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Friday, November 30, 2018

भारत अमीर हो रहा है लेकिन भारतीय देश छोड़ रहे हैं

भारत अमीर हो रहा है लेकिन भारतीय देश छोड़ रहे हैं

जैसे-जैसे भारत अमीर होता जा रहा है इसके बाशिंदे देश छोड़कर बाहर जा रहे हैं । एक अनुमान के मुताबिक 2017 में लगभग एक करोड़ 70 लाख भारतीय विदेशों में रह रहे थे। राष्ट्र संघ के आर्थिक मामलों के विभाग के मुताबिक 1990 में यह संख्या केवल 70 लाख थी यानी 27 वर्षों में यह संख्या 143% बढ़ गई। इसी अवधि में भारत की प्रति व्यक्ति आय 522% बढ़ी और इससे अधिक से अधिक लोगों के रोजगार के लिए विदेश जाने के अवसर बढ़े। दिलचस्प बात यह है कि इस अवधि में विदेश जाने वाले अकुशल श्रमिकों की संख्या घटी है । एशियन डेवलपमेंट बैंक आंकड़ों के मुताबिक 2017 में तीन लाख 91 हजार लोगों ने रोजगार के लिए देश छोड़ा। इसका यह मतलब नहीं है की भारत  छोड़ने वाले इस तादाद को प्रतिभा का पलायन मान लिया जाए ।  यह मान लिया जाए  कि अधिक कुशल लोग अपना देश छोड़कर जा रहे हैं। यह आंकड़े अकुशल मजदूरों के हैं और इनके लिए इमीग्रेशन चेक अनिवार्य (ईसीआर ) ईसीआर पासपोर्ट्स भारत के विदेश मंत्रालय द्वारा उन लोगों को जारी किए जाते हैं जो रोजगार के उद्देश्य से देश से बाहर मध्य पूर्व या दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में जाते हैं ।सरकार की नीतियों में परिवर्तन के कारण ज्यादा से ज्यादा लोग नन ईसीआर पासपोर्ट पर विदेश जा रहे हैं। इसलिए यह संख्या कम दिखाई पड़ रही है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के यूरोपीय संघ भारत सहयोग के तकनीकी अधिकारी के अनुसार एक आंतरिक समायोजन के बाद बहुत लोगों को गैर ईसीआर पासपोर्ट दिया जाने लगJ इससे जो आंकड़े हासिल हुए उसमें यह लगा कि रोजगार की तलाश में विदेश जाने  वालों की संख्या घट गई है । ऐसे में यह कहना कठिन है की क्या अति कुशल लोग जा रहे हैं। हां यह बात है की सभी क्षेत्रों में कुशल लोगों की संख्या बढ़ी है और ऐसे में इस तरह के लोगों का जाना प्रतिभा पलायन कहा जा सकता है। पर विदेश जाने का संबंध खुशहाली से होता है। क्योंकि विदेश जाने के लिए अधिक से अधिक लोगों के पास अब संसाधन उपलब्ध हैं ।यह उस समय कम हो जाता है जब कोई देश उच्च मध्यवर्गीय आय वर्ग में शामिल हो जाता है ।स्थानीय रोजगार मे  श्रमिकों को शामिल नहीं किए जाने के कारण भी प्रवास बढ़ता है। पूरी दुनिया में लगभग 73% लोग हैं जो अपने अतिथि देश में प्रवेश कर रहे हैं। भारत में काम करने की उम्र हर महीने 13 लाख के अनुपात में बढ़ रही है रेलवे में 90000 नौकरियों के लिए दो करोड़ अस्सी लाख लोगों ने  आवेदन किया था ।1990 से 2017 के बीच  के तीन दशकों में बड़ी संख्या में भारत से काम करने वाले लोग विदेश गए। मध्य पूर्वी अरब के देश कतर में रहने वाले भारतीयों की संख्या 1990 से 2017 के 27 वर्षों में 2738 से 22 लाख हो गई। 2015 से 17 के बीच के 2 वर्षों में कतर में भारतीयों की संख्या 3 गुनी हो गयी। ओमान में यह संख्या 628% बढ़ गई जबकि संयुक्त अरब अमीरात में यह अनुपात 622% बढ़ा। जबकि इसी अवधि में सऊदी अरब और कुवैत में भारतीय आबादी क्रमशः 110 और 78% बढ़ी। यह आंकड़े बताते हैं कि खाड़ी के देशों में विस्तृत होती अर्थव्यवस्था के प्रति भारतीयों का रुख क्या है । विदेश मंत्रालय की 2016 -17 की रिपोर्ट के अनुसार  हाल की वैश्विक मंदी के कारण भारत से इस क्षेत्र में जाने वाले मजदूरों की संख्या कम हो गई है।
      इटली गैर अंग्रेजी भाषा देश है ,लेकिन 1990 के बाद से यहां बहुत बड़ी संख्या में भारतीय रहने लगे हैं और यह इसे यूरोप में सबसे बड़ी भारतीय आबादी का देश बना दिया है। इसका मुख्य कारण है इन देशों में विदेशियों के रहने की सुविधाएं बढ़ी हैं। नीदरलैंड ,नॉर्वे और स्वीडन में 2010 से 2017 के बीच 7 वर्षों में 66, 56 और 42% भारतीयों की संख्या बढ़ गई है ।इंग्लैंड में कुछ ऐसे कानून बन गए हैं  जिससे इन लोगों को बहुत ज्यादा सुविधा नहीं मिल रही है या इनका रहना कठिन हो गया है। यही नहीं भारत से लोग बाहर ही नहीं जा रहे हैं बल्कि भारत में भी बहुत बड़ी संख्या में लोग आ रहे हैं ।यह लोग एशियाई देशों के निवासी हैं।

Thursday, November 29, 2018

क्यों नहीं होता वर्तमान का जिक्र

क्यों नहीं होता वर्तमान का जिक्र

पिछले कुछ दिनों से मी टू अभियान चर्चा का विषय रहा और कई लोगों पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगे । लेकिन सब के सब बहुत पुराने थे। कई-कई  वर्ष पुराने और आरोप लगाने वाले समाज के उच्च वर्ग से संबंधित थे तथा वे लोग भी जिन पर आरोप लगे थे वह भी लगभग उन्हीं वर्गों से थे। इनमें फिल्म अभिनेत्रियां ,महिला पत्रकार वगैरह लोगों ने अभिनेताओं ,निर्देशकों, पत्रकारों और नेताओं पर आरोप लगाए ।  यह आरोप भी बहुत पुराने थे। महिला और बाल विकास मंत्रालय की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक 2014 से 18 के बीच कार्य स्थलों पर यौन उत्पीड़न के मामलों में 43% की वृद्धि हुई है। इनमें उत्तर प्रदेश पहले स्थान पर है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 4 वर्षों में उत्तर प्रदेश में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के 726 मामले दर्ज किए गए। यह आंकड़ा देशभर में कुल जितने मामले दर्ज किए गए थे उनका लगभग एक तिहाई है। सबसे बदनाम दिल्ली इस मामले में दूसरे स्थान पर है और हरियाणा तीसरे स्थान पर जबकि मणिपुर और मेघालय में 2015 से 3 वर्षों के बीच एक भी ऐसी घटना नहीं हुई । महिला विकास और बाल कल्याण मंत्रालय की इस रिपोर्ट से स्पष्ट जाहिर होता है कि देश में यौन उत्पीड़न के मामले बढ़ रहे हैं।  लेकिन, हाल में बहु प्रचारित मी टू अभियान में वर्तमान के मामलों का कोई जिक्र नहीं किया गया।
           इंडियन बार काउंसिल की रिपोर्ट बताती है कि कार्यस्थल पर होने वाली यौन हिंसा के खिलाफ 70% महिलाएं रिपोर्ट ही नहीं दर्ज कराती हैं। यह हाल तब है जब रिपोर्ट दर्ज कराने का अनुपात 51% बढ़ा है।            कामकाजी महिलाओं के यौन उत्पीड़न से जुड़े कानून के तहत ऐसे स्थान पर जहां 10 या 10 से ज्यादा कर्मचारी काम करते हैं वहां एक आंतरिक शिकायत समिति का होना अनिवार्य है। लेकिन, हाल के आंकड़े बताते हैं कि भारत की 36% और मल्टीनेशनल कंपनियों  25%  में  आंतरिक शिकायत समिति का गठन नहीं हुआ है।  अभी हाल में मी टू अभियान के बाद भी कोई भी महिला या लड़की वर्तमान में अपने साथ हो रहे यौन शोषण के खिलाफ खुलकर नहीं आई या उसने कोई शिकायत दर्ज कराई आखिर क्यों?
     देश में व्याप्त बेरोजगारी इसका मुख्य कारण है । क्योंकि अगर नौकरी छूट जाती है तथा कहीं और काम नहीं मिलता है तो वह लड़की क्या करेगी ? खासकर के ऐसे मौके पर जब यौन शोषण के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराने के नाम पर उसकी नौकरी गई हो। सर्व व्याप्त  सोशल मीडिया के कारण उसका उसका प्रचार हो ही जाता है। इस प्रचार के बाद उस लड़की या महिला को  कहीं भी काम मिलना मुश्किल हो जाता है तथा बेइज्जती होती है वह अलग। भारतीय शहरों और कस्बों में यौन शोषण आम बात है। वह बेकार रहेगी तो यह संकट और बढ़ता जाएगा इसलिए लड़की या महिला इस तरह की रिपोर्ट दर्ज कराने से पहले यह सोचती है। इससे उसकी आर्थिक आत्मनिर्भरता खत्म हो जाएगी और भविष्य भी दुखमय हो जाएगा। लड़कियां अपने करियर के डर से रिपोर्ट नहीं दर्ज करातीं क्योंकि इसमें बहुत बड़ा जोखिम है। यही नहीं, उसका साथ देने वाला भी कोई नहीं होता और इस कारण हुई बदनामी के चलते शादी में भी दिक्कत है आती है । पुरुष मानसिकता कुछ ऐसी है कि कोई भी यौन शोषण की शिकार महिला से शादी करने को तैयार नहीं होता। यही नहीं, आंतरिक शिकायत समिति के सदस्यों को कानून की पूरी जानकारी नहीं होने से भी मामला गड़बड़ हो जाता है और भ्रष्टाचार एक दूसरा मसला है। कई बार यह भी देखा गया है दबाव के कारण यह समिति केस को हल्का कर देती है और निष्पक्ष जांच नहीं हो पाती । इस दुरावस्था से गुजरने के बाद कई महिलाओं ने आत्महत्या तक कर ली है । कई बार पुरुष प्रधान समाज में महिला के व्यवहार को ही यौन शोषण का कारण समझा जाता है और उसे ही दोषी करार दे दिया जाता है । इसलिए मध्यम वर्ग में वर्तमान में ऐसा कुछ भी नहीं किया जा रहा है ना कहा जा रहा है। जो कुछ भी है वह अतीत की घटना है और उच्च वर्ग से ही संबंधित है, जहां जीवन में सुरक्षा है और भविष्य पूरी तरह सुरक्षित है।

Wednesday, November 28, 2018

फिर गरमाने लगा  है  किसानों का मुद्दा 

फिर गरमाने लगा  है  किसानों का मुद्दा 

जैसे - जैसे चुनाव की घड़ी निकट आ रही है किसानों और खेतों से संबंधित मुद्दों को तेजी से समर्थन और सरकारी सहानुभूति मिलने लगी है। इसे लेकर मची अफरा - तफरी  एक निश्चित संकेत है कि मतदान का मौसम आने वाला है। गरीब, कमजोर, पिछड़े वर्गों का   चुनाव के समय  काफी बढ़ा - चढ़ा कर उल्लेख किया जाता है।यह वर्ग देश की  130 करोड़  की विशाल आबादी का सत्तर प्रतिशत है।
अब तक देश में राजनीति की कहानी यही रही है कि सत्ता में, सत्ता से बाहर, शक्ति, राजाओं और राजा बनाने वालों  की इच्छा रखने वाले  सभी कतार में रहे हैं। नवीनतम दौर में दिखता है कि अखिल भारतीय किसान सभा, सेंटर फॉर इंडियन  ट्रेड यूनियंस  और अखिल भारतीय कृषि श्रमिक संघ ने कल और परसों यानी  29 और 30 नवंबर को दिल्ली में किसानों की एक बड़ी रैली आयोजित की  है।
सभी विपक्षी दलों के नेताओं को रैली के समापन  पर 2019 में सत्ता में आने के लिए कृषि समुदाय को परेशान करने वाले कृषि संकट और विभिन्न मुद्दों को स्पष्ट करने और प्रस्तावित करने के लिए आमंत्रित किया गया है। दिलचस्प बात यह है कि इस रैली में सत्तारूढ़ पार्टी बीजेपी को आमंत्रित नहीं किया गया है।
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी शीर्ष विपक्षी नेताओं में से एक होंगे जो अपने विचारों और योजनाओं को प्रस्तुत करेंगे। यह एक स्वागत योग्य कदम है और यह उम्मीद की जाती है कि यह चर्चा किसानों के लिए विपक्षी दलों की झोली  में लाभ ही डालेगा। यह सामान्य चुनावी रैलियों की तरह नहीं होगा। सामान्य रैलियों में  पार्टी के कार्यक्रम बताने में ही  तीन चौथाई समय खत्म हो  जाता है। 
कांग्रेस अध्यक्ष की भागीदारी कांग्रेस पार्टी द्वारा कृषि संकट को एक बड़ा चुनावी मुद्दा  बनाने का प्रयास है। इन दिनों राहुल गांधी अपने भाषणों में इन दिनों राफले जेट सौदे को रद्द करने पर थोड़ा अधिक जोर दे रहे हैं। पार्टी को किसानों की समस्याओं पर , विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में , ध्यान अधिक केंद्रित करना चाहिए। इस आपाधापी में उत्तर प्रदेश बुरी तरह से खो गया।  अब पार्टी को छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में  जीतने की जरूरत है। इन तीन राज्यों में 65 लोकसभा सीटें हैं। इनमें से 2014 के आम चुनावों में बीजेपी को 62 स्थान मिले थे। यदि कांग्रेस पराजय को  दोहराने से बचना है तो इसे यहां अच्छा प्रदर्शन करने की जरूरत है।
वास्तव में, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के लिए कांग्रेस घोषणापत्र मुख्य रूप से कृषि संकट पर केंद्रित हैं। उसने ऋण छूट और कल्याण कारी उपायों का वादा किया है, जिसमें स्वामिनाथन आयोग की  सिफारिश - फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ाना शामिल है। 
कांग्रेस पार्टी देश को परेशान करने वाले संकट के लिए अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकती है। यह वह पार्टी थी जो स्वतंत्रता के बाद से सबसे लंबे समय तक केंद्र और राज्यों में सत्ता में थी। मौजूदा सरकार किसानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को ठीक करने के लिए कुछ नहीं कर सकती थी।
सरकार बदल गई है, फिर भी किसानों के लिए कुछ भी नहीं बदला है। तब कांग्रेस और मनमोहन सिंह निशाने पर थे, और आज वहां प्रधान मंत्री मोदी और बीजेपी हैं। राहुल गांधी ने बार-बार कहते हैं  कि जैसे ही कांग्रेस सत्ता में आएगी, कृषि ऋण माफ कर दिया जाएगा। उन्होंने कभी भी इस बात पर जोर देने का मौका नहीं छोड़ा कि प्रधान मंत्री मोदी किसानों के ऋण माफ करने के विरोधी हैं।
हालांकि,  कृषि ऋण छूट से कुछ हल होने वाला नहीं है। कर्ज़दार किसानों को ऋण जाल से बाहर लाने के अपने उद्देश्य में कम से कम प्रत्येक कृषि ऋण छूट विफल रही है। मुख्य कारण यह है कि अधिकांश कृषि ऋण संस्थागत स्रोतों से दिए गए नहीं हैं।
मुद्रा ऋण योजना शायद ऋण पाने का सबसे आसान तरीका था लेकिन इसके कार्यान्वयन को  वांछित फल के प्राप्त होने के  पहले ही छोड़ दिया गया। दूसरा, कोई भी छूट या ऋण चुकाने से बैंक के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, जो कृषि क्षेत्र सहित हर क्षेत्र को प्रभावित करता है।
इसके अलावा, हमारे किसानों का एक बड़ा हिस्सा छोटे और सीमांत किसानों का है, जो आम तौर पर बैंक ऋण हासिल करने में असमर्थ होते हैं और न ही बैंकों में रुचि रखते हैं। उन्हें ऋण छूट योजना से  कोई फायदा नहीं होगा।
एमएसपी मुद्दे पर, यह याद रखना चाहिए कि हमने इसे दीर्घकालिक समाधान के रूप में अल्पकालिक, आपातकालीन राहत उपाय   बना दिया गया है। एमएसपी पर अधिक निर्भरता निकट भविष्य में खेती को  गैर-लाभकारी बना देगी। यह फसल विविधता और गुणवत्ता को प्रतिकूल रूप से भी प्रभावित करेगा। यह समझना मुश्किल है कि क्यों एक किसान, एक अच्छी नौकरी करने के बाद - एक बम्पर फसल काटने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य पर भरोसा करेगा?
हमारे नीति निर्माता कृषि उपज और किसानों के लिए अधिकतम औसत मूल्य के बारे में कब बात करेंगे? किसान क्या कमाता है और उपभोक्ता क्या कम कराता है इसके बीच का अंतर कब समाझ में आएगा? असल में,    कृषि उपज के लिए उपभोक्ता जो भुगतान करता है उसका एक बड़ा हिस्सा दलाल हड़प जाते हैं।
  पड़ोस की किसी सब्जी या फल मंडी में जाएं  तो  पता चलेगा कि यहां क्या होता  है। एक अलग उपाय के रूप में , कृषि समुदाय  उन दुर्भाग्यपूर्ण परिवारों से निपटने के लिए नीतिगत उपाय  चाहता है, जिन्होंने कृषि संकट के कारण  आत्महत्या से परिवार का पेट भरने वाला खो दिया है।
अक्सर पीछे बच गए लोगों के पास खुद को बचाने का कोई साधन नहीं है। कर्ज चुकाने के लिए अकेले बचे हैं। इस पहलू से निपटने के लिए कोई उपाय कृषि संकट और परिणामी मानव पीड़ा को खत्म करने या आसान बनाने की दिशा में एक लंबा रास्ता तय करेगा।
मौजूदा सरकार किसान की आमदनी को दोगुना करने की बात करती है। यह अकेले ऋण छूट और एमएसपी के बल पर नहीं होगा। हालांकि इन दोनों उपायों से अल्पकालिक संकट राहत मिल सकती है।सरकार को इस क्षेत्र के समग्र विकास पर ध्यान केंद्रित करना होगा। देश के कृषि बुनियादी ढांचे को उन्नत, आधुनिक बनाने की जरूरत है।
कृषि क्षेत्र को एक समेकित नीति की आवश्यकता है जो बीज, उर्वरक, सिंचाई, बिजली, मौसम पूर्वानुमान, शीत श्रृंखला, फसल बीमा और उसके बाद के बाजारों के मुद्दों को निपटायेगी। यह एक ऐसी जगह है जहां  खरीदार और उपभोक्ता से किसान मिल सकता है। सरकार की ई-मंडी अवधारणा कागज पर ठीक थी लेकिन जमीन पर इसका कार्यान्वयन कम होता है।
मूल प्रस्ताव 400 से अधिक ई-मंडियों की स्थापना करना था - किसानों को शायद कुछ हजार की जरूरत है। जिस दिन यह कर दिया  गया  उस दिन, संभवतः एमएसपी और ऋण छूट मतदान का लोलीपॉप खत्म हो जाएगा। भारत विकास की दिशा में एक बड़ी छलांग लगाएगा।

Tuesday, November 27, 2018

अयोध्या में शक्ति प्रदर्शन: भीगे पटाखे की तरह फुस्स

अयोध्या में शक्ति प्रदर्शन: भीगे पटाखे की तरह फुस्स

अयोध्या में आज से 4 दिन पहले यानी 25 नवंबर को विश्व हिंदू परिषद का शक्ति प्रदर्शन भीगे पटाखे की तरह फुस्स हो गया। विश्व हिंदू परिषद ने दावा किया था कि वह 25 नवंबर को अयोध्या में दो लाख लोगों को इकट्ठा करेगा। साथ ही वह इस अवसर पर भाजपा के लिए हिंदू मतदाताओं को कोई संदेश भी नहीं दे सका। इसमें  और भी खराब हुआ वह कि उनके प्रतिद्वंदी शिवसेना के प्रमुख उद्धव ठाकरे ने एक दिन पहले ही  24 नवंबर को  प्रदर्शन कर मैदान मार लिया। हालांकि उनके प्रदर्शन में बहुत कम लोग थे। अगर संख्या बल को माने तो उद्धव ठाकरे के इस प्रदर्शन में विश्व हिंदू परिषद की धर्म सभा में  जमा लोगों से लगभग एक दहाई लोग थे ।धर्म सभा में  अनुमानित तौर पर पचास हजार कार्यकर्ता उपस्थित हुए थे । ठाकरे ने इस अवसर एक नया नारा दिया कि" हर हिंदू की यही पुकार, पहले मंदिर तक सरकार" और यह लोगों की जुबान पर चढ़ गया। विश्व हिंदू परिषद का नारा "राम लला हम आएंगे मंदिर वहीं बनाएंगे", इस नारे के सामने फीका पड़ गया। ठाकरे ने भाजपा को चुनौती दी कि वह मंदिर बनाने के लिए एक निश्चित तारीख तय करे। उनकी यह चुनौती लोगों के मन में बैठ गई । जो लोग यहां जमा हुए थे उन्हें उम्मीद थी कि भाजपा और विहिप बोलने के अलावा कुछ करेगी भी। लेकिन कुछ नहीं हुआ।  ठाकरे ने मोदी पर तंज कसते हुए कहा कि "केवल 56 इंच का सीना होना ही काफी नहीं है, उसके अंदर एक दिल भी होना चाहिए, जिसमें एक मर्द जीता हो।" उन्होंने यह भी कहा कि अगर भाजपा मंदिर बनाने के लिए कोई कानून बनाती है तो यकीनन शिवसेना उसका समर्थन करेगी। शिवसेना और विहिप के बीच एक समान विंदु यह था कि दोनों मंदिर के लिए कानून बनाने की मांग कर रहे थे। दोनों में से कोई भी राम जन्मभूमि - बाबरी मस्जिद अदालती झगड़े नहीं जाना चाहता था।
        2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने आदेश दिया था कि विवादास्पद जमीन को तीन हिस्से में बांट दिया जाए । इसका दो हिस्सा मंदिर बनाने के लिए दे दिया जाए और एक हिस्सा मस्जिद बनाने के लिए। दोनों पक्षों ने इसके विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में अपील की। विहिप की  धर्म सभा में देश के कोने-कोने से संत आए थे। लेकिन, यह सभा निश्चित समय से एक घंटा पहले खत्म हो गई क्योंकि यहां मौजूद स्वयंसेवक धीरे धीरे रवाना होने लगे। यह स्पष्ट था कि विश्व हिंदू परिषद , राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या अन्य हिंदू संगठनों के पास कहने के लिए कुछ नया नहीं था। इस आयोजन के मुख्य आयोजक विश्व हिंदू परिषद ने एक औपचारिक प्रस्ताव तक नहीं पारित किया। हालांकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह कार्यवाह ने चेतावनी दी कि " मंदिर के निर्माण होने तक न चैन से बैठेंगे ना चैन से बैठने देंगे।" लेकिन ,यहां यह स्पष्ट नहीं हो सका कि वह किसे यह चेतावनी दे रहे थे। विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं तथा संतों ने यह बार-बार कहा कि मंदिर के लिए उन्हें पूरी जमीन चाहिए और वहां उपस्थित कई वक्ताओं ने बहुत जोरदार शब्दों में कहा कि इलाहाबाद हाईकोर्ट का आदेश उन्हें मान्य नहीं है।
       राम जन्म भूमि ट्रस्ट के प्रमुख महंत नृत्य गोपाल दास ,जिन्हें अयोध्या का बहुत प्रमुख संत माना जाता है,  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति नरम रुख अपनाते हुए देखे गए। उन्होंने कोई मांग प्रस्तुत करने के बदले प्रधानमंत्री से यह कहकर अपील की कि " मोदी जी को चाहिए कि  जन भावनाओं को देखते हुए जल्द से जल्द श्री राम जन्मभूमि पर मंदिर के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करें।" महंत रामभद्राचार्य ने लोगों को यह आश्वस्त करने की कोशिश की कि जो भी बन पड़ेगा वह मोदी जी  मंदिर के लिए करेंगे। उन्होंने दावा किया कि मोदी जी के मंत्रिमंडल के एक वरिष्ठ सदस्य ने कहा है कि संसद के अगले सत्र में मंदिर के लिए कुछ न कुछ ठोस होगा। एक अन्य संत स्वामी हंस देवाचार्य ने मोदी की प्रशंसा करते हुए कहा कि "मैं कह सकता हूं दावे के साथ कि अच्छे दिन आए हैं ।  एक बात जान लो कि केंद्र में अगर कोई और सरकार होती और प्रांत में कोई और सरकार होती तो क्या हम सब यहां होते? क्या आप यहां आते? हम सब जेल में होते।"
         यहां एक बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्य जानने  को मिला की अयोध्या मामले से दूरी बनाने की भाजपा की हरचंद कोशिश के बावजूद भाजपा और उसके हिंदू संगठनों में स्पष्ट मेलजोल और प्रगाढ़ संबंध प्रतीत हो रहा था। स्पष्ट रूप से इस पूरे आयोजन को उत्तर प्रदेश के गेरुआ धारी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और केंद्र सरकार का वरद हस्त प्राप्त था । कुछ गेरुआ धारी नेताओं द्वारा खुल्लम खुल्ला चेतावनी और गरम रुख एक तरह से सुनियोजित था और इस पूरे कार्यक्रम का हिस्सा था। इसके बावजूद शिवसेना ने मोदी जी को ललकारने का अपना उद्देश्य पूरा कर लिया । ठाकरे ने तो यहां तक कह दिया कि "कुंभकर्ण साढे चार वर्षों से सो रहा है।" ठाकरे के आलोचकों ने यह सवाल किया कि भाजपा के सहयोगी के रूप में साढे 4 वर्ष तक शिवसेना ने क्या किया? लेकिन सच तो यह है कि भाजपा और शिवसेना दोनों ने मंदिर का मसला तभी उठाया है जब चुनाव होने वाले हैं। यहां ना तो सरकार और ना ही कोई हिंदू संगठन या कोई भी पार्टी सुप्रीम कोर्ट में जल्दी सुनवाई के लिए याचिका देने को भी उपलब्ध नहीं है । जो  अनुरोध किया गया वह अक्टूबर में किया गया । जब मुख्य न्यायाधीश ने प्राथमिकता के आधार पर इस मामले की सुनवाई से इंकार कर दिया और इसे जनवरी में सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया । कई लोग यह मानते हैं कि अयोध्या में रविवार को जो हुआ वह ना केवल हिंदुओं को अपने पक्ष में लाने का प्रयास है बल्कि परोक्ष रूप से सर्वोच्च न्यायालय को यह बताना है कि इस मामले को लेकर हिंदू बेचैन हैं। यही कारण है हिंदू संगठनों ने चेतावनी दी है कि वह फिर से 1992 वाली स्थिति पैदा कर देंगे। उल्लेखनीय है कि 6 दिसंबर 1992 को कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद को ढाह दिया था। अयोध्या का शोर शराबा तभी शुरू हुआ जब सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई प्राथमिक स्तर पर करने से इंकार कर दिया।
     शिव सेना के प्रमुख उद्धव ठाकरे ने आनन-फानन में अयोध्या का अपना कार्यक्रम घोषित कर दिया था,  उसके बाद अयोध्या में एक व्यापक प्रदर्शन करने का कार्यक्रम विश्व हिंदू परिषद ने घोषित किया। लोगों की धारणा यह थी कि विश्व हिंदू परिषद का कार्यक्रम शिवसेना के कार्यक्रम पर भारी पड़ जाएगा। इस के साथ उत्तर प्रदेश सरकार भी थी। सरकार ने शिव सेना को सार्वजनिक रैली करने की इजाजत देने से इनकार कर दिया था। उद्धव ठाकरे अयोध्या के लक्ष्मण किला में मीटिंग करके संतुष्ट थे। यहां उन्होंने कुछ संतों से मुलाकात की और शिवसेना के कार्यकर्ताओं को संबोधित किया । उन्होंने उसी शाम सरयू के तीर पर आरती भी की और उसके बाद अस्थाई राम जन्मभूमि मंदिर में पूजा भी की। लेकिन शाम को  विहिप और भाजपा इस आयोजन पर शिवसेना भारी पड़ गई। जहां तक मंदिर का सवाल है दोनों पक्ष भीगे पटाखे की तरह फुसफुसकर रह गए। जैसी  उम्मीद थी वैसा कुछ नहीं हुआ।

Monday, November 26, 2018

मूर्तियां विचारों को कुंद भी करती हैं

मूर्तियां विचारों को कुंद भी करती हैं

प्रधानमंत्री स्पष्ट रूप से किसी विशेष छवि की वस्तु नहीं हैं लेकिन वह वही हैं जो उनको देखने के बाद महसूस होता है। एक वाकया है,  स्टालिन ने लेनिन का जन्मदिन मनाना चाहा। उन्होंने रूसी क्रांति को  स्वरूप देने वाले के प्रति अपना सम्मान प्रगट करना चाहा था और इसके लिए उन्होंने लेनिन की एक विशाल मूर्ति बनवाई और उनके जन्मदिन के अवसर पर उस का अनावरण किया गया। उस मूर्ति की डिजाइन स्टालिन  ने ही तैयार करवाई थी और जब उस का अनावरण हुआ तो उसमें लेनिन कहीं नहीं थे। अंततोगत्वा, केंद्रीय समिति के एक सदस्य ने कहा कि कॉमरेड  यह सार्वजनिक कला की एक बेहतरीन जगह बन गयी है।  लगता है कि आप कोई किताब पढ़ रहे हैं । यह ऐसा नहीं प्रतीत होता की लेनिन को सम्मान दिया जा रहा है। स्टालिन ने कहा अच्छा, आप नहीं देख रहे हैं कि मैं एक पुस्तक पढ़ रहा हूं । इस प्रचार का अर्थ केवल एक उद्देश्य को पूरा करना था । जब कोई सरकार किसी आदर्श से संचालित होती है तो उसके संदेश बहुत साधारण होते हैं लेकिन जटिल होते हैं । वर्तमान की एनडीए सरकार ने अपने कार्यक्रम और अपनी पहल की सफलता को प्रचारित करने के लिए बहुत ज्यादा खर्च किया। अब अगर यह देखा जाए की लक्ष्य की उपलब्धि कितनी हुई है तो ऐसा लगेगा बहुत जटिल और गूढ़ बदलाव हो रहा है। सरकार की विज्ञापन नए नहीं है और मूर्तियां देश में कई जगह हैं, लेकिन विज्ञापन और उसका प्रस्तुतीकरण उसके ब्रैंड पर निर्भर करता है कि हम उससे क्या संदेश देना चाहते हैं। वह बार-बार जनता के मस्तिष्क पर एक तरह से आघात करता है और विचार शक्ति को कुंद कर देता है। उस ब्रैंड का कायल इंसान हमेशा उसी के बारे में सोचता है। अब इसमें जो पहला  बदलाव है वह है कि नीतियों का प्रचार कैसे होता है। उदाहरण के लिए प्रधानमंत्री की उज्जवला योजना की सफलता के दावे को ही लें। मूल रूप से, यह एक बचकानी स्थापना है। वहीं बचकाने  मुहावरे वहां सुनने को मिलते हैं।  पिछली सरकार के विज्ञापनों से इसमें एक अंतर था। इसमें एक संदेश आता है "एक ग्रामीण महिला कहती है कि प्रधानमंत्री मोदी ने मेरी जिंदगी को बचा लिया। उन्होंने मुझे गैस कनेक्शन के कठिन परिश्रम से मुक्त कर दिया।" इस विज्ञापन में प्रधानमंत्री को एक व्यक्तिगत रक्षक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है ना कि दूर दिल्ली में बैठे एक नेता के रूप में।
       उसी तरह "स्टैचू ऑफ यूनिटी" इतनी बड़ी बना दी गई है कि वह इतिहास की समझ से खौफ पैदा कर रही है । मूर्ति के बनने के बाद प्रधानमंत्री की दो तस्वीरें सामने आईं जो बता रही हैं कि प्रधानमंत्री अपनी छवि कैसी चाहते हैं। पहली तस्वीर में प्रधानमंत्री एक राजसी अंदाज में मूर्ति को बड़े संतोषजनक ढंग से देख रहे हैं और दूसरी मैडम तूसा के म्यूजियम में अपनी मोम की मूर्ति को स्पर्श करते दिखाई पड़ रहे हैं । नए भारत में जो  प्रयास किए जा रहे हैं वह बहुत नए नहीं हैं। कमर्शियल विज्ञापनों में वस्तुतः सफल ब्रांड खुल्लम खुल्ला महत्वपूर्ण होते हैं। अगर हम साफ-साफ कहें तो यह कह सकते हैं कि शब्दों के अर्थ स्थाई  नहीं होते बल्कि यह संदर्भ और इतिहास के अनुरूप नए अर्थ लेते रहते हैं। किसी चीज की ब्रांडिंग इसी तरह होती है । आज एक व्यक्ति हैं ,वह हमारे प्रधानमंत्री हैं। उनकी ब्रांड बनाने की कोशिश की जा रही है। ऐसी छवि बनाने की कोशिश की जा रही है। जिससे भविष्य की सफलताओं को और उपलब्धियों को जोड़ा जा सके। लेकिन, उनकी जटिलताएं और उनके वैचारिक गठन की जो परिधि है उसे अर्थो और संदर्भों से बहुत जल्दी रिक्त नहीं किया जा सकता। अगर राजनीतिक प्रोपेगंडा के रूप में देखें तो पूरी दुनिया में स्वस्तिक नाजी की पहचान है। इस प्रतीक चिन्ह के इतने विपरीत प्रचार हुए कि वह पश्चिमी दुनिया में सर्वसत्तावाद और बर्बरता का प्रतीक बन गया है। हिटलर के शासन में जातीय गौरव ,शक्ति और राष्ट्रवाद गौण हो गया। यहां भी वही बात है। क्योंकि एक आदमी को चाहे वह जितना भी लोकप्रिय हो उसे सरकार के कामकाज और जिम्मेदारी का अकेले श्रेय क्यों दिया जा रहा है ? चुनाव की राजनीति ने, लगता है सब कुछ बदल दिया है । अब ब्रैंड तैयार करने की कोशिश चल रही है । यह कोशिश दोहरी है। पहली कोशिश है अतीत और वर्तमान की किसी भी असफलता को इतिहास के पन्नों से मिटा दिया जाए। यह थोड़ा कठिन काम होगा। क्योंकि यहां अभी भी विपक्षी दल भी हैं और वे किसी भी अजेंडा का विरोध करते दिखते हैं।  दूसरा एक वाचक के रूप में एक आदमी जो इतिहास और सियासत से जुड़ा हो उसकी छवि से सभी चित्र आसानी से मेल नहीं खाते । सरदार पटेल की इतनी बड़ी मूर्ति बनाकर भी सरकार पूरी तरह सफल नहीं हो पाई है। दूसरी तरफ, वह आकार लौह पुरुष से विपरीत है और राष्ट्र निर्माण की परियोजनाओं से अलग है।

Sunday, November 25, 2018

अपराध और आतंकवाद

अपराध और आतंकवाद

26 /11 का हमला हमारे देश का पहला ऐसा आतंकी हमला था जिसे टेलिविजन पर देखा गया । ठीक, उसी तरह जिस तरह 2002 का गुजरात का दंगा टेलीविजन पर देखा गया था। इसमें जो समझने की सबसे महत्वपूर्ण बात थी वह थी 2002 और 2008 की घटनाएं ,जिसे कहेंगे भयानक हिंसा , बहुत ज्यादा दृश्य थी। 26/11  के उस हमले के  विजुअल्स जड़ कर देने वाले थे । टेलिविजन पर दौड़ते - भागते आतंकी ,हमले रोकने की कोशिश करते , पुलिस अधिकारी और उनके बैकग्राउंड में गेटवे ऑफ इंडिया और ताज होटल, कोलाबा के यहूदियों के केंद्र पर घूमता हेलीकॉप्टर और उसे उतरते कमांडो, कोने में कहीं- कहीं छिपे पत्रकार और कैमरामैन ,ताज होटल से निकलता धुआं, बेचैन लोग और  लाशें, सब कुछ ऐसा लग रहा था जैसे एक कहानी का हिस्सा हो ।जब तक वहां शांति नहीं हुई तब तक यह सब चलता रहा और शांति के बाद वह घटना आतंकवाद की अंतरराष्ट्रीय डायरेक्टरी में शरीक कर ली गई है।
     इस घटना के 10 वर्ष हो  गए। इतना समय हैरत और गुस्से को शांत करने के लिए बहुत होता है । लेकिन भारतीय बहुत ही भावुक लोग हैं और हम अभी भी इस घटना के लिए पाकिस्तान की तरफ उंगली उठा रहे हैं तथा 26 नवंबर को शोक दिवस के रूप में याद करते हैं । लेकिन शायद ऐसा नहीं है । हां, अलीगढ़ विश्वविद्यालय में  नमाजे जनाजा का आयोजन देशद्रोह के आरोप के लिए  काफी है। लेकिन शायद यह काफी नहीं है।  अभी वक्त नहीं आया है लेकिन एक दिन ऐसा आएगा जब नेटवर्क चलाने वाले टीवी कार्यक्रम के साथ मिलकर इस तरह के हमलों की योजना बनाएंगे । जरा सोचिए बगदाद में जनवरी 1991 की बम बाजी। ठीक उसी समय हुई थी जब न्यूयॉर्क के लोग लौट रहे थे और टेलिविजन  के सामने बैठे थे। यहां गलत ना समझें । पूरी घटना शुरू से आखिर तक एक भारी दुखद घटना थी और इसका प्रभाव अरसे तक कायम रहने वाला है। इस घटना में लगभग 160 लोग मरे थे। कई पुलिस वाले मारे गए थे हेमंत करकरे भी उनमें शामिल थे। यही नहीं बहुत से लोग ऐसे भी होंगे जो घायल होकर पड़े होंगे और इस दुखद दुस्वप्न  को भूल नहीं पाए होंगे ।  इसी के साथ इस बात को भी याद करें कि किसी ने यह झूठी अफवाह फैला दी थी अजमल कसाब को जेल में बिरयानी खिलाई जा रही है।
       जो भी हो, टेलिविजन पर दिखाई गई इस दुखद घटना के बाद एक गंभीर तथ्य यह है कि आतंकवाद का प्रसार और हिंसा आधुनिकता के कुछ लक्षणों के साथ सहभागी होती है। यह अति असमानता का प्रतिफल है, जो बाजार के आदर्शों के अन्याय के कारण उत्पन्न होती है।  दिनोंदिन इसका रुख भयानक होता जाता है। यकीनन आधुनिकता के अन्य स्वरूप भी हैं। आधुनिकता सौहार्द और समानता की जननी भी है । दिल्ली के लोगों ने इसका उदाहरण देखा है । एक अलग टोपी पहन लेने के कारण जुनैद को पीट-पीटकर मार डाला गया था । ऐसे लोग भी अस्थाई तौर पर सभ्य थे और इसके बाद सभ्य  भी हो गए और अपने कामकाज में लौट गये। सामान्यीकृत हिंसा का समन्वय आमतौर पर सरकार  करती है। जो कभी-कभी या आपराधिक रूप में भड़कती  है और आधुनिकता में यह स्वाभाविक है। आतंकवाद दरअसल विचारधारा की पैंतरेबाजी है ।खासकर ऐसे समय में जब लोग इसकी प्रक्रिया को समझने से इनकार कर देते हैं ।इसकी प्रक्रिया वैविध्य पूर्ण और संकट की स्थिति में विशेष रूप से जुड़ी हुई  होती है तथा इतिहास के बोझ  से ग्रस्त रहती है, और इसलिए आपराधिक प्रतीत होती है। अपराध एक वस्तुनिष्ठ वास्तविकता है। यह दुनिया में एक वस्तु है , खासकर उत्पीड़न में सामान्य है घटना है । आतंकवाद के सिद्धांत का विरूपण साक्ष्य और दुनिया में इसे स्पष्ट करने का एक तरीका है आतंक। आतंकवाद एक विचारधारा या प्राविधिकी  और हिंसा की अभिव्यक्ति है। वस्तुतः यह सिद्धांत खुद ही वस्तु को प्रेरित करता है ताकि उसका विवरण दिया जा सके। यही कारण है कि आतंकवाद को परिभाषित करने के प्रयास अक्सर नाकाम हो जाते हैं । जो लोग तथा देश इस कोशिश में लगे रहते हैं वह गोल - गोल घूमते नजर आते हैं। उदाहरण के लिए एक आदमी की नजर में जो आतंकी है वह दूसरे आदमी की नजर में देशभक्त सिपाही है या शहीद है । आतंकवाद एक शक्तिशाली सिद्धांत है। इसलिए नहीं कि यह विश्व की प्रकृति में अंतर्दृष्टि के लिए सशक्त माध्यम है बल्कि इसलिए कि ताकतवर लोगों को अपना वर्चस्व बनाए रखने की सुविधा प्रदान करता है। वह वर्चस्वता  सभी प्रकार के विरोध और हिंसा को नाजायज घोषित करती है । हाल में एक केंद्रीय मंत्री ने कहा कि आतंकवादी हिंसा विकास के लिए सबसे बड़ा खतरा है, लेकिन इस संभावना के साथ यह भी तो कहा जा सकता है कि कुछ खास किस्म के विकास आतंकवाद के सबसे बड़े जनक हैं और वह हिंसा को बढ़ावा देते हैं । हिंसा के मामले में विविधता और सूक्ष्म अंतर को मानने से इनकार  ही आतंकवाद  की विचारधारा की मुख्य समर नीति है। इसलिए यह सब स्वीकार करते हैं कि जो सरकार करती है वह आतंकवाद नहीं है बल्कि इस तरह की हिंसा का विरोध आतंकवाद की परिधि में आता है। जिसे आतंकवाद कहते हैं यह हमारी वैचारिक दृष्टि का दोष है। इसलिए जिस पर आज हम बात कर रहे हैं वह घृणित अपराध है तथा अपराध को मिटाने का प्रयास होना चाहिए न कि इसे आतंकवाद की संज्ञा देकर महिमा मंडित करने में  अपनी ऊर्जा खत्म करनी चाहिए।

Friday, November 23, 2018

संस्थानों में अराजकता

संस्थानों में अराजकता

सीबीआई के भीतर की अराजकता साधारण लड़ाई नहीं है। बल्कि यह सरकार के भीतर एक गंभीर संकट है। यह ऐसा  संकट है जो एक ही झटके में सारी साख को मटियामेट कर देगा। यह समस्त प्रकरण एक अमंगल की रचना कर रहा है । इन दिनों सरकार की कोई ऐसी संस्था नहीं है जो सुदृढ दिखे और यह गड़बड़ सीधे प्रधानमंत्री की चौखट तक पहुंच गई है। सचमुच यह आश्चर्यजनक है कि कोई भी राजनीतिक संस्थान खुलकर इस पर बोलने की जरूरत नहीं समझता। अभी हाल में जो आरोप लगे उससे ऐसा लग रहा है राष्ट्रीय सुरक्षा संस्थान भी इस लड़ाई में घसीटा जाएगा। इस समस्त घटनाक्रम का हर पहलू दहला देने वाला है। यह लोगों की नजर में इसलिए आ गया सीबीआई के दो बड़े अफसर एक दूसरे पर आरोप लगा रहे थे। इन आरोपों में  वास्तविकता चाहे जो हो लेकिन एक बात तो स्पष्ट हो गई कि सरकारी प्रणाली के भीतर समस्त अवरोध और संतुलन बिगड़ गया है। नियुक्ति के नियम भंग कर दिए गए हैं। कुछ देर के लिए मान ले कि राकेश अस्थाना में कोई दोष नहीं है लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि सरकार एक आदमी को अधिकार पूर्ण स्थिति में नियुक्त करने के लिए हस्तक्षेप कर रही है। इससे साख पर आंच तो आ ही रही है और यह असाधारण रूप से गलत है । वरिष्ठ नेतृत्व के स्तर पर यह केवल एक विधि नहीं है कि प्रार्थी को सजा नहीं मिली है अथवा मिली है बल्कि यह भी देखना होता है कि यह कितना अधिकार सक्षम है। पूरा मामला सुप्रीम कोर्ट के सामने आया है। यहां जनता में विभ्रम  है कि कोर्ट किस बात की जांच करेगा और किसको रहस्यमय ढंग से भगवान भरोसे छोड़ देगा। अदालत को एक रक्षा मामले में सीधे हस्तक्षेप करने में कोई मलाल नहीं हुआ लेकिन जब उसने यह कहा कि सीबीआई की स्वायत्तता बनाए रखनी चाहिए और उसकी बात नहीं मानी गई तब उसकी पलक तक नहीं झपकी। उल्टे अदालत ने  सीबीआई की स्वायत्तता को बनाए नहीं रखा और एक ऐसी संस्था को अधिकार दे दिया जो सदा से राजनीतिक सत्ता के हाथों की कठपुतली रही है । अदालत के काम करने का ढंग अपारदर्शी है  , चाहे वह सार्वजनिक सुनवाई हो या कोई और । अदालत कोई संसदीय समिति नहीं है जो सरकार के गोपनीय दस्तावेजों को बंद लिफाफे में ग्रहण करें और इसे कुछ पक्षों को देखने दे । यहां कहने का मतलब यह है कि अदालत सीबीआई की साख को कायम रखता है या नहीं और क्या सरकार की विभिन्न संस्थाओं की साख को कायम रखना अदालत का काम है या उसका काम तय करना है कि दोषी कौन है या निर्दोष कौन है? अजीब सा लगता है कि सीबीआई से ज्यादा कोशिश इस मामले में अदालत कर रही है।
         स्पष्ट कहें तो ,अदालत संस्थानिक " पावर प्ले " में लगी है। वह कानून  और न्याय के  नियमों पर ज्यादा ध्यान नहीं दे रही है। वह अपनी सरलता कभी सीबीआई पर जाहिर करती है कभी सीवीसी पर । रिपोर्ट दायर करने के लिए महज दो हफ्ते दिए उस संस्था को जिसके एक बड़े अफसर ने कहा था कि" मैं जानता हूं की संगठन बहुत बड़ा योद्धा है" लेकिन यह योद्धा किसी काम का है या नहीं इस बात की निगरानी करने के लिए भी एक वरिष्ठ न्यायाधीश की नियुक्ति हुई है। सीवीसी की रिपोर्ट और माननीय न्यायाधीश के आदेश में  क्या संबंध  है यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। क्या अदालत सीवीसी की  सामान्य प्रक्रिया पर विश्वास करती है और अगर करती है तो फिर न्यायधीश की क्या जरूरत कि वह जांच करें। सर्वोच्च न्यायालय सही काम करने की कोशिश कर रहा है । 
अब बात आती है सीबीआई की। यह एक संस्थानिक गड़बड़ है जहां देश का आम आदमी यह तय नहीं कर पा रहा कि वह रोए या हंसे । क्या सीबीआई ने ढेर सारे भ्रष्ट और दोषी दो भर गए हैं और यह हम इसलिए जान गए हैं कि सीबीआई के अन्य अधिकारी ऐसा कह रहे हैं ,या फिर इसमें कोई इस तरह की बात नहीं है केवल आपसी कुश्ती का अखाड़ा  बन गया है या फिर सीबीआई में ऐसे कई लोग हैं जो अन्य अफसरों को भ्रष्ट और दोषी के रूप में देखते हैं। किसी भी तरह से सीबीआई की साख पर ही आंच आ रही है और जनता पशोपेश में है कि वह क्या करे । क्या वह ऐसे अफसरों के बीच घिर गई है जो भ्रष्ट हैं । यह कितना मर्मस्पर्शी है कि सीबीआई का अफसर या तो किसी अपराध का दोषी है या  उसका कोई सहयोगीअफसर उस पर आरोप लगा रहा है । यदि सीबीआई के अधिकारी अपने सहकर्मियों के बीच सुरक्षित नहीं महसूस कर रहे हैं तो कल्पना कीजिए आम आदमी इसका क्या अर्थ समझेगा । अब एक सीबीआई अधिकारी ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार पर सीधा आरोप लगाया है कि वह जांच में हस्तक्षेप करते हैं। इस तरह के आरोप पर बहुत सावधानी बरतनी चाहिए, क्योंकि यह किसी भी ईमानदार आदमी को पथभ्रष्ट कर सकता है। अजीत डोभाल के बारे में आरोप को लेकर कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन डोभाल को तो समझना चाहिए इस मामले में सरकार अपने ही किए में फंस गई है । क्योंकि यदि सीबीआई के एक अफसर द्वारा लगाए गए आरोप शक के लिए पर्याप्त नहीं है तो फिर प्रश्न उठता है सीबीआई निदेशक का तबादला क्यों किया गया और वह भी बिना किसी उचित प्रक्रिया के? क्या इसी तरह का मापदंड राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के साथ भी अपनाया जाना चाहिए?  इस मामले में सीबीआई का एक अधिकारी अदालत में बयान देने को तैयार है। यहां एक और गंभीर खतरा है कि सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और अन्य सरकारी संस्थानों के बीच एक विवर्तनकारी परिवर्तन कर दिया है । राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार किसी को भी तलब कर सकता है और इसके कारण राजनीतिक और अफसर शाही के  तंत्र दरकिनार हो गए हैं और  राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का पद सर्वोच्च हो गया है। हाल के आरोपों के बाद भी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को अधिकार देना चिंता का विषय है । लेकिन भारतीय संस्थानों में बहुत ज्यादा तन्यता  है वह इसे सुधारना भी जानती है और यह उलझा हुआ मामला सुलझ  ही जाएगा।

Thursday, November 22, 2018

अबला जीवन लेकिन कब तक

अबला जीवन लेकिन कब तक

इन दिनों कोलकाता की सड़कों पर कहीं-कहीं पोस्टर देखने को मिलता है सबला सम्मेलन पोस्टर काफी उम्मीद दिलाता है और एक सामाजिक संतोष भी की झांकी सरकार महिलाओं की सुरक्षा और उन्हें ताकतवर बनाने के लिए सचेष्ट है वरना "मी टू" आंदोलन दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में फैल गया है, भारत भी इससे अछूता नहीं है।लेकिन एक सवाल है कि भारत के गांव में इसके हवा क्यों नहीं है। मध्य और उच्च वर्ग की शिक्षित महिलाएं जो अपना अधिकार मांगती हैं और उनसे कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न हुए तो उनका उन्होंने पर्दाफाश भी किया।  अच्छे- अच्छों की पगड़ी उछल गई। दूसरी तरफ ग्रामीण क्षेत्रों और कस्बों की हजारों महिलाएं जिनके साथ द आए दिन यौन उत्पीड़न की घटनाएं होती हैं, लेकिन किसी का नाम सामने लाने की हिम्मत उनमें नहीं है। हजारों साल से पितृसत्तात्मक समाज में उलझा हुआ भारत का गांव जिसमें यह औरतें जिंदगी का ताना बाना बुनती है वहां स्त्री द्वेष रिवाज सा है। वह ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं हैं और उनका मानना है इस तरह के उत्पीड़न सामान्य हैं ।  दहेज के भय से भूण हत्या कर दी जाती है और परिवार की प्रतिष्ठा के नाम पर महिलाओं को मौत के घाट उतार दिया जाता है। लड़के और  लड़कियों का अनुपात बिगड़ गया है।  हम भूल जाते हैं कि राजस्थान के गांव की रहने वाली भंवरी देवी की वजह से ही सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ फैसला सुनाया था। सरकारी महकमे में काम करती थी भंवरी और बाल विवाह पर एतराज जताया था। भंवरी देवी ने सदियों पुरानी प्रथा को चुनौती देने का दुस्साहस किया था। जिसके चलते जमींदारों के सामूहिक दुष्कर्म का शिकार हुई थी। उसका मामला विशाखा ने उठाया और सुप्रीम कोर्ट ने  यह ऐतिहासिक फैसला दिया। विशाखा महिलाओं के हक के लिए लड़ने वाला संगठन है । यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि गांव की महिलाओं का लालन-पालन ही इस मानसिकता के साथ होता है कि वे पुरुषों से कमतर हैं और और शादी के बाद पतियों के हाथों  पिटाई और बदसलूकी होगी ही। लड़के और लड़कियों में या भेद बचपन से ही आरंभ हो जाता है । परिवार की माताएं  और अन्य महिलाएं इस भेद को और मजबूत बनाती हैं। बेटों को बेटियों पर तरजीह दी जाती है। हाल के आंकड़े बताते हैं की आधी से ज्यादा महिला आबादी इस बात को मानती है कि घर में दुर्व्यवहार और हिंसा सामान्य बात है। जबकि, लगभग 46.8 प्रतिशत शहरी महिलाओं का मानना है कि यह गलत है।
        हाल के एक शोध से पता चलता है कि महिलाओं का खासकर कस्बों की महिलाओं का यह मानना है कि कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न होगा ही। इसके बिना काम नहीं किया जा सकता। क्योंकि, जो लोग काम देते हैं वह महिलाओं से यह अपेक्षा रखते हैं। यही नहीं जो महिलाएं सरकारी दफ्तरों में नीचे पदों पर ,जैसे झाड़ू लगाने काम पर या साफ सफाई के काम पर रखी जाती हैं उनके साथ उनके सुपीरियर गलत व्यवहार करते ही हैं। अगर वह आवाज उठाती है तो उसे नौकरी से हाथ धोने पड़ते हैं। अब जिनके पास जीविका का साधन नहीं है ,मजबूर हैं वह उत्पीड़न सहने के लिए बाध्य हैं। बहुत सी ग्रामीण महिलाओं को शहरों में बसों और अन्य सार्वजनिक वाहनों में भी इसे झेलना पड़ता है और वे इतनी सक्षम नहीं हैं कि अदालत में इसकी चुनौती दे सकें। ग्रामीण क्षेत्रों में वैसे भी पुलिस और न्यायपालिका या कहें न्याय प्रणाली पर ज्यादा भरोसा नहीं है। छोटे शहरों में कुछ ही महिलाएं फरियाद लेकर पुलिस के पास जाती हैं। अधिकांश महिलाएं पुलिस के पास जाने में भी डरती हैं। क्योंकि पुलिस  संवेदनहीनता के लिए  बदनाम है और मजबूर महिलाओं को  ऐसा ही व्यवहार वहां भी झेलना पड़ता है । यही नहीं इस प्रक्रिया में संसाधन और समय बहुत ज्यादा लगता है ,साथ ही समाज में उस महिला या लड़की को अपमान भी झेलना होता है। अधिकांश परिवारों में लड़कियों को अपनी पीड़ा छिपाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। नतीजा यह होता है कि वह जीवन भर   दबी कुचली मानसिकता से ग्रस्त रहती हैं। एन सी आर बी के आंकड़े बताते हैं कि गांव में ज्यादा यौन उत्पीड़न करीबी रिश्तेदारों द्वारा ही होता है जिनसे निपट पाना और मदद की मांग करना उन महिलाओं के लिए कठिन होता है।
     हालांकि शिक्षा ने  महिलाओं को थोड़ा साहसी बनाया है। आंकड़े बताते हैं स्कूली शिक्षा प्राप्त 38% महिलाओं ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की रिपोर्ट पुलिस में दर्ज कराई है।  निर्माण क्षेत्र के कामकाज से  जुड़ी 78% महिलाएं अपने साथ हुए शारीरिक दुर्व्यवहार की रिपोर्ट नहीं दर्ज कराती हैं । यहां एक गौर करने लायक बात है भारत की आधी आबादी महिलाओं की है लेकिन सकल घरेलू उत्पाद में उनका योगदान महज 17.1% है । उनका आर्थिक योगदान विश्व स्तर पर औसत के आधे से भी कम है। विश्व बैंक के अनुसार अगर भारत की 50% महिलाएं देश की श्रम शक्ति का हिस्सा बन जाएं तो भारत का विकास दर डेढ़ प्रतिशत तुरत बढ़ जाएगा यानी साढे सात प्रतिशत से वह 9 प्रतिशत हो जायेगा। मजबूरी यह है कि गांव और छोटे कस्बों में कार्यस्थल पर उत्पीड़न के कारण महिलाएं देश के उत्पादन में पूरी तरह शरीक नहीं हो सकती। मैकसिंकी ग्लोबल इंस्टीट्यूट के अध्ययन के मुताबिक यदि ज्यादा महिलाएं भारत की श्रम शक्ति में जुड़ जाती है तो 2025 तक यानी  7 वर्ष के भीतर देश अपने सकल घरेलू उत्पाद में 2.9 खरब डालर की वृद्धि कर सकता है। देश की श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी धीरे-धीरे घट रही है । 1990 में यह 34.4% थी जो 2016 में महज 27% रह गई। यह सरकार के लिए अच्छी बात नहीं है।  देश में महिलाओं की साक्षरता दर बढ़ रही है लेकिन श्रम शक्ति में उनकी भूमिका लगातार घट रही है । सरकारी कोशिशें इस दिशा में नाकामयाब हैं। महिलाएं श्रम शक्ति का हिस्सा नहीं बन रही है जिससे देश में बेरोजगारी की दर में बहुत तेज वृद्धि हो रही है । नोटबंदी के दौरान जो महिलाएं काम से बाहर हुईं  वह दोबारा नहीं लौटीं। इन महिलाओं में घरों में काम करने वाली नौकरानी या खेतों में काम करने वाली मजदूर महिलाएं इत्यादि शामिल थीं।
     भारत की सरकार खुद को दुनिया की सबसे तेज रफ्तार वाली अर्थव्यवस्था होने की बात करती है। लेकिन एक सर्वेक्षण के मुताबिक भारत में महिलाएं सबसे ज्यादा असुरक्षित हैं। महिलाओं के साथ बदसलूकी और मानव तस्करी का रिकॉर्ड बेहद खराब है। जब तक महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं होगी तब तक वह  देश की श्रम शक्ति का  हिस्सा नहीं बन पाएंगी और इससे बेरोजगारी के साथ साथ हमारा विकास भी पंगु बना रहेगा। यही कारण है की कोलकाता की सड़कों पर लगे उस पोस्टर से उम्मीद जगती है सरकारी स्तर पर इस दिशा में व्याकरण महिलाओं को सशक्त बनाने की दिशा में सबला बनाने की दिशा में कोई तो काम कर रहा है वरना हमारे देश में तो कहा ही जाता है कि
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी आंचल में है दूध और आंखों में पानी

Wednesday, November 21, 2018

बिगड़ गई है सियासत की आबोहवा

बिगड़ गई है सियासत की आबोहवा

अगर सियासत की आबोहवा मापने की  कोई मशीन होती तो यह पता चलता कि हमारे देश की सियासत की हवा दिल्ली की हवा से भी ज्यादा दूषित है। अभी इन दिनों जो बड़े चुनाव हुए और उनमें जो हुआ उससे ज्यादा  दूषण किसी ने अपनी हाल की स्मृति में नहीं देखी होगी। अतीत में मतदाताओं के मूड जमीनी स्तर पर हुआ करते थे। इन दिनों सोशल मीडिया के चलते  हमारे देश के राजनीतिक वैचारिक वातावरण में भारी सियासी धुंध छाई हुई है और उसके पार कुछ स्पष्ट दिखना मुश्किल है। यह काल कोई साधारण काल नहीं है। यह अवांतर सत्य का जमाना है। ऐसे जमाने में न राजनीतिज्ञ और ना मीडिया चाहती है कि सच सामने आए और जो बात वे फैलाना चाहते हैं उसकी राह में रोड़ा बने। इसलिए अर्ध सत्य ही बातचीत का आधार बनता है। यहां कोई संत नहीं है दोनों पक्ष जल के तल को गंदा करने के दोषी हैं। चारों तरफ मोर्चे खुल गए हैं । केवल मीडिया ही बुरी तरह नहीं बंटी है और पक्षपात पूर्ण हो गई है बल्कि सोशल मीडिया का भी ध्रुवीकरण हो गया है, और इसमें बहुत ज्यादा जहर भर गया है। सामाजिक हल्के में यहां तक कि परिवारों में भी  दरारें दिख रही हैं।  इधर कुछ दिनों से हमारी राजनीतिक बातचीत का स्तर भी गिर रहा है।  यह केवल भारत तक ही सीमित नहीं है , पश्चिमी देशों में भी ऐसा हो रहा है खासकर अमरीका में । यद्यपि मोदी डोनाल्ड ट्रंप नहीं है पर उदारवादी समूह उन्हें इस गिरावट के लिए  लिए दोषी बता रहा है। राहुल गांधी मोदी के साथ 2014 की खुंदक मिटाने में लगे हैं और उन्हें राफेल सौदे जीएसटी और नोट बंदी से जोड़ रहे हैं।
     भाजपा कांग्रेस में व्याप्त भ्रष्टाचार के आरोपों  के आधार पर सत्ता में आई लेकिन विगत 5 वर्षों में यूपीए के जमाने के घोटालो को बंद नहीं किया जा सका। मोदी और भाजपा दोबारा भ्रष्टाचार को मुद्दा नहीं बना पा रही है । इसके अलावा कई राज्यों में चुनाव हो रहे हैं और सत्तारूढ़ दल कठिनाई में दिखाई पड़ रहा है। वैसे भी चुनाव में जो सत्तारूढ़ दल होता है वह  कुछ आलोचना का शिकार होता ही है । इसके फलस्वरूप मोदी और अमित शाह गांधी परिवार पर अब बहुत ज्यादा छींटे  नहीं कस पा रहे हैं । अब वे कितने कारगर होते हैं या तो 11 दिसंबर के बाद ही पता चलेगा। लेकिन निश्चित तौर पर इससे समस्त राजनीतिक प्रणाली में कुछ न कुछ प्रदूषण तो भर ही रहा है और निकट भविष्य में इससे मुक्ति  की उम्मीद भी नहीं है । अब अगर भाजपा के पास हवा का रुख पलट देने की कोई बहुत बड़ी योजना है तो मालूम नहीं, लेकिन फिलहाल तो ऐसा नहीं लग रहा है। 
       हाल   की रैलियों में अगर मोदी जी के चेहरे को किसी ने नोट किया हो तो यह साफ पता चलता है कि वे थके थके से दिख रहे हैं। उनके चेहरे पर तनाव स्पष्ट है। मोदी जी समय को भांपने के लिए मशहूर हैं लेकिन कहीं न कहीं हर बार चूक जा रहे हैं। अब जैसे मोदी जी ने बहुत देर से आर्थिक सुधार किया अगर यह पहले हुआ होता तो अब तक मोदी जी उस आघात से उबर चुके होते और अभी उनके पास पैंतरे बदलने का वक्त होता । अब इसके बारे में कई दलीलें हैं । कुछ लोग कहते हैं उस समय मोदी जी को बड़े चुनाव जीतने थे खासकर उत्तर प्रदेश के, यही नहीं राज्य सभा में अपनी संख्या बढ़ानी थी। उसके बिना महत्वपूर्ण कानून पारित करवाना मुश्किल था। भूमि सुधार विधेयक पारित नहीं होने से उनको बहुत आघात लगा। इसके बाद जो बची  ताकत थी उसके बल पर उन्होंने नोटबंदी और जीएसटी लागू कर दिया यह देखे बिना कि उससे उबरने का वक्त नहीं है उनके पास। यही नहीं राज्यों में पुराने नेताओं को बदल नहीं सके।  शिवराज सिंह चौहान हो या रमन सिंह या वसुंधरा राजे सिंधिया सबके खिलाफ जनता में रोष है। अब लोगों में यह संदेश जा रहा कि पार्टी के दबाव के कारण मोदी जी ऐसा नहीं कर सकते। क्योंकि, इतने बड़े नेताओं को हटाने का मतलब था कि केंद्र में इन्हें मंत्री पद देना और इससे एक नई चुनौती सामने आ जाती जो, उनके लिए कठिन होती।  यह भी कहा जा रहा है कि मोदी जी को अफसरशाही और उनकी टीम ने भी नीचा दिखाया है। मोदी जी की सबसे बड़ी जो खूबी है वह है कि वे कॉरपोरेट स्टाइल के प्रशासक हैं ।  नोटबंदी और जीएसटी में वे ऐसा कुछ नहीं कर सके। समाज कल्याण के कई कार्यक्रम भी नहीं लागू हो सके और अब सीबीआई का मामला यह बता रहा है कि वे सब कुछ अपने नियंत्रण में नहीं रख पा रहे हैं।
         यह तो स्पष्ट है कि विपक्षी दलों ने हमेशा कोशिश की है की संवेदनशील मामलों में सरकार को न्यायपालिका ताक पर रख दे। नतीजा हुआ कि सरकार की कई सही उपलब्धियों पर से भी लोगों का ध्यान हट गया। उदाहरण के लिए वित्तीय समावेशीकारण और डिजिटाइजेशन जैसी उपलब्धियां गौण हो गईं। विदेश नीति के मामले में भी विकास हुआ है लेकिन जो आलोचक हैं वे इसकी भी आलोचना कर रहे हैं। पिछली तिमाही से ज़ी एस टी और मैक्रोइकोनॉमिक सूचकांक सुधार के संकेत दे रहे हैं लेकिन आपसी तू तू - मैं मैं में यह अच्छी खबरें भी दब जा रही हैं। विपक्षी दल प्रधानमंत्री पर आरोप लगा रहे हैं कि प्रधानमंत्री सोचते हैं कि वह गलत नहीं कर सकते । विपक्ष का कहना है कि प्रधानमंत्री कभी सही कर ही नहीं सकते। लेकिन जिस तरह कांग्रेस के 60 वर्षों के शासन को इतिहास से मिटाया नहीं जा सकता उसी तरह मोदी जी के 5 वर्षों को भी बट्टे खाते में नहीं डाला जा सकता है। मोदी जी लोगों को यह बता सकते हैं उन्होंने ईमानदार शुरुआत की है और इस काम को खत्म करने के लिए और 5 वर्ष चाहिए । उसी तरह विपक्ष भी लोगों को यह विश्वास दिला सकता है कि "मोदी हटाओ" के नारे  के बावजूद कई और विकल्प हैं।
      अंततः यह जनता पर निर्भर है कि वह क्या फैसला करती है। किसी भी सही निर्णय पर पहुंचने के लिए समूची तस्वीर का जायजा लेना जरूरी है और इसके लिए बहुत बड़ा शोधन कार्यक्रम चलाना होगा ताकि धुन्ध छंट   जाए और हवा साफ हो जाए।

Tuesday, November 20, 2018

अमरीका में हिंदुओं पर बढ़ते हमले

अमरीका में हिंदुओं पर बढ़ते हमले

अमरीकी फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन(एफ बी आई ) ने पिछले हफ्ते जारी अपनी वार्षिक रिपोर्ट में नफरत के कारण होने वाले अपराधों के आंकड़े जारी किए हैं। आंकड़े 2017 के हैं। आलोच्य वर्ष में नफरत के कारण 7हजार115 अपराध हुए । यह संख्या पिछले वर्ष की तुलना में 17 प्रतिशत ज्यादा थी।  वर्ष 2016 में नफरत के कारण 6हजार121 अपराध हुए थे । यह आंकड़ा बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण है। इस आंकड़े में हिंदुओं के प्रति नफरत के कारण अपराध की संख्या बढ़ी है। धार्मिक विद्वेष के कारण होने वाले अपराधों की संख्या 1हजार749 है जिनमें हिंदुओं के प्रति अपराधों की संख्या पंद्रह है। जबकि पिछले वर्ष यह पांच थी। धार्मिक विद्वेष के कारण होने वाली घटना के  ज्यादा शिकार यहूदी हुए हैं। इनका अनुपात 58.1प्रतिशत  है। बाकी अपराध हिंदुओं, सिखों और बौद्धों के विरूद्ध हुए हैं। यह संख्या चिंताजनक है। अमरीका में इन दिनों राजनीतिक स्थिति का भारी ध्रुवीकरण हुआ है। कई लोग इसके लिए डोनाल्ड ट्रंप को और उनके बड़बोलेपन को दोषी बताते हैं। दूसरी तरफ , कुछ लोग इसके लिए लिबरल पार्टी को जिम्मेदार बता रहे हैं। उनका मानना है कि वह दल अपने वर्चस्व के लिए पहचान की राजनीति का सहारा ले रहे हैं। एफबीआई ने 2013 से  हिंदुओं के खिलाफ होने वाले घृणा जन्य अपराधों पर नजर रखनी आरंभ की। क्योंकि ,इसी समय से अमरीका में हिंदू समूहों का गठन होने लगा। खासकर हिंदू अमरीकन  फाउंडेशन इस मामले में बहुत ज्यादा सक्रिय था । एफबीआई के आंकड़ों पर हिंदू अमेरिकन फाउंडेशन के प्रबंध निदेशक समीर कालरा ने कहा कि "एफबीआई के आंकड़े बेशक मददगार हैं। यह अमरीका में हिंदुओं पर जो अत्याचार हो रहे हैं और उनसे नफरत के कारण जो अपराध हो रहे हैं उसका पूरा चित्र इन आंकड़ों से नहीं प्राप्त होता है। कई ऐसे अपराध जो  शिकार हुए लोगों द्वारा दर्ज ही नहीं कराए जाते या सरकारी एजेंसियां दर्ज नहीं करतीं। इतना ही नहीं कई ऐसे पक्षपातपूर्ण अपराध हैं जिन्हें हिंदू विरोधी वर्ग में दर्ज नहीं किया जाता। उदाहरण के लिए कुछ ऐसे अपराध है या ऐसी घटनाएं जिनमें अरब विरोधी या मुस्लिम विरोधी भावनाओं की ज्वाला में हिंदू फंस जाते हैं। हिंदुओं के खिलाफ कुछ ऐसे भी अपराध है जो उनके जातीय है या नस्ली पहचान पर आधारित हैं और इनको जातीय या नस्ली वर्ग में दर्ज कर लिया जाता है।"
  अमरीका स्कूलों में हिंदू अमरीकी बच्चों के साथ जो होता है उस पर हिंदू अमरीका फाउंडेशन ने एक रिपोर्ट तैयार की थी।  एफबीआई के रिपोर्ट उसके समरूप है। रिपोर्ट में बताया गया है कि हर तीसरे हिंदू अमरीकी बच्चे के साथ स्कूलों में बदमाशी की जाती है, गलत सलूक किया जाता है और उनकी धार्मिक आस्था की खिल्ली उड़ाई जाती है। 5 में से 3 बच्चे यह शिकायत करते हैं कि स्कूल में उनकी जाति और हिंदुत्व के बारे में ज्यादा ध्यान दिया जाता है। हिंदू धर्म और रीति रिवाज के बारे में गलत दावे भी किए जाते हैं। अमरीका में हिंदू  अत्यंत लघु अल्पसंख्यक हैं। उनकी संख्या सबसे कम है । पूरी आबादी के लगभग एक प्रतिशत हिंदू हैं। एक अनुमान के अनुसार इस समय वहां लगभग 30 लाख हिंदू हैं । अमरीका में हिंदू सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे धार्मिक समुदाय हैं और इनकी आय अन्य जाति - धार्मिक समूहों से ज्यादा है।
       अमरीका में अन्य  अल्पसंख्यक समुदाय की भांति हाल तक हिंदू राजनीतिक रूप से संगठित नहीं थे और ना ही अमरीका में अपने विरुद्ध पक्षपात के लिए लड़ते- भिड़ते  थे। मैक गिल विश्वविद्यालय के "कंपैरेटिव रिलिजन" के प्रोफेसर अरविंद शर्मा के मुताबिक "बाहर के लोग बाहर के ही हैं " ,यह बात अमरीका निवासियों में व्याप गई है । इसलिए वे कभी भी इन्हें अपना समझ कर बात नहीं करते। आजादी के बाद इस तरह की बातें वामपंथी विद्वानों ने और फैला दीं तथा यह भावना भारत और भारत के बाहर फैल गई, अमरीका इसका अपवाद नहीं है।  कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के इतिहास के पाठ्य पुस्तक में हिंदुओं के बारे में गलत और पक्षपातपूर्ण तथ्य लिखे हुए थे लेकिन हिंदू एकजुट होकर इनके खिलाफ हाल तक नहीं लड़े। अभी हाल में उन्होंने एकजुट होकर इसे बदलवाने के लिए संघर्ष किया। पाठ्य पुस्तकों में हिंदुओं को बहुत ही नकारात्मक ढंग से दर्शाया गया था। अमरीका ही क्यों, हिंदुओं के खिलाफ कई जगह गलत बातें और गलत धारणा फैलाई गई है, जिसमें यह बताया गया है कि हिंदू धर्म मूल रूप से दबाब मूलक और पितृसत्तात्मक है। कुछ हिंदू अमरीकी पत्रकार भी हिंदुओं की नकारात्मक छवि तैयार करने में लगे हैं। उदाहरण स्वरुप  गौ रक्षा को लेकर भारत में जो हो रहा है उसे अमरीका अखबारों में बढ़ा चढ़ाकर बताया जा रहा  है और नई तरह की भ्रांति फैलाई जा रही है । यह बताया जा रहा है कि हिंदू समूह भारत में 17 करोड़ मुसलमानों के खिलाफ एकजुट हो रहे हैं इस बात का जो दूसरा पक्ष है उस पर कोई बात नहीं हो रही है। इसी तरह से गिरजाघरों पर हमले ,बलात्कार और महिलाओं की सुरक्षा तथा समग्र सांप्रदायिक हिंसा को पश्चिमी मीडिया में काफी उछाला जा रहा है। यह बातें किसी भी देश में एक लघु और शांतिपूर्ण अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ भावनाओं को भड़काने के लिए पर्याप्त हैं। इसकी झलक शिकागो में आयोजित दूसरे विश्व हिंदू सम्मेलन  में मिली थी। यह सम्मेलन स्वामी विवेकानंद के धर्म संसद में भाषण के 150  वर्ष  पूरे होने के अवसर पर आयोजित किया गया था और इसमें 60 देशों के लगभग तीन हजार हिंदू प्रतिनिधि एकत्र हुए थे। यह सम्मेलन शिकागो के उपनगर लोंबार्ड में सितंबर में आयोजित हुआ था। इस अवसर पर विश्व हिंदू सम्मेलन को बदनाम करने के लिए कई हिंदू विरोधी समुदायों  ,जिसमें अति वामपंथी और खालिस्तान समर्थक तथा कट्टरपंथी ईसाई संगठनों ,ने काफी महंगा जनसंपर्क अभियान आरंभ किया था। इससे पता चलता है कि अमरीका में हिंदुओं के खिलाफ कितनी ज्यादा नफरत फैलाई जा रही है । इस नफरत की आंच अमरीकी हिंदुओं को भी अब महसूस होने लगी है। यद्यपि एफबीआई के आंकड़ों से इस नफरत के कारणों का पता नहीं चलता है। हमें अमरीका में अत्यंत सफल और कानून का सम्मान करने वाले इस धार्मिक लघु समुदाय की सुरक्षा के लिए सभी जमीनी स्थितियों पर गौर करना जरूरी है।

Monday, November 19, 2018

भीतर के दुश्मनों से निपटना जरूरी 

भीतर के दुश्मनों से निपटना जरूरी 

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल बहुत कम बोलते हैं ,विशेष तौर पर सार्वजनिक समारोहों में तो बोलते ही नहीं हैं। लेकिन ,जब वे बोलते हैं लोग सुनते हैं। अभी कुछ दिन पहले सरदार पटेल स्मारक व्याख्यान में उन्होंने चेतावनी दी कि देश को भीतर के दुश्मनों से खतरा है ,यह खतरा बाहर के दुश्मनों से कहीं ज्यादा है। उन्होंने कहा कि ,कमजोर लोकतंत्र बहुत ही मृदु शक्ति में बदल जाता है। भारत ऐसी मृदु शक्ति नहीं बनना चाहता। कम से कम अगले कुछ वर्षों के लिए यह कठिन फैसलों के लिए बाध्य है । राष्ट्रीय आर्थिक, सामाजिक और सामरिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अगले 10 वर्षों के लिए भारत में बहुत ही स्थाई और फैसलाकुन सरकार की जरूरत है। उन्होंने कहा कि एक मजबूत सरकार देश के हितों को ज्यादा अच्छे ढंग से पूरा कर सकती है, जबकि गठबंधन वाली ढुलमुल सरकार ऐसा नहीं कर सकती है।  वह क्षेत्रीय ,जातीय  और सांप्रदायिक हितों के प्रभाव में होती है।
       हो सकता है कि यह  एक राजनीतिक टिप्पणी हो जैसा कि कोई टिप्पणी कारों ने कहा है। लेकिन इसके साथ एक शर्त है कि हर गठबंधन वाली सरकार कमजोर नहीं होती और हर बार  बहुमत वाली सरकार बहुत ताकतवर नहीं होती। शीर्ष पर जो नेतृत्व होता है वहीं तय करता है क्या हो और क्या नहीं हो। भारत का दुर्भाग्य है उसके भीतर बहुत से दुश्मन छिपे हैं। कुछ के बारे में हम जानते हैं कुछ के बारे में नहीं जानते। जैसे, माओवादी, इस्लामी आतंकवादी इत्यादि हैं ।यह लोग सुरक्षाबलों और नागरिकों पर हमले करते हैं। लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो पर्दे के पीछे से काम करते हैं। इसलिए महत्वपूर्ण है कि हम अपने भीतर के दुश्मनों को जानें और खास करके उन  लोगों को जो सरकार की नीतियों के बहुत कठोर आलोचक हैं। एक लोकतंत्र में सरकार और मीडिया में सदा छत्तीस का आंकड़ा होता है । यह लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए जरूरी है।यह काम अफसरों और प्रधानमंत्री का है कि इसे समझें। बेशक भारत में मीडिया के पक्षपात को लेकर सरकार को चिंतित नहीं होना चाहिए । गढ़ी हुई खबरें   जनता और बाजार में जांच के बाद टिकती नहीं हैं। इसके  मुकाबले के लिए  सरकार को चाहिए कि वह नियमित रूप से सही ढंग से महत्वपूर्ण मसलों पर सूचनाएं मुहैया कराए। इससे  गलत पत्रकारिता और जानबूझकर शुरू की गई सक्रियता का पता चल जाएगा और उन्हें सजा मिल सकती है। गलत पत्रकारिता को उसके पाठक सजा दे देंगे और जानबूझकर शुरू की गई सक्रियता को जनता के विचार सजा देंगे। नरेंद्र मोदी सरकार अपनी बात कहने और सहभागी बनने के मामले में बहुत सफल नहीं है । इसका कारण है कि गलत बात को  चुनौती नहीं दी जा रही है और उसके प्रभाव से नाकामयाबी हो रही है । अजीत डोभाल ने भीतर के दुश्मनों से चेतावनी दी और यह स्पष्ट किया उनका संकेत मीडिया या विपक्ष नहीं है। दोनों को आलोचना करने की पूरी आजादी है। भारत ने लोकतंत्र के साथ इस अनुबंध को स्वीकार किया है। कार्यकर्ता भी लोकतंत्र के लिए आवश्यक हैं लेकिन यह आवश्यक होना तब तक ही सही है जब तक वह हिंसा को बढ़ावा नहीं देते या ऐसा कुछ नहीं करते जिससे हिंसा भड़के । हमारे भीतर जो दुश्मन हैं उनसे लड़ने की आवश्यकता है।  बाहर के दुश्मनों से लड़ने की जितनी जरूरत है उतनी ही भीतर के दुश्मनों से भी लड़ने की है।क्योंकि उन्हें  बाहर से ही कानूनी आर्थिक और अन्य तरह की सहायता मिलती है। कई वर्षों से भारतीय समाज के प्रमुख तत्व विकृत हो गए हैं।अफसर, पत्रकार ,कार्यकर्ता, राजनयिक, खुफिया अधिकारी और पूर्व सेना अधिकारी सब के सब इस विकृति में शामिल हैं। उनको हम आसानी से देख सकते हैं।
         उदाहरण के लिए भारतीय पत्रकारों के एक समूह को पाकिस्तान की कुख्यात खुफिया एजेंसी इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस किसी छद्म संस्था के बैनर तले अधिकृत कश्मीर में ले  जाएगी और तब वे पत्रकार उनकी बात करेंगे, उनकी जबान में बोलेंगे। ऐसे दौरों के कुछ दिन के बाद ही भारतीय अखबारों में खबरें आएंगी जिसमें अधिकृत कश्मीर में लोगों के बारे में प्रशंसा होगी। यह गूढ़ संदेश है।  इससे भारतीय सुरक्षा हितों को भारी हानि पहुंचेगी। इसी तरह से हो सकता है कि आई एस आई का कोई छद्म संगठन विदेश के किसी स्थान पर पूर्व सेना अधिकारियों और रॉ के पूर्व अधिकारियों तथा विकृत सोच वाले पत्रकारों की बैठक आयोजित  करें। इस तरह की सुनियोजित बैठकों के बाद किताबें आएंगी, अखबारों में खबरें आएंगी और उसके बाद हमारे अकेडमिक्स और कार्यकर्ता कश्मीर में भारत के क्रूर कब्जे की बात उठाएंगे।  विदेशी मीडिया इसे प्रसारित करेगा। डोभाल ने कहा कि राष्ट्रवाद के दो मायने हैं ।पहला हिटलर वाला और दूसरा महात्मा गांधी वाला, जो अहिंसक और साम्राज्यवाद विरोधी  है।  दक्षिणपंथी राजनीतिज्ञ बात करते हैं। वे हिंदू पुनरुत्थान की बात करते हैं। देश की 80% आबादी जातीयता और क्षत्रियता में उलझी हुई है। ऐसे मौकों पर देश को   ज्यादा आत्मविश्वास का प्रदर्शन करना चाहिए। शिकायत का भाव गुस्सा पैदा करता है जो विनाशक और पराजित करने वाला है। उभरती हुई महाशक्ति के लिए यह बेकार है। वह मुल्क जिसमें आत्मविश्वास है, वह विविधता को भी समायोजित कर लेता है।  पर्दे के पीछे छिपे दुश्मन को भांप लेता है।
      डोभाल की बात बहुत महत्वपूर्ण है। देश की जांच  संस्था सीबीआई के दो अफसरों के बीच जो चल रहा है वह तो सिर्फ छोटा सा उदाहरण है।  प्रधानमंत्री कार्यालय इसे सुलझाने में कामयाब नहीं हो पा रहा है। वित्त मंत्रालय अलग उलझा हुआ है। एयरसेल मैक्सिस जैसे संवेदनशील मामलों में अभी तक चार्जशीट नहीं दी गई और इससे रोकने वाले हाथ भारतीय हैं। इसमें विदेशी हाथ नहीं है। भारतीय हाथ या देश के भीतर के दुश्मन ज्यादा खतरनाक हैं।   सरकारी संस्थाओं के लोग आर्थिक प्रलोभन का शिकार हो जाते हैं। अगर  प्रधानमंत्री मोदी भीतर के दुश्मनों से नहीं निपटते हैं तो वे केवल एक ही बार के प्रधानमंत्री बन कर रह जाएंगे ।

Sunday, November 18, 2018

देश में यह विरोधाभास क्यों

देश में यह विरोधाभास क्यों


भारत में कानून के शासन पर संकट छा रहा है। कागजों पर हमारी संस्थाएं और हकीकत में वो कैसे काम कर रही हैं इन दोनों में बहुत फर्क होता जा रहा है। पुलिस के  अफसरों में भ्रष्टाचार ,अत्याचार और गरीबों के शोषण आदतें पड़ रही है और हिंसा शासन का 

 औजार हिंसा होती जा रही है। अभी 2 दिन पहले की घटना है। बंगाल के रामपुरहाट के एसडीओ ने पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव से उसी डिवीजन के एसडीपीओ की शिकायत की लिखित शिकायत की  जिसमें कहा गया है कि वह अफसर थाने में जाकर पुलिस के अफसरों से दुर्व्यवहार कर रहा था। सीबीआई के दो अफसरों के बीच जो हुआ  वह पूरा देश जानता है। पुलिस व्यवस्था में अधिकारी के तौर पर एसडीपीओ पहली सीढ़ी  है और सीबीआई के निदेशक इस क्रम में सर्वोच्च हैं । भ्रष्टाचार और अत्याचार की घटनाएं तो अक्सर सुनने तथा देखने में आती हैं ,खास कर के सबका निशाना बोलने के अधिकार को छीनना होता है। जब मोदी जी प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने कहा था कि "न खाऊंगा न खाने दूंगा ,भ्रष्टाचार मिटा कर दम लूंगा । "आज हालात यह हैं कि भ्रष्टाचार , पारदर्शी सरकार , व्यवस्था  और सुरक्षा के मामले में डब्ल्यू जे पी  रूल आफ लॉ  इंडेक्स  17 -18  के अनुसार 113 देशों की सूची में भारत का स्थान 62 वां है ,जो अत्यंत गरीब मुल्क नेपाल से भी नीचे नेपाल 58 वें स्थान पर है ट्यूनीशिया मंगोलिया और घाना जैसे देश भी हमसे अच्छी स्थिति में हैं। हमारे सरकारी संस्थानों में भ्रष्टाचार और विलंब से न्याय की घटनाएं किसी से छुपी नहीं हैं। सांविधानिक ध मूल्यों को लगातार  निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा नजर अंदाज किया जा रहा है । हाल में हमारे वित्त मंत्री ने सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश से संबंधित सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सवाल उठाया और संविधान को मानने वालों और भक्तों के बीच  दरार पैदा कर दी। आज हम वजूद के खतरे से जूझ रहे हैं। जब भी संविधान के लक्ष्य और उसकी अनिवार्य भूमिका कि हम तुलना करते हैं तो पाते हैं कि वह स्तर से नीचे गिर रहा है। कट्टरपंथी बहस बढ़ रही है और बहस की गुणवत्ता धीरे-धीरे घटती जा रही है । मानवाधिकारों पर हमले हो रहे हैं । संविधान का उद्देश्य था कि संस्थान एक राह  से चलेंगे और उससे समाज में परिवर्तन आएगा लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है।
        भारत कानून के शासन के संदर्भ में सिद्धांत और व्यवहार के मामले में भारी विरोधाभास से गुजर रहा है और इसका नागरिकों पर गंभीर प्रभाव हो रहा है । दुनिया के सभी समाज में कागज पर जो लिखा है वह और व्यवहार में जो हो रहा है वह दोनों में फर्क रहता है लेकिन भारत में इस विरोधाभास को चुनौती नहीं है । न्यायपालिका कैसे काम करे, क्या यह सही ढंग से काम कर रही है या इसके काम करने के ढंग को सुधारना होगा?  हम यह सवाल अपने से नहीं पूछते। इस विरोधाभास से लोकतंत्र में समानता और मूलभूत अधिकार को खतरा पैदा होते जा रहा है। आप कहेंगे  कानून के शासन के खिलाफ भारत में  असहमति के नारे नहीं लग रहे हैं । इसका कारण है कि आवाज को धीरे धीरे कुंद किया जा रहा है। हम खुद को एक कार्यात्मक अराजक समाज या अकार्यात्मक लोकतंत्र मानें, इसका चयन हमें खुद करना होगा। आप कह सकते हैं हमारे निर्वाचित प्रतिनिधि बड़ी-बड़ी  रैलियों में हमें  अपनी बात सुनाने के लिए आमंत्रित करते हैं लेकिन कितनी बड़ी विडंबना  है कि  सार्वजनिक जीवन से सार्थक बहस खत्म होती जा रही है। ऐसा एक बार में नहीं हुआ है । यह एक अनवरत प्रक्रिया है और इसका मुख्य कारण राजनीतिक दलों के भीतर लोकतंत्र का खात्मा , ताकतवर नेताओं का उदय और चुनाव के खर्चे तथा भ्रष्टाचार में वृद्धि है । लोकजीवन में व्याप्त इन गुणकों ने  समाज में सार्थक बहस को समाप्त कर दिया। अब  कोई बहस को बर्दाश्त ही नहीं करना चाहता। बहस को समाज में पुनः स्थापित करने के लिए हमें राजनीतिक दलों में लोकतंत्र को प्रोत्साहित करना होगा तथा चुनाव में भ्रष्टाचार को कम करना होगा। दोनों बहुत कठिन काम हैं।
      दूसरी बात आती है कानून के शासन या कहें रूल आफ लॉ को कैसे बचाया जाए?  उसकी कैसे हिफाजत की जाए ? सचमुच यह बड़ा कठिन काम है ।सिद्धांत रूप से कहें तो सभी संस्थानों को अपने नियमों के अनुरूप काम करना होगा और  लोगों में  कानून की  इज्जत करने की प्रवृति बढ़ानी होगी। लेकिन क्या यह संभव है ? इसके लिए कौन खड़ा होगा ?प्रश्न ही है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे? अदालतों में 270 लाख मामले लंबित पड़े हैं। जजों का अभाव है ।मामलों की सुनवाई नहीं हो पाती है । अगर प्रभावशाली ढंग से मामलों की सुनवाई हो तो यह मामले निपट सकते हैं।  हमारे देश में भ्रष्टाचार सबसे बड़ी समस्या है। भ्रष्टाचार का हर मामला एक चैलेंज है। क्योंकि देश जितना ज्यादा भ्रष्ट होगा उस देश में कानून का शासन उतना ज्यादा कमजोर होगा। हमें भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक जंग छेड़ने होगी । भ्रष्टाचार केवल पैसों से संबंधित नहीं है। तरह-तरह की जरूरतों के सामने झुकना भी भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता है और इसे खत्म करने के लिए प्रणालिगत और दृढ़ प्रयास करने होंगे ।अक्सर देखने में आता है कि पुलिस और राजनीतिज्ञ सांठगांठ करके नागरिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं और  काल्पनिक सार्वजनिक हित के नाम पर उस क्रिया का औचित्य बताते हैं। यहां मुख्य बात यह है कि ऐसे मौकों पर पुलिस और राजनीतिज्ञ सार्वजनिक हित तथा नैतिकता को तुरंत सामने रख देते , इसी बहाने बोलने की आजादी छीन लेते हैं । इसके लिए सभी पार्टियां दोषी हैं, कोई कम कोई ज्यादा।
        


Saturday, November 17, 2018

फौजियों के मामले में क्या हुआ मोदी जी का वादा?

फौजियों के मामले में क्या हुआ मोदी जी का वादा?

नागरिक प्रशासन और सेना के बीच तनाव पिछले हफ्ते पहले विश्व युद्ध के युद्ध विराम दिवस पर आयोजित एक समारोह में एक बार फिर सामने आ गया। यह समारोह  9 से 11 नवंबर के बीच हुआ था । उस समय  भारत के उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू फ्रांस गए थे। वहां से लौटकर, शायद उनसे किसी ने कहा, उन्होंने कहा कि उस लंबे युद्ध में हमारी फौज के अवदान के बारे में हमारे देश के नौजवानों को जानना चाहिए। उन्होंने ऐसा कहा मानो वह युद्ध हमारा नहीं था। इस भावना को स्वीकृति देते हुए प्रधानमंत्री ने भी एक ट्वीट किया इसके अलावा उन्होंने यह भी कहा वे पहले विश्व युद्ध में भारतीय सैनिकों की शहादत स्मृति में हाइफा  और नियो चैपल में निर्मित स्मारक में भी गए थे। हमारे देश की आईएएस अफसर बिरादरी जो युद्धक संस्कृति के पक्ष में नहीं है वह भी शानदार फौजी समारोहों में शालीनता पूर्वक शामिल होते हैं । इस अवसर पर भी उन्होंने इंडिया गेट पर संयुक्त रूप से भारतीय  और ब्रिटिश  बैंड  का समारोह  आयोजित किया था। इसके लिए दो प्लान तैयार किए गए थे। जिसमें एक को अंतिम क्षण में रद्द कर ब्रिटिश हाई कमिश्नर के आवास पर कर दिया गया । दूसरा आयोजन था इंडिया गेट पर जिसमें प्रथम विश्व युद्ध में शहीद हुए भारतीय सैनिकों को माल्यार्पण किया जाना था। इसमें दो ब्रिटिश जनरलों  को शामिल होना था लेकिन उन्हें अनुमति देने में बेवजह देरी कर दी गई । रक्षा मंत्रालय का गैर पेशेवर रवैये ने शर्मसार कर दिया। इस अवसर पर जो वृहद कार्यक्रम आयोजित हुआ था उसमें रक्षा मंत्रालय और विदेश मंत्रालय के प्रतिनिधी शामिल नहीं हुए और ना ही सेना के समारोह प्रभाग के प्रतिनिधि मेजर जनरल कलिता  ही उसमें शामिल हुए।  सबको याद होगा कि 2014 में जब प्रथम विश्व युद्ध आरंभ होने की तिथि की शतवार्षिकी मनाई गई थी तो उस समय इसी तरह के एक समारोह का आयोजन किया गया था और उस समारोह में तत्कालीन रक्षा मंत्री अरुण जेटली और सेना प्रमुख दलबीर सिंह ने बड़े जोर-शोर से भाग लिया था। इसमें तत्कालीन ब्रिटिश सुरक्षा सचिव माइकल फैलोन भी शामिल हुए थे उस दौरान गोरखा और रॉयल इंजीनियर्स के बैंड ने अविस्मरणीय प्रदर्शन किया था। इस समारोह में अवकाश प्राप्त सैनिक, इतिहासकार और प्रथम विश्व युद्ध के बारे में शोध करने वाले लोग भी शामिल हुए थे।  उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय सेना के अवदान पर काफी ऐसा कुछ कहा था तो अब तक अनजान था। इस समारोह का दूसरा हिस्सा था ब्रिटिश इंडियन आर्मी की रेजीमेंट की डायरी को वापस करना। इसमें भारतीय सेना के जनरलों को आमंत्रित किया गया था लेकिन उन्हें अनुमति नहीं दी गई। उनकी  जगह  अवकाश प्राप्त जनरल शामिल हुए और उन्हें वह डायरी सौंपी गई । समारोह में पूर्व सेनाध्यक्ष वीएन शर्मा तथा पूर्व राज्यपाल  जनरल जेजे सिंह शामिल हुए थे । जनरल शर्मा ने अपने भाषण में इस आयोजन के लिए ब्रिटिश हाई कमिश्नर डोमिनिक आस्किट को धन्यवाद दिया। आस्किट ने अपने भाषण में कहा  कि यह निराश करने वाला तथ्य है कि भारत के राजनीतिक नेता अपने बच्चों को फौज में नहीं भेजते हैं  जबकि इंग्लैंड में ऐसा नहीं होता है। उनकी इस बात पर वहां जमा श्रोताओं की भीड़ ने "शर्म शर्म" के नारे लगाए। इससे एक बात तो साफ हो गई कि व्यवस्था के असहयोग से असंतोष पैदा हुआ है। क्योंकि यह समारोह  एक ऐसे अवसर की स्मृति में आयोजित किया गया था  जिसमें 1 लाख 40 हजार भारतीय सैनिकों में भाग लिया था जिसमें 74 हजार शहीद हो गए और 13 हजार फौजियों को शौर्य पुरस्कार मिला, जिनमें में 11 सैनिक विक्टोरिया क्रॉस प्राप्त करने वाले थे।
    इससे स्पष्ट है कि प्रथम विश्व युद्ध के सेनानियों का स्मरण करने वाले ब्रिटिश समुदाय की सोच बदल रही और वे भारतीय फौजियों के अवदान को मंजूर कर रहे हैं। इसी तरह भारतीय अधिकारी भी उस युद्ध में भारतीय  सेना की उल्लेखनीय भूमिका को मंजूर कर रहे हैं, लेकिन अभी भी इसे अपना युद्ध नहीं मानते। रियासत के जमाने की फौज का स्मरण दिलाने वाले तीन मूर्ति चौक का नाम बदलकर 2017 में तीन मूर्ति हाइफा चौक कर दिया गया  और इस अवसर  पर आयोजित समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और इस्राइल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू उपस्थित हुए थे। इसमें  पहली बार फ्लैंडर्स पॉपी को खादी का बनाया गया था। भारत में गेंदे के फूल को इस अवसर के लिए चुना गया। क्योंकि केसरिया रंग आमतौर पर कुर्बानी का संकेत देता है और दूसरी बात कि यह फूल देश में सरलता से उपलब्ध है। इंग्लैंड में 2011 में सेना से संबंधित एक नियम बना जिसमें सेना की कुर्बानी को स्वीकार करने के लिए देश सरकार और फौज की नैतिक जिम्मेदारी दी गयी है । बाद में यह कानून बन गया और इसमें वयोवृद्ध फौजियों को शामिल किया गया। ताकि उनके साथ विशेष सलूक किया जा सके। भारत में अभी भी अवकाश प्राप्त सैनिक "एक रैंक एक पेंशन" के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जिसका मोदी जी ने बढ़-चढ़कर वादा किया था । सरकार का यह दावा कि इसने सेना के लिए वह सब किया है जैसा किसी सरकार ने नहीं किया था , खोखला है। क्या विडंबना है कि एक सरकार में चार-चार रक्षा मंत्री हैं, रक्षा का बजट सबसे कम है, वेतन में कई-कई गड़बड़ियां हैं। अतः रक्षा मंत्रालय की सुस्ती पर हैरत नहीं होनी चाहिए। पूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस ने फौजियों को अपमानित करने वाले कुछ बाबुओं को सियाचिन भेजकर सबक सिखाया था लेकिन पिछले हफ्ते जो हुआ उसे सुधारने के लिए कोई प्रयास नहीं  होता नही दिख रहा है। अफसरशाही के व्यवहार और उसकी संस्कृति को बदलने की जरूरत है । यह समय कुछ ऐसा है कि सेना को भी अपनी उपस्थिति बतानी होगी। देश की जनता को एक ऐसा दिन तय करना होगा कि सारा भारत उस दिन गेंदे के फूल का माला पहने।

Thursday, November 15, 2018

मंदिर कठिनाई भी पैदा कर सकता है

मंदिर कठिनाई भी पैदा कर सकता है
अयोध्या में विवादित ढांचे को गिराए जाने के बाद   26 साल गुजर गए तो   अब जल्दी क्या है? जब सुप्रीम कोर्ट ने नवंबर के बजाय अगले वर्ष जनवरी में सुनवाई निर्धारित की, तो यह तूफान क्यों खड़ा किया जा रहा है?
वेलिंगटन के ड्यूक ने वाटरलू में अपने भाड़े के सैनिकों के बारे में टिप्पणी की थी  कि उनके दुश्मनों पर चाहे  कुछ भी प्रभाव ना पड़ा पर इन सैनिकों ने  उन्होंने उन्हें डरा जरूर दिया। नरेंद्र मोदी को अयोध्या में राम मंदिर बनाने के नारों का यही उद्देश्य हो सकता है।  सुप्रीम कोर्ट में  लंबे समय से चल रहे   मामले पर सुनवाई और फैसले का इंतजार किए बिना मंदिर बनाने की जल्दीबाजी हो गयी। यह मसला अचानक देश के लिए सबसे जरूरी मसला हो गया। रोज़गार, नौकरियों, मुद्रास्फीति, विकास, किसानों के संकट या यहां तक ​​कि आतंकवाद के बारे में चिंता करने के बजाय मंदिर बनाने की चिंता की जा रही  है। इस आंदोलन का सबसे खास पहलू यह है कि यह बीजेपी के मूल समर्थकों, संघ  परिवार के सदस्यों का प्रतिनिधित्व करता है। अगर इसपर ध्यान   नहीं दिया गया तो  वे अपना रास्ता खुद अख्तियार  कर सकते हैं।
वे इतनी जल्दी में क्यों हैं? मामला दशकों से अदालतों में लंबित पड़ा  है। मंदिर स्थल पर  बहस पांच सौ साल के इतिहास की ओर इशारा करती है। बाबरी मस्जिद को गिराए जाने के बाद भी 26 साल हो गए। 
इसका एकमात्र जवाब यह है कि इन समर्थकों ने मोदी जी के  फिर से जीतने की  उम्मीद छोड़ दी है। उन्हे आम चुनाव से  कुछ महीने पहले  मंदिर बनाने का आंदोलन  आखिरी उम्मीद लगती है। वे हार से डरते हैं।  संसद को दरकिनार कर अध्यादेश जारी करने की उनकी  मांग का एकमात्र यही स्पष्टीकरण हो सकता है। योगी आदित्यनाथ ने यह भी बताया है कि कानूनी स्थिति के बावजूद, मंदिर की इमारत शुरू होनी चाहिए ।  सभी सामग्रियां  तैयार हैं। जब संघ परिवार के सहयोगियों द्वारा मस्जिद को ध्वस्त कर दिया गया था, तब तत्कालीन भाजपा के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने कानून और व्यवस्था को लागू करने का वादा किया था, लेकिन वादा केवल वादा रहा। जब बात बिगड़ेगी तो  बहुत होगा  कि वर्तमान मुख्यमंत्री उसी तरह के वादे कर   सकते हैं। और जब कानून की अवमानना करने वाले मंदिर बनाते हैं, तो यूपी सरकार मूक दर्शक बनी रहेगी । ऐसे में  अगर सरकार को खारिज कर दिया जाता है, तो वह मंदिर के निर्माण के बाद फिर से सत्ता में आ सकती है। आखिरकार, आरएसएस के समर्थन से केंद्र सरकार की चुप्पी से  सबरीमाला में कानून का उल्लंघन किया जा रहा है या नहीं।
इस आइडिया के साथ एकमात्र दिक्कत यह है कि, यदि कुछ हुआ  तो यह निश्चित रूप से मोदी सरकार को बहुमत खोने का कारण बनेगा।  वह मंदिर के उत्साही या   एक हिंदू कट्टरपंथी के रूप में  नहीं चुने गए थे। यह उनके निजी विचार थे।  उन्होंने विकास की समावेशी नीति की पेशकश की थी इसी लिए वे निर्वाचित हुए । जब  उन्होंने बीजेपी की रणनीति को फिर से तैयार  किया और पार्टी को  और अधिक आधुनिक लोगों के जीवन और समावेशी विकास के लिए प्रासंगिक बनाने की उम्मीद जगाई तभी उन्हें  2014 में प्रचंड बहुमत मिला। यह समर्थन उन्हें शहरी मध्यवर्ग से मिला था।  युवा शहरी भारत  इस या उस मंदिर या मूर्ति को लेकर भावुक नहीं है। उनके लिए आर्थिक समृद्धि महत्वपूर्ण है। गरीब वर्गों के लिए, पीएमजेई में शामिल स्वास्थ्य नीति अधिक महत्वपूर्ण है।
सुप्रीम कोर्ट की अवमानना के रूप में  कानून की अवमानना  मध्य वर्गीय भारत को अलग कर देगा। मूल वोट हमेशा वहीं से आता है।बहुमत हासिल करने के लिए पार्टी को संघ के आदर्शों के दायरे  से बाहर जाना पड़ेगा । पांच राज्य चुनावों में नरेंद्र मोदी के मुकाबले विपक्षी पार्टियां  लड़ रही हैं। एक अध्यादेश पारित करना और फिर राष्ट्रव्यापी विरोधों से निपटने के लिए तरह तरह के वादे करना  एक विकृति होगी। चुनाव कानूनहीनता के मुद्दे पर जनमत संग्रह बन जाएगा। परिणाम  पार्टी के बहुमत के  नुकसान रूप में सामने आएगा।

Wednesday, November 14, 2018

पटाखे  'हिंदू धर्म' से कैसे जुड़ गए ?

पटाखे  'हिंदू धर्म' से कैसे जुड़ गए ?

समाज विज्ञान में राजनीति समाज के विचार परिवर्तन का बहुत सशक्त औज़ार है। इसमें होता कुछ दिखता है और असर कुछ और होता है। अब इसी दिवाली की बात लें। सबसे पहले तो कोलकाता के वासी धन्यवाद के पात्र हैं कि उन्होंने इस वर्ष दीवाली में आतिशबाज़ियों का कम उपयोग किया और शहर का प्रदूषण स्तर अन्य शहरों की तुलना में कम रहा। सांस की तकलीफ वाले वृद्धों को थोड़ी राहत मिली। लेकिन उत्तर भारत के अन्य शहरों में यह हालत नहीं है। अब सवाल है कि हिन्दू धर्म के नाम पर आतिशबाज़ी का उपयोग कैसे जायज है? जरा गौर करें , जिन क्षेत्रों में हिंदुत्ववाद का जोर है उन क्षेत्रों में आतिशबाजियों का ज्यादा उपयोग हुआ और प्रदूषण का स्तर भी ज्यादा रहा।यह सब हुआ सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बावजूद।अब खबरें मिल रहीं हैं कि कुछ लोग कानून के शासन को कमजोर करने में लगे हैं। वे इस बात को बढ़ावा देने में लगे हैं हिन्दू धार्मिक मान्यताओं की सुनवाई कोर्ट में नहीं हो सकती। दूसरी तरफ कुछ  न्यायाधीशों ने इस विचार को स्पष्ट करना शुरू कर दिया है कि धार्मिक मान्यताओं और प्रथाओं से संबंधित मामलों पर न्यायालय निर्णय नहीं ले सकते हैं ।
अनंत विविधता के इस देश में न्यायिक प्रणाली को ध्वस्त करने की साज़िशें शुरू हुईं हैं । कोई भी व्यक्ति  नैतिक विवेक और प्राकृतिक न्याय के प्रति प्रतिकूल अमानवीय व्यवहार या नैतिक रूप से आपराधिक प्रथाओं को न्यायसंगत साबित करने के लिए याचिका दायर कर सकता है।
वह समय था जब पोप या खलीफ़ा, काजी या कोई अन्य धार्मिक नेता अपने समुदाय के लिए पवित्र पुस्तक की व्याख्या करने के उद्देश्य से सांप्रदायिक एकाधिकार का दावा करता  था,जो अमान्य करता था उसके बहिष्कार के खतरे थे। एक आधुनिक राज्य में   व्यक्तियों, समूहों या नागरिकों और सरकार के बीच सभी विवादों के  निर्णय का अधिकार अदालतों में पास  है। उसके अधिकार क्षेत्र में विभिन्न धर्मों के विवादित मुद्दे भी  शामिल हैं। 
इतिहास के अनुसार  ईसा मसीह के जन्म से कुछ सदी पहले  चीन में किसी ने पटाखों का 'आविष्कार' हुआ था। कुछ समय बाद  बारूद ने से और अधिक आवाज़ के साथ  विस्फोट की शुरुआत हुई। तबसे  लगातार  आतिशबाजी के स्वरूप  में बदलने के लिए प्रयास जारी  हैं। कई रसायनों के अलावा, धातु के कणों और कलात्मक कल्पना के साथ मिश्रित खनिजों ने आतिशबाज़ी  के क्षितिज को बढ़ाया। शाब्दिक रूप से आतिशबाज़ी का अर्थ  आग से खेलना है। पश्चिम ने कथित तौर पर स्वीकार किया है कि यह चीन शुरू हुआ  था । यह मंदिरों में धार्मिक उत्सवों का हिस्सा नहीं था।धीरे-धीरे आतिशबाजी  चीन से बाकी दुनिया में निर्यात गयी। 15 वीं शताब्दी के अंत से पहले भारत में आतिशबाजी का कोई उल्लेख नहीं है।
वेरथमा जैसे विदेशी यात्रियों ने विजयनगर साम्राज्य में इसके  उपयोग का जिक्र किया है। उसी काल में  उड़ीसा के गजपति प्रताप चंद्र रुद्र देव द्वारा संकलित कौतुक चिंतमणि में  आतिशबाज़ी  को महंगे मनोरंजन के रूप में वर्णित  है, तथा यह शासकों और बहुत अमीरों के लिए उपयुक्त है।
पटाखे का एक आवश्यक घटक बारूद प्राचीन भारत में अज्ञात था। सभी उपलब्ध सबूत बताते हैं कि मध्ययुगीन काल में अरबों और मंगोलों के साथ बारूद और आतिशबाजी भारत आए। अब अगर कोई भारतीय दावा करता है कि आतिशबाजी उनके पारंपरिक उत्सवों के लिए आवश्यक है सही नहीं है। कुछ अन्य स्थान  और लोग हैं जहां  आतिशबाजी  सार्वजनिक उत्सव का हिस्सा है, लेकिन वे सभी  चीन का ही अनुकरण के माध्यम  हैं।
हम भूल जाते हैं कि हम पटाखों  को  केवल दशहरा या दिवाली या छठ तक ही सीमित  नहीं रखते हैं। क्रिकेट मैच जीतने या नगरपालिका चुनाव जीतने  अवसर पर भी इसका उपयोग करते हैं।  
बारात के दौरान आतिशबाजी से यातायात को अवरुद्ध करना कबसे धर्मसंगत हो गया। इसे धर्म से जोड़ना  लोगों को  एक क्रूर गैर-धार्मिक उन्माद  के लिए उकसाने का पर्याप्त उदाहरण है।
भारत में आतिशबाजी उद्योग तर्कसंगत रूप से सबसे क्रूर शोषक उद्योगों में से एक है। इस उद्योग में  बच्चों को अमानवीय और अत्यंत खतरनाक परिस्थितियों में श्रम करने के लिए बाध्य किया  जाता है। शिवकाशी, तमिलनाडु बाल श्रम के लिए कुख्यात है। पटाखे बनाते समय कई बार दुर्घटनाएं हुईं जिसमें मौतें भी हुईं  लेकिन ज्यादा कुछ नहीं बदला ।
निष्पक्ष  विद्वान-अनुवादकों की कोई कमी नहीं है जो साबित कर सकते हैं कि प्राचीन काल से हिंदुओं द्वारा बुराई पर विजय के रूप में आतिशबाजी के प्रयोग को 'साबित' कर सकते हैं। लेकिन पौराणिक कथाओं, किंवदंती को  समकालीन भारत ने  लात मार दिया है। 
दीपावली  का मतलब है कि  प्रकाश का जश्न और आतिशबाज़ी  का जुनून केवल खतरनाक व्याकुलता साबित कर सकता है। हम सचमुच आग से खेलकर जीवन को खतरे में डाल रहे हैं। टैगोर की कविताओं में  एक पंक्ति  है जिसमें कहा गया है कि जहां कोमल मिट्टी के दीपक की चमकदार रोशनी के साथ आतिशबाजी के क्षणिक चमक  तुलना गलत है। 
इतने सारे ऐतिहासिक और पैराणिक प्रमाणों के बावजूद आतिशबाजी को धर्म से जोड़ना और उस प्रक्रिया को प्रोत्साहित कर अदालत को नीचा दिखाना  एक तरह से सामाजिक सोच को भयभीत कर अपना वर्चस्व कायम करने का षड्यंत्र है। वर्चस्व के लोभ में ये लोग यह भी नहीं सोचते कि भविष्य के समाज पर इसका क्या प्रभाव होगा? साथ ही प्रदूषण के बढ़ने से वातावरण पर क्या प्रभाव होगा? 

ग़ज़ब ये है की अपनी मौत की आहट नहीं सुनते 
वो सब के सब परेशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा 
तुम्हारे शहर में ये शोर सुन-सुन कर तो लगता है 
कि इंसानों के जंगल में कोई हाँका हुआ होगा

Tuesday, November 13, 2018

नागरिकता विधेयक पर असमी समुदाय का  विभाजन

नागरिकता विधेयक पर असमी समुदाय का  विभाजन


नागरिकता बिल ने असम के  दो प्रमुख समुदायों के बीच पारंपरिक दरार  का खुलासा कर दिया है। यह दरार ब्रिटिश राज के समय से कायम  है।
असम एक बार फिर उबल रहा है। विवादास्पद नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2016 पर बराक और ब्रह्मपुत्र घाटियों के लोगों के बीच विचारों को लेकर   विभाजित हो गया है   साथ ही राज्य अब सामाजिक और भौगोलिक दृष्टि से भी उबल रहा है। ब्रह्मपुत्र घाटी  बंगाली और असमिया समुदाय बघनखे छिपा रखे हैं। जब से विधेयक सामने आया है राज्य में गहरे भाषाई ध्रुवीकरण देखा जा रहा है। यह ध्रुवीकरण उस समय और गंभीर हो गया जब  संयुक्त संसदीय समिति के सदस्यों ने इस साल की शुरुआत में राज्य का दौरा किया और बाद में अपनी रिपोर्ट जमा कर दी। यह स्थिति विदेशी-विरोधी आंदोलन के दिनों  (1 979-19 85) की याद दिलाती है।  सभी खेमे से उत्तेजक वक्तव्य आ रहे हैं और राज्य की मीडिया (ज्यादातर इलेक्ट्रॉनिक) का एक बड़े वर्ग के साथ सांप्रदायिक जुनून को उत्तेजित करने में लगी है।  असम स्पष्ट रूप से एक बार फिर उसी अराजक राह पर चल पड़ा है जिसपर 1979 से 6 वर्ष चलता रहा था।राज्य सरकार  रहस्यमय मौन साधे हुए है। विधेयक का विरोध करने वाले लोगों और  गैर-जिम्मेदार वक्तव्यों  से उत्पन्न होने वाले  खतरों और धमकियों के बावजूद, सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं का  एक वर्ग गैर जिम्मेदार बयान दे रहा है। दिसपुर ने स्थिति से निपटने में बुरी तरह विफल प्रशासन का   कोई स्पष्ट बयान नहीं आया है। 
असल में, विधेयक अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से बौद्ध, ईसाई, हिंदू, जैन, पारसी और सिख समुदायों से संबंधित आप्रवासियों को नागरिकता प्रदान करना चाहता है। इस समुदाय के लोग  धार्मिक उत्पीड़न के बाद 31 दिसंबर, 2014 से पहले अवैध रूप से भारत में प्रवेश कर गए थे । इस प्रकार, यह असम या बांग्लादेशी हिन्दू-विशिष्ट नहीं है।  इसके अलावा, बांग्लादेश से गारो, खासी, राभा, चक्र इत्यादि जैसी जनजातियों के कुछ सदस्य अवैध रूप से पूर्वोत्तर में रह रहे हैं। इस  बिल  से उनके लिए  भी  आसानी होने  की उम्मीद है।
लेकिन, सत्तारूढ़ दल के फैसले से कोई भी मतभेद नहीं होने के कारण,  राष्ट्रवादी समुदाय  दंगा कर  स्थिति का फायदा उठाने की कोशिश में हैं। 
वे यह भी इंगित कर रहे हैं कि यह सर्वोच्च न्यायालय के तहत नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) के चालू पंजीकरण के अलावा गैरकानूनी बांग्लादेशियों की पहचान और निर्वासन के लिए 24 मार्च, 1 9 71 को तय किये गए असम समझौते को अस्वीकार कर देंगे।  हालांकि, बंगाली संगठनों का मानना ​​है कि आखिरकार बंगाली हिंदुओं के लिए न्याय किया जाएगा जो धार्मिक उत्पीड़न के कारण  पूर्वी पाकिस्तान से भाग आये थे और दशकों बाद उन्होंने इस राज्य में रहने की  जगह चुनी थी।
अखिल असम छात्र संघ (एएएसयू) जैसे प्रभावशाली संगठन अन्य उत्तर-पूर्वी राज्यों और यहां तक ​​कि राजनीतिक समूहों के बाहर भी अन्य जातीय समूहों से समर्थन जुटाने की कोशिश कर रहे हैं। 
वर्तमान स्थिति उस समय एक उत्तेजक विंदु पर पहुंच गई जब पिछले दिनों  तिनसुकिया जिले के ढोला में अज्ञात बंदूकधारियों (आतंकवादियों के लिए संदिग्ध) द्वारा पांच निर्दोष बंगालियों को गोली मार दी गई थी।   आतंकवादी संगठनों द्वारा लक्षित सामूहिक हत्याओं की पृष्ठभूमि में अन्य समुदायों द्वारा अतीत में ऐसे गिरोहों को बुलाये जाने की भी मिसाल है। 
नवीनतम प्रकरण ने स्पष्ट रूप से असमिया और बंगाली समुदायों के बीच अंतर्निहित उत्तेजनात्मक तनाव का खुलासा किया है। हत्या की व्यापक रूप से निंदा नहीं की गई थी। यहां तक ​​कि असमिया बुद्धिजीवियों ने भी मौन रहना  पसंद किया था।  
इन सभी ने राज्य में रहने वाले बंगालियों के एक बड़े हिस्से में विशेष रूप से ब्रह्मपुत्र घाटी में असुरक्षा की भावना को बढ़ावा दिया है।
दोनों समुदायों
के  बीच वर्तमान तनाव से एक बार फिर पूर्वोत्तर की जटिल सामाजिक संरचना  सामने आ गयी है जो अपने राजनीतिक परिदृश्य को भी परिभाषित करती है। विशेष रूप से कई जातीय समुदायों के बीच असुरक्षा की अव्यवस्थित भावना को स्पष्ट देखा जा सकता है।  देश के बाकी हिस्सों के विपरीत, इस हिस्से में ध्रुवीकरण मुख्य रूप से जातीय और भाषाई रेखाओं के आरपार  होता है।  बंगाली या करबी असमिया या असमिया के साथ-साथ बंगाली आदि के साथ-साथ नागरिकता (संशोधन) विधेयक पर वर्तमान तनाव इस वास्तविकता को दर्शाता है।
हालांकि, यह व्यापक रूप से माना जाता है कि मौजूदा उत्तेजना से  आगे किसी  तरह की व्यापक संघर्ष की संभावना नहीं है। विदेशियों के विरोध में हुए अतीत के आंदोलन  का पुनर्मूल्यांकन कई कारकों के कारण संदिग्ध है। जिसमें बड़े असमिया समाज के निर्माण और "राष्ट्रवादी" भावनाओं के मजबूत अंतर्निहित  विरोधाभास शामिल हैं। आखिरकार, असम के आम आदमी को पिछले कुछ महीनों के लिए अत्यधिक उत्तेजना के मुकाबले अत्यधिक संयम का इस्तेमाल करने के लिए पूर्ण श्रेय दिया गया। सांप्रदायिक हिंसा की एक भी भयानक घटना नहीं हुई है। हालांकि, दिसपुर और दिल्ली दोनों ही इस स्थिति को संसद में आगे बढ़ने की बजाए विधेयक के बारे में अपनी गलतफहमी को स्पष्ट करने के लिए सभी हितधारकों के साथ आगे बढ़ने और सक्रिय रूप से संलग्न होने की अनुमति नहीं देंगे।

Monday, November 12, 2018

मोदी और पटेल आमने सामने

मोदी और पटेल आमने सामने

यद्यपि मोदी और पटेल के आमने सामने के मुकाबले की बात कहना तकनीकी रूप से बहुत सही नहीं है ,क्योंकि सरकार के हर फैसले के लिए प्रधानमंत्री ही जिम्मेदार होता है। लेकिन जहां तक नोटबंदी का प्रश्न है वह मोदी जी की व्यक्तिगत अस्मिता की तरह था। मोदी जी नवंबर और दिसंबर 2016 तक इसे जायज और कामयाब बताते रहे थे। उनके भगत लोग भी इसी को लेकर काफी प्रचार कर रहे थे। उसके बाद से ही मामला बिगड़ने लगा। 2 वर्ष के बाद अब जबकि रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर  रघुराम राजन  ने  कह दिया कि नोट बंदी से अर्थव्यवस्था को आघात पहुंचा है तो बात कुछ दूसरी हो गई । राजनीतिक फैसलों में अधिकार का ज्यादा केंद्रीकरण समस्या पैदा करता है। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर  ने 11 नवंबर को वाशिंगटन में कहा की नोट बंदी और जीएसटी भारत की आर्थिक विकास के रास्ते में रुकावट बन रहे हैं और जिस 7% विकास दर की बात की जा रही है वह देश की मौजूदा समस्या को हल करने में कारगर नहीं है। यही नहीं, रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने एक तरह से सरकार पर तंज करते हुए कहा कि हमने दुनिया में सबसे बड़ी मूर्ति बनाई है। यह प्रदर्शित करती है कि जहां संकल्प होगा वहां सफलता मिलेगी, लेकिन क्या यह संकल्प "दूसरी जगह " नहीं दिख सकता है।
   हालांकि,   उर्जित पटेल ने इस बयान पर कोई टिप्पणी नहीं की । उनकी चुप्पी को उनकी स्वीकारोक्ति समझा जा रहा है। इसके बाद भारतीय रिजर्व बैंक और सरकार के बीच का विवाद अब चौराहे पर आ गया है । जब से यह विवाद उभरा है तब से तरह-तरह के बयान आ रहे हैं। कुछ लोगों का कहना है कि यह वर्चस्व की लड़ाई है और इसे टाल देना चाहिए। दोनों पक्ष अपने-अपने अपने स्थान से पीछे हट जाएं। क्योंकि, सार्वजनिक शासन के लिए व्यवस्था में तरलता ज्यादा जरूरी है। कुछ विश्लेषकों का मानना  है कि रिजर्व बैंक की जमा पूंजी पर हाथ डालना सही नहीं है। लेकिन एक प्रश्न है कि सरकार ने रिजर्व बैंक के केंद्रीय बोर्ड अपने राजनीतिक समर्थकों को भर दिया है और तब इस तरह के फैसले करने की बात चल रही है । क्योंकि इस तरह के फैसले अक्सर प्रबंधन स्तर पर ही निपटा दिए जाते हैं।
         बोर्ड का काम मार्गदर्शन करना है ना कि पेशेवर प्रबंधन में दखल देना । तकनीकी मामलों में फैसले करने का काम पेशेवर प्रबंधन का है और उस पर ही छोड़ देना चाहिए। वैसे अब तक जो टिप्पणियां देखने को मिली हैं उनसे तो ऐसा लगता है कि बहुसंख्यक विश्लेषक रिजर्व बैंक के पक्ष में हैं।  बैंक को यह परामर्श भी दिया जा रहा है किवह अपना रवैया लचीला रखे और विचार विमर्श के रास्ते खुले रखे । सरकारी पक्ष का मानना है कि रिजर्व बैंक के पास जरूरत से ज्यादा पूंजी जमा हो गई है। उसे यह पूंजी सरकार को दे देनी चाहिए, ताकि उसका उपयोग आर्थिक विकास में हो सके ।  यह पूंजी तो आखिर सरकार की ही है । वैसे रिजर्व बैंक को उसकी बजाहिर नाकामियों के बावजूद जवाबदेह नहीं ठहराया गया है। रिजर्व बैंक को सरकार से विवाद में पड़ना ही नहीं चाहिए।  दोनों पक्षों को टकराव से बचने के लिए जो भी सलाह दी जा रही है उस पर अमल थोड़ा कठिन लगता है। अर्थव्यवस्था पर सच में दबाव है। इसके अलावा यह विवाद व्यक्तित्व का भी है। रिजर्व बैंक के गवर्नर वस्तुतः एक बड़े पदाधिकारी हैं। लेकिन निहायत सख्त और संवादहीन से लगते हैं। पिछले कई गवर्नर भी सख्त थे पर संवाद हीनता उनमें  नहीं थी। वह बातचीत को तैयार रहते थे। पिछले कुछ गवर्नर्स को जिस तरह अपने पद से जाना पड़ा वह शोभनीय नहीं था। वर्तमान गवर्नर का कार्यकाल अभी बाकी है और सरकार भी उन्हें समय से पहले चलता करने के मूड में नहीं दिखती। इधर रिजर्व बैंक के दो डिप्टी गवर्नर के हालिया बयान से पता चलता है कि उसके आला अफसर सख्त रुख अपनाए हुए हैं । अगर केंद्रीय बोर्ड की अगली बैठक में सरकार ने इनके हाथ बांधने की कोशिश की तो हो सकता है वे इस्तीफा दे दें।  इसका बड़ा ही नकारात्मक राजनीतिक असर होगा। आर्थिक मामलों में सरकार की स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है । हालात यह हैं कि उसे अभी तक कोई मुख्य आर्थिक सलाहकार तक नहीं मिल पाया है। अगर रिजर्व बैंक के गवर्नर और डिप्टी गवर्नर ने इस्तीफा दे दिया तो सरकार को इन पदों के लिए उच्चस्तरीय अर्थशास्त्री मिलना मुहाल हो जाएगा। अगर वह विदेश से ला कर किसी को इन पदों पर बैठाती है तो राजनीतिक हलकों में इतनी आलोचना होगी सरकार के लिए आगे बढ़ना मुश्किल हो जाएगा।
        ऐसी स्थिति में चतुराई से काम लेना ही सरकार के लिए मुफीद होगा। सरकार ने अगर अड़ियल रुख अपनाया उसका असर आने वाले चुनाव में दिख सकता है।  राजनीतिक हालात अभी से यह संकेत दे रहे हैं कि सरकार  जोखिम नहीं उठा सकती।

Sunday, November 11, 2018

केवल टोपी से क्या होगा?

केवल टोपी से क्या होगा?

यद्यपि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब सार्वजनिक अवसरों पर भाषण देने जाते हैं तो फहराती हुई पगड़ी में देखे जाते हैं। पिछले एक पखवाड़े से उन्हें तरह-तरह की टोपियां में देखा जा रहा है। कभी वे आजाद हिंद फौज की टोपी पहन लेते हैं तो कभी पनडुब्बी के सिपाहियों वाली टोपी पहन लेते हैं। दिवाली में वे आई टी बी पी के जवानों के साथ  मैरून रंग की टोपी पहने दिखे। जिस पर पीएम शब्द कढ़ाई से लिखा हुआ था। आजाद हिंद फौज की 75 वीं वर्षगांठ पर उन्होंने सुभाष चंद्र बोस वाली टोपी पहनकर लाल किले की प्राचीर पर ध्वजारोहण किया । जब उन्होंने आईएएनस अरिहंत नाम की पनडुब्बी के काम पूरे होने पर राष्ट्र को संबोधित किया तो उन्होंने परमाणु त्रिशूल की घोषणा की और उस समय उन्होंने पनडुब्बी के जवानों जैसी टोपी पहन रखी थी ।  उस टोपी पर साफ-साफ अक्षरों में प्रधानमंत्री शब्द लिखा हुआ था। लेकिन जब वे अपनी पार्टी या अपने प्रधानमंत्रित्व के प्रथम काल को बचाने के लिए सियासी जंग में उतरते हैं तो देश के नागरिक उनसे यह सवाल पूछना चाहते हैं कि जिन टोपियों को उन्होंने पहना क्या वे उनको माफिक आती हैं।
    प्रधानमंत्री की हाल की टिप्पणियों के चार महत्वपूर्ण पहलू थे। पहला कि, उन्होंने देश की सुरक्षा पर बल दिया और ऐसे मौके पर उन्होंने इंदिरा जी के प्रमुख मुहावरे को नहीं दोहराया। इंदिरा जी को हमेशा विदेशी हाथ का खतरा बना रहता था।  मोदी जी ने ऐसा कुछ नहीं कहा, पर जो उन्होंने कहा उसका अर्थ वही था। उन्होंने कहा कि यह परमाणु त्रिशूल बाहरी दुश्मनों से हमारी सीमा की सुरक्षा करेगा । हमारी सीमा को बाहरी खतरे हैं। दूसरी बात उन्होंने कही कि केवल भाजपा ने ही भारत को शक्तिशाली बनाया। अरिहंत वाले जलसे में उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी और पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम के नाम लिए। भारत के परमाणु और मिसाइल विकास में उनकी भूमिका की प्रशंसा की।  उन्होंने नेहरू, इंदिरा गांधी ,राजीव गांधी , इंद्र कुमार गुजराल, देवेगौड़ा अथवा चंद्रशेखर तथा चरण सिंह के नाम नहीं लिये।  यहां सवाल यह है कि अगर इन लोगों ने भारत के परमाणु कार्यक्रम की हिफाजत नहीं की होती ,खासकर के पश्चिमी निगरानी से ,तो क्या बाजपेई 1998 में सफल परमाणु परीक्षण कर पाए होते? तीसरी बात कि बेशक नेहरू गांधी परिवार भारत में अपने नाम का प्रसार कर रहे हैं और करते रहे हैं पर मोदी जी की प्रवृत्ति तो ऐसी लग रही है कि वह अपनी विरासत तैयार करने में लगे हैं । सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसे लोगों की मूर्तियां लगाना इसलिए वे उचित समझते हैं कि पटेल नेहरू के व्यक्तित्व और राजनीति के विरोधी थे। ऐसा सचमुच था या नहीं लेकिन मोदी जी या मानते हैं और वे ऐतिहासिक भूलों को सही करने में लगे हैं ।  इसी क्रम में शहरों के नाम बदले जा रहे हैं ।चौथी बात या चौथा पहलू जो सबसे महत्वपूर्ण है वह है कि मोदी जी को यकीन है कि सुरक्षा के मामलों को उठाने  से लोगों का ध्यान महत्वपूर्ण मसलों से हट जाएगा। वह महत्वपूर्ण मसला देश की आर्थिक स्थिति है। विगत कुछ हफ्तों से भारतीय रिजर्व बैंक अपनी स्वायत्तता के लिए लड़ रहा है। सब  लोग जानते हैं कि 2 साल पहले की नोट बंदी के बारे में रिजर्व बैंक ने मंजूरी नहीं दी थी। पिछले 2 वर्षों से मोदी जी लगातार विश्वास दिलाने में लगे हैं कि करेंसी की कमी कभी नहीं हुई । लेकिन 2 वर्ष से मोदी जी के तरफ से इस मामले पर एक भी ट्वीट नहीं आया। अलबत्ता वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपने फेसबुक पर इस संबंध में जरूर कुछ लिखा था और कहा जा सकता है प्रधानमंत्री जी ने नोटबंदी  के कारण आई विपत्ति को पूरी तरह से नजर अंदाज कर दिया।
         क्या हम भूल सकते हैं इसे आसानी से? 22 नवंबर 2016 को संसदीय भारतीय जनता पार्टी ने एक प्रस्ताव पास कर प्रधानमंत्री मोदीजी  के इस प्रयास की प्रशंसा की थी। इस प्रस्ताव को राजनाथ सिंह और तत्कालीन  सूचना और प्रसारण मंत्री  वेंकैया नायडू ने प्रस्तुत किया था। भाजपा ने " इस पहल को व्यवस्था की सफाई की परियोजना  के रूप में स्वीकार किया और कहा था कि यह सामान्य और राजनीतिक जीवन में ईमानदारी को बढ़ावा देगा। इससे  सामान्य जन और गरीबों को लाभ होगा।" लेकिन, इस वर्ष ना राजनाथ सिंह ना वेंकैया नायडू और ना विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने इस पर एक शब्द भी कहा। अमित  शाह ने जेटली के संदेश को ट्वीट किया ।इससे लोगों के बीच यह भ्रम पैदा हुआ कि इस सारे काम के लिए जेटली ही दोषी हैं।
        यहां सवाल उठता है कि कुछ राज्यों में  होने वाले विधानसभा चुनाव के नतीजे मोदी जी के आर्थिक व्यवहार के लिए जनादेश होंगे क्या?