्ै तो सरकार दोषी है। उसमें साहस नहीं है वह नपुंसक बन गयी है। चारो तरफ शोर मचा हुआ है पाकिस्तान पर हमले किये जाएं। जबकि मामूली अक्ल का इंसान भी जानता है कि हमले ऐसे नहीं हुआ करते है। राजनीतिक दल की तो रोटी ही लफ्फाजी से चलती है। हमारे कथित तेज तर्रार पत्रकार और रक्षा विशेषज्ञ भी यह नहीं पूछ पा रहे हैं कि जब हमने दो दिन पहले ऐन ऐसी ही कार्यवाही उसी सेक्टर में पाकिस्तानियों के खिलाफ की थी तो हम उसके पलटवार के लिए तैयार क्यों नहीं थे। दूसरे क्या इस घटना मे कोई गोली नहीं चली? चली थी तो दुश्मन की कोई हताहत क्यों नहीं हुआ। हमारे जवानों के पीछे सपोर्ट तंत्र क्यों नहीं था। अरबों रुपये खर्च करके लगाए गए हमारे निगरानी उपकरण कहां गये थे। ऐसा भी तो कहा जा सकता है कि क्या उन सारे उपकरणों की खरीद में हुआ गोलमाल इन शहादतों का जिम्मेदार है। पाकिस्तान में आज पहली बार लोकतांत्रिक सरकार अपना कार्यकाल पूरा कर चुकी है और अब वहां निष्पक्ष चुनाव आयोग और आम सहमती से चुनी केयर टेकर सरकार की देख रेख में अगले चुनाव होने जा रहे हैं। पहली बार वहां की सुप्रीम कोर्ट मे ऐसे जज हैं जो सेना के घोटालों और उनकी पिछली असाविधानिक गतिविधियों पर कड़े फैसले दे रहे हैं। वहां की मीडिया भारत का खतरा दिखा कर चौसठ साल ऐश करती रही सेना के तमाम दावों की पोल खोल रही है। सेना और आतंकवादियों के गठजोड़ की नीति के कारण आज पाकिस्तान खुद आत्मघाती हमलावरों, बम धमाकों से दहल चुका है। राजनैतिक तंत्र, सिविल सोसाइटी, व्यापारियों, न्यायपालिका के चौतरफा दबाव में वहां कि सेना को अपनी भारत विरोधी नीति को त्याग भारत से खुले व्यापार, सेना मुक्त वीजा नीति और अमन की आशा को स्वीकार करने के लिए मजबूर कर दिया है। आतंकवाद की नीति से किनारा कर लेने के परिणाम स्वरूप उसके पैदा किए हुए जिहादियों ने अपनी बंदूकें पाकिस्तानी सेना की ओर मोड़ दी हैं। अमरीका ने भी उससे किनारा कर लिया है और पाकिस्तान की दी जाने वाली सैन्य और आर्थिक मदद में भारी कटौती की है। चौतरफ़ा दबाव से बाहर निकलने का उसके पास एक ही रास्ता है कि वह ऐसी कोई खुराफ़ात करे जिससे भारत और पाकिस्तान के बीच चल रही अमन की आशा ध्वस्त हो जाए। भारत का सीधा हित इस भारत विरोधी इस्लामिक कट्टरपंथी बेलगाम सेना पर लोकतांत्रिक शासन की नकेल कसने से जुड़ा हुआ है।

Sunday, January 13, 2013

भावुकता का दोहन है बच्चा चोरी की अफवाह

महानगर में बच्चा चोरी की घटनाओं में वृद्धि की लगातार अफवाहें फैलायी जा रहीं हैं और विभिन्न इलाकों में इसे लेकर किसी को मारने पीटने की घटनाओं में वृद्धि हो रही है। हालांकि यह तय नहीं हुआ है कि बच्चा चोर बता कर जिन लोगों पर भीड़ ने जान लेवा हमले किये उन्होंने सचमुच बचा चुराया था या नहीं। पुलिस के रिकार्ड के मुताबिक जिन लोगों पर हमले हुये या जहां उन्हें बच्चा चुराने के संदेह में घेरा गया वहां किसी बच्चे को चुराने की घटना के सबूत नहीं है और ना ही कोई बच्चा चुराया गया बताते हैं। यानी फकत अफवाह फैला कर किसी को घेर कर मार डालने का प्रयास हो रहा है। जिन्हें मारा पीटा जा रहा है वे एक खास सम्प्रदाय के निहायत साधनहीन लोग हैं - कोई भीख मांगता है तो कोई ठोंगा बनाता है। सामाजिक विद्वेष फैलाने की इस खास किस्म की साजिश को गढऩे वाले बेशक अंधियारे में खड़े हैं , लेकिन उनकी करतूतों से उनके दिमाग का सुराग तो मिल ही सकता है। इसे जो लोग फैला रहे हैं तथा उससे उत्पन्न भावुकता को क्रियात्मक स्वरूप प्रदान कर रहे हैं , वे उन्हीं लोगों में से हैं जिन्हें वर्तमान सरकार को कमजोर करने का राजनीतिक लाभ मिल सकता है। लोकतंत्र में बेशक जनता अपना मुकद्दर लिखने वालों को चुनती है पर इस चुनाव के पीछे जनता के मानस को प्रभावित कर उनके विचारों को नियंत्रित करने का काम पार्टियों की मशीनरी करती है। हाल तक सत्ता का सुख लेने के कारण लोक से विमुख हो जाने वाली पार्टी को अफवाहें फैला कर जन भावना को उत्प्रेरित करने और उस उत्प्रेरण के प्रभाव से जन्में भावुकतापूर्ण गुस्से को अपनी मर्जी से उपयोग करने का हुनर मालूम है। वह कभी बच्चा चोरी तो कभी अन्य हिंसक घटनाओं को बहाना बना कर जनभावना को अनवरत भड़का रही है। पिछले दिनों की घटनाओं को अगर गौर से देखें तो लगेगा ये सारे वाकयात उन्हीं इलाकों में हुये हैं जहां पूर्व में उस पार्टी विशेष का गढ़ रहा है तथा पहले इस तरह की घटनाएं हो चुकी हैं। इन ताजा घटनाओं में आप पायेंगे कि बच्चा चोर बता कर कुछ लोगों का समूह एक आदमी को बुरी तरह पीट रहा है और कोई आदमी उस मार खाने वाले आदमी की तरफ से खड़ा हुआ नहीं दिख रहा है। इसके दो ही कारण हो सकते हैं पहला कि जो लोग मार पीट कर रहे हैं उन्हें वहां के क्षेत्रीय लोग पहचानते हैं और उनके खौफ के कारण हस्तक्षेप नहीं कर रहे हैं। वरना बंगाल की संस्कृति इतनी संवेदनशील है कि ऐसे मौकों पर आम जन चुप हो ही नहीं सकते। रवींद्रनाथ और विवेकानंद का नगर कोलकाता मानसिक तौर पर इतना संवेदनशील है कि किसी भी अफवाह की संभाव्यता को थोड़ा पुख्ता कर के उसे विश्वसनीय समाचार की शक्ल में बदला जा सकता है। बच्चा चोरी चूंकि एक संभावना है और सौ पचास लोग इस संभावना को दृढ़ कर उसे विश्वसनीयता प्रदान कर देते हैं। इसी विश्वसनीयता की अंधी दौड़ पर खौफ का धुंध डाल कर उसे सक्रियता में बदल देता है। यही कारण है कि व्यापक सामाजिक तंत्र वाले लोग इस तरह की गतिविधियों पर जल्दी ही कब्जा कर लेते हैं। चूंकि ऐसे कार्यों में भारी भीड़ संलग्नता होती है अतएव सरकार उनपर कठोर कार्रवाई नहीं कर सकती है और इस लाचारी का वे तत्व फायदा उठा कर शासन के नकारा हो जाने का भ्रम पैदा कर देते हैं। ऐसे मौकों पर सबसे जरूरी होता है कि अफवाहों पर न जाकर सच का संधान करना। कौवा कान ले गया तो कौवा के पीछे दौड़ पडऩे से उत्तम होता हे अपने कान को देख लेना। बच्चा चोरी की घटना में जिसे पकड़ा गया क्या उसने सचमुच बच्चा चुराया है। शक होने पर पुलिस की मदद लें, कानून को अपने हाथ में न लें। कानून का निर्णय हमेशा सही होगा।

मकर संक्राति हमारी सांस्कृतिक श्रेष्ठïता का प्रतीक है

-हरिराम पाण्डेय मकर संक्रांति यानी सूर्य का मकर राशि में प्रवेश को मकर संक्रांति कहते हैं। यही समय है जब सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण होता है। सूर्य उत्तरायण होना केवल शास्त्र समत नहीं बल्कि विज्ञान समत भी है। चूक सूरज धरती का केंद्र है और सारे ग्रह उसका चक्कर लगाते हैं। जितने समय में पृथ्वी सूर्य के चारों ओर एक चक्कर लगाती है उस अवधि को सौर वर्ष कहते हैं। धरती का गोलाई में सूर्य के चारों ओर घूमना 'क्रांति चक्रÓ कहलाता है। इस परिधि को 12 भागों में बांट कर 12 राशियां बनी हैं। हमारे पूर्वजों ने सितारों के समूह की आकृति के हिसाब से उन्हें नाम दे रखा था। जो सितारा समूह शेर की तरह दिखता था, उसे सिंह राशि घोषित कर दिया, जो लडकी की तरह उसे कन्या और जो धनुष की तरह दिखें धनु राशि। पृथ्वी का एक राशि से दूसरी में जाना संक्रांति कहलाता है। यह एक खगोलीय घटना है जो साल में 12 बार होती है। सूर्य एक स्थान पर ही खड़ा है, धरती चक्कर लगाती है। अत: जब पृथ्वी मकर राशि में प्रवेश करती है, एस्ट्रोनामी और एस्ट्रोलॉजी में इसे मकर संक्रांति कहते हैं। मकर संक्रांति त्योहार नहीं बल्कि व्रत है। व्रत शब्द वृ धातु से बना है, जिसका अर्थ होगा- वरण या च्वायस। संक्रांति का अर्थ है- संक्रमण या ट्रांजिशन। संक्रांति के समय सूर्य एक राशि से निकलकर दूसरी राशि में प्रवेश करता है। मकर संक्रांति के समय सूर्य धनु राशि से निकलकर मकर राशि में प्रविष्ट कर जाता है। यही वह समय होता है जब सूर्य उत्तरायण होने लगता है। आम आदमी इस तरह के वर्गीकरण से विरक्त रहता है। लेकिन भारतीय संस्कृति में व्रत उस तरह के पर्वों को कहते हैं, जो पूरे साल को एक वृत्त या गोले के रूप में देखते हैं। यह गोल घूमता हुआ गोला साल में अनेक व्रतों को जन्म देता है। यही कारण है कि मकर संक्रांति की स्थिति लगभग हर साल स्थिर या फिक्स रहती है। आजकल मकर संक्रांति हर साल 14 या 15 जनवरी को मनाई जाती है। आज से सौ वर्ष पहले यह 12 या 13 जनवरी को मनाई जाती थी। इस संबंध में नासा ने बड़ी दिलचस्प खोज की है। नासा के वैज्ञानिकों पृथ्वी के भ्रमण पथ का आकलन करते हुये पाया कि पिछले हजारों साल से धरती की रतार हर कुछ साल पर 72 घंटे धीमी हो जाती है। क्योंकि धरती की रतार लगातार धीमी होती जा रही है, अत: साल भर में 12 की जगह 13 राशियां हो चुकी हैं। ज्योतिष के विद्वान पता नहीं इसे मानते हैं या नहीं, पर नासा वालों का कहना है कि इस तेरहवीं राशि को गणना में न लेने की वजह से लगभग 84 प्रतिशत भविष्यवाणियां सटीक नहीं हो पाती हैं। यह मकर संक्रांति पर भी लागू है। यही कारण है कि 100 वर्ष पहले मकर संक्रांति 12 या 13 जनवरी को पड़ती थी। आज 14 या 15 जनवरी को पड़ती है। हो सकता है 200 वर्ष बाद यह 24 या 25 जनवरी को पड़े। यहां यह बताना जरूरी है कि व्रत व्यक्तिगत पर्व माना जाता है, जबकि त्योहार सामूहिक पर्व माने जाते हैं। मकर संक्रांति एक पर्व है, लेकिन होली एक त्योहार है। जो व्यक्तिगत पर्व होगा, उसमें अनुष्ठान ज्यादा होगा और उल्लास कम। जबकि सामूहिक पर्व में अनुष्ठान न के बराबर होता है, लेकिन उल्लास अपने अतिरेक पर होता है। यही कारण है कि मकर संक्रांति व्यक्तिगत पर्व होने की वजह से सेलेक्टिव हो जाता है। हम चाहें तो उसे मनाएं या न मनाएं। लेकिन होली के हुडदंग में हम शामिल हों या न हों, होली के असर से बच नहीं सकते हैं। दुनिया की हर संस्कृति में सूरज की पूजा होती है। सूरज की पूजा दुनिया के सभी प्राचीन सयताओं में होती है। शायद सूरज की पूजा करना इन धर्मों को बड़ा वैज्ञानिक बना देता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि धरती पर जीवन का जो भी लक्षण है, वह सूरज की मेहरबानी है। आज से करोडों साल बाद जब सूरज ठंडा हो जाएगा, तो धरती पर जीवन समाप्त हो जाएगा। अत:मकर संक्राति हमारी सांस्कृतिक श्रेष्ठïता का प्रतीक है।