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Monday, May 30, 2016

भारत में उपद्रव के लिये आई एस ने बंगलादेश में बनाया हेडक्वार्टर

आई एस ने भारत में उपद्रव कर  साम्प्रदायिक सौहार्द मिटाने के लिये और  बंगाल , असम - बंगलादेश को लेकर एक मुस्लिम राज्य की स्थापना के उद्देश्य से भारत की सीमा से सटे खुलना के एक मदरसे में  अपना मुख्यालय बनाया है। सूत्रों के मुताबिक इसने पूरी योजना को चार चरणों में पूरा करने की तैयारी की है। पहला चरण है किशोरावस्था में प्रवेश किये बच्चों को ड्रग के माध्यम से मानसिक तौर पर बेकार बना दिया जाय। वे वही सुनें, सोचें और करें जो उनके बताने वाले कहें। उन्हें एक तरह से गाइडेड ह्यूमन बम बनाया जा रहा है। वे केवल बम को छिपा कर टार्गेट तक पहुंच जायेंगे। वहां उन बमों को एक साथ मोबाइल सिम के जरिये एक्टीवेट कर ब्लास्ट करा दिया जायेगा। दूसरा चरण है कि यहां की बहुसंख्यक बिरादरी के खिलाफ उनमें जहर भर दिया जाय जिससे वे मरने मारने पर उतारू हो जाएं। इससे कानून और व्यवस्था की ​स्थिति पैदा हो जायेगी। तीसरा चरण है , बाजार में उपलब्ध वस्तुओं से बड़े पैमाने पर बम बनाने की तकनीक की ट्रेनिंग और अंतिम चरण है हथियार चलाने की ट्रेनिंग।

 इसे भारतीय उपमहाद्वीप का मुख्यालय का दर्जा दिया गया है और इसका प्रमुख है आसिम मीर नाम का एक कुख्यात आतंकी सरगना। यह पहले अलकायदा में मुल्ला उमर के अंगरक्षकों में से था और मालबान कमांडर भी रह चुका है। उसकी नियुक्ति से भारतयि उपमहाद्वीप के सरकारी खुफिया तंत्रों में हड़कम्प सा मच गया है। क्योंकि इससे यह संकेत मिल रहे हैं कि चरमपंथ से आक्रांत बंगलादेश में दुनिया के शीर्ष आतंकी संगठन एकजुट हो गये हैं।

 ये लोग बड़ी सफाई से भारतीय सीमा में प्रवेश कर यहां के विभिन्न मदरसों में बच्चों का ब्रेनवाश कर रहे हैं। इसके लिये वे एक ऑडियो सुनाते  हैं। बेहद उत्तेजक शैली में बंगला में  तैयार किये गये इस ऑडियो में भारतीय मुसलमानों से जेहाद में शामिल होने  की अपील की गयी है। इस संगठन का कोड नाम है ‘काला पताका’। इसमें कहा गया है कि खोरासान से उठा यह पताका अब आगे बढ़ रहा है। अत्यंत संवेदनशील इस ऑडियो की कॉपी सन्मार्ग ने हासिल की है। खोरासान अफगानिस्तान- पाकिस्तान के इलाके को कहते हैं। सूत्रों के मुताबिक इस नये संगठन में अल नुसराह और अल सबाब जैसे संगठन शामिल हो गये हैं। इससे बंगलादेश, असम तथा भारत के विभिन्न इलाकों में उसकी पैठ बढ़ गयी है। अल नुसराह और अल सबाब पहले अलकायदा के साथ थे। बंगलादेशी खुफिया सूत्रों के मुताबिक इस नये संगठन (काला पताका) लगभग 250 आतंकी केवल विभिन्न तरह की ट्रेनिंग देने के लिये भारत में प्रवेश कर चुके हैं। बंगलादेश सरकार के उच्चपदस्थ सूत्रों ने सन्मार्गको जानकारी दी कि  नेशनल सिक्युरिटी इंटेलिजेंस ने भारतीय एन आई ए को 204 लोगों की सूची भी भेजी है। सूत्रों के मुताबिक  इन्हें भारत में घुसाने का काम वे स्मगलर करते हैं जो सोना और जाली नोट लेकर वहां से आते हैं।

क्या है इनकी योजना :भारत के असम , बंगाल और कश्मीर में उपद्रवियों को तैयार कर वहां सामाजिक सौहार्द बुरी तरह बिगाड़ दिया जाय। इसके लिये मदरसे के छोटे छोटे बच्चों को अफीम की बहुत मामूली डोज देकर उपरोक्त वीडियो दिखाया जाता है , धीरे –धीरे ये जेहाद और मारे जाने पर जन्नत में हूरों का ख्वाब देखने लगते हैं।  अभी राज्य में पहला चरण शुरू हो चुका है। इसमें लावारिस बच्चों को तरजीह दी जा रही है। इनपर होने वाला खर्च कोलकाता के हवाला कारोबारी देते हैं जिन्हें तस्करी के सोने के माध्यम से भुगतान किया जाता है। इस ट्रेड में तस्करी के सोने का कोड है ‘पीला’ और ड्रग्स को ‘सफेदा’ कहा जा रहा है।

सियासत हर जगह

किसी बड़े नेता के फेसबुक वाल पर कितने लाइक्स हैं या किसी नेता के ट्वीटर पर कितने फालोवर हैं इसका दुनिया के किसी देश में कोई महत्व नहीं है, केवल भारत में इसकी अहमियत है। अभी हाल में भाजपा कई नेताओं को हाई कमान ने केवल इसलिये झाड़ पिलाई है कि वे इंटरनेट पर ज्यादा सक्रिय नहीं हैं। भारत में इंटरनेट के महत्व का इससे पता चलता है। भारत में इंटरनेट का विकास किस तेजी से हुआ है इसका उदाहरण केवल मिलता है कि सन् 2012 में देश में 20 करोड़ इंटरनेट उपयोगकर्ता थे जो 2015 के अंत तक बढ़ कर दुगना हो गये। जो बातें अबसे दस साल पहले अविश्वसनीय थीं वह अब लोगों के टेलीफोन में दिखायी पड़तीं हैं। नेता और राजनीतिज्ञ इंटरनेट का लाभ समझने लगे हैं और उन्होंने इससे जुड़े वायदे करने भी शुरू कर दिये हैं। अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में मुफ्त वाई फाई की सुविधा देने का वादा किया था और उनकी विजय में इस वायदे की भूमिका भी थी। यही नहीं दिल्ली से सैकड़ों किलोमीटर दूर पटना में चुनाव के दौरान वाई फाई ने नीतीश कुमार की विजय में बड़ी भूमिका निभाई थी। केजरीवाल और नीतीश जी मे फर्क यही था कि केजरीवाल ने चुनाव से पहले वादा किया ओर अभी तक पूरा नहीं हुआ जबकि नीतीश कुमार ने पटना में पहले वाई फाई मुहैय्या कराया उसके बाद वोट मांगे। इसका मतलब यह नहीं है कि वाई फाई या इंटरनेट के बल पर चुनाव जीता जा सकता है। लेकिन चुनाव घेषणा पत्रों में इसका जिक्र इसके महतव को तो बताता है।  अब नेता इंटरनेट के जरिये मतदाताओं को सम्बोधित करते हैं तथा 3-डी परदे पर सामने आकर हकीकत का भ्रम पैदा करते हैं। मोदी जी की सेल्फी डिप्लोमेसी तो एक मिसाल बन गयी। यही नहीं उन्होंने चीनी चाहनेवालों के लिये चीनी सोशल मीडया वीबो में अपना एक इकाउंट बनाया। यह कितना बड़ा अंतरविरोध है कि एक ऐसे देश में जहां इंटरनेट पर खुलकर बोलने पर बंदिशें हैं वहां एक विदेशी नेता उनके नेता से खुल कर मिल रहा है और वहां के लोगों से आभासी बातचीत कर रहा है।  मोदी जी के फेस बुक वाल पर लगी प्रोफाइल को 3.3 करोड़ लाइक मिले हैं जो अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के बाद दूसरा है। ट्विटर में भी यही हाल है। यही नहीं अगर आप तनाव ग्रस्त हैं तो आपको समुचित आश्वासन के लिये भी मोदी उपलब्ध हैं। आप अपने स्मार्ट फोन पर नरेंद्र मोदी एप डाउनलोड करें और फिर देखें मजा।

इतना ही नहीं इस साल अप्रैल में भाजपा ने अपने लोकसभा सदस्यों की गतिविधि का विश्लेषण किया। यह देखा गया कि किस नेता ने अपना फेसबुक रखा है या नहीं यदि है तो वह सरकार और पार्टी के कार्यक्रमों को लोकप्रिय बनाने के लिये क्या कर रहा है और उसके फेसबुक पर कितने लाइक्स आये हैं, वे अपना ट्वीटर हैंडल का कैसे उपयोग कर रहे हैं। जो उसमें कमजोर पाये गये उन्हें नसीहत दी गयी कि वे इसमें सुधार करें। रेलमंत्री सुरेश प्रभु जिस तरह से अपने ट्वीटर हैंडल का प्रयोग कर रहे हैं उससे वह सत्याभासी लगता है। वे शिकायतों इत्यादि के ज्लिये माइक्रो ब्लॉग की सिफारिश करते हैं। ट्रेन में घायल एक बच्ो की पुकार या फिर परिवार के  खो  गये  सदस्य के बारे में ट्वीटर पर इत्तिला मिलते ही जवाब आता है कि वे अपने लोगों आपकी मदद का निर्देश दे रहे हैं। हां इस तरह की मदद अकसर व्यक्तिगत होती है न कि आप रेलवे में व्यापक सुधार या बुलेट ट्रेन चलाने की मांग करें और उम्मीद करें कि रेल मंत्री का उत्तर आयेगा। हालांकि इंटरनेट की कुछ कमजाेरियां भी हैं लेकिन एक आभासी दुनिया और तीव्र सम्पर्क के लिये तो यह राजनीतिज्ञों के लिये महत्वपूर्ण बन गया है। लेकिन विडम्बना यह है कि अभी तीन चौथाई भारतीयों की इंटरनेट तक पहुंच नहीं है। यह एक ताकवर माध्यम है अपने नेताओं को करोड़ों लागों के लिये कुछ करने के उद्देय से तकाजे करने का , बशर्ते यह सार्वदैशिक हो और सुलभ हो। हमारे देश में शौचालय नहीं तो विवाह नही या बीवी नहीं जैसे उदाहरण तो देखने को मिल गये हैं पर कभी क्या ऐसा आयेगा कि इंटरनेट नहीं तो सरकार नहीं, या वोट नहीं। ीजिस दिन ऐसी जागरुकता आ जायेगी उसी दिन सरकार बाध्य हो जायेगी। इंटरनेट से सियासत हर जगह होती दिखेगी।

 

जिस तेजी से इसका प्रचलन बढ़ रहा है कि अब वह दिन दूर नहीं जब अन्य राजनीतिक दल भी व्यापक तौर आृन लाइन दिखायी पड़ें।

देश के राजनीतिक स्वरूप में बदलाव के संकेत

चुनाव खत्म हुये, नतीजे आये ओर उनपर बड़े बड़े लोग बड़े बड़े तफसिरे भी पेश किये। कई लोगों का मानना था कि भाजपा ने सभी राज्यों में मनोनुकूल सफलता इसलिये नहीं पायी ​कि वहां क्षेत्रीय दलों का दबदबा था। ममता बनर्जी और जय ललिता की विजय इस बात को साबित करने के लिये मुफीद मिसाल भी है। पर अगर शास्त्रीय नजरिये से देखें तो पायेंग कि इसका जवाब दो सवालों में निहित है। पहला तो पारिभाषिक है और दूसरा है कि ये छोटे- छोटे राष्ट्रीय दल और क्षेत्रीय दलों की राजनीतिक अवसंरचना क्या है। इस विषय पर आगे बढ़ने से पहले यहां यह बता देना उचित होगा कि आने वाले कुछ वर्षों में छोट छोटे क्षेत्रीय दल बड़े दलों की जगह काबिज हो जायेंगे और अभी जो क्षेत्रव्यापी क्षेत्रीय दल हें वे राष्ट्रीय दलों की भूमिका में आ जायेंगे। आम बोचाल में हम क्षेत्रीय पार्टी  उसे कहते हैं जिसके वोटरों का आधार राज्य तक ही या इक्का दुक्का प्रांतों तक ही सीमित है। जैसे बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ओर केरल में वाममोर्चा। अब यहां पूछा जा सकता है कि क्षेत्रीय पार्टी कहते किसे हैं। क्या वह पार्टी जिसकी सोच या विचारधारा एक क्षेत्र की समस्याओं या भूगोल तक ही सीमित है या दो चार चुनाव हार कर एक क्षेत्र विशेष में सिमट कर रह गयी हो। चैसे कांग्रेस का ही उदाहरण लें। दूसरी तरफ अब जैसे वाममोर्चा है। उसकी विचार धारा राष्ट्रीय है और उस स्तर पर व्यवहारिक भी है तो उसे किस कोटि में रखा जाय। जबकि केवल में ही वह सरकार में है। साथ ही बसपा जो एक राज्य में है पर उसका दलित एजेंडा क्षेत्र की ही समस्या नहीं है। तर्क चाहे जो हो कांग्रेस ,भाजपा, वाममोर्चा और बसपा मुकम्मल तौर राष्ट्रीय पार्टी हैं। इनकी विचार धारा भी राष्ट्रीय है। अब दूसरी बात पर आयें क्षेत्रीय शब्द का उद्भव भाषा वैज्ञानिक है और क्षेत्र से जुड़ा है। लेकिन भाषा के आधार पर क्षेत्र का बटवारा हो रहा है। अभी विदर्भ का उदाहरण देखें और तमिल इलाकों में भी ऐसा ही देखा जा रहा है हो सकता है कल गोरखा लैंड भी एक हकीकत हो जाये।  लेकिन आने वाले दिनों में क्षेत्रीय भाषा अपनी अहमियत खो देगी और विकास की नयी मांग के साथ क्षेत्रीय दलों का उत्थान शुरु होगा जिसमें जाति , धर्म, सामाजिक वर्ग और शहरी – ग्रामीण कई तरह के गुणक कार्य करेंगे। अब जैसे जम्मू और कश्मीर एक क्षेत्र है या तीन क्षेत्रों –जम्मू , कश्मीर और लद्दाख - का एक फेडरेशन है , दिल्ली क्या है एक राज्य है या क्षेत्र है या शहरी मिनी प्रांत है। उसी तरह मुम्बई क्या है महाराष्ट्र है या भविष्य का इक शहरी सूबा है जिसकी मुख्य गतिविधि व्यावसायिक है वैसे ही बंगलुरु क्या है एक शहर या अंतरराष्ट्रीय केंद्र। राजनीतिक विश्लेषक अक्सर यह कहते सुने जाते हैं कि क्षेत्रवाद बढ़ रहा है जबकि सच तो यह है कि लोगों आकांक्षाएं बढ़ रहीं हैं। आने वाले दिनों में पार्टियां चाहे वे क्षेत्रीय हों या राष्ट्रीय अपने मतदाओं के अनुरूप अपना एजेंडा तैयार करेंगीं। भारत का राजनीतिक भविष्य अब तीन गुणकों पर आदारित होगा, उप क्षेत्रवाद ,क्षेत्रवाद और राष्ट्रीय।  दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की विजय का कारण भ्रष्टाचार के खिलाफ उनका आंदोलन नहीं था बल्कि उन्होंने दिल्ली को एक शहरी सूबे की नजर से देखा और स्कूल, सफाई, सुरक्षा, रोड जाम जैसे मसलों को उठाया। दूसरी तरफ भाजपा मोदी को लेकर उलझी रही। एक शहरी सूबा राष्ट्रीय आधार पर नहीं चल सकता है। उसकी अपनी समस्याएं हैं अपनी जरूरतें होती हैं। अगर ताज खत्म हुये चुनाव की ही बात लें तो पायेंगे कि उपक्षेत्रीय प्रभावों ने चुनाव में बड़ी भूमिका अदा की। बंगाल में 27 प्रतष्मिस्लिम आबादी है और बिहार और बंगाल से सटे सीमावर्ती चुनाव क्षेत्र में कांग्रेस को अच्छी सफलता मिली जबकि तृणमूल को उतने वोट नहीं मिल पाये।  वही हालत तमिल नाडु में भी देखने को मिली। वहां द्रमुक को शहरी पार्टी माना जाता है और उसे उत्तरपूर्वी और दक्षिणी जिलों में ज्यादा वोट मिले। यही नहीं मुस्लिम दलों में तेजी उभार हो रहा है। महाराष्ट्र असम और हैदराबाद में तो वे दिखने भी लगे हैं , केरल असी तरफ बढ़ रहा है। इस समय यह सोचना भी गलत होगा कि मुस्लिम अपना दल नहीं बना सकते। जब मराठा और यादव और दलित अपनी पार्टी बना सकते हैं तो मुस्लिम क्यों नहीं। जबकि वे सबसे बड़े जाति समूह हैं। केरल में भाजपा के गठबंधन और बी डी जे एस को 15 प्रतिशत वोट मिले। इसका साफ मतलब है कि वहां के हिंदू यह महसूस कर रहे हैं कि अल्पसंख्यक सियासत में उन्हे हाशिये पर पहुंचाया जा रहा है। यही हाल असम में भी देखा गया। वहां तो चुनाव के नतीजों से साफ संकेत मिलता है कि मुकाबला हिंदू बनाम मुसलमान था। बहुत जल्द वहां धामिक और अस्तित्व का संघर्ष शुरु होने वाला है। यही नहीं इस चुनाव से साफ संकेत मिल रहे हैं कि असम में वोट का पैटर्न दो तरह का था पहला, हिंदू गठबंधन को और दूसरा गैर हिंदू गठबंधन के यरूप में सामने आये।

इन सारे हालात से संकेत मिल रहे हैं कि भारत के राजनीतिक मानचित्र में जल्दी ही बदलाव आयेगा और अगर क्षेत्रीय दल व्यापक फेडरल पार्टियों में सम्मिलित हो जाते हैं तो उनका भविष्य सुनिश्चित है। भारत तेजी से विकसित हो सकता है बशर्ते सत्ता निम्नतम स्तर से विकसित हो हालात बताते हैं कि देश अब दिल्ली या राज्यों की राजधानियों से नहीं चल सकता। आने वाले राजनीतिक स्वरूप में बदलाव के संकेत मिल रहे हैं।

Saturday, May 28, 2016

दूसरी पारी : समेकित विकास की जिम्मेदारी

आज दीदी ने दूसरी बार दे के सर्वाधि बौद्िध्क राज्य बंगाल के शासन की ज्म्मिेदारी सम्भाल ली। देश के कई लोकप्रिय नेता तथा अभिनेताओं के हुजूम के बीच शस्य श्यामला धरती पुत्रों की तुमुल करतल ध्वनि के बीच जब दीदी ने पद और गोपनीयता की शपथ ली तो महानगर आह्लादित हो उठा। हरे और नीले रंग से सज सभास्थल खुद में ममता जी के कमिटमेंट की कहानियां कह रहा था। दीदी के कंधों पर राज्य के विकास की जिम्मेदारी जनता ने डाल दी। मनोविज्ञान और दर्शन में रंगों का इक खास महत्व होता है और वे खुद से ढेर सारी बातें कह देते हैं। बचपन में सब ने पढ़ा होगा राष्ट्रीय ध्वज के तीन रंगों के अर्थ। दीदी के ध्वज में जो नील अौर हरा रंग है उसका भी अपना एक दर्शन है। हरा रंग जीवन की समरूपता, उसके प्रवाह, उत्साह और विकास का प्रतिबिम्ब होता है जबनि नील वर्ण विश्वास के गाम्भीर्य और स्थाईत्व का आश्वासन देता है। हमारा देश प्राच्य दर्शन को मानता है और प्राच्य दर्शन में  अतीत कभी व्यतीत नहीं होता क्योंकि वह वर्तमतान को अग्रसारित करता है, वर्तमान के रूप में सामने रहता है तथा भविष्य की नीव रखता है। यानी, अतीत , वर्तमान और भविष्य तीनों जुड़े हैं। कृष्ण ने गीता में कहा है कि गत और अनागत सब सामने होता है बेशक हम इसे देख नहीं पाते या बीता हुआ समय कह कर भूल जाते हैं। दीदी ने विगत पांच वर्षों में जो कुछ भी बंगाल के लिये किया वह अतीत के विकास की आश्वस्ति देता है। अब राज्य की जनता को ममता जी से यह खास उममीद है कि वे रोजगार के अवसर पैदा करें तथा आम जन खास कर महिलाओं को सुरक्षा। बाकी चीजें तो खुद ब खुद पूरी हो जायेगी। यही नहीं उन्हे कर्ज के बोझ से लदे इस राज्य की वित्तीय स्थिति सुधारनी हेगी। क्योंकि अब विरासत में खस्ताहाल राज्य की बात पुरानी हो चुकी है तथा पिछला पांच वर्ष उनका ही शासन  था। वैसे रिजर्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि राज्य पर ओवर ड्राफ्ट बढ़ा है इसका मतलब है कि काम काज की दिशा में तरक्की हो रही है। यहीं नहीं सरकारी आंकड़े बताते हैं कि प्रतिव्यक्ति आय में इजाफा हुआ है। इसका मतलब खुशहाली बढ़ रही है। तरक्की करता  हुआ अगर आम आदमी की खुशहाली की बात करता है तो इसका स्पष्ट अर्थ है कि उसमें गतिशीलता है और प्रशासनिक ऊर्जा से वह भरा हुआ है। राजनीति के शास्त्रीय सिद्धांतों में यह सकारात्मता है और इससे शासन की सक्षमता स्पष्ट होती है। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में कहा है कि ‘राज्य की प्रजा को रोटी मुहय्या कराना ही राजा का कर्तव्य नहीं है बल्कि कितनी प्रतिष्ठा के साथ रोटी हासिल हो रही इसे देखना राजा का कर्त्तव्य है। ’ राज्य का विकास हो रहा है और उसके साथ प्रति व्यक्ति आय की दर बढ़ रही है इसका मतलब है जनता को रोजगार के साथ आर्थिक प्रतिष्ठा भी प्राप्त हो रही है। अब नयी सरकार के लिये यह पहली चुनौती है कि वह राज्य पर लदे कर्ज के बोझ को खत्म करे या कम करे। इसके लिये सरकारी खर्चों में कटौती या कहें किफायतशारी पहली जरूरत है साथ ही कठोरता से कर वसूली भी आवश्यक है। क्योंकि सरकार के आय का और कोई साधन नहीं है।  इसके लिये दीदी को जनता ने अधिकार दे​ ही दिया है, साथ ही सब जानते हैं कि दीदी में अत्यंत मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति है। अगर वह तय कर लेंगी कि करना है तो कोई कारण नहीं है कि वे सफल नहीं होंगीं। भ्रष्टाचार तो राष्ट्रीय समस्या है और राज्य में से इसे मिटाना या यह उममीद करना कि भ्रष्टाचार बिल्कुल समाप्त हो जायेगा यह एक यूटोपिया है। हां, सरकार की कड़ाई से उसकी व्यापकता में कमी आ सकती है। इसके लिये शासन में पारदर्शिता जरूरी है। जो ममता जी आसानी से कर सकतीं हैं। वे इसके सभी प्रकारों और स्वरूपों से पूरी तरह वाकिफ हैं। क्योंकि शासकीय सितम अपने संघर्ष के दिनों में उन्होंने बहुत ज्यादा झेला है। राज्य में उद्योग का विकास जरूरी है इससे ना केवल रोजगार बढेंगे बल्कि  राज्य सरकार  की आय भी बढ़ेगी। इसके लिये दीर्घकालिक और लघुकालिक मास्टर प्लान बनाया जाना जरूरी है। मास्टर प्लान को कार्यावित करने से यहां का आर्थिक वातावरण सुधरेगा और दीदी के कमिटमेंट यह संकेत देते हैं कि वे ऐसा कर सकेंगी।

राज्य की जनता ने बड़ी उम्मीद के साथ इस बार उन्हें अपना मुकद्दर सौंपा हैं। जनता को हरे और नीले रंग के दर्शन संदेशों पर पूरा भरोसा है।

Friday, May 27, 2016

आशाजनक भविष्य की उम्मीद

मोदी जी के शासन के ददो वर्ष पूरे हो गये ओर इसे लेकर मीडिया में कई तरह के रिपोर्ट कार्ड प्रकाशित किये गये। कुछ लोगों ने तालियां बजायीं और कुछ ने माथा पीटा। लेकिन यह सच है कि सारे अंतर्विरोधों के बावजूद भारतीय लोकतंत्र में मोदी जी का प्रसार बड़ा है। यही नहीं , विदेशों में जहां मोदी जी छाये रहे वहीं देश में दादरी और बीफ जैसे मामले भी उछले। मोदी जब अमरीका गये थे तो टाइम्स स्कवायर में उनके भाषण के दौरान पूरा शहर ‘स्टैंड स्टिल’ था। इस पर इकानोमिस्ट पत्रिका ने लिखा था ‘पेन इन द ए…’ अगले अंक में उसने माफी मांगतें हुये सफाई दी थी कि मेरा आशय वह नहीं था जो समझा जा रहा है। पत्रिका ने फकत शहर वासियों की स्तब्धता को अभिव्यक्त करने के लिये यह मुहावरा इस्तमाल किया था। इस अंतरराष्ट्रीय लोकप्रियता के बावजूद देश में सामाजिक और आर्थिक संघर्ष सुलग रहा है और डर है कि कहीं यह भड़कती ज्वाला ना बन जाय। इसे भांपते हुये दो वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में आयोजित समारोह में सरकार ने इंदिरा जी की गरीबी हटाओ की शैली में गरीबों को आर्थिक शक्ति देने की कोशिश का एलान किया। भाजपा की तरफ से एक नारा दिया गया कि‘मेरा देश बदल रहा है, आगे बढ़ रहा है।’ अच्छे दिन के नारों का नामलेवा ना था। सियासती इतिहास में दिलचस्पी रखने वालों को याद होगा कि 1971 में इंदिरा जी ने शहरी और ग्रामीण गरीबी का भावदोहन करने के लिये गरीबी हटाओ का नारा दिया था। अब सामने दो तीन राज्यों में चुनाव हैं और इसी को देखते हुये उन्होंने यह नारा बुलंद किया है।    इस जलसे में अमित शाह समेत समेत लगभग सभी बड़े नेता शामिल थे और यह जलसा तीन हफ्तों तक चलेगा। न्यूयार्क टाइम्स अखबार ने इस ​‘विकास पर्व’  के बारे में  लिखते हुये कहा है कि इसमें इस बात पर बल दिया गया था कि दो वर्ष की अवधि में भ्रष्टाचार का लेशमात्र भी देखने सुनने को नहीं मिला। विकास पर्व के दौरान वितरित करने के लिये तैयार परचे में कहा गया है कि महिलाओं और नौजवानों के विकास के लिये भी कार्य किये जा रहे हैं। राज्य मंत्री निर्मला सीतारामन ने अपने भाषण में पूववर्ती संप्रग सरकार के कार्यो की आलोचना करते हुये कहा कि उस काल में देश के नौजवान निराश थे आज उन्हें ‘भविष्य की आशा’ की संज्ञा दी गयी है। मंत्रियों ने दावा किया कि सरकार और उसके कार्य पूरी तरह पारदर्शी हैं पर राजनीतिक दलों को आर टी आई कानून के दायरे में लाने काम अभी तक लटका है ओर ऐसा क्यों हो रहा है यह बताने वाला कोई नहीं है। लेकिन जिस जनता ने उन्हें जिस आशा के साथ मोदी की सरकार को सत्ता सौंपी थी वह था ब्लैक मनी के उत्पादन को रोक लगाना पर ऐसा कुछ नहीं हो सका।  आर्थिक विकास के लाख दावों के बावजूद महंगायी बढ़ी है और आम आदमी का जीवन कष्टकर होता जा रहा है। सरकार किसानों के लिये एक नारा दे रही है ‘खुशी किसान खुशहाल देश’ , लेकिन सचाई यह है कि यहां किसान या तो आत्म हत्या कर रहा है या मजदूर बन रहा है। अनाज का उत्पादन तेजी से गिरा है। ​इसी दरम्यान विश्वबैंक की एक रपट में अर्थ शास्त्री गौरव दत्ता ने कहा है कि नयेंद्र मोदी को विरासत में एक खस्ताहाल अर्थव्यवस्था हासिल हुई थी। उसे सुधारने के क्रम में मोदी ने जो कोशिशें कीं वह सराहनीय थीं। हलांकि सभी प्वाइंटर्स बहुत ज्यादा मजबूत नहीं दिखते हैं पर उएनसे उम्मीद जग रही है। हां भारत के व्यवसाई और बड़े अधिकारी इससे बहुत खुश नहीं हैं क्योंकि सबको उम्मीद थी कि मोदी अब तर सबसे व्यापार समर्थक प्रधानमंेत्री होंगे पर ऐसा नहीं हुआा। बेशक मोदी नीतियां गढ़ने के मामले में बहुत पटु नहीं हैं पर वे नीति सुधारक जरूर हैं। हां यह बात सही है कि विकास की गति उतनी तेज नहीं है जितनी अन्य विकसित देशों की है पर गति सकारात्मक है यह आशाजनक है। मीडिया की लाख प्रशंसा के बावजूद प्रशासन में वह मैत्रीभाव नहीं आ सका जिसका उन्होंने वादा किया था। मोदी जी ने चुनाव में हर मौके पर कहा था कि ‘कम से कम सरकार , ज्यादा से ज्यादा शासन।’  पर, ऐसा नहीं हुआ। सरकार और शासन के साथ् जो पहले समीकरण थे वही अब भी हैं। आंतरिक राजनीति में तनाव के साथ द्वेष की भी कालिख दिखने लगी। विपक्षी दलों ने संसद से कई महत्वपूर्ण कानून नहीं पास होने दिया ओर जनता का पैसा व्यर्थ गया। यही​ि नहीं सरकार जब से बनी है तबहसे हर दो तीन महीने पर चुनाव में उलझ जाती है और इसके कारण विकास कार्य बाधित होते हैं। अब उन्हें यह कौन समझाये कि वे काम करें और अगर काम सही होगा तो चुनाव खुद जीत जायेंगे। पर ऐसा होता नहीं दिख रहा है। मंत्रियों और नेता इस बात को ज्यादा महत्व देते हैं कि ‘पहले से हम अच्छा कर रहे हैं। ’

अलबत्ता विदेशी मामलों में स्थिति थोड़ी सुदारी जरूर है। पर जैसा उनका  दावा था कि वे पाकिस्तान तथा चीन से सम्बंध सुधार लेंगे, पर हुआ इसका विलोम। ब्रकिंग्स इंस्टीट्यूट की इंडिया प्रोजेक्ट की डायरेक्टर ने अपनी एक रपट में कहा है कि अंतरराष्ट्रीय मडिया में अक्सर मोदी को उम्मीद का प्रतीक माना जाता है पर भारतीय मडिया में उनके खिलाफ कटाक्ष होने लगे हैं।

यह विडम्बना है कि राजस्थान में पाठ्यक्रम से नेहरू को हटाये जाने का फैसला भी इसी साल लिया गया जब मोदी सरकार के दो वर्ष पूरे हो रहे हैं। लगता है कि मोदी जी की नीतियों पर पार्टी की नीतियां हावी हैं।  गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर एक तरफ वे विकासपुरूष के रूप में ख्याति प्राप्त थे तो दूसरी तरफ उनपर कुछ लांछन भी लगे थे। उन लांछनों के संदर्भ में मोदी जी पर विदेशी अखबारों चर्चा है। इन सबके बावजूद आने वाला समय आशा जनक दिख रहा है।