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Wednesday, July 31, 2019

तलाक ए बिद्दत अब अपराध

तलाक ए बिद्दत अब अपराध

तलाक ए बिद्दत अब अपराध बन गया और इसके लिए 3 साल तक की कैद और जुर्माना हो सकता है। इसके अलावा तलाकशुदा महिला के भरण पोषण के लिए गुजारा भत्ता भी देना होगा। यह विधेयक मंगलवार को 84 के मुकाबले 99  मतों पारित हो गया। इसका सबसे ज्यादा लाभ गरीब मुस्लिम महिलाओं को हासिल होगा। इस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि यह एक ऐतिहासिक दिन है करोडो मुस्लिम माताओं - बहनों की जीत हुई है। उन्हें जीने का समान हक मिला है। तीन तलाक की कुप्रथा से पीड़ित मुस्लिम महिलाओं को आज न्याय मिला है।
        सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक के माध्यम से किसी भी महिला को तलाक देने को असंवैधानिक बताया था। अब यह कानून बन गया और इससे किसी भी माध्यम से तीन तलाक बोल या लिख कर तलाक देना गैरकानूनी हो गया। वरना ऐसे भी मामले देखे गए हैं जिनमें पति की ओर से व्हाट्सएप या एस एम एस, फोन या चिट्ठी भेजकर अपनी पत्नी को तलाक दे दिया गया है। इसकी सबसे बड़ी विडंबना यह थी कि अगर गुस्से में पति ने तीन तलाक बोल दिया तो कुछ नहीं किया जा सकता था। बाद में अगर उसे लगा कि, नहीं यह गलत हुआ है तो उस मामले को खत्म नहीं किया जा सकता। पत्नी को बोला गया जायज हो जाता था।  ऐसे मामले में महिला को अपने पूर्व पति के पास लौटने के लिए पहले किसी दूसरे पुरुष से शादी करनी होती थी फिर उससे तलाक लेकर पहले पुरुष से दोबारा निकाह करना होता था। अब तीन तलाक के जरिए पत्नी को तलाक देना एक आपराधिक मामला बन गया।
        लेकिन यहां एक समस्या है। सरकार ने शादी जैसे सिविल मामले को इस कानून के तहत आपराधिक मामला बना दिया और यह दहेज उत्पीड़न या घरेलू हिंसा जैसे झूठे मामलों में पति के परिवार को फंसाने की महिलाओं की कोशिशों की तरह कहीं या पारिवारिक आतंकवाद में न बदल जाए।
       इस विधेयक को लेकर राज्यसभा में मंगलवार को बड़ा दिलचस्प नाटक होता रहा। जहां कांग्रेस ने विधेयक को सदन में पेश होने से पहले राज्यसभा में अपने सांसदों पर व्हिप जारी कर दिया था वहीं बीजद ने इसका समर्थन किया। चर्चा के दौरान टीएमसी, कांग्रेस ,एआईएडीएमके, आरजेडी ,एनसीपी, बसपा ,डीएमके और पीडीपी ने इस विधेयक को सिलेक्ट कमिटी के पास भेजने की मांग की। जनता दल यूनाइटेड और एआईएडीएमके ने इसके विरोध में वाक आउट किया। 
      मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल के दौरान लोकसभा में यह विधेयक पेश किया था जो राज्यसभा में आकर अटक गया था। इसके बाद केंद्र सरकार इसके लिए अध्यादेश लेकर आई थी। राज्यसभा में मंगलवार को साढे 4 घंटे लंबी चर्चा के बाद कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद में कहा कि हजारों वर्ष पहले इस व्यवस्था को गलत बता दिया गया था लेकिन हम इस पर बहस कर रहे थे। विपक्षी इसे गलत बता रहे थे। क्योंकि वह इसे लागू रखना चाहते थे। कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद ने सरकार को कहा कि ऐसा कोई कानून ना बनाएं जो राजनीति से प्रेरित हो और इससे अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जाए। उन्होंने कहा कि सरकार चूहे मारने की दवा के प्रयोग की तरह इस कानून को पहले मुसलमानों पर प्रयोग कर रही है। मर जाए तब भी अच्छा ना मरे तब भी अच्छा । जो अपनी पत्नी के कारण जेल चला जाएगा तो उसके बीवी बच्चे कैसे रहेंगे। जेल से निकलने के बाद वह भीख मांगेगा या चोर बनेगा। यही सरकार चाहती है। क्योंकि सरकार ने संरक्षण के लिए कोई प्रावधान नहीं रखा है। वह सिर्फ जेल भेजना चाहती है। उन्होंने कहा कि लिंचिंग को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कानून बनाने का सुझाव दिया है। लेकिन अभी तक कोई कानून नहीं बना। उन्होंने कहा कि इस कानून का मकसद मुस्लिम परिवारों को निशाना  बनाना है। सरकार मुस्लिम महिलाओं के नाम पर अल्पसंख्यकों को निशाना  बना रही है।
        तृणमूल कांग्रेस सांसद डोला सेन ने कहा कि सरकार विधायक को जांच किए बगैर पास कर रही है। विधायकों को बुलडोज किया जा रहा है । लोकसभा में सरकार के पास बहुमत है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह संसदीय परंपरा और संविधान का अपमान करेगी। सरकार तीन तलाक को महिला सशक्तिकरण से जोड़ रही है । लोकसभा में फिलहाल 11% महिलाएं हैं । बीजद के सांसद प्रसन्न आचार्य ने कहा कि हमारी पार्टी और उड़ीसा की सरकार महिला सशक्तिकरण के लिए काम कर रही है। वह इसका समर्थन करती है । केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने कांग्रेस पर निशाना साधते हुए कहा कि आज देश कांग्रेस के व्यवहार को देखा है। लोकसभा से राज्यसभा में आते आते  बिल पर कांग्रेस के पैर क्यों लड़खड़ा रहे हैं। इस  रिवाज को मुस्लिम देश पहले ही खत्म कर चुके हैं । इसके पहले भी कई कुरीतियां इस देश में खत्म की गई तब तो कोई हंगामा नहीं हुआ? आज क्यों हंगामा बरपा है दूसरी तरफ कांग्रेस का कहना है कि यह बिल किसी एक महिला से नहीं उसके पूरे परिवार से जुड़ा है। सरकार जब महिला सशक्तिकरण के बारे में सोचती है तो उसे संपूर्ण रूप से बाकी महिलाओं के बारे में सोचना चाहिए। हर महिला को जीवन में कुछ न कुछ झेलना होता है । उन्होंने कहा कि न्याय और समानता में गरिमा पहली शर्त है । कानून के पहले महिलाओं को समाज में बराबरी का दर्जा मिलना चाहिए।
     यहां  इससे जुडी  कई परिस्थितियां नजर आ रही है एक तरफ कहा जा रहा है की वर्तमान में जब मुस्लिम समुदाय पहले से ही डरा हुआ है।  दूसरे दर्जे के नागरिक जैसा महसूस कर रहा है। देश में आए दिन मॉब लिंचिंग की घटनाएं हो रही हैं, तो ऐसे में अचानक सरकार को मुस्लिम औरतों का दर्द क्यों सताने लगा? यह दोहरा रवैया है इस कोशिश में ईमानदारी नहीं है। मुस्लिम महिलाओं से जुड़े दूसरे भी कई बड़े मुद्दे हैं। ऐसा नहीं लगता कि किसी तरह से राहत मिलेगी । कुछ लोगों का कहना है कि यह एक ऐतिहासिक कदम है और इससे मुस्लिम महिलाओं के साथ होने वाली नाइंसाफी रुकेगी। ऑल इंडिया मुस्लिम विमेन पर्सनल लॉ बोर्ड शाइस्ता अंबर का मानना है कि यह एक ऐतिहासिक कदम है। जो काम उलेमाओं तथा पर्सनल लॉ बोर्ड को करना चाहिए था उसे सरकार ने किया। तलाक ए बिद्दत अल्लाह को पसंद नहीं है उस को बढ़ावा दिया गया और सुप्रीम कोर्ट द्वारा मना किए जाने के बावजूद यह कायम रहा। अब कानून बनने के बाद तीन तलाक देने वाले बार बार सोचेंगे जिन लोगों ने तलाक की व्यवस्था का दुरुपयोग किया है। उनके लिए एक चेतावनी है।
         वैसे यह निर्णय जल्दी बाजी में लिया गया महसूस हो रहा है। हमारे देश का समाज बदल रहा है । सरकार का खुद मानना है कि तीन तलाक के 200 मामले सामने आए। इसका मतलब है कि सामाजिक सुधार की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। सरकार को इंतजार करना चाहिए था। समाज सुधार इतनी जल्दी नहीं सकता। दूसरी बात है कि सरकार ने खुद समाज सुधार के लिए क्या किया? क्या उसने कभी विज्ञापनों के माध्यम से इस पर रोक की अपील की? यह संपूर्ण मामला राजनीतिक दिखाई पड़ रहा है और विपक्ष की भूमिका गौण महसूस हो रही है।

Tuesday, July 30, 2019

सोना महंगा , तस्करों की चांदी

सोना महंगा , तस्करों की चांदी

सोना किसी भी देश की अर्थव्यवस्था और वहां के सामाजिक जीवन के बीच एक सेतु का काम करता है और यह आज से नहीं सदियों से कायम है । सोना महंगा होता है तो अर्थव्यवस्था मंद हो जाती है और सामाजिक जीवन में परेशानियां बढ़ने लगती हैं। अगर यह महंगाई अधिक खरीदारी के कारण है तो कई सामाजिक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संकट के भय होने लगते हैं, जैसे अर्थव्यवस्था में भयानक मंदी के संकेत या फिर युद्ध की आशंका। इन दिनों खबरें आ रही हैं कि भारत में सोने की तस्करी बहुत तेजी से बढ़ रही है। तस्करी इसलिए नहीं बढ़ रही है अचानक देश में खुशहाली आ गई है और सोने की मांग बढ़ गई है। बल्कि तस्करी इसलिए बढ़ रही है कि सोने पर टैक्स बढ़ गया है जिसके कारण देश के बाजारों में सोना महंगा हो गया है। जब जब सोना महंगा हुआ है विशेष टैक्स के कारण तब तब सोने की तस्करी बढ़ी है और किसी भी महानगर में सोने के बाजार तस्करों के लिए एक आम रास्ता बन गए हैं। डीआरआई की रिपोर्ट के अनुसार देश के विभिन्न बाजारों में 2 जुलाई से 25 जुलाई के बीच लगभग 25 टन सोना जब्त हुआ है। विशेषज्ञों का मानना है यह जब्ती  तस्करी से लाए गए कुल सोने का 5 प्रतिशत भी नहीं है। गौर करें 22 - 23 दिनों में 25 टन सोना पकड़ा जाता है तो कितना सोना तस्करी से हमारे देश में आया होगा और सोने की इतनी बड़ी मांग के पीछे रहस्य क्या है? डी आर आई यानी राजस्व गुप्तचर निदेशालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में सोने की तस्करी बहुत तेजी से बढ़ रही है। आंकड़े बताते हैं की 2017 - 18 में 974 करोड़ रुपए का सोना जब्त किया गया था जबकि चालू वर्ष के 2 से 25 जुलाई के बीच लगभग 25 टन सोना ज़ब्त किया गया। यह सोना तस्करी से आ रहा था। इसके अलावा कस्टम्स ने भी इतना ही सोना ज़ब्त किया। यानी 2 से 5 जुलाई के बीच देश में लगभग 10 हजार करोड़ रुपए का सोना केवल स्मगलिंग से आया। वर्ल्ड गोल्ड काउंसिल के अधिकारियों के अनुमान के मुताबिक 2017 में लगभग 200 टन सोना भारत में तस्करी से आया लेकिन जैसे ही सोने पर टैक्स बढ़ा सोने के तस्करों के लिए यह पीली धातु दिलचस्पी का विषय बंद गई। सरकार ने बजट में सोने पर 2.5 प्रतिशत टैक्स अतिरिक्त लगा दिया है। उम्मीद थी कि इसमें कटौती होगी लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं और सोने पर कुल टैक्स 12.30 प्रतिशत हो गया। इसके अलावा आभूषणों पर 3% जीएसटी भी लगता है। यही नहीं आभूषणों के व्यापारी इस पर 2% अलग से अतिरिक्त दाम लेते हैं । जिसके चलते अंतर्राष्ट्रीय बाजार और भारतीय बाजार में सोने की कीमतों में लगभग 15.5% का फर्क आता है । बेशकीमती धातु पर 15% से ज्यादा अंतर तस्करी के लिए सबसे ज्यादा रुचिकर है और इसके कारण तस्करी को बढ़ावा मिलता है। पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली ने देश में स्वर्ण नीति बनाने की घोषणा की थी लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और सोने के कारोबार पर इसका असर ही पड़ा।
           सामाजिक कारणों के  फलस्वरूप भारत सोने का बहुत बड़ा खरीददार रहा है।  सोने के आयात के मामले में दुनिया में इसका दूसरा स्थान है। पिछले वर्ष भारत में 760.4 टन सोने का आयात किया गया था। इसके पहले वाले साल यानी 2017 में 771.2 टन सोने का आयात हुआ था। जिसका  598 टन सोने का उपयोग केवल गहने बनाने में हुआ। टैक्स बढ़ जाने के कारण आयात में गिरावट आई लेकिन तस्करी बढ़ गई। यही कारण है इस देश में जहां- जहां सोने के बाजार हैं वह तस्करी के हब में बदलते जा रहे हैं। इन दिनों सोना सभी संभावित मार्गों से आ रहा है। इतिहास देखें तो पता चलेगा कि भारत में एक वक्त सोने की तस्करी बढ़ी थी और उससे अंडरवर्ल्ड नाम की एक नई आपराधिक प्रजाति की उत्पत्ति हुई। उस समय सोना खाड़ी के देशों से धावो से आता था। तत्कालीन वित्त मंत्री मोरारजी देसाई ने सोने की खपत को कम करने के लिए गोल्ड कंट्रोल एक्ट बनाया नतीजा ये हुआ सोने की तस्करी और बढ़ गई। उस समय लंदन के बाजार और भारत के बाजार में सोने की कीमतों में 40% का अंतर था। तस्करी को रोकना  संभव नहीं रहा। नतीजतन 1990 में तत्कालीन वित्त मंत्री मधु दंडावते  ने गोल्ड कंट्रोल एक्ट रद्द कर दिया।  इसके साथ ही सोने की तस्करी थम गई। आज वैसे हालात नहीं हैं, लेकिन सोने की कीमत में भारी अंतर आने से तस्करी बढ़ती जा रही है।  सोना केवल खाड़ी के देशों या दुबई से नहीं बल्कि थाईलैंड, बांग्लादेश ,नेपाल, श्री लंका और म्यांमार से भी आ रहा है। इससे एक नई अपराधिक प्रक्रिया शुरू हो गई है। आतंकी और आपराधिक संगठन अब हथियारों और ड्रग्स स्मगलिंग छोड़कर सोने की स्मगलिंग में लग गए हैं। 10 ग्राम सोने में 5 हजार रुपयों का अंतर किसी भी अपराधी के लिए काफी लाभदायक कहा जा सकता है।
          सोने की तस्करी सरकार नहीं रोक सकती है । इस देश की 7516 किलोमीटर सीमा समुद्र से मिलती है जिसे सील कर पाना असंभव है । सोने की भारी तस्करी के कारण बढ़ती कीमत से आभूषण उद्योग बेहाल है।  बाजार में मंदी आ गई है । ग्राहक बाजार में प्रवेश करने से डर रहे हैं। यही नहीं सोने की तस्करी से ईमानदार कारोबारियों के लिए कठिनाइयां आ रही हैं और आभूषणों की बिक्री घट गई है।  सोने पर इतना ज्यादा टैक्स किसी के हित में नहीं है। सरकार टैक्स की उगाही ठीक से नहीं कर पाएगी और तस्करी बढ़ेगी। तस्करी के कारण आपराधिक सिंडिकेट बढ़ते जाएंगे और बिक्री गिरती जाएगी। हजारों कारीगरों के सामने बेरोजगारी का खतरा आ जाएगा और आभूषण के निर्यात पर भी आघात लगेगा। सोने को  गला कर  किसी भी  शक्ल में ढाल देने में माहिर सोने के ये कारीगर अगर अपराधियों के साथ जुड़ गए तो क्या असर होगा इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है । यानी सामने एक और विपदा दिखाई पड़ रही है अगर यह चलता रहा तो भविष्य में एक और नई आपराधिक गतिविधि स्वरूप लेती नजर आएगी।

Monday, July 29, 2019

कर्नाटक में सांप और सीढ़ी की सियासत

कर्नाटक में सांप और सीढ़ी की सियासत

कर्नाटक का राजनीतिक इतिहास देखें तो ऐसा लगता है की वहां का गठबंधन अभिशप्त है और जिसके कारण वहां लगातार राजनीतिक उथल पुथल हो रही है। अब   कर्नाटक के नए मुख्यमंत्री बीएस येदुरप्पा सदन में बहुमत साबित कर  लिया हैं और बीच में कर्नाटक विधानसभा के अध्यक्ष ने कांग्रेस तथा जनता दल सेकुलर के 14 विधायकों को अयोग्य करार दे दिया विधानसभा अध्यक्ष रमेश कुमार का मानना है कि इन विधायकों ने दल बदल कानूनों का उल्लंघन किया है। कांग्रेस और जनता दल सेकुलर के नेताओं में बागी विधायकों को अयोग्य ठहराने के लिए विधानसभा अध्यक्ष से अनुरोध किया था। इसके पहले भी 25 जुलाई को 3 कांग्रेसी विधायकों को अयोग्य ठहरा दिया गया था और इस तरह कर्नाटक में अयोग्य ठहराए गए कुल विधायकों की संख्या अब तक 17 हो गई। इस बीच रमेश कुमार ने पद  से इस्तीफा भी दे दिया।  भारतीय गणतंत्र का मजा देखिए कि 17 विधायकों क्या योग्यता भी रिकॉर्ड नहीं बना सकी। पिछले साल तमिलनाडु में 18 विधायकों को अयोग्य ठहराया गया था। कर्नाटक में वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने अपने टि्वटर के माध्यम से विधानसभा अध्यक्ष के फैसले का स्वागत किया है और कहा है कि "उनके इस ईमानदारी भरे फैसले से भाजपा के जाल में फंसने वाले देश के सारे प्रतिनिधियों को कठोर संदेश जाएगा।" इसमें एक नया दिलचस्प मोड़ भी दिखाई पड़ रहा है कि जिन विधायकों को अयोग्य ठहराया गया है वह सुप्रीम कोर्ट में फरियाद करने जा रहे हैं। लेकिन अभीतक  विधानसभा में आंकड़ों का समीकरण गड़बड़ होता नहीं नजर आ रहा है। क्योंकि 17 विधायकों के अयोग्य ठहराए जाने के बाद विधानसभा में कुल विधायकों की संख्या 208 हो गई यानी अब भाजपा को बहुमत साबित करने के लिए 104 वोट हासिल करने पड़ेंगे। फिलहाल भाजपा के पास 105 विधायक हैं और एक निर्दलीय भी है। दूसरी तरफ कांग्रेस के पास 65 और जेडीएस के पास 34 विधायक यानी इस गठबंधन के पास कुल 99 विधायक हो गए। अगर बसपा विधायक एन  महेश भाजपा के खिलाफ भी वोट देते हैं तब भी कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। भाजपा ध्वनिमत से जीत गयी है। लेकिन यदि सुप्रीम कोर्ट ने अयोग्य करार दिए गए विधायकों की अयोग्यता रद्द कर दी तो गड़बड़ हो सकती है हालांकि  उम्मीद है  फिर सुप्रीम कोर्ट की ओर से  इस मामले में  फैसला  देर से आएगा  और उसके पहले  चुनावों की घोषणा  हो सकती है। क्योंकि अपने अंतरिम आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संवैधानिक मामलों में स्पीकर की शक्तियों के आधार पर ही चर्चा हो सकती है और क्या कोई अदालत स्पीकर को इस संबंध में निर्देश दे सकती है। सारे मामले एक दूसरे से जुड़े हुए दिखाई पड़ते हैं इसलिए बहुत जल्द फैसला आने की उम्मीद नहीं है । इस मामले में  एक और  दिलचस्प सवाल है  कि  क्या अदालत  यह भी  फैसला करेगी  कि  इस्तीफा दे देने वाले  विधायकों पर   पार्टी का व्हिप   लागू होता है या नहीं । कांग्रेस  जेडीएस के बागी विधायकों की दलील है  की  इस्तीफा देने के काफी समय के बाद व्हिप जारी किया गया। यदि अयोग्यता कायम रही तो इन 17 सीटों पर उप चुनाव होंगे और अपना बहुमत साबित कर उसे बनाए रखने के लिए भाजपा को 8 से 10 सीटें जीतनी होंगी। क्योंकि भाजपा को अपना वजूद बनाए रखने के लिए नई स्थिति में 113 विधायकों के समर्थन की जरूरत पड़ेगी। संभावना है की महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के साथ ही कर्नाटक की भी इन सीटों पर उपचुनाव हो।
        वर्तमान स्थिति में येदुरप्पा ने अपना   बहुमत साबित कर लिया है।  कर्नाटक में जो कुछ हो रहा है वह भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं है। खास कर आने वाले दिनों में यदि इस तरह की घटनाएं होने लगीं तो लोकतंत्र एक मजाक बनकर रह जाएगा। जनता के प्रतिनिधि बनकर जाने वाले यह विधायक जनता की मेहनत की कमाई पर क्या कर रहे हैं यह आने वाले चुनाव में एक नजीर बन सकती है। कर्नाटक में जो कुछ भी हो रहा है लगता है यह सांप और सीढ़ी का सियासी खेल है। कोई सीढ़ियों से चढ़ता हुआ शीर्ष पर पहुंचता है तो वहां इस्तीफे या अन्य छोटे बड़े सांप उसे निगल कर फिर नीचे पहुंचा देते हैं। कर्नाटक में गठबंधन का कोई ऐसा फार्मूला नहीं दिखाई पड़ रहा है जो सरकार को पूरी अवधि तक चला सके। यहां तक कि देवगौड़ा और रामकृष्ण हेगड़े भी गठबंधन की राजनीति को पूरी तरह नहीं संचालित कर पाए थे। कर्नाटक में गठबंधन की राजनीति की यह उथल-पुथल 1983 में तब शुरू हुई जब हेगड़े ने बाहर से समर्थन हासिल कर सरकार बनाई। 2 वर्ष के बाद हेगड़े को इस्तीफा देना पड़ा, क्योंकि उनकी सरकार लोकसभा चुनाव में अच्छा नहीं कर पाई थी। दो दशक में कर्नाटक में कोई भी गठबंधन की सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी है। लेकिन सारे सियासी नाटकों में सबसे ज्यादा हानि बेचारे कॉमन मैन को ही है। उसे बड़े कठिन दौर से गुजरना पड़ रहा है। यहां सबसे महत्वपूर्ण है एक स्थाई सरकार। क्योंकि आम जनता को शासन चाहिए तथा राज्य के विकास के लिए राज्य एवं केंद्र में एक संयोजन चाहिए। लोकतंत्र में स्थायित्व  जरूरी है और इसी के माध्यम से शासन तथा कार्य क्षमता को बढ़ावा मिलेगा।

Sunday, July 28, 2019

केसर की क्यारियों को बारूद से बांटने की साजिश

केसर की क्यारियों को बारूद से बांटने की साजिश

पिछले पखवाड़े से कश्मीर लगातार खबरों में बना हुआ है । पहले अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की मध्यस्थता का मिथ्या प्रचार हुआ और उसके बाद चीन ने भी मध्यस्थता के सुझाव की चिंगारी सुलगा दी। इन घटनाओं की पृष्ठभूमि में मुख्य सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल श्रीनगर गए और जब लौट कर आए उन्होंने वहां 10000 केंद्रीय बलों के जवानों की तैनाती का सुझाव दिया। सरकार का मानना है कि वहां आतंकवाद और विद्रोह के मुकाबले के लिए तथा कानून और व्यवस्था कायम रखने के लिए केंद्रीय बलों के जवान भेजे जा रहे हैं।  जब केंद्रीय  बलों के जवान कश्मीर भेजे जाने लगे तो  घाटी में प्रचार तेज हो गया कि वहां धारा 370 और  35ए को हटाने की तैयारी चल रही है। इसे एक तरह से है कि हथियार से अलगाववाद को बढ़ावा देने की साजिश कहा जा सकता है। इसे लेकर घाटी का माहौल गर्म हो गया। धारा 35 ए घाटी में या कहें कश्मीर राज्य में स्थाई निवासी की परिभाषा तय करता है । चूंकि  कश्मीर की वर्तमान आबादी का अधिकांश भाग 1980 के अलगाववाद के बाद पैदा लिया है और ये लोग यथास्थिति को ही अच्छा समझने लगे हैं। ऐसे माहौल में अफवाहें फैलाई जा रही है कि अगर इस धारा को हटा दिया गया तो मुस्लिम बहुल कश्मीर में जातीय अनुपात बिगड़ जाएगा। खबरें आ रही हैं कि वहां गड़बड़ी के डर से लोग घबराकर जरूरी सामान खरीद कर जमा कर रहे हैं । जबकि जम्मू कश्मीर के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों का कहना है कि केंद्रीय  बलों की तैनाती  सामान्य बात है।
       भाजपा के करीबी समझे जाने वाले कश्मीरी नेता सज्जाद लोन में खुल्लम खुल्ला चेतावनी दी है कि  अगर इस तरह के दुस्साहसिक  एक कदम उठाए जाते हैं तो भविष्य में हिंसा को बढ़ावा मिलेगा तथा जो लोग खुद को भारतीय समझते हैं उन्हें अपमानित होना पड़ेगा। हालांकि कोई नहीं जानता धारा 35 ए का क्या भविष्य होगा लेकिन अफवाह है कि तेजी से फैल रही है।  केंद्र की ओर से कोई प्रतिक्रिया भी नहीं जाहिर की जा रही है इसलिए संशय और बढ़ता जा रहा है। कश्मीरी नेताओं का कहना है यदि सचमुच इस तरह का कोई इरादा है  तो यह दुस्साहस होगा और इस तरह का दुस्साहस उन लोगों की साख को समाप्त कर देगा जो भारत की अवधारणा पर भरोसा करते हैं। यद्यपि जब से कश्मीर में विधानसभा चुनाव को रोका गया और राष्ट्रपति शासन की अवधि बढ़ाई गई तब से वहां धारा 370 और 35 ए को लेकर संशय बढ़ता जा रहा है ।  अमरनाथ के तीर्थ यात्रियों की सुरक्षा के लिए पहले से ही  अर्ध सैनिक बलों के हजारों जवान तैनात हैं और इसके बाद दस हजार और केंद्रीय बलों की तैनाती। यही नहीं 14 फरवरी के आतंकवादी हमले के बाद वहां 10 कंपनियां यानि 10,000 जवान पहले से ही तैनात हैं।
        पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने अपने टि्वटर हैंडल में लिखा है कि " केंद्र सरकार द्वारा घाटी में दस हजार अतिरिक्त जवानों को तैनात किए जाने से लोगों में आतंक फैल गया है। जम्मू और कश्मीर एक राजनीतिक समस्या है उसे सेना के बल पर नहीं सुलझाया जा सकता है। सरकार को इस पर सोचना चाहिए और अपनी नीति में संशोधन करना चाहिए।" नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष उमर अब्दुल्ला ने कहा है कि " केंद्र सरकार को सुप्रीम कोर्ट पर भरोसा कायम करना चाहिए और राज्य की जनता को धारा 370 और 35 ए के मामले में व्यर्थ ही डराना नहीं चाहिए ।घाटी के लोग प्रशासन द्वारा फैलाए गए अफवाहों से चिंतित हैं।" शाह फैसल ने चेतावनी दी है कि " धारा 370 और 35 ए में कोई भी परिवर्तन कश्मीर में अलगाववाद के नए दौर को जन्म देगा। " पूर्व विधायक राशिद ने कहा है कि केंद्र सरकार को दुस्साहस से बाज आना चाहिए।
        उधर अभिनेता अनुपम खेर ने कहा है कि "यदि कश्मीर से धारा 370 को हटा दिया जाए तो सारी समस्या ही हल हो जाएगी।" जबकि कई विधि विशेषज्ञों का मानना है कि धारा 370 हटाने से कश्मीर में भारत के जुड़ने की शर्तों में संकट पैदा हो जाएगा। क्योंकि कश्मीर में भारत का जुड़ना और अन्य राज्यों का भारत संघ में विलय दोनों अलग अलग तथ्य हैं और परिस्थितियां हैं।  संविधान विशेषज्ञ राजीव धवन के अनुसार धारा 370 को खत्म नहीं किया जा सकता लेकिन उन्होंने बलपूर्वक कहा कि कश्मीर का भारत में जुड़ना अस्थाई है। पूर्व विधि मंत्री शांति भूषण का कहना है कि धारा 368 के अनुसार संसद को संविधान में संशोधन का अधिकार है परंतु सरकार संविधान के बुनियादी ढांचे में परिवर्तन नहीं कर सकती।  शांति भूषण  के अनुसार इस ओर कदम बढ़ाने से पहले सुप्रीम कोर्ट से यह राय लेनी जरूरी है कि धारा 370 देश के संविधान के बुनियादी ढांचे का हिस्सा है या नहीं । साथ ही पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता मोहम्मद फैसल ने कहा है कि  भारत द्वारा कश्मीर में लागू धारा 370 का हटाया जाना पाकिस्तान कतई बर्दाश्त नहीं करेगा।
       इन सब गीदड़भभक़ियों के बावजूद भारत सरकार को इस धारा के भविष्य पर विचार करना जरूरी है। क्योंकि इसकी आड़ में वहां अलगाववाद को हवा दी जा रही है। एक ही झटके में कश्मीरी पंडितों को निकाल दिया गया। बाहर के लोगों को वहां बसने नहीं दिया जाता है और एक खास संप्रदाय की बहुलता का लाभ हमारे पड़ोसी देश उठा रहे हैं, और भारत को अशांत बनाए हुए हैं। धारा 370 और 35ए का बचाव करने वाले लोग राष्ट्र के संबंध में ना सोच कर एक खास स्वार्थ को लेकर आगे बढ़ रहे हैं। भारत राष्ट्र को खुली चुनौती देने का मतलब है कि केसर की क्यारी यों को फिर से बांटने की साजिश चल रही है।  पहली बार जो बंटवारा खून की लकीर खींच कर हुआ था वह बंटवारा भविष्य में बारूद बिछाकर करने का षड्यंत्र रचा जा रहा है। सरकार को इस षड्यंत्र पर सोचना जरूरी है। इस षड्यंत्र के आलोक में अगर देखें तो कश्मीर में जवानों की नई तैनाती प्रासंगिक लगती है।
     

Friday, July 26, 2019

लोकतंत्र का मखौल

लोकतंत्र का मखौल

कभी मशहूर शायर इकबाल ने लिखा था
जम्हूरियत वह तर्ज ए हुकूमत है कि जिस में
  बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते
पता नहीं इकबाल ने हालात के किन दबाव के कारण यह लिखा था लेकिन इन दिनों जो कुछ कर्नाटक में हुआ या उसके पहले गोवा में हुआ या जैसी  चर्चा है महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में होने वाला है उनसे तो लगता है कि इकबाल की बात बिल्कुल सही है। इसे रोकने के लिए कुछ साल पहले दल बदल कानून बना। लेकिन उस कानून की कर्नाटक में कैसे धज्जियां उड़ी यह भी एक विचारणीय प्रश्न है। जिस तरह कर्नाटक की सरकार को गिराया गया उससे तो लगता है दल बदल कानून कुछ नहीं कर सकता। कर्नाटक का मसला भारतीय लोकतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के लिए एक मखौल है । दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए लज्जा का विषय है। लज्जा का विषय इसलिए नहीं कि सरकार में कुछ ऐसा नहीं था जिस पर गर्व किया जा सके बल्कि इसलिए कि जनता दल (सेकुलर) और कांग्रेस की सरकार भी एक धोखा थी। लेकिन, जिस तरह से इसे गिराया गया उससे यह साबित होता है कि धन और दिल्ली में सत्ता पर बैठे लोगों की शह थी।  चाणक्य का मानना था कि जहां भी धन एवं सत्ता का अनुचित गठबंधन होगा वहां जनता केवल दर्शक बनी रह जाएगी। उसके किए कुछ नहीं हो सकता है। यह नैतिकता के तकाजों का सरासर उल्लंघन था और संविधान में शामिल किए गए दल बदल कानून का मजाक था। ऐसी स्थिति में बिचारे "कॉमन मैन" कि जो पहली प्रतिक्रिया होती है वह है की ऐसे कानून बनाए जाएं जो दलबदल रोक सकें। मजबूरी यह है कि मौजूदा कानून बहुत ही कठोर है। मौजूदा कानून राजनीतिक दल को अपने सदस्यों को आदेश देने की सुविधा देता है कि वह किसी भी तरह के प्रस्ताव पर खास तरह से मतदान करें। इसमें सिर्फ विश्वास मत ही शामिल नहीं है। किसी भी प्रकार का मत और इसके लिए नेतृत्व व्हिप जारी कर सकता है। व्हिप का उल्लंघन करने वालों को अयोग्य करार दिया जाता है । इसमें सिर्फ एक अपवाद है वह है सही तरीके से अलग होना। शुरू- शुरू में सदस्यता बचाने के लिए किसी भी सदन में किसी भी पार्टी  के  विधायकों -सांसदों की आधी संख्या  का अलग होना जरूरी था। बाद में इसे बढ़ाकर दो तिहाई कर दिया गया।  इस कानून में कई चोर दरवाजे हैं । गोवा में कांग्रेस विधायकों ने भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने के लिए इसी प्रावधान का इस्तेमाल किया और तेलंगाना में भाजपा के सदस्यों ने तेलंगाना राष्ट्र समिति में शामिल होने के लिए भी है इसी प्रकार के प्रावधान का उपयोग किया। अब तो एक ही रास्ता बचा है कि दल बदलने की सीमा को शत प्रतिशत कर दिया जाए या फिर यह कर दिया जाए कि विधायक या सांसद अगर अपनी पार्टी छोड़ता है चाहे छोड़ने वालों की  संख्या कितनी भी हो उसकी या उनकी सदस्यता समाप्त हो जाएगी।
        कर्नाटक में 2008 के  विधानसभा चुनाव के बाद ऑपरेशन कमल के पहले दौर के बाद भाजपा ने एक नया चोर दरवाजा खोल दिया । वह था कि विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे कर दल बदले और फिर दूसरे  दल  या बदले गए दल के झंडे तले  चुनाव लड़ कर  सदन में आ जाएं। इस बार भी भाजपा ने एक ही रास्ता चुना। किसी भी राजनीतिक विभाजन का कोई अभियान नहीं था और इसे इस्तीफे के जरिए अंजाम दिया गया। बेशक इसमें पैसों का बहुत बड़ा खेल था।  इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि अगर उपचुनाव होते हैं तो वह स्वतंत्र और निष्पक्ष होंगे। अब अगर इस तरह की घटनाओं को रोकना है तो इस्तीफा देना ही गैर कानूनी घोषित कर दिया जाए । जो लोग पार्टी से इस्तीफा देंगे उन्हें कुछ वर्षों के लिए चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए। अब तो केवल इसी तरह की सुधार की जरूरत है , परंतु इसका भी कोई चोर दरवाजा निकल आएगा। दलबदल रोकने के लिए कोई भी अचूक उपाय नहीं है। जितना कड़ा कानून होगा दल बदल की कीमत उतनी ही बढ़ जाएगी। बेशक इससे दल बदल की प्रक्रिया थोड़ी धीमी होगी लेकिन रुकेगी नहीं। आज पार्टी के भीतर विभाजन दो तरह के होते हैं एक तो विधायक बागी हो जाएं दूसरे कि इस्तीफा दे दें । अब अगर कानून बनता है तो अजीब हास्यास्पद स्थिति हो जाएगी। पूरे के पूरे विधायक इस्तीफा दे देंगे। जो कोई भी नहीं चाहता। सुधार का दूसरा विकल्प है कि दल बदलने वाले विधायकों के लिए कुछ वर्षों की अवधि के लिए राजनीति के दरवाजे ही बंद कर दिए जाए। इससे एक नई बुराई पैदा लेगी और हमें एक बुराई को मिटाने के लिए दूसरी बुराई से दो-चार होना पड़ेगा तब इसका क्या समाधान हो? इसका एकमात्र समाधान है कि जनता के बीच जाया जाए। राजनीतिज्ञों को बदनामी का डर ज्यादा होता है और उन्हें ऐसा करने के लिए बदनाम कर दिया जाए। पूरी राजनीतिक नेता अपना भविष्य दांव पर नहीं लगाएगा ऐसा होने पर यदि व जनता के बीच जाता है और दोबारा चुनाव लड़ता है तो उसका जीतना मुश्किल हो  जाएगा। इसके अलावा कोई उपाय नहीं है। राजनीति में अचूक उपाय की तलाश एक मृगतृष्णा है।
  फिर इस मजाक को जम्हूरियत का नाम दिया
     हमें डराने लगे वो हमारी ताकत से
          

Thursday, July 25, 2019

कश्मीर पर ट्रंप का झूठ 

कश्मीर पर ट्रंप का झूठ 

इन दिनों अंतरराष्ट्रीय मीडिया में खासकर जो दक्षिण एशिया के मामलों में ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं उनमें एक कथा चल रही है वह है राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप से कश्मीर में मध्यस्था के बारे में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ऑफर । इस कथा में एक थ्रिलर फिल्म की तरह नए-नए क्लाइमेक्स आ रहे हैं और लोग सांस रोककर इंतजार कर रहे हैं कि अब डोनाल्ड ट्रंप की तरफ से इसमें क्या नया जोड़ा जाएगा। यह झूठ तो चारों तरफ फैल गया है कि  नरेंद्र मोदी ने उनसे कश्मीर पर मध्यस्था करने के लिए कहा था। 
वैसे दोनों देशों के बीच कोई भी समझौता व्यर्थ है 1972 में शिमला समझौता हुआ था जिसमें यह कहा गया था कि दोनों देश एक दूसरे से मतभेद मिटाने का प्रयास करेंगे और द्विपक्षीय बातचीत करेंगे 1999 में लाहौर समझौता हुआ था समझौते पर अटल बिहारी बाजपेई और नवाज शरीफ पर हस्ताक्षर किए थे जिसमें कहा गया था थी शांति और सुरक्षा का वातावरण दोनों देशों के बीच सबसे महत्वपूर्ण है और जो मसला है जिसमें जम्मू कश्मीर भी शामिल है उसे सुलझाना  इस उद्देश्य के लिए दोनों देशों के लिए जरूरी है बाद में दोनों राष्ट्रों में यह भी कहा की वह वार्ता के जरिए इस विवाद को सुलझा एंगे किन क्या हुआ
           भारत सदा से बीच-बचाव से दूर रहना चाहता है भारत के किसी भी नेता को यह पसंद नहीं है की कश्मीर का मसला हमेशा के लिए समाप्त हो जाए अटल बिहारी वाजपेई और मनमोहन सिंह ने कोशिश की थी कि इस मसले को सुलझाया जाए लेकिन वह कोशिश बहुत कामयाब नहीं हो सकी सबसे बड़ी समस्या है  भारत के पास जो है स्थान उसे चाहता है भारत लेकिन भारत को देने के लिए उसके पास कुछ नहीं है अब किसी भी तरह की मध्यस्था भारत को ही घाटे में रखेगी और इससे शांति  छिन्न भिन्न हो जाएगी अब मामला फिर उभरा है
अब क्या डॉनल्ड ट्रंप इस बात पर नए एंगल से क्रोध जताएंगे  या कुछ और कहेंगे ? भारत के विदेश मंत्रालय ने इस बात को संसद में दोहरा कर एक तरह से ट्रंप को झूठा कायम कर ही दिया है। मीडिया में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का यह बयान आ गया है कि उन्होंने कहा है कि यदि भारत और पाकिस्तान आग्रह करें तो कश्मीर मसले पर मध्यस्था के लिए तैयार हैं। लेकिन भारत के  प्रधानमंत्री ने उनसे ऐसा कुछ भी नहीं कहा है। भारत ने अपनी राय स्पष्ट कर दी है। अब यह दो बातें सामने आती हैं। पहली कि ,अगला कोई भी विवाद अगर वह उभरता है तो यह मसला पृष्ठभूमि में चला जाएगा और दूसरा इजरायल ,सऊदी अरब के अलावा किसी भी देश के पास ट्रंप से निपटने का कोई भी तरीका नहीं है । हालांकि  ट्रंप को  इस तरह के  लूज टाक करने की आदत है ।  वाशिंगटन पोस्ट ने  लिखा है कि राष्ट्रपति बनने के बाद नरेंद्र मोदी  10 हजार  से ज्यादा  बार झूठ बोल चुके हैं  उन्होंने  सार्वजनिक मंचों पर  विदेश नीति के मामले में भी नौ सौ बार झूठ बोला है  इधर यह पूरी तरह सच है कि नरेंद्र मोदी ने ट्रंप से मध्यस्थता जैसी कोई बात नहीं की है और कभी नहीं की है। नरेंद्र मोदी में एक सबसे बड़ी खूबी है कि वे कायदे कानून से चलने वाले आदमी हैं और अपने अफसरों द्वारा तैयार किए गए ब्रीफ से तिल भर भी इधर-उधर नहीं होते हैं।   डोनाल्ड ट्रंप जानबूझकर लोगों को भ्रमित कर रहे हैं। लेकिन ऐसा क्यों ? यह बात महत्वपूर्ण नहीं है की ट्रंप ने क्या कहा? विचारणीय प्रश्न है ट्रंप ने ऐसा क्यों कहा और यह मामला आगे क्या स्वरूप बदलेगा?
          यह बात संदेह से परे है कि हमारी अर्थव्यवस्था मंदी में चल रही है और भारतीय नेताओं की आदत है कि वे समस्याओं पर पर्दा डालकर बड़ी-बड़ी बातें करते हैं । उधर घरेलू नीतियों में नाकामयाबी के कारण विदेशों में तैनात हमारे राजनयिकों के पास बहुत सीमित विकल्प रहते हैं और वह विकल्प भी व्यवहारिक नहीं रह जाते। यहां दो बातें स्पष्ट दिख रही हैं। पहली ,वे यानी हमारे राजनयिक समय रहते संकेतों को पहचान नहीं सकते या फिर शीर्ष स्तर पर उन्हें कोई सुनता नहीं है। 2012 से 16 के बीच जब ओबामा का कार्यकाल था उस समय सब ने महसूस किया अमरीका भारत से ऊब रहा है। ऊबने का कारण क्या है? पेटेंट का मामला हो या कोई अन्य। ट्रंप ने उस प्रक्रिया  के प्रभाव  को तेज कर दिया है। जरा गौर करें कि कई बहाने बनाकर गणतंत्र दिवस समारोह में आने का भारत का न्योता ठुकरा दिया और ठुकराने की प्रक्रिया में एक महीना लग गया। उसी दौरान वे सऊदी अरब गए और उस देश से अपने नफरत को भुला कर उन्होंने 110 अरब डालर के हथियार खरीदकर समझौता किया। यही  नहीं अगले 10 वर्षों में सऊदी अरब ने अमरीकी सरकार से 350 अरब डालर की खरीदारी की प्रतिबद्धता स्पष्ट की। इसके बाद उन्होंने कतर पर निशाना साधा और कहा कि वह बहुत उच्च स्तर पर टेरर फंडिंग कर रहा है। कतर की सरकार ने संकट के अंदेशे को भाप लिया और उसने उसे टालने के लिए कुछ ही महीनों के भीतर अरबों डॉलर के सौदे की प्रतिबद्धता जताई । भारत को इससे समझ लेना चाहिए था और सतर्क हो जाना चाहिए था। लेकिन भारत ने ऐसा नहीं किया उल्टे उसने ट्रंप को लीडरशिप सम्मलेन में वक्ता के रूप में आमंत्रित कर लिया। भारतीय सोचते हैं कि  वह इन तरीकों से राष्ट्रपति को खुश कर लेगा लेकिन यह गलत है।  फिर भी कोई सीख लेने के लिए सरकार तैयार नहीं है। भारत और अमरीका के रक्षा और विदेश  मंत्रियों की बैठक टल गई और कहा गया कि इस अवधि में पहले से काम तय किए जा चुके हैं । इसके बाद भारत ने अमरीका के साथ दो समझौते किए लेकिन इन समझौतों से अमरीका को कोई ठोस फायदा नहीं हुआ और नतीजा ये हुआ कि सीमा शुल्क को लेकर भारत के खिलाफ ट्रंप ने जो ट्वीट किया और वह किसी से छिपा नहीं है। डोनाल्ड ट्रंप ने ट्वीट किया कि "भारत लंबे समय से अमरीकी उत्पादों पर मनमाना शुल्क लगाता रहा है। अब यह बरदाश्त नहीं हैं।" इसके बाद कश्मीर पर रूस का बयान आया इसमें कहा गया कि अफगानिस्तान का समाधान कश्मीर में निहित है। भारत ने इस पर कोई विरोध नहीं किया उल्टे 9 अरब डालर का सौदा कर लिया। इस घटना के परिप्रेक्ष्य में पाकिस्तान की स्थिति से तुलना करें। पाकिस्तान अफगानिस्तान के मामले में ट्रंप को बहुत कम रियायत देता है लेकिन अमरीका को एहसास है कि उसके पास अफगानिस्तान के लिए पाकिस्तान के अलावा कोई विकल्प नहीं है इसलिए वह उसे तरजीह देता है। इन सारे मामलों को एक साथ देखें तो कुछ हासिल नहीं होगा। ऐसे हालात के लिए भारत खुद जिम्मेवार है । उसे अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के इन संकेतों को पढ़ना चाहिए था। लेकिन भारत ने ऐसा नहीं किया । अब अगर अमरीका भारत से इसकी कीमत वसूलना चाहेगा तो इसमें हैरत नहीं है। अब सवाल उठता है कि इस कीमत का आकार कितना बड़ा होगा, कितना व्यापक होगा और उसका स्वरूप क्या होगा? यह निर्भर करता है कि ट्रंप किस पर भरोसा करते हैं ,भारतीय अर्थव्यवस्था की हकीकत पर या मोदी जी के भाषणों पर। आने वाले दिन भारत के लिए खासकर भारत अमरीका संबंधों के लिए कठिन पर होने वाले हैं। हमें सतर्क रहना होगा।

Wednesday, July 24, 2019

कर्नाटक का नाटक खत्म

कर्नाटक का नाटक खत्म

कर्नाटक में सियासी  स्टंट और रोमांच से भरा  नाटक  खत्म हो गया और 14 महीने पुरानी एचडी कुमार स्वामी की सरकार का पतन हो गया और इसी के साथ भारत में एक बार और लोकतंत्र भी पराजित हो गया। लंबे चले नाटक के बाद विधानसभा में विश्वास मत के दौरान कांग्रेस और जनता दल सेकुलर  सरकार को 99 वोट मिले तथा भाजपा को 105 मत मिले।   इस तरह से  सरकार गिर गई । राहुल गांधी ने ट्वीट किया : "अपने पहले दिन से ही कांग्रेस जेडीएस गठबंधन  भीतर और बाहर निहित स्वार्थ वाले लोगों के निशाने पर आ गई थी। जिन्होंने इस गठबंधन को सत्ता के अपने रास्ते के लिए रुकावट माना था उनके लालच की आज जीत हो गई ,लोकतंत्र इमानदारी और कर्नाटक की जनता हार गई । " इस पर भाजपा ने प्रतिक्रिया जाहिर की और उसने अपने आधिकारिक टि्वटर में लिखा   : "यह आपके अपवित्र गठबंधन और सत्ता के लालच पर कर्नाटक की जीत है।" कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने बीजेपी पर संस्थाओं और लोकतंत्र को योजनाबद्ध ढंग से कमजोर करने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि "एक न एक दिन यह झूठ बेनकाब होगा।" इस नाटक का सूत्रपात तब  हुआ जब कई हफ्ते पहले सत्ता पक्ष के 16 विधायकों ने इस्तीफा दे दिया था । सरकार के पतन के साथ ही भाजपा के लिए सरकार बनाने का रास्ता साफ हो गया।
   वैसे भी कर्नाटक का इतिहास राजनीतिक रूप से उथल-पुथल भरा रहा है। केवल तीन मुख्यमंत्री ही 5 साल का अपना कार्यकाल पूरा कर सके हैं। इनमें पहले निजलिंगप्पा 1962 से 68 तक ,दूसरे बी देवराज अर्स 1972 से 77 तक और तीसरे सिद्धारमैया 2013 से 2018 तक।
     कांग्रेस तथा जनता दल सेकुलर का आरोप है कि पूरे के पूरे नाटक की पटकथा भाजपा ने लिखी थी लेकिन यह भी सच है की गलती केवल भाजपा की नहीं थी। कांग्रेस गठबंधन  भी अपना घर नहीं संभाल सकी। कर्नाटक में जो कुछ भी हुआ वह भारतीय राजनीतिक आचरण के सामने कई  गंभीर सवाल खड़े करता है। पहला सवाल है कि ऐसा क्यों हुआ? 2018 में जब चुनाव हुए थे तो जनता दल सेकुलर और कांग्रेस ने अलग-अलग चुनाव लड़े थे लेकिन, जब सरकार बनाने की बात आई तो दोनों मिल गए और कांग्रेसी ने जे डी (एस) के नेता कुमार स्वामी को मुख्यमंत्री पद पर आसीन करा दिया। सरकार खड़ी हो गई लेकिन बुनियाद कमजोर थी। सरकार के भीतर लगातार तनाव कायम रहा। कांग्रेस के कुछ नेता अनवरत मुख्यमंत्री के खिलाफ बोलते रहे।  कांग्रेस की ओर से इसे रोकने की कोशिश नहीं की गई। लोकसभा चुनाव के दौरान दोनों तरफ से आरोप उछाले जाने लगे। यहां तक कि मुख्यमंत्री कुमार स्वामी के पुत्र को लोकसभा चुनाव में पराजित करने की कांग्रेस की कोशिशों के बारे में भी काफी शोर हुआ। इससे  अंदाजा लगता है के बहुत पहले से कुछ न कुछ पक रहा था और सब कुछ ठीक-ठाक नहीं था।
          दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी के भीतर भी झगड़े चल रहे थे।  कांग्रेस- जनता दल (सेकुलर) सरकार को गिराने में माना जाता है कि कांग्रेस के नेता रामलिंगा रेड्डी की मुख्य भूमिका थी। रेड्डी लगातार आठ बार विधानसभा चुनाव जीत चुके थे और उन्हें मंत्री नहीं बनाए जाने की वजह से वे काफी नाराज थे। उनके साथ 8 विधायकों के इस्तीफे से पार्टी डगमगाने लगी। डैमेज कंट्रोल की गरज से उन्हें उपमुख्यमंत्री पद का ऑफर दिया गया था लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। यही नहीं कहा तो यह भी जाता है संकट मोचक की भूमिका निभाने वाले डीके शिवकुमार की महत्वाकांक्षा भी कहीं न कहीं इस पर आघात कर रही थी। यही नहीं पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को बरदाश्त नहीं था कि ज्यादा सीटों के बावजूद मुख्यमंत्री पद जनता दल सेकुलर को मिले और वह लगातार मुख्यमंत्री कुमार स्वामी की आलोचना करते रहते थे। यही नहीं इस पूरे मामले को लेकर कांग्रेस हाईकमान भी उतनी गंभीर या चिंतित नहीं दिखाई पड़ रही थी जितना उसे होना चाहिए था। जब यह संकट आरंभ हुआ तो दिल्ली दरबार से एक दो बयान ही आए। कांग्रेसी विधायक रमेश सहित कई विधायकों का भाजपा से मिलना जुलना आम बात हो गई थी और यह भी अफवाहें फैल रही थी कि यह लोग पार्टी छोड़ सकते हैं। कांग्रेस विधायक जिन्होंने इस्तीफे दिए उनमें प्रमुख राशन बेग लगातार पार्टी का मजाक उड़ाते थे और मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशंसा करते थे। लेकिन इन्हें रोकने के लिए राज्य आलाकमान या केंद्रीय हाईकमान की ओर से किसी प्रकार का प्रयास नहीं देखा गया। कांग्रेस ने कभी सोचा ही नहीं की कर्नाटक केवल एक राज्य नहीं है। भाजपा के लिए यह दक्षिण भारत में प्रवेश द्वार भी है। गोवा का उदाहरण सबके सामने था और इतनी राजनीतिक समझ तो जरूरी थी कि अगर कर्नाटक में भाजपा की सरकार बनती है तो दक्षिण भारत में उसके प्रसार की सुविधा हो जाएगी ।  उत्तर भारत को खो चुकी कांग्रेस दक्षिण को बचाने के लिए भी तत्पर नहीं दिखी।
       बहुतों को याद होगा कि 2018 में भी कर्नाटक में एक सियासी  नाटक का मंचन हुआ था। विधानसभा चुनाव में किसी को बहुमत नहीं मिला था 225 सदस्यों वाली विधानसभा  में भाजपा के 104 विधायक थे और नियम के मुताबिक सबसे बड़ी पार्टी होने के कारण इसे सरकार बनाने का आमंत्रण मिला। मामला सुप्रीम कोर्ट में गया। आधी को सुनवाई हुई और कोर्ट ने येदुरप्पा को कहा कि वह बहुमत साबित किए बिना सरकार नहीं बना सकते।  फिर बहुमत साबित करने का समय आया उससे पहले ही येदुरप्पा ने इस्तीफा दे दिया और कांग्रेस जनता दल (सेकुलर) ने मिलकर सरकार बनाई । बुनियाद में ही गड़बड़ थी। सबसे बड़ी पार्टी होने का दर्द भाजपा के भीतर ही भीतर सालता रहा और उसी दर्द ने  सरकार को गिराने के लिए भाजपा को उकसाना शुरू किया।
          मंगलवार को विश्वास मत के पहले पूरे बेंगलुरु शहर में धारा 144 लागू कर दी गई। मुख्यमंत्री कुमार स्वामी ने विश्वास मत से पहले राज्य की जनता को संबोधित करते हुए कहा कि" पिछले दिनों विधानसभा में जो कुछ हुआ है उसके लिए उन्हें अफसोस है। कर्नाटक में सरकार गिराने और नई सरकार बनाने एक क्रम में जितना कुछ हुआ वह लंबे समय तक राजनीति के इतिहास में लिखा जाता रहेगा।" पूरी स्थिति को देखकर यह कहा जा सकता है कि बेशक सरकार ने विश्वास खोया है  लेकिन इसी के साथ लोकतांत्रिक तरीकों ने भी विश्वास खो दिया।  इसमें अवसरवाद स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है। जिसका उद्देश्य सत्ता में बने रहना है । भाजपा खुद को एक आदर्शवादी पार्टी कहती है उसे भी राजनीतिक स्वार्थ में सरकार बनाने के पहले विचार करना चाहिए था। कर्नाटक में नए चुनाव होने चाहिए और राजनीतिक प्रतिनिधियों को दोबारा जनादेश हासिल करना चाहिए।

Tuesday, July 23, 2019

खाद्य असुरक्षा के बरअक्स विकास

खाद्य असुरक्षा के बरअक्स विकास

हालांकि देशभर में पिछले 7 वर्षों में आमदनी बढ़ी है। बेशक, आमदनी का विकास अलग-अलग राज्यों में अलग अलग है लेकिन लगभग सभी जगह यह दिखाई पड़ रहा है कि बच्चे अपने मां बाप के पेशे को नहीं अपना रहे हैं। गांव में पढ़े-लिखे बच्चों के लिए खेती को कोई पेशा नहीं माना जा रहा है। जबकि कृषि उपज बढ़ रही है। जनवरी 2019 के एक अध्ययन में पाया गया है कि 2005 के मुकाबले 2012 में किसानों के कम बच्चों ने खेती को अपना पेशा बनाया। यह कमी 21.1% तक पाई गई। आजादी के बाद पहली बार पाया गया है कि कृषि क्षेत्र से मजदूरों की एक बड़ी तादाद गैर कृषि क्षेत्रों में आई है।  कृषि क्षेत्र में रोजगार बुरी तरह लड़खड़ा गया है। कृषि क्षेत्र में रोजगार की कमी का मुख्य कारण है कि अधिकांश नौजवान पढ़ लिख कर अच्छी नौकरियों की उम्मीद से शहर आ जाते हैं। शोध के मुताबिक कितने नौजवानों को नौकरियां मिलती हैं इसके साथ ही यह जरूरी है कि उन्हें कैसी नौकरियां मिलती हैं। शोध में पाया गया है कि आर्थिक गतिशीलता के लिए सबसे जरूरी है रोजगार और उसके साथ ही रोजगार की गुणवत्ता। इस शोध में 2004 - 5 में प्रकाशित भारतीय मानव विकास सर्वेक्षण के हवाले से कहा गया है 2005 से 2012 के बीच आर्थिक गतिशीलता में विकास हुआ है। लेकिन इसी के साथ यह भी पाया गया है कि गरीब बच्चे अपना खानदानी पेशा खास करके खेती बारी को नहीं अपना रहे हैं। इसका अनुपात 62.7% से घटकर 58.6% हो गया है।  इसी के साथ ही ग्राम एवं कृषि आधारित अन्य पेशों  में भी गिरावट आई है और वह 53.5% से घटकर 32.4% हो गई है । 2005 से 2012 के बीच का अध्ययन करने पर पहली बार यह पता चला कि आजादी के बाद भारत में बहुत बड़ी संख्या में श्रमिक कृषि क्षेत्र से गैर कृषि क्षेत्र में चले गए हैं। क्योंकि कृषि क्षेत्र में रोजगार इस संभावनाएं बुरी तरह कम हुई है। बहुत बड़ी संख्या में लोग गांव से खेती बारी और अन्य कृषि आधारित रोजगारों को छोड़कर गैर कृषि आधारित क्षेत्रों में कामकाज के लिए चले गए हैं। खास करके ये लोग अधिक आमदनी के लिए ऐसा कर रहे हैं और जो गांव से जा रहे हैं। उनमें अधिकांश युवक निर्माण के क्षेत्र में मजदूरी कर रहे हैं। हालांकि अंतरपीढ़ीय आर्थिक गतिशीलता बढ़ी है लेकिन यह नहीं पाया गया है कि इस गतिशीलता से समग्र रूप से कितना लाभ हुआ है। 76% किसान चाहते हैं कि खेती के अलावा कोई और काम करें जबकि 61% लोग यह चाहते हैं कि उन्हें शहरों में कामकाज मिले। ऐसे लोग बेहतर शिक्षा ,स्वास्थ्य और अन्य सुविधाओं के ज्यादा आकांक्षी हैं।
            भारत की अर्थव्यवस्था में तेज विकास आया है और इसमें कई तरह के रोजगार पनप रहे हैं । जैसे मोबाइल ऐप वाली कार चलाने का काम,  भोजन पहुंचाने का धंधा इत्यादि।  इन कामकाज में गांव से आए नए-नए युवक लग जाते हैं। इनमें अधिकांश पढ़े लिखे  होते हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के मुताबिक 2004- 5 से 2011 -12 के बीच किसानों की संख्या में भारी गिरावट आई है। सर्वेक्षण के अनुसार अवधि में 19 करोड़ किसानों ने खेती छोड़ दी जबकि 69  मिलियन भूमिहीन मजदूरों की संख्या में 19% गिरावट आई है। धोबी ,बढ़ई और राजमिस्त्री जैसे अर्ध कुशल पेशों से जुड़े लोगों के बच्चों के पेशेवरों जैसे वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, शिक्षक या न्यायाधीशों के रूप में काम मिलने में काफी कठिनाई हो रही है और ऐसे युवाओं की संख्या में भारी कमी आई है। इसका मतलब स्पष्ट है कि ऊपर की ओर विकसित होने के अवसर बहुत कम हैं। जबकि नीचे की ओर यानी छोटे धंधों में काम पाने के अवसर ज्यादा हैं।
       आमदनी में विकास जरूर हुआ है खास करके भारत में लेकिन उसकी  कोई खास दिशा नहीं है। खेती से लोगों के खासकर के युवाओं के दूर होने की यह समस्या केवल भारत में ही नहीं लगभग पूरी दुनिया में बढ़ती जा रही है और इसके चलते आर्थिक गतिशीलता तो बढ़ रही है लेकिन खाद्य सुरक्षा बुरी तरह कम हो रही है। हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट में पाया गया है कि दुनिया में अभी 82 करोड़ ज्यादा लोग भूखे हैं और पिछले 3 वर्षों में हालात और ज्यादा बिगड़े हैं। 1 साल में भूख से पीड़ित लोगों की संख्या लगभग एक करोड़ बढ़ी  है । संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े परेशान करने वाले हैं और भारत में तो यह दोहरी चिंता का विषय है । क्योंकि दुनिया भर में  भूख से पीड़ित  82 करोड़ लोगों में से  करीब 51 करोड़  लोग  एशिया में और इसमें सबसे बड़ा हिस्सा भारत का है । एक तरफ युवा खेती से मुंह मोड़ रहे हैं दूसरी तरफ भारत में 20 करोड़ लोगों को पर्याप्त खाना नहीं मिलता है। जिसका असर बच्चों पर पड़ रहा है और उनके वजन सामान्य से कम पाए जा रहे हैं या लंबाई  उम्र के हिसाब से कम हो रही है। देश की इतनी बड़ी आबादी कुपोषित है यह हमारे देश की विकास गाथा के लिए भी खतरा है। ऐसे में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अगले 5 वर्षों में भारत को 5 खरब डॉलर की  अर्थव्यवस्था की बात करते हैं तो भूख और कुपोषण की यह जंजीरें बड़ी तेजी से खनकती हैं। यह भूख और कुपोषण अर्थव्यवस्था के लिए गति अवरोधक है। क्योंकि यह उत्पादन पर असर डालता है। अगर बच्चे तथा युवा स्वस्थ नहीं होंगे तो आर्थिक विकास कैसे होगा।  अस्वस्थ तथा कुपोषित काम करने वालों की फौज उत्पादकता को कितना बढ़ा सकती है। डाउन टू अर्थ पत्रिका की एक रिपोर्ट में कहा गया है की भारत की जीडीपी में कुपोषित वर्कफोर्स के कारण तीन लाख करोड़ की हानि होती है। जोकि जीडीपी के 2.5% के बराबर है। यही नहीं जलवायु परिवर्तन से पैदा विपरीत हालात का भी बहुत ज्यादा असर भारत पर होने वाला है। केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने तो पहले ही कहा है कि सूखे की वजह से भारत के खाद्य उत्पादन पर बहुत बुरा असर पड़ेगा।  इस बुरे असर के बरक्स विकास को लेकर सावधान होना जरूरी है।

Monday, July 22, 2019

भारत की चांद पर दूसरी छलांग

भारत की चांद पर दूसरी छलांग

भारत के अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने  सोमवार को  एक और  कीर्तिमान स्थापित किया । वैज्ञानिकों ने  चंद्रयान 2 को सफलतापूर्वक प्रक्षेपित कर दिया। 3,850 किलोग्राम  वजनी  यह अंतरिक्ष यान  आर्बिटर , लैंडर और रोवर के साथ गया है। पूर्ण स्वदेशी तकनीक से निर्मित चंद्रयान 2 में 13 पेलोड हैं। जिनमें आठ आर्बिटर में ,तीन पेलोड लैंडर विक्रम में और दो पेलोड रोवर प्रज्ञान में हैं। यह जानना दिलचस्प होगा कि  लैंडर विक्रम का नाम  भारतीय अनुसंधान कार्यक्रम के  जनक  डॉ विक्रम साराभाई के नाम पर रखा गया है  और  27 किलोग्राम  वजनी प्रज्ञान  का  अर्थ है बुद्धिमता। पहले चंद्र मिशन की सफलता के 11 साल बाद यह दूसरा कदम उठाया गया है। संयोग की बात है कि पूरी दुनिया जब चांद पर मानव के कदम रखने अर्थ शताब्दी मना रही है उसी समय भारत ने चांद की ओर एक और छलांग लगाई। अत्यंत शक्तिशाली भारतीय रॉकेट जीएसएलवी मार्क 3 एम 1 के जरिए चंद्रयान को श्रीहरिकोटा से प्रक्षेपित किया गया। यह प्रक्षेपण सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र के दूसरे लंच पैड से किया गया। इसमें 978 करोड़ रुपए लगे हैं। यह कार्य 1 सप्ताह पहले ही होने वाला था लेकिन कुछ तकनीकी गड़बड़ी के कारण इसे रोक दिया गया था। अब से कोई 3 दिन पहले वैज्ञानिकों ने इसे प्रक्षेपित करने की घोषणा की और रविवार को शाम 6:43 पर प्रक्षेपण की 20 घंटे की उल्टी गिनती शुरू हो गई। क्रायोजेनिक लिक्विड ऑक्सीजन के ईंधन से संचालित यह यान 3,84,000 किलोमीटर की यात्रा कर अगले महीने के पहले हफ्ते में पृथ्वी के एकमात्र प्राकृतिक उपग्रह चांद के दक्षिणी ध्रुव पर  उतरेगा । इस का मिशन है चांद  पर पानी और मनुष्यों के रहने की संभावनाओं की तलाश के साथ साथ शुरुआती सौर मंडल के फॉसिल रिकॉर्ड को भी तलाशना।  वैज्ञानिकों के अनुसार चंद्रयान 2 चांद के दक्षिणी ध्रुव पर उतरेगा। इस स्थान पर अभी तक दुनिया का कोई देश नहीं पहुंचा है। यह इसरो का सबसे जटिल और अब तक का सबसे प्रतिष्ठित मिशन है। अब यहां प्रश्न उठता है  कि हमारे वैज्ञानिकों ने दक्षिणी ध्रुव का ही चुनाव क्यों किया ? ऐसा इसलिए किया गया  कि  इसके बारे में  लोगों के पास बहुत थोड़ी जानकारी है।  दक्षिणी ध्रुव पर सूरज की रोशनी बहुत कम पहुंचती है  और  चूंकि यह क्षेत्र चंद्रमा की धुरी से थोड़ा झुका हुआ है इसके चलते  इसके कुछ इलाके हमेशा  छाया में रहते हैं।    यहां  बड़े-बड़े गड्ढे हैं जिन्हें  कोल्ड ट्रैप्स कहा जाता है।  इस क्षेत्र का तापमान  शून्य से 200 डिग्री नीचे  जा सकता है।  जिसके कारण  ना सिर्फ पानी बल्कि  कई अन्य तत्व भी जमी हुई अवस्था में रहते हैं।  इतने निम्न तापमान पर गैसें भी जम जाती हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि इन कोल्ड ट्रैप्स में जो तत्व मौजूद हैं सौर मंडल के शुरुआती दौर के हैं,  लगभग  तीन अरब साल पहले के । सौर मंडल के  शुरुआती दौर की  कुछ और भी महत्वपूर्ण जानकारियां हासिल हो सकती हैं।  इन जानकारियों के फलस्वरूप  ज्वाइंट इंपैक्ट हाइपोथेसिस  पर भी रोशनी पड़ सकती है।  इस हाइपोथेसिस के मुताबिक  लगभग  4.4 अरब साल पहले  पृथ्वी के आकार का ही एक  विशाल पिंड "थिया" पृथ्वी से टकराया था  और इस टकराव के बाद  चांद  वजूद में आया था। माना जाता है इस टकराव के बाद पिंड और धरती के चंद टुकड़े आपस में मिल गए और चांद बन गया। इसी हाइपोथेसिस की जांच के लिए या कहें आगे की जानकारी जुटाने के लिए प्रज्ञान अपने साथ कई तरह के यंत्र लेकर जा रहा है। प्रज्ञान में आधुनिक रडार भी लगे हैं जिनमें सिंथेटिक अपर्चर है। इस मिशन के पूरा होते ही भारत अमरीका ,रूस और चीन के बाद चांद की सतह पर सॉफ्ट लैंडिंग करने वाला चौथा देश हो जाएगा।
        यह प्रक्षेपण केवल वैज्ञानिक ही नहीं है बल्कि भारत के अंतरिक्ष में बढ़ती महत्वाकांक्षा का प्रतीक भी है।  चांद पर इसका उतरना भारतीय वैज्ञानिक महत्वाकांक्षा को चांद पर ले जाने के बराबर है। इस प्रक्षेपण का मकसद है चांद पर धीरे धीरे आराम से उतरना यानी सॉफ्ट लैंडिंग और फिर प्रज्ञान को संचालित कर देना। यह संचालन रोबोट के माध्यम से होगा। इसका उद्देश्य चांद की सतह का नक्शा बनाना होगा, खनिजों की मौजूदगी का पता लगाना होगा और चांद के बाहरी वातावरण को स्कैन करना होगा। इस कार्य को सफलतापूर्वक करने के बाद चांद को लेकर हमारे वैज्ञानिकों की समझ और बेहतर हो जाएगी और इससे मानवता को लाभ पहुंचाने वाले नए-नए अनुसंधान किए जा सकेंगे। पूरी   दुनिया की निगाहें भारत के मिशन पर लगी हुई हैं। यहां यह बता देना लाजिमी होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त  2018 को लाल किले की प्राचीर से कहा था 2022 या उससे पहले यानी आजादी के 75 साल में भारत के नागरिक हाथ में झंडा लेकर चांद पर जाएंगे और भारत मानव को अंतरिक्ष तक ले जाने वाला देश बन जाएगा। अब देखना है कि भारतीयों के कदम कब चांद पर पड़ते हैं।

Sunday, July 21, 2019

तेज विकास का अर्थ अच्छे रोजगार नहीं

तेज विकास का अर्थ अच्छे रोजगार नहीं

तेज आर्थिक विकास का का अर्थ अच्छी नौकरियां या अच्छे रोजगार नहीं है और साथ ही जो राज्य ज्यादा लैंगिक समानता पर जोर देते हैं उनकी स्थिति नए रोजगार के मामले में ज्यादा अच्छी है। आंध्र प्रदेश- तेलंगाना, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ भारत में ऐसे राज्य हैं जहां लैंगिक समानता पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है और लगभग इन्हीं राज्यों में रोजगार के अवसर और उनकी गुणवत्ता ज्यादा अच्छी है अन्य राज्यों के मुकाबले। जबकि इस सूची में बिहार ,उत्तर प्रदेश तथा उड़ीसा का स्थान सबसे नीचे है। अच्छे रोजगार या उत्पादन नहीं बल्कि नौकरियां जिनमें अच्छा वेतन मिलता है वह स्थाई विकास के लिए जरूरी है। पिछले महीने जारी एक शोध पत्र में कहा गया है कि आर्थिक विकास के बावजूद नौकरियों के अवसर धीमे हैं। भारत एक ऐसा देश है जहां बेरोजगारी लगातार बढ़ रही है। देश के 71% मजदूर अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत हैं।  देशभर में स्थाई  नौकरियों का अभाव है। लेबर फोर्स सर्वे 2019 के अनुसार 2017 -18 में ग्रामीण क्षेत्रों में 5.3% और शहरी क्षेत्रों में 7.8% बेरोजगारी रही है। गुजरात में स्थाई रूप से 10% विकास दर रही लेकिन यहां भी अच्छी नौकरियों का अभाव रहा है और शोध पत्र में तैयार की गई सूची में गुजरात का स्थान 18 था। जबकि , शीर्ष तीन स्थानों पर आंध्र प्रदेश महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ का नाम है। सूची में आंध्र प्रदेश और तेलंगाना संयुक्त रूप से 57.3 अंक दिए गए हैं  महाराष्ट्र को 57.2 और छत्तीसगढ़ को 56.3 अंक दिए गए हैं जबकि उत्तर प्रदेश को 32 .04 बिहार को 37.28 एवं उड़ीसा को 37.70 अंक दिए गए हैं और इसका स्थान सर्व निम्न है। इस सूची को तैयार करते समय 2010 से 2018 के बीच की अवधि के आंकड़ों का औसत दिया गया है। यह आंकड़े विभिन्न सरकारी सूत्रों से हासिल किए गए हैं जैसे, नेशनल सैंपल सर्वे, श्रमिक ब्यूरो, उद्योगों का राष्ट्रीय सर्वेक्षण एवं भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़े इत्यादि । सूची में पूर्वोत्तर के 7 राज्यों को शामिल नहीं किया गया है क्योंकि इनके आंकड़े पूरी तरह उपलब्ध नहीं हैं।
           विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार  भारतीय कार्यबल में महिलाओं की उपस्थिति लगभग 24% है तथा इसका स्थान 131 देशों इस सूची में 124 है विश्व बैंक की 2018 से रिपोर्ट में बताया गया है यह जिन राज्यों में या देशों में लैंगिक समानता पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है उन क्षेत्रों की रोजगार में स्थिति बेहतर है लैंगिक समानता के मामले में गुजरात का स्थान सर्वोच्च है वहां यह अनुपात 72.9 है जबकि बिहार में यह सर्वनिम्न है ।रोजगार में लैंगिक भेदभाव खत्म करने के लिए राज्यों को सार्वजनिक स्थानों का निर्माण करना होगा, आवास और कार्यस्थल को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाना होगा ताकि महिलाएं गांव से आकर शहरों में काम कर सकें। इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के महासचिव दिलीप चिनॉय के अनुसार जब तक कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा नहीं रहेगी महिला शहरों में आकर काम नहीं कर सकती हैं। जिन राज्यों में काम पर रखे जाने वालों के साथ लिखित अनुबंध तैयार किया जाता है वैसे राज्य में गोवा का स्थान सर्वोच्च है। गोवा में काम पर रखे जाने वाले लोगों में से लगभग 87.59 प्रतिशत लोगों के साथ लिखित अनुबंध किया जाता है जबकि उत्तर प्रदेश में यह सबसे कम है। यहां सिर्फ 16.9 दो प्रतिशत लोगों के साथ ही  अनुबंध होता है। जिन राज्यों में काम पर रखे जाने वाले लोगों को नौकरी के बाद ज्यादा सुरक्षा  और लाभ प्राप्त होता है जैसे प्रोविडेंट फंड और पेंशन इत्यादि ऐसे राज्यों में जम्मू कश्मीर सबसे ऊपर के स्थान पर है। यहां काम पर रखे गए 55.4 7 लोगों को यह सुविधा प्राप्त है । जबकि गुजरात सबसे निचले स्थान पर है यहां काम करने वाले 12.57 प्रतिशत यह सुविधा हासिल है । जो आंकड़े सर्वे से प्राप्त किये गए हैं वह एक तरह से राज्य सरकारों को जिम्मेदार भी ठहराते हैं कि वह इसे सुधारने का प्रयास करें और देश के नौजवानों को ज्यादा कामकाज दे।  नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत के अनुसार शिक्षा में विकास के साथ-साथ अगर कौशल में भी विकास हो खास करके भविष्य के अनुरूप विकास हो तो देश में रोजगार बढ़ सकता है। और देश के नौजवान नौकरी मांगने वालों से नौकरी देने वालों में बदल सकते हैं।

Friday, July 19, 2019

दल बदालुओं के लिए फिर चुनाव लड़ना जरूरी हो 

दल बदालुओं के लिए फिर चुनाव लड़ना जरूरी हो 

हाल में कई राज्यों में जो हुआ। यहां तक कि   गोवा और तेलंगाना में भाजपा और टीआरएस के साथ के साथ कांग्रेस से विधायक टूट गए।  इसके अलावा तेलुगू देशम पार्टी के सांसदों का राज्यसभा में भाजपा के साथ मिलना एक तरह से दलबदल कानून को कसौटी पर ला दिया है। कानून के तहत इन सब मामलों में दल बदलने वाले विधायकों और सांसदों को एक खास संख्या के साथ बाहर आना होगा वरना उनकी सदस्यता रद्द हो  जाएगी। गोवा में कांग्रेस का एक विधायक भाजपा को पराजित कर आया था और  अभी साल भर भी नहीं गुजरा कि यह सब हो गया।  दलबदल विधेयक की रोशनी में इन सभी मामलों को देखने की जरूरत है। वस्तुतः  यह सब राजनीतिक और संविधानिक नैतिकता का खुल्लम खुल्ला उल्लंघन है। भारत में राजनीतिक पार्टियों के चतुर्दिक ही संसदीय राजनीति घूमती है और निर्वाचन के बाद विभिन्न पार्टियों के विजयी उम्मीदवार ही इसके सदस्य तथा आम जनता के प्रतिनिधि बनते हैं । उन्हें अपनी पार्टी के विपरीत आवाज उठाने या खुद की स्थिति का निर्णय करने का अधिकार नहीं होता। एक उम्मीदवार की प्राथमिक पहचान राजनीतिक होती है वह पहचान पार्टी की  विचारधारा और उसके इतिहास के आधार पर सामने रहती है। मतदाताओं के लिए उम्मीदवार पार्टी की आवाज होता है। पार्टी का चुनाव चिन्ह ,चुनाव घोषणा पत्र झंडा इत्यादि उस उम्मीदवार या उस विधायक के दावे के पीछे कायम रहता है।  उसे इसी आधार पर जनता निर्वाचित करती है। ऐसा कई बार होता है कि कोई नेता किसी पार्टी का चेहरा बन जाता है और उसी के नाम पर वोट मांगे जाते हैं ,जैसा कि 2019 के चुनाव में देखने को मिला। अब अगर कोई विधायक दल बदल करता है तो सबसे पहले वह जनादेश के साथ दगाबाजी करता है। यह एक तरह से चुनाव के माध्यम से तैयार विश्वास को भंग किया जाना है। बेशक किसी भी विधायक को अपनी इच्छा अनुसार पार्टी में जाने की आजादी है लेकिन जैसे ही वह इस आजादी का इस्तेमाल करता है तो इसका अर्थ होता है कि उसे दूसरी पार्टी आदर्श उसकी विचारधारा और अन्य बातें ज्यादा आकर्षित कर रही हैं। लेकिन इस तरह का बदलाव बताता है की वह विशिष्ट उम्मीदवार जनादेश को अपमानित कर रहा है। राजनीतिक नैतिकता का यह तकाजा है कि वह उम्मीदवार अपनी सीट छोड़कर दोबारा चुनाव लड़े। उदाहरण के लिए जब विश्वनाथ प्रताप सिंह ने राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को छोड़ा तो वे दोबारा चुनाव लड़े। रामकृष्ण हेगड़े ने 1984 में कर्नाटक के मुख्यमंत्री का पद त्याग किया। उस साल लोकसभा चुनाव में तत्कालीन जनता पार्टी को भारी विजय मिली थी और हेगड़े पर दोबारा चुनाव लड़ने का दबाव भी नहीं था परंतु उन्होंने नैतिकता के दवाब में चुनाव लड़ने का फैसला किया। विश्वनाथ प्रताप सिंह इलाहाबाद से विजई हुए और हेगडे दोबारा जीतकर मुख्यमंत्री बने। 2012 में सीपीआईएम के विधायक आर सेलवराज जब पार्टी छोड़कर कांग्रेस में गए तो उन्होंने दोबारा चुनाव लड़ा।
         गोवा और तेलंगाना में जो दलबदल हुए हैं उसका दोष कांग्रेस पर है कि वह पार्टी अपने विधायकों को रोक नहीं पाई । यहां रोक पाने का निहित अर्थ धन और पद से है। विधायकों ने भी विकास तथा सुशासन के अदृश्य परदे के पीछे खड़े होकर दलबदल करने का अपना औचित्य बताया। कारण चाहे जो हो, किसी विधायक को दल बदलने का कारण अपने  मतदाताओं को बताना जरूरी है और यह बताना चुनाव लड़ने के माध्यम से ही हो सकता है । अगर कोई सदस्य ऐसा नहीं करता है तो इसका मतलब है वह अपने निर्वाचकों  का सामना नहीं किया है। सियासी अर्थशास्त्र में परिवर्तन ने राजनीतिक दलों और राजनीतिक प्रक्रिया में भी बदलाव ला दिया है। चुनाव में भारी धन की जरूरत ने चुनाव को एक महंगा काम बना दिया।  अब चुनाव आस्था तथा विचारधारा के आधार पर नहीं होते हैं । उम्मीदवार भी राजनीतिक दलों का पल्ला  इसलिए पकड़ते हैं कि कानून उनसे दूर रहे और वे अपना हित साधते रहें। कभी कभी जनता इसे चुनौती भी दे देती है । इसके उदाहरण धुर वामपंथी दलों का उदय, वीपी सिंह के जनमोर्चा का ताकतवर होना तथा अन्ना हजारे का सरकार विरोधी आंदोलन का प्रसार इत्यादि हैं। यह एक तरह से संसदीय राजनीति में भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनता के क्रोध का इजहार भी था। यही नहीं, यही फिनोमिना भूमि ,आजीविका, पर्यावरण इत्यादि से संबद्ध नए आंदोलनों में लोगों का शामिल होना भी है। इन  सबमें एक तरह से कांग्रेस का हाथ है। क्योंकि आरंभ में संसदीय राजनीति में उसने ही अवक्षयण  पैदा किया। संपूर्ण प्रक्रिया को रोकने के लिए एकमात्र यही उपाय है कि दल बदलने वाले विधायकों - सांसदों को चुनाव लड़ने के लिए बाध्य किया जाए।

Thursday, July 18, 2019

भारत की शानदार विजय

भारत की शानदार विजय

कुलभूषण जाधव मामले में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय  में वियना समझौते की धारा 36 के तहत भारत की शानदार विजय हुई है। न्यायालय ने पाकिस्तान को इस धारा का उल्लंघन करने का दोषी पाया है। न्यायालय ने आदेश दिया है कि पाकिस्तान जाधव को फांसी दिए जाने के अपने फैसले पर पुनर्विचार करे । जाधव को पाकिस्तान में जासूसी और आतंकवाद के अपराधों के आरोपों के तहत गिरफ्तार कर लिया गया था। न्यायालय ने कहा कि जब तक पूरी न्याय प्रक्रिया समाप्त नहीं हो जाती तब तक जाधव की फांसी पर रोक अनिवार्य है। मई  2017 में न्यायालय ने आदेश दिया था कि "पाकिस्तान की सैनिक अदालत ने जाधव की फांसी के बारे में जो आदेश दिए थे   उस पर अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के अंतिम फैसले तक सरकार  रोक लगाए।"
        प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विदेश मंत्रालय ने अंतरराष्ट्रीय अदालत के इस फैसले का स्वागत किया है और कहा है कि पाकिस्तान अब न्याय के अनुरूप कदम बढ़ाएगा। दूसरी तरफ पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने ट्वीट किया है कि "यह पाकिस्तान की विजय है , कमांडर जाधव पाकिस्तान में रहेंगे और उनके साथ पाकिस्तानी कानून के तहत बर्ताव किया जाएगा।" 
पता नहीं पाकिस्तान क्यों इतना खुश है । अंतरराष्ट्रीय अदालत के इतिहास में किसी भी देश के बारे में इतना स्पष्ट फैसला नहीं दिया गया है । प्रत्येक दो-तीन पैराग्राफ के बाद पाकिस्तान को गलत ठहराया गया है और सम्मानजनक शब्दों का तो कहीं प्रयोग ही नहीं है । अब पाकिस्तान इस पर भी खुश है तब क्या कहा जा सकता है। इससे भी अलग यह फैसला दुनिया के अन्य देशों के लिए भी मानवाधिकार के हित में है।
         प्रसंग वश इस मामले में एक दिलचस्प अध्याय यह भी उस समय जुड़ जाता है जब भारत के वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने यह मुकदमा लड़ने के लिए फकत एक रुपए फीस ली है जबकि दूसरी तरफ पाकिस्तान ने जाधव को जासूस साबित करने के लिए वकीलों पर 20 करोड़ से ज्यादा रुपए खर्च किए हैं। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में  उपस्थित चीनी न्यायधीश ने बहुमत का पक्ष लिया है। इससे इस्लामाबाद को राजनीतिक और कूटनीतिक तौर पर भारी आघात पहुंचा है।
       भारत में खुशी इसलिए है की कुलभूषण जाधव अकेले नहीं हैं।हमिद अंसारी पिछले साल कई दिनों तक बिना किसी आरोप के पाकिस्तानी जेलों में सड़ रहे थे और बाद में भारत पर एहसान जता कर उसे रिहा किया गया। उससे पहले सरबजीत सिंह और चमेल सिंह का केस सब जानते हैं कि उन्हें कैसे मार दिया गया। पाकिस्तान धार्मिक लोगों को भी नहीं छोड़ता है। हजरत निजामुद्दीन दरगाह के प्रमुख मौलवी पाकिस्तान गए थे और उन्हें आई एस आई अपहृत करके न जाने कहां ले गई और काफी मारपीट करके तीन-चार दिनों के बाद उसे छोड़ा। जहां तक  कुलभूषण जाधव का मामला है उसे पाकिस्तान की आईएसआई ने किसी चरमपंथी गिरोह को पैसे देकर ईरान से अपहरण करवाया था। इसलिए भारत में खुशी है। यह सारा मामला भारतीय नागरिकों से जुड़ा है। पाकिस्तान ने प्रोपेगेंडा को हथियार बना दिया है। लेकिन उसके पास कोई भी ऐसा सबूत नहीं है जो कुलभूषण के खिलाफ जाता है। यह तो हर कोई शिकायत ही करता था अब तो सबूत मिल गए हैं कि पाकिस्तान सही रास्ता नहीं अपना रहा है।
           अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के अध्यक्ष अब्दुल क्वाई अहमद युसूफ ने बुधवार को फैसला सुनाया। यद्यपि न्यायालय ने भारत के पक्ष में फैसला सुनाया लेकिन इसने भारत के उस अनुरोध को स्वीकार नहीं किया जिसमें  पूरा केस खारिज कर देने के लिए कहा गया था। अदालत का मानना था कि पाकिस्तान ने कूटनीतिक संबंधों के मामले में वियना समझौते का उल्लंघन किया है अथवा नहीं यह विचारणीय था और पाया गया की धारा 36 के तहत इसने समझौते का उल्लंघन किया है । अब यहां प्रश्न उठता है क्या पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के फैसले को मानने के लिए बाध्य है ? तकनीकी तौर पर पाकिस्तान इसे मानने के लिए बाध्य है।  यदि वह इसे नहीं मानता है तो इस मामले को लेकर राष्ट्र संघ के संबंधित निकाय में उठाया जा सकता है। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के फैसले को लागू करवाने के लिए सुरक्षा परिषद की मदद भी होती है । अमरीका ने एक बार अंतरराष्ट्रीय अदालत के फैसले को मानने से इनकार कर दिया था । क्योंकि उसे मालूम था कि राष्ट्र संघ में बात रखने पर वह वीटो कर सकता है। लेकिन पाकिस्तान के साथ यह सुविधा नहीं है। इसलिए वह अदालत का हुक्म मानने के लिए बाध्य है
         इस आदेश के बाद भारत जाधव को कूटनीतिक सुविधाएं पहुंचा सकता है और यादव को बताया जा सकता है उसके अधिकार क्या हैं।  वह फांसी की सजा से कैसे बच सकता है। पाकिस्तान इस दिशा में लगाए गए सभी अवरोधों को हटा लेने के लिए बाध्य हो चुका है।  अब यदि पाकिस्तान कूटनीतिक पहुंच को मुहैया कराने में टालमटोल करता है या अनावश्यक विलंब करता है तो भारत इसके बारे में अंतरराष्ट्रीय अदालत को सूचित कर सकता है।  यही नहीं राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद को भी सूचना भेजी जा सकती है । पूरे मामले की समीक्षा में कुछ समय लग सकता है। क्योंकि सैनिक अदालत के फैसले की समीक्षा प्रक्रिया में पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के पास सीमित अधिकार हैं । अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने भी इसे माना है। लेकिन उसने यह भी सुझाव दिया है कि एक विधेयक लाकर इस विलंब को खत्म किया जा सकता है। अब इस पूरे मामले में सबसे महत्वपूर्ण  है  फांसी पर रोक । इस संबंध में न्यायालय के आदेश को माना जा रहा है या नहीं । जाधव को फांसी दिए जाने के मामले में किसी भी कदम को अब अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है और नया मामला चल सकता है। साथ ही इसे राष्ट्र संघ में भी उठाया जा सकता है । इन सब में सबसे खास बात है कि पाकिस्तान अब अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में अपील नहीं कर सकता है। लेकिन इन सबके बावजूद अभी अब पाकिस्तान पर निर्भर करता है कि न्यायालय के फैसले को कैसे लागू कर रहा है और यह भारत पाकिस्तान के संबंध में एक सकारात्मक मोड़ बन सकता है। अभी से इस दिशा में पाकिस्तान द्वारा कदम बढ़ाए जाने के लक्षण दिखाई पड़ने लगे हैं । अंतरराष्ट्रीय समुदाय को खुश करने की गरज से उसने बुधवार को ही हाफिज सईद को गिरफ्तार कर लिया। मुख्य मसला है कि पाकिस्तान सरकार द्वारा समर्थित आतंकवाद के प्रति वह कैसा रुख अपनाता है।

Wednesday, July 17, 2019

कर्नाटक का झमेला

कर्नाटक का झमेला

कर्नाटक मसले में या कहें कि कर्नाटक में चल रहे राजनीतिक उठापटक के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपना निर्णय दे दिया है। अदालत ने कहा है कि यह मामला विधानसभा अध्यक्ष सुलझाएं । इसीके साथ गेंद फिर स्पीकर के पाले में आ गयी। कोर्ट ने कहा है कि बागी विधायकों पर व्हीप लागू नहीं होगी और ना ही उनपर  सदन में उपस्थित रहने की अनिवार्यता होगी। ऐसे में     अब सवाल उठता है कि क्या इस फैसले से अथवा  क्या अदालत के निर्णय से समाज में व्याप्त मूल भावनाएं खत्म हो  सकती हैं, और अगर ऐसा नहीं हो सकता है तो अदालत का फैसला दूरगामी ना होकर एक अस्थाई समाधान के रूप में कायम रहेगा।
       भारत का यह राजनीतिक सामाजिक चरित्र और अगर कर्नाटक के सियासत का इतिहास देखेंगे तो लगेगा कि इस राज्य के लिए ऐसा होना कोई नई बात नहीं है। दरअसल पिछले साल चुनाव खत्म होने के बाद इसी सत्तारूढ़ गठबंधन के नेताओं ने लगभग 14 महीने पहले कुछ ऐसा ही नाटक किया था। उन्होंने भी निर्वाचित प्रतिनिधियों को इसी तरह एक पक्ष से फोड़ कर एक सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया था। उन्होंने उन नेताओं को भारतीय जनता पार्टी से बचाने के लिए ऐसा किया था । भाजपा वहां खुद को बहुमत वाला दल बता कर सत्ता हासिल करना । पहले भी ऐसा हुआ था कहा जा सकता है। वहां  यह सब जनता के बीच कहावत बन चुका है। इस तरह के अलंकारिक कार्यकलाप अन्य राज्यों में भी हैं लेकिन कर्नाटक में इस तरह की विशेषज्ञता हासिल है। लेकिन, सवाल है कि इस तरह के हथकंडो का उद्देश्य क्या है? क्या जनता के प्रति उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं है? और क्या इस तरह के राजनीतिक हथकंडे लोकतांत्रिक संस्कृति को मजबूत कर सकेंगे? कर्नाटक में फिलहाल गठबंधन की सरकार है और उस गठबंधन में कांग्रेस तथा जनता दल  शामिल हैं। मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी जनता दल सेकुलर के प्रतिनिधि हैं। 224 सदस्यों वाले सदन में जनता दल सेकुलर के 37 सदस्य हैं और कांग्रेस के 78 विधायक तथा दो निर्दलीय हैं। जबकि विपक्षी दल भाजपा के कुल 105 विधायक हैं । शुरू से ही गठबंधन के सदस्यों के बीच रिश्ते बहुत अच्छे नहीं थे और इसके टूट जाने की खबरें अक्सर आती रहती थीं। भाजपा ने कुछ सदस्यों को तोड़ देने की लगातार कोशिशें की और इसे ऑपरेशन कमल के नाम से पुकारा जाता था। लोकसभा चुनाव के बाद जब भाजपा को कर्नाटक की 28 सीटों में से 25 सीटें हासिल हुई हैं तो गठबंधन में चरमराहट सुनाई पड़ने लगी थी।
         कुछ दिन पहले कांग्रेस के 10 और जनता दल सेकुलर के तीन सदस्यों ने  सदन की अपनी सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था।  उन्हें वहां से उठाकर मुंबई के लग्जरी होटल में ले जाया गया। सारा मामला सुप्रीम कोर्ट में गया उधर भाजपा पर आरोप लगने लगे उसने एक निर्वाचित सरकार को गिराने के लिए अवैध हथकंडे अपनाए हैं । लेकिन यह सारा क्यों हुआ ? इसके पीछे एक नई कथा है। इस समूचे मामले के पीछे कई छोटे-छोटे कारक तत्व हैं, जैसे विलासिता पूर्ण रहन सहन, निजी विमान से आवागमन इत्यादि। हालांकि सरकार और गठबंधन के दल तोड़फोड़ के लिए भाजपा को दोषी बता रहे हैं लेकिन प्रश्न है कि सरकार ने पहले गठबंधन के भीतर असंतोष को फैलने का मौका क्यों दिया? जो दिख रहा है उसका पहला कारण है कि कांग्रेस ने खुद उत्तरी कर्नाटक के सबसे महत्वपूर्ण नेता को महीनों तक सरकार से बाहर रखा। वोक्कालिगा समुदाय के एक छोटे से समूह ने वहां के राजनीतिक हालात हो दिशा दिखाने की कोशिश शुरू कर दी। उधर लिंगायत गुट ने अपनी गतिविधि भी आरंभ कर दी। यही नहीं राज्य के दक्षिणी भाग में कांग्रेस और जनता दल सेकुलर शुरू से प्रतिद्वंदी रहे हैं और वहां के वोक्कालिगा समुदाय से उसके रिश्ते मधुर रहे हैं। आंकड़े बताते हैं के 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा कांग्रेस और जनता दल सेकुलर के मतों का प्रतिशत क्रमशः 36.34 प्रतिशत ,30.14% और 18.3% रहा है। ऐसे में कांग्रेस के महत्वाकांक्षी सदस्यों में गठबंधन के मूल पर सवाल उठाया जाने लगा और जब कुछ हासिल नहीं हुआ तो उन्होंने पाला बदलने की कोशिश शुरू कर दी। उधर भाजपा ने उनकी तरफ हाथ बढ़ाया और वायदों की झड़ी लगा दी।
          आज भी हमारे देश में निर्वाचित सदस्य बुनियादी तौर पर खुद को जाति और समुदाय का सदस्य समझता है और जब संसाधन का बंटवारा होता है तो उसे उसी समुदाय या जाति की व्यापकता के आधार पर वे संसाधन मुहैया कराए जाते हैं। एक विधायक के रूप में निर्वाचित होने का मतलब समझा जाता है कि अन्य लाभ उसे प्राप्त होंगे और साथ ही मंत्री भी बनाया जाएगा ।  इसके कारण हर विधायक के भीतर एक विशेष प्रकार का लोभ समाया रहता है । केरल की राजनीति खोज का विषय है कि उसमें कैसे एक नया राजनीतिक ढांचा तैयार किया जा सके। एक सार्वजनिक संस्कृति का सूत्रपात किया जा सके जो इस तरह की सारी खामियों को दूर कर दे। लेकिन अभी जो हो रहा है उसके मद्देनजर यह सब मृगतृष्णा की तरह महसूस हो रहा है।

Tuesday, July 16, 2019

कांग्रेस को नेता नहीं विचारधारा की जरूरत है

कांग्रेस को नेता नहीं विचारधारा की जरूरत है

कांग्रेस पार्टी के भीतर टूट-फूट की घटनाएं हो रही हैं। कर्नाटक और गोवा के उदाहरण अभी ताजा है। कर्नाटक में शक्ति परीक्षण तय हो चुका है और यदि कोई चमत्कार नहीं होता है तो परिणाम का अनुमान लगभग सब को है यहां गौर से देखें तो निशाने पर कांग्रेस पार्टी और उसके इक्का-दुक्का समर्थक दल हैं। इस बिखराव को बल दिया है भारतीय जनता पार्टी ने। फिलहाल देश में राजनीति के दो ही ध्रुव हैं  एक अत्यंत ताकतवर और तेजी से विस्तारित होती भारतीय जनता पार्टी और दूसरी धीरे धीरे विखंडित होती कांग्रेस पार्टी। कांग्रेस पार्टी के विरोधी तथा शुभचिंतक दोनों एक ही सवाल पूछ रहे हैं कि क्या कांग्रेस की विचारधारा अब पुरानी हो चुकी है , इसकी क्षमता समाप्त हो चुकी है, इसमें अब नई प्रतिभाएं क्यों नहीं आ रही हैं , इसका आधार क्यों डगमगा रहा है और क्या पार्टी समाप्त हो जाएगी? 
     अगर इतिहास को देखें तो कांग्रेस की मूल विचारधारा अभी भी पुरानी नहीं पड़ी है बल्कि पिछले कुछ दशकों से पार्टी उस विचारधारा से थोड़ी अलग हो गई है। उसी तरह इसके समर्थकों का आधार भी सिकुड़ गया है। जिन लोगों ने कांग्रेस का राजनीतिक इतिहास पढ़ा है उन्हें यह मालूम है कि इसकी विचारधारा उदार  और नैतिक दृष्टिकोण के चतुर्दिक घूमती है। इसकी उदारता का उद्देश्य ही कांग्रेस की पहचान है। महात्मा गांधी का नैतिक अभियान और जवाहरलाल नेहरू का आधुनिकतावाद  ने कांग्रेस को आधार प्रदान किया है और कांग्रेस के चरित्र का सृजन किया है। अब इसका नैतिक ताना-बाना खत्म हो चुका है और इसकी विचारधारा में गिरावट आ गई है। जिसके फलस्वरूप कांग्रेस का मूल चरित्र समाप्त हो गया है।  कांग्रेस के पास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरह प्रतिबद्ध सदस्य नहीं हैं और ना ही वामपंथी दलों की तरह कार्ड धारक हैं। अब यदि यह पार्टी दोबारा खड़ी होनी  चाहती है तो इसे अपनी विचारधारा को  वापस लाना होगा। कांग्रेस का गठन 1885 में हुआ था इसके गठन के 4 वर्षों के बाद जवाहरलाल नेहरू का जन्म हुआ। इसके बाद लगभग कई दशकों के बाद भी नेहरू की छाया कांग्रेस पर कायम रही। कह सकते हैं कि लगभग एक सदी तक और भाजपा को अभी भी उस साए से खतरा महसूस  होता है। यही कारण है कि भारतीय जनता पार्टी अभी भी कांग्रेस मुक्त भारत के नारे लगाती है।
           यहां सवाल है कि आखिर क्या हुआ कि पार्टी इस तरह से खत्म हो गई और समाप्ति की गति बहुत तेजी से बढ़ती जा रही है । दरअसल , कांग्रेस का गठन एक संस्कृति उन्मुख भारत में हुआ था और जब वह संस्कृति आहिस्ता आहिस्ता अन्य संस्कृतियों से प्रभावित होने लगी  तो उनके दुर्गुण भी इसमें  प्रवेश करने लगे और अंततः सामाजिक चिंता की जगह व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं स्थापित हो गईं। चुनाव जीतना ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया।  चुनाव जीतने के लिए पैसों की जरूरत पड़ती है। इसलिए राजनीति में धन प्रमुख हो गया। ऐसे वातावरण में व्यक्तिवाद और कुटिलता ने राजनीतिक चेतना की जगह दखल कर ली। आज स्थिति यह हो गई कि कांग्रेस पार्टी का , यहां तक कि युवा कांग्रेस का भी, समाज से संपर्क भंग हो गया और इस शून्य में एक नए मध्य वर्ग का विकास हुआ। राजीव गांधी की आधुनिकतावादी और मनमोहन सिंह की उदारतावादी राजनीति ने इस नए मध्यवर्ग को अवसरवादी बना दिया। नतीजा यह हो गया कि पार्टी की सैद्धांतिक विरासत अब अप्रासंगिक लगने लगी।
        यहीं आकर भारतीय जनता पार्टी द्वारा राष्ट्रवाद और धर्म को एक साथ जोड़ने के सामाजिक प्रयासों की व्याख्या मिलती है । उसने कांग्रेस की इस चूक से सबक सीखा है और बड़ी होशियारी से समाज के नए मध्यवर्ग के भीतर से अवसर वाद को धीरे धीरे खत्म करने का प्रयास कर रही है। यह ध्यान देने की बात है कि कांग्रेस ही आरंभ में एक राष्ट्रवादी और समाजसेवी राजनीतिक संगठन थी आज कांग्रेस पार्टी और उसके नेतृत्व को  मालूम नहीं है कि उसे कैसे आघात लगा। हालात पर अगर निगाह रखें तो पता चलता है कि भाजपा को कांग्रेस पार्टी से कोई दुराव नहीं है। वह कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं को अपनी पार्टी में शामिल कर रही है। वह केवल गांधी परिवार से दूरी बना रही है और उसका निशाना भी गांधी परिवार ही है पार्टी नहीं। उसे मालूम है कि अगर परिवार की राजनीतिक मृत्यु हो जाती है तो कांग्रेस भी समाप्त हो जाएगी। इसीलिए नरेंद्र मोदी और उनके साथी लगातार सोनिया और राहुल पर आघात कर रहे हैं। भाजपा की रणनीति है कि कांग्रेस को  विचारधारा के स्तर पर समाप्त कर दिया जाए और बहुत दूर तक उसे सफलता मिल चुकी है। आज देश के 18 से 35 वर्ष की आयु वर्ग के नौजवान नहीं जानते की स्वतंत्रता के बाद शासन करने वाले जवाहरलाल नेहरू के सिद्धांत क्या थे? इसलिए कांग्रेस को  यदि अपना वजूद कायम रखना है तो उसे अपनी विचारधारा को फिर से स्थापित करना पड़ेगा। क्योंकि कांग्रेस पार्टी को नेताओं की जरूरत नहीं है विचारधारा की जरूरत है।
         

Monday, July 15, 2019

खेल केवल खेल नहीं रहा गया

खेल केवल खेल नहीं रहा गया

इस बार क्रिकेट में इंग्लैंड विश्व चैंपियन बन गया। खबर है कि ऐसा पहली बार हुआ है। अखबारों में इस खेल के कई रोमांचक तथा भावुक पलों की चर्चा है और उस पर ढेर सारी समीक्षाएं भी हैं। लेकिन एक खेल को और वह भी जहां सारा कुछ धन पर निर्भर करता है वैसे खेल को इतना ज्यादा तरजीह देने की जरूरत क्या है? इसके कई समाज वैज्ञानिक कारण हैं। इन दिनों खेल केवल खेल ही नहीं जाते बल्कि इन्हें बड़ी सफाई से खेल पसंद करने वालों को बेचा जाता है। भारत में यह तो खास बात है। इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल द्वारा किए गए अभी तक के सबसे बड़े मार्केट रिसर्च सर्वे के अनुसार पूरी दुनिया में क्रिकेट के एक अरब चाहने वाले हैं उनमें 90% केवल भारत में है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में 2016 में 43 अरब क्रिकेट के चहेते थे जो केवल 2 वर्षों में यानी 2018 में बढ़कर 51 अरब हो गए। यह वृद्धि 9% की दर से हुई है। अन्य खेलों, जैसे कबड्डी और क्रिकेट के चाहने वालों की संख्या भी बढ़ी है, लेकिन वे क्रिकेट के समान नहीं हैं। भारत में क्रिकेट को चाहने वालों की संख्या अन्य खेलों के मुकाबले 65% ज्यादा है जो हर साल बढ़ता ही जा रहा है। क्रिकेट लीग भी अपने लिए दर्शकों और चाहने वालों की जमात तैयार कर रही है। इसकी मिसाल इस बात से मिल सकती है कि इंडियन प्रीमियर लीग की शुरुआत 2008 में हुई यानी लीग बिल्कुल नई है और एक आंकड़े के मुताबिक केवल प्रायोजकों के माध्यम से इसने एक अरब डॉलर की आय की। यह राशि मेजर लीग बेसबॉल से बहुत ज्यादा है जो 1969 में शुरू हुई थी और उस वर्ष 892 मिलियन डॉलर आमदनी हुई थी। यही नहीं क्रिकेट मार्केटिंग का एक बहुत बड़ा मंच बन गया है। ब्रॉडकास्टिंग ऑडियंस रिसर्च काउंसिल के एक अध्ययन के मुताबिक 2016 से 2018 के बीच क्रिकेट के विज्ञापनों में 14% की वृद्धि हुई है। बीसीसीआई दुनिया का सबसे अमीर क्रिकेट बोर्ड है।  स्टार इंडिया जैसे नेटवर्क जिसने 38.5 बिलियन का भुगतान केवल इसलिए किया था  कि भारत में होने वाले मैच का उसके पास प्रसारण अधिकार हो। उसे इसके मार्केटिंग की क्षमता का एहसास अच्छी तरह है।
        क्रिकेट और राजनीति में भी एक संबंध भी है। कई पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी जैसे गौतम गंभीर ,मोहम्मद अजहरुद्दीन ,नवजोत सिंह सिद्धू और इमरान खान ने खिलाड़ी के रूप में अपनी लोकप्रियता को भुनाया  है और राजनीतिक सत्ता हासिल की है। भारत और पाकिस्तान में जब मैच होते हैं तो राष्ट्रवाद का बुखार देखने के लायक होता है। 2019 का भारत-पाकिस्तान विश्व कप मैच सबसे ज्यादा देखे जाने वाला प्रसारण था। आंकड़ों के मुताबिक इसे 229 मिलीयन दर्शकों ने देखा। मैच खेले जाने  कुछ हफ्तों पहले भारतीय वायु सेना का पायलट अभिनंदन वर्थमान को पाकिस्तान में पकड़ लिया गया था और शांति के बिंब के रूप में उसे बाद में रिहा कर दिया गया। जब मैच में भारत के हाथों पाकिस्तान पराजित हुआ तो कई लोगों ने कहा कि यह भारत की विजय है, उसके कप्तान की विजय है। यहां तक कि गृहमंत्री अमित शाह ने भी ट्वीट किया कि " यह पाकिस्तान पर दूसरा हमला है।" भारत-पाकिस्तान मैचों में राष्ट्रवादी बोल इतने ज्यादा निकलते हैं कि मैच का परिणाम गुम हो जाता है। आज क्रिकेट खेल नहीं रह गया है। यह खेल दो टीमों के बीच में खेले जाने वाला महज एक आयोजन नहीं है बल्कि यह खेल की आर्थिक शक्ति भी है। उदाहरण के लिए जब आईपीएल के प्रसारण अधिकार की नीलामी हुई तो स्टार इंडिया ने 16,347.5 करोड़ की बोली लगाकर इसे हासिल किया। इसके बाद यह खेल कंपनियों और क्रिकेट के चहेतों के बीच का एक सेतु बन गया। आधुनिक क्रिकेट से होने वाला विशाल लाभ एक बहुत बड़ा व्यापारिक मंच है और क्रिकेट केवल खेल नहीं रह गया है बल्कि यह एक ऐसा मंच हो गया है जहां से ज्यादा से ज्यादा दर्शक किसी चीज को देखते हैं। क्रिकेट संभवत पहला और सबसे बड़ा ऐसा मंच बना है जिससे कई और हित जुड़े हुए हैं और कई और दावेदार हैं। इस परिवर्तन के चलते यह खेल केवल  मैच तक ही सीमित नहीं रह गया है बल्कि यह खेल के अलावा मनोरंजन, विज्ञापन प्लेटफॉर्म, जनसंपर्क का तंत्र और तकनीकी जादूगरी में बदल गया है।
            क्रिकेट मैच के माध्यम से बाजार पैदा करने का यह काम सबसे पहले कैरी पैकर ने किया था। इसका इतना ज्यादा वाणिज्यीकरण हो गया है कि क्रिकेट का मतलब ही खत्म हो गया है और यह नए -नए बाजार तैयार करने की एक तकनीक बन गया है। इसीलिए खेलों की अवधि लगातार छोटी होती जा रही है, ताकि दर्शक इसे ज्यादा से ज्यादा बंधे रहें। इसके नियम भी बदल रहे हैं।
       क्रिकेट में जो खेल का उत्साह है उस पर राजनीतिक और व्यापारिक हितों को साधने वालों का कब्जा हो गया है। खेल के साथ-साथ  राष्ट्रीय गौरव भी इससे जुड़ गया है। मैच जीतना अब राजनीतिक विषय बन गया है, जिससे ज्यादा से ज्यादा व्यापारिक हित जन्म ले रहे हैं। भारत पाकिस्तान के मैच का ही उदाहरण लें। मैच के दौरान उत्पन्न होने वाले सांप्रदायिक और राजनीतिक ज्वार को क्या रोका जा सकता है? अब, यानी अति राष्ट्रवाद के इस युग में खेल और राजनीति में एक अंतर्संबंध पैदा होता जा रहा है। क्रिकेट के मैच का आर्थिक पक्ष केवल इस बात से पता चलता है कि मैच फिक्सिंग की घटनाएं इसमें आम होती जा रही है। हालांकि इससे खेल की साख और उसके प्रति सम्मान घटता जा रहा है और खेल तथा मनोरंजन के अंतर को समझ पाना बड़ा कठिन हो गया है।  जहां यह अति उत्तेजक होता जा रहा है वहीं इसे नियंत्रित करने वाले और इसके नतीजों को तय करने वाले भी बढ़ते जा रहे हैं। मैच फिक्सिंग एक नए तरह का अवैध कारोबार बनता जा रहा है। इसके खतरों से सावधान रहना जरूरी है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है किक्रेट अब सिर्फ खेल नहीं एक बाजार बन गया है जहां तरह-तरह के हित केंद्रित रहते हैं और उन्हें पूरा करने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं।

Sunday, July 14, 2019

बिखरती कांग्रेस: कारण क्या है

बिखरती कांग्रेस: कारण क्या है

देश भर के कई राज्यों से खबर आ रही है के कांग्रेस से विधायक टूट कर दूसरी पार्टियों में जा रहे हैं। कई दिनों से यह अखबारों की सुर्खियां हैं। लेकिन, भारत की राजनीति के लिए यह नया नहीं है। लगभग हर  राजनीतिक पार्टी के साथ कभी न कभी ऐसा होता है कि कुछ लोग किसी मौके पर एक से टूट कर दूसरे में चले जाते हैं। शुरू में इन खबरों को पढ़ने सुनने वाले थोड़ी हैरत में आते हैं। थोड़ी चर्चा करते हैं। बाद में अभ्यस्त हो जाते हैं और बस यही कहते हैं छोड़ो यार यह सब चलता है। निर्वाचकीय राजनीति का एक और पक्ष है वह है  समाज का नैतिक पतन । हालांकि,  यह स्थिति  विश्वव्यापी है लेकिन इन दिनों इसे भारत में नया विचार माना जा रहा है और चालाकी भरी राजनीतिक रणनीति का दर्जा दिया जा रहा है। अब ऐसे में सारी स्थिति इस बात पर निर्भर करती है कि किसी की सहानुभूति किस तरफ है और साथ ही एक कारण और है कि जिस पक्ष से लोग टूट कर जा रहे हैं उसमें वैचारिक एवं आदर्श के खिंचाव का कम होना। यही नहीं, इसके साथ ही अवसरवादियों को चुनाव का टिकट देना भी एक कारण है। लेकिन यह सारे तर्क इस बात का जवाब नहीं देते कि झंडा बदलने वालों को किसी होटल या पर्यटन स्थल पर क्यों छुपाया जाता है ? ऊपरी तौर पर तो ऐसा लगता है कि झंडे बदलने वाले विधायक अपना निर्णय न बदल दें इसलिए ऐसा किया जाता है। लेकिन यह तो बाद की बात है । यहां सबसे महत्वपूर्ण है इस बात पर विचार करना कि एक नाव से दूसरे नाव पर सवार होने की प्रवृत्ति क्या है या उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों के बीच बदलते रिश्ते क्या हैं। परंपरागत तौर पर तो उम्मीदवार रणनीति तथा चुनाव लड़ने के लिए धन पर निर्भर करते हैं ,साथ ही पार्टी के कार्यकर्ता और बाहुबली की मतों को जुटाने की प्रक्रिया में पार्टी की साख पर निर्भर करते हैं। साधारणतः पार्टियां उम्मीदवारों के लिए इन सब चीजों का ध्यान रखती हैं। यकीनन उम्मीदवार भी अपने व्यक्तिगत कार्यकर्ताओं- समर्थकों को लेकर मैदान में उतरते हैं लेकिन इसके बावजूद बात पार्टी की ही चलती है और संबंधों में उसी का वर्चस्व रहता है। यह बात उस जमाने की है जब कहा जाता था की अगर सही पार्टी साथ में हो तो कोई भी चुनाव जीत सकता है।
           लेकिन अब हालात बदलने लगे हैं। उन हालात के बदलाव की लहर दो तरह की होती है। पहली राजनीतिक तौर पर सत्तारूढ़ दल में जाने से ज्यादा लाभ का लोभ। इस स्थिति में राजनीतिक दल भी टिकट मांगने वालों को तौलते हैं कि उनकी माली हालत क्या है, उनके पास कितने लोग हैं और वह अपनी जाति तथा धर्म के कितने मतदाताओं को अपने साथ ला सकते हैं। उम्मीदवार की यह खूबी प्रतिद्वंदी दलों में स्थानीय स्तर पर प्रतियोगिता का सृजन करती है और आगे चलकर यह व्यक्तिवादी अपील में बदल जाती है। इसमें दूसरे प्रकार की लहर है कि जब बाहुबली, धनदाता और प्रभावशाली ग्रुप अपनी ताकत को पहचानने लगते हैं और यह समझने लगते हैं कि वह चुनाव के परिणाम को प्रभावित कर सकते हैं तो क्यों नहीं खुद पार्टी में चले जाएं। दूसरे को यह सारी सुविधाएं देने से तो ज्यादा यही अच्छा है। अब इससे संगठन में दरार आने लगती है और उम्मीदवार के चुनाव में उसके विजयी होने का पैमाना बदलने लगता है। एक तरह से टिकटों की नीलामी आरंभ हो जाती है। ऐसा होने पर उम्मीदवार की चुनाव में निर्भरता कम हो जाती है वह खुद चुनाव के अपने खर्चे निकाल लेता है। पार्टी के भीतर गुटों का बनना यह बताता है यह लोग पार्टी के तंत्र पर कम भरोसा करते हैं। इससे पार्टी हाईकमान और निर्वाचकों के बीच दूरी बढ़ने लगती है तथा एक नई स्थिति उत्पन्न होने लगती है । विचार पैदा लेता है कि पार्टी बहुत ज्यादा वोट नहीं प्राप्त कर सकती है अगर उस खास उम्मीदवार से पल्ला झाड़ ले तो ।इससे जो संदेश मतदाताओं के पास जाता है वह उम्मीदवार के पक्ष में ज्यादा होता है।
        यदि राजनीतिक दल उम्मीदवारों या उनकी उम्मीदों से बहुत ज्यादा किनारा नहीं करते हैं तो सारी स्थितियों के बाद भी पार्टियों के पास बहुत कुछ देने के लिए होता है। यह स्थिति निर्दलीय उम्मीदवारों के साथ   लागू नहीं होती । लेकिन जो पार्टी के साथ हैं उनके साथ पूरी तरह लागू होती है। सबसे बड़ी बात है कि पार्टी उम्मीदवारों को साख के लिए एक मंच देती है और यही नहीं, धन की कमी के मौके पर चुनाव लड़ने के लिए धन मुहैया कराती है। बड़े स्टार प्रचारकों को  चुनाव प्रचार के लिए उपलब्ध कराती है तथा मंत्री पद की संभावनाएं पैदा करती है । अब एक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में जाने की यात्रा का पथ थोड़ा छोटा हो जाता है। ऐसे में एक महत्वाकांक्षी उम्मीदवार के लिए अपना परिश्रम, धन और ताकत लगाने के विकल्प खुल जाते हैं और वह जिस विकल्प को बेहतर समझता है उस ओर का रुख करता है, स्थानीय मतभेद को रोकता है। फिलहाल इस विकल्प के रूप में भारतीय जनता पार्टी का उदाहरण दिया जा सकता है। तो वह यानी भारतीय जनता पार्टी ऐसे उम्मीदवारों को बेशक अपने यहां स्वागत करेगी।
        अब एक ऐसी पार्टी जिसका चुनाव तंत्र बेहतरीन हो और एक ऐसा स्थानीय उम्मीदवार जो अपनी संपूर्ण क्षमता को प्रस्तुत करता हो ऐसे संबंधों को पराजित करना कठिन हो जाता है। चुनाव पूर्व जिन्होंने ऐसा नहीं किया तो चुनाव के बाद ऐसी स्थिति उत्पन्न होने की संभावना बनी रहती है। क्योंकि उसे महसूस होता है की हालात तेजी से बदल रहे हैं और निकट भविष्य में बदल जाएंगे। लेकिन इस दलील के विपरीत भी तर्क हैं । उदाहरण के लिए  देखा जा सकता है कि इन दिनों भाजपा में वह लोग भी जाने को तैयार हैं जिन्होंने कभी उसे चुनौती दी थी इसका मतलब है की हमारी राजनीतिक व्यवस्था का बहुत बड़ा भाग हमेशा एकदम से दूसरे दल के बीच झूलता रहता है और उसे रोका नहीं जा सकता। आज जो एक पार्टी से दूसरे पार्टी के बीच भगदड़ मची है उसके पीछे मुख्यतः यही कारण है और इन कारणों को खत्म नहीं किया जा सकता।

Friday, July 12, 2019

कर्नाटक के नाटक का नया सीन

कर्नाटक के नाटक का नया सीन

कर्नाटक में कांग्रेस और जेडीएस के बागी विधायकों के इस्तीफे के बाद कई घटनाएं हुई और अब एक नया सीन सामने आया है।  बागी विधायकों ने इस्तीफा नहीं स्वीकार होने की सूरत में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था । क्योंकि विधानसभा अध्यक्ष रमेश कुमार ने कई विधायकों के इस्तीफे को अस्वीकार कर दिया था उनका कहना था इस्तीफा में तकनीकी गलती है। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार तक यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया है। इस बीच कर्नाटक के मुख्यमंत्री  कुमार स्वामी ने सदन में अपना बहुमत सिद्ध करने के लिए विधानसभा अध्यक्ष से अनुमति मांगी है तथा समय भी। कर्नाटक राजनीतिक नाटक क्लाइमेक्स उस समय आ गया था जब 16 विधायकों ने इस्तीफे दे दिए थे। सरकार अल्पमत में आ गई थी और नई सरकार बनाने के लोभ में भारतीय जनता पार्टी के बी एस येदुरप्पा दनादन मीटिंग कर रहे थे। पिछले हफ्ते से बागी विधायकों को मनाने की लगातार कोशिश चल रही है। गठबंधन सरकार के संकटमोचक शिव कुमार इसी प्रयास में मुंबई भी गए थे लेकिन वहां होटल में ठहरे बागियों से उनकी मुलाकात नहीं हो सकी। सुरक्षा कारणों से पुलिस ने इसकी इजाजत नहीं दी। बागी विधायकों ने सुप्रीम कोर्ट की शरण ली और सुप्रीम कोर्ट में रात तक फैसला लेने का निर्देश दिया। लेकिन विधानसभा अध्यक्ष रमेश कुमार में भावपूर्ण बयान देकर सबका मुंह बंद कर दिया। उन्होंने कहा कि वह विलंब इसलिए कर रहे हैं क्योंकि वेबसाइट के राज्य से प्रेम है। दूसरी तरफ, केंद्रीय मंत्री राज जोशी ने कर्नाटक की राजनीतिक अस्थिरता पर कहा है कि इस पर जल्दी से जल्दी फैसला लिया जाना जरूरी है। सभी विधायकों ने इस्तीफे सौंप दिए है। कर्नाटक में विधान सभा का अधिवेशन आरंभ हो गया है और किसी भी गड़बड़ी को संभालने के लिए कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता कर्नाटक में उपस्थित हैं। कांग्रेस ने अपने सभी विधायकों को इस अधिवेशन में उपस्थित रहने का निर्देश दिया है गैरहाजिर विधायकों पर दल बदल कानून के तहत कार्रवाई की जाएगी।
         दूसरी तरफ शुक्रवार को इस मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई तथा न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता एवं न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस ने कहा कि इस पूरे मामले से संविधान की धारा 190 और 361 भी जुड़ी हुई है। जहां धारा 190 विधायक के अयोग्य ठहराने से संबद्ध वहीं धारा 361 के मुताबिक कुछ खास पदों पर आसीन लोग अदालत के जवाबदेह नहीं होते, इससे संबंधित है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि विधानसभा अध्यक्ष विधायकों के इस्तीफे  के
सम्बद्ध में  विचार करेंगे । जैसे-जैसे समय बीत रहा है कर्नाटक का नाटक और दिलचस्प होता जा रहा है।
लेकिन इस पूरे नाटक को यदि राजनीतिक मनोविज्ञान की निगाह से देखें ऐसा कोई आश्चर्य नहीं होता है। इसके तीन कारण हैं। पहला जब पार्टी डूबती है तो उसके आम कैडर और कार्यकर्ता दूसरे दल में शामिल हो जाते हैं। कर्नाटक में भी जो हुआ कांग्रेस की भारी पराजय के कारण होता हुआ दिख रहा है। क्योंकि ,भविष्य के नेतृत्व के बारे में उन्हें कोई संभावना नहीं दिख रही है। दूसरा कारण हो सकता है कि, राजनीतिक पार्टियां ज्यादा से ज्यादा  कार्यकर्ताओं को अपने दल में शामिल करने की कोशिश में रहती हैं और ऐसे में दूसरे दलों के लोगों को शामिल किया जाना या उन्हें शामिल होने के लिए लोभ देना कोई आश्चर्यजनक नहीं है। इन दिनों राजनीतिक कार्यकर्ता किसी भी पार्टी से आदर्श के रूप में नहीं जुड़े हैं और ना जुड़े रहते हैं उन्हें अवसर की खोज रहती है। तीसरा कारण इस खास समीकरण के लिए है । इससे पता चलता है कि भारतीय जनता पार्टी कितनी तेजी से अपने साथ दूसरे दलों के कार्यकर्ताओं को मिला रही है। वह राज्य में स्थाई प्रचार न चलाकर कर दूसरे दलों के कार्यकर्ताओं को शामिल करने ने विश्वास करने लगी है। इस नई स्थिति से हम भारतीय जनता पार्टी के संगठन एक और आर्थिक वर्चस्व का अंदाजा लगा सकते हैं।

Wednesday, July 10, 2019

कर्नाटक का सियासी नाटक

कर्नाटक का सियासी नाटक

कर्नाटक के सियासी नाटक में अब नया मोड़ आ रहा है। इस्तीफा देने वाले 13 विधायकों के इस्तीफों में से 8 विधायकों के इस्तीफे कर्नाटक विधानसभा अध्यक्ष के आर रमेश कुमार ने तकनीकी कारणों से नामंजूर कर दिया। अब वे दोनों दलों के विधायकों से 12, 15 तथा 21 जुलाई को मुलाकात करेंगे। इस्तीफा देने वाले 13 विधायकों में से 10 विधायक कांग्रेस के हैं और 3 जनता दल सेकुलर के । विधानसभा अध्यक्ष के इस कदम से दोनों दलों ,कांग्रेस तथा जनता दल सेकुलर, को गठबंधन बचाने के लिए थोड़ा समय मिल गया । अगर उनका इस्तीफा स्वीकार कर लिया गया होता तो 224 सदस्यों वाली विधानसभा में गठबंधन की स्थिति घटकर 103 हो गई होती। विधानसभा अध्यक्ष का यह नया निर्णय संभवतः भाजपा को रोकने की गरज से किया गया है। क्योंकि सदन में भाजपा के  105 विधायक हैं और दो निर्दलीय विधायकों का समर्थन उसे प्राप्त है। विधान सभा की बैठक 12 जुलाई को होगी। नई स्थिति से गठबंधन को बागी विधायकों को मनाने और संभवतः उन्हें मंत्रिमंडल में जगह देने के लिए अवसर प्राप्त हो गया। लेकिन इसमें एक बात और दिखाई पड़ रही है कि यदि वर्तमान सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया और उस पर मतदान हुआ तो ये बागी विधायक अगर उस मतदान से अनुपस्थित हो जाते हैं तो सरकार नहीं बच पाएगी। इसलिए फिलहाल अध्यक्ष का इस्तीफा स्वीकार करना केवल कुछ समय देने  के सिवा कुछ नहीं है।
सोमवार को तो कर्नाटक का यह सियासी नाटक लगा कि क्लाइमेक्स पर पहुंच गया है। क्योंकि पूरे मंत्रिमंडल में इस्तीफा दे दिया था ताकि मंत्री परिषद मे फेरबदल कर बागी विधायकों को अवसर देने का मौका मिल सके।
         इस बीच खबर है कि कांग्रेस के नेता तथा जल संसाधन मंत्री डी के शिवकुमार बागी विधायकों को समझाने- बुझाने के लिए मुंबई जाने वाले हैं। क्योंकि  सब मुंबई के किसी होटल में ठहरे हुए हैं । उधर कांग्रेस के बागी विधायक बी सी पाटील का कहना है कि नहीं मंत्री पद नहीं इस्तीफे दिए गए हैं। वे मुख्यमंत्री एचडी कुमार स्वामी को पद से हटाना चाहते हैं। क्योंकि, उत्तर कर्नाटक ने कोई काम ही नहीं हुआ है। पाटिल का कहना है कि भाजपा ने अभी तक कोई भी पेशकश नहीं की है और इस संबंध में सारे दावे गलत हैं। उन्होंने कहा कि 2018 में जरूर पैसे और मंत्री पद का लोभ दिया गया था लेकिन उन्होंने स्वीकार नहीं किया।
         कर्नाटक के सियासी नाटक का असर दिल्ली में भी हुआ है । कांग्रेस ने लोकसभा में वॉकआउट आउट किया है। इस  वॉकआउट में राहुल और सोनिया गांधी भी शामिल थे। ऐसा बहुत कम हुआ है कि राहुल गांधी ने नारेबाजी भी की । वैसे, लगता नहीं है कि सरकार गिर जाएगी। क्योंकि सभी विधायकों के मन में एक भय तो है कि अगर सरकार गिरती है तो नए चुनाव होंगे और कोई भी विधायक इतनी जल्दी नया चुनाव नहीं करना चाहता। भले ही हो बीजेपी का ही विधायक क्यों न हो।  वैसे भी सब जानते हैं की अगर चुनाव होते हैं तो भाजपा को ही लाभ होगा और भाजपा के खेमे में येदुरप्पा के पक्ष में कोई खास हवा नहीं है। क्योंकि वहां भाजपा अपना नेतृत्व करना चाहती है और येदुरप्पा की जगह दूसरा नेता लाना चाहती है। इसके साथ ही यह भी सही है कि कांग्रेस के बहुत से लोग खासकर सिद्धारमैया वगैरह मुख्यमंत्री से बिल्कुल खुश नहीं हैं। वैसे भी एक गठबंधन की सरकार तभी चलती है जब उसका नेतृत्व किसी राष्ट्रीय पार्टी द्वारा किया जाता है। फिलहाल कांग्रेस सिमट गई है और जनता दल सेकुलर की वैसे भी कोई पकड़ नहीं है । राष्ट्रीय पार्टी गठबंधन को बांधे रखने का काम करती है । क्योंकि छोटी- छोटी पार्टियां गठबंधन में तो सिर्फ इसलिए शामिल होती हैं कि  उन्हें सत्ता का सुख प्राप्त हो सके।  फिलहाल ऐसा दिख नहीं रहा है। इसलिए संभवतः सरकार गिर जाएगी और तब भाजपा सरकार बनाने के लिए सामने आएगी।

Tuesday, July 9, 2019

कर्नाटक का गहराता संकट

कर्नाटक का गहराता संकट

कर्नाटक में राजनीतिक संकट गहराता जा रहा है। वहां कांग्रेस और जनता दल सेकुलर की मिली जुली सरकार के सभी मंत्रियों ने इस्तीफे दे दिए हैं ताकि मंत्रिपरिषद का पुनर्गठन किया जा सके और नाराज विधायकों को उसमें शामिल किया जा सके, जिससे लड़खड़ाता  हुआ गठबंधन फिर से खड़ा हो सके। कर्नाटक में दो निर्दलीय विधायक एच नागेश और एच शंकर को गत 14 जून को सरकार में शामिल किया गया था ताकि आंकड़ों खेल का समायोजन हो सके। पिछले शनिवार को कर्नाटक में गठबंधन सरकार के  13 विधायकों ने इस्तीफे दे दिए थे और उसके बाद वहां 224 सदस्य वाली विधानसभा में कांग्रेस विधायकों की संख्या घटकर 104 हो गई। जिसमें कांग्रेस के 69 और जनता दल सेकुलर के 34 सदस्य हैं तथा एक बसपा का विधायक है। जबकि ,भाजपा के कुल विधायकों की संख्या 107 है जिनमें भाजपा के 25 और निर्दलीय दो हैं । कांग्रेस नेताओं ने गठबंधन को कायम रखने का विश्वास जाहिर किया है ।साथ ही उन्होंने इन सारी गड़बड़ियों के लिए भाजपा को दोषी बताया है और कहा है यह भाजपा विधायकों को मंत्री पद और पैसे का लोभ देकर यह सब करा रही है। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव के सी वेणुगोपाल में कहा है कि "कुछ विधायकों की शिकायतें हो सकती हैं और कुछ तो मंत्रिमंडल के विस्तार की बात कर रहे हैं और पार्टी के व्यापक हित में  सभी मंत्रियों ने इस्तीफे दिए हैं। उन्होंने कहा कि जिन विधायकों ने इस्तीफे दिए हैं वह वापस चले आएं और पार्टी को मजबूत बनाएं । हम समझते हैं कि वे जरूर आएंगे और सरकार कायम रहेगी।" इसके साथ ही उन्होंने कहा कि "  सरकार को गिराने का भाजपा का 1 साल में यह छठा प्रयास है।"
          उधर कर्नाटक के भाजपा नेताओं के अनुसार अगले 2 दिनों में और विधायक इस्तीफे दे सकते हैं।  अगर ऐसा होता है तो विधानसभा अध्यक्ष के आर रमेश पर 13 विधायकों के इस्तीफे स्वीकार करने की दबाव बढ़ेगा । सोमवार की सुबह निर्दलीय विधायक एच नागेश इस्तीफे के बाद गठबंधन की सरकार को बचाने के लिए जो भी खिड़की खुली थी वह बंद होती नजर आ रही है । जिस जल्दबाजी में नागेश को बंगलुरु से मुंबई ले जाया गया उससे तो लगता है कि भाजपा तख्ता पलटने की तैयारी में है। कुछ विश्लेषक यह भी कहते सुने जा रहे हैं कि अगर वहां सरकार नहीं बनती है तो चुनाव हो सकते हैं। लेकिन यह सहज बुद्धि का सवाल है कि कोई भी विधायक इतनी जल्दी चुनाव नहीं चाहता।  चूंकि  , भाजपा के बारे में इन दिनों कहा जा रहा है कि वह स्थाई सरकार दे सकती है इसलिए गठबंधन से असंतुष्ट विधायक निकलना चाहते हैं ।
    अब जैसी की भाजपा की योजना है कि बुधवार तक स्पीकर अगर 13 विधायकों के इस्तीफे मंजूर नहीं करेंगे तो अविश्वास प्रस्ताव लाने की तैयारी शुरू होगी। इसके लिए 12 दिन का नोटिस देना होता है और इस बीच दलबदल की शतरंज शुरू होने की उम्मीद है। भाजपा को महसूस हो रहा है कि अगर दल बदल का खेल लंबा चले तो उसे फायदा होगा। फिलहाल अगर विधानसभा अध्यक्ष 13 विधायकों के इस्तीफे मंजूर कर लेते हैं तो वहां की 224 सदस्यों वाली विधानसभा की वास्तविक संख्या 211 हो जाएगी और  ऐसी स्थिति में सरकार बनाने के लिए महज 107 विधायकों की जरूरत है। जबकि भाजपा के कुल विधायकों की संख्या 105 है यानी बहुमत से केवल दो विधायक कम। ऐसी स्थिति में कांग्रेस के लिए अपनी सरकार को बचाना टेढ़ी खीर हो जाएगा।
            ताजा स्थिति में कुमार स्वामी सरकार के पास केवल दो विकल्प बचे हैं। पहला कि मुख्यमंत्री इस्तीफा दे दें और असंतुष्ट विधायकों के प्रतिनिधि को सत्ता सौंप दें। लेकिन यह आसान नहीं है। इसमें मनोवैज्ञानिक अवरोध बड़ा गंभीर है। देवगौड़ा परिवार को यह त्याग शायद मंजूर नहीं होगा। दूसरा विकल्प है कि विधान सभा का अधिवेशन फिलहाल टाल दिया जाए। लेकिन इसके लिए राज्यपाल की सहमति जरूरी है और राज्यपाल केंद्र का प्रतिनिधि होता है। वैसी सूरत में ऐसा होता दिखना शायद बड़ा कठिन है। कांग्रेस  अपने असंतुष्ट विधायकों को मनाने की गरज से सभी मंत्रियों से इस्तीफे ले लिए हैं और सुना जा रहा है की असंतुष्ट विधायकों को मंत्री पद का ऑफर मिला है। अब इस पर भी अगर वह नहीं मानते तो बस उन पर कार्रवाई हो सकती है।
             दूसरी तरफ कर्नाटक में जो भी हो रहा है वह अप्रत्याशित नहीं है और वैसी सूरत में तो बिल्कुल नहीं है जब 23 मई 2018 यह सरकार गठित हुई तभी से  महसूस होता था  यह होगा। भाजपा की शानदार वापसी के बाद तो यह और भी संभव लगने लगा है।

Monday, July 8, 2019

तपती धरती बढ़ता संकट

तपती धरती बढ़ता संकट

धरती लगातार तप रही है और पानी का जमीनी स्तर तेजी से घट रहा है लिहाजा खेती और अन्य चीजें प्रभावित हो रही हैं। अभी हाल में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग के कारण भारत में अगले 10 वर्षों में काम के घंटों में 5.8% की कमी आएगी जोकि 3.4 करोड़ नौकरियों के खोने के बराबर है।  इसका सबसे ज्यादा प्रभाव कृषि और भवन निर्माण पर पड़ेगा। विशेषज्ञ बताते हैं कि इसका मुख्य कारण यह है की गर्मी के कारण दिमाग कम काम करता है और आपसी झगड़े ज्यादा बढ़ जाते हैं। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण पूरी पृथ्वी गर्म हो जाएगी और इसका असर काम पर भी पड़ेगा। रपट के अनुसार 21वीं सदी के अंत तक वैश्विक तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा इसका प्रभाव काम के घंटों पर भी पड़ेगा।
          डर है कि सदी के अंत तक आधी दुनिया में हर साल तापमान के रिकॉर्ड टूट जाएंगे और ऐसा होता हुआ दुनिया के कई देशों में दिखाई भी पड़ रहा है। कुवैत और सऊदी अरब का तापमान तेजी से बढ़ रहा है। हाल में मिली रिपोर्ट के अनुसार कुवैत का तापमान 52 डिग्री सेंटीग्रेड और सऊदी अरब का तापमान 63 डिग्री तक पहुंच गया था। दूसरी तरफ पाया गया है कि कनाडा के उत्तरी हिस्से में जमी बर्फ पिघलने लगी है। जबकि अनुमान लगाया गया था यह बर्फ 70 साल बाद पिघलेगी। बर्फ का पिघलना एक बहुत बड़े संकट की ओर इशारा कर रहा है। क्योंकि इस बर्फ के पिघलने से कई हजार टन ग्रीन हाउस गैस रिलीज होगी और इससे धरती का तापमान और तेजी से बढ़ेगा। जैसा कि अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट में कहा गया है की तापमान बढ़ने से काम के घंटे कम होने लगेंगे। उससे भी कहीं खतरनाक संकेत यह मिल रहे हैं कि भारत में बड़ी आबादी मानसून पर निर्भर करती है यानी खेती बारी और सी फूड के कारोबार पर करोड़ों परिवार निर्भर हैं।  ग्लोबल वार्मिंग की वजह से  इस कारोबार पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। वैज्ञानिकों के मुताबिक हिमालय के ग्लेशियर दुगनी रफ़्तार से पिघल रहे हैं । इधर वैज्ञानिकों को डर है कि मानसून की कमी से भूजल स्तर में भारी गिरावट आ सकती है। नीति आयोग की हाल की रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के 21 बड़े शहरों में भूजल खत्म हो जाएगा। भूजल की कमी के कारण तरह-तरह की बीमारियां हो रही हैं  सरकारी आंकड़ों के अनुसार लगभग दो लाख लोग हर साल केवल इसलिए मर जाते हैं कि उन्हें पीने का पानी नहीं मिलता है या साफ  पानी नहीं मिलता है। आबादी तेजी से बढ़ रही है और उसी के अनुसार पानी की मांग भी बढ़ रही है । 2019 का चुनाव जीतने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि अगले 5 साल में वे देश के सारे घरों में पीने का पानी पहुंचा देंगे लेकिन जो हाहाकार मचा है उससे तो नहीं लगता है कि यह लक्ष्य आसान होगा।
        बात केवल पीने की पानी तक रहे तब भी कुछ गनीमत है लेकिन मानसून की कमी के कारण खरीफ फसलों की बुवाई भी घटती जा रही है। अभी तक जो बुवाई की खबर मिली है उसके अनुसार पिछले साल से इस बार 27% कम बुवाई हो सकी है। इस तरह के हालात से अभी से ही रोजगार और जीविका के उपार्जन के साधन तेजी से घटने लगे हैं और लोग अपना घर बार छोड़कर दूसरे इलाकों में जाने लगे हैं। पहले यह जाना अस्थाई था लेकिन अब यह स्थाई होता हुआ महसूस हो रहा है। हर साल विस्थापित होने की प्रक्रिया में तेजी आ रही है। वैश्विक स्तर पर शरणार्थियों पर काम करने वाली संस्था नार्वेजियन रिफ्यूजी काउंसिल के इंटरनल डिस्प्लेसमेंट मॉनिटरिंग सेंटर के अध्ययन में पाया गया है कि 2018 में दुनिया में 4.13 करोड़ लोगों को अपने ही देश में इधर से उधर जाकर बसना पड़ा इनमें से 1. 72 करोड़ लोग केवल मौसम संबंधी आपदाओं के कारण अपना बसा बसाया घर छोड़ कर चले गए। इनमें 94% लोगों को चक्रवात और सूखे के कारण इस विस्थापन का दर्द झेलना पड़ा। एशियाई देशों को खासकर भारत ,चीन और फिलीपींस को इस दर्द का सबसे ज्यादा शिकार होना पड़ा है। इन देशों में विस्थापित होने वालों की संख्या एक करोड़ से ज्यादा है। अगर रिपोर्ट को माने तो गत वर्ष केवल भारत में ही 26.8 लाख लोग प्राकृतिक आपदाओं की वजह से विस्थापित हुए। यह संख्या 2017 से दोगुनी है। केवल तमिल नाडु, आंध्र प्रदेश और ओडिशा में आए चक्रवाती तूफानों से 6.5 लाख लोगों को विस्थापित होना पड़ा था। उड़ीसा में हाल में आए फनी नामक चक्रवाती तूफान से लगभग एक करोड़ लोग प्रभावित हुए थे, जिससे पांच लाख लोगों को विस्थापित होना पड़ा था और इससे कुल 12हजार करोड़ रुपयों का नुकसान हुआ था। कहीं बारिश से और कहीं सूखे से अपना घर बार छोड़कर लोग जा रहे हैं जिंदगियां प्रभावित हो रही हैं। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन बहुत तेजी से हो रहे हैं और जिसके चलते प्राकृतिक आपदाएं की बढ़ रही हैं। अब अगर दुनिया नहीं चेती खास करके भारत में इसका कोई निदान नहीं खोजा गया तो बहुत बड़े संकट का मुकाबला करना होगा।

Sunday, July 7, 2019

कर्नाटक के राजनीतिक संकट का अर्थ

कर्नाटक के राजनीतिक संकट का अर्थ

कर्नाटक में जेडीएस और कांग्रेस की गठबंधन की सरकार है लेकिन पिछले 2 दिनों से इसमें संकट पैदा हो गया है। गठबंधन  लगता है खुलने वाला है । क्योंकि इसके 11 विधायकों ने इस्तीफा दे दिया है और जानकारों का कहना है कि 4 दिन के बाद विधानसभा सत्र के दौरान कुमार स्वामी सरकार के सामने  भाजपा विश्वास मत हासिल करने का प्रस्ताव रख सकती है । कर्नाटक में  भाजपा के नेता  सदानंद गौड़ा  ने कहा है  कि अगर राज्यपाल  उन्हें बुलाया  तो  भाजपा वहां सरकार बनाने के लिए तैयार है।  कर्नाटक में भाजपा के  105 विधायक हैं । उन्होंने यह भी कह दिया है कि अगर   वहां भाजपा सरकार बनाती है  तो  बीएस येदुरप्पा  मुख्यमंत्री बनेंगे ।
दूसरी तरफ कांग्रेस के प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहां है मोदी देश में खरीद-फरोख्त की राजनीति कर रहे हैं उन्होंने कहा कि यह बहुत निराशाजनक है। पैसे और पद के प्रलोभन के जरिए भाजपा एक चुनी हुई सरकार को गिराने की कोशिश कर रही है और यह लोकतंत्र को कलंकित किया जाना है ।224 सीटों वाली कर्नाटक विधानसभा में बहुमत के लिए 113 विधायकों की जरूरत होगी।   कांग्रेस के एक विधायक आनंद सिंह ने 1 जुलाई को अपने पद से इस्तीफा दिया था। अगर उनके साथ 11 और विधायकों का इस्तीफा मंजूर हो जाता है तो सदन में सदस्यों की कुल संख्या 212 रह जाती है और बहुमत के लिए 107 लोगों की भी जरूरत पड़ेगी। अगर ऐसा होता भी है तो इसके बाद भी कांग्रेस जेडीएस गठबंधन के पास बसपा के एक और निर्दलीय दो विधायकों के समर्थन की बदौलत उनकी संख्या बहुमत के आंकड़े से ज्यादा है। लेकिन निर्दलीय विधायक नागेश पलड़ा बदलने में माहिर है और अगर वह पलड़ा बदल देते हैं तो वहां बीजेपी की सरकार भी बन सकती है।
कर्नाटक की स्थिति से एक सवाल पैदा होता है कि क्या देशभर में गठबंधन की सरकारों की हालत खराब है और सारे गठबंधनों  की सरकार खतरे में है। लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा एक ताकतवर पार्टी के रूप में उभरी है। यह उभार ठीक वैसा ही है जैसा 1971 में बांग्लादेश युद्ध के बाद इंदिरा गांधी का केंद्र में उभार हुआ था और उन्होंने सत्ता का एकीकरण कर दिया था। वर्तमान में मोदी ने जी सत्ता का एकीकरण कर दिया है। लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद सत्ता में आई इंदिरा गांधी को लोग गूंगी गुड़िया कहते थे और कांग्रेस पार्टी की हालत बहुत खराब थी। ऐसे में 1967 में भारत में गठबंधन की राजनीति का श्रीगणेश हुआ और संयुक्त विधायक दल सरकार का उदय हुआ। जो भारतीय क्रांति दल, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और भारतीय जनसंघ के गठबंधन से बना था। आगे चलकर यही गठबंधन भारतीय जनता पार्टी में बदल गया। इसके  बाद 1971 का वक्त आया और इंदिरा जी ने पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए और उसी के साथ और सत्ता पर काबिज हो गईं। साथ ही अलग-अलग राज्यों में गठबंधनों की सरकारों का दौर खत्म हो गया। संयुक्त विधायक दल की  सरकारें गिर गईं। केरल को छोड़कर पश्चिम बंगाल में हाल तक वामपंथ की स्थिति मजबूत रही। इसके बाद गठबंधन की सरकारों का दूसरा चरण 1989 में आरंभ हुआ और इस बार गठबंधनों केंद्रीय सत्ता भी हासिल की । यह दौर नरेंद्र मोदी के 2014 में जीत तक कायम रहा।
      2018 में कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भाजपा को सबसे ज्यादा सीटें हासिल हुईं थीं। लेकिन कांग्रेस और जेडीएस ने मिलकर वहां सरकार बना ली। यही सबसे बड़ी राजनीतिक भूल हुई कि कांग्रेस ने जेडीएस के एचडी कुमार स्वामी को मुख्यमंत्री का पद दे दिया। जबकि जेडीएस के पास कांग्रेस की आधी सीटें भी नहीं थी। यह एक बेमेल गठबंधन था। क्योंकि पिछले कई वर्षों से दक्षिण में जेडीएस और कांग्रेस आपस में भिड़ी हुई थी और यह बेमेल गठबंधन फकत साल भर में खतरे में आ गया। इसके लगभग एक दर्जन विधायकों ने इस्तीफा दे दिया है और गायब  हो गए हैं । कहा जा रहा है कि उन्हें मुंबई के किसी होटल में ठहराया गया है। वैसे यह भी कहा जा रहा है कि जिन विधायकों ने इस्तीफा दिया है उनमें अधिकांश सिद्धारमैया के विरोधी हैं संभवत उन्होंने   कुछ   हासिल करने के लिए, खासतौर पर मंत्री पद हासिल करने के लिए, दबाव डालने की गरज से ऐसा किया है।
कर्नाटक की ताजा स्थिति के बारे में दिल्ली में वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं की बैठक हुई। इस बैठक में आनंद शर्मा ,गुलाम नबी आजाद, मोतीलाल वोरा, अहमद पटेल, मल्लिकार्जुन खड़गे ,ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितेंद्र सिंह , रणदीप सिंह सुरजेवाला तथा दीपेंद्र हुड्डा शामिल थे।
विश्लेषकों का मानना है कि इस प्रक्रिया के पीछे भाजपा का ऑपरेशन कमल काम कर रहा है। इस्तीफा देकर आए सदस्यों को आने वाले दिनों में भाजपा से चुनाव लड़ने और चुने जाने का वादा किया गया है। ऐसा ही प्रयोग 2008 में भी हुआ था। ऐसी परिस्थिति में यह कहा जा सकता है कि पूरा देश एक पार्टी के शासन की ओर बढ़ रहा है । जनता ने  पूरे देश में  गठबंधनों को  नकार दिया है और संभवतः गठबंधनों का दौर खत्म होने जा रहा है। लोगों ने तय किया है कि एक पार्टी की सरकार बेहतर शासन दे सकती है । गठबंधन अपने आंतरिक खींचतान में ही लगा रहता है। लोकसभा के ताजा चुनाव के संदर्भ में देखा जाए तो लगता है कि देश की तमाम पार्टियां अपनी साख गंवा चुकी है और भाजपा से मुकाबले की क्षमता किसी में नहीं है।  कोई ऐसा नेता नहीं है जो नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को चुनौती दे सकें।

Friday, July 5, 2019

अर्थव्यवस्था और समाज को सही दिशा देने वाला बजट

अर्थव्यवस्था और समाज को सही दिशा देने वाला बजट

गरीबों किसानों और गांव को खुशहाल तथा जीवन को अधिक सरल बनाने के दर्शन के साथ नरेंद्र मोदी सरकार के दूसरे दौर का  पहला बजट बुधवार को संसद में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पेश किया। उन्होंने बजट पेश किए जाने की प्रक्रिया में एक क्रांतिकारी परिवर्तन किया और लाल बैग और त्याग कर बजट भाषण कपड़े में बांधकर संसद में लाया गया। यह भी जानना दिलचस्प होगा कि निर्मला सीतारमण देश की पहली फुल टाइम महिला वित्त मंत्री हैं जिन्होंने 2019 का केंद्रीय बजट प्रस्तुत किया। प्रधानमंत्री   नरेंद्र मोदी ने बजट की प्रशंसा करते हुए देश को को संबोधित किया।
      2019 के बजट में अर्थव्यवस्था को गति देने का नजरिया है और इसी उद्देश्य के साथ मीडिया, विमानन ,बीमा और खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी  निवेश को उदार बनाने का प्रस्ताव किया गया है। बजट में ऐसा प्रस्ताव किया गया है की आम लोगों के दायरे में बीमा योजनाएं तथा पेंशन योजनायें आ जाएं । वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण के दौरान कहा कि चुनाव के दौरान देशभर में एक मजबूत भारत की लहर चली  थी और लोगों ने उसी उम्मीद से इस सरकार को चुना । क्योंकि इसने अपने पहले दौर में काम करके दिखाया है। मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में एक नए भारत के लिए काम शुरू किया था और अब इस काम की रफ्तार बढ़ाई जाएगी। अफसरशाही को कम किया जाएगा ताकि विकास में दिक्कत है ना आए। बजट में बैंक खाते से एक करोड़ से ज्यादा रुपया निकालने पर 2% की दर पर टीडीएस लगाए जाने का प्रस्ताव है। साथ ही पेट्रोल डीजल की कीमत 1 रुपये प्रति लीटर बढ़ा दी गई और सोने पर ड्यूटी ढाई प्रतिशत बढ़ाई गई । बजट में प्रस्ताव है कि 45 लाख  के घर खरीदने पर साढे तीन लाख रुपया ब्याज में छूट दिया जाएगा। ज्यादा आय करने वालों  पर सरचार्ज लगाया जाएगा। बजट प्रस्ताव के अनुसार 5 करोड़ से ऊपर सालाना आय वालों पर 7% और 2 से 5 करोड़ की सालाना आय पर 3% और सर चार्ज लगेगा। लेकिन 5लाख रुपये से कम आमदनी वालों को इनकम टैक्स से निजात मिल गई। इसके साथ ही डेढ़ करोड़ से कम के सालाना कारोबार वाले तीन करोड़ खुदरा कारोबारियों एवं दुकानदारों को प्रधानमंत्री कर्मयोगी मानधन योजना के तहत पेंशन योजना का लाभ दिया जाएगा। असंगठित क्षेत्र में जिन मजदूरों ने इस योजना को अपनाया है उन्हें 60 साल की उम्र के बाद 3 हजार रुपये मासिक पेंशन दिया जाएगा। वित्त मंत्री के अनुसार असंगठित क्षेत्र में इस योजना को 30 लाख मजदूरों ने अपनाया है। वित्त मंत्री के अनुसार गत वर्ष 64.37 अरब डॉलर का एफडीआई आया जो उसके पूर्ववर्ती वर्ष से 6% ज्यादा है। वित्त मंत्री ने कहा वे इस लाभ को और बेहतर बनाने के लिए नए प्रस्ताव कर रहीं हैं जिससे भारत विदेशी निवेश  के लिए एक आकर्षक स्थान हो सकेगा। वित्त मंत्री ने आश्वासन दिया है कि किराए वाले मकानों को प्रोत्साहित करने के लिए कई सुधार किए जाएंगे। वर्तमान कानून बहुत पुराने हैं।  इसमें पट्टा देने वाले और पट्टा लेने वाले दोनों के संबंधों की समस्याओं का ढंग से निदान नहीं करता। वित्त मंत्री ने कहा कि श्रम कानूनों को भी सरल बनाया जाएगा। वित्त मंत्री ने भविष्य की योजनाओं का जिक्र करते हुए कहा कि 2022 तक प्रत्येक गांव के हर परिवार में बिजली और स्वच्छ इंधन युक्त रसोई घर की सुविधा होगी। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत तीसरे चरण में एक लाख पच्चीस हजार किलोमीटर सड़कें बनाई जाएंगी जिस पर अस्सी हज़ार दो सौ पचास करोड़ रुपयों की लागत आएगी । प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत 2019 से 2022 तक जो इसके लायक होंगे वैसे लोगों को 1.95  करोड़ मकान मुहैया कराए जाएंगे। इनमें बिजली, रसोई गैस और शौचालय की सुविधा होगी।
          प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बजट की तारीफ की और कहा कि बजट लोगों को यह विश्वास दे रहा है कि सही दिशा है, गति सही है इसलिए लक्ष्य पर पहुंचना भी सही है। यह बजट 21वीं सदी के भारत का सपना पूरा करने वाला है। उन्होंने कहा कि इस बजट से 5 लाख करोड़ की अर्थव्यवस्था को पूरा करने की दिशा में सहायता मिलेगी।
        गृहमंत्री अमित शाह ने बजट को समावेशी बताया है और कहा है कि इस ने किसानों, नौजवानों , महिलाओं तथा गरीबों के सपनों को पंख दिए हैं। सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने भी बजट की तारीफ की है और कहा है कि इस बजट में आधारभूत ढांचे को सबसे ज्यादा प्राथमिकता दी गई है।
         जबकि कांग्रेस ने इस बजट को निराशाजनक बताया है। पार्टी प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा कि बजट में गांव, गरीब और किसानों को हाशिए पर डाल दिया गया है। उन्होंने कहा कि क्या थोथे शब्दों से किसी समस्या के हल होगी?
        वैसे कुल मिलाकर बजट भारतीय समाज एवं अर्थव्यवस्था को एक  विशेष दिशा देने वाला कहा जाएगा।