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Monday, April 30, 2018

केवल फांसी से नहीं बनेगी बात 

केवल फांसी से नहीं बनेगी बात 

बच्चियों से रेप के मामले में सरकार को गंभीरता से सोचना चाहिये। जैसे खुले में शौच या स्पष्ट आय असमानता एक नैतिक सामाजिक समस्या है उस तरह ब​च्चियों से बतात्कार एक नैतिक समस्या नहीं है बल्कि यह एक आपराधिक समस्या है। कैलाश सत्यार्थी ने कहा  है कि बच्चों का बलात्कार और यौन शोषण भारत में एक "राष्ट्रीय आपातकाल" की तरह है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2016 में बच्चियों से बलात्कार के  18,862 के मामले  दर्ज किए गए थे। यानी हर दिन 50 से अधिक या  आधे घंटे में दो से ज्यादा  बच्चियों से  बलात्कार। यह तो दर्ज किया गया मामला है, वह संख्या और ज्यादा होगी जो पुलिस के पास आती ही नहीं या थाने में लाकर रफा- दफा कर दिया जाता हो। एक राष्ट्र के रूप में हमारी भावनाओं को प्रोत्साहित करने में धर्म, राजनीति,  क्रिकेट और अब बच्चियों से बलात्कार। इस घटना को भावात्मक मुद्दा देने के लिये हम तख्तियां पकड़े बाहर सड़कों पर प्रदर्शन करते हैं।  इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात है कि कभी- कभी बिगड़ती नैतिकता के इस सवाल पर समाज के कुछ लोग बातें करने तक से इंकार  कर देते हैं। एक सुपरस्टार ने हाल ही में कहा था कि  वह इस मसले पर बात नहीं करना चाहता। बात चली थी कठुआ में एक बच्ची से बलात्कार और हत्या की। यही है हमारी  मौलिक समस्या। वह है  हम अपनी  अक्षमता  और एक बदसूरत सच के बाध्यकारी निर्णय के विपरीत कोई विकल्प तैयार करने की ​िस्थति ही पैदा नहीं होने देते। महिलाओं और लड़कियों के सशक्तिकरण को समर्पित एक समूह  ने अपनी रपट में कहा है कि बलात्कार व्यवहार का मसला नहीं हिंसा का मुद्दा है। इस रपट में अफगानिस्तान, बेल्जियम, चीन, भारत, इंडोनेशिया, जॉर्डन, लक्समबर्ग, नीदरलैंड, नाइज़ीरिया, पाकिस्तान, पेरू, सिंगापुर, ताइवान और यमन का उदाहरण देते हुये कहा गया है कि  " इन मुल्कों में सेक्सिस्ट शब्दावली का प्रयोग  कानूनन बलात्कार के समतुल्य माना जाता है। ।" भारत, जाहिर है, में पितृसत्तात्मक समाज है और पितृसत्ता चलती है। पिछले कुछ हफ्तों से तर्क दिया  जा रहा है कि  बलात्कार एक "सामाजिक अपराध" है और इसके लिये सामाजिक समाधान की व्यवस्था की जाय । लेकिन सत्य तो यह है कि  - बलात्कार एक अत्यंत हिंसक अपराध है और इसके लिये कठोर कानून बनाये जाएं। बलात्कार की शिकार महिला जीवन भर के लिए हो कलंकित  और परिवर्तित हो जाती है।  यह समस्या नहीं है। आदत, नैतिकता और प्रवृत्ति को खत्म करने या उसे बदलने में सम्पूर्ण जीवन लग जाता है।  समस्या एठक समाज के रूप में हमारे बारे नहीं है ब्रलक हमारे संस्थान हमें बार बार पराजित कर रहे हैं। हम अपने देश के चारों ओर एक ऐसी पारिस्थितिकी का सृजन नहीं कर पा रहे हैं जो नैतिकता के इक नवीन वातावरण को पेदा कर सके। बललात्कार के ज्यादातर मामलों में बलात्कारी से बच्चियां परिचित होती हैं और वे या तो निकट रिश्तेदार होते हैं या पड़ोसी। घटना के बाद बच्चियों का घर से निकलना बंद हो जाता है या फिर , यदि मुकदमा हुआ तो वे अदालत तक जाती हैं। जबकि बलालत्कारी सामान्य जीवन जीता है। यह वह जगह है जहाँ नैतिकता  की बात आती है। क्योंकि ये वो लोग नहीं हैं जो सोशल मीडिया पर नैतिकता की बात करते हैं बल्कि वे लाखों बच्चे हैं जो न्याय के लिये जूझ रहे हैं। ये वे लोग हैं जो अपराध के शिकार हुये हैं और अपराध की नैतिकता को समझाने की जिम्मेदारी उनपर है। उनसे पूछा जाता है कि वे सतर्क क्यों नहीं थीं, उन्हें सतर्क और सावधान रहना चाहिये। यह बात गले से नहीं उतरती। हमारे समाज में सम्बंधों की ढेर सारी शाखाएं हैं ओर उन शाखाओं की उतनी ही प्रशाखायें और सबकों सामाजिक मान्यता मिली हुई है। अब जबकि घटना घट जाती है तो अनेक दबाव विन्दु सक्रिय हो जाते हैं। फिर या तो मामला कोर्ट तक नहीं जाता या फिर जाता है तो धन औरय सबूत के अभाव में खत्म हो जाता है।  

  सरकार ने इस अपराध के लिये फांसी की घोषणा की। यह बात सुनने में तो अच्छी ल67गती है पर व्यवहारिक नहीं है। कैलाश सत्यार्थी के फाउंडेशन के अनुसार अभी देश में 1 लाख रेप के मुकदमें अदालतों में झूल रहे हैं। यही नहीं, अगर अरुणाचल या गुजरात  में एक रेप का मुकदमा दर्ज होता है तो सुनवाई तक पहुंचने में उसे कई साल लग जाते हैं। 2012 में एक सामूहिक रेप की घटना हुई थी। सुनवाई भी हुई और फांसी की सजा भी सुना दी गयी पर आज तक फांसी नहीं हुई। कानून बनाने से पहले उसके लागू किये जाने की व्यवस्था जरूरी है। यही नहीं कुछ और कदम उठाने होंगे। बलात्कार के अपराधी के बारे में देश के सभही दफ्तरों को सूचित कर दिया जाना चाहिये। इसके अलालवा बलात्कार की शिकार महिला या बच्ची के काउंसिलिंग के केंद्र भी जगह जगह खोले जाने चाहिये। इसके अलावा जांच मे ढिलाई बरनते वाले पुलिस अधिकारी को भी कठोर दंड दिया जाना चाहिये। जब तक ऐसा नहीं होगा केवल फांसी से बात नहीं बनेगी।  

Sunday, April 29, 2018

आधार के मामले में सरकार  की गलतबयानी

आधार के मामले में सरकार  की गलतबयानी

 कुछ कारणों से सभी सरकारों ने आधार परियोजना को लेकर बार बार जनता को गुमराह किया। यूपीए की सरकार ने इसे  जन्म दिया  और एनडीए की सरकार  पाल  रही है। इसके क्या कारण है यह तो समझ में नहीं आया  ले​​किन सरकार इसकी लगातार कर  रही है। सभी राज्यों की सरकारों ने  आधार से बड़े-बड़े लाभ  ​गिनाये हलां​कि, वे  लाभ किसको मिले यह कोई नहीं जानता। अब जबकि आधार को लेकर सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा है तो एक-एक कर सारे  झूठ  खुल रहे हैं। वैसे भी मोदी जी की  सरकार को एक ही चीज के बारे में बार-बार कई तरह से गलतबयानी करने की आदत है। आधार के मामले में सरकार  ने इसकी उपयोगिता, लाभ और जाखिम के बारे में लोगों को कई बार गुमराह किया है।  इन  दावों में जो सबसे  बड़ा दावा  है और वह सबसे बड़ा झूठ है मोबाइल को  आधार से जोड़ने की बाध्यता । अब तक यही कहा जाता है कि सरकारी आदेश के अनुसार सिम को  आधार कार्ड से जोड़ना होगा। सरकार सफाई देती है ​कि ऐसा सुप्रीम कोर्ट का आदेश है। जब भी जनता ने फोन को  आधार से जोड़ने की व्यवस्था  पर उंगली उठाई है तो कहा जाता है, यहां तक कि मंत्री भी कहते  सुने गए हैं , ​कि यह सुप्रीम कोर्ट का हुक्म है। सरकार ने यह झूठ को इतनी गंभीरता से फैलाया कि दूरसंचार विभाग  ने भी जब मोबाइल ऑपरेटरों को निर्देश दिए  कि मोबाइल नंबर को आधार कार्ड से जोड़ना  अनिवार्य  है , तो कहा कि ऐसा  सरकार का आदेश है। बात तो तब होगी जब आधार मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हो रही थी । मामला था आधार परियोजना लोकनीति फाउंडेशन  के बीच।  उस दौरान सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ ने स्पष्ट  कहा कि  " न्यायपीठ ने केवल आधार का नाम नहीं लिया था बल्कि यह कहा था ​कि पहचान के प्रमाण के लिए जिन  दस्तावेजों की जरूरत है उनमें आधार भी एक है।" अब  यहां सरकार  की झूठ पकड़ी गई। लेकिन, एक बात हो तब न।  कई बार  सरकार ने  लोगों को गुमराह करने की कोशिश की है। इनमें सबसे ज्यादा मशहूर है सरकार का  वह कथन जिसमें बार-बार कहा गया कि आधार के कारण सरकार को हर साल 11 अरब डॉलर की बचत होती है। सरकार के अनुसार विश्व बैंक की रिपोर्ट में ऐसा  कहा गया है। परंतु यह अपूर्ण है और बार-बार  गलत बताया  गया है।  आई आई टी दिल्ली की  अर्थशास्त्री और प्रोफेसर रीतिका खेड़ा ने इसे कई बार गलत बताया।  प्रोफेसर खेड़ा ने अपने शोध प्रबंध​ में  कहा है कि सरकार का ऐससा कहना गलत है कि देश में  जितने  नगदी  ट्रांसफर कार्यक्रम है उनमें 70  हजार करोड़ रुपए यानी 11 अरब डालर से ज्यादा की बचत होती है। सरकार ने इस धन को  बचत में शामिल कर  ​लिया। तथ्य यह है कि  गुमराह करने के चक्कर में  सरकार ने उपरोक्त मदों में शामिल सारे  खर्च को बचत में शामिल कर ​लिया। यह जानते हुए भी कि यह आंकड़ा गलत है सरकार के अधिकारी और मंत्री लगातार इस  दोहरा रहे हैं और भक्तजन इसका जाप कर रहे हैं। लेकिन, कुछ हफ्ते पहले सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में लिखित रूप से दिया है कि आधार से कितनी बचत हो रही है, यह मालूम नहीं , बचत हो रही है या नहीं यह भी संदेहजनक है। उदाहरण के लिए  अभी हाल में दावा किया गया की रसोई गैस वितरण में आधार के चलते करोड़ों रुपयों की बचत हुई है। लेकिन एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन " इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ सस्टेनेबल डेवलपमेंट" ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि आधार से बचत कितनी हो रही है यह मालूम नहीं किंतु बचत बहुत कम हो रही है । आधार कार्ड योजना लगती है गलत है। यही नहीं आधार नंबर की चोरी और उसके दुरुपयोग को भ्रामक बताते हुए बार-बार सरकार को बताया गया है लेकिन सरकार की ओर से हर बार  कहा गया है यह गलत है । आधार कार्ड से पहचान की  पुष्टि नहीं हो पाने के कारण कई लोगों को उसके लाभ से वंचित होना पड़ा है। लेकिन, सरकार इसे मानती नहीं।  जबकि ऐसे कई उदाहरण है की बूढ़े श्रमिकों का बायोमेट्रिक का आधार से मिलान नहीं हो पाया है और उन्हें राशन नहीं दिया गया है। नहीं खा पाने का झारखंड में कई लोग मरे  भी हैं ।

   आधार का मामला फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में है और आशा है इस पर  जल्दी ही फैसला हो जाएगा। फैसला क्या होगा यह मालूम नहीं  है पर आधार तरफदारी करने वाले यह समझ लें कि इसके आंकड़ों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। इसके बारे में सरकार के पक्ष से बड़ी-बड़ी बातें होती है सबके सब गुमराह करने वाली है। 

Friday, April 27, 2018

कश्मीरी आतंकवाद खतरनाक राह पर

कश्मीरी आतंकवाद खतरनाक राह पर
जम्मू कश्मीर के शोपियां में पिछले हफ्ते के आख़िर में एक मुठभेड़ में 13 आतंकी मारे गए थे।  इनमें ज्यादातर स्थानीय थे और नौजवान थे। आंकड़े बताते हैं कि घाटी में आतंकवाद में शामिल होने वाले नौजवानों की संख्या तेजी से बढ़ रही है।  हर तीसरे दिन एक नौजवान आतंकवादी बन रहा है। 2016 में आतंकवाद में शामिल होने वाले नौजवानों की संख्या अट्ठासी थी जो 2017 में बढ़कर  126 हो गई। यह पिछले 7 वर्षों में सबसे बड़ी संख्या है। कश्मीर में 2010 से 2015 तक लोकल आतंकवादियों की संख्या बहुत कम थी और इस पर  कट्टरपंथियों का कंट्रोल था। 90 के दशक के अंत से कश्मीर में आतंकवाद में धीरे धीरे लोकल नौजवान हिस्सा लेने लगे। अचानक इनकी संख्या बढ़ने लगी। अब जबकि हुर्रियत पार्टी अध्यक्ष बदल गए हैं ।  नए अध्यक्ष मोहम्मद अशरफ शहराई के पदभार संभालने के बाद और उनके पुत्र जुनैद के आतंकवाद में शामिल हो जाने के बाद घाटी का रुख बदल गया है। जुनैद पिता का कहना है कि उनका पुत्र कश्मीर में और कश्मीरियों के साथ हो रहे अन्याय को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है। उन्होंने खुद अपने बेटे को आत्मसमर्पण के लिए कहने से इंकार कर दिया। यह पहला मौका है जब हुर्रियत के बड़े नेता के परिवार के बहुत करीबी सदस्यों ने आतंकवाद का का दामन थामा। इससे वहां आतंकवाद में स्थानीय नौजवानों की संख्या तेजी से बढ़ सकती है।  क्योंकि ,पहले यह समझा जाता था की हुर्रियत के बड़े नेता नेता गिरी की मलाई चाटते हैं और अपने लोगों को आगे बढ़ाने तथा दौलत इकट्ठा करना एक काम में जुटे रहते हैं। नेतागिरी तो केवल एक पर्दा है। अब अगर किसी तरह से या किसी विशेष मौके पर जुनैद का सफाया हो जाता है तो घाटी जलने लगेगी।
फिलहाल घाटी के आतंकवाद में जो नौजवान शामिल हो रहे हैं वे कलम और लैपटॉप छोड़कर बंदूक के उठाने वाले लड़के हैं। वह अच्छी तरह जानते हैं उनके पास समय नहीं है। पिछले हफ्ते मारे गए ज्यादातर लड़के साल भर पहले ही आतंकी बने थे। पुलिस की रिपोर्ट बताती है की हाल में 16 आतंकवादियों ने आत्मसमर्पण किया इनमें ज्यादातर नौजवान थे।  खतरनाक यह तथ्य है कि जितने युवा आत्मसमर्पण कर रहे हैं या मारे जा रहे हैं उससे कहीं ज्यादा इसमें शामिल हुए हैं। यह एक नई रुझान है और यह कश्मीरी आतंकवाद को एक नया रूप दे सकती है। इस स्थिति से आतंकित होकर पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ट्वीट किया था कि "पता नहीं कि इससे दिल्ली इससे भयभीत है या नहीं है लेकिन मैं तो भयभीत हूं ।" उमर अब्दुल्ला की बात गौर के काबिल है । अनंतनाग में मुठभेड़ में शामिल कई नौ जवानों  से आत्मसमर्पण करने के लिए बार-बार अपील  के बावजूद उन्होंने आत्मसमर्पण नहीं किया यहां तक कि उनके मां बाप ने भी अपील की पर किसी ने आत्म  समर्पण नहीं किया। उनमें से एक के  पिता के मुताबिक उनका परिवार हिंसा के खिलाफ है। लेकिन 2016 की अशांति के दौरान एक की गिरफ्तारी और उसके बाद 45 दिन की कैद ने शायद उन्हें  बदल डाला और  आतंकवाद के अंधेरे गर्त में डाल दिया।  आत्मसमर्पण की अपील को इनकार करने का यह पहला मामला है ,ऐसा नहीं है । अभी हाल में अन्य नौजवानों ने भी ऐसा किया है। मां-बाप विवश हो जाते हैं। ये नौजवान तो यह समझ कर आतंकवाद में शामिल हो रहे हैं वह आजादी की जंग लड़ रहे हैं । लेकिन ऐसा नहीं है। वह मतलबी और स्वार्थी नेताओं के हाथों में पड़ जाते हैं । उन्हें  यह मालूम नहीं  है कि आजादी एक सपना है । वे पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियों के "डीप स्टेट " के रूप में काम करने लगते हैं । इन्हीं के माध्यम से पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी भारत में आतंकवादियों को धन भेजती है ।जम्मू कश्मीर के पुलिस महानिदेशक और वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों ने मिलकर घाटी के अभिभावकों से अपील की कि वे अपने बच्चों को आतंकवाद में जाने से रोकें और हिंसा का रास्ता छोड़ने के लिए कहें। नौजवानों की मौत सबके लिए पीड़ादायक है। उन्होंने स्थानीय लोगों से भी अपील की कि वे मुठभेड़ की जगह में जाने से बचें क्योंकि वहां अक्सर घायल होने या मर जाने की आशंका बनी रहती है । यहां तक की जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने भी कई बार ऐसी अपील की है लेकिन इसका असर हो रहा है या नहीं हो रहा है या आगे चल कर होगा या नहीं पता नहीं चलता है। क्योंकि ,युवा लगातार आतंकवाद में शामिल हो रहे हैं। इसके कई सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारण हैं। जिनमें प्रमुख हैं मुस्लिम राष्ट्रवाद का उदय, धार्मिक विचार और सुरक्षा बलों द्वारा अपनाई जा रही कड़ी सशस्त्र नीतियां । वे खासकर इन लोगों को , जो नौजवानों को भड़का रहे हैं, यह नहीं समझा पा रहे हैं की ऐसी जंग से  कुछ हासिल नहीं होगा । चाहे जितना अंतरराष्ट्रीय दबाव हो भारत किसी भी हिस्से को अलग करने पर राजी नहीं होगा और ना स्वतंत्र घोषित करने की इजाजत देगा। आतंकवाद चाहे जितना भी प्रबल हो जाए। उधर , कश्मीर का मामला दुनिया भर में इसकी चर्चित है कि पाकिस्तान उसे मदद दे रहा है और यह है कि पाकिस्तान आगे भी ऐसा करता रहेगा।
   हमारे देश ने कई हिस्सों में आतंकवाद का मुकाबला किया है। सबसे ताजा उदाहरण तो नागा आतंकवाद है । कई दशकों तक संघर्ष के बाद उसे काबू में लाया जा सका। बहुत लोग मारे गए तब कहीं जाकर संघर्षविराम हुआ। मिजो उग्रवाद और पंजाब का उग्रवाद जिसे पाकिस्तान ने समर्थन दिया था भूलने वाला नहीं है।  भारत सरकार हमेशा से आतंकवाद से मुकाबले के लिए दृढ़ रही है। हाल में कश्मीर में जो फिर से शुरू हुआ है उसका उद्देश्य केवल पर्यटन के मौसम में आम जनता का रोजगार खत्म करना  है और उन्हें हताश कर सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर कर देना है। इससे हालात और बिगड़ेंगे और अलगाववाद बढ़ने लगेगा । यह आंदोलन अभी कट्टरपंथियों के कब्जे में है। सरकार को चाहिए युवा युवा वर्ग को सुविधाएं मिले और शिक्षा मिले ।

Thursday, April 26, 2018

मोदी की चीन यात्रा क्यों अविश्वसनीय रूप से महत्वपूर्ण है

मोदी की चीन यात्रा क्यों अविश्वसनीय रूप से महत्वपूर्ण है
यदि आपने आठ महीने पहले बीजिंग के शीर्ष रणनीतिकारों में से सबसे अनुभवी लोगों को भी समझा होगा तब भी यह सुन कर हंसे बिना रहेंगे कि   चीन के  राष्ट्रपति शी जिनपिंग सभी  प्रोटोकॉल को भंग कर  से उड़ते हुए जाकर  भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की अगवानी करेंगे। 
पिछले अगस्त  की ही  तो बात थी था  चीनी सरकार सार्वजनिक रूप से भारत को 1 9 62 का सबक  याद दिला रही थी। लेकिन भारत-चीन संबंधों की प्रकृति - और इसकी अप्रत्याशित ऊंच - नीच की हकीकत जो जानते हैं उन्हें मालूम है कि यह सब चलता है।यहां हम एक सामरिक पुनर्भुगतान के बारे में बात कर रहे हैं। पिछले साल   डॉकलम में 72 दिन तक तनाव और  सीमा "स्टैंड-ऑफ " के बीच ऐसा सोचना भी असंभव था।
यह घोषणा अचानक हुई कि  कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी चीनी नेता शी के साथ  यांग्त्ज़ी नदी पर वुहान शहर में  27 और 28 अप्रैल को मिलेंगे। यह जानना दिलचस्प होगा कि  माओ यहां  अपने निजी विला में विदेशी नेताओं की मेजबानी किया करते थे। यह अब एक पर्यटक स्थल बन चुका है।  यह एक अभूतपूर्व अनौपचारिक शिखर सम्मेलन कहा जा सकता है। 
भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और उनके चीनी समकक्ष वांग यी बीजिंग के दीयायुताई राज्य के  गेस्टहाउस में  घंटे भर लंबी बैठक से जब  बाहर आए, तो मीडिया को पता था कि यह सामान्य  वार्ता नहीं थी। प्रेस प्रेस ब्रीफिंग के लिए विस्तृत व्यवस्था  की  गई थी। चीन में खुद  मंत्री भी लगातार  सवाल नहीं पसंद करते  हैं।
यह यात्रा दिल्ली और बीजिंग में दोनों पक्षों द्वारा संबंधों को "रीसेट" करने के लिए उठाये गए  "बोल्ड" कदम के रूप में देखी जा रही है।  लेकिन इसमें  जोखिम भी भारी है। पूर्व विदेश सचिव एस जयशंकर के अनुसार, " यह निश्चित रूप से एक बहुत ही साहसिक कदम है।" उन्होंने कहा, तथ्य यह है कि " एक अनौपचारिक शिखर सम्मेलन पर दोनों ने  सहमति व्यक्त की है कि दोनों नेताओं को इस संबंध के महत्व का एहसास है।"
जयशंकर ने कहा, "उन्होंने खुद को एक बेहतर स्तर पर रखने पर जिम्मेदारी ली है ... " । मुझे लगता है कि इस विशेष शिखर सम्मेलन के बारे में क्या अलग है यह होगा कि यह एक अनौपचारिक शिखर सम्मेलन है, इसलिए बैठक एक अनौपचारिक और आरामदायक माहौल में होगी। एजेंडा खुलेगा,  दो दिनों में  विभिन्न प्रकार की बातचीत होगी, जो औपचारिक बैठकों की तुलना में अधिक व्यक्तिगत और अधिक इंटरैक्टिव होगी। "

राष्ट्रपति शी के साथ एक शिखर बैठक के लिए चीन की यात्रा - वह भी शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) सुरक्षा शिखर सम्मेलन के लिए पहले से निर्धारित जून यात्रा से एक महीने पहले - निश्चित रूप से प्रधान मंत्री मोदी द्वारा एक साहसिक कदम है।

दोनों नेता अलग-अलग विचारों के साथ शिखर सम्मेलन में आ रहे हैं। भारत के लिए, वैश्विक अनिश्चितता के समय चीन के साथ संबंधों को स्थिर करने और चुनाव के वर्ष से पहले झड़प से बचने और दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था से अधिकतम हासिल करने के प्रयास करेंगे। 
राष्ट्रपति शी के लिए,  अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में अपनी राजनीति दिखाने का अवसर है।   मोदी और शी में सहयोग है। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग  संबंधों को फिर से स्थापित करने के लिए तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। व्यापार और युद्ध के कगार पर चीन और अमरीका के साथ व्यापार पर पश्चिम के साथ सुषमा की हिंदी-चीनी कूटनीति महत्वपूर्ण है।
हालांकि, उनके अलग-अलग उद्देश्यों से कोई फर्क नहीं पड़ता कि अगर वे यांग्त्ज़ी के तट पर कुछ आवश्यक सामान्य  पा सकते हैं।

Wednesday, April 25, 2018

नौकरियां नहीं है केवल वादे ही हैं

नौकरियां नहीं है केवल वादे ही हैं

 चार साल पहले जब नरेंद्र मोदी ने चुनाव प्रचार शुरू किया था तो सीना ठोक ठोक कर वादा किया था कि हम देश में बेरोजगारी मिटाएंगे और खुशहाली लाएंगे। उनकी बातों में  उम्मीद की इतनी झलक थी के लोगों ने भरोसा किया और उन्हें जिताया लेकिन 4 साल बीत गए, वादे वादे ही रह गए। अब  नौकरी के वादे के चारों तरफ जनता के टैक्स के पैसे से  सरकार चुनाव का माहौल बना  रही है । बेशक राजनीति विज्ञान में यह तरीका  लोकप्रिय हो सकता है  पर   बेरोजगारी से लड़ने के लिए  कारगर नहीं। नौजवानों में थोड़ी देर के लिए उम्मीद तो बनेगी और ऐसा लगेगा कि  सरकार कुछ कर रही है।  इससे ज्यादा कुछ नहीं होगा।  देखिए उम्मीदों  के बाद कितना बड़ा धोखा है।  सरकार ने पिछले 15 फरवरी को भारतीय रेल में दुनिया की सबसे बड़ी  भर्ती मुहिम शुरू की। लगभग  90  हजार नौकरियां थीं । इसके लिए  2  करोड़  80  लाख लोगों ने आवेदन किया था। यानी एक पद के लिए 300 से ज्यादा अर्जियां थीं ।  सरकार इस  ऐलान का जश्न मना रही है । लेकिन सच में तो यह राजनीतिक असफलता है।  बात यहीं हो तो गनीमत है। सभी तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। एक पखवाड़े पहले मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान  ने एक लाख  सरकारी नौकरियों की घोषणा की। इसमें शिक्षक सहायक शिक्षक और प्रोफेसर के पद थे।  यह अब सवाल उठता है कि क्या सरकारी नौकरियों से बेरोजगारी की समस्या हल हो जाएगी ।जहां करोड़ों नौजवान बेकार हैं वहां लाख दो लाख  नौकरियों से क्या बनता बिगड़ता है ? यहां जो बात  महत्वपूर्ण है वह है  कि सरकार   क्या वह माहौल बना सकी  जिससे रोजगारों को बढ़ावा मिले। लोग ज्यादा से ज्यादा निवेश कर सकें इससे नौकरियां पैदा होगी।  सरकारी नौकरी जिसे मिल भी जाएगी तो उसे कई सुविधाओं की गारंटी तो हो जाएगी लेकिन क्या सरकार को व क्वालिटी मिल सकेगी? इसकी गारंटी नहीं दी जा सकती। सरकारी नौकरियों से बेरोजगारी   समाप्त होगी और हालात बदलेंगे यह सोचना भी बेकार है। अगर  सत्ता  में 4 वर्ष  रहने के बाद भी यही हाल है तो फिर चुनावी  वादों और ठोस कामकाज में तालमेल  कहां है।  सरकार  कुछ हजार या लाख दो लाख नौकरियां घोषित कर आखिर क्या बताना चाहती है? एक ऐसे समय में जब हर नीति ,  प्रत्येक परियोजना,   हर ठेके और नौकरी की गंभीर समीक्षा होनी चाहिए वैसे समय में सरकार परात में नौकरियां परोसकर पेश कर रही है बिल्कुल सड़े-गले ढर्रे की तरह। बेशक, सरकार ने बहुत कुछ किया भी है और इसी की बदौलत कारोबार में आसानी के मामले में भारत का स्थान ऊपर गया है। भारत अब सौ  ऐसे देशों में शामिल हो चुका है। लेकिन भारत  का लक्ष्य  है ऐसे 50 देशों में शामिल होना लेकिन थोड़ा कठिन है । सरकार का कहना है कि निजी क्षेत्रों में रोजगार बढ़े हैं तो ऐसे में दिखाई क्यों नहीं  पड़ते? इसका कारण है आंकड़ों का  अभाव।  रोजगार और बेरोजगारी के सर्वे के श्रमिक वर्ग के आंकड़े 2015 -16 के हैं।  इन आंकड़ों के मुताबिक 15 साल से ऊपर के लोगों में बेरोजगारी की दर  3.7 प्रतिशत है।लेकिन राज्यवार यह आंकड़े चिंतित करने वाले हैं। अंडमान और निकोबार में   15 वर्ष से ऊपर के के लोगों में बेरोजगारी 12% है ,  केरल में 10.6 प्रतिशत और हिमाचल में 10.2% है।  सबसे कम  दमन और  दीव में  है। यहां यह  0.3 प्रतिशत है जबकि गुजरात में 0.6 प्रतिशत और छत्तीसगढ़ में 1.2% है। राष्ट्रीय स्तर पर 2015 -16 के आंकड़े पिछले साल के आंकड़े थोड़े अच्छे हैं। 2013 14  मैं 3.4 प्रतिशत  था।  लेकिन 2012- 13  में   हालात और अच्छे  थे।  इस अवधि में यह 4  प्रतिशत था।  रोजगार पर 2015 - 16 के बाद के  आंकड़े नहीं हैं । सबसे ज्यादा चिंताजनक  तथ्य यह है कि  सरकार  के अनुसार अब इसकी जरूरत ही नहीं है।  सरकार  अपनी पीठ थपथपाना चाहती है।  रोजगार के मामले पर  टास्क फोर्स गठित की गई थीऔर उसी के सुझाव पर  सर्वे का काम बंद कर दिया गया। काम नहीं मिल रहे हैं  यह तो एक बात है दूसरी तरफ काम बहुत तेजी से समाप्त   हो रहे हैं।  अर्नस्ट एंड यंग द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक अगले 4 साल देश में  हर 10 नौकरियों में खत्म हो जाएगी। इसका कारण है ग्लोबलाइजेशन, डेमोग्राफिक बदलाव, नए जमाने की तकनीक ।सबसे ज्यादा प्रभाव   अाई  टी  क्षेत्र पर पड़ेगा यहां से 35% कर्मचारी बेकार हो जाएंगे ।देश में बेरोजगारी और बढ़ जाएगी क्योंकि टेक्निकल सेक्टर में 38  लाख  लोग काम कर रहे हैं और लगभग 13 लाख परोक्ष रूप से उससे जुड़े  हुए हैं। यह भी बेकार हो जाएंगे क्योंकि कंपनियां स्वचालित उपकरण से  इनका काम लेंगे। नई नौकरियों के लिए रोजगार  के लिए सरकार के पास  कोई नई नीति नहीं है  और अगले 4 साल में  रोजगार के दायरे  सिकुड़ते जाएंगे। 

  आर्थिक सर्वे के मुताबिक देश में फिलहाल 6   करोड़ औपचारिक कर्मचारी हैं। इनके अलावा लगभग  1.5  करोड़ सरकारी कर्मचारी हैं।  दोनों संख्या को मिलाने पर देश में कर्मचारियों की संख्या 7:50 करोड़ हो जाती है। टैक्स के  नजरिया से देखा जाए तो देश में  बिना पेरोल वाले  कर्मचारियों की संख्या  12.7  करोड़ है इनमें सरकारी कर्मचारी भी शामिल  हैं। इस संख्या में 53 प्रतिशत ऐसे लोग हैं जिनका संबंध कृषि क्षेत्र के कार्य बल से नहीं है। लेकिन जैसा की रिपोर्ट में कहा गया है छोटे-मोटे रोजगार वाले सभी लोगों को औपचारिक कर्मचारी नहीं मारा जा सकता क्योंकि इनके पास आय का कोई पक्का साधन नहीं है। 

   बड़े बड़े दावे करने वाली सरकार की हकीकत यह है कि उसके पास रोजगार के विश्वसनीय आंकड़े नहीं और गलत   सलत आंकड़ों पर वह दावे करती है और देश की जनता को अंधेरे में रखती है। आज मोदी सरकार अपनी उपलब्धियों के चाहे जितना ढोल पीट ले पर रोजगार के मोर्चे पर वह नाकामयाब ही साबित हो रहे हैं और इससे देश के युवा वर्ग में असंतोष बढ़ता जा रहा है।