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Wednesday, August 31, 2016

... और अब महामारी का खतरा

अखबारों की खबर है कि बिहार और अन्य क्षेत्रों में बाढ़ का पानी उतर रहा है और इसके बाद महामारी का खतरा बढ़ गया है। ख्घेतों की मेड़ गुम हो चुकी है। जगह जगह परे हुये पशुओं की सड़न से दुर्गंध फैल गयी है। चारों तरफ मच्छरों के लारवा पलते दिख रहे हैं जो कई महामारियों का संकेत दे रहे हैं। साधारण मलेरिया से लेकर इन्सेफेलाइटिस और डेंगू तक का प्रचंड भड़ व्याप्त है। डाक्टरों की कमी है तथा दवाएं भी पर्याप्त नहीं है।डाक्टरों  के मुताबिक अधिकांश बीमारियां पानी के जरिए ही होती हैं। डाक्टरों का मानना है कि राहत शिविरों में अगर लोगों को उबला हुआ पानी उपलब्ध कराया जाये तो लोगों को स्वस्थ रखा जा सकता है, पर यह एक दुष्कर कार्य है। बाढ़ के दौरान लोग अपनी जान बचाना चाहते हैं, ऐसे में शुद्धता उनकी प्राथमिकता नहीं होती। बाढ़ का पानी उतरने के बात कुएं इत्यादि भी प्रदूषित हो जाते हैं। बिहार की इस विनाशकारी बाढ़ को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर जिस प्रकार की संवेदनहीनता दिख रही है वह अत्यन्त दुखद है। पीने के पानी की समस्या तो है ही। कुएं भर चुके हैं, हैण्डपम्प बेकार हो चुके हैं, घर-बार उजड़ चुके हैं। पुनर्वास का, घर-झोपड़ी बनाने का, स्कूलों-अस्पतालों के पुननिर्माण का सारा काम कैसे होगा? गुजरात के भूकम्प या आंध्र प्रदेश के भीषण चक्रवात के समय जो राष्ट्रीय चेतना और संवेदना उभरी थी वैसा बिहार को लेकर क्यों नहीं हो रहा है? बहुत बड़ा भूभाग डूब गया है। सड़कें बह गई हैं। नदियों के तटबन्ध जगह-जगह टूट गये हैं। कई  लोग पानी में बह गये हैं। सैकड़ों मवेशी  भी जल में विलीन हो चुके हैं। अभी तो लोग बांधों पर, कहीं पेड़ों पर या कहीं ऊंची जगहों पर आश्रय लिये हुए हैं। वहीं उनके माल मवेशी भी हैं और सांप-बिच्छू भी। जिसने इस त्रासदी को झेला नहीं है वे इसकी कल्पना तक नहीं कर सकते हैं। जो लोग बिहार के निवासी हैं खास कर उत्तर बिहार के वे जानते होंगे कि एक जमाना था जब बिहार में कहा जाता था- बाढ़े जीयनी, सुखारे मरनी। इसके साथ ही दरभंगा-मधुबनी के कमला बलान नदी के आस-पास के लोग कहते थे- ‘आएल बलान त बनल दलान, गेल बलान त धंसल दलान।’ यहउस दौर की बातें हैं जब विकास के नाम पर बिन सोचे समझे लम्बी – लम्बी रेल लाइने नहीं बनायी गयी थीं और जमीन को ऊंचा करके सड़कों के कारण पानी का प्रवाह अवरुद्ध नहीं होता था। तब नदियों के किनारे तटबन्ध नहीं होते थे। बाढ़ का पानी धीरे-धीरे आता था, लोग अपना सामान आदि नाव पर लादकर आराम से ऊंची जगह चले जाते थे। तब बाढ़ का इतना भय नहीं होता था। बाढ़ के पानी में आयी गाद होती है खेतों में जमा हो जाती थी। इससे मिट्टी की उर्वरता बढ़ जाती थी। यह उपजाऊ मिट्टी बिना किसी खाद के फसलों को लहलहा देती थी। जब नदियों के किनारे तटबन्ध बने तो नदियों का तल गाद और कचड़े से भरता गया तो तटबन्धों के टूटने का सिलसिला शुरू हुआ। लोगों ने अपनी बस्ती-गांव बचाने के लिये तटबन्धों को तोड़ना शुरू किया। इस बार भी तटबन्ध तोड़े गये। शहरों को बचाने के लिये नदी की दूसरी ओर के तटबन्धों को बिना किसी पूर्व सूचना के इस बार भी तोड़ा गया। फलत: गांव के गांव बह गये हैं। अब इन गांवों के मृत लोग और मवेशी कितनी बड़ी महामारी पैदा करेंगे इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। यह केवल रोग तक ही सीमित नहीं होगा बल्कि आर्थिक महामारी का भी चक्र चलेगा। भुखमरी बढ़ेगी , कर्जे का जोर बढ़ेगा और फिर अन्य सामाजिक समस्याएं जन्म लेंगी। यही नहीं नहीं रिलीफ फंड की अफसरों और नेताओं द्वारा लूट खसोट का एक नया समां बंधेगा और इससे पीड़ितों की पीड़ा भी बढ़ेगी। कुछ साल पहले इस आपदा के प्रभाव पर बाहर कमाने वाले परिजनों की आर्थिक सहायता से थोड़ा मरहम लग जाता था। अब बिहार के प्रवासी जो विदेशों में या अन्य राज्यों में छोटी मोटी नौकरी कर के अर्थोपार्जन करते थे वे बेकार हो गये हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 60.26 प्रतिशत लोग घर लौट आये हैं। इस बार सुख की कब्र पर उगी दुख की यह घास कई नयी समस्याओं को जन्म देगी।

Tuesday, August 30, 2016

बिहार में भयानक बाढ़ : नेताओं की अदूरदर्शिता का नतीजा

बिहार में भयानक बाढ़ आयी हुई है। गंगा और उसकी सहयोगी नदियां उफन गयीं हैं और समस्त जलनिकासी व्यवस्था ठप हो गयी है। गंगा के तटवर्ती इलाके डूब गये हैं। लोगों का कहना है कि 1975 के बाद ऐसी बाढ़ नहीं आयी थी। वह भी बिना बारिश के। हालांकि बाढ़ जिन इलाकों में आयी है वहां के लिये यह कोई बड़ी बात नहीं हैं। यहां तक कि बच्चे भी उससे नहीं डरते हैं। बिहार में आयी इस बार की बाढ़ गंगा की जलवाही नदियों में आये उफान के कारण है। गंगा में कोशी, गंडक, बूढ़ी गंडक , घाघरा नदियां गंगा में मिलती हैं इस बार ये नदियां उफन रहीं हैं। गंगा ने तो पटना में रिकार्ड तोड़ दिया है। यहां, रविवटार को गांधी घाट में जल स्तर 50.52 मीटर था। राज्य के 12 जिले बाढ़ से बुरी तरह ग्रस्त हैं और इससे राज्य की 60 लाख आबादी प्रभावित हुई है और रविवार तक 127 लोग मारे गये हैं। हालांकि बिहार में बाढ़ कोई नयी बात नहीं है पर इस बार की विभीषिका सचमुच त्रासद है। जहां तक बारिश का सवाल है इस बार बिहार में औसत से 14 प्रतिशत कम बारिश हुई है। अतएव कम से कम बाढ़ के लिये कुदरत को इसबार दोषी नहीं कहा जा सकता है। यह हमारी अदूरदर्शिता का नतीजा है। पर्यावरण की चिंता किये बगैर गंगा में कई बांध बना दिये गये। इससे गंगा की जल वाही प्रणाली गड़बड़ा गयी है और गांगेय क्षेत्र में बाढ़ आ गयी। सोन गंगा से बिहार में मिलती है। बिहार आने से पहले वह मध्य प्रदेश से गुजरती है जहां रीवां में उसपर बांध बना दिया गया है। यह बांध 2006 में बना और जबसे बांध बना बाढ़ आने लगी। उधर बिहार के अलावा अन्य राज्यों में काफी बारिश हुई है। सोन का यह बांध जहां है वहां सामान्य से 30 प्रतिशत अधिक  वर्षा रिकार्ड की गयी है। इस वर्शा के कारण अगस्त के पहले हफ्ते में बांध के जलागार बंद रहे। लेकिन जब यह खबर आयी कि अभी और बारिश होगी तो जलागारों के दरवाजे थोड़े से खोल दिये गये ताकि वर्षा से आने वाला पानी यहां समा सके। रपटों के मुताबिक जब जलागार 95 पतिशत भर गये थे तो उसे खाली करने के लिये 19 अगस्त को बांध के 18 दरवाजे खोल दिये गये। यह पानी सोन में गया और वह चूंकि जाकर गंगा में मिलती है तो यह सारा पानी गंगा में जा गिरा और परिणामस्वरूप बाढ़ आ गयी। एक तरफ तो यह बांध समस्या है तो दूसरी तरफ नदियों के तल में जमने वाला कूड़ा भी एक बड़ा कारण है। पिछले 23 अगस्त को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भेंट कर अनुरोध किया कि वे नदियों की सफाई की योजना को तेजी क्रियान्वित करें। नदियों के तल में जमा कचड़े से उनके जल प्रवाह क्षमता को कम हो गयी है और जरा भी ज्यादा पानी आया नहीं कि बाढ़ आ जा रही है। नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री को बताया कि गंगा के इस कोप का कारण क्या है। उन्होंने इसके लिये फरक्का बांध को भी जिम्मेदार बताया। नीतीश कुमार के मुताबिक गंगा जब फरक्का से आगे बंगलादेश में प्रवेश करती है तो पद्मा हो जाती है। इधर बंगाल में बंगाल की खाड़ी में मिलने से पहले  इसके दो भाग बन जाते हैं एक भागीरथी और दूसरा हुगली। कोलकाता शहर हुगली के मुहाने पर बसा है और कलकत्ता बंदरगाह व्यापार का अच्छा केंद्र है। सन 1960 से ही नदी की तलहटी जमा कचड़ा कलकत्ता बंदरगाह के लिये समस्या हो रहा था। इससे बंदरगाह में पानी का पहुंचना कम हो गया था और जलपोतों का आवागमन बाधित होने लगा था। इस समस्या के समाधान के लिये 1975 में फरक्का बांध बनाया गया। उस समय यह कहा गया था कि इससे पानी पद्मा में जाने के बजाय हुगली में प्रवाहित होगा और हुगली की तलहटी में जमा कचड़ा बह जायेगा। लेकिन उस समय गंगा बेसिन पर पड़ने वाले प्रभावों का आकलन नहीं किया गया। जिन लोगों ने इसके विरोध में कुछ कहा उनको नजर अंदाज कर दिया गया। विख्यात इंजीनियर कपिल भट्टाचार्य के मुताबिक उन्होंने उस समय ही कहा था कि इससे हुगली में कचड़ा और बढ़ेगा और गंगा के आस पास के इलाकों में बाढ़ आयेगी।  उनकी बात नहीं मानी गयी और नतीजा सामने है।  इस समस्या से मुकाबले के लिये अब कहा गया कि कोलकाता बंदरगाह के तल में जमा कचड़े को साफ किया जाय। लेकिन यह प्रज्वधि इतनी मंहंगी थी कि सरकार के आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमणियम ने पश्चिम बंगाल सरकार को सलाह दी कि बंदरगाह बंद कर दिया जाय और इसकी जमीन का दूसरे काम के लिये उपयोग किया जाय। इसी सलाह के बाद पोर्ट ट्रस्ट ने अपनी जमीन बेचने का फैसला किया है। यही नहीं , सरकार नदियों को जोड़ने की जो योजना बना रही है उसके परिणामों के बारे में भी सोचना होगा। अगर सरकार ने इस समस्या पर अभी ध्यान नहीं दिया तो आने वाले दिनों में समस्या और बिगड़ेगी।  कुल मिला कर यह कहा जा सकता है कि यह मानवीय अदूरदर्शिता का परिणाम है।

Monday, August 29, 2016

बढ़ती आबादी के खतरे

देश की आबादी के आंकड़े को अगर देखें तो अगरे चार वर्षों में हमारे देश की आबादी में काम करने वाले लोगों की संख्या लगभग 87 करोड़ हो जायेगी। यह दुनिया में काम करने वालें की सबसे बड़ी आबादी होगी। जब किसी राष्ट्र में इस तरह आबादी का विस्तार होता है तो उससे होनी वाले लाभ को आबादी का लाभ कहते हैं। साधारण तौर पर कहें तो यह कह सकते हैं कि जब अधिकांश लोग काम करेंगे तो स्वमेव आर्थिक विकास होगा। लेकिन यहां जो सामाजिक स्थिति है उससे तो हालत कुछ दूसरी नजर आती है। प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक 2015 में संगठित क्षेत्रों में बहुत मामूली रोजगार पैदा हुये। यहां संगठित क्षेत्र का अर्थ है बड़ी कम्पनियां या फैक्ट्रियां। इनके मुकाबले असंगठित क्षेत्र में ,जहां किसी सामाजिक सुरक्षा या वेतन का हिसाब किताब नहीं है, 2017 तक 93 प्रतिशत रोजगार के सृजन हो सकते हैं। इसमे हालात ये हैं कि ग्रामीण मजदूरी बहुत कम है और ठेके पर काम में 0.2 प्रतिशत वृद्धि है और 2015-16 में इसमें 1 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। सम्पूर्ण आबादी में60 प्रतिशत वे लोग है जिनकी नौकरियां रोजगार में नहीं बदल पा रहीं है और ये लोग अर्द्धनियोजित लोग हैं या अस्थाई काम में लगे हैं। नयी कम्पनियों का बनना कम हो रहा है और जो कम्पनियां हैं उनका विकास बहुत  धीमा है। इतना धीमा जितना 2009 में हुआ करता था लगभग दो प्रतिशत की दर से। बड़ी कम्पनियां , बड़े कारपोरेशंस और बड़े बैंक आर्थिक दबाव में हैं। जबकि रोजगार सृजन या नौकरियों की संख्या में वृद्धि के लिये इनका विकास जरूरी है। इसका अर्थ है कि एक बहुत बड़ी आबादी ऐसे वातावरण में फंसी हुई जिसमें रोजगार की भारी कमी है। आंकड़े बताते हैं कि भारत का 1991 के बाद तेजी से विकास हुआ तब भी चीन की तुलना में काम करने वाले लोगों की आधी आाबादी ही रोजगार पा सकी। 1991 से 2013 के बीच नौकरियों की तादाद  62 करोड़ 80 लाख से बढ़ कर 77 करोड़ 20 लाख होगयी जबकि इसी अवधि में जन संख्या में काम करने वाली उम्र के लोगों की संख्या पहले से 24 करोड़ 10 लाख बढ़ गयी। इससे साफ लगता है कि यह एक गंभीर चुनौती है। अगर आर्थिक स्थिति में बहुत बड़ा बदलाव नहीं आया तो यही स्थिति बनी रहेगी। दरअसल जिन देशों में अर्थ व्यवस्था का विकास हुआ है वहां शुरुआत कम मुनाफे और कम पूंजी वाले धंधे से हुई मसलन रेडीमेड कपड़ों से और अंत हुआ ज्यादा मुनाफे वाले और ज्यादा पूंजी वाले धंधों से जैसे मोटर गाड़ी उद्योग और इलेक्ट्रॉनिक उद्योग  से।  भारत में ये सारे सेक्टर्स हैं पर बहुत छोटे स्तर पर। उदाहरण के लिये देखें की तैयार कपड़ों के मामले में हम बंगलादेश, श्री लंका और वियतनाम जैसे देशों का मुकाबला नहीं कर पाते। वहां के कपड़े भारत की तुलना में सस्ते होते हैं। लेकिन विगत सात वर्षों से अर्थ व्यवस्था में मंदी की वजह से यह साफ पता चलता है कि इनकी भी मांग अच्छी नहीं है लिहाजा इसे उतना उपयोगी नहीं माना जा सकता है और ना इस पर निर्भर रहा जा सकता है। अतएव अगर पारम्परिक उपायों को नहीं अपनाया गया तो हालात बहुत खराब हो सकते हैं और अब समय भी कम है। ऐसे में यह सोचना कि सबकुछ सरकार ही कर देगी अक्लमंदी नहीं है। हमारे देश में विदेशी पूंजी आकर्षित नहीं हो पाने का मुख्य कारण है ढांचे की कमी और सम्पर्क का अभाव। इसके साथ ही एक दूसरा मुख्य कारण है हमारे देश में काम के योग्य लोगों का अभाव। यही कारण है कि शहरी उच्च वर्ग के लोगों को जल्दी काम मिल जाता है क्योंकि वे उचित शिक्षाड के सम्पर्क में होते हैं। लेकिन अधिकांश भारतीयों को यह सुविधा हासिल नहीं है इसलिये वे आधुनिक अर्थ व्यवस्था रोजगार पाने में कामयाब नहीं हो पाते हैं। यही नहीं बड़ी आबादी में बुनियादी कुशलता भी नहीं पायी जाती है ताकि वे ठीक से मजदूरी कर सकें खास करके जहां कौशल की जरूरत है। मसलन मोटर गाड़ी की असेम्बली लाइन में काम, छोटे छोटे पुर्जों की कारीगरी इत्यादि। दूसरी तरफ हरसाल स्वचालन की प्रक्रिया बढ़ती जा रही है और रोजगार घटते जा रहे हैं। प्रधानमंत्री ने इस समस्या को अच्छी तरह समझा है और इसीलिये ‘स्किल इंडिया’ का अभियान आरंभ किया है। लेकिन इसका परिणाम हासिल करने में समय लगेगा। क्योंकि अपने देश में सामान्य स्कूली शिक्षा की औसत स्थिति अच्छी नहीं है। इस पर जितना सोचा जाय समस्या उतनी गंभीर दिखने लगती है। अगर जल्दी कोई राह नहीं निकाली गयी तो व्यापक सामाजिक अशांति की प्रबल आशंका है।

कश्मीर :  अब भी सरकार बात ही करना चाहती है

दो दिन पहले खबर आयी कि गृहमंत्री राजनाथ सिंह के सामने कश्मीर की नेता महबूबा मुफ्ती ने आपा खो दिया और राजनाथ सिंह को उन्हें शांत कराना पड़ा। खबर है कि वहां पैलेट गन की जगह भीड़ को भगाने के लिये मिर्च वाले गोले दिये जायेंगे। यह एक तरह का रासायनिक अस्त्र है जिसे रसायन शास्त्र की भाषा में नो​विएमाइड कहते हैं।  कहने को तो यह सुरक्षित रसायन है पर उपयोग के बाद की स्थिति अभी परखी नहीं गयी है और फिलहाल इंस्टीट्यूट ऑफ टॉ​क्सिकोलोजी में इसका परीक्षण चल रहा है। लेकिन क्या इससे समस्या का समाधान हो सकेगा? इसे लिखे जाने तक कश्मीर में उपद्रव में 70 लोग मारे गये जिनमें दो पुलिसकर्मी भी शामिल थे साथ ही लगभग 4 हजार लोग आहत हो गये। गत 8 जुलाई को हिजबुल मोजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी को मारे जाने  के बाद यह उपद्रव आरंभ हुआ था। कई इलाकों में अभी भी कर्फ्यू है। यह उपद्रव पाकिस्तान कुख्यात आतंकी गिरोह लश्कर- ए – तैयबा की शह पर हो रहा है। एन आई ए द्वारा गिरफ्तार किया गया लश्कर का एक सदस्य बहादुर अली ने इस आशय का बयान भी दिया है। अन्य सबूतों से भी ऐसा ही प्रमाणित होता है। इस समस्या की जड़ वह नहीं है जो दिख रही है। सबसे पहले तो राज्य सरकार और केंद्र सरकार ने पूरे मामले को नासूर बनने दिया। मौजूदा राज्य सरकार की मुखिया महबूबा मुफ्ती , जो आज आग बबूला हो रहीं हैं, ने सियासी फायदे के लिये मामले को बिगड़ने दिया। उन्होंने सत्ता संभालते ही कश्मीर में त्रिस्तरीय (थ्री टीयर) सुरक्षा व्यवस्था को भंग कर दिया। पहले सेना, अर्द्धसैनिक बल और कश्मीर पुलिस ने घाटी में सुरक्षा व्यवस्था संभाल रखी थी। बाद में सेना को वहां से हटा लिया गया। नतीजा यह हुआ कि घाटी में खुफियागीरी का नेटवर्क पूरी तरह ध्वस्त हो गया। इसके बाद जब हालात बिगड़े और इसके सबूत मिलने लगे कि उन्हें सीमा पार से शह दी जा रही है तब भी सुरक्षा बलों को उसके अनुरूप कार्रवाई करने की इजाजत देने की बजाय केंद्र और राज्य सरकारों ने ज्यादा से ज्यादा संयम बरतने का आदेश दिया। यहां तक कि पथराव करती भीड़ के सामने वे चुपचाप खड़े रहते थे। तब भी ज्यादतियों के आरोप लगते थे। नतीजा यह हुआ कि अनुभवविहीन और आसूचनाहीन प्रशासन ने सुरक्षा कार्रवाइयों को बुरी तरह बाधित किया। इसके बाद भी यानी 9 जुलाई को सड़कों पर प्रदर्शन की शुरुआत के बाद अभीतक एक भी ऐसी कार्रवाई नहीं की गयी जिससे लगे कि विद्रोह को दबाने का काम चल रहा है। केवल 15 अगस्त को श्रीनगर में आतंकियों या कहें प्रदर्शन कारियों से सुरक्षा बलों की मुठभेड़ हुई ​जिसमें प्रमोद कुमार सहित सुरक्षा बल के दो  जवान शहीद हो गये। इस शहादत से सबक लेने के बदले राज्य सरकार ने कार्रवाई रोक दी। उसे खौफ था कि वहां प्रदर्शन उग्र हो सकते हैं। इससे अलगाववादियों के हौसले बढ़ गये। सुरक्षा बलों के जवान लाचार हो फकत दर्शक बने रहते हैं लेकिन अलगावादी 9 जुलाई से अब तक 19 हमले कर चुके हैं। जिसमें सुरक्षा बलों के तीन जवान और 8 नागरिक खेत रहे। उधर नियंत्रण रेखा पर सेना और बी एस एफ के जवान तैनात हैं। उन्होंने अपनी मुस्तैदी कायम रखी है और सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अबतक सीमापार से घुसपैठ के 52 प्रयास विफल कर चुके हैं। मौजूदा संकट पाकिस्तान की करतूत है। वह कश्मीर में शांति नहीं होने देना चाहता है। हमारे सुरक्षा बलों के जवान अपनी कूव्वत और मौजूदगी की हनक के बल पर वहां अभी भी हालात को सुधारने में लगे हैं। लेकिन संकट का स्थाई या स्पष्ट समाधान के लिये प्रभावशाली नेतृत्व की जरूरत है। बुधवार को महबूबा मुफ्ती ने थोड़ा गुस्सा दिखाया है और कार्रवाई की चेतावनी दी है लेकिन अनुभव बताता है कि यह गीदड़ भभकी है। क्योंकि गत 10 अगस्त को गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने संसद में कहा कि सरकार वहां के राजनीतिक दलों एवं अन्य उदार  संगठनों से बात करने को तैयार है। यह दिल्ली की भीरुता की निशानी है। गृहमंत्री को यह मालूम है कि वहां के राजनीतिक दल और अन्य उदार संगठन इस मामले में कुछ नहीं कर सकते हैं।  इन लोगों से वार्ता के बारे में बातें करना एकदम मूर्खता है। लेकिन उस सरकार को क्या कहा जा सकता है जो उचित मौके पर कान में तेल डाले सो रही थी।

Friday, August 26, 2016

नये वर्ग का उदय

विख्यात इतिहासकार डा. बी बी मिश्र ने भारतीय मध्य वर्ग का इतिहास लिखते हुये यह बताया है कि ‘अंग्रेजों द्वारा लागू नयी सामाजिक नीतियों और आर्थिक परिवर्तनों के कारण भारत में मध्य वर्ग का अभ्युदय हुआ।’ इसके पहले देश में दो ही वर्ग थे एक उच्च वर्ग और दूसरा निम्न वर्ग। आज लगभग एक शताब्दी के बाद देश में एक और नये मध्यवर्ग का विकास होता दिख रहा है। समाज विज्ञान में फिलहाल इस वर्ग की कोई परिभाषा नहीं अंकित की गयी है और संभवत: पहली बार यहां उसे रेखांकित करने का प्रयास हो रहा है। सुविधा के लिये उसे मध्यवर्ती मध्य वर्ग कहा जा सकता है। यह वर्ग उंची जायों में या सवर्णों में सुविधाविहीन वर्ग है। आरक्षण के बाद दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों में एक ऐसा वर्ग उभरा जो सुविधा प्राप्त था। समाजवैज्ञानिकों ने इसे क्रीमी लेयर की संज्ञा दी। पर उच्च वर्ग में कुछ ऐसी जातियां हैं जो अभी अभी सुविधाविहीन हैं और पिछड़ी हुई हैं, जबकि उन्हें कोई सहयोग नहीं मिल रहा है। मसलन, गुजरात में पाटीदार, कर्नाटक में लिंगायत, आंध्र में कापुस , हरियाणा में जाट और सबके बाद लगभग सभी जगह गरीब ब्राह्मण। दलित और ओ बी सी के लोग राजनीति में निर्णायक भागीदारी के   बल पर सत्ता की नजर में हैं और पिछड़े समुदाय के लोग कई मामलों में आर्थिक रूप से ताकत वर हैं फिर भी वे पिछड़ों की श्रेणी को मिलने वाला लाभ पा रहे हैं। जबकि सवर्णों में कई जातियां हैं खास कर ब्राह्मण जिनमें अधिकांश आ​र्थिक रूप में निहायत कमजोर हैं नतीजतन समाज में वर्चस्व हीन हैं और राजनीति में उनकी ताकतवर पहचान नहीं है। शासन और अन्यान्य क्षेत्रों में उनका समानुपातिक प्रतिनिधित्व नहीं है। लेकिन, सामाजिक तौर पर  वे अभी भी ऊंचे माने जाते हैं । सवाल है कि ऐसे सामाजिक समूहों का कैसे वर्गीकरण हो और लोकतंत्रीकरण में उनके प्रभाव का आकलन कैसे हो। दलितों , ओ बी सी और तथाकथित सुविदाविहीन सवर्णों के ये लाग ऐतिसाहिक या समाजशास्त्रीय नजरिये से उच्चवर्गीय या इलीट नहीं कहे जा सकते हैं। सुविधा के लिये इन्हें मध्यवर्ती उच्चवर्ग कह लेते हैं ताकि उनके आंतरिक डायनामिक्स को समझने में सुविधा हो। देश के अधिकांश शहरी ब्राह्मण गावों से आये हैं। इनमें से अधिकांश आर्थिक दबावों से निपटने के लिये  अपनी जमीन जायदाद इत्यादि बेच दी है। पूजा पाठ का उनका पारंपरिक रोजगार अब लाभदायी नहीं रहा और नगरों के अधिकांश ब्राह्मण रोजी रोटी का कोई मुकममल साधन नहीं खोजपाते और सरकारी नौकरी मिलती नहीं तथा निजी क्षेत्रों की नौकरी का कोई ठिकाना नहीं होता। इसके लिये वे दलितों या ओ बी सी को मिलने वाली सुविधाओं को जिम्मेदार बताते हैं। समाज में एक खास किस्म का तीखापन भरता जा रहा है। गौरक्षक समूहों का उभार और दलितों पर होने वाले हमलों का एक बहुत बड़ा  कारण यह सामाजिक विपर्यय-परिवर्तन भी है। जरूरत है इस सुविधाविहीन सवर्ण वर्ग की पीड़ा और उसके मानस को समझने की जरूरत है। इस बात पर भी विचार करने की जरूरत है कि यह नयी स्थिति दलित एवं औ बी सी के विकास की स्थिति से कैसे भिन्न है क्योंकि इसमें सामाजिक स्तर और उससे जुड़ी ऊंचाई का भी ख्याल रखना जरूरी है। समाजिक प्रक्रिया  में यह नया विकास एक तरफ जहां सामाजिक परिवर्तन को इंगित करता है वहीं दूसरी तरफ राष्ट्रीय एकता तथा सामाजिक सहिष्णुता के सवाल को सम्बोधित करता है। सरकार, सियासत और बुद्िध्जीवी वर्ग को इसपर विचार करने की जरूरत है, क्योंकि यह भविष्य में एक विराट समस्या का स्वरूप ग्रहण कर सकता है।

Thursday, August 25, 2016

ऐसे कैसे मिलेगा गोल्ड मेडल

ओलंपिक खत्म हो गया। भारत को फकत दो मडल मिले और उनमें स्वर्ण नहीं था। 2012 में लंदन ओलंपिक में भारत को 6 मेडल मिले थे 20156 में रियो में केवल दो मिले। हाल ने अभिनव बिंद्रा ने रियो ओलंपिक की लंदन ओलंपिक से तुलना करते हुये कहा कि मेडल जीतने के लिये पैसों की जरूरत होती है। परफॉरमेंस को मेडल में बदलने के लिये रुपये की जरूरत होती है। अभिनव ब्रिंद्रा की इस बात के आाधार पर अगर देखा जाय तो खास तौर पर ओलंपिक पर और सामान्य तौर पर खेलों पर भारत जितना खर्च करता है इंगलैंड उससे चार गुना ज्यादा खर्च करता है इसी कारण उसे 67 मेडल मिले और भारत को महज दो। खेलों पर भारत में सरकारी खास कर केंद्रीय सरकार का व्यय लगातार घटता जा रहा है। भारत में सरकारी धन कई खेल फेडरेशनों में बंट जाता है और कई तरह के खेलों पर खर्च होता है। जबकि इंगलैंड में गिनेचुने खेलो और खिलाड़ियों पर यहां के कुल खर्चे से ज्यादा खर्च होता है। इंगलैंड में 15 साल से 35 साल की उम्र के एक करोड़ अससी लाख नौजवान हैं जबकि भारत में इसी उम्र के 4 करोड़ नौजवान हैं। गार्डियन अखबार के मुताबिक इंगलैंड मेडल पाने लायक एक खिलाड़ी तैयार करने के लिये 55लाख पौंड यानी 70 लाख डालर खर्च करता है। इसका खेलों पर कुल बजट 1.5 अरब डालर यानी 9000 करोड़ रुपये होता है इससे अलग ओलंपिक तैयारी में यह चार वर्षों में 35 करोड़ डालर खर्च करता है। जबकि इस मुकाबले में भारत केंद्रीय ओर राज्य बजट से मिलाकर प्रतिवर्ष खेलों पर मात्र 50 करोड़ डालर यानी 3200 करोड़ रुपये खर्च करता है। यह उससे एक तिहाई है। केंद्रीय बजट से ही युवा मामले एवं क्रीड़ा मंत्रालय के माध्यम से राष्ट्रीय क्रीड़ा फेडरेशन को भी धन दिया जाता है। यह फेडरेशन ही ओलंपिक के लिये खिलाड़ी तैयार करता है। इसे निजी संगठनों और सार्वजनिक उपक्रमों द्वारा भी धन मिलता है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2012-13 से 2015-16 के बीच चार वर्षों में क्रीड़ा प्रशिक्षण, खेल फेडरेशनों और कोच पर 750 करोड़ रुपये खर्च किये गये जबकि इसी अवधि में 109 खिलाड़ियों पर 22.7 करोड़ रुपये खर्च किये गये। यही नहीं 2016 को लक्ष्य कर ओलंपिक के लिये खिलाड़ी तैयार करने के उद्देश्य से 97 खिलाड़ियों पर 38 करोड़ रुपये खर्च किये गये। मान्यता प्राप्त खेल फेडरेशंस की तादाद 2016 में 57 से घट कर 49 हो गयी। साथ ही उनको मिलने वाली राशि में भी कटौती कर दी गयी। राष्ट्रीय क्रीड़ा विकास कोश द्वारा 109 खिलाड़ियों का चयन किया गया था ओर ओलंपिक जाने लायक केवल 30 हुये। ओलंपिक की तैयारी में भारत में प्रति खिलाड़ी प्रतिवर्ष 5.2 लाख रुपये खर्च किये गये। इसमें कोच और ढांचा विकास का व्यय भी शामिल है। जबकि इसी कार्य के लिये इंगलैंड ने अपने एक खिलाड़ी पर एक वर्ष में 10लाख डालर खर्च किये। यह तब जबकि इंगलैंड ने सन 2000 के ओलंपिक के लिये खिलाड़ियों को तैयार करने के उद्देश्य से अपना खर्च शुरू किया था। इन आंकड़ों से साफ जाहिर होता है कि खर्च और मेडल में सीधा संबंध है। इंगलैंड में सरकारी खर्चे के अलावा हर खिलाड़ी अपने लिये निजी तौर पर भी पैसे एकत्र करता है। कई खिलाड़ियों ने दान के लिये पोर्टल खोल रखा है। भारत में भी निजी फंडिंग हो सकती है पर यह कितनी होगी यह स्पष्ट नहीं है। भारत ने कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन पर खर्च किया था पर खिलाड़ियों पर खर्च नहीं कर पा रहा है। इसके चाहे जो कारण हों पर मेडल नहीं मिल पाने के कारण जो राष्ट्रीय अपमान होता है वह बहुत तीखा है। सरकार जब तक खेलों और खिलाड़ियों पर उचित तथा तुलनात्मक व्यय नहीं करेगी तब तक मेडल की आाशा बेकार है।