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Saturday, November 28, 2015

कुपोषण से जूझता देश का भविष्य



28 नवम्बर 2015

संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि भारत में हर साल कुपोषण के कारण मरने वाले पांच साल से कम उम्र वाले बच्चों की संख्या दस लाख से भी ज्यादा है। दक्षिण एशिया में भारत कुपोषण के मामले में सबसे बुरी हालत में है। राजस्थान और मध्य प्रदेश में किए गए सर्वेक्षणों में पाया गया कि देश के सबसे गरीब इलाकों में आज भी बच्चे भुखमरी के कारण अपनी जान गंवा रहे हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर इस ओर ध्यान दिया जाए तो इन मौतों को रोका जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र ने भारत में जो आंकड़े पाए हैं, वे अंतरराष्ट्रीय स्तर से कई गुना ज्यादा हैं। संयुक्त राष्ट्र ने स्थिति को ‘चिंताजनक’ बताया है। भारत में फाइट हंगर फाउंडेशन और एसीएफ इंडिया ने मिल कर ‘जनरेशनल न्यूट्रिशन प्रोग्राम’ की शुरुआत की है। एसीएफ की रिपोर्ट बताती है कि भारत में कुपोषण जितनी बड़ी समस्या है, वैसा पूरे दक्षिण एशिया में और कहीं देखने को नहीं मिला है। रिपोर्ट में लिखा गया है, ‘भारत में अनुसूचित जनजाति (28%), अनुसूचित जाति (21%), पिछड़ी जाति (20%) और ग्रामीण समुदाय (21%) पर अत्यधिक कुपोषण का बहुत बड़ा बोझ है।’ विश्व बैंक ने इसकी तुलना ‘ब्लैक डेथ’ नामक महामारी से की है जिसने 18 वीं सदी में यूरोप की जनसंख्या के एक बड़े हिस्से को निगल लिया था। कुपोषण को क्यों इतना महत्वपूर्ण माना जा रहा हैं? विश्व बैंक जैसी संस्थाएं क्यों इसके प्रति इतनी चिंतित हैं? सामान्य रूप में कुपोषण को चिकित्सीय मामला माना जाता है और हममें से अधिकतर सोचते हैं कि यह चिकित्सा का विषय है। वास्तव में कुपोषण बहुत सारे सामाजिक-राजनैतिक कारणों का परिणाम है। जब भूख और गरीबी राजनैतिक एजेंडा की प्राथमिकता नहीं होती तो बड़ी तादाद में कुपोषण सतह पर उभरता है।

भारत का उदाहरण लें जहां कुपोषण उसके पड़ोसी अधिक गरीब और कम विकसित पड़ो​सियों जैसे बंगलादेश और नेपाल से भी अधिक है। बंगलादेश में शिशु मृत्युदर 48 प्रति हजार है जबकि इसकी तुलना में भारत में यह 67 प्रति हजार है। यहां तक कि यह उप सहारा अफ्रीकी देशों से भी अधिक है। भारत में कुपोषण की दर लगभग 55 प्रतिशत है जबकि उप सहारीय अफ्रीका में यह 27 प्रतिशत के आसपास है। भारत एक मजबूत लोकतंत्र है, जो मंगल तक अपना उपग्रह भेज चुका है। पर यहां के बच्चे अफ्रीका के निर्धनतम देशों की तुलना में कहीं ज्यादा कुपोषित हैं। लोकतंत्र की गंभीर विफलता का प्रतिनिधित्व करता भारत वैश्विक कुपोषण का केंद्र बन गया है। सरकारी आंकड़ों के (दूसरे आंकड़े तो और भी ऊंचे हैं) मुताबिक 39 फीसदी भारतीय बच्‍चे कुपोषण से ग्रस्त हैं। इस मामले में भारत की हालत बर्किना फासो, हैती, बंगलादेश या फिर उत्तर कोरिया जैसे देशों से भी बदतर है। तकरीबन 20 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में कुपोषण की तस्वीर तो और भी भयावह है। खुद सरकारी आंकड़े इसकी तस्दीक करते हैं कि राज्य में पांच वर्ष से कम उम्र के ज्यादातर बच्चे कुपोषित हैं। 2015 की वैश्विक पोषण रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तर प्रदेश की हालत अफ्रीका के तमाम देशों से खराब है। कुपोषण से शारीरिक विकास पर तो असर पड़ता ही है, इसका सबसे ज्यादा असर बच्चे के मानसिक विकास पर पड़ता है। बचपन में कुपोषण बच्चे के मानसिक स्वास्‍थ्य को वह नुकसान पहुंचाता है, जिसकी पूर्ति कभी नहीं हो सकती। कुपोषित बच्चे का दिमाग ठीक से विकसित नहीं हो पाता। यही वजह है कि बीच में पढ़ाई छोड़ने वालों में कुपोषित बच्चों का औसत ज्यादा होता है।
कुपोषण वास्तव में घरेलू खाद्य असुरक्षा का सीधा परिणाम है। सामान्य रूप में खाद्य सुरक्षा का अर्थ है 'सब तक खाद्य की पहुंच, हर समय खाद्य की पहुंच और सक्रिय और स्वस्थ जीवन के लिए पर्याप्त खाद्य'। जब इनमें से एक या सारे घटक कम हो जाते हैं तो परिवार खाद्य असुरक्षा में डूब जाते हैं। खाद्य सुरक्षा सरकार की नीतियों और प्राथमिकताओं पर निर्भर करती है। भारत का उदाहरण लें जहां सरकार खाद्यान्न के ढेर पर बैठती है (एक अनुमान के अनुसार यदि बोरियों को एक के ऊपर एक रखा जाए तो आप चांद तक पैदल आ-जा सकते हैं)। पर उपयुक्त नीतियों के अभाव में यह जरूरत मंदों तक नहीं पहुंच पाता है। अनाज भण्डारण के अभाव में सड़ता है, चूहों द्वारा नष्ट होता है या समुद्रों में डुबाया जाता है पर जनसंख्या का बड़ा भाग भूखे पेट सोता है। बाल कुपोषण के मामले में भारत की दयनीय हालत की वजह क्या है? इसे लेकर दो तरह की बातें सामने आई हैं। पहले विचार के मुताबिक, समाज में महिलाओं की खराब स्थिति का मातृ कुपोषण पर उससे कहीं ज्यादा असर पड़ता है, जितना अब तक माना जाता था। प्रिंसटन यूनिवर्सिटी की अर्थशास्‍त्री डायने कॉफे के मुताबिक, भारतीय परिवारों में ज्यादातर महिलाएं अंत में भोजन करती हैं, जिससे 42 फीसदी भारतीय महिलाओं का वजन गर्भावस्‍था से पहले काफी कम होता है। यही नहीं, गर्भावस्‍था के दौरान महिलाओं का जितना वजन होना चाहिए, भारतीय महिलाएं उसके आधे तक ही पहुंच पाती हैं। गर्भावस्‍था के अंतिम दौर में एक औसत भारतीय महिला का वजन उससे कम होता है, जितना कि उप-सहारा अफ्रीका की औसत महिला का गर्भावस्‍था की शुरुआत में होता है। नतीजतन बहुत-से भारतीय बच्चे गर्भ में ही कुपोषित हो जाते हैं, जिससे वे कभी उबर नहीं पाते।

Friday, November 27, 2015

राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप परिशिष्ट में 28 नवम्बर को प्रकाशित आलेख

बंगाल में नहीं बदलेगी सियासत
- हरिराम पाण्डेय
देश में राजनीतिक रूप से सबसे ज्यादा संवेदनशील कहे जाने वाले राज्य पश्चिम बंगाल में अगले साल चुनाव होने वाले हैं और सोशल मीडिया में चर्चा है कि यहां भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के लिये सरदर्द बन सकती है। दरअसल लोकसभा चुनाव के बाद सोशल मीडिया लोग सिरीयसली नहीं ले रहे हैं। फिर भी चर्चा के लिये तो है ही। भाजपा की सबसे बड़ी खूबी है कि वह अपने प्रचार तंत्रों के जरिये  मतदाताओं के दिमाग में अपने लिये स्पेस तैयार कर लेती है। यहां अभी​ से वह इस तरह की रणनीति अपना रही है। दूसरी तरफ जिस कम्बीनेशन ने बिहार में फतह दिलवाई उस कम्बीनेशन की तैयारियां यहां भी शुरू हो गयीं हैं। कहा जा रहा है कि यहां भाजपा के ‘साफ्ट’ सहयोगी तृणमूल के साथ उसका गठबंधन तो होगा ही नहीं और पिछले चुनाव में जिस कांग्रेस के साथ तालमेल था उसके मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सी पी एम)  के साथ जाने के आसार नजर आ रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी यहां तीखी लड़ाई के लिये दिमागी तौर पर तैयार है। वह अपने पुराने जातिगत और साम्प्रदायिक हथकंडों को आजमाने से गुरेज भी नहीं करेगी। हालांकि 30 नवम्बर को कोलकाता में भाजपा की एक रैली है जिसमें राज्य सरकार की विफलताओं को बताया जायेगा, दूसरी तरफ दिल्ली से इमोशनल गोले दागे जाने की तैयारी है। मंगलवार 24 नवम्बर को नयी दिल्ली के जंतर मंतर में बंगाली शरणार्थियों की एक सभा को भाजपा महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने सम्बोधित किया। जंतर-मंतर पर धरना दे रहे निखिल भारत बंगाली उद्वास्तु शरणार्थी समन्वय समिति के लोगों से मिलकर उन्हें न केवल भारत की नागरिकता दिलाने की बात कही बल्कि इस संबंध में गृहमंत्री से भी मुलाकात कराने का आश्वासन दिया।  निखिल भारत बंगाली उद्वास्तु शरणार्थी समन्वय समिति के लोगों ने मंगलवार को समता स्थल से लेकर जंतर-मंतर तक एक विरोध रैली का आयोजन किया। इस समिमि के सिर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का वरद हस्त है। समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ सुबोध विश्वास ने कहा कि बांग्लादेश का विस्थपित हिंदू आज भी विभाजन की त्रासदी की पीड़ा से त्रस्त है। सुबोध विश्वास ने कहा कि भारत सरकार और राज्य सरकार ने हमें राशन कार्ड, वोटर आईडी कार्ड दिया और हमें वोट बैंक के हिसाब से इस्तेमाल किया। समिति के मुताबिक भारत सरकार ने नागरिक अधिनियम 2003 संशोधित कर बंगाली हिंदुओं बौद्धो और ईसाइयों का नागरिक अधिकार छीन लिया। समिति के तत्वाधान में 16 राज्यों में संगठित तौर पर एक आदोलन जारी है। इनकी मांगों में नागरिक अनुसूचित बंगाली जाति प्रमाण पत्र, विस्थपित का भूस्वामी अधिकार, मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा और बांग्लादेश के अल्पसंख्यक हिंदुओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने की मांग शामिल है। शरणार्थियों की समस्या पश्चिम बंगाल की अत्यंत भावात्मक समस्या है। बंगाल के नब्बे प्रतिशत मध्यवर्गीय बंगाली किसी ना किसी रूप में शरणार्थियों से जुड़े हैं। बिहार में जो साम्प्रदायिक मसला ‘मिसफायर’ हो गया था उसे ‘रीसाइकिल’ कर हिंदू शरणार्थी मामले में बदलने का भाजपा न केवल प्रयास करेगी बल्कि बंगाल के हिंदू मतदाताओं को यह समझाने की कोशिश करेगी कि मुस्लिम घुसपैठियों का मुकाबला करने की इच्छाशक्ति केवल उसमें ही है। दूसरी तरफ छोटे स्तर पर ही सही मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और अनकी पार्टी ने भी लोगों के दिल- ओ- दिमाग में जगह बनाने का प्रयास आरंभ कर दिया है। बिहार में महागठबंदान की विजय के बाद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने ट्वटि किया कि ‘यह सहिष्णुता की विजय है।’ पार्टी प्रवक्ता डेरेक ओ ब्रायन ने ट्वीट किया ‘भाजपा हारी, भारत जीता।’यही नहीं भाजपा नेता और पिछले लोकसभा चुनाव में बीरभूम से पार्टी के प्रत्याशी जॉय मुखर्जी ने चुनाव आयोग पर टिप्पणी करते हुए कहा था आयोग हमारे हाथ में है और विधानसभा चुनाव में हम तृणमूल की चलने नहीं देंगे। इसके लिए उन्हें माफी मांगनी पड़ी थी। इसीके साथ पालिका चुनावों में भाजपा ने जानबूझ कर तृणमूल के कार्यकर्ताओं का विरोध नहीं किया कि ये बात मीडिया से आम जनता तक पहुंचे ​कि चुनावों में गड़बड़ी तृणमूल ही करती है भाजपा नहीं। अबसे पहले बंगाल की राजनीति की एक खूबी थी कि वह मतदाताओं की पसंदगी और नापसंदगी के बूते चलती थी। यहां का ‘इलीट’ मध्यवर्ग ही सियासत की दिशा तय करता था। अब हालात बदलने लगे हैं। निम्न मध्यवर्ग से एक नया वर्ग उत्पन्न हुआ है और वह नया वर्ग इस  ‘इलीट मिड्ल क्लास’ पर हावी हो गया है। इसी के साथ बदल गये हैं सियासत के तेवर। अब सियासत पसंदगी और नापसंद के घेरे से निकल कर वजूद बचाने और मिटाने के दायरे प्रवेश कर गयी है।  अबसे पहले वाममोर्चा, जो करीब साढ़े तीन दशकों तक सत्ता में कायम रही और आंतरिक समस्याओं के कारण उसे सत्ताच्युत होना पड़ा। तृणमूल कांग्रेस के साथ भी कुछ ऐसी ही दिक्कतें पेश आ रहीं हैं। फिर भी राज्य में मौजूदा सियासी हालात है उन्हें देख कर लगता है कि एकमात्र तृणमूल कांग्रेस ही       ‘उत्पादक राजनीति’ की मिसाल है। इसलिये  तृणमूल कांग्रेस के बिना प​श्चिम बंगाल की राजनीति अर्थहीन हो जायेगी। साथ ही , राज्य के मतदाताओं के समक्ष दूसरा को व्यवहारिक विकल्प भी नहीं है। अगर तृणमूल कांग्रेस अभी भी शांत होकर सही विकास कार्य करती है तो भाजपा के लिये बहुत स्कोप नहीं रह जायेगा क्योंकि देश भर में चुनाव वायदों के आधार पर लड़े जाते हैं और बंगाल ही एकमात्र ऐसा राज्य है जहां वायदों की संभावित विश्वसनीयता पर चुनाव लड़े जाते हैं। यहां बीजेपी को वोट पर्सेंटेज गिरावट के मोड में है। भारतीय राजनीति के पन्ने पलटें तो पहली बार गैर कांग्रेसी यानी सत्ता विरोधी ताकतें देश में पहली बार 1967 में एक साथ आईं थीं। उस वक्त दक्षिण और वामपंथी ताकतों ने हिंदी राज्यों में गठबंधन बनाया था और ऐसा गठबंधन कि कोई व्यक्ति कोलकाता से अमृतसर कांग्रेस शासित राज्यों में बिना घुसे पहुंच सकता था।बाद में 1975 के आपातकाल के बाद सत्ताविरोधी ताकतें जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एकजुट हुईं। फिर 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में और फिर 1996 में। लेकिन इस एकजुटता की उम्र बहुत लंबी नहीं रही। हालांकि ये भी सही है कि राजनीति में कोई स्थाई दुश्मन नहीं होता। कभी एक ही पार्टी में रहे और फिर लंबे समय तक एक-दूसरे को कोसने वाले लालू और नीतीश आज फिर एक साथ हैं। इसी तरह उत्तर प्रदेश में भी नवंबर 1993 और जून 1995 में सपा और बसपा मिलकर सरकार चला चुके हैं। 2004 में वामपंथी दलों ने केंद्र में उस यूपीए सरकार का समर्थन किया था जिसमें ममता बनर्जी केंद्रीय मंत्री थी। राजनीति संभावनाओं का खेल है। राजनीति में एक हफ्ता भी बहुत लंबा समय होता है। जबकि अभी कई महीने बाकी हैं। कोई भी जल्दी में नहीं दिखता, यहां तक लालू भी नहीं। कोलकाता में बीजेपी की मजबूत पकड़ मानी जाती है, लोकसभा चुनावों में ये दूसरे नंबर की पार्टी बन कर उभरी थी और 25 फीसदी वोट हासिल किए थे लेकिन निगम चुनावों में ये वोट घट कर 15 फीसदी हो गए। यही हाल रहा तो भाजपा  अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के साथ तीसरे और चौथे स्थान के लिए मुकाबला करती नजर आएगी। सभी अपफवाहों के बावजूद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी राज्य की जनता के मन में बहुत गंभीरता से कायम हैं और यहां तक कि प्रतिद्वंद्वियों तक के दिमाग में उनके लिये स्पेस है। बिहार में जिस तरह एंटी इंकम्बेंसी की हवा फैलाये जाने के बाद भी नीतीश ही जीते उसी तरस बंगाल में भाजपा की हर कोशिश के बाद समीकरण वही रहेंगे जो आज हैं।- लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं

कैसे कैसे मंजर सामने आने लगे हैं


27 नवम्बर 2015
संसद का शीतकालीन सत्र के पहले दिन लोकसभा में देश में गुरुवार को मनाए जा रहे पहले संविधान दिवस पर चर्चा हुई। चर्चा की शुरुआत करते हुए गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि हम संविधान की प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए काम कर रहे हैं। तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी इशारो-इशारों में सरकार पर निशाना साधा। राजनाथ सिंह ने कहा कि संविधान ने देश को एक दिशा दिखाई। इस संविधान के निर्माण में तमाम लोगों ने अपनी भूमिका निभाई और एक संतुलित समाज दिया। राजनाथ सिंह ने कहा कि डॉ. भीम राव अंबेडकर सच्चे अर्थों में एक राष्ट्र ऋषि थे। राजनाथ सिंह ने कहा कि बाबा साहब हमेशा देश हित की सोचते थे। सामाजिक तिरस्कार के बावजूद उन्होंने परिस्थितियों को बदलने के लिए लगातार काम किया और संविधान का संतुलन इसका उदाहरण है। उन्होंने कहा, 'उपेक्षा के बावजूद बाबा साहेब ने देश छोड़ने की बात कभी नहीं की और अपमान के बावजूद कभी कड़वाहट नहीं दिखाई।' सेकुलर शब्द को लेकर लगातार हो रहे विवाद पर उन्होंने कहा कि संविधान में सेकुलर शब्द का इस्तेमाल किया गया है लेकिन इसका मतलब धर्म निरपेक्ष नहीं होता। इस साफ मतलब है पंथ निरपेक्ष और इसी का इस्तेमाल होना चाहिए। सेकुलर शब्द का सबसे अधिक दुरुपयोग किया गया है। सोनिया गांधी ने मौजूदा सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि ‘हमने पिछले महीनों में जो कुछ भी देखा वो पूरी तरह उन मूल्यों के खिलाफ है जिसको संविधान द्वारा सुनिश्चित किया गया है। वह जिनकी संविधान में आस्था नही रही है, न इसके निर्माण में कोई भूमिका रही है वो आज इसका नाम जप रहे हैं, वह आज इसके अगुवा बनना चाहते हैं।‘ अपनी बात पूरी करते हुए सोनिया ने कहा कि ‘जिनकी संविधान में आस्था नहीं है ऐसे लोग आज संविधान की बहस कर रहे हैं, इससे बड़ा मजाक और क्या हो सकता है।' मनोवैज्ञानिक तौर पर देखें तो ऐसा लगता है कि देश में असहिष्णुता के बवंडर के मध्य संविधान की आड़ में सेकुलर शब्द के अर्थ को नये संदर्भ में पेश करने को एक बहुत लम्बे राजनीतिक प्रयास के तौर पर देखा जा सकता है। सबसे पहले यहां बता देना जरूरी है कि राष्ट्रपति के, एक के बाद एक ‘‘बहुलता’ और ‘‘सहनशीलता’ को भारतीय मूल्य बताने वाले दो वक्तव्य उस दबंगई की भाषा पर भारी पड़े जो असहिष्णु बयानों से बनाई गई थी। अगर कोई शोधार्थी पिछले महीनों में आई ‘‘असहिष्णुता’ संबंधी समस्त खबरों को एकत्र करे और उनका आंकड़ा बनाए तो मालूम पड़ेगा कि असहिष्णुता कुल मिलाकर एक नया वातावरण ही बन गई और इसका असर हमारे वातावरण की असहिष्णुता को ठोस बनाता गया।इसी के बरअक्स यह देखना आवश्यक है कि पिछले एक साल से अब तक जानी हुई तिथियों को नई-नई राष्ट्रीय तिथियों से बदलने की भी एक कवायद क्यों हो रही है। जिन दिवसों को हिलाया नहीं जा सकता उनसे जुड़े संदेश को पूरी तरह परिवर्तित कर देने की कोशिश तो साफ दिख रही है। गांधी जयंती को स्वच्छता दिवस में तब्दील कर गांधी की राजनीति और जीवन के मूल संप्रदायवाद विरोधी विचार को सार्वजनिक स्मृति से मिटा देने का षड्यंत्र पूरी तरह सफल नहीं हो पाया है, भले ही गांधी को सरकार का स्वच्छता अभियान का ‘ब्रांड एंबेसडर’ क्यों न बना दिया गया हो।जो चश्मा गांधी के चेहरे से छिटककर बिड़ला भवन की जमीन पर तब गिर गया था, जब नाथूराम गोडसे ने मुसलमानों का पक्षधर होने के अपराध की सजा देने के लिए उन्हें गोली मारी थी, उसे उठाकर संघ की सरकार ने सरकारी विज्ञापन में सजा दिया है।उसी तरह शिक्षक दिवस को शिक्षकों से छीनकर प्रधानमंत्री का उपदेश दिवस बना दिया गया है जिसमें शिक्षकों की उपस्थिति उनका उपदेश सुनाने के लिए इंतजाम करने वाले भर की रह गई है। राष्ट्र दरअसल कल्पना का खास ढंग का संगठन ही है। इसलिए प्रतीकों का काफी महत्व होता है. जिन प्रतीकों के माध्यम से हम अपनी राष्ट्र की कल्पना को मूर्त करते हैं, उनकी जगह नए प्रतीक प्रस्तुत करके एक नई कल्पना को यथार्थ करने का प्रयास होता है।एक तरफ जबरन मतदान, दूसरी ओर मतदान रहित ग्राम-पंचायत चुनाव, तीसरी तरफ जन प्रतिनिधि बनने के रास्ते में रोड़े अटकाना, यह सब उस भारतीय जनता पार्टी की सरकारें कर रही हैं जो आज धूमधाम से संविधान का उत्सव मनाना चाहती है।इसी सरकार के वित्त मंत्री राज्यसभा को गैरजरूरी ठहरा रहे हैं क्योंकि वह उनकी हर पेशकश पर अपनी मुहर नहीं लगा रही है।भाजपा की ही सरकार ने राजस्थान में उच्च न्यायालय के सामने मनु की प्रतिमा भी लगवा दी है। एक है वर्तमान की मजबूरी, यानी संविधान की रक्षा के लिए बना न्यायालय और दूसरा है भविष्य का लक्ष्य, यानी मनुस्मृति का भारत। गौर करें अभी भारत में असहिष्णुता का सबसे बड़ा बवंडर उठा हुआ है। ऐसे में भारत के संविधान की बुनियादी प्रतिज्ञा के शब्दों के नये प्रतिमान के तौर पर पेश करने का प्रयास।

ऐसे ऐसे मंजर सामने आने लगे हैं

गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं

संविधान आज उनके हाथों में है जो बरसों भारत को हिंदू राष्ट्र में बदल देने का सपना देखते रहे थे। वे जब संविधान का जश्न मनाएं, तो जश्न दर असल उस पर कब्जे का है।

Thursday, November 26, 2015

संसद में फिर हो सकता है हंगामा


26 नवम्बर 2015
आज से शुरू हो रहा संसद का शीतकालीन सत्र के एक बार फिर हंगामेदार होने के आसार हैं। विकास को गति देने के लिए आर्थिक सुधारों से जुड़े कदमों को आगे बढ़ाने के लिहाज से यह सत्र काफी महत्वपूर्ण है और सरकार चाहेगी कि इसका हश्र पिछले मानसून सत्र जैसा न हो। कई मुद्दों पर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच गतिरोध तथा दोनों के अपने अपने रुख पर अड़े रहने के कारण मानसून सत्र का काफी बड़ा हिस्सा हंगामे की भेंट चढ़ गया था। विभिन्न मुद्दों को लेकर दोनों के बीच पैदा हुई कड़वाहट समाप्त होने की बजाय बढ़ी ही है। संसद के शीतकालीन सत्र में विपक्षी दल असहिष्णुता के मुद्दे पर सरकार को घेरने की तैयारी में हैं, जबकि सत्ता पक्ष जीएसटी विधेयक को पारित कराने पर ध्यान केंद्रित करते हुए सभी मुद्दों पर चर्चा के लिए अपनी इच्छा जता चुका है। वाम नेता ने देश में 'बढ़ती असहिष्णुता' पर चर्चा करने के लिए एक नोटिस भी दिया है। उन्होंने बताया कि नोटिस को 'चर्चा के लिए पूर्व नोटिस' के तौर पर राज्यसभा के सभापति ने मंजूरी दे दी है, "इसलिए हम इसके विरोध में आवाज उठाएंगे..."। असहिष्णुता के मुद्दे पर नायडू ने कहा कि हम बहस के लिए तैयार हैं।विपक्ष अपने आक्रामक तेवर अगले सोमवार से जाहिर करेगा, जब सरकार संविधान और इसके निर्माता बीआर अंबेडकर की 125वीं जयंती के अवसर पर चर्चा के लिए दो दिन की विशेष बैठक के बाद अपने विधायी कामकाज का एजेंडा सदन में रखेगी।

बिहार में भाजपा की करारी हार से विपक्ष का मनोबल बढ़ गया है और इस सत्र में वह सरकार को घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा। उधर कांग्रेस ने भी अपने तेवर कड़े रखने के संकेत दे दिए हैं।असहिष्णुता पर छिड़ी बहस, सम्मान वापसी की होड़, दादरी कांड और इस बीच बिहार में महागठबंधन को मिली जीत ने विपक्ष के तेवर तीखे कर दिए हैं। पिछले सत्र में लोकसभा में सिर्फ 48 फीसदी और राज्यसभा में तो महज 9 फीसदी काम हो पाया था। बिहार चुनाव में बीजेपी को डबल घाटा हुआ है। अगर बीजेपी बिहार में सरकार बना पाती तो राज्य सभा में उसके नंबर बढ़ सकते थे, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। राज्य सभा में कांग्रेस के 67 सासंदों सहित यूपीए के 80 सदस्य हैं। यही वजह है कि अकेले कांग्रेस भी पूरे एनडीए (57) पर भारी पड़ती है।अभी ये तय नहीं है कि जेडीयू की पहल में समाजवादी पार्टी शामिल है या नहीं। बिहार की बात और है, राज्य सभा में मुलायम की पार्टी के पास 15 सीटें हैं जबकि जेडीयू के पास 12। अगर दोनों मिल जाते हैं तो कांग्रेस को इन्हें नजरअंदाज करने से पहले दो बार सोचना होगा। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि केंद्र सरकार गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स से जुड़ा संविधान संशोधन विधेयक संसद के शीतकालीन सत्र में पास कराने के लिए हर संभव कोशिश करेगी - खास तौर पर विपक्ष को समझाने की। जीएसटी बिल लोक सभा में पास हो चुका है. इसे राज्य सभा में पास होना है जहां संख्या मोदी सरकार का साथ नहीं दे रही है। जीएसटी बिल में कांग्रेस कुछ प्रावधान जोड़ने की मांग कर रही है। सरकार को उसकी ये मांग मंजूर नहीं हैं।संसदीय मामलों के जानकार के अनुसार संसद में 67 विधेयक लंबित हैं और इनमे से 9 विधेयकों को पिछले सत्र के दौरान पेश किया गया था। वहीं 40 बिल ऐसे हैं जिन्हें पिछली 15वीं लोकसभा के दौरान लाया गया था। इसके अलावा 18 लंबित विधेयक पहले की लोकसभा के पटल पर रखे गए थे, और वो आज भी ठंडे बस्ते मे पड़े हैं।सत्र शुरू होने से ऐन पहले कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने जिस तरह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को खुली चुनौती देते हुए भाजपा द्वारा उन पर लगाए जा रहे आरोपों की जांच कराने तथा दोषी पाए जाने पर जेल में डाल देने की बात कही है, उससे साफ है कि उनकी पार्टी सत्र के दौरान घमासान के लिए तैयार है।भाजपा की ओर से उनकी दोहरी नागरिकता तथा कांग्रेस नेताओं सलमान खुर्शीद और मणिशंकर अय्यर के पाकिस्तान में दिए गए बयानों को मुद्दा बनाने की भरसक कोशिश की जा रही है। रिपोर्टों के अनुसार तृणमूल कांग्रेस तथा वामपंथी दलों ने ‘असहिष्णुता’ के मुद्दे पर संसद में बहस कराने के लिए नोटिस देने की तैयारी कर ली है और उन्हें उम्मीद है कि इस मुद्दे पर समूचा विपक्ष उनके साथ खड़ा होगा। इस मुद्दे पर देश के कई साहित्यकारों और कलाकारों ने अपने पुरस्कार वापस लौटा दिए। यहां तक कि राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति को भी इस मुद्दे पर परोक्ष रूप से टिप्पणी करनी पड़ी।सूत्रों के मुताबिक सरकार का मानना है कि ये घटनाएं राज्य सरकारों की जिम्मेदारी हैं और जब पीएम खुद इसपर स्थिति साफ कर चुके हैं तो सत्तापक्ष को इन मुद्दों पर रक्षात्मक होने की जरूरत नहीं है। अगर विपक्ष इनपर बहस चाहता है तो सरकार को ऐतराज नहीं होगा।

काजल की कोठरी में दाग लागे ही लागे


25 नवम्बर 2015
भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर एक ‘उद्योगपति’ बाबा को पेट फुलाने- पचकाने की वर्जिश की दरी से उठा कर लड़कियों के कपड़े पहनने के लिये मजबूर करने वाले और फौजी वाहन चलाने वाले एक ड्राइवर को गांधी के रूप में प्रोजेक्ट कर खुद सी एम की कुर्सी पर बैठने वाले केजरीवाल उस लालू के मंच पर जा पहुंचे और उस लालू से गले मिले जिसे भ्रष्टाचार के मामले में सजा हो चुकी है। उन्होंने उस लालू प्रसाद से खुलेआम एकजुटता दिखायी जिस पर चुनाव लड़ने से रोक लगी है। जब यह खबर फैली तो लगे कहने यह एक सलीका है। केजरीवाल जी गले मिलने का तरीका तो एक ही होता है जो प्रेम का होता है। असली सवाल तो ये है कि क्या यह वही केजरीवाल हैं जो रोज भ्रष्टाचार के कागजों के पुलिंदे हाथ में लेकर व्यवस्था परिवर्तन के मधुर गीत सुनाया करते थे और अब यहां तक भूल गये कि यह वही लालू हैं जिन पर करोड़ों का चारा खाने का अपराध साबित हो चुका है। दो इंच मुस्कान होठों पे लिए मिले केजरीवाल लालूजी से। उनकी मुद्रा प्रेम पूर्ण थी ,निर्दोष थी। वैसी ही मुस्कान लिए अब वह पार्टी की बैठक में कह रहे हैं मैं तो हाथ ही मिला रहा था। उन्होंने मुझे खींच के गले लगा लिया। यहां तक तो ठीक लेकिन लालू के चेहरे पर भी कोई चाहत भरी मुस्कान नहीं थी? आपने ये नहीं बताया कि लालू ने आपके कान में कहा क्या था! कहीं ये तो नहीं कहा था कि रजिया गुंडों में फंस गयी! वैसे तो आप दोनों में कौन किसका उस्ताद है यह बतलाना मुश्किल है पर यह भी सत्य है कि आप उनके दोनों बेटों के समर्थन में भी बिहार पधारे थे। केजरीवाल शायद समझ नहीं पा रहे हैं कि लोकतंत्र क्या है? वे सब कुछ अपने चश्मे से देखते हैं। कभी आप के सबसे मजबूत सहयोगी रहे और केजरीवाल के दोहरे रवैये की शिकायत करने पर पार्टी से बाहर किए गए प्रशांत भूषण ने भी इसकी आलोचना की है। क्या केजरीवाल बड़ी मासूमियत के साथ ये कहना चाहते हैं कि मेरे साथ राजनीतिक बदखैली की गई। यह राजनीति का बलात्कार है? अरविंद केजरीवाल पर मनमाने ढंग से पार्टी चलाने का आरोप गाहे- बगाहे लगता रहता है, यदि केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी को अपनी पकड़ में नहीं रखा होता तो योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण जैसे लोग अभी भी पार्टी में होते। राजनैतिक दलों में एक व्यक्ति की पकड़ होना कोई नई बात नहीं है। सभी पार्टियां ऐसे ही चलती हैं, लेकिन आम आदमी पार्टी बनी थी सबसे हटकर इसलिए लोगों को लगा था कि यहां आंतरिक लोकतंत्र होगा। मगर ऐसा हुआ नहीं। विरोधियों को यहां भी दरवाजा दिखा दिया जाता है। उनकी बात यहां भी नहीं सुनी जाती। मसला आम आदमी पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक के पहले का है। इस बैठक में आप ने अपने संस्थापक सदस्य शांति भूषण को बुलाया था, मगर बैठक के पहले ही शांति भूषण ने आप को खाप करार दे दिया यानी, जहां पर मुट्ठीभर लोगों की ही चलती है, बाकी सब कठपुतली हैं। आम आदमी पार्टी की राष्ट्रीय परिषद में 300 सदस्य हैं और कार्यकारिणी में 24। प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव को निकालने के बाद कार्यकारिणी में केवल 14 सदस्य रह गए हैं। बैठक के बाहर कुछ नेता जिन्हें पार्टी से निकाल दिया गया वे पार्टी विरोधी नारे लगाते रहे और धरने पर बैठकर अपना विरोध जताते रहे। दिक्कत यह है कि अभी शील का निर्वाह करने वाले केजरीवाल कभी नाम ले-लेकर नेताओं को कोसते रहे हैं। लालू और मुलायम को उन्होंने अपनी ओर से भ्रष्टाचार का प्रतीक मान लिया। जब राजनीति के असली मैदान में आए तब उनको मजबूरियां समझ में आ रही हैं। फिर राजनीतिक तौर पर आप नीतीश के साथ खड़े हों, मगर लालू के साथ नहीं- क्या यह संभव है? जब आप नीतीश के साथ हैं और समारोह में जा रहे हैं तो आपको लालू के गले मिलना ही पड़ेगा। यही नहीं, यहां शरद पवार भी मौजूद थे जिनके खिलाफ केजरीवाल लगातार बोलते रहे हैं। केजरीवाल के साथ दिक्कत इस बात की है कि जिस तरह विरोधाभास की राजनीति वे करते हैं उसमें ऐसे मौके खूब आएंगे और उनको सफाई भी देती रहनी पड़ेगी। केजरीवाल को समझना चाहिए कि राजनीति में न आने के पहले राजनीति को भला- बुरा कहना, सभी को भ्रष्ट कहना, पार्टियों पर हिटलरवादी ढंग से चलाने का आरोप लगाना, सब सही है, मगर जब बात खुद पर आती है तब पता चलता है कि राजनीति काजल की एक कोठरी है जहां दाग तो लगता ही है।

गर थाली आपकी खाली है


24 नवम्बर 2015
देश के बड़े भूभाग के किसान हताश हैं। 20 राज्यों के 300 जिलों पर सूखे की मार है। संविधान के अनुसार कृषि राज्य का विषय है। चिन्ता का विषय है कि सरकार ने अकाल जैसी जमीनी हकीकत को सर्वोच्च वरीयता क्यों नहीं दी? कर्नाटक ने पूरी तैयारी के साथ केंद्र को सूचना दी। यूपी के साथ बिहार भी सूखे की चपेट में है। बिहार में चुनावी जीत का जश्न है। सूखे की मार महाराष्ट्र, तेलंगाना व झारखंड भी झेल रहे हैं। यूपी में बुंदेलखंड क्षेत्र की स्थिति पहले से ही भयावह है। इस राज्य में अतिवृष्टि और ओलावृष्टि की आपदा से पीड़ित किसानों ने आत्महत्या भी की थी। यह अलग बात है कि सरकार ने आत्महत्या के तथ्य स्वीकार नहीं किए। गत सितम्बर में अस्सी साल बाद जारी किए गए सामाजिक, आर्थिक और जातीय जनगणना के आंकड़े भारत की चमचमाती तस्वीर के पीछे का विद्रूप चेहरा उजागर करने के लिए काफी हैं। आंकड़े के अनुसार गांव में रहने वाले 39.39 प्रतिशत परिवारों की औसत मासिक आय दस हजार रुपये से भी कम है। आय और व्यय में असमानता की हर दिन गहरी होती खाई का ही परिणाम है कि कुछ दिनों पहले ही संयुक्त राष्ट्र के खाद्य व कृषि संगठन द्वारा जारी की गई रपट में बताया गया है कि भारत में 19.4 करोड़ लोग भूखे सोते हैं। हालांकि सरकार के प्रयासों से पहले के मुकाबले ऐसे लोगों की संख्या कम हुई है। हमारे यहां बीपीएल यानी गरीबी की रेखा से नीचे जीवनयापन करने वालों की संख्या को ले कर भी गफलत है। हालांकि यह आंकड़ा 29 प्रतिशत के आसपास सर्वमान्य-सा है। भूख, गरीबी, कुपोषण व उससे उपजने वाली स्वास्थ्य, शिक्षा, मानव संसाधन प्रबंधन की दिक्क्तें देश के विकास में सबसे बड़ी बाधक हैं। हमारे यहां न तो अन्न की कमी है और न ही रोजगार के लिए श्रम की। पिछले दिनों आई ए एस प्रशिक्षुओं ने प्रधानमंत्री को बताया कि देश में कागजों पर योजनाएं हैं, लेकिन कमी है तो उन योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए स्थानीय स्तर की मशीनरी में जिम्मेदारी और संवेदना की। जिस देश में नए खरीदे गए अनाज को रखने के लिए गोदामों में जगह नहीं है, जहां सामाजिक जलसों में परोसा जाने वाला आधे से ज्यादा भोजन कूड़ा-घर का पेट भरता है, वहां ऐसे भी लोग हैं, जो अन्न के एक दाने के अभाव में दम तोड़ देते हैं। महाराष्ट्र में अरबपति शिरडी मंदिर के पास ही मेलघाट में हर साल हजारों बच्चों की कुपोषण से मौत की खबर या फिर राजस्थान का बारां जिला हो या मध्यप्रदेश का शिवपुरी जिला, जहां आदिवासियों की बस्ती में पैदा होने वाले कुल बच्चों के अस्सी प्रतिशत के उचित खुराक न मिल पाने के कारण छोटे में ही मर जाने के वाकये इस देश में हर रोज हो रहे हैं। लेकिन विज्ञापन में मुस्कुराते चेहरों, दमकती सुविधाओं के फेर में वास्तविकता से परे उन्मादित भारतवासी तक ऐसी खबरें या तो पहुंच नहीं रही हैं या उनकी संवेदनाओं को झकझोर नहीं रही हैं। देश भर के कस्बे-शहरों से आए रोज गरीबी, कर्ज व भुखमरी के कारण आत्महत्या की खबरें आती हैं, लेकिन वे किसी अखबार की छोटी-सी खबर बन कर समाप्त हो जाती हैं। इन दिनों बुंदेलखंड की आधी ग्रामीण आबादी सूखे से हताश होकर पेट पालने के लिए अपने घर-गांव से पलायन कर चुकी है। वैदिक साहित्य में भी प्राकृतिक आपदाओं की चिन्ता का उल्लेख है। ऋग्वेद प्राचीनतम शब्द साक्ष्य है। यहां इन्द्र को वृत्रहन्ता कहा गया है। मैक्डनल ने वैदिक माइथोलोजी में वृत्र को ‘चीफ डेमन ऑफ ड्राट’ बताया है। वृत्र यानी सूखे का दानव। इन्द्र वर्षा लाते हैं, सूखे का दानव ढेर हो जाता है। सूखा है भी किसानहन्ता दानव। महाभारत के बाद युधिष्ठिर राजा बने। नारद आए। उन्होंने हालचाल पूछा। युधिष्ठिर ने कहा, आपकी कृपा से हमारी कृषि बादलों पर निर्भर नहीं है। कृषि बहुत बड़े किसान समुदाय की आजीविका है। कृषि उत्पादन व्यवसाय मात्र नहीं है। यह अन्न सुरक्षा की गारंटी भी है। विश्व खाद्य कार्यक्रम का यह भी मानना है कि आने वाले दो-तीन वर्ष तक खाद्यान्न और तेलों की कीमतें बढ़ती जाएंगी। इसके आकलन के अनुसार इस समय हालत यह है कि लगभग 70 फीसदी विकासशील देश खाद्यान्नों का आयात कर रहे हैं। वर्ष 2030 तक स्थिति और खराब होने वाली है। एक अध्ययन के अनुसार विकासशील देश अपनी आवश्यकता का अधिकतम 86 फीसदी खाद्यान्नों का ही उत्पादन कर सकेंगे, आयात पर उनकी निर्भरता और बढ़ेगी। मौजूदा समय में लगभग 10.3 करोड़ टन खाद्यान्न का आयात विकासशील देश कर रहे हैं। जो अगले 20 वर्ष में बढ़कर दोगुने से भी ज्यादा 26.5 करोड़ टन हो जाएगा। इस सबसे यह पता चलता है कि भारत में अन्न की कमी तो है ही, इस कमी की भरपाई के लिए अन्न के आयात की संभावनाएं भी अत्यन्त क्षीण हैं। भारत शायद ही किसी वर्ष अपनी आवश्यकता के अनुसार खाद्यान्न का उत्पादन कर पाता है, खासकर गेहूं के मामले में उसे वर्षों से आयात पर निर्भर रहना पड़ रहा है। दुनियाभर में अन्न की कमी को देखते हुए अब यह पहले से भी अधिक जरूरी हो गया है कि भारत पुन: अन्न-आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर हो। लेकिन भारत में कृषि की निरंतर अनदेखी करते जाने से स्थिति पहले से ज्यादा बदतर हो गयी है। दूसरी तरफ किसान बदहाल हैं। किसान खेती छोड़ रहे हैं। किसान हताश हैं। कृषि उत्पादन की गिरावट तिलहन, दलहन सहित अनेक आवश्यक वस्तुओं के अभाव को साथ लेकर आती है। इसलिए सूखे की उपेक्षा आत्महन्ता ही होगी। ऐसे में जर्मन कवि बेर्टोल्ट ब्रेख्त के इन शब्दों को याद करने की जरूरत है:

गर थाली आपकी खाली है

तो सोचना होगा

कि खाना कैसे खाओगे

ये आप पर है कि

पलट दो सरकार को उल्टा

जब तक कि खाली पेट नहीं भरता...
 

बदलेगा बिहार


23 नवम्बर 2015
नीतीश कुमार ने एक बार फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ ली है। विख्यात उपन्यासकार फणिश्वर नाथ रेणु के मुहावरे को उधार लें तो गांधी मैदान में आयो​जित शपथ ग्रहण समारोह बारहों बरण के लोग थे। इस ‘बारहों बरन’ की एक ‘समुचित’ व्यवस्था नीतीश कुमार ने महागठबंधन के टिकट वितरण में भी की थी। राजद, जदयू और कांग्रेस के प्रत्याशियों की घोषणा संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में नीतीश कुमार ने की थी और आदत के विपरीत जाकर एक जातिगत ब्योरा भी जारी किया था। महागठबंधन की इस सोशल इंजीनियरिंग को भाजपा और उसके घटक दल नहीं समझ सके। इस कारण चुनाव में उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी। लोकतंत्र में सरकार हर घटना के लिए जिम्मेदार होती है। भारत में हालांकि बाहरी सतह पर विचारधारा सेक्युलरिज्म की थी, लेकिन आजादी के बाद से अब तक कोई बड़ा सामाजिक बदलाव लाने की कोशिश नहीं की गई। इसलिए जातीय झगड़े एवं सांप्रदायिक तनाव सतह के नीचे बने रहे। जाति प्रथा की गैर-बराबरी खत्म नहीं की गई, बल्कि मंडल आयोग के जरिये उसे प्रोत्साहित किया गया। सेक्युलरिज्म अल्पसंख्यकों का रक्षा कवच बन गया। नई स्थितियों में उन पर हमले हो रहे हैं। लोकतंत्र में बहुत दिनों से दबे-कुचले और हाशिये पर छोड़े गए लोग सार्वजनिक रूप से सामने आ गए हैं। वे न तो सेक्युलर हैं और न उदारवादी, बल्कि वे भारतीय हैं। उनकी भाषा हमेशा से अलग रही है। बिहार में मंत्रिमंडल निर्माण में भी नीतीश कुमार ने इसी भारतीय सोशल इंजीनियरिंग का कमाल दिखलाया है। इस बार सरकार कोई जातिगत ब्योरा तो जारी नहीं कर सकती थी, लेकिन जिन 28 मंत्रियों ने शपथ ली है, उनका जातिगत ब्योरा तैयार किया जाए तो इस प्रकार होगा-यादव 7, मुसलमान 4, दलित 5, अति पिछड़े 4, कुशवाहा 3, राजपूत 2 और कुर्मी, भूमिहार और ब्राह्मण एक-एक। प्रतिशत में देखें तो यादव 25 प्रतिशत, दलित 18 प्रतिशत, मुस्लिम, अति पिछड़े, कुशवाहा, कुर्मी, सवर्ण में हर एक 14 प्रतिशत। दिल्ली में बैठे अभिजात वर्ग के समाजशास्त्री यह सबअल्टर्न सोशियोलॉजी नहीं समझ पाये और चुनाव में पिट गये। बिहारी समाज में इस जातीय समीकरण के मायने हैं। यह उनके पिछड़ेपन का भी परिचायक हो सकता है, या फिर उनके अतिरिक्त रूप से जागरूक होने का भी। यह काम विशिष्ट समाजशास्त्रियों या राजनीतिवेत्ताओं पर छोड़ हमें इस पर विचार करना चाहिए कि इस सरकार के साथ बिहार की नियति एकाकार हो सकेगी या नहीं? 64 साल के नीतीश कुमार के शपथ लेने के बाद जब उनसे 38 साल छोटे तेजस्वी यादव शपथ लेने आए तो कई लोगों को यह दृश्य खटका। ये और बात है कि छोटे भाई तेजस्वी ने बड़े भाई तेज प्रताप से पहले शपथ ली। अपेक्षा को उपेक्षा पढ़ देने की गलती कर तेजप्रताप ने विरोधियों को मौका दे दिया। उन लोगों की निगाहें सतर्क हो गयीं जो देख रहे थे कि वरिष्ठ नेताओं से पहले दोनों भाइयों का शपथ लेना कहीं मजबूत नीतीश के आंगन में मजबूत लालू का आगमन तो नहीं। मंत्रिमंडल में राजद और जेडीयू के 12-12 मंत्री हैं। कांग्रेस के चार मंत्री बनाए गए हैं। एक फार्मूला निकला जो सब पर लागू हुआ कि हर पांच विधायक पर एक मंत्री होगा। इनसे काम लेने में मुख्यमंत्री को ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी, लेकिन एक फायदा भी होगा कि ये अभी ‘खाली स्लेट’ की तरह होंगे। इनकी कार्य संस्कृति पर मुख्यमंत्री अपना प्रभाव बना सकेंगे। राजनीतिक रूप से यह ज्यादा महत्वपूर्ण इसलिए है कि राजद-जदयू की एक नई पीढ़ी प्रशिक्षित होगी। कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद लोक दल के कई वरिष्ठ नेताओं को किनारे कर जब लालू प्रसाद को प्रतिपक्ष का नेता चुना गया था, तब भी इस तरह की आशंका व्यक्त की गई थी कि युवा लालू प्रसाद समाजवादी विरासत को कैसे संभाल पाएंगे? सब संभल गया और बेहतर ही संभला, लेकिन इसमें दो राय नहीं हो सकती कि नये मंत्रियों को कड़ी मेहनत करनी होगी। पिछले दस साल में आधारभूत ढांचे अर्थात सड़क, बिजली को एक हद तक ठीक कर लिया गया है, लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में चुनौतियां भरी पड़ी हैं। जयप्रकाश आंदोलन का केंद्रीय विषय शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन था। नीतीश और लालू ने कभी साथ नारा लगाया था-‘राष्ट्रपति हो या भंगी की संतान, सबकी शिक्षा एक समान।’ नीतीश ने सरकार बनते ही समान स्कूल शिक्षा प्रणाली आयोग गठित किया था। सरकार ने उस पर कोई फैसला लिया होता तो गरीबों की शिक्षा में गुणात्मक परिवर्तन आते। तेजी से ज्ञान केंद्रित हो रहे विश्व में शिक्षा जरूरी हथियार है। पुराने जमाने में भी वैदिक ऋषि बिहार को नहीं समझ पाए थे। आज भी अभिजात और विकसित दुनिया के लोग बिहार को गंवार और हर तरह से पिछड़ा मानते हैं, बिहारियों का मजाक उड़ाया जाता है। उनके शब्दों में बिहार कभी सुधर नहीं सकता। बिहार मर रहा है, लेकिन इसी बिहार ने भाजपा की चुनौती को स्वीकार किया और तय है कि बिहार चुनाव के नतीजे देश में नई राजनीति के संदेश देंगे। जनता ने इस सरकार को हाथ पर हाथ धर कर बैठने और राज करने के लिए समर्थन नहीं दिया है, बिहार को बदलने के लिए दिया है।

वो सुबह कभी तो आयेगी


21 नवम्बर 2015
हमारा भारतीय समाज कई तरह की विचारधाराओं से ‘ग्रस्त’ है। कुछ लोग सरकार या सत्तारूढ़ दल के समर्थक हैं, कुछ विरोधी हैं और कुछ निष्पक्ष हैं। जो निष्पक्ष हैं उनमें कुछ ऐसे निष्पक्ष हैं जो निष्पक्षता का दिखावा करते हैं, समाज को, सरकार को और मीडिया को कोसते हैं। कोसने या आईना दिखाने की बातें कहीं नहीं पहुंचतीं कि देखो पेरिस को, याद है न 9/11, कैसे हुई थी वहां मीडिया की कवरेज़, कैसे पेश आया था वहां का समाज एक-दूसरे के साथ। और यहां क्या होता है… सम्मान लौटाने का ढोंग, असहिष्णुता फैल रही है या नहीं, इस पर परिचर्चा। प्रचंड वाक्-युद्ध। हर स्तर पर। सबमें ख़ुद को औरों से बेहतर, समझदार, संवेदनशील बताने की होड़ लग जाती है। अन्तहीन, अनुपयोगी, अनुपयोगी इसलिए क्योंकि देखते ही देखते सारी चर्चा और बहस, सच और छद्म के दलदल में जा फंसती है। अपनी-अपनी टीम के लिए नये-नये गोल दाग़ने और बड़ा स्कोर खड़ा करने की होड़ छिड़ जाती है। यहां ऐसे लोगों या समूहों की पीड़ा को रेखांकित करने का इरादा नहीं है बल्कि इस श्रेणी में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो ऐसी किसी भी दौड़ में शामिल नहीं हैं , जो किसी भी दरबार के दरबारी नहीं हैं और जो चाहते हैं कि समाज तरक्की करे। ये लोग इस अभागे देश के ऐसे असहाय प्राणी हैं जो चुनावी राजनीति के मैदान में एक दूसरे को नष्ट कर डालने और अपनी जीत के लिए किसी भी हद तक नीचे गिर जाने वालों में से किसी की भी जीत-हार पर तालियां नहीं पीटते, बल्कि सोचते हैं कि जीतने वाला गरिमा के साथ अपने वचनों-वादों का निर्वाह करेगा और हारने वाला बौराए बंदर की तरह इस-उस को काटने के लिए दौड़ने के बजाय गरिमा के साथ जनादेश को शिरोधार्य करेगा। ये लोग जो हर चुनाव के बाद आकलन करते हैं कि इस देश के लोकतंत्र की सभ्यतापूर्ण जीत हुई या असभ्यतापूर्ण बर्बर हार। ये लोग न तो महागठबंधन की जीत का जश्न मनाते हैं, और न दरबार की हार का मातम। ये उन लोगों में से हैं, जो चालू राजनीति की तमाम लंपटताओं, विद्रूपताओं, विकृतियों, बेहूदगियों के निर्बाध नंगे नाच के बावजूद जब कोई इस नंगे नाच को बंद कराने की बात करता है, अभद्र राजनीति के क्षुद्र, चालू मुहावरों को बदलने की कसम खाता है, देश-समाज को भ्रष्टाचार की महामारी से मुक्त कराने का वादा करता है, अपने कुत्सित स्वार्थो के बजाय जनता के हितों को अपनी राजनीति के केंद्र में स्थापित करने का वक्तव्य देता है, तो अनायास उस पर भरोसा कर लेते हैं। लेकिन ये लोग उनसे जैसे व्यवहार की अपेक्षा रखते हैं, उसे सीखने और अपनाने की प्रक्रिया बहुत लम्बी है। पीढ़ियों जितनी लम्बी। इंसान तोते की तरह नक़ल करना तो बहुत जल्दी सीख सकता है, लेकिन समझदार और विवेकशील इंसान बनने में, उसके जैसी हरकतें सीखने में, कई युग लग जाते हैं। आप पूछ सकते हैं कि इंसानियत को सीखने की पाठशाला कहां है? उसका ककहरा और व्याकरण क्या है? प्रश्न सटीक है। सार्थक है। आपको मालूम होना चाहिये कि इस पाठशाला का नाम समाज है। इन दिनों सबसे ज्यादा बहस असहिष्णुता पर है , लेकिन ये कैसे बताएं कि सहिष्णुता सिखाने का कोई क्रैश कोर्स नहीं होता और इसे वही सीखेगा और समझेगा जिसका वास्ता असहिष्णुता से पड़ा होगा। जिसने असहिष्णुता को झेला होगा। इस पर चर्चा की होगी। उसकी जड़ में गया होगा। क्योंकि इलाज तो जड़ से ही मुमकिन है,वर्ना हम तर्कों-कुतर्कों के दलदल में ही फंसे रहेंगे कि आतंकवाद का कोई मजहब होता है या नहीं? उस समाज ने मोदी जी के दिखाए गए सपनों पर भरोसा किया था, ‘सबका साथ सबका विकास’ के उनके नारे से स्वयं को जोड़ लिया था, बीमार और भ्रष्ट राजनीतिक शैली के स्थान पर स्वस्थ और जनपरक सर्वसमावेशी राजनीति करने के आपके वादे को इस समाज ने उम्मीद से देखा था। वास्तव में नये भारत की परिकल्पना लोगों के मन में उमड़ने-घुमड़ने लगी थी। लेकिन क्या हुआ। यही नहीं, अब बिहार की देखें , जब यह लिखा जा रहा है उस समय बिहार के विकास पुरुष शपथ ले रहे हैं। खबर है कि इस शपथ ग्रहण या कहें सत्ता के पाणिग्रहण समारोह में 20 करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च हुये हैं। काश कोई ऐसा होता जो बुरा बनकर भी जनता का यह पैसा बचा देता। लेकिन, कोई नहीं बोल रहा है। यहां तक कि जंगलराज का भय दिखाने वाले भी चुप हैं। भारत एक गहन अंधकार में फंस गया है। लेकिन नाउम्मीदी जैसी कोई बात भी नहीं है, वो सुबह कभी तो आयेगी, बस यही उम्मीद रखें।

युद्ध आई एस आई एस को नहीं मिटा सकता


20नवम्बर 2015
पेरिस पर हमला क्या हुआ पूरी दुनिया में एक खास किस्म की गोलबंदी आरंभ हो गयी। यह गोलबंदी अाई एस आई एस के खिलाफ है और यही समूह खुद स्वीकार करता है कि एक बहुत बड़ा वर्ग आई एस आई एस के साथ है। यानी, आई एस आई एस के साथी और उसके मुखालिफ दोनों ही दिखायी पड़ रहे हैं। एसे में दोतरफा हमले अक्सर युद्ध की परिसीमा में प्रवेश कर जाते हैं। अब सवाल उठता है कि क्या दुनिया एक और बड़ी लड़ाई की तरफ बढ़ रही है। एक ऐसी लड़ाई जिससे विश्व के वजूद का खतरा है, क्योंकि कहा जाता है कि कई इस्लामी आतंकवादी संगठनों के पास परमाणु हथियार भी हैं और ये आई एस आई एस के सम्पर्क में हैं। इसका सीधा अर्थ है कि जंग की सूरत में दुनिया को परमाणु खतरा है। इससे साफ हो गया कि इस समस्या का सैनिक समाधान नहीं है, जैसा फ्रांस करना चाह रहा है। तो क्या है समाधान? समाधान की तलाश से पहले हमें समस्या को समझना होगा। समस्या आई एस आई एस नहीं है बल्कि उसे चलाने वाले चंद ‘गंदे और बेवकूफ ’ वे लोग हैं जो गली मोहल्ले के ‘छेछड़ों’ की तरह हैं। विचारधारा और ताकत का जाम पीकर बौराए हुए गली के छोकरे। इसके बारे में अभी तक दुनिया की जो राय बनी है वह यकीनन उनकी मार्केटिंग और जनसंपर्क अभियान का ही नतीजा है। वे आम लोगों के सामने खुद को सुपरहीरो की तरह पेश करते हैं, लेकिन कैमरे से दूर वे सिर्फ रुग्ण किस्म के लोग हैं। इस बात का अर्थ कतई यह न लगाया जाए कि यहां बेवकूफी की हत्यारी संभावनाओं को कम करके आंका जा रहा है। वे पागलों की तरह खबर सुनते हैं , पर तथ्यों को अपने हिसाब से छांटकर ग्रहण करते हैं। वे पूरी तरह लकीर के फकीर हैं, तर्क-वितर्क से कोई मतलब नहीं। जो भी रटाया गया , रट लिया था। हर चीज उन्हें यकीन दिलाती है कि वे सही रास्ते पर हैं। एक ऐसी सर्वग्रासी प्रक्रिया शुरू हो गई है जो दुनिया को 'मुस्लिम बनाम अन्य' के टकराव की ओर ले जा रही है। सोशल मीडिया में अपनी दिलचस्पी की बदौलत वे पेरिस हमलों के बाद आ रही सारी प्रतिक्रियाओं को देख रहे होंगे और नारा लगा रहे होंगे कि 'हमारी फतह हो रही है।' विभाजन, भय, आशंका, नस्लवाद, बाहरी लोगों का डर आदि से जुड़ी तमाम खबरें उन्हें खुशी दे रही होंगी। यह विश्वास उनकी विश्वदृष्टि के केंद्र में है कि बाकी दुनिया मुसलमानों के साथ मिलकर नहीं रह सकती। हमेशा वे अपने इस यकीन को मजबूती देने वाले उदाहरणों की तलाश में रहते हैं। जर्मनी में शरणार्थियों के स्वागत वाली तस्वीरें उन्हें विचलित करती हैं। लोगों की एकजुटता, सहिष्णुता उन्हें फूटी आंख नहीं सुहाती। मतलब वे एकजुटता और सहिष्णुता से डरते हैं। इसलिये यहां सबसे बड़ा सवाल है कि आई एस आई एस को समाप्त कर कैसे एक बेहतर क्षेत्र का निर्माण हो। इस चुनौती के मुकाबले के लिए यह आकलन जरूरी है कि समस्या कितनी बड़ी है। अबसे साठ साल पहले चंद एशियाई तानाशाहों ने अपने आवाम से कहा था कि ‘आपकी आजादी को छीना जा रहा है और उसके बदले हम आपको देंगे बेहतरीन शिक्षा- स्वास्थ्यसेवा , निर्यातोन्मुख अर्थव्यवस्था, सर्वोत्तम ढांचागत सुविधाएं। जिनके माध्यम से आप इतने विकसित हो जाएंगे कि अपनी आजादी हासिल कर लें।’ लेकिन अरब दुनिया में तानाशाहों ने कहा, ‘हम आपकी आजादी छीन लेंगे और बदले में देंगे अरब इसराइल की जंग-एक ऐसा मुजस्सिमा जिसकी चमक में आपकी आंखें चौंधिया जाएंगी और आपको हमारी ज्यादतियां तथा भ्रष्टाचार नहीं दिखेंगे।’ इसलिये दुनिया को एकजुट कर यह कोशिश करनी चाहिये कि ‘जहां व्यवस्था नहीं है वहां व्यवस्था कायम करें, आतंक के मुकाबले मुस्लिम ब्रदरहुड को तरजीह दें। जहां व्यवस्था है उस समाज को ज्यादा से ज्यादा दूरंदेशी तथा आधुनिक विचारधारा वाला बनाए। इसके साथ ही जहां बेहतर व्यवस्था हो, जैसे कि संयुक्त अरब अमीरात, जॉर्डन और कुर्दिस्तान उसे ज्यादा से ज्यादा खुला समाज बनाने का प्रयास करें। ’इसके साथ ही आई एस आई एस द्वारा की जा रही हिंसा को नहीं भूला जाना चाहिये। इसके लिये जरूरी है कि एक बेहतर मुस्लिम समाज को बनाया जाय।

जनता की जेब सफाई बंद हो


19 नवम्बर 2015
केंद्र सरकार ने एक नया टैक्स लगा दिया है, वह है स्वच्छता अभियान पर अधिभार। इस साल तो ऐसा लग रहा है कि केंद्र सरकार की मौद्रिक नीति की ‘खूबियां’ हैं। पहली नये टैक्स, दूसरी प्राप्त हो रही टैक्स सुविधाओं का खात्मा और तीसरी टैक्स की दर में वृद्धि। इस वृद्धि दर की कड़ी में स्वच्छता पर अधिभार। कितना बड़ा विरोधाभास है कि यही सरकार विदेशी निवेशकों काे आश्वासन देती है कि टैक्स की दर समान रहेगी और उसे आसान बनाया जायेगा और वही सरकार देशवासियों के गले पर टैक्स का चाकू चला देती है। भारत सरकार के पास एक बजट होता है जिसमें मूलभूत सुविधाओं जैसे शिक्षा, सफाई और स्वास्थ्य के लिए प्रावधान होता है। यदि इसके लिए अतिरिक्त अधिभार लगाया जाता है तो साफ है कि सामान्य बजट की राशि को किसी दूसरे मद में खर्च किया जा रहा है अथवा उसकी फिजूल खर्ची हो रही है। पिछले दिनों से यह एक तरह से व्यवस्था बन चुकी है कि सरकार अधिभार लगायेगी ही। विगत बजट वर्ष में इस अधिभार से सरकार को लगभग एक खरब रुपये की आमदनी हुई थी। यह राशि कुल टैक्स की 13.14 प्रतिशत है। यह जो नया अधिभार लागू हुआ उस तरह के अधिभार नमक से लेकर सिनेमा तक पर लागू हो चुके हैं। नये अधिभार से सरकार को दस हजार करोड़ रुपये प्रतिवर्ष की अतिरिक्त आय होगी। इसका असर खानपान से लेकर रेल यात्रा तक होगा। कुछ लोग सोचते हैं कि इसे सहर्ष चुकाएं क्योंकि इससे देश के गांव, कस्बे व शहर साफ-सुथरे रह सकेंगे, जो गंदगी के चलते राष्ट्र की छवि धू​मिल करते हैं। दरअसल सफाई अभियान निचले स्तर से नियमित रूप से चलाया जाना चाहिए। इसके लिए कारगर सिस्टम बनाने की जरूरत है। दरअसल ऐसे जुटाया गया पैसा जरूरतमंद नगरपालिकाओं व पंचायतों तक नहीं पहुंचता। वे हमेशा अर्थाभाव से जूझती रहती हैं। जिसके चलते नागरिकों को मूलभूत सुविधाओं के अभाव से जूझना पड़ता है। यही नहीं ये अधिभार जिस तरह से लगाये जा रहे हैं उससे लगता है कि सरकार आपकी कमर तोड़ देना चाहती है। यही नहीं ये अधिभार देश के संघीय उद्देश्य से अलग हैं। इस तरह से प्राप्त राशि को केंद्र और राज्यों के हिस्से में विभाजित नहीं किया जाता है। महालेखा परीक्षक ने भी आपत्ति जतायी है कि इस तरह से होने वाली आय के व्यय का उपयुक्त जिक्र नहीं होता है। इस बात का खुलासा होना चाहिए कि इस धन का कितना हिस्सा राजनीति चमकाने और कितना हिस्सा सफाई अभियान पर खर्च होगा। पहले भी नरेंद्र मोदी पार्टी हित में राज्यों के लिए भारी-भरकम पैकेजों की घोषणा करते रहे हैं। देश में निर्धारित मद के धन को अन्यत्र खर्च करने का रिवाज रहा है। आखिर जब सरकार के आय के स्रोत बढ़ रहे हैं और तेल के दामों में गिरावट से अच्छा-खासा फायदा हो रहा है तो नए कर क्यों? क्या कॉरपोरेट जगत का सामाजिक दायित्व नहीं है कि वह स्वच्छता अभियान में योगदान करे? मोदी के विदेशी दौरों में विदेशी कंपनियों को भारत में करों में छूट का आश्वासन दिया जाता है। देश में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को करों में छूट देने के अदालती फैसलों को सरकार चुनौती नहीं देती। पिछले आम बजट में वेतनभोगियों को तो सरकार ने नाममात्र की छूट दी जबकि कॉरपोरेट को भारी छूट दी गई। दलील यह कि कर कम करने से उत्पादन बढ़ेगा। ये फार्मूला आम करदाताओं के लिए क्यों नहीं? सरकार ने बजट के दौरान कहा था कि स्वच्छता सेस केवल उन्हीं पर लगेगा जिनकी आय अधिक है, लेकिन इस तरह के एलान ने सबको चकित कर दिया है। लेकिन यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या सेस लगाकर जनता का जेब खाली करने मात्र से स्वच्छता अभियान सफल हो सकेगा। भारत में स्वच्छता एक बेहद पेचीदा और कठिन कार्य है। और जब तक इसके लिए सरकार मजबूत संकल्प के साथ स्वच्छता के लिए व्यावहारिक, सांगठनिक और तकनीकी ढांचा तैयार नहीं करती, यह प्रयास महज एक सद्विचार ही बना रहेगा। इसके लिए आधारभूत ढांचा सरकार को ही तैयार करना होगा। इसमें कॉर्पोरेट की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण होगी। कूड़ा उठाने की प्रक्रिया, उसकी डंपिंग और रीसाइक्लिंग और हर दो सौ कदम पर कूड़ेदान लगाने और उन्हें नियमित साफ करने का काम नगरनिगम ही कर सकेंगे, जनता नहीं। जबकि हम देख रहे हैं कि देश में नगरपालिकाओं और नगरनिगमों की कार्यप्रणाली पूरी तरह अव्यावहारिक और अवैज्ञानिक है। क्या उन्हें सुधारे बिना जनता पर अधिभार लगाने भर से यह अभियान अपेक्षित गति पकड़ सकेगा। यही नहीं अधिभार लगाने के मुफीद कारण भी होने चाहिये, साथ ही उससे इस बात की गारंटी होनी चाहिये कि उससे उद्देश्य की पूर्ति होगी। अब नागरिक सुविधाओं के लिए यदि अधिभार लगया जा रहा है तो भविष्य क्या होगा, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है।

जरूरी है आतंकवाद को परिभाषित करना


18 नवम्बर 2015
अगर मोदी की यात्रा फ्रांस हमले के एक दिन बाद हुई होती तो इतनी सफल नहीं होती। क्योंकि ऐसी यात्राओं का उद्देश्य होता है शुद्ध प्रचार। यदि फ्रांस हमले के बाद यह यात्रा होती तो इतना प्रचार नहीं मिलता जितना अब मिला है। लंदन के टाइम्स अखबार की अगर मानें तो वेम्बले थियेटर में मोदी की सभा में 60 हजार लोग मौजूद थे। किसी भी ब्रिटिश प्रधानमंत्री की सभा में उतने लोग एकत्र नहीं हुए थे। ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड केमरन उस सभा में बैठे थे। खबरों के मुताबिक वे हतप्रभ लग रहे थे। इस जश्न ने अपने पंख ब्रिटेन के साथ−साथ भारत में भी फैला दिए थे। यह मोर का नाच बिहार के कौओं की कांव−कांव को ढक देनेवाला था। वेंबले की रौनक के आगे बिहार की हार फीकी पड़ गई। एक क्या, कई बिहार भी हार जाएं तो कोई परवाह नहीं। विदेशों में बसे भारतीय ऐसा सोचें तो कोई बात नहीं लेकिन डर यही है कि हमारे नेताजी भी कहीं इसी तरह न सोचने लगें? नाचता हुआ मोर देखनेवालों को तो अच्छा लगता ही है लेकिन मोर स्वयं भी परम मुग्ध हो जाता है । इसी मुग्धावस्था में मोदी जी20 सम्मेलन में भाग लेने तुर्की गये। वहां विश्व नेताओं ने कहा है कि इस्लामिक स्टेट को हराने के लिए एकजुट सोच की जरूरत है। उन्होंने एक बयान जारी कर कहा कि वे 'आतंकवाद को मिलने वाली आर्थिक मदद से निपटने के लिए प्रतिबद्ध हैं’ और इसके लिए सरकारों के बीच सूचनाओं का आदान- प्रदान बढ़ाया जाएगा। बयान के मुताबिक चरमपंथियों को मिलने वाली आर्थिक मदद को प्रतिबंधों के जरिए भी रोका जाएगा। आम तौर पर विश्व अर्थव्यवस्था पर केंद्रित रहने वाले जी20 सम्मेलन में इस बार पेरिस हमलों का मुद्दा छाया रहा। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने कहा कि रूस की कुछ सीरियाई विपक्षी गुटों के साथ सहमति बनी है कि उनके नियंत्रण वाले इलाकों में हवाई हमले न किए जाएं। लेकिन ऐसी बहसें हर बार उस समय होती हैं जब इस तरह के हमले होते हैं और कुछ दिनों के बाद मामला खत्म हो जाता है। हमारी भावुकता बदल जाती है। याद कीजिए इसी साल एक सितंबर की एक तस्वीर ने पूरी दुनिया खासकर यूरोप को झकझोर दिया था। समंदर के किनारे तीन साल के बच्चे आयलन का एक शव पड़ा था। सीरिया से ग्रीस भागते वक्त तुर्की के पास नाव पलट गई और सब कुछ खत्म हो गया । इस तस्वीर ने शरणार्थी की समस्या को लेकर पूरे यूरोप में सनसनी पैदा कर दी थी। यूरोप पर आरोप लगा कि वो शरणार्थियों के प्रति संवेदनशील नहीं है। फ्रांस ने कहा था कि यूरोप को आपात स्तर पर इस समस्या के प्रति कदम उठाने होंगे। फ्रांस, जर्मनी, पोलैंड, ब्रिटेन में बहस होने लगी। सीरिया से भागने वाले शरणार्थियों को शरण दी जाए या नहीं। चार साल से सीरिया युद्ध ग्रस्त है। वहां अनगिनत लोग मारे गए और घायल हुए हैं। युद्ध से आजिज आकर लाखों लोग पलायन करने लगे। उन्हीं देशों में जिनकी सेना उनके घरों पर बम बरसा रही है। अब उन्हीं शरणार्थियों के खिलाफ आवाज उठने लगी है। फ्रांस ने हमले का बदला लेने के लिए इस्लामिक स्टेट के गढ़ माने जाने वाले रक्का पर हवाई हमला बोल दिया है। कभी यह सोचने का प्रयास नहीं किया गया कि अलकायदा खत्म होता है तो कैसे आई एस आई एस आ जाता है। आई एस आई एस धर्म की गोद से पैदा हुआ या कुछ मुल्कों की सोच से यह जानने की कोशिश नहीं की गयी। दावे किए गए हैं कि सीरिया की बागी सेना के लोग इसमें गए हैं। सद्दाम हुसैन की बची- खुची सेना के लोगों ने इसके आधार को मजबूत किया है। अमरीका और सीआईए का भी नाम आता है। अब सवाल है कि क्या यह जाने बगैर कि आई एस आई एस को किसने पैदा किया, उससे लड़ा जा सकता है। इसके पास हथियार और धन कहां से आ रहा है। आतंकवाद हमसे लड़ रहा है। हम उससे नहीं लड़ पा रहे हैं। फ्रांस ने कहा था कि यूरोप को आपात स्तर पर इस समस्या के प्रति कदम उठाने होंगे। फ्रांस, जर्मनी, पोलैंड, ब्रिटेन में बहस होने लगी है कि सीरिया से भागने वाले शरणार्थियों को शरण दी जाए या नहीं। चार साल से सीरियायुद्ध ग्रस्त है। वहां अनगिनत लोग मारे गए और घायल हुए हैं। युद्ध से आजिज आकर लाखों लोग पलायन करने लगे। उन्हीं देशों में जिनकी सेना उनके घरों पर बम बरसा रही है। अब उन्हीं शरणार्थियों के खिलाफ आवाज उठने लगी है। विमान से आतंकी ठिकानों पर हमला करने के साथ-साथ दुनिया को बताया जाना चाहिए कि तालिबान को किसने पैदा किया। अलकायदा के पीछे कौन था और आई एस आई एस के पीछे कौन है। कैसे एक साल के भीतर आई एस आई एस उभर आता है और पूरी दुनिया के लिए खतरा बन जाता है। यहीं पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बात लाना चाहता हूं। वे अपनी कई यात्राओं में कह रहे हैं कि आतंकवाद को परिभाषित करने की जरूरत है। साथ ही यह जानना जरूरी है कि आतंकवाद खतरा है या हथियारों के सौदागरों के लिए बिजनेस।

सरकार की निश्चिंतता के कारण क्या हैं


17 नवम्बर 2015
हर भारतीय के दिमाग में एक अजीब अंधेरे और चमकदार उजाले का ​स्पेस बनता जा रहा है। एक तरफ आर्थिक मंदी का बढ़ता डर और उससे तिरोहित होता अंधेरा साथ ही मोदी के विदेश दौरों की चकाचौंध। इसमें जो सबसे खतरनाक स्थिति है वह बुद्धिजीवियों की चुप्पी और मीडिया का भटकाव। आर्थिक और सामाजिक बीमारियों और व्याधियों के जिक्र से मीडिया बचने लगा है। बहाने तो ये हैं कि राजनीतिक शोर- शराबे में मीडिया व्यस्त है। दो-तीन महीने के राजनीतिक शोर-शराबे में मीडिया की व्यस्तता स्वाभाविक थी। हालांकि बिहार चुनाव खत्म हो जाने के बाद देश के आर्थिक हालात पर सोच-विचार का मौका बन सकता था, लेकिन बिहार चुनाव के फौरन बाद सत्तारूढ़ दल की अंदरूनी उठापटक ने मीडिया को व्यस्त कर लिया। उधर खुद प्रधानमंत्री विदेश दौरे पर निकल गए। यह हफ्ता उनके वहां के भव्य समारोहों के प्रचार-प्रसार में निकल जाएगा। कुल मिलाकर दिन पर दिन देश में वर्तमान की विकट आर्थिक स्थितियों पर गौर करने के सारे मौके ही निकलते जा रहे हैं। इस हफ्ते जारी साल की पहली छमाही के हिसाब के मुताबिक सितंबर में देश में औद्योगिक उत्पादन वृद्धि दर घटकर 3.6 के स्तर पर आ गई। पिछले डेढ़ साल से उद्योग व्यापार में ताबड़तोड़ सुधार और फुर्ती लाने के तमाम दावों के बावजूद ऐसा क्यों हो गया? इस पर गंभीरता से कोई चर्चा सुनाई नहीं दी। केंद्र में सत्तारूढ़ दल की बिहार चुनाव में सनसनीखेज हार का विश्लेषण अभी हुआ नहीं है, लेकिन इस हार के पीछे जिन दो प्रमुख कारणों को मीडिया ने चिह्नित किया है वे दाल और दादरी ही बताए गए हैं। हारने के बाद भी और चुनाव प्रचार के दौरान भी। लेकिन खुद को बड़ा चौकन्ना और चौकस दिखाती हुई डेढ़ साल पहले सत्ता में आई सरकार से ये कैसी हीला- हवाली हो गई। सिर्फ तब ही नहीं, बल्कि मुसलसल अभी तक। वहीं प्रधानमंत्री की विदेश यात्राएं वैसी खबर नहीं रहीं जैसी पहले थीं कि प्रधानमंत्री के विदेश दौरे पर किसी प्रमुख कार्यक्रम की दूसरे दिन के अखबारों में फोटो छप जाय या ज्यादा से ज्यादा लौटते समय हवाई जहाज पर कोई प्रेस कांफ्रेंस हो जाय, या फिर किसी शिखर सम्मेलन में अनगिनत राष्ट्र ध्वजों के नीचे बहुत सारे नेताओं की न पहचाने जाने वाली तस्वीरें छप जाएं। याद कीजिए ओबामा का भारत दौरा। दिल्ली आने से पहले मुंबई जाना, कभी ताज देखने जाना तो कभी पत्नी मिशेल के साथ हुमायूं का मकबरा देखने जाना। क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वैसा ही कुछ कर रहे हैं या बिल्कुल नया कर रहे हैं। औपचारिकताओं से भरी विदेश यात्राओं में क्या वे वाकई कोई बड़ा बदलाव ला रहे हैं। बहुत से लोग मानते हैं कि दुनिया के नक्शे पर भारत को लेकर कुछ नया हो रहा है। प्रधानमंत्री मोदी का दौरा भारत की छवि को बदल रहा है। उनकी यात्रा जब भी आधिकारिक चरण में होती है, तमाम न्यूज चैनलों पर एक ही तरह के एंगल से शॉट चलने लगते हैं। एक खास किस्म का अनुशासन बन जाता है। एक बने बनाये फ्रेम में प्रधानमंत्री का हर कदम पहले से सोचा- समझा लगता है। विदेश नीति के जानकारों को कैमरों की निगाहों को भी कूटनीतिक विश्लेषण में शामिल करना चाहिए। किस तरह हेलिकॉप्टर से लिया गया ब्रिटिश संसद का शॉट एक अलग किस्से की रचना करता है। टॉप एंगल शॉट से संसद की गहराई नजर आती है और दूर भारत में बैठे दर्शक के मन में अचानक प्रधानमंत्री की हैसियत कुछ और होने लगती है। यह दर्शक के दिमाग में एक चमकदार स्पेस की रचना करता है। जिस वक्त लंदन में प्रधानमंत्री भारत को बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था बता रहे थे भारत में बिजनेस अखबार अपनी पहली खबर यह बना रहे थे कि सितंबर महीने के औद्योगिक उत्पादन में गिरावट दर्ज हुई है। सितंबर में विकास 3.6 प्रतिशत ही रहा। औद्योगिक उत्पादन के सूचकांक का 75प्रतिशत हिस्सा उत्पादन क्षेत्र से आता है जिसमें विकास दर 2.6 प्रतिशत ही देखी गयी है। कंपनियों की कमाई में भी तेजी से कमी आई है। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक भी अक्टूबर में 4.41 से बढ़कर 5 प्रतिशत हो गया है। स्टार्टअप कंपनियों के लिए निवेश में कमी आने लगी हैं। निवेशक अब अपना हाथ खींचने लगे हैं। देश की मौजूदा अर्थव्यवस्था के ये गंभीर संकेत उस कुदरती मौसम के हैं जिसे बाजार के लिहाज से सबसे आसान और माफिक माना जाता है। इन सर्दियों के डेढ़-दो महीने गुजरते ही पानी की किल्लत और आर्थिक सुस्ती का असर कई अंदेशे पैदा कर रहा होगा। अब तक गिनाए गए अंदेशे तो फिर भी दिखने और नापतौल करने लायक हैं। इनके अलावा बेरोजगारी की तरफ तो अभी किसी का ध्यान ही नहीं है। जबकि डेढ़ साल पहले राजनीतिक बदलाव का माहौल बनाने के लिए इन बेरोजगार युवकों को ही सबसे ज्यादा उम्मीदें बंधाई गई थीं। आलम यह है कि पिछले डेढ़ साल में कम से कम दो करोड़ बेरोजगार युवकों की फौज पहले से बेरोजगार पांच करोड़ बेरोजगारों में और जुड़ गई है। इधर देश की जनसंख्या में 65 प्रतिशत युवकों की संख्या होने को जिस तरह अपनी पूंजी बताए जाने का प्रचार इस समय हो रहा है उसे कब तक प्रचारित किया जा सकेगा?अगर वाकई देश के हालात ऐसे हैं, तो सरकार और प्रशासन की तरफ से आश्चर्यजनक निश्चिंतता के क्या कारण हो सकते हैं? यही नहीं , प्रधानमंत्री मोदी के विदेश दौरे पर अब सवालों के बादल मंडराने लगे हैं, मेडिसिन से लेकर वेम्बले जैसे आयोजन विदेश नीति को कोई नया आयाम देते हैं या फिर उनकी गंभीरता को कम कर देते हैं।

पेरिस हमला: सबको सम्यक भाव से सोचना होगा


16 नवम्बर 2015
पे​रिस में शनिवार को आधी रात के बाद क्रूरतम हमला उस समाज पर दूसरे विश्वयुद्ध के बाद सबसे बड़ा हमला था। राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद ने इसे फ्रांस के विरुद्ध जंग कहा है और हमलावरों से बेरहमी से निपटने का एलान किया है। आई एस ने इस हमले की जिम्मेदारी ली है और कहा है कि सीरिया और इराक पर हमलों में जो फ्रांस ने हिस्सा लिया यह उसके बदले का आगाज है। राष्ट्रपति ओलांद ने कहा है कि यह फ्रांस पर हमला है और उन मूल्यों पर आक्रमण है जिनकी फ्रांस दुनिया भर में तरफदारी करता है। हमलों के बाद पेरिस के आम लोग डरे और सदमे में हैं। ये डर यहां की अल्पसंख्यक मुस्लिम आबादी में ज्यादा है। लेकिन फ्रांस का एक इतिहास ये भी है कि यहां सदियों से ईसाई, मुसलमान और यहूदी मिलकर रह रहे हैं और यहां धर्मनिरपेक्षता बहुत मज़बूत है। ऐसा ही डर का माहौल जनवरी में शार्ली हेब्दो के दफ्तर पर हुए हमले के बाद भी था। लेकिन तब कोई अप्रिय घटना नहीं हुई थी और फ़्रांस का समाज एकजुट था। यहां प्रशासन जोर देकर इस बात को कह रहा है कि ऐसी किसी भी घटना को रोका जाएगा लेकिन यहां के मुसलमानों में जरूर प्रतिक्रियाओं का डर है। जिस स्टेडियम में फ्रांस-जर्मनी के बीच दोस्ताना फुटबाल मैच चल रहा था, वहां मैच के ऐन बीच ऐसा बर्बर हमला अप्रत्याशित और दहलाने वाला था। हमले की टाइमिंग भयावह थी। उदारतावादी और जनतांत्रिक समाज को अपने आतंक के आगे झुकाना चाहती थी। आतंकवाद इसी तरह काम करता है। सारी दुनिया को अपने जैसा बना लेना चाहता है। आतंक ऐसा हिंसक व्यापारी है, जो आतंक फैलाकर समाज को अपने आगे नतमस्तक करना चाहता है या प्रतिक्रिया में अपने जैसा बना लेना चाहता है। सीरिया की सरकार को उलटाने के लिए सऊदी अरब जैसे देशों ने आईएसआईएस के आतंकवादियों की जमकर मदद की और सऊदी अरब की पीठ पर किसका हाथ है? अमरीका का! अमरीका ने ही अफगानिस्तान के आतंकवादियों को बढ़ावा दिया था, जिन्होंने अब पाकिस्तान को भी बेहाल कर दिया है। अमरीका भूल गया कि हिंसक लोग उसी हाथ को काट खाते हैं, जो उन्हें खिलाता है। जनरल जिया उल हक और राजीव गांधी की हत्या इसके ठोस प्रमाण हैं। पश्चिमी राष्ट्र आतंकवादियों में फर्क करना बंद करें, यह पहला काम है। आतंकवादी अच्छे और बुरे, अपने और पराए नहीं होते। ये किसी के सगे नहीं होते। ये अपने आप को लाख इस्लामी कहें, ये इस्लाम के सबसे बड़े दुश्मन हैं। हमले के बाद भारत की मीडिया में कहा गया कि यह मुम्बई हमरे की तरह का हमला था। बेशक रहा होगा पर दोनों के प्रति रेस्पांस में भारी फर्क था। किसी भी फ्रेंच चैनेल में यह देखने को नहीं मिला कि दरअसल इससे कैसे निपटा जाय। भारत में सारी ताकतें यहीं पर आकर ठहर जाती हैं। लेकिन ऐसे वाकयों से ऐसा बर्बर और हिंसक आतंकवाद न लज्जित होता है, न रुकता है। हमारे दल, उनके नेता भी इसी तरह की ‘पालिटिकली करेक्ट’ किया करते हैं जबकि आतंकवाद किसी की पालिटिकली करेक्ट लाइन से कायल नहीं होने वाला। बेहतर हो हम ऐसी ‘करेक्ट’ बहसें बार-बार न किया करें और आतंकवाद की तह तक पहुंचने की कोशिश करें तभी कुछ काट हो सकेगी। उसके आर्थिक, सामरिक, सामाजिक, मनौवैज्ञानिक और सांस्कृतिक आयामों को धैर्य से समझने की कोशिश करें। उसका तात्कालिक उपचार प्रशासनिक एक्शन हो सकता है, लेकिन उसका ऊर्ध्वगामी उपाय आतंकवाद को पूरी समग्रता में समझकर ही हो सकता है। नियमित सेनाएं, कड़ा प्रशासन, आतंकी अड्डों पर सीधे हमले आतंकवाद का बहुत कुछ नहीं बिगाड़ सकते। आतंकी मानसिकता और संगठनों को कोई कमजोर कर सकता है, तो तरह-तरह के आतंकियों के अंडरग्राउंड मनोविज्ञान के प्रति जनजागरूकता ही कर सकती है। इन आतंकी हमलों की जड़ें बहुत गहरी हैं। जरूरी उन तक पहुंचना है। यह किसी से छिपा हुआ नहीं कि आतंकवादी संगठनों को चाहे पैसों की सप्लाई हो या हथियारों की सप्लाई, इसमें कई बार राष्ट्रों की सरकारों का ही हाथ होता है। अफगानिस्तान में रूस ने क्या किया और कैसे अमरीका ने तालिबान को खड़े होने दिया, यह सबको पता है। आईएसआईएस जैसा संगठन खड़ा करने के लिए बेशुमार पैसों और संसाधनों की जरूरत है। कोई न कोई तो उन्हें यह सब मुहैया करवा ही रहा है। इनमें से कितने ही ऐसे होंगे जो कभी पकड़े नहीं जाएंगे। क्योंकि वे सभी राजनीति से जुड़े हुए हैं। वे सत्ता के भागीदार हैं। उन्हें हर कीमत पर अपनी सत्ता बचानी है। इसके लिए वे बहुत गणित से चलते हैं। सिर्फ पाकिस्तान के ही सत्ताधारी नहीं हैं अकेले, जिन्होंने हाफिज सईद को बचाकर रखा हुआ है, लगभग हर मुल्क के सत्ताधारियों ने धार्मिक असहिष्णुता फैलाने वाले लोगों को पनाह दी हुई है क्योंकि वे उन्हें सत्ता में बने रहने के लिए बहुत जरूरी लगते हैं। उसके लिए क्या उनका पूरा समाज और उनकी सरकार जिम्मेदार नहीं? इसके लिए क्या वह व्यवस्था जिम्मेदार नहीं जिसने दुनिया के एक फीसदी लोगों के हाथों में बाकी बची निन्यानबे फीसदी लोगों के बराबर दौलत सौंप दी है? जाहिर है, यह दौलत ईमानदारी से कमाई गई दौलत नहीं। इसे सरकारों के साथ सांठगांठ और गरीबों के शोषण के जरिए ही हासिल किया गया है। जवाबी आतंकवाद भी कोई हल नहीं है। गोली का जवाब गोली से जरूर दिया जाए लेकिन बोली के हथियार से बड़ा कोई हथियार नहीं है। आतंकवादियों से सीधा संवाद कायम करना भी उतना ही जरूरी है, जितना कि उन पर बंदूक ताने रखना। फिलहाल महज शुरुआत है पर गंभीर और दोटूक। इसमें केंद्र बिंदु असहिष्णुता बनाम सहिष्णुता का है। इस्लाम और इस्लाम के बंदों को सोचना होगा कि असहिष्णु कौन है? वे हैं या दुनिया के दूसरे धर्म? किसका इतिहास, किसका ट्रैक रिकार्ड कैसा है?भारत में हम लोगों को भी सम्यक भाव से यह सोचना चाहिए।

बिहार में अब भविष्य की बात हो


14 नवम्बर 2015
बिहार में चुनाव और नतीजों पर तू-तू , मैं- मैं अब खत्म हो जाना चाहिये अैर सीधे भविष्य की तरफ देखा जाना चाहिये। इस मामले में पहला प्रश्न है कि , बिहार में आगे क्या? महागठबंधन को कहने को भारी बहुमत मिला है लेकिन मुख्यमंत्री जद यू के नीतीश कुमार होंगे। संख्या बल के आधार पर अगर देखें तो नीतीश इस बार पहले से कमजोर सी एम होंगे, क्योंकि लालू उनके ऊपर भारी पड़ रहे हैं। लालू का स्वभाव बिहार की जनता से अनजाना नहीं है और ना लालू राज की कारस्तानियां। कुछ लोगों का मानना है कि लालू इतने बुड़बक नहीं हैं पिछली गलतियों से सीखें नहीं। लालू बुड़बक नहीं हैं कि उन्हें सत्ता से अपनी बेदखली की वजह न पता हो। अब लालू के लिए चुनौती यह है कि वह अपने समर्थकों को ऐसी लीडरशिप दें कि वे लूट-खसोट के बजाय उद्यमिता से सामाजिक न्याय की जंग को नए मुकाम तक ले जाएं। ऐसा किया जा सकता है और इससे यादवों और मुसलमानों को ही नहीं, पूरे राज्य और पूरे देश को फायदा होगा। जमींदारों और भूमिहीन ब्राह्मणों से लेकर दिल्ली में सिक्योरिटी गार्ड्स तक की नजर बिहार के राजनीतिक घटनाक्रम पर लगी हुई है और कई लोगों को डर है कि लालू प्रसाद के चलते बिहार में जंगलराज की वापसी हो सकती है। हालांकि कई ऐसी वजहें हैं, जो संकेत दे रही हैं कि लालू सुशासन में भागीदार बनना पसंद करेंगे, जिसका श्रेय तमाम लोग नीतीश कुमार को दे रहे हैं। एक तो खुद नीतीश नहीं चाहेंगे कि अराजकता जैसी स्थिति बने। अगर लालू प्रसाद अपने यादव बाहुबलियों को मनमानी करने की छूट देंगे तो नीतीश के पास महागठबंधन से नाता तोड़कर एनडीए के साथ जाने का विकल्प होगा। पटना यूनिवर्सिटी के छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष लालू प्रसाद और पूर्व महासचिव नीतीश के बीच दोस्ताने की चाहे जितनी कहानियां सुनाई जा रही हों, दोनों की नजर एक-दूसरे पर हैं और दोनों जानते हैं कि उनकी हरकत पर दूसरे की प्रतिक्रिया क्या हो सकती है। लालू को पता है कि उनके सीएम रहने के दिनों से अब पॉलिटिकल इकॉनमी काफी बदल चुकी है। हाशिए पर पड़े लोगों को आवाज देने और बिहार के दबंग जाति समूहों का दबदबा खत्म करने के बावजूद लालू को सत्ता से हटना पड़ा था। 2014 के चुनाव में उत्तरप्रदेश में भाजपा को इतनी जबर्दस्त जीत इसलिए मिली, क्योंकि युवाओं को आर्थिक तरक्की और निर्णायक सरकार के वादे में नई उम्मीद नजर आई। यह कोई मुस्लिम या पाकिस्तान के खिलाफ जनादेश नहीं था। बिहार में बिल्कुल उलटा हो गया। मतदाताओं ने देखा कि नीतीश वही सकारात्मक, रचनात्मक आह्वान कर रहे हैं, जबकि भाजपा ने उन्हें मुस्लिम, पाकिस्तान, आतंकवाद से डराने की कोशिश की या उनसे गोरक्षा का आह्वान किया। लोगों ने सकारात्मकता को चुना। तरक्की के गुजरात मॉडल ने नरेंद्र मोदी को 2014 में जीत दिलाई किंतु, चूंकि भाजपा ने जनादेश का गलत अर्थ निकाला, इसलिए वह ध्रुवीकरण के गुजरात मॉडल को भारत में अन्य जगहों पर भी आजमा रही है। कोई अचरज नहीं कि बिहार ने इस मॉडल को ठुकरा दिया। नीतीश और यकीनन लालू प्रसाद यादव इस हकीकत को समझते हैं। लालू वह डेवलपमेंट और ग्रोथ मुहैया नहीं करा सके थे। लिहाजा लालू का फोकस अब बिहार के लोगों को यह समझाने पर होगा कि उनके बेटे-बेटियों के नेतृत्व में उनकी पार्टी राज्य को समृद्धि की दिशा में ले जा सकती है। लालू के लिए बेहतर यही होगा कि वह गवर्नेंस और डेवलपमेंट के मोर्चे पर नीतीश की मदद करें। साथ ही लालू प्रसाद के परिवार का राजनीतिक भविष्य भी दांव पर है। यदि ये पांच वर्ष सुशासन की मिसाल बन सके तो ज्यादा लाभ लालू यादव को ही मिलेगा। यही नहीं अगर सब कुछ ठीक- ठाक रहा तो संघीय स्तर पर एक तीसरी ताकत का उभार निश्चित है। राजनीति में तीसरी शक्ति एक पारिभाषिक शब्द बन गया है जिसका अर्थ जरूरी नहीं है कि वह तीसरे स्थान का ही कोई राजनीतिक मोर्चा हो। यह ऐसे राजनीतिक प्रवृत्तियों वाले दलों के मोर्चे के रूप में रूढ शब्द हो गया है जो वैकल्पिक धारा का प्रतिनिधित्व करता है। वैकल्पिक अर्थ है ऐसी राजनीति जिसमें सामाजिक सत्ता से छिटकी हुई जातियों के नेताओं का नेतृत्व हो , जिसमें सफ़ेदपोश के बजाय मेहनतकश वर्ग से आये नेता अगुआ हों , जो मजबूत संघ के बजाय राज्यों को अधिकतम स्वायतत्ता के पक्षधर हों। इस समय जबकि कांग्रेस के भविष्य पर अनिश्चितता के बादल मडरा रहे हैं, नरेन्द्र मोदी के प्रति मोहभंग की वजह से भाजपा के केंद्र में पैर डगमगाने लगे हैं राष्ट्रीय स्तर पर विकल्प के रूप में तीसरी शक्ति के सितारे बुलंद होने के आसार देखे जाने लगे हैं लेकिन बिहार के चुनाव परिणाम आने के पहले तक तीसरी शक्ति में किसी राष्ट्रीय स्तर के नेतृत्व के अभाव की वजह से किसी संभावना को टटोलना मुश्किल लग रहा था लेकिन बिहार के चुनाव परिणाम ने रातों रात इस मामले में हालात बदल दिए हैं | तीसरी शक्ति को अब नीतीश कुमार के नेतृत्व के तले संजोए जाने की कल्पना दूर की कौड़ी लाना नहीं माना जा सकता। बिहार का चुनाव राष्ट्रीय स्तर का दंगल बन गया था इसलिए नीतीश कुमार इसे जीत कर एकाएक ऐसे महाबली बन गये हैं जिन्हें केंद्र बिंदु बनाकर राष्ट्रीय स्तर का ध्रुर्वीकरण होने की पूरी- पूरी संभावना है। तीसरी शक्ति बदलाव की ऐसी ख्वाहिश का नाम है जिसकी तृप्ति न होने से बदलाव की भावना से ओत प्रोत भारतीय जन मानस प्रेत की तरह भटकने को अभिशप्त है। मोटे तौर पर भारतीय समाज को लेकर यह अनुमानित किया जाता है कि भेदभाव और अन्याय पर आधारित वर्ण व्यवस्था में बदलाव होने पर देश में एक साफ़- सुथरी व्यवस्था कायम हो सकेगी। लेकिन, यह संभावना तभी साकार हो सकती है जब बिहार में सुशासन का मॉडल देश के सामने मिसाल बन जाय।

चेतिया को लाये जाने का निहितार्थ


13 नवम्बर 2015
अलगाववादी उल्फा नेता अनूप चेतिया को बुधवार तड़के भारत के हवाले करने की ख़बर के बाद केंद्र सरकार के साथ शांति वार्ता में शामिल उल्फ़ा का अरविंद राजखोवा गुट इसे बड़ी उपलब्धि बता रहा है।वहीं केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा कि ये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की सक्रिय भूमिका का फल है।विशेषज्ञों का मानना है कि अगर चेतिया भारत सरकार के साथ शांति वार्ता में अरविंद राजखोवा गुट के साथ शामिल होते हैं तो इससे वार्ता विरोधी अलगाववादी नेता परेश बरूवा को बड़ा झटका लगेगा। असम पुलिस की मोस्ट वांटेड सूची में शामिल चेतिया को 1979 में उल्फा की स्थापना के समय संगठन का महासचिव बनाया गया था।चेतिया संगठन में राजनीतिक मामले देखते थे, लेकिन वे शस्त्र चलाने और गुरिल्ला युद्ध में भी माहिर थे। चेतिया के इस मामले में देश में भारी भ्रम बना हुआ है। खास कर उन्हें सौंपने के तकनीकी पक्ष को लेकर। क्योंकि यही पक्ष वार्ता की सियासी साईकी को तय करेगा। अगर ढाका ने उसे सौंपा है तो इसका अर्थ बाध्यतामूलक होगा और उस बाध्यता के फलस्वरूप वार्ता में सहयोग का अंश तय होगा। चूंकि चेतिया को बंगलादेश के कानून के तहत गिरफ्तार किया गया था।18 साल बंगलादेश की जेल में रहे उल्फा महासचिव चेतिया के खिलाफ असम के कई थानों में हत्या, अपहरण और उगाही के मामले दर्ज हैं। इन्हीं अपराधों में बंगलादेश के कानून के तहत उसे सजा भी मिली थी। सजा खत्म होने के बाद उसने बंगलादेश में राजनीतिक शरण मांगी थी और अदालत ने आदेश दिया था कि जब तक शरण का मामला तय नहीं नहीं होता तबतक उसे हिरासत में रखा जाय। बुधवार को चेतिया को मुक्त कर दिया गया। इस बातका कहीं उल्लेख नहीं है कि उसके राजनीतिक शरण के आवेदन का क्या हुआ। खबर है कि जब उसे मुक्त किया गया तो भारतीय दूतावास को जानकारी दे दी गयी और बंगलादेश सीमा रक्षकों ने उसे प​श्चिम बंगाल के बेनापोल सीमा पर सीमा सुरक्षा बल को सौंपा। बेनापोल तक उसे सड़क से लाया गया था। उल्फा संगठन में चेतिया की काफी अहमियत रही है, यहां तक ​कि परेश बरूवा भी उनकी बात को कभी अनदेखी नहीं करते थे।केंद्र सरकार के साथ 2011 में शांति वार्ता में शामिल होने के बाद संगठन के कई नेता अपने सूत्रों के जरिए चेतिया से संपर्क में रहे और उनसे सुझाव लेने के लिए कुछ लोगों को बंगलादेश भी भेजा गया। सरकार के साथ शांति वार्ता में चेतिया की ज़रूरत थी। उन्होनें संगठन को शुरू से चलाया और अब सभी उल्फ़ा नेता चाहते है कि वे औपचारिक रूप से वार्ता गुट में शामिल हों। असम में 2016 के विधानसभा चुनाव से पहले चेतिया का भारत प्रत्यर्पण और उल्फा के साथ शांति वार्ता समझौता खासकर भाजपा के लिए भी काफी अहम बताया जा रहा है।केंद्रीय गृह राज्य मंत्री रिजिजू ने मंगलवार को कहा था कि उल्फा के वार्ता समर्थक गुट के साथ जल्द ही शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए जाएगें। केंद्रीय मंत्री ने यहां तक कहा कि असम की छह जनजातियों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की उल्फ़ा की मांग लगभग स्वीकार कर ली गई है और फाइल कैबिनेट की अंतिम मंज़ूरी के लिए प्रधानमंत्री के पास है। चेतिया को भारत लाये जाने के फकत एक दिन पहले केंद्रीय मंत्री का यह बयान अपने आप में काफी महत्वपूर्ण समझा जा रहा है। उल्फा के साथ केंद्र सरकार की शांति वार्ता दरअसल असम के लोगों की भावना से जुड़ा एक मसला है। महज कुछ महीनों में असम विधानसभा चुनाव होनें हैं, इसलिए उल्फा शांति वार्ता को लेकर मोदी सरकार पर सबकी नजर रहेगी। लेकिन यह इस बात पर निर्भर करेगा कि अनूप चेतिया किस तरफ जाते है। उल्फा इस समय दो भागों में बंट चुका है। एक तरफ उल्फा के परेश बरूवा अपने कैडरों के साथ म्यांमार के जंगलों से सशस्त्र जंग छेड़े हुए है और दूसरी तरफ केंद्र सरकार वार्ता समर्थक उल्फा गुट के साथ बात कर रही है। अगर भारत सरकार चेतिया को वार्ता में शामिल कर ले तो इससे परेश बरूवा को बड़ा झटका लगेगा। अपने चचेरे भाई चेतिया का समर्थन नहीं मिलने से परेश बरूवा विचलित हो उठेगें। चेतिया अगर शांति वार्ता गुट में शामिल होते है तो यह असम में स्थाई शांति के लिए काफी महत्वपूर्ण फैसला होगा। बिहार चुनाव में बड़ा झटका खा चुकी भाजपा को अगले साल जिन राज्यों में चुनाव लड़ने है, उनमें असम में पार्टी की हालत थोड़ी ठीक है, लिहाजा मोदी सरकार उल्फा वार्ता में जरूर गंभीरता दिखाएगी। सांगठनिक रूप से कमजोर पड़ चुके परेश बरूवा ने नगा अलगावादी संगठन एनएससीएन (खापलांग) के साथ पूर्वोत्तर राज्यों के कुछ चरमपंथी संगठनों को लेकर एक संयुक्त मोर्चा बनाया है, जो इस समय खासकर सुरक्षा बलों पर हमले करने के इरादे से सक्रिय है। लेकिन लगता है भारत सरकार ने अब ऐसे सगंठनों से निपटने के लिए पूरी तरह से ठान ली है। सरकार के सुरक्षा रणनीतिकार कई तरीकों से इन अलगाववादियों पर दवाब बना रहें है।अगर इसमें कामयाबी मिलती है तो मोदी सरकार को राजनीतिक सफलता मिल सकती है और बिहार का गम गलत हो सकता है।

भाजपाई राजनीति में बदलाव जरूरी


12 नवम्बर 2015
बिहार के चुनाव परिणाम दिखाते हैं कि दिल्ली की हार से पार्टी ने कोई सबक नहीं सीखा है जिसमें ‘‘आप’ ने 70 विधानसभा सीटों में से 67 पर जीत हासिल कर भाजपा को जबरदस्त पटखनी दी थी, बिहार में हार के लिए सभी को इसलिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है ताकि किसी एक को जिम्मेदार नहीं ठहराना पड़े। बिहार के चुनाव के नतीजों पर मंगलवार को भाजपा की बैठक हुई। इस बैठक में पार्टी का अंतर्कलह उस समय खुलकर सामने आ गयी, जब लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के साथ दो अन्य वरिष्ठ नेताओं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व के खिलाफ असंतोष का बिगुल बजाते हुए कहा कि पिछले एक साल में पार्टी कमजोर हुई है और उसे कुछ मुट्ठीभर लोगों के अनुसार चलने पर मजबूर किया जा रहा है। इनके अलावा बेगूसराय के सांसद भाजपा सांसद भोला सिंह ने भी पराजय के लिए प्रधानमंत्री मोदी के साथ ही भाजपा अध्यक्ष अमित शाह पर निशाना साधा। पार्टी के वरिष्ठ नेता सीपी ठाकुर ने भी हार पर सवाल उठाए हैं। पार्टी ने नेताओं से अपनी टिप्पणियों में संयम बरतने को कहा है। भाजपा में निर्विवाद नेता के तौर पर उभरने और मई में सरकार बनने के बाद मोदी को पहले बड़े असंतोष का सामना करना पड़ रहा है जिसमें शांता कुमार और यशवंत सिन्हा समेत दिग्गजों ने संक्षिप्त लेकिन कड़े शब्दों में एक बयान जारी कर बिहार की हार की संपूर्ण समीक्षा की मांग उठाई। बयान के अनुसार, ‘‘सबसे हालिया हार का मुख्य कारण पिछले एक साल में पार्टी का कमजोर होना है।’वरिष्ठ नेताओं के वक्तव्य के अनुसार, ‘‘हार के कारणों की पूरी तरह समीक्षा की जानी चाहिए और इस बात का भी अध्ययन होना चाहिए कि पार्टी कुछ मुट्ठीभर लोगों के अनुसार चलने पर मजबूर क्यों हो रही है और उसका आम-सहमति वाला चरित्र नष्ट कैसे हो गया।’भाजपा के पूर्व अध्यक्ष जोशी के आवास से बयान जारी किए जाने से पहले पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व विचारक और पूर्व भाजपा नेता गोविंदाचार्य ने जोशी से बंद कमरे में गुफ्तगू की। यहां प्रमुख प्रश्न है कि मोदी के सहारे पार्टी कबतक चुनावी वैतरणी पार करेगी। प्रधानमंत्री होकर कैसे सीएम की लड़ाई लड़ेंगे। दिल्ली और बिहार में नेता को क्यों नहीं उभरने दिया गया। यही सवाल बिहार चुनाव में बीजेपी पर भारी पड़ गया। बिहार की जनता तो यही पूछ रही थी कि महागठबंधन के पास नीतीश हैं तो एनडीए के पास कौन है। इतनी बड़ी लड़ाई लेकिन बीजेपी के पास सीएम का कोई चेहरा नहीं था जबकि नीतीश और लालू बिहार में महागठबंधन बनाकर नरेन्द्र मोदी को चुनौती दे रहे थे। दूसरी बात ये थी कि नीतीश को काम दिखाने के लिए कानून व्यवस्था, सड़क, बिजली, लड़कियों को साइकिल देने की बात थी लेकिन वोटरों को मोदी का कोई काम सही नहीं दिख रहा था जो आम लोगों से जुड़ा हुआ हो। बीजेपी में ये भी आरोप लगा कि सही उम्मीदवार को मैदान में नहीं उतारा गया बल्कि पैसे लेकर उम्मीदवार को उतारा गया। यही सवाल सांसद आरके सिंह उठा चुके थे। चौथी वजह पार्टी में अहंकार को माना गया जो सांसद नाराज थे, उन्हें नहीं पूछा गया बल्कि कुछ ऊपर के नेता रणनीति बनाते रह गये। ये आरोप लग रहा है कि बीजेपी स्कूटर की पार्टी हो गई है यानी तीन लोग ही पार्टी को चला रहे हैं। पांचवीं बात ये थी कि जातीय अंकगणित में एनडीए महागठबंधन से पीछे छूट गया था। बिहार में भ्रष्ट्रराचार और बेरोजगारी मुख्य समस्या थी लेकिन पार्टी के नेताओं ने नीतीश,लालू,जंगलराज,जंतर-मंतर को मुख्य मुद्दा बनाया। बीजेपी की सहयोगी पार्टियों का तो और बुरा हाल हुआ। अखलाक की मौत और साहित्यकारों के अवार्ड लौटाने के मुद्दे को पार्टी ठीक से हैंडल नहीं कर पाई। महंगाई की मार से जनता परेशान थी, प्याज 60 रुपये और दाल 200 रूपये ने लोगों के गुस्से को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया। इससे तो यही साबित होता है कि बीजेपी जीतती बाजी हार गई और आत्मचिंतन के नाम पर ऊल जुलूल मुद्दे को उठा रही है। अब भाजपा और नरेंद्र मोदी से देश की हिंदू-मुस्लिम जनता को अपेक्षा है की भाजपा के नेता कांग्रेस जैसा बर्ताव न करके देश की प्रगति के लिए, हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए नयी पहल करेंगे ! देश की सभी मुस्लिम जनता को देशद्रोही ठहराना और जरा - जरा सी बात पर उन्हे पाकिस्तान जाने की सलाह देना गलत है! भाजपा के नेता जितनी जल्दी समझ जाएंगे उतना अच्छा होगा उनके लिए और पूरे देश के लिए भी ! भाजपा के नेता जल्दी से यह जमीनी सच्चाई जान लें और उनके मन से हिंदू-मुस्लिम धर्मीय जनता में फूट डालकर सत्ता के लिए राजनीती करने का भूत निकल जाए ! बिहार की हार संकेत है कि अगर रणनीति-राजनीति में बदलाव नहीं किया गया तो बीजेपी के लिए अच्छे दिन नहीं आने वाले हैं।

दीया आत्म का संपूर्ण विस्तार है


11 नवम्बर 2015
भारत के मन में आज दीपोत्सव की पुलक है। प्रकाशलब्धि है, लेकिन अंधकार हमारा मूल। हम मां के गर्भ में थे, गहन अंधकार था। हमारा प्राथमिक विकास गहन तमस् में हुआ। बीज भी धरती के अंधकार गर्भ में फूटता है, अंधकार से उगता है। बीज का गर्भ भी अंधकार में ही पकता है। हम अंधकार से उगते हैं, व्यक्त जगत में आते हैं। आंखों को प्रकाश देखने का अनुभव नहीं होता। तमस हमारी यथास्थिति है, और प्रकाश हमारी नियति। सो, ज्योतिर्मयता हमारी चिरन्तन प्यास है। उजाला सामूहिक रूप में प्रसारित हो तो जैसे फूल खिल जाते हैं, उसी तरह दीप की पंक्तियां, जिनमें दीप की निष्ठाएं हैं, दीपावली की आभा रच देती हैं। पंक्तिबद्ध होने में जो लय है, वही तो पृथ्वी की उजास है। एक-एक का लालित्य एवं समूह का लालित्य। समूह जब अनुशासन की ज्यामिति हो तो वह भीड़ नहीं होती। दीपावली समाज व व्यक्ति के जीवन के कुरूप पाठों को नया रूपांकन देती है। कृषि संस्कृति में पीड़ाओं व दु:खों के बावजूद उल्लास व उजास के इतने शेड हैं कि देखते ही बनते हैं। सभी एक जैसे मौसम का आनंद उठाते हैं, जिसे सम कहा जा सकता है : न गर्मी, न सर्दी। मिट्टी की कला के इतने सारे रूप इस समय देखने को मिलते हैं कि शायद सालभर न मिलते हों। भिन्न-भिन्न तरह के दीये, हाथी-घोड़े, पेड़-पौधे सभी कुछ मिट्टी की कला में। हमारे यहां इन कलाओं को संरक्षित किए जाने की जरूरत है। वह सबकुछ जो हमें कलात्मक रूप से समृद्धि दे, वैभव दे, उसे बचाके रखा जाना चाहिए। मध्य वर्ग, निम्न वर्ग, किसान आदि दीपावली को नई अभिव्यंजना देते हैं। यहां एक प्रश्न है कि क्या मनुष्य प्रकृति की श्रेष्ठतम रचना है? प्रकृति में अनेक रूप, रंग, रस और नाद हैं। प्रकृति स्वयं को प्रकट करती है बारम्बार। छान्दोग्य उपनिषद् के ऋषि ने बताया है कि प्रकृति समस्त सर्वोत्तम प्रकाश रूपा है। जहां-जहां खिलता है, प्रकृति का सर्वोत्तम, वहां वहां प्रकाश। हम धन्य हो जाते हैं। प्रकाश दीप्ति एक विशेष अनुभूति देती है हमारे भीतर। अर्जुन ने विराट रूप देखा। उसके मुख से निकला-दिव्य सूर्य सहस्त्रांणि। हजारों सूर्य की दीप्ति एक साथ। भारतीय अनुभूति का ‘विराट’ प्रकाशरूपा ही है। पूर्वजों ने प्रकाश अनुभूति को दिव्यता कहा। बगैर परिवर्तन के नई आभा नहीं रची जा सकती। यदि बड़े परिवर्तन न संभव हो सकें, तो छोटे-छोटे बदलाव सृजन की दीपावली ला सकते हैं। राजनीति, इतिहास, मार्क्सवाद से परे ही अब नई दुनिया सृजित होगी। यहां 'राजनीति" का अर्थ सिर्फ राज पाने के लिए बनी नीति से है। जो सृजनधर्मी वृहत्तरता के सापेक्ष नीति होगी, वह समाज, राज व व्यक्ति सबसे सकारात्मक रूप से जुड़ी होगी। यहां 'इतिहास' का अर्थ अपने वर्चस्व को घटना-रूप देना है। इससे अलग जाना होगा। वर्चस्व को तोड़कर ही छोटे-छोटे दीये रास्तों, दीवारों व चौबारों में जल सकते हैं। 'लघु मानव' अपनी आत्मा में 'वृहत' होता है। उसे पता है कि नव-इतिहास के नाम पर चल रहा नव-मार्क्सवाद, सांस्कृतिक भौतिकवाद, जाति, लिंग, वर्गवाद सबकुछ अब धूमिल पड़ने लगे हैं। क्या भाषा वह कहने में असमर्थ है, जो वह कहने का दावा करती है? भाषा और साहित्य जिस सच्चाई का चित्रण करते हैं, उस आधार पर कैसे तय होगा कि सच्चाई क्या है? हम अर्थों को स्थगित कर रहे, प्राप्त नहीं। दीपावली अर्थों की तहों में जाने का दु:साध्य प्रयत्न है। सूर्य और शरद चन्द्र का प्रकाश प्रकृति की अनुकम्पा है, लेकिन दीपोत्सव मनुष्य की प्रकाश अभीप्सु संस्कृति का सृजन। यह कर्मशक्ति का रचा- गढ़ा तेजोमय प्रकाश है। प्रकाश ज्ञानदायी और समृद्धिदायी है। दीपावली को भारत केवल भूगोल नहीं होता, हिंदू-मुसलमान का जोड़ नहीं होता। यह राज्यों का संघ नहीं होता। भारत कर्मतप के बल पर इस रात ‘‘दिव्य दीपशिखा’ हो जाता है। दीपावली परिवर्तन, सौंदर्य, निजता, स्वायत्तता, ज्योति व लघु अंधकार का समन्वयन एक साथ स्थापित करती है। लघुता को सम्मान देती है यह। छोटा दीया आत्म का संपूर्ण विस्तार करता है। वह संवेदना, संवाद व संप्रेषण की स्थिति की ओर ले जाता है। हमें निचले दर्जे की राजनीतिक स्पर्द्धा, संवादहीनता व विद्वेष की भावनाओं से परे जाना है, तभी दीपावली का असली डिस्कोर्स समझ में आएगा। दीपावली हमारे भीतर के सृजन को ऊर्जा व आभा देती है। अमावस की रात प्रकाश पर्व का मुहूर्त घोषित करता है। शरद पूर्णिमा का प्रकाश अमृत कहा गया है। सो, शरद् पूनों को ही प्रकाश पर्व जानना चाहिए था। लेकिन तब गहन तमस् का क्या होता? ‘‘तमसो मा ज्योतिर्गमय्’ की प्यास को कर्मतप में बदलने के आह्वान का क्या होता? तमस से मानव संघर्ष की जिजीविषा का क्या होता? अमावस का अंधकार प्राकृतिक है। भारतीय प्रकृति की अनुकम्पा का नीराजन करते हैं और अमावस को प्रकाश से भरने की सांस्कृतिक कार्रवाई करते हैं।

Tuesday, November 10, 2015

बिहार के नतीजे पार्टियों के लिये सबक हैं



10 नवम्बर 2015

देश के पहले चुनाव से लेकर आज तक यह नियम लागू है कि चुनाव में जीत नेता की होती है और हार कार्यकर्ता की। दोष-पाप धोने की यह व्यवस्था हर पार्टी में एक जैसी है। बिहार विधानसभा के चुनावों पर देर-सबेर लागू कर दिया जाएगा।इतिहास गवाह है कि यह सवाल जितनी बार पूछा गया, उत्तर हमेशा यही रहा कि पार्टी विस्तृत रिपोर्ट आने के बाद स्थिति की ‘समीक्षा’ होगी। वह ‘समीक्षा’, जिसमें अंततः पाया जाता है कि पराजय की जिम्मेदारी प्रधानमंत्री, पार्टी अध्यक्ष या रिमोट कंट्रोल की नहीं है। बिहार के चुनालव प्रचार के दौरान या किसी भी चुनाव के प्रचार के दौरान यह देखने को मिला होगा कि सभी नेता या दल मतदाताओं को सपने बेचने में लगे हैं। जो जितना बड़ा बिसाती है वह उतने ही सपने बेच पाता है और वोट पा लेता है। बिहार चुनाव के नतीजे बताते हैं कि भारतीय जनता पार्टी सपनों का पहले जैसी सौदागर नहीं रही। उसका टोकरा ख़ाली हो गया? जाति के आधार पर टिकट सभी दलों ने दिए। यादव या कुर्मी बहुल क्षेत्रों में सभी दलों के उम्मीदवार उन्हीं जातियों के थे लेकिन अंतिम परिणाम में सीटों का गणित भाजपा और मोदी के विरुद्ध चला गया। बिहार चुनाव में इस तथ्य को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि बिहार ने अश्वमेध का घोड़ा दूसरी बार रोका है। दोनों बार घोड़ा छोड़ने वाली जमात भारतीय जनता पार्टी थी। पहले उसने लाल कृष्ण आडवाणी का रथ रोका था और इस बार नरेंद्र मोदी का।

बिहार के जनादेश में बहुत सारे सन्देश समाहित हैं। लेकिन जनादेश की सबसे बड़ी खासियत यही मानी जाएगी कि नीतीश का मोदी-विरोध सच्चा है। जनादेश ने इसी सच्चाई पर अपनी मोहर लगायी है। जनादेश से ये भी साफ हो गया कि अब राष्ट्रीय स्तर पर भी मोदी-विरोध की क़मान नीतीश के हाथों में ही होगी। केजरीवाल और ममता इस विरोध के प्रादेशिक क्षत्रप के रूप में और मुखर होकर दिखायी देंगे। नया जोश तो कांग्रेस में भी दिखेगा। बशर्ते, राहुल गांधी कुछ ज्यादा परिपक्वता से पेश आएं और अपने सलाहकारों में अनुभवी नेताओं को प्राथमिकता दें। मोदी खेमा ठीक से आत्म-विश्लेषण करे। मोदी जी को यह मानना पड़ेगा कि लोकसभा चुनाव के साल भर में बहुत कुछ बदल गया। बिहार के मतदाताओं ने मोदी के विकास और उनके जाति-समीकरण पर भरोसा नहीं किया। कटाक्ष उलटे पड़ गए। जुमले मजाक बने। एनडीए मूलतः बिहार के डीएनए में नहीं था और उसने इसे दिखा दिया। अमित शाह और नरेन्द्र मोदी के अलावा मोहन भागवत भी अपने गिरेबान में झांकें और भारत की समावेशी राजनीति को आत्मसात करने का गुर सीखें। अब नीतीश के सामने पहाड़ जैसी चुनौतियां हैं। सत्ता का अनुभव उनकी मदद करेगा। लेकिन लालू और आरजेडी को राज्य-हित में साधकर चलना आसान नहीं होगा। सबसे पहले तो नीतीश को जंगलराज के बदनुमा दाग को धोना होगा। इस चुनाव में उन्हें पसन्द करने वाले लाखों मतदाता ऐसे थे जो लालू यादव के साथ जाने से नाखुश थे। इनमें ज्यादातर सवर्ण और शहरी शिक्षित वर्ग के लोग हैं। नीतीश को न सिर्फ बिहारवासियों बल्कि देश के जहन में बैठी इस आशंका को खत्म करना होगा कि कहीं उनकी नयी सरकार लालू की जंगलराज वाली छवि के आगे घुटने तो नहीं टेक देगी। बेहतर होगा कि बिहार का गृह-विभाग और पुलिस-प्रशासन दोनों सीधे मुख्यमंत्री के पास हों। रोजमर्रा का काम बांटने के लिए वो भले ही राज्यमंत्री को साथ रखें। लेकिन इस मोर्चे पर चमत्कार करके दिखाएं। यदि नीतीश ऐसा कर सकें तो जल्द ही वो महागठबन्धन पर लगे दागों को धो सकेंगे। इस चुनाव में जनता ने नई संभावनाओं को खोजा है और नेतृत्व को इससे सीख लेनी चाहिए। राजद को इतनी अधिक सीटें मिलीं। इस राज्य में गरीब, उपेक्षित, पिछड़े, अतिपिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक आदि ही बहुसंख्यक हैं, इसलिए इस विशाल तबके के हितों को ध्यान में रखना नेतृत्व के लिए भी अपेक्षित होगा और राज्य के लिए भी। वहीं जदयू विकास की अपनी नीति को गरीबों के पक्ष में और ज्यादा ले जा सके, तो उसका दूरगामी प्रभाव होगा।

इस चुनाव में बिहार ने सबसे बड़ी सीख यह दी है कि सांप्रदायिक असहिष्णु भाषा और आचरण की अपनी राजनीतिक सीमा है। भारतीय समाज में सामान्य जन उसे व्यापक समर्थन नहीं दे सकता। किसी खास समय और संदर्भ में भले ही वह वोट का जरिया बने, मगर ज्यादा स्थितियों में उसके राजनीतिक और चुनावी परिणाम भी नकारात्मक होंगे। बिहार की कानून-व्यवस्था को यदि नीतीशकुमार ने चमका दिया तो उत्तर प्रदेश में भी बीजेपी के लिए भगवा फहरा पाना मुश्किल हो जाएगा। नीतीश चाहें तो पड़ोसी नेपाल के साथ भी भारत के ऐतिहासिक रूप से खराब हो चुके रिश्तों में भी नयी जान डाल सकते हैं। यदि ऐसा हुआ तो मोदी जी की लड़खड़ाती विदेश नीति को नीतीश एक जोरदार और शानदार सबक देने में सफ़ल हो जाएंगे। नीतीश और लालू की जोड़ी को एक और बात गांठ बांधनी होगी कि वो मुसलमानों के प्रति ऐसी नीतियां न अपनायें जिससे बीजेपी और संघ को ये प्रचार करने का मौका मिले कि वो कांग्रेस की तुष्टिकरण और वोट-बैंक की राह पर चल रहे हैंं। नेताओं को अपने दिमाग से ये गलतफहमी निकालनी होगी कि मुसलमानों को आरक्षण का झुनझुना थमाकर राजनीति चमकायी जा सकती है।


बिहार की केमिस्ट्री नहीं समझ सके मोदी



9 नवम्बर2015

बिहार में वही हुआ जिसका इम्कान था, वह नहीं हुआ जिसका शोर था। चुनाव के दौरान और मतदान खत्म होने के बाद ए​िग्जट पोल ने जो अलजेबरा दिखाया था वह बिहार के मतदाताओं की केमिस्ट्री को समझ नहीं सका। यहां जो सबसे बड़ी बात थी वह थी कि यह चुनाव अन्य विधानसभा चुनावों से अलग था। जिसके पास जो भी रणनीति थी आजमा ली है। किसी ने गाय खोल दी तो किसी ने सरसों मिर्चा का हवन भी कर लिया। पैकेज से शुरू हुआ चुनाव पाकिस्तान पर चला गया और गवर्नेंस की बात होते होते गाय की होने लगी। डीएनए की बात होते- होते ब्रह्मपिशाच और नरभक्षी की होने लगी। पर हमारी चुनावी राजनीति का स्तर जैसा है हमारे नेताओं ने उसे भाषा के स्तर के मामले में भी बरकरार रखा। रैलियों और सभाओं के मामले में भी यह अप्रत्याशित चुनाव रहा। बीजेपी ने अपने दल- बल के साथ खूब लड़ाई लड़ी है। उसके कई नेता ऐसे हैं जो सौ- सौ सभाएं करने का दावा कर रहे हैं। महागठबंधन ने भी वो सबकुछ किया जो करना चाहिए था। उसके पास बीजेपी की तरह कार्यकर्ताओं और रणनीतिकारों की फौज नहीं थी फिर भी उसकी लड़ाई कई बार बीजेपी पर भारी पड़ी। हेलिकॉप्टर के पायलटों ने बिहार खूब देखा होगा। ज़मीन से बिहार चाहे जैसा दिखे, लेकिन हेलिकाप्टर से बहुत खूबसूरत दिखता है। हरे- हरे खेत और ताड़ के पेड़ किसी कैनवास पर उतारी गई तस्वीर की तरह लगते हैं। बिहार के चुनाव का नतीजा सबके सामने है। एन डी ए ने हार स्वीकार कर ली है। यहां एक बात गौर के काबिल है कि इतना होने के बावजूद भाजपा क्यों हारी? एक नजर में जो कारण दिखते हैं वे हैं , भाजपा की गाय को किसी ने चारा नहीं डाला। बिहारी और बाहरी का मसला ज्यादा दमदार रहा। राज्य के चुनावों में स्थानीय नेताओं की अहमियत सबसे ज्यादा होती है जो भाजपा के पास थी ही नहीं। लोगों को लगता है कि स्थानीय नेता को जरूरत पड़ने पर देख-सुन तो सकते हैं। दिल्ली वालों को कहां खोजते फिरेंगे! इसके साथ ही कहना सही नहीं है कि बिहार में मोदी का जादू नहीं चला। दरअसल, दिल्ली चुनाव के वक्त भी यही बात सामने आई थी। अब भी वही सही है कि जब भी किसी राज्य के चुनाव में केंद्र अपनी पूरी ताकत झोंकेगा, मतदाता इसे कमजोर के सामने बलवानों का मुकाबला मानेगा और मतदाता कमजोर के साथ हो जाएगा। हेलिकाॅप्टर देखकर भीड़ तो आ जाती है लेकिन वह वोट में परिवर्तित नहीं होती। संघ प्रमुख द्वारा उठाया गया आरक्षण का मुद्दा बिहार में भाजपा की हार का सबसे बड़ा कारण रहा। ये भी एक हकीकत है कि विकास के मानदंड पर पिछले डेढ़ साल में मोदी सरकार की साख गिरी है। वे न अच्छे दिन ला पाए न महंगाई से राहत दे पाए। हां, जनता पर बोझ जरूर बढ़ गया। जाहिर है कि विकास के उनके दावे को गंभीरता से नहीं लिया गया। बिहार में हिंदुत्व कार्ड के चलने के बारे में प्रेक्षकों को पहले से ही संदेह था। बिहार में जातिगत राजनीति हमेशा से बहुत शक्तिशाली रही है और इसीलिए हिंदुत्व का हथियार वहां कम ही काम करता है। फिर हिंदुत्व का कार्ड इतना खुल्लमखुल्ला चला गया कि संभव है कि मतदाताओं को उसका छल-छद्म पसंद न आया हो। इसका एक और प्रभाव ये पड़ा कि अल्पसंख्यक समुदाय लालू-नीतीश के साथ जमकर गोलबंद हो गया। लालू का एम-वाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण इससे बहुत मजबूत हो गया। नरेन्द्र मोदी लोकसभा चुनाव जीतने के बाद चार विधानसभा महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और जम्मू-कश्मीर के चुनाव जीत चुके हैं लेकिन दिल्ली विधानसभा में करारी हार हुई। बिहार चुनाव नरेंद्र के लिए अहम रहा। अगर नरेंद्र मोदी बिहार का चुनाव जीत जाते तो खुद उन्हें , बीजेपी की पूरी टीम, उनके विरोधियों और मीडिया को भी लगता कि उनका जलवा जारी है। भले दिल्ली में पार्टी हार गई लेकिन उनकी लोकप्रियता और शख्सियत बरकरार है। इस जीत से पार्टी में उभर रहे विरोधियों के लिए सबक भी होता और उनके खिलाफ कार्रवाई भी हो सकती थी। देश से विदेश में उनकी प्रतिष्ठा में चार चांद लगता और आर्थिक दृष्टि से विकास की गति को रफ्तार मिलती वहीं असहिष्णुता के नाम सरकार की घेराबंदी भी कमजोर हो जाती। विपक्ष के हौसले पस्त हो जाते और जमीनी हकीकत से ताल बिठाने की कोशिश करते। उनके पराजित हो जाने से सारे अरमानों पर जबर्दस्त धक्का लगा है। भले उनकी कुर्सी पर फिलहाल खतरा नहीं है लेकिन पहला सवाल ये उठता है कि क्या उनका जलवा खत्म हो गया है? दिल्ली के बाद बिहार में दूसरी बड़ी हार है। अहिष्णुता के नाम पर सरकार को घेरने वाले साहित्यकार, फिल्मकार और साइंटिस्ट के अलावा विपक्षी पार्टियों को मोदी को घेरने का मौका मिल गया। वहीं पार्टी के अंदर भी नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के खिलाफ स्वर उभरेगा। जो पहले से पार्टी के अंदर स्वर उठा रहे थे उन स्वरों को और बल मिल जायेगा। ये भी आरोप लग सकता है कि अहंकार की वजह से पार्टी की हार हुई क्योंकि पार्टी के अंदर पार्टी की नीति, कदम और फैसले से जो नेता असहमत थे, उन्हें मनाने की कोशिश नहीं हुई। विपक्षी तो अब यही आरोप लगाएंगे कि नफरत फैलाने की वजह से जनता ने सबक सिखाने का काम किया है। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की टीम को इस हार से उबरने में काफी समय लग सकता है।

हमारी सबसे बड़ी विपदा



7 नवम्बर 2015

कांग्रेस इन दिनों एक नयी प्रकार की भाषा इजाद करने के प्रयास में है। एक ऐसी भाषा जो लोगों में उसके प्रति भरोसा पैदा करे। इसी प्रयास के तहत उसने सहिष्णुता का जुमला उछाला। पर कांग्रेस का यह प्रयास बिल्कुल पाखंडपूर्ण है, इसे समझने के लिए किसी विशेष बुद्धि की जरूरत नहीं है। हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी विपदा है कि वह समस्याओं और मसलों से घिरे रहने का पाखंड करता है। अब कांग्रेस को देखें। इसने सहिष्णुता का मसला उठाया। यह सब जानते हैं कि आप किसी राष्ट्रीय मसले को पेश करना चाहते हैं तो आपको ऐसा कर सकने की अपनी क्षमता भी प्रदर्शित करनी होगी, साथ ही कुछ ऐसा करना होगा जो विश्वसनीय लगे। राष्ट्रपति भवन तक जुलूस लेकर जाने से ऐसा कुछ नहीं लगता कि वह संघर्ष करने को तैयार है। लेखकों द्वारा पुरस्कार लौटाये जाने के मसले पर राष्ट्रपति के पास जाना कुछ ऐसा ही लगता है मानों वह उन्हीं लेखकों - बुद्धिजीवियों की पिछलग्गू है। बेशक एक मामले में भाजपा कांग्रेस से पीछे है कि लेखकों का एक भाग कांग्रेस के साथ है लेकिन यह भी सच है कि बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग कांग्रेस के साथ दिखने से कतराता है। कांग्रेस का सबसे बड़ा भ्रम है कि वह चीजों को सुसंगत ढंग से समझ नहीं पाती। चाणक्य का कथन याद आता है कि ‘अपने दोस्तों को निकट रखिए, लेकिन दुश्मनों को और भी निकट रखिए।’ इस मामूली सी बात को कांग्रेस नहीं समझ पा रही है। यही गलती मोदी सरकार भी कर रही है। उसके साथी अपने आलोचकों का मुंह बंद करने में लगे हैं। वह कुछ आलोचकों को अपने में समायोजित कर सकती है और उनका दिल जीत सकती है, जिन्हें वह शत्रु के रूप में देखती है। सत्ता में आकर 15 माह बाद भी वे कांग्रेस को भला-बुरा कहने में ही लगे हैं, गांधी परिवार के लोगों को बदनाम करने में लगे हैं। समझदारी यही होती कि वे दोनों की अनदेखी करते, जैसा कि देश पहले ही कर चुका है। विजेता तो अपने पूर्ववर्तियों से बेहतर चीजें करने पर ध्यान केंद्रित करता है। ‘हम’ बनाम ‘वे’ की बातें तो चुनाव के समय ठीक लगती हैं, तब नहीं जब आप सत्ता में आ चुके हैं। सत्तारूढ़ होने के बाद तो लोगों को विभिन्न मुद्दों पर आपसे आम सहमति निर्मित करने की अपेक्षा रहती है। वे चाहते हैं कि आप नया भविष्य बनाएं बजाय इसके कि आप यही दोहराते रहें कि भूतकाल कितना बुरा था। अभियान चलाने वाले की भूमिका में मोदी महान व्यक्ति हैं। वे अपना वक्त बर्बाद नहीं करते और विरोधियों की चालों में नहीं उलझते, लेकिन वे मोदी देश नहीं चला सकते। केवल राजनीतिक मोदी ही देश चला सकते हैं। उसके लिए तो उन्हें सिर्फ भाजपा का ही नहीं, अन्य सबका समर्थन भी चाहिए। यही गड़बड़ी कांग्रेस के साथ भी है। सहिष्णुता की उसकी अवधारणा पराभौतिक है। उन्हें यह जानना होगा कि पार्टियां आती- जाती रहेंगी और सदा नफरत फैलाने वाले लोग मौजूद रहेंगे। समाज तो उन्हें समर्थन देगा जो या तो आजादी की कटौती नहीं करेंगे या नफरत फैलाने वाले को दंडित करेंगे। तब जाकर आप वह हासिल कर सकते हैं, जिसे आपने अपना लक्ष्य बना रखा है, जिसके लिए आप चल पड़े हैं। आम सहमति निर्मित करना इस दिशा में पहला कदम भर है। मोदी सरकार यहीं पर नाकाम हुई है साथ ही कांग्रेस क्षमता हीन दिख रही है। इनके पास उतनी बौद्धिक गुंजाइश नहीं है कि वह अन्य लोगों के दृष्टिकोण और मतों को भी अपने वैचारिक क्षेत्र में स्थान दे सके। और इसके हाशिये पर पड़े सिरफिरे तत्व इस बात पर तुले हुए हैं कि ऐसे कोई प्रयास कामयाब न हो सकें। किसी और के बजाय मोदी इसे बेहतर जानते हैं। अवॉर्ड लौटाने वाले लेखकों, फिल्मकारों व अन्य बुद्धिजीवियों के प्रति सरकारी प्रतिक्रिया भी अनावश्यक थी। इससे पता चलता है कि भाजपा सांकेतिक मुद्राओं के महत्व के बारे में कितना कम समझती है। यह कोई मोदी विरोधी रवैया नहीं है, जैसा कि उनके चापलूस समझते हैं। ये बुद्धिजीवी किसी का पक्ष नहीं ले रहे हैं। उन पर कांग्रेस के गुट का लेबल लगाना उतना ही मूर्खतापूर्ण है, जितना कि कुछ लेखकों पर या आगे अकादमी अवॉर्ड से सम्मानित होने वालों पर भाजपा का लेबल लगाना। बुद्धिजीवी वर्ग यह चिंता प्रदर्शित कर रहा है कि भारत गलत दिशा में जा रहा है। उन्हेें यह देखकर बेचैनी है कि प्राथमिकताओं का घालमेल हो रहा है और हम गलत सपनों का पीछा कर रहे हैं। कौन जानता है, वे सही भी हो सकते हैं? शायद मोदी को उनकी बात सुननी चाहिए। वे अपने वफादारों को निकट रख सकते हैं, लेकिन उन्हें अपने आलोचकों को और भी निकट रखना चाहिए। सत्ता में बैठे हर व्यक्ति को वह सब सुनना चाहिए, जो वह सुनना नहीं चाहता। कहते हैं कि ,

निंदक नियरे राखिये आंगन कुटी छवाय

बिन साबुन पानी बिना निर्मल करे सुहाय।


Friday, November 6, 2015

समाधान का संधान करें



6 नवम्बर

भारत में बढ़ती असहिष्णुता की गूंज दूसरे देशों में भी सुनाई देने लगी है। मूडी कारपोरेशन के बाद अबविदेशी अखबारों ने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को नसीहत देने के अंदाज में लिखना शुरू कर दिया है। न्यूयार्क टाइम्स ने ‘हिंदू अतिवाद की कीमत’ शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि भारत में बढ़ते असहिष्णुता के माहौल से देश और विदेश के बिजनेस लीडर निराश हैं। इसके अनुसार यह वह भारत नहीं है, जैसा बड़ी संख्या में भारतीय चाहते हैं। यह वह भारत भी नहीं है, जो विदेशी निवेश आकर्षित कर सके, जिसके लिए मोदी ने अपनी विदेश यात्राओं में मेहनत की है।पिछले हफ्ते मूडी ने भी मोदी को चेताया था कि राजनीतिक विफलता आर्थिक परिणामों के लिए घातक हो सकती है। संस्था ने अपनी रिपोर्ट में प्रधानमंत्री को विवादित बयान देने वाले भाजपा नेताओं पर लगाम लगाने की नसीहत दी थी।मूडी के मुताबिक ऐसा नहीं करने पर मोदी के घरेलू और वैश्विक मोर्चे पर अपनी विश्वसनीयता खो देने का खतरा है।प्रधानमंत्री मोदी अमूमन मीडिया की आलोचना को खास तवज्जो नहीं देते लेकिन उनकी हाल की अमरीकी यात्रा ने दोनों देशों में बहुत उम्मीदें जगा दी हैं। ऐसे में वहीं के एक अखबार द्वारा भारत की स्थिति पर की गई टिप्पणी के काफी मायने हैं। असहिष्णुता के इस बात को ही संदर्भ में रख कर हालातों का जायजा लेंगे तो हमारे समाज में दो तरह के लोग दिखेंगे। एक दक्षिणपंथी हैं , जिन्हें उपहास पूर्वक संघी, कच्छाधारी वगैरह वगैरह की उपमाएं दी जाती हैं। दूसरे तरह के वे लोग हैं जो इस तरह की उपमाएं देते हैं और खुद को उदारवादी कहते हैं। ये शब्द कुछ ऐसे हो गये हैं मानों वे बिम्ब हो गये हैं। संघी कहते ही लगता है कि कुछ लोगों के गिरोह हैं जो बलवा करते चल रहे हैं, उन्मादी आंदोलनकारी हैं। ... और उदारवादी कौन हैं? लगता है कुछ ऐसे लोगों एक तबका जो ड्राइंगरूम बैठ कर भरी भारी तर्क दे रहा है। देश की आर्थिक नीति और धर्मनिरपेक्षता के मुद्दों पर उन उदारवादियों को पता ही नहीं होता है कि भारत वास्तव में कैसा होना चाहिए। उनके पास कभी कोई समाधान होता है, इसलिए यह कहना कठिन है कि वे किस का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनका व्यवहार झुंड की तरह होता है। इन्हें अपने भारत के बारे में मालूम नहीं है। अपनी अंग्रेजी शिक्षा ,ऊंचे रसूख और अंतरराष्ट्रीय संस्कृति के अनुभव के कारण वे उच्च वर्ग के साथ घुलमिल सकते हैं। आम आदमी से विशिष्ट होने से उन्हें सर्वश्रेष्ठ नौकरियां मिलती हैं और इससे भी बड़ी बात, समाज में ऊंचा दर्जा मिलता है। विशिष्ट वर्ग के ये लोग अपने जैसे अन्य लोगों को आसानी से पहचान लेते हैं और वे एक-दूसरे के साथ रहना पसंद करते। चूंकि खुद को अलग साबित करना उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है , इसलिए उन्होंने लगभग हर उस चीज को नापसंद करना शुरू कर दिया, जिसे साधारण भारतीय पसंद करते हैं। अभी ताजा उदाहरण ‘विख्यात अर्थशास्त्री’ विवेक देवराय का देखें। इन्होंने फतवा दिया है कि भारतीय समाज कभी सहिष्णु रहा ही नहीं। यह उक्ति उसी विशिष्ट वर्ग की है जिसका जिक्र ऊपर किया जा चुका है। विशिष्ट वर्ग के इन लोगों ने अपना एक खास वर्ग बना लिया। समय बदला और भारत आर्थिक प्रगति करता गया। प्रतिभा की मांग बढ़ गई और अब विशिष्ट वर्ग के होेने का उतना अर्थ नहीं रह गया। योग्यता व प्रतिभा के आधार पर नौकरियां हासिल हुईं तो ज्यादा लोग समृद्ध हो गये। उन्हें अंतरराष्ट्रीय संस्कृति का अनुभव नहीं है लेकिन इसकी उन्हें परवाह भी नहीं है। इन प्रतिभाशाली बच्चों को स्थानीय संस्कृति,भाषा और धर्म को निची निगाह से देखने की कोई जरूरत नहीं थी। इन्होंने गौरवभरे राष्ट्रवादियों का बड़ा वर्ग तैयार किया।इस ताजा स्थिति के बाद विशिष्ट वर्ग के लोग खुद को असुरक्षित महसूस करने लगे। वे ही एकजुट होकर उदारवादियों के नए स्वरूप में उभरे। खुद को धर्मनिरपेक्ष और सहिष्णु कहने लगे। उन्होंने एक ऐसा वातावरण बनाया मानो भारत को हिंदू आक्रमण से बचा रहे हैं। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हिंदू भावना पर हमला करने वाले ये उदारवादी, उसी तरह इस्लामी कट्टरपंथियों पर हमला नहीं करते। इन उदारवादियों को उपहास में छद्म धर्मनिरपेक्षवादी और छद्म उदारवादी इसलिए कहते हैं कि उदारवाद उनका एजेंडा है ही नहीं। उनका एजेंडा तो उन वर्गों को निची निगाह से देखना है, जिन्हें अंतरराष्ट्रीय अनुभव की विशिष्टता हासिल नहीं है। ये नकली लोग हैं। हमें ऐसे लोगों की जरूरत है जिनके पास नए विचार हों, समाधान हों और सच्चे अर्थ में सबमें मिलने-जुलने की इच्छा हो। मोदी की गलोचना करने से कुछ नहीं होने वाला, या विवेक देवराय की तरह पूरे हिंदू समाज को असहिष्णु बताने से कुछ नहीं होने वाला या हर बात को कांग्रेस और भाजपा के बीच का खेल बनाने से कोई लाभ नहीं है। गीता में कहा गया है कि ‘जब पृथ्वी पर मिथ्या का राज हो जाता है तो बुद्धि पर माया व्याप्त हो जाती है।’ आज माया से ग्रस्त हैं हालात। समाज में सुधार के लिए आम-सहमति तो बुद्धिजीवी और उदारवादी ही कायम कर सकते हैं। न्यूयार्क टाइम्स और मूडी की बातों को उछालने से कुछ होने वाला नहीं है। उंगलियां उठाना छोड़ें और समाधान की तलाश करें।

.... और अंत में वे मेरे लिये आये



5 नवम्बर

लेखकों द्वारा पुरस्कार लौटाने का विरोध करने वाले अक्सर यह कहते सुने जाते हैं कि जब आपात काल लागू हुआ था तब क्यों नहीं लौटाया पुरस्कार या सम्मान या जब सिख विरोधी दंगे हुए थे तब क्यों नहीं लौटाया या जब गुजरात में दंगे हुए थे तब क्यों नहीं ऐसा हुआ जो आज हो रहा है। पर ऐसे लोग शायद जानबूझ कर मिथ्या प्रचार कर रहे हैं। पहले यहां यह स्पष्ट कर दें कि करीब करीब हर लेखक और कलाकार ये कहलाना पसंद करता है कि वह अराजनीतिक है लेकिन रचनात्मकता शून्य में तो नहीं पैदा होती। हर रचनात्मकता में राजनीति का कुछ न कुछ पुट जरूर होता है और पुरस्कार को लौटा कर ये बुद्धिजीवी एक तरह का कड़ा राजनीतिक संदेश दे रहे हैं। अमरीकी उपन्यासकार टोनी मॉरिसन ने एक बार सही ही लिखा था, "जो लोग ये कह कर कि वे यथास्थिति को पसंद करते हैं, राजनीतिक न होने की बहुत ज्यादा कोशिश करते हैं, वे वास्तव में राजनीतिक सोच वाले लोग होते हैं।" साहित्य अकादमी या पद्म पुरस्कार लौटाने वाले लोगों के समर्थन या विरोध में कई तर्क दिए जा सकते हैं लेकिन ये बात अधिकतर लोग मानेंगे कि उनके इस क़दम ने देश में बढ़ती हुई असहिष्णुता की ओर सबका ध्यान जरूर खींचा है। पुरस्कार लौटाने की शुरुआत सबसे पहले गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने की थी जब उन्होंने जालियांवाला बाग कांड के विरुद्ध नाइटहुड यानी सर की उपाधि वापस कर दी थी। पद्म पुरस्कारों की निष्पक्षता पर शुरू से सवाल उठते आए हैं। इस पर पहला सवाल पचास के दशक में तत्कालीन शिक्षामंत्री मौलाना आजाद ने उठाया था जब उन्होंने खुद को भारत रत्न दिए जाने के फैसले को अस्वीकार करते हुए कहा था कि पुरस्कार चुनने वाले लोगों को खुद को पुरस्कार देने का अधिकार नहीं है। ऐसे उदाहरण करीब-करीब नहीं के बराबर हैं जब किसी सरकार ने अपने राजनीतिक विरोधियों को इस सम्मान के लिए चुना हो। इसका एक ही अपवाद है जब नरसिंह राव के नेतृत्व वाली सरकार ने विपक्षी दल के अटल बिहारी वाजपेयी को पद्मविभूषण देने का फ़ैसला किया था। आज साहित्यकारों का यह प्रतिरोध इस अर्थ में सफल है कि उन्होंने अभिव्यक्ति की आजादी और बहुलतावादी सह अस्तित्व के मुद्दे पर देश का ध्यान खींचा है। इस दौरान लेखकों को लगातार यह तोहमत झेलनी पड़ी कि उनका पूरा विरोध प्रायोजित है।भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने यहां तक कह दिया कि यदि आपको देश में बढ़ती असहिष्णुता की इतनी ही चिंता है तो आपने इससे पहले इतने दंगे हुए, तब अपने पुरस्कार क्यों नहीं लौटाए, जब देश में आपातकाल लागू हुआ, तब आपने पुरस्कार क्यों नहीं लौटाए? उनसे बार-बार यह सवाल पूछा गया कि इसके पहले उन्होंने इमरजेंसी या ऐसी दूसरी बड़ी घटनाओं का विरोध क्यों नहीं किया। यह तोहमत यही साबित करती है कि हम मूलतः ऐसे छिछले समाज में बदलते जा रहे हैं जो बीते हुए संघर्षों को याद तक नहीं करता, क्योंकि उसके लिए राजनीति और सत्ता सबसे बड़े मूल्य, सबसे बड़ा सच हैं। क्योंकि समाज का यह बदलाव राजनीति और सत्ता के ही डायनामिक्स से आता है। जहां तक इमरजेंसी का सवाल है उस दौरान तो राजनीतिज्ञों के अलावा लेखकों, पत्रकारों और चित्रकारों ने भी लड़ी थी। उस दौर के हर अादमी को भारती की ये पंक्तियां याद होंगी , शहर का हर बशर वाकिफ है

कि पच्चीस साल से मुजिर है यह

कि हालात को हालात की तरह बयान किया जाए

कि चोर को चोर और हत्यारे को हत्यारा कहा जाए

कि मार खाते भले आदमी को

और असमत लुटती औरत को

और भूख से पेट दबाये ढाँचे को

और जीप के नीचे कुचलते बच्चे को

बचाने की बेअदबी की जाये

इमरजेंसी के दौरान सम्मान लौटाने वालों में फणीश्वर नाथ रेणु और नागार्जुन के अलावा हंसराज रहबर, गिरधर राठी, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, सुरेंद्र मोहन, डॉ रघुवंश, कुमार प्रशांत, कुलदीप नैयर जैसे कई बड़े लेखक और पत्रकार थे, जिन्हें इमरजेंसी के दौरान जेल तक काटनी पड़ी थी। सिख विरोधी दंगों से क्षुब्ध हो कर पाश ने लिखा था

‘मैंने उसके ख़िलाफ़ जीवन भर लिखा और सोचा है

आज उसके शोक में सारा देश शरीक है

तो उस देश से मेरा नाम काट दो।

मैं उस पायलट की धूर्त आंखों में चुभता हुआ भारत हूं

अगर उसका अपना कोई भारत है

तो उस भारत से मेरा नाम काट दो’

गुजरात दंगों के दौरान मंगलेश डबराल की मशहूर कविता किसे याद नहीं होगी।

संक्षेप में पुरस्कार लौटानेवाले बढ़ती असहिष्णुता और हिंसा के लिए केंद्र सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी को इसीलिए दोषी मानते हैं कि जो तत्व हिंसा कर रहे हैं, उनको सरकार और पार्टी का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन प्राप्त है। लेकिन पिछले कुछ सालों से स्थिति ख़राब हुई हैं। दाभोलकर, पानसरे और कुलबर्गी की हत्याएं इस खराब होते हालात का प्रतीक है। इस स्थिति पर कोई चुप है तो हो सकता है हालात इतने बिगड़ जाएं कि हम भी उनके शिकार होने लगें। महर्टिन नीमोलर की वह विख्यात कविता है न

‘....अंत में वे मेरे लिये आये,

और तब मेरी मदद करने वाला

वहां कोई नहीं था।’

Wednesday, November 4, 2015

अभी नहीं तो कभी नहीं



4नवम्बर 2015

कल बिहार का चुनाव खत्म हो जायेगा। प्रधानमंत्री ने आश्वासन दिया है कि वे इसके बाद कई सुधार कार्यक्रम आरंभ करेंगे। प्रधानमंत्री की बात को अगर मानें तो उनका इरादा महंगाई को रोकने तथा अर्थ व्यवस्था में गति लाने के उपाय करने का है। देश के भीतर बदलती तरह- तरह की सांस्कृतिक स्थितियाें को देख कर एक वहम होता जा रहा है कि सरकार अर्थ व्यवस्था से फोकस हटाने की कोशिश में है। सच भी है कि बिहार के चुनाव की फौरी हलचल के बीच देश में मंदी के अंदेशे पर बातचीत का मौका बन नहीं पाया। फिर आर्थिक मामलों में अबतक जिनकी ज्यादा दिलचस्पी रहती आई है वे आज सत्ता में हैं। जो भी सत्ता में होता है उसे महंगाई, मंदी, बेरोजगारी, औद्योगिक उत्पादन, कृषि उत्पादन जैसे संवेदनशील मुददों की चर्चा अच्छी नहीं लगती। पूरी दुनिया का चलन है कि इन जरूरी बातों को विपक्ष ही ज्यादा उठाता है। अलबत्ता इसकी शुरुआत मीडिया से होती है। चारों तरफ से संकेत आ रहे हैं कि हम दिन पर दिन मुश्किल आर्थिक परिस्थितियों से घिरते जा रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां इशारों में हमें आगाह भी कर रही हैं। मौजूदा विपक्ष को बरी करने के लिए तो फिर भी एक तर्क हो सकता है कि उसे सत्ता से उतारने के लिए महंगाई और देश में आर्थिक सुस्ती के प्रचार का हथियार ही चलाया गया था। पिछले दस साल सत्ता में रही यूपीए सरकार जब उस समय इस प्रचार का कोई कारगर काट नहीं ढूंढ़ पाई और विपक्ष और मीडिया ने चौतरफा हमला करके उसे सत्ता से उतरवा दिया तब आज इतनी जल्दी वह इन मुद्दों पर कुछ कहना कैसे शुरू करती? दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से बेरोजगारी का बढ़ना और मौजूदा सत्ता पक्ष की ओर से 65 फीसद युवा जनसंख्या को देश की धरोहर बताया जाना क्या बहुत ही सनसनीखेज बात नहीं थी? इतना ही नहीं देश में लगातार दूसरे साल सूखे के आसपास के हालात बने हैं। बारिश का वास्तविक आंकड़ा 14 फीसदी कम होने के बावजूद इस विकट परिस्थिति की कोई चर्चा तक न हुई। तब भी नहीं हुई जब सभी दालों के दाम हर हद को पार कर गए। आज सरकार की सबसे बड़ी चुनौती विपक्ष से तालमेल बनाया जाना और जी एस टी जैसे महत्वपूर्ण विधेयकों को मंजूरी दिलाना। यही नहीं सरकार को महत्वपूर्ण आर्थिक सुधार करने होंगे। विगत दो बजटों में ऐसा कुछ नहीं हुआ जिसे व्यवसाय के लिए बहुत बड़ी बात कही जाय। वैश्विक मंदी की आहट के बावजूद हमारी मुद्रा निश्चिंत भाव वाली है। इसके पीछे कौन सा विश्वास है? कहीं यह तो नहीं कि पिछली भयावह वैश्विक मंदी में मनमोहन सरकार ने पूरे यकीन के साथ बेफर्क रहने का विश्वास जताया था और वैसा ही हुआ था। लेकिन क्या आज के माली हालात वाकई तब जैसे हैं? सन 2008 के बाद से 2015 तक हमारी आबादी 13 करोड़ बढ़ी है। पिछले डेढ़ साल में साढ़े तीन करोड़ युवक पढ़ लिखकर या ट्रेनिंग लेकर या रोजगार के लायक होकर बेरोजगारों की कतार में लग गए हैं। हालत यह है कि देश में उपलब्ध कुल जल संसाधन का हिसाब रखने वाले जल वैज्ञानिकों को यह नहीं सूझ रहा है कि हर साल सवा दो करोड़ के हिसाब से बढ़ने वाली आबादी के लिए पानी का इंतजाम कैसे करें? दो साल पहले तक भोजन, पानी, छत, वगैरह के इंतजाम के लिए योजना आयोग के विद्वान सोच विचार करते रहते थे। उससे हालात का पता चलता रहता था। साल दर साल फौरी तौर पर इंतजाम होता रहता था। अब योजना आयोग खत्म कर दिया गया है या उसका नाम बदल दिया गया है। बहरहाल उन पु़राने विशेषज्ञों का विचार- विमर्श लगभग बंद है और नए प्रकार के आयोग के बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं चल रहा है। चाहे कृषि हो या जल प्रबंधन हो और चाहे औद्योगिक क्षेत्र हो, कोई भी बड़ा विशेषज्ञ नया सुझाव या नवोन्मेष लेकर नहीं आ रहा है। अभी सबसे जरूरी है कि सरकार विकास को राज्यों के चुनावों से अलग कर दे। क्योंकि , अभी बिहार का चुनाव खत्म हुआ है, इसके बाद 2016 में असम, केरल , तमिलनाडु और बंगाल का चुनाव है और उसके बाद 2017 में उत्तर प्रदेश के चुनाव हैं। इसका अर्थ है कि पार्टियां हमेशा चुनाव की तैयारी में लगी रहेंगी। सत्तारूढ़ दल को चाहिये ​कि वह लोकसभा चुनाव पर नजर टिकाये और उसके पहले कुछ उल्लेखनीय सुधार कर ले। राज्यों के चुनाव के नतीजों से सुधारों और अन्यान्य हालातों से जोड़ना व्यर्थ है। 2019 में लोकसभा चुनाव होने वाले हैं अगर अभी सुधार आरंभ हुए तो उसके नतीजे आने में तो थोड़ा समय लगेगा ही , इसलिये अगर अभी नहीं हुआ तो फिर बहुत देर हो जायेगी। संक्षेप में कहें तो कह सकते हैं कि ‘अभी नहीं तो कभी नहीं।’