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Monday, September 30, 2019

शिक्षित बेरोजगारों की बढ़ती तादाद

शिक्षित बेरोजगारों की बढ़ती तादाद

अंतरिक्ष में विजय पताका फहराने  से लेकर हाउडी मोदी के जश्न तक हम भारतीय अपने कारनामों का बखान करने में मगन थे उसी बीच दो जरूरी रपट सामने आयी लेकिन उन्हें देखा नहीं गया या देखा भी गया तो उस पर  ध्यान नहीं दिया गया। वह रपट थी शिक्षा पर केंद्रित   आठवां वार्षिक सर्वेक्षण 2018- 19। यह रपट मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने जारी किया।  इसी के आसपास एक और रिपोर्ट "सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनामी- ए स्टैटिसटिकल प्रोफाइल ,मई अगस्त 2019।" यह रपट हर साल तीन बार प्रकाशित होती है। अगर इन दोनों रपटों को एक साथ रख कर देखें तो हमारे देश की एक अलग तस्वीर उभरती है। उस तस्वीर में हमारे शिक्षित बेरोजगार नौजवानों का बड़ा विकराल रूप दिखता है। बेरोजगारी का यह रूप आर्थिक मंदी का एक संकेत है और आने वाले दिनों में सरकार के लिए एक विशेष चुनौती बन सकता है। यह बात थोड़ी अजीब लग सकती है लेकिन हकीकत है कि उच्च शिक्षा के जो आंकड़े उपलब्ध है वह अपनी गुणवत्ता में स्कूली शिक्षा के मौजूदा आंकड़ों से भी कमतर हैं । इस बात को भांपकर केंद्र सरकार ने 2011- 12 में "ए आई एस एच डी" स्थापना की थी। आज हमारे पास आंकड़े हैं जिनसे पता चल सकता है कि इस देश में उच्च शिक्षा के कितने और किस प्रकार के संस्थान हैं। प्रत्येक संस्थान में कितने लोगों का नामांकन होता है और उसमें से उत्तीर्ण होने वाले छात्र की संख्या कितनी है। यही नहीं यह आंकड़े बताते हैं कि इन संस्थानों में अध्यापकों और शिक्षण कार्य से जुड़े लोगों की संख्या कितनी है। लेकिन यह भी पढ़ने- पढ़ाने और शोध की गुणवत्ता के बारे में कोई जानकारी नहीं देते। "प्रथम" नाम की गैर सरकारी संस्था "असर" की रिपोर्ट या फिर एनसीईआरटी से प्रकाशित होने वाला ऑल इंडिया स्कूल सर्वे हमारे पास आधार है। यह जानने का कि हमारे पढ़े-लिखे किशोर या नौजवान कितने कुशल हैं हाल में प्रकाशित ए आई एस एच डी 2018 19 की रिपोर्ट में आंकड़ों के पर्दे में हकीकत को पोशीदा करने का एक बड़ा दिलचस्प नमूना सामने आया है। रिपोर्ट में बताया गया है कि  देश में विश्वविद्यालयों की संख्या 993 तक हो गई है, जबकि 2011- 12 में यह संख्या 642 थी। यानी 8 वर्षों में देश में विश्वविद्यालयों की संख्या में 50% का इजाफा हुआ है। लेकिन अगर गंभीरता से इसे देखें तो पता चलेगा यह 50% निजी विश्वविद्यालय हैं। आलोच्य अवधि के भीतर जो 351 विश्वविद्यालय बने हैं उनमें से 119 को राज्य सरकारों की मान्यता प्राप्त है और यह निजी विश्वविद्यालय हैं। इन निजी विश्वविद्यालयों में शिक्षा की क्वालिटी क्या है इसके बारे में कहीं कोई जिक्र नहीं है। वैसे यह तो साफ पता चलता है कि यह निजी विश्वविद्यालय शिक्षा की दुकानदारी है और शिक्षा इससे  कलंकित होती है। इसलिए इन विश्वविद्यालयों की वृद्धि कोई अच्छी बात नहीं है।
        जहां तक उच्च शिक्षा के संस्थानों में छात्रों के दाखिले का सवाल है आलोच्य अवधि में  कुल तीन करोड़ 74 लाख नौजवानों में इन संस्थानों में दाखिला लिया। और ऐसी पढ़ाई की जिस पढ़ाई की कोई उपयोगिता नहीं है। तीन करोड़ 74 लाख का यह आंकड़ा सुनने में तो बड़ा इंप्रेसिव लगता है लेकिन यह जानकर मन में उदासी भर जाती है कि हमारे देश में 18 साल से 23 साल की उम्र के नौजवानों की संख्या जितनी है उसका महज एक चौथाई हिस्सा ही उच्च शिक्षा के संस्थानों में दाखिला पा सका है। इसका मतलब है कि जिन तीन चौथाई भाग को संस्थानों में होना चाहिए वे वहां नहीं है और यूं ही बेकार बैठे हैं। यह बेकार की जमात जिंदा बम की तरह खतरनाक है। उच्च शिक्षा के हमारे संस्थान हर साल लगभग एक करोड़ छात्रों को डिग्रियां बांटते हैं। जिनमें 59 लाख स्नातक की डिग्री पाने वाले हैं और स्नातक स्तर पर डिग्री पाने वाले इन छात्रों में हुनर या रोजगार पा सकने लायक कौशल बहुत ही कम है। इसे देखते हुए यह साफ जाहिर होता है थे हमारे शिक्षा संस्थानों के सामने दोहरी चुनौती है- एक तो छात्रों की लगातार बढ़ती संख्या एक दूसरे शिक्षा की क्वालिटी।
      अब इन आंकड़ों के बरक्स अगर हम बेरोजगारी पर केंद्रित सीएमआईई की ताजा रिपोर्ट देखते हैं तो संकेत मिलता है कि बेरोजगारी की दर लगातार बढ़ती हुई मई 7.03 प्रतिशत से बढ़कर अगस्त में 8.19 प्रतिशत जा पहुंची। बेरोजगारी का आकलन  जिस पद्धति से किया गया है वह नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़ों के तौर-तरीकों से थोड़ा अलग है, और इन आंकड़ों को अगर अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के आंकड़ों के परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि भारत में बेरोजगारों की संख्या सबसे ज्यादा है। जैसे- जैसे शिक्षा का स्तर बढ़ता जाता है बेरोजगारी बढ़ती जा रही है अशिक्षित लोगों में बेरोजगारी बहुत कम है। बेरोजगारी की यह बढ़ती संख्या देश में खौलते ज्वालामुखी की तरह है।यह ज्वालामुखी किसी भी दिन फट सकती  है। बेरोजगारी के बढ़ते हुए मंजर पर जरा आर्थिक मंदी का रंग देखिए तो साफ दिखेगा कि देश एक बहुत बड़े संकट की ओर बढ़ रहा है । ऐसी स्थिति में कई देशों में दंगे हुए, तनाव हुआ है। बेरोजगारी के मोर्चे पर खराब हो सकती है। देश की स्थिति से बेखबर  हाउडी बोलने में जुटे हमारे नौजवान और हमारी सरकार इसे दूर करने के लिए कोई उपक्रम नहीं कर रही है और अगर कर भी रही है तो यह जनता को दिख नहीं रहा है।

Sunday, September 29, 2019

पाकिस्तानी हुकूमत तैयार रहे

पाकिस्तानी हुकूमत तैयार रहे

भारत में देवी पक्ष की शुरुआत होने वाली थी और उधर संयुक्त राष्ट्र में मोदी जी तथा पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान भाषण देने वाले थे। मोदी जी ने स्पष्ट कहा कि "हमारे देश ने युद्ध नहीं बुद्ध दिया है।" यानी शांति का संदेश दिया। शांति के इसी संदेश के आलोक में दुर्गतिनाशिनी महिषासुर  संहारिणी  मां दुर्गा के पद चाप साफ सुनाई पड़ रहे थे। इसके बाद इमरान खान ने जब बोलना शुरू किया तो वे एटम बम का ख्वाब दिखाने लगे। यह अकेले उन्हीं की बात नहीं है। कुछ दिन पहले पाकिस्तान के रेल मंत्री साहब ने पाव आधा पाव एटम बम की धमकी दी थी। एक जमाने में एंग्री यंग मैन अमिताभ बच्चन एक डायलॉग मशहूर हुआ था कि" हमारे पास मां है, तुम्हारे पास क्या है ? " अब वह जमाना लद गया अब चल तो रहा है "मेरे पास  आधा पाव का एटम बम है  तुम्हारे पास क्या है?" वह नहीं समझ सके कि जिस देश का हर कंकर शंकर है जो अगर नीलकंठ है तो तांडव करता भी है इमरान खान कुछ ऐसा बोल रहे थे।  उन्हें शायद मालूम हो कि ना हो कि छोटे से देश पाकिस्तान में फिलहाल 10,000 लोग डेंगू से जूझ रहे हैं। यह सरकारी आंकड़ा है और आसानी से समझा जा सकता है डेंगू से आक्रांत लोगों की संख्या इससे कहीं ज्यादा है। अब वहां की सरकार कह रही है कि डेंगू से हालात अगर बिगड़े हैं तो इसमें उसकी क्या गलती है? अब आप ही बताएं कि किसकी गलती हो सकती है? इमरान खान ने ही लोगों को बताया कि  जब काम ठीक से ना हो रहा हो तो समझ जाइए कि इसके लिए भ्रष्ट नेता दोषी हैं। वही तो चुनाव से पहले नवाज शरीफ और शाहबाज शरीफ को डेंगू ब्रदर्स करते थे लेकिन उन्हें 2017 में जब पख्तूनख्वा में डेंगू फैला तो इमरान साहब के पास इसका बहुत उम्दा इलाज था "बरसात खत्म डेंगू खत्म।" आजकल इमरान खान "मिशन कश्मीर" पर लगे हैं और डेंगू शब्द का उच्चारण करने वाले को भारत का समर्थक मानते हैं। क्योंकि एक तरफ वे राष्ट्र संघ में भाषण देने जा रहे हैं और कुछ जाहिल लोग डेंगू -डेंगू चिल्ला रहे हैं तो यह साजिश नहीं है तो और क्या है। वहां की मीडिया  देश के भीतर जो कुछ भी हो रहा है उसके बारे में पॉजिटिव रिपोर्ट करती है- "आल इज वेल" की तर्ज में। इसलिए पिछले वर्ष 10.49  प्रतिशत हो गई मुद्रास्फीति और 10 लाख बेरोजगार हो गए । फिर भी "आल इज वेल।" हमेशा ऐसा नहीं था । जब इमरान खान विपक्ष में थे तो सब गड़बड़ था। अब अचानक सब कुछ रास्ते पर आ गया और कुछ ऐसा लगने लगा है की वजीर ए आजम साहब फिलहाल पाकिस्तान से ज्यादा हिंदुस्तान की फिक्र करते हैं।
        इमरान खान केवल पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नहीं कश्मीर के दूत भी हैं।  वे कश्मीर को लेकर सऊदी अरब ,ईरान और अमेरिका के बीच के झगड़े के सुलह कराने वाले भी हैं। उनके समर्थक कहते हैं की इमरान खान राष्ट्र संघ में कश्मीर का मसला इस तरह उठा रहे हैं या जिस तरह अब  इमरान खान एक ऐसे नेता के रूप में खड़े हैं जो नया पाकिस्तान बनाने के बाद  विश्व नेता बनने की ओर कदम बढ़ा रहे हैं । इन दिनों एटम बम छुपाने की चीज नहीं रह गई। एक नया फैशन चला है आपके पास हथियार है तो उसका प्रदर्शन करें या फिर बन पड़े तो दुश्मन को धमकी दें। इमरान खान परमाणु शक्ति संपन्न देश का शासक होने का दम भरने के बाद उनके  रेल मंत्री पाव भर का एटम बम दिखाते चल रहे हैं। एक जमाने में परमाणु सिद्धांत बड़ा गंभीर विषय था पर आज की सियासत में खासकर पाकिस्तानी सियासत में एटम बम का जिक्र तो ऐसे किया जा रहा है जैसे अब बच्चों के खेलने के पटाखे हो। इस साल  फरवरी में पुलवामा हमले के बाद भारत में पाकिस्तान को टमाटरों  के निर्यात पर पाबंदी लगा दी। वहां के टीवी पत्रकार ने जवाबी हमले का आगाज किया और नारा दिया टमाटर का जवाब एटम बम से देंगे।
        दरअसल, पाकिस्तानी नेता पगला गए हैं । मोदी के कश्मीर बम के बाद अब पाकिस्तानी नेताओं को बड़ा अजीब लगने लगा है। सच कहें तो क्रिकेट में अगर पाकिस्तान भारत के हाथों पिट जाता है तो वहां जो प्रतिक्रिया होती है वह कश्मीर मसले से भी ज्यादा गंभीर होती है । इसका एक मुफीद कारण है कि कश्मीर की हुकूमत पेट्रोल से नहीं कश्मीर कॉज से चलती है। पाकिस्तानी शासन के अभिजात्य वर्ग में हर किसी को यह भ्रम है कि " कश्मीर बनेगा पाकिस्तान" और नेता इसी का फायदा उठाते हैं। पाकिस्तानियों को हर साल कश्मीर को आजाद कराने के लिए 5 फरवरी को छुट्टी मिलती है। इसमें कई तरह की झांकियां निकाली जाती हैं । कश्मीर दिवस का यह मकसद अभी तक स्पष्ट नहीं हो सका है लेकिन भारत की इस नई पहल से यह बात स्पष्ट होने लगी है कि नियंत्रण रेखा एक स्थाई सीमा रेखा बनने जा रही है।  पाकिस्तानी हुकूमत वह दिन देखने के लिए तैयार रहे।

Thursday, September 26, 2019

बातों के सही मायने

बातों के सही मायने 

अरस्तु का मानना था कि "तर्क के जरिए बातों के सही अर्थ तक पहुंचा जा सकता है और यही कारण है कि सदा सत्य की जीत होती है।" लेकिन अब शायद ऐसा नहीं है। अगर हम अपने आसपास से लेकर दूरदराज की दुनिया भर में हो रही घटनाओं को देखें तो इस cvबात का अंदाजा लगाया जा सकता है। आज हमारे नेता लोगों के भीतर की भावनाओं को उभार कर अपना उद्देश्य पूरा कर लेते हैं। जो सत्य, तथ्य  और तर्कों से परे है। दुनिया की ताजा स्थिति यूरोपियन नवजागरण के तार्किक विचारों को कमजोर करने वाली है। उदाहरण के लिए देखें ,ह्यूस्टन में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने एक नारा दिया "अबकी बार ट्रंप सरकार।" सुनने में यह साधारण तौर पर ट्रंप के लिए वोट मांगने का नारा है लेकिन इस नारे का अर्थ और इसकी डायनामिक्स का मोदी जी ने अपने लिए उपयोग किया। यह नारा "हाउडी मोदी" कार्यक्रम में मोदी जी ने दिया लेकिन इरादा अपने लिए उपयोग करने का था। बेशक उन्होंने खुद को 130 करोड़ भारतीयों का प्रतिनिधि बताया। जब उन्होंने कश्मीर से धारा 370 हटाने की बात की तो उसके साथ यह भी कहा कि यह जनता की आकांक्षा थी। इस कार्यक्रम में ज्यादातर लोग यह कह सकते हैं कि  लगभग सभी  भारतीय थे। अब यह पूछा जा सकता है यह मोदी विदेशों में बसे भारतीयों के लिए क्या कर सकते हैं ? अब इस बात को थोड़ा दूसरी तरफ से देखें और पूछें कि यह प्रवासी भारतीय मोदी जी के लिए क्या कर सकते हैं? मोदी जी अपने मतदाताओं को अच्छी तरह जानते हैं ,समझते हैं । उन्हें मालूम है कि समस्त भारतीयों को प्रभावित करने के लिए प्रवासी भारतीयों को भी प्रभावित करना पड़ेगा। प्रवासी  भारतीयों के दिलों में उतरना होगा। एक फिल्म का डायलॉग याद आता है जिसमें हीरो कहता है कि" मैं समझ में नहीं दिल में आता हूं।" एक बार मोदी जी ने न्यूयॉर्क को अपना दूसरा घर बताया था। मोदी जी जब 2014 में सत्तासीन में बहुत से प्रवासी भारतीयों ने उनका समर्थन किया था और उनके लिए प्रचार भी किया था। वह प्रवासी भारतीयों की शक्ति को जानते हैं। यही कारण है कि नरेंद्र मोदी जब भी विदेश  आते हैं तो वहां बसे भारतीयों से मिलना नहीं भूलते। प्रवासी भारतीयों के मन में है चिंता का एक भाव होता है और मोदी जी इस भाव को अपने लिए कैश कराते हैं। आंकड़े बताते हैं कि मोदी जी अपने पहले कार्यकाल में 48 विदेश दौरे पर गए थे जिनमें उन्होंने 93 देशों यात्रा की थी। प्रवासी भारतीय विदेश के चाहे जिस देश में हों उनके मन में अपनी संस्कृति को लेकर एक तड़प होती है। हालांकि भारत में जो कुछ हो रहा है उसको देख -सुनकर वे बहुत खुश नहीं होते लेकिन अपनी संस्कृति की तड़प उन्हें मोदी जी के साथ जोड़ती है। यही कारण है कि बहुत से प्रवासी भारतीयों ने इस चुनाव में मोदी जी प्रचार किया था। मोदी खुद को एक काम करने वाले नेता के रूप से ज्यादा सक्रिय प्रधानमंत्री के तौर पर प्रस्तुत करते हैं।  विदेशों में रहने वाले भारतीयों को भ्रष्टाचार, भारत की गरीबी ,शहरों की अराजकता इत्यादि से बहुत मतलब नहीं है इसलिए वह अपनी संपत्ति और भारतीयों से मिलने वाले इर्ष्यापूर्ण  सम्मान को नहीं छोड़ना चाहते हैं । उन्हें यह मालूम है कि भारत में उन्हें धनवान माना जाता है लेकिन वे भारत नहीं लौटना चाहते। इसके चलते एक मनोवैज्ञानिक विभाजन पैदा हो जाता है। आंकड़ों के अनुसार अमेरिका में 45 लाख भारतीय और उन्हें इस   प्रवास बे भारतीय पहचान हैं। इस प्रवास ने उन्हें भारत से दूर कर दिया है। नरेंद्र मोदी में उन्हें एक शानदार विकल्प नजर आया। इसी कारणवश वे मोदी जी के कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए कहीं भी चले जाते हैं।मोदी जी के रूप में उन्हें एक ऐसा नेता दिखा जो भारत को सम्मान दिला रहा है तथा भारत को सम्मान का मतलब है उनका सम्मान। इससे भारत से उनके जुड़ाव सरलता होती है। विदेशों में बसे भारतीयों के लिए नरेंद्र मोदी एक शानदार भ्रम हैं।  इस भ्रम को बनाए रखने के लिए मोदी जी से चाहे जो बन पड़ता  करते हैं । क्योंकि उन्हीं के चलते अमेरिका में या अन्य दूसरे देशों में उनकी जयजयकार होती है।  इस जय जयकार से भारत में बसे भारतीयों को  गर्व का अनुभव होता है और यही भारतीय उनके असली मतदाता है और यह गर्व चुनाव आने पर वोट में बदल जाता है।

Wednesday, September 25, 2019

हाउडी मोदी : पीएम ने जो चाहा वह पाया

हाउडी मोदी : पीएम ने जो चाहा वह पाया

अमेरिका के ह्यूस्टन शहर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उसमें शामिल अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप हो इतनी शोहरत मिली कि उसके आगे दुनिया के सभी राजनेता  फीके पड़ गए हैं। इमरान खान तो बेभाव के हो गए। उन्हें कई मौके पर कश्मीर को लेकर ट्रंप की मीठी झिड़की भी सुननी पड़ी।  पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की है संयुक्त उपस्थिति एक तरह से भारत अमेरिका संबंधों  की सशक्त अभिव्यक्ति थी और लोगों तक यह संदेश गया कि दोनों  देशों के संबंध काफी मजबूत हैं और आने वाले दिनों में और भी मजबूत होंगे। ट्रंप और मोदी की एक साथ मौजूदगी ने यह भी संकेत दिया कि कश्मीर के बारे में भारत के निर्णय से अमरीका  को मतभेद नहीं है । यही नहीं उस दिन से आज तक आतंकवाद पर जो बात हुई उससे साफ जाहिर होता है कि दोनों देश के मध्य आतंकवाद एक ऐसा धागा है जो दोनों को उसके खिलाफ कार्रवाई के लिए जोड़ता है। ट्रंप ने अपने भाषण में कहा कि "आपने कभी भी राष्ट्रपति के रूप में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से बढ़िया मित्र नहीं देखा होगा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस हकीकत को जानते हैं।" इसके बाद बड़े सोचे समझे गए जुमले के रूप में ट्रंप ने " रेडिकल इस्लामी आतंकवाद " शब्द का प्रयोग किया और साफ कहा कि वे भारत को रेडिकल इस्लामी आतंकवाद से बचाने के लिए सब कुछ करेंगे। जबकि इस बात से बिल्कुल साफ संदेश जाता है कि भारत हमला करे। उधर नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में पाकिस्तान की तरफ इशारा करते हुए 9/11  और 26/11 की बात कही और कहा वह अब इसके खिलाफ भारत की सुरक्षा करेंगे इससे साफ संकेत जाता है कि वे अब निशाने पर वार करेंगे।
         हाउडी मोदी चीन और पाकिस्तान के लिए भी एक इशारा था। ट्रंप और मोदी हाथों में हाथ डाल घूम रहे हैं ,प्रशंसा बटोर रहे हैं। यह खुद एक कहानी कहता है । इस तरह के  तमाशें का आयोजन  में मोदी के लोगों खास करके राजनीतिक प्रबंधकों को महारत  हासिल है। लेकिन इस बार मोदी जी कई कदम आगे चले गए और अमेरिकी सियासत को अपना बनाकर उन्होंने भारतीयों की भावनाओं का उपयोग किया। जब के वहां 2020 में चुनाव होने वाले हैं। अब अमेरिका में रह रहे भारतीय एवं जो डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थक हैं वे अब कितना रिपब्लिकंस की तरफ जाएंगे यह तो समय बताएगा लेकिन यह साफ दिख रहा है अमेरिका भारतीय समुदाय बदल रहा है। ट्रम्प ने अमेरिका के 44 लाख भारतीयों को एक मॉडल बनाया है। एक ऐसा मॉडल जो अमरीकी अर्थव्यवस्था वृद्धि सहयोग करता है। भारत अमेरिका संबंध अभी तक कभी भी इतने घुले मिले नही थे। ट्रम्प ने 2016 में कहा था "अबकी बार मोदी सरकार।" मोदी जी ने 2020 के चुनाव के लिए यही नारा दिया अबकी बार ट्रैम्प सरकार।" सवाल  यह नहीं है कि कश्मीर में जो मोदी सरकार ने किया उसे देखकर अमेरिकी डेमोक्रेट्स को कोई दिक्कत आ रही है। कुछ लोगों ने हिंदू अमेरिकी फाउंडेशन के आक्रामक कार्यों का भी जिक्र किया है । इसमें भारतीय मूल के एक अमेरिकी कांग्रेस सदस्य आर ओ खन्ना का भी जिक्र आया है ।जिसमें उन्हें 230 भारत अमेरिकी संगठनों ने दबाव दिया है कि वह पाकिस्तानी गुट को छोड़ दें। मोदी और ट्रंप आने वाले दिनों में कुछ ठोस विकास को स्वरूप देंगे। यह विकास चाहे सुरक्षा हो या  आतंकवाद विरोधी सहयोग हो और इसे भारत अमेरिकी समुदाय देखेगा तथा इसका असर पड़ेगा।
     

Monday, September 23, 2019

आतंकवाद समर्थक पाकिस्तान पर एक और प्रहार

आतंकवाद समर्थक पाकिस्तान पर एक और प्रहार

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमरीका की धरती पर रविवार को भारतीय संदर्भ में एक नया इतिहास रच दिया। ह्यूस्टन शहर के एनआरजी स्टेडियम मैं रविवार  रात  9.40 बजे जैसे ही मोदी और ट्रंप मंच पर पहुंचे वहां उपस्थित लोगों ने मोदी- मोदी के नारे लगाए। हाउडी मोदी कार्यक्रम में उपस्थित जन समुदाय  और उसके सामूहिक रिस्पांस ने अपने आपमें एक कहानी गढ़ दी। कार्यक्रम की शुरुआत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, "हाउडी माय फ्रेंड्स।  यह  जो  माहौल है  उसकी कल्पना नहीं की जा सकती।  आज हम  नए इतिहास के साथ  नई केमिस्ट्री देख रहे हैं । यह  भारत और अमरीका  की बढ़ती सिनर्जी का सबूत है। उन्होंने कहा कि वह अपने इस कार्यक्रम का नाम  हाउडी मोदी है लेकिन मोदी अकेले कुछ नहीं है। मैं 130 करोड़ भारतीयों के हुक्म का पालन करता हूं। जब भीड़ ने कहा हाउडी मोदी उनका का जवाब था, भारत में सब अच्छा है। नरेंद्र मोदी ने उपस्थित जनसमूह को संबोधित करते हुए कहा कि अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। पूरी दुनिया ट्रंप के हर शब्द को फॉलो करती है। उन्होंने कहा कि मुझे उनमें  हमेशा अपनापन दिखता है। इसके साथ ही, उन्होंने एक नया स्लोगन दिया, "अबकी बार ,ट्रंप सरकार।" ट्रंप ने नरेंद्र मोदी को जन्मदिन की बधाई दी और कहा कि हम यहां साझा सपना और बेहतर भविष्य का उत्सव मनाने आए हैं। उन्होंने अमरीका में भारतीय का भी शुक्रिया अदा किया और कहा कि उन्होंने अमरीका के लिए बहुत कुछ किया है । डोनाल्ड ट्रंप ने कहा ट्रंप से अच्छा राष्ट्रपति कोई नहीं हुआ और भारत के लिए मोदी से अच्छा प्रधानमंत्री कोई नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि भारत और अमरीका लालफीताशाही खत्म कर रहे है। ट्रंप ने कहा कि ,मेरे शासनकाल में 60 लाख नई नौकरियों का सृजन हुआ है और 51 वर्षों में अमरीका में बेरोजगारी सबसे निचले स्तर पर आ गयी है। ट्रंप ने कहा सीमा सुरक्षा के लिए दोनों देश साथ-साथ  काम करेंगे। अमरीका और भारत में नई रक्षा साझेदारी होगी । उन्होंने कहा ,इस्लामिक आतंकवाद से हम एकजुट होकर लड़ेंगे।
नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान पर निशाना साधा और कहा कि अशांति के माहौल को चाहने  वाली ताकतें आतंकवाद को पालती हैं। उनका नाम लेने की जरूरत नहीं है। दुनिया उन्हें जानती है। मोदी ने पाकिस्तान का नाम लिए बिना कहा है कि आज आतंकवाद के खिलाफ एक निर्णायक जंग की जरूरत है। उन्होंने कहा कि अमरीका में 11 सितंबर और मुंबई में 26 नवंबर का भूगोल चाहे जो हो लेकिन दोनों में समानता काफी है।  उसके साजिश करने वाले लोग कहां हैं यह सारी दुनिया जानती है। मोदी ने कहा भारत समस्याओं के पूर्ण समाधान की ओर कदम उठा चुका है। नरेंद्र मोदी ने कहा आज बहुत कुछ बदल रहा है ।  ग्रोथ का दौर आया है और भारत में बहुत कुछ हो रहा है। हमने नई चुनौतियां तय करने और उन चुनौतियों को पूरा करने की ज़िद पकड़ ली है। उन्होंने कहा कि हम  विकास की कोशिश में है और इसके लिए नागरिकों के पक्ष में कल्याणकारी योजनाओं की बहुत जरूरत है। उन्होंने धारा 370 को हटाए जाने की वकालत करते हैं कहा कि वेलफेयर के लिए बहुत कुछ को फेयरवेल देना पड़ता है । हमने कश्मीर में धारा 370 को फेयरवेल दे दिया यही नहीं हमने कई टैक्सेज को भी वेलफेयर दे दिया और और उसकी जगह जीएसटी ला दिया।
         अमरीका में जो कुछ भी हुआ उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत अमरीका के संबंध सामरिक स्तर पर पहुंच चुके हैं। यह संबंधों की प्रगाढ़ता ही है कि 2016 में चुनाव से पूर्व अमरीका के राष्ट्रपति ने अपने देश में कहा था भारत का चुनाव परिणाम चाहे जो हो लेकिन अमरीका के साथ संबंध हो पर उसका कोई असर नहीं पड़ेगा। अमरीका इन संबंधों को चलाए रखने के लिए सक्षम है। हाउडी मोदी कार्यक्रम में ट्रंप की मौजूदगी यकीनन भारत अमरीका की प्रगाढ़ मैत्री का सबूत है और इससे दुनिया को एक संदेश जाएगा ही। चंद मुद्दों पर मतभेद के बावजूद भारत अमरीका अपने सामरिक साझेदारी लेकर एकजुट हैं।

Sunday, September 22, 2019

जादवपुर विश्वविद्यालय : वर्चस्व की लड़ाई का अखाड़ा

जादवपुर विश्वविद्यालय : वर्चस्व की लड़ाई का अखाड़ा

विख्यात दार्शनिक बट्रेंड रसल ने लिखा है कि "किसी भी आदमी या फिर किसी भी भीड़ पर तब तक विश्वास किया जा सकता जा सकता कि वह माननीय ढंग से काम करेगा जब तक  उसके भीतर भय ना हो।"
         रसल की इस उक्ति के संदर्भ में अगर जादवपुर विश्वविद्यालय की घटना को देखें तो बात बिल्कुल सही लगती है। मामला यह था कि  केंद्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद एक मीटिंग में शामिल होने के लिए जादवपुर विश्वविद्यालय पहुंचे। उनके साथ हथियारबंद अंगरक्षक भी थे और घंटे भर के बाद नतीजा सामने आया टूटे हुए शीशे बहते हुए खून के रूप में।  हालत यहां तक बिगड़ गई थी कि राज्यपाल को जाकर बाबुल सुप्रियो को छुड़ाना पड़ा। राज्यपाल श्री जगदीश धनखड़ ने बंगाल के इतिहास की गौरव गाथा का जिक्र करते हुए कहा कि वे यहां के सभी विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति भी हैं और हुए शिक्षा का स्तर सुधारने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा देंगे। दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल सरकार के मंत्रियों ने   अलग प्रतिक्रिया व्यक्त की है। एक तरफ जहां राज्य के शिक्षा मंत्री पार्थ चटर्जी इस घटना में घायल विश्वविद्यालय के कुलपति सुरंजन दास और प्रति कुलपति प्रदीप घोष का हाल चाल पूछने अस्पताल पहुंचे वहीं राज्य के पंचायत मंत्री सुब्रत मुखर्जी ने कुलपति की आलोचना करते हुए कहा वे पुलिस बुला सकते थे। राज्यपाल महोदय वे जादवपुर विश्वविद्यालय के कुलाधिपति भी हैं और खुद जाने के बजाय वहां पुलिस भी भेज सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।
        इस घटना के बाद अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कुछ छात्रों ने वामपंथी  छात्र  संगठन  के लोग विश्व विद्यालय परिसर में  आये और  तोड़फोड़ तथा गुंडागर्दी आरंभ कर दी।  जिससे कई छात्र घायल हो गए। कला संघ कक्ष में जमकर मारपीट हुई और कई छात्र घायल हो गए। जादवपुर विश्वविद्यालय में जो कुछ भी हुआ वह कोई नई घटना नहीं है। तृणमूल कांग्रेस वामपंथी दलों के बीच संघर्ष का लंबा इतिहास है। लोक सभा चुनाव प्रचार के दौरान विद्यासागर कॉलेज  के बाहर अमित शाह की रैली पर तृणमूल कांग्रेस के समर्थकों ने हमला किया और विद्यासागर की मूर्ति तोड़ दी। 1980 में अलीमुद्दीन स्ट्रीट का लाल हथोड़ा कलकत्ता विश्वविद्यालय पर भी पड़ा था। प्रोफेसर संतोष भट्टाचार्य अपनी किताब " रेड हैमर ओवर कलकत्ता यूनिवर्सिटी" में  वहां के  अपने कार्यकाल का उल्लेख किया है और बताया है कि कैसे लगातार घेराव और मारपीट हुआ करती थी। यही रहस्यमय लाल हथोड़ा जादवपुर विश्वविद्यालय पर भी गिरा है । वाम पंथी दल राज्य में राजनीति को कब्जा करना चाहते हैं और तृणमूल छात्र परिषद ने ऐसा नहीं होने दिया। एक-एक करके सारे विश्वविद्यालय वामपंथियों के हाथ से निकल गए। परंतु जादवपुर विश्वविद्यालय पर तृणमूल छात्र कांग्रेस अपना झंडा नहीं लहरा सका। जो काम तृणमूल छात्र संघ नहीं कर सकता वही अब भाजपा छात्र संगठन करना चाहता है। विगत 5 वर्षों में जादवपुर विश्वविद्यालय में कई बार हिंसक घटनाएं हुईं। 2016 में इसी तरह की घटना घटी थी जब बाहर के कुछ लोग विश्वविद्यालय में “बुद्ध इन  ट्रैफिक जाम" नाम की एक फिल्म दिखाना चाहते थे। शुक्रवार की घटना के बाद 4 प्राथमिकी दर्ज हुई और कोलकाता पुलिस द्वारा स्वप्रेरण मुकदमा भी आरंभ कर दिया गया। घटना के बाद जादवपुर विश्वविद्यालय टीचर्स यूनियन के अध्यक्ष प्रोफेसर पार्थ प्रतिम विश्वास ने लिखा कि जिस कार्यक्रम में बाबुल सुप्रियो को आमंत्रित किया गया था उस में छात्रों की संख्या बहुत कम थी तो फिर यह घटना क्यों घटी समझ में नहीं आता।  क्यों नहीं सत्तारूढ़ दल के मंत्री सामने आकर इस घटना की निंदा कर रहे हैं। छात्र संघ के सदस्य सत्तारूढ़ संगठन के विरुद्ध रहे हैं। बार-बार तृणमूल छात्र संघ इस पर कब्जा करना चाहता था और अब भाजपा ने शुरू किया है । इस बीच राजनीतिक दलों में आरोप-प्रत्यारोप का खेल शुरू हो गया है राज्यपाल धनखड़ जादवपुर विश्वविद्यालय जाने के पहले मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक से बात कर चुके थे। दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के बाद कोलकाता ऐसा वामपंथी गढ़ बन गया है जिस पर सभी कब्जा करना चाहते हैं । यह पूरी घटना कब की लड़ाई की घटना है और एक दूसरे में भय पैदा करने की कोशिश है, ताकि उन्हें अपने अनुरूप इस्तेमाल किया जा सके। विधानसभा चुनाव धीरे-धीरे करीब आ रहे हैं और ऐसे में यह सब लगातार होता रहेगा।

Friday, September 20, 2019

यह क्या हो रहा है सरस्वती के मंदिर में

यह क्या हो रहा है सरस्वती के मंदिर में?

जादवपुर विश्वविद्यालय में गुरुवार को केंद्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो के साथ कुछ छात्रों की हाथापाई हो गई। बाबुल सुप्रियो वहां अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की विचार गोष्ठी को संबोधित करने के लिए गए हुए थे। हमलावर छात्रों ने आरोप लगाया ,बाबुल सुप्रियो ने कुछ छात्रों को अपमानित किया है, महिला सहपाठियों अपशब्द कहे हैं और उन्हें धमकी दी हैं। बाबुल सुप्रियो के साथ हुई घटना के बाद राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने पहले मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से बात की और तब मुख्य सचिव मलय कुमार डे से,  और उसके बाद विश्वविद्यालय रवाना हो गए। तृणमूल कांग्रेस ने हालांकि राज्यपाल की इस बात की आलोचना की है। यह बड़ा दुर्भाग्य जनक है कि भाजपा नेता को बचाने के लिए उन्हें जाना पड़ा। इस मामले को लेकर जितने मुंह उतनी बातें हो रहे हैं । गवर्नर ने  कहा बाबुल सुप्रियो  गुरुवार को लगभग 2.30 बजे  जादवपुर विश्वविद्यालय में गए। वहां उन्हें अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद द्वारा आयोजित एक विचार गोष्ठी को संबोधित करना था। लेकिन, वहां  विरोधियों ने उनका घेराव कर लिया। घेराव करने वाले  वामपंथी छात्र संगठन के छात्र थे। वे काले झंडे लिए हुए थे और "वापस जाओ - वापस जाओ " के नारे लगा रहे थे। सुप्रियो ने लौटने से इंकार कर दिया और छात्रों से बहस करने लगे। विश्वविद्यालय के कुलपति सुरंजन दास ने बीच-बचाव की कोशिश की और सुप्रिया से कहा वह विचार गोष्ठी के प्रेक्षागृह में चले जाएं।  लेकिन, ऐसा नहीं होने दिया गया। सुप्रियो को घंटे भर तक रोका गया। जब सुप्रियो प्रेक्षागृह में प्रवेश कर गये तब भी बाहर विरोधी नारे लगते रहे। इसके बाद छात्रों में 5 घंटे तक घेराव किया और उन्हें विश्वविद्यालय परिसर से बाहर जाने से रोके रखा। इसपर कुछ छात्रों का कहना है कि सुप्रियो ने  हाथ से बहुत ही खराब इशारे किए। अब हम उन्हें तब तक नहीं जाने देंगे जब तक वो माफ़ी ना मांगे। कुलपति सुरंजंदास ने सुप्रियो से कहा वे प्रेक्षा गृह में जाएं इस पर भाजपा नेता ने कहा कि "अगवानी के समय वह वहां क्यों नहीं थे? एक राजनीतिज्ञ होने के अलावा उनकी एक अलग पहचान भी है। वह एक निर्वाचित प्रतिनिधि हैं, एक मंत्री हैं।  कुलपति उनकी अगवानी के लिए क्यों नहीं उपस्थित थे।" सुरंजन दास ने कहा उनको आमंत्रित नहीं किया गया था। इस पर मंत्री ने कहा "मैं तो आपके यहां आमंत्रित था। आपको  आना चाहिए था। मुझे पूरा भरोसा है कि आप वामपंथी हैं।  एक केंद्रीय मंत्री आपके परिसर में आ रहा है और आप चाहते हैं यह सब हो।" सुप्रियो ने कुलपति से कहा कि वह पुलिस बुला लें। किंतु कुलपति ने ऐसा नहीं किया। धक्का मुक्की के बाद बाबुल सुप्रीयो कथित रूप से बीमार पड़ गए। उन्हें समीप के अस्पताल में दाखिल कराया गया। सुप्रियो का आरोप है कि "उन पर हमले हुए ,उनका केश  पकड़कर खींचा गया, लात - घूसों से मारा गया। यह जादवपुर विश्वविद्यालय छात्रों से उम्मीद नहीं की जाती थी। अगर उन्हें मेरे आने से कोई समस्या से तो हमसे बात कर सकते थे।" उन्होंने कहा कि "पश्चिम बंगाल में शिक्षा की यही हालत है। उन्होंने मुझे मारा मैं क्यों माफी मांगू। कुछ गुंडे गड़बड़ी पैदा कर रहे हैं उन्हें निकाला जाना चाहिए।"
          अब यहां एक बात आती है कि राज्यपाल को  हस्तक्षेप की क्या जरूरत थी? क्योंकि घेराव दोपहर में भी चलता रहा और राज्यपाल ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को पहले फोन किया और उसके बाद मुख्य सचिव इसके बाद वे लगभग 7.00 बजे विश्वविद्यालय परिसर पहुंचे। उन्होंने अपनी गाड़ी में सुप्रियो को बिठाया। लेकिन , छात्रों ने उनका रास्ता रोक दिया। यही घंटे भर तक चलता रहा और राज्यपाल धनखड़ तथा सुप्रियो गाड़ी के भीतर बैठे रहे । लगभग 8.00 बजे जब एक पुलिस टुकड़ी आई और दोनों को दूसरे गेट से बाहर निकाला गया।
राजभवन से जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में राज्यपाल ने इसे बहुत गंभीर घटना बताया है।  कहा है कि " एक मंत्री को रोके रखा गया यह राज्य में कानून और व्यवस्था तथा  कानून लागू करने वाली  एजेंसी  के आचरण की स्थिति का प्रतिबिंब है।" इस घटना को लेकर भारतीय जनता पार्टी और तृणमूल कांग्रेस ने अलग-अलग प्रतिक्रिया व्यक्त की है। भाजपा के राज्य अध्यक्ष दिलीप घोष ने इसकी तीव्र निंदा की है और कहा है कि बंगाल में  केंद्रीय मंत्री भी सुरक्षित नहीं हैं वरना राज्यपाल को हस्तक्षेप नहीं करना पड़ता। दूसरी तरफ तृणमूल के वरिष्ठ नेता तापस राय ने कहा कि हम ऐसी लोकतांत्रिक पद्धति का समर्थन नहीं करते। तृणमूल  नेता पार्थ चटर्जी ने  यद्यपि राज्यपाल की भी आलोचना की और कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण और दहला देने वाली घटना है। हमारे संविधान के पालक को भाजपा नेता बाबुल सुप्रियो को बचाने के लिए जाना पड़ा।
       जो कुछ भी हुआ और उसका चाहे जो भी कारण हो लेकिन हिंसा की राजनीति कम से कम लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं है  और वह भी शिक्षा के केंद्र में । राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता बिल्कुल आम बात है लेकिन एक मंत्री के साथ वह भी शिक्षा संस्थान में मारपीट किया जाना सर्वथा अनुचित है। क्योंकि इससे लोकतंत्र की गरिमा और शिक्षा शालीनता दोनों नष्ट होती है। शिक्षा और लोकतंत्र दोनों हमें शालीन, गरिमा पूर्ण और धैर्यवान बनने की सीख देते हैं। हमारे समाज में  शिक्षा  संस्थान  सरस्वती का मंदिर माना जाता है। हमारे यहां एक बहुत पुरानी कहावत है "विद्या ददाति विनयम।" किंतु  यहां न शालीनता दिख रही है न विनय ना ही धैर्य। यह कैसी शिक्षा पा रहे हैं हमारे छात्र। अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदी पर शारीरिक हमला कर गुस्से का इजहार अत्यंत गलत और निंदनीय है।

अब फिर राम जन्मभूमि !

अब फिर राम जन्मभूमि !

अब एक बार फिर अयोध्या विवाद पर बात चली है कई दिनों से इस पर मध्यस्थता की चर्चा चल रही थी। बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने अस्वाभाविक तत्परता दिखाते हुए इस मामले को एक महीने के भीतर खत्म कर देने का आदेश दिया। सुप्रीम कोर्ट के इस कदम से राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद भूमि विवाद के जल्दी हल हो जाने की उम्मीद बढ़ गई है। 130 साल पुराने इस मामले में लगता है अब कुछ न कुछ फैसला होकर रहेगा। न्यायालय ने इस पर बुधवार को भी वही करने का प्रस्ताव रखा है।  साथ ही यह भी कहा है कि संबंधित पक्षकार यदि चाहें तो मध्यस्थता के माध्यम से इस विवाद का सर्वमान्य समाधान निकाल सकते हैं। इसके लिए वे स्वतंत्र हैं। अगर यह मामला सुनवाई के स्तर पर 18 अक्टूबर पर खत्म हो गया तो न्यायाधीशों को फैसला लिखने में  लगभग 1 महीना लगता है। और प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई 17 नवंबर को रिटायर कर रहे हैं यानी 18 अक्टूबर तक  सुनवाई पूरी हो जाती है तो उम्मीद है कि 17 नवंबर से पहले इस पर फैसला आ सकता है।
         कानून भी अपने आप में एक अजीब बात है। अचानक यह ऐसा रूप बदल देता है जिससे शक्तिशाली लोग  पसंद नहीं करते। क्योंकि इसके नतीजे वैसे नहीं होते जैसा वे चाहते हैं या कभी सुप्रीम कोर्ट के पांच वरिष्ठ न्यायाधीश समझ नहीं पाते इसका परिणाम क्या होगा? या, उसे नियंत्रित नहीं कर पाते। लेकिन फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के पांच वरिष्ठ न्यायाधीशों ने एक साथ मिलकर कुछ ऐसा किया है की उनकी राह में कोई अवरोध ना सके और यह विवादास्पद मामला जल्दी हल हो जाए। लेकिन अब तक जैसा देखा गया है कि यह फैसला या फिर मध्यस्था की अंतिम बातचीत भी इस मामले को नहीं सुलझा सकती। इस फैसले में जो सबसे प्रमुख तथ्य है वह है कि न्यायाधीशों को ऐसी कोई जगह नहीं छोड़नी चाहिए जहां खड़े होकर राजनीतिक दल राजनीति का खेल खेल सकें। यह विवाद बहुत दिनों से चल रहा है लेकिन इसमें जो सबसे महत्वपूर्ण है वह है कि इसमें न जाने कितने लोगों की जानें गईं हैं और न जाने कितने लोगों का राजनीतिक भविष्य चौपट हो गया है। कोर्ट को यह  ध्यान रखना चाहिए फिर ऐसा ना हो।
            सोमवार को अयोध्या मध्यस्थता समिति ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि हिंदू और मुसलमान दोनों इस मसले पर बातचीत करना चाहते हैं ताकि इसका सर्वमान्य हल खोजा जा सके। लेकिन सुप्रीम कोर्ट यह जानता है कि इस मामले में जो विवाद है और उसके साथ जो लोग हैं वह पहले भी ऐसे ही मध्यस्था के लिए बैठे थे लेकिन कुछ परिणाम  हासिल नहीं हो सका। अब फिर सुप्रीम कोर्ट को इस चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। बहुतों का मानना है कि यह 2. 77 एकड़ जमीन पर विवाद का सिविल मामला है। लेकिन इसका जो मुख्य मुद्दा है वह धर्म है और यही धर्म दोनों तरफ के लोगों पर दबाव डालता रहता है। अब तो इसमें धर्म के साथ-साथ राजनीति भी घुल मिल गई है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में मध्यस्थता के लिए इंतजार नहीं करना चाहिए। मध्यस्थता समिति ने आवेदन किया है कि इस मामले की सुनवाई चूंकि संविधान पीठ कर रही है इसलिए समानांतर में  मध्यस्थता भी चल सकती है। लेकिन यदि ऐसा होता है तो यह सही नहीं होगा। वास्तविकता से अलग ऐसा भी लगता है कि मध्यस्था से कोई बात नहीं बनेगी। उल्टे सुप्रीम कोर्ट की आलोचना शुरू हो जाएगी। फिर कोई नई बात पैदा होगी तथा मामला लंबा खिंच जाएगा।
             अनाधिकृत रूप से या कहिए गैर सरकारी तौर पर इस मामले को बातचीत के जरिए सुलझाने और सर्वमान्य हल खोजने के के कई बार प्रयास हुए। पहली बार 2017 में भारत के प्रधान न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर ने इस मामले को धर्म का मामला बताकर दोनों पक्षों के बातचीत करने का विचार प्रस्तुत किया था। लेकिन दोनों पक्षों में इसके प्रति कोई दिलचस्पी नहीं थी और इसलिए मामला शुरू ही नहीं हुआ। इस वर्ष मार्च में कोर्ट ने फिर मध्यस्थता का प्रस्ताव रखा था और 8 हफ्ते का समय दिया था। लेकिन ,कुछ नहीं हो सका तथा प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने स्पष्ट संकेत दिए कि मध्यस्थता के प्रयास निष्फल हो गए।
            अब सवाल उठता है कि क्या मध्यस्थता कामयाब होगी? शायद नहीं। दोनों पक्षों के बीच मोर्चे खुल गए हैं और कोई भी पीछे लौटने को तैयार नहीं है। यदि इस मामले मदरसा से कोई हग निकल दी जाए दो इससे से जुड़े हिंदू पक्ष कुछ ले देकर फैसले को मानने को तैयार भी हो जाते हैं तो क्या भाजपा या संघ इसके लिए तैयार होगी? क्योंकि उन्होने इसी भावुकता पूर्ण मसले पर अपनी राजनीति की बुनियाद रखी है। उसी तरह ऐसा नहीं लगता कि मुसलमान भी मध्यस्थता के फैसले को  मानेंगे और परिणाम स्वरूप दोनों तरफ से दावे और प्रति दावे प्रस्तुत हो जाएंगे। पी वी नरसिंह राव तथा अटल बिहारी वाजपेई जैसे नेताओं ने मध्यस्थता की कोशिश की। लेकिन बुरी तरह पराजित हो गए। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस रास्ते को अपनाया लेकिन कोई नतीजा नहीं मिला। इसे सुलझाने का एकमात्र तरीका कानून है।  सुप्रीम कोर्ट को इस रास्ते को छोड़कर दूसरी राह नहीं अपनानी चाहिए। इस मामले में फैसला क्या होगा यह तो अभी से कहना मुश्किल है।  यह है फैसला चाहे जो जिसके भी पक्ष में हो इस पर एक बार फिर राजनीति शुरू होगी और जो शुरू होगा वह किस करवट बैठेगा यह भी जानना बड़ा कठिन है।
           

Wednesday, September 18, 2019

अबकी बार पीओके

अबकी बार पीओके

विदेश मंत्री एस जयशंकर ने मंगलवार को कहा कि अब बारी पीओके की है। हाल के वर्षों में पहली बार पीओके को दखल करने की बात सामने आई है और यह बात जम्मू कश्मीर पर 1994 के संकल्प के कि आगे तक जाती है। पाक अधिकृत कश्मीर पर दिल्ली के बदले रुख का संकेत देते हुए विदेश मंत्री ने कहा, भारत पीओके पर एक दिन कब्जा करने की उम्मीद करता है। जयशंकर  राजनयिक रह चुके हैं और अपनी बातों को बहुत  सोच समझकर कहने के लिए विख्यात हैं। हाल के वर्षों में यह पहला वाकया है कि किसी विदेश मंत्री ने पीओके पर कब्जे की बात कही है। मोदी सरकार के एक सौ दिनों के संबंध में आयोजित एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में जयशंकर ने एक प्रश्न के जवाब में कहा कि "अब आगे बात केवल पीओके पर होगी कश्मीर पर नहीं। हमारी स्थिति बिल्कुल साफ है कि पीओके भारत का हिस्सा है और हम चाहते हैं कि एक दिन इस पर कब्जा कर लें। उनके इस बयान के पहले सुरक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा था कि  "बात पीओके पर होगी ना कि जम्मू और कश्मीर पर" । हरियाणा में एक रैली में राजनाथ सिंह ने यह बात उठाई थी। आतंकवाद के खिलाफ काम नहीं करने पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान की आलोचना करते हुए जयशंकर ने दुनिया का ध्यान पाकिस्तान की ओर आकर्षित करने की कोशिश की। खास करके यह बात कह कर अब पीओके पर कब्जे की बात होगी।
           गृह मंत्री अमित शाह ने गत 6 अगस्त को लोकसभा में कहा कि जब मैं सदन में जम्मू कश्मीर की चर्चा करूंगा तो इसका अर्थ है इसमें पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर और अक्साई चीन भी शामिल हैं। 22 फरवरी 1994 को संसद के एक संकल्प में कहा गया है कि जम्मू-कश्मीर भारत का एक अविभाज्य अंग रहा है और रहेगा तथा इसे अलग करने के किसी भी प्रयास का सभी आवश्यक उपायों से विरोध होगा। भारत  अपनी एकता और अखंडता को बनाए रखना की क्षमता रखता है। संकल्प में मांग की गई है की पाकिस्तान जम्मू कश्मीर के उन इलाकों  को खाली कर दें जिसे उसने कब्जा कर रखा है जयशंकर के बयान ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा के लिए मंच तैयार कर दिया है। समझा जाता है कि इस यात्रा के दौरान जम्मू-कश्मीर का मामला बहुत ज्यादा उठेगा भारत में पाकिस्तान की युद्ध की इच्छा का मुकाबला करने के लिए स्पष्ट आक्रामक कूटनीतिक रणनीति की घोषणा कर दी है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान में एक बयान में कहा था कि भारत से बात करने का कोई अर्थ नहीं है। जयशंकर ने कहा कि वह समझते हैं कि एक वास्तविक समस्या का उत्तर मीठे बोल नहीं हैं। मूल समस्या तो आतंकवाद को खत्म करना है। जिसे उन्होंने तैयार किया है। मुझे दुनिया में कोई एक देश दिखा दीजिए जो यह मंजूर कर ले कि उनका पड़ोसी आतंकवाद को बढ़ावा दे सकता है और वह अपने पड़ोसी से बात करने के लिए तैयार है । हमारा मानना है कि यह बिल्कुल सामान्य है और तर्कसंगत ही है कि इन लोगों का आचरण कई गलतियों से पूर्ण है और उनमें असामान्यता भी है।  विदेश मंत्री ने कहा कि धारा 370 हमारा आंतरिक मामला था। वास्तविक समस्या तो पाक समर्थित आतंकवाद है। मुझे दुनिया में कोई भी एक देश दिखा दीजिए जो अपनी विदेश नीति के हिस्से के रूप में खुल्लम खुल्ला आतंकवाद का इस्तेमाल करता है। जयशंकर ने कहा कि धारा 370 एक अस्थाई व्यवस्था थी जिसका उपयोग घटनाओं के विश्लेषण में भी नहीं होता था और यह प्रावधान वस्तुतः किसी काम का नहीं रह गया था।  संकीर्ण विचार के कुछ लोग इसका उपयोग करते थे और वह भी अपने लाभ के लिए ऐसा करते हुए पूरे क्षेत्र के विकास को बाधित करते थे और  अलगाववाद की भावना भरते थे । उस अलगाववाद का उपयोग सीमा के उस पार से पाकिस्तान किया करता था। उन्होंने कहा कि दुनिया भर के लोग धारा 370 हटाए जाने के मतलब को समझते हैं। अब  इसमें कोई बदलाव नहीं आएगा। लोग कश्मीर पर बहुत कुछ कहते हैं लेकिन इस पर सोचने की जरूरत नहीं है। अंततोगत्वा यह हमारा मसला है और उस पर चमड़ी ही बात चलेगी कश्मीर पर एक अमेरिकी कांग्रेस के सदस्य की बात का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा हम उनसे पूछते हैं उन्होंने आतंकवाद का मुकाबला किया है। अब आपका क्या उत्तर था। कैसे मुकाबला किया था। वैसी स्थिति में आप क्या करेंगे जब आपके देश का कानून देशभर में अमल में नहीं लाया जा सके। प्रधानमंत्री मोदी का हवाला देते हुए जयशंकर ने कहा कि पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के रूप में मशहूर हो चुका है जबकि भारत अपनी सूचना तकनीक के कारण मशहूर है ।
        एस जयशंकर की बात से  पाकिस्तान की  हवा बिगड़ गई  और उसने  कुछ ही घंटों के बाद अंतरराष्ट्रीय समुदाय के समक्ष घिघियाते   हुए कहा कि नई दिल्ली की बात पर जरा गौर करें। वह पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर को जबरन दखल करना चाहता है, तो फिर तनाव बढ़ेगा और क्षेत्र की शांति भंग होगी।
      पाकिस्तान चाहे जितना गिड़गिड़ा ले, चाहे जितनी आंखें दिखा ले लेकिन यह सही है कि पीओके पर उसने जबरदस्ती कब्जा किया हुआ है और आज नहीं तो कल उसे पी ओ के  खाली करना ही पड़ेगा। अंतरराष्ट्रीय दबाव के समक्ष भारत झुकने वाला नहीं है और ना ही ऐसी किसी गीदड़ भभकी से डरेगा ।

Monday, September 16, 2019

नौकरी की नहीं काबिल लोगों की कमी है

नौकरी की  नहीं काबिल लोगों की कमी है

केंद्रीय श्रम एवं रोजगार  राज्य मंत्री श्री संतोष गंगवार ने  कहा कि हमारे देश में नौकरियों की कमी नहीं है ,कमी है उत्तर भारत में योग्य उम्मीदवारों की। उन्होंने कहा कि उत्तर भारत से जो लोग रोजगार के लिए आते हैं उनके बारे में अक्सर शिकायत रहती है कि वे उस पद के लिए योग्य नहीं है जिसके लिए उन्हें बुलाया गया है । उन्होंने कहा कि ,मैं वही मंत्रालय देख रहा हूं और रोज प्राप्त आंकड़ों के आधार पर ऐसा कह रहा हूं। उनका यह बयान एक ऐसे वक्त में आया है जब अर्थव्यवस्था लड़खड़ा रही है और रोजगार का अभाव होता जा रहा है। अर्थशास्त्री एवं राजनीतिज्ञ इसके लिए केंद्र सरकार की ओर उंगली उठा रहे हैं। सांख्यिकी  और  कार्यक्रम  क्रियान्वयन  मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार अर्थव्यवस्था में यह मंदी उत्पादन और कृषि क्षेत्रों में कम उत्पादन के कारण हो रही है। गंगवार का यह बयान नेशनल सैंपल सर्वे के बयान से ठीक विपरीत है। नेशनल सैंपल सर्वे के बयान में कहा गया था कि  देश में बेरोजगारी की दर विगत 45 वर्षों में सबसे निचले स्तर पर है । 2019 के चुनाव के पूर्व यह रिपोर्ट लीक हो गई थी, तब सरकार ने इसे खारिज कर दिया था। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी दूसरी कैबिनेट के शपथ लेने के दूसरे दिन ही सरकार ने जो आंकड़े जारी किए उसमें बताया गया था कि बीते 4 दशकों में बेरोजगारी की दर सबसे खराब है। देश में रोजगार का संकट बढ़ा है। आर्थिक विकास की दर 5% पर आने से वाहन क्षेत्र ,कपड़ा क्षेत्र, चाय उद्योग इत्यादि क्षेत्रों में लगातार छटनी की खबर मिल रही है। ऐसे में केंद्रीय मंत्री गंगवार की बात काफी प्रतिक्रियाओं को आमंत्रित कर रही है। कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी ने सोशल मीडिया पर सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि" 5 साल से ज्यादा आपकी सरकार है। नौकरियां पैदा हुई नहीं और जो नौकरियां थी वह आर्थिक मंदी के चलते खत्म हो गईं। " प्रियंका गांधी ने ट्वीट में यह भी लिखा कि "आप उत्तर भारतीयों का अपमान करके बच निकलना चाहते हैं लेकिन यह नहीं चलेगा।"
        संतोष गंगवार ने शनिवार को यह बयान दिया था और रविवार दोपहर आते-आते उन्होंने सफाई देते हुए कहा कि जो बयान उन्होंने दिया था उसका संदर्भ दूसरा था। उन्होंने माना कि कौशल में कमी है और सरकार ने कौशल विकास इसीलिए शुरू किया है ताकि बच्चों को अनुरूप ट्रेनिंग दी जा सके। कुछ दिन पहले एक रिपोर्ट में बताया गया था कि हमारे देश में नौकरियां किस तरह लगातार घट रही हैं। अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की एक रिपोर्ट में भी यह बताया गया है कि 2016 के बाद लगातार नौकरियां कम हुई हैं। संतोष गंगवार के बयान के बाद सोशल मीडिया पर यह सवाल उठाए जा रहे हैं कि "कौशल विकास तो 2014 में आरंभ हुआ तो फिर उसका क्या हुआ, स्किल इंडिया क्या फेल कर गया?"
       दो हफ्तों में शायद यह तीसरा मौका है जब इसी केंद्रीय मंत्री ने अपने बयान से विवाद पैदा कर दिया और खुद उसमें घिर गए। गुरुवार को केंद्रीय रेल और वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने 5 लाख करोड़ की अर्थव्यवस्था के बारे में कहा कि जो  आप टीवी पर देखते हैं  उस हिसाब किताब में मत पड़िए। "ऐसे गणित से आइंस्टीन को गुरुत्वाकर्षण की खोज में मदद नहीं मिली थी।" इसके पहले वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने ऑटो सेक्टर में मंदी का कारण नौजवानों की सोच में बदलाव को बताया। वित्त मंत्री ने कहा कि नौजवान वाहन खरीदने के बदले उबर- ओला का प्रयोग कर रहे हैं। संतोष गंगवार का यह बयान नौकरी खोजने वाले नौजवानों के जख्म पर नमक रगड़ने की तरह है। जिस मंत्रालय का काम ही नौजवानों को नौकरी दिलाना है उस मंत्रालय का ऐसा बयान देश के बेरोजगार युवकों पर क्या असर दिखाएगा यह तो आने वाला समय ही बताएगा। लेकिन इस तरह के बयान निराशा ज्यादा उत्पन्न करते हैं और सरकार को खासकर एक कल्याणकारी सरकार को इससे बचना चाहिए।

Sunday, September 15, 2019

मोदी दो के 100 दिन में शाह सबसे ताकतवर होकर उभरे

मोदी दो के 100 दिन में शाह सबसे ताकतवर होकर उभरे

पिछले एक हफ्ते में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत- नेपाल के बीच पाइपलाइन का उद्घाटन किया , स्वदेशी करण से परहेज करने वाले अपने पूर्व प्रिंसिपल सेक्रेट्री नृपेंद्र मिश्रा को बाय-बाय कहा ,प्लास्टिक अलग करने वाली महिलाओं के साथ बैठे, मथुरा में पशु आरोग्य मेला में पशुओं में मुंह और खुर रोग "मुंह पका" बीमारी के उन्मूलन  की विशाल परियोजना  का श्री गणेश करने के पहले  गायों को चारा खिलाया। उन्होंने कहा  कि कुछ लोग ऐसे हैं जो "ओम और गाय" का नाम सुनते ही ऐसा महसूस करते हैं जैसे उनके बिजली का करंट लग गया । मोदी जी ने इतना कुछ कहा, इतना कुछ किया लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं कहा जिससे पता चले कि उनका मंत्रिमंडल अर्थव्यवस्था को सही करने के लिए कुछ कर रहा है।  अब जबकि गाय  और पशु की उपमा सामने आई तो मोदी जी कह सकते हैं उन्होंने बिगड़ैल भारतीय अर्थव्यवस्था सिंग पकड़कर पराजित किया और तेजी की ओर रुख किया। वस्तुतः भारतीय अर्थव्यवस्था की इस खराब दशा के बारे में कभी भी मनमोहन सिंह से बात नहीं की गई। मोदी जी ने अर्थव्यवस्था सुधारने के लिए मनमोहन सिंह 5 सूत्री फार्मूले को अखबारों में जरूर पढ़ा होगा लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय से किसी ने भी उन्हें फोन नहीं किया । उल्टे भारतीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भारतीयों पर आरोप लगाया वे ओला -उबर में सफर करते हैं और गाड़ियां नहीं खरीद रहे हैं इसलिए ऑटोमोबाइल सेक्टर में मंदी आ गई है। यही नहीं वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने दिल्ली में व्यापारियों के बोर्ड को संबोधित करते हुए ट्वीट किया हे "गणित में गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत खोजने के लिए आइंस्टीन को कोई मदद नहीं की।" सोशल मीडिया में बात बढ़ गयी और गोयल को बाद में स्पष्टीकरण देना पड़ा कि उन्हें गलत ढंग  से उद्धृत किया गया है ।
     मोदी जी की दूसरी पारी के 100 दिन पूरे हो गए और ऊपर जो कुछ भी कहा गया यह उनके मंत्रिमंडल की प्रतिभा के उदाहरण थे। अब यहां जो सबसे गड़बड़ है वह है कि मोदी जी खुद बहुत बड़े कम्युनिकेटर हैं जबकि उनके अधिकांश मंत्री प्रेस से बात करना नहीं चाहते है । अधिकांश मंत्रियों के अपने चहेते पत्रकार हैं जिसके माध्यम से वे सकारात्मक खबरें प्रसारित करते हैं।  जब वे बोलते हैं, ऐसा ही पीयूष गोयल ने किया, तो कहा जा सकता है कि टीवी वगैरह ना देखें।
            यह भी स्पष्ट है कि विगत 100 दिनों में जो सबसे ताकतवर इंसान  उभरा है वह है गृह  मंत्री अमित शाह। उन्होंने संसद में मोर्चा संभाला। धारा 370 और 35ए को खत्म करने की घोषणा की । नागरिकता अधिनियम को पेश किया जिससे 19 लाख लोगों के नाम अगर हटा दिए जाते हैं तो सभी हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता प्राप्त हो जाएगी। पिछले हफ्ते गुवाहाटी में उत्तर पूर्वी काउंसिल के  68 वें सत्र को संबोधित करते हुए अमित शाह ने घोषणा की कि हमारी सरकार धारा 371 का सम्मान करती है इसलिए वह इसमें कोई भी बदलाव नहीं करेगी। शाह इस बात को बखूबी जानते हैं फिर अगर भाजपा को उत्तर पूर्वी क्षेत्र में सत्ता में रहना है तो वह इससे खिलवाड़ नहीं कर सकते, दूसरी तरफ मुस्लिम बहुल कश्मीर में उनका दांव इतना कमजोर है तब भी उन्होंने पीडीपी से पल्ला झाड़ लिया और तब से राष्ट्रवादी एजेंडे पर काम करना शुरू कर दिया। निश्चित रूप से  कश्मीर और यू ए पी ए विधेयक तथा तीन तलाक को आपराधिक कार्य घोषित करने के मामले में यकीनन मोदी सामने थे लेकिन इन 100 दिनों में जो सबसे महत्वपूर्ण था वह था कि अमित शाह किस तरह से सामने आए । मोदी और उनके मामले में थोड़ा फर्क था। मोदी के बारे में सब जानते थे यही चुनाव जीत सकते हैं। अमित शाह सदा मोदी से एक कदम पीछे रहते थे और यह भी स्पष्ट हो गया कि मोदी के बाद पिछली कतार में शाह ही हैं।  बात यह है कि शाह ने धारा 370 और धारा 371 को अलग कर दिया है । धारा 370 के माध्यम से कश्मीर को विशेष दर्जा हासिल था जब कि धारा 371 से उत्तर पूर्वी राज्यों को भी कुछ विशेष अधिकार हासिल हैं, खास करके जनजातीय समुदाय के लिए कानून बनाने का अधिकार   हासिल है । शाह ने पिछले हफ्ते गुवाहाटी में उत्तर पूर्व जनतांत्रिक गठबंधन को संबोधित करते हुए कहा कि  धारा 370 एक अस्थाई व्यवस्था थी जब कि धारा 371 संविधान में एक विशेष प्रावधान है। उन्होंने कहा यह नॉर्थ का अधिकार है इसे कोई नहीं छीन सकता।
            लेकिन यहां यह स्पष्ट नहीं हो सका की एनआरसी और नागरिकता संशोधन विधेयक पर शाह का जो जुझारूपन है वह मोदी की बातों से प्रतिध्वनित नहीं होता है।  जबकि मोदी को कश्मीर और असम के हालात के बारे में विदेशी समुदाय को स्पष्ट करना पड़ता है। शाह ने पिछले रविवार को उत्तर पूर्वी काउंसिल की मीटिंग में कहा कि वे असम या देश के किसी भी भाग में एक भी घुसपैठिए को नहीं आने देंगे उनकी इस भाषण के कुछ ही घंटों के बाद जिनेवा में राष्ट्र संघ मानवाधिकार आयोग के आयुक्त मिशेल बेसलेट ने कहा की वे कश्मीर को लेकर ही चिंतित नहीं है बल्कि असम में एनआरसी पर भी उन्हें चिंता है। यहां सवाल उठता है कि क्या शाह मोदी जी के लिए कई मोर्चे खोल रहेगा हैं क्या प्रधानमंत्री को अपने गृह मंत्री से करना पड़ेगा कि वह थोड़ा कम बोलें और प्राथमिकता के तौर पर अर्थव्यवस्था को सुधारने दें। अब आगे क्या होगा यह कुछ ही हफ्तों में पता चल जाएगा।

Friday, September 13, 2019

हमारी भाषा हमारे आत्म अन्वेषण का आयुध है

हमारी भाषा हमारे आत्म अन्वेषण का आयुध है

आज हिंदी दिवस है। हिंदी दिवस से एक बात याद आती है कि दो दिन पहले राष्ट्रीय ग्रंथागार कहने पर एक विदुषी महिला ने हैरत जाहिर की कि यह क्या है? यह बताए जाने पर कि यह नेशनल लाइब्रेरी का हिंदी है वह चौंक गई। हिंदी को  नारों की भाषा  समझने  वाले ऐसे बौद्धिक वातावरण में हिंदी में बहस बड़ा ही अजीब लगता है ,और एक प्रश्न भी सामने खड़ा होता है कि ऐसे वातावरण में हिंदी के विकास के लिए इतना श्रम क्यों? क्योंकि हिंदी या कहें हमारी भाषा हमारे आत्म अन्वेषण का एक  आयुध है। उसी के माध्यम से हम अपने भीतर की बातों को बाहर प्रगट करते हैं। मातृभाषा मनुष्य की देह का एक का अदृष्य अंग है। अथवा, कह सकते हैं कि यह हमारी ज्ञानेंद्रिय है जो हमें आत्मदृष्टि देती है। चाहे आप कितने भी विद्वान हों, कितनी भी भाषाओं के पारंगत हो लेकिन आप का भाव बोध आपकी अपनी ही भाषा में होता है। मां को आप चाहे जो कहें लेकिन उसे आप अपनी भाषा में ही महसूस करते हैं। भाषा और आत्मबोध का यह संबंध मनुष्य को समस्त जीव जंतुओं से अलग कर देता है। अपने अधूरेपन को पहचान कर मनुष्य में संपूर्णता का स्वप्न में आता है और यही पहचानना आत्मबोध है, जो अपनी ही भाषा में होता है। किसी भी संस्कृति की पहचान केवल उसकी यथार्थता से नहीं होती बल्कि उसके सपनों से भी उसकी विशेषता उजागर होती है।  उन सपनों की बुनावट में भाषा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। एक संस्कृति के जो सपने हैं यह बहुत हद तक उसकी स्मृतियां निर्धारित करती हैं।  शब्द में उन्हीं सपनों का संकेत हुआ करता है और वे शब्द आपकी भाषा के मूल अक्षर हैं। इसीलिए कोई भी भाषा कभी मरती नहीं उसे मारने का चाहे जितना प्रयास किया जाए। वह संस्कृति के सपने में हमेशा जीवित रहती है। हमारे अवचेतन में लगातार प्रवाहित रहती है। यही कारण है कि हमारा एहसास, हमारी अनुभूतियां वगैरह हमारी अपनी भाषा में ही होती हैं। हम सीखी हुई  या थोपी हुई भाषा में उसे अनुभूत नहीं कर सकते। भले ही अभिव्यक्त कर सकते हैं। यही कारण था कि मैक्स मूलर जैसे भारतविद को सदा यह महसूस होता था कि "जब तक भारत में संस्कृत या उससे पैदा हुई भाषाएं परस्पर संवाद और आत्म चिंतन के लिए जीवित रहती हैं तब तक भारत की सांस्कृतिक अस्मिता बची रहेगी। उसके रहते भारतीय सभ्यता को मृत स्मारकों की तरह नहीं देखा जा सकता।" उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में भारत की राष्ट्रीय चेतना इसी सांस्कृतिक अस्मिता के भीतर से प्रस्फुटित हुई। संस्कृत और भारतीय भाषाओं के भीतर जातीय स्मृतियों की एक ऐसी विपुल संपदा सुरक्षित थी जो एक संजीवनी की तरह अतीत से बहकर भारत की चेतना को आप्लावित करती थी। हमारी राष्ट्रीयता के बीज इसी चेतना में निहित थे। यही कारण था कि मेकाले ने चेतावनी दी थी कि "हम भारत में पश्चिमी संस्कृति का प्रभुत्व तब तक नहीं कायम कर सकेंगे जब तक भारतीय शिक्षा पद्धति में संस्कृत भाषा को पूरी तरह से निष्कासित नहीं कर लेते।" जिस वैचारिक स्वराज की बात भारतीय दार्शनिक के सी भट्टाचार्य ने उठाई थी उसका गहरा संबंध है एक जाति की भाषाई अस्मिता से है।  यही भाषाई अस्मिता हमारी संस्कृति का सत्य थी। सच तो यह है और कहिए सच तो यही है कि अन्य भाषा जिसे हम बहुत विकसित कहते हैं वह खिड़की से बाहर देखा गया एक बाह्य जगत है। किसी ऐतिहासिक दबाव और या दमन के कारण जब अपनी भाषा से उन्मूलित हो जाते हैं तो ठीक उसी अनुपात में अगर खिड़की से बाहर जाकर देखें तो बाहर देखा गया परिदृश्य धुंधला नजर आता है। भाषा भीतर के सच और बाहर की यथार्थ के बीच एक सेतु है और यह सच तथा यथार्थ दोनों एक दूसरे से अलग नहीं हैं। बस केवल वैचारिक सुविधा के लिए हम उसे दो अवधारणाओं के रूप में देखते हैं।
       यहां आकर भाषा के दो रूप हमारे सामने उभरते हैं या कहिए उनके दो चरित्र। एक जो हम बोलते हैं जिनमें हमारा संवाद होता है और दूसरा भाषा का तात्विक स्वरूप जो सतह के नीचे कायम रहता है लेकिन हमेशा सतह के ऊपर बोले गए शब्दों में प्रतिध्वनित होता है। भाषा के  इसी आंतरिक स्वरूप और उसके व्यवहारिक चरित्र के बीच एक संबंध होता है जो हमेशा गतिशील रहता है। यह मानव समाज के विकास के साथ चलता है और उसका स्वरूप निर्मित करता है। जहां तक हिंदी का प्रश्न है वह ऐतिहासिक काल से बदलती हुई आज की स्वरूप तक पहुंची है और कह सकते हैं यह आगे बढ़ती हुई हमारे सामूहिक अनुभव और अस्मिता के रूप में ढल गई है।आज हिंदी के विकास की आवश्यकता इसलिए है कि वह हमारी सामूहिक अस्मिता का एक बिंब बन गयी है और वह बिंब हमारी स्मृतियों के साथ जुड़ा है।  हमारे सपनों के साथ भी जुड़ा है। जब हम अपने विचारों को किसी दूसरी भाषा में व्यक्त करते हैं तो एक हद तक स्वयं हमारे विचार उस भाषा के प्रत्यय द्वारा अनुशासित होने लगते हैं । ऐसे में भाषा  माध्यम नहीं रह जाती है वह शक्ति का साधन बन जाती है। हम उस भाषा में अपने विचार को व्यक्त कर सकते हैं लेकिन ठीक उसी रूप में जिसमें वह करवाना चाहती है।  प्रश्न भाषा के प्रभुत्व के रूप में सामने आता है। क्योंकि दूसरी भाषा में हम कहना कुछ चाहते हैं लेकिन वह भाषा वही कहवाती है जो वह चाहती है। 19 वीं शताब्दी में राष्ट्रीय जनमानस को जिस राष्ट्रीय भावना ने आलोकित किया था उसमें हिंदी के रूपकात्मक बिंबों का महत्वपूर्ण योगदान था। आज जब भारत को कुछ भारतीय इतिहासकार ही महज एक संघ बताते हैं और भारत राष्ट्र को एक काल्पनिक उपज की संज्ञा देते हैं उस समय वे भारतीय भाषाई और सांस्कृतिक पीठ को बिल्कुल भुला देते हैं। स्वतंत्रता प्राप्त करने की भारत की लालसा केवल राजनीतिक उद्देश्यों से उत्प्रेरित नहीं थी उसके पीछे अपनी सांस्कृतिक अस्मिता को सबके समक्ष लाने की आकांक्षा भी थी। यही आकांक्षा हमारी भाषा को स्वरूप देती थी। आज हम उसी भाषा के लिए बार-बार प्रयास करते हैं और यह बताते हुए गर्व महसूस होता है कि हम लगातार विकसित हो रहे हैं। विख्यात भाषाविद जीएन देवी के अनुसार आज हिंदी दुनिया की सबसे तेज बढ़ती हुई भाषा है और इसका विकास उत्तरोत्तर हो रहा है। हिंदी दिवस के रूप में हम उसी विकास को अपनी ऊर्जा प्रदान करते हैं और हमें पूरा यकीन है कि हम वह लक्ष्य हासिल करके रहेंगे जिसके लिए हमने संकल्प किया है।

Thursday, September 12, 2019

जम्मू कश्मीर का परिसीमन और उसका प्रभाव

जम्मू कश्मीर का परिसीमन और उसका प्रभाव

अब से कोई 11 वर्ष पहले 2008 में चौथी बार परिसीमन हुआ था जिसमें कई राज्य छूट गए थे। उधर 2001 की जनगणना रिपोर्ट को गुवाहाटी हाई कोर्ट में चुनौती दी गई थी और इसलिए 2008 में उत्तर पूर्वी राज्यों का परिसीमन नहीं हो सका। मणिपुर के मामले में भी एक मुकदमा लंबित था। झारखंड का परिसीमन हुआ पर रांची हाई कोर्ट ने उसे लागू नहीं होने दिया।  कारण बताया कि अनुसूचित जनजातियों के लिए सुरक्षित विधानसभा सीटों यह संख्या पहले के मुकाबले कम कर दी गई हैं। जम्मू और कश्मीर का परिसीमन नहीं किया गया क्योंकि वहां अलग संविधान था और परिसीमन आयोग यह गठन का अधिकार राज्य सरकार के पास होता है अतएव राष्ट्रीय परिसीमन आयोग को जम्मू कश्मीर की सीमाओं छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए। अब जबकि जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटा ली गई और वहां अलग संविधान नहीं रहा तो  यह तर्क दिया जा रहा है की जम्मू कश्मीर के परिसीमन की शुरुआत होनी चाहिए। लेकिन 2008 में जिन राज्यों का परिसीमन नहीं हो सका था वहां भी यह प्रक्रिया अभी लंबित है।  ऐसे में जम्मू कश्मीर के परिसीमन की मांग से कई सवाल उठते हैं। पहला सवाल कि अगर वहां परिसीमन किया जाता है तो राज्य पर क्या असर पड़ेगा? क्योंकि, जम्मू और कश्मीर आजादी के बाद से अभी तक भारत के लोकतांत्रिक राजनीति के मुख्यधारा में नहीं था और वहां की जनता का राजनीतिक आचरण वैसा नहीं है जैसा देश के अन्य भागों का है। लोकतंत्र या कहें आधुनिक लोकतंत्र के संदर्भ में जम्मू कश्मीर के राजनीतिक आचरण का समाज वैज्ञानिक अध्ययन अभी तक हुआ नहीं है। उसकी सोच कुछ दूसरे प्रकार की है। वैसे तो कहा जाता है की परिसीमन का उद्देश्य राज्य के सभी विधानसभाओं और लोकसभा क्षेत्रों का आकार एक समान होते हैं जिससे एक मतदाता और एक वोट कर समीकरण कायम रहे । परिसीमन का उद्देश्य संभवत संसदीय क्षेत्रों के आकार में समानता बनाए रखना है ताकि अचानक जनसंख्या में वृद्धि के कारण विभिन्न स्थानों पर अलग अलग कारणों से बढ़ी वोटरों की संख्या में असमानता ना रहे। शहरी क्षेत्रों में खासकर मेट्रोपॉलिटन क्षेत्रों में जनसंख्या में वृद्धि हुआ करती है। यह वृद्धि जन्म और मृत्यु के समीकरण से कहीं ज्यादा होती है। जिसका कारण होता है शहरों में आजीविका के साधनों का जन्म मृत्यु दर से तालमेल नहीं होता। इसी तरह पहाड़ों से आजीविका की अनुपस्थिति के कारण जनसंख्या घटने लगती है । अब ऐसे में कुछ विधानसभाओं  या संसदीय क्षेत्रों में मतदाताओं की संख्या असंतुलित हो जाती है। परिसीमन आयोग का काम है कि सभी विधानसभा क्षेत्रों और संसदीय क्षेत्रों में मतदाताओं की संख्या को सामान बनाकर रखे। उनका आकार कमोबेश समान हो। जम्मू कश्मीर के परिसीमन से भी यही उम्मीद की जाती है। लेकिन प्रवास के सामान्य कारणों को देखा जाए तो यह पहले से ही कहा जा सकता है जम्मू कश्मीर विधानसभा क्षेत्रों की संख्याओं में काफी असंतुलन है। अब नए परिसीमन से जम्मू कश्मीर विधानसभा क्षेत्रों की संख्या में बदलाव आ सकता है।
            जम्मू और कश्मीर में कुल 87 विधानसभा क्षेत्र हैं । जिनमें 46 कश्मीर में 37 जम्मू में और लद्दाख में केवल चार सीटें हैं । फिलहाल कश्मीर में वोटरों की संख्या 87,778 है जबकि जम्मू में 91,593 यानी कश्मीर की तुलना में जम्मू में लगभग 5हजार से ज्यादा वोटर हैं। लद्दाख विधानसभा क्षेत्रों के आकार छोटे छोटे हैं और यहां तुलनात्मक तौर पर कम वोटर हैं। अब जब परसीमन होगा और विधानसभा क्षेत्रों की सीमाएं नए रूप में होंगी तो यकीनन जम्मू क्षेत्र में सीटों की संख्या बढ़ेगी। जबकि कश्मीर में सीटों की संख्या घटेगी। इन दोनों क्षेत्रों में भाजपा, पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस के जनाधार अलग-अलग हैं। I इस परिसीमन का प्रभाव भी राजनीति पर और उन पार्टियों के जनाधार पर पड़ेगा। जम्मू में सीटें बढ़ने से प्रत्यक्ष तौर पर भाजपा को लाभ होगा । अगले कुछ सालों में उसका जनाधार वहां काफी मजबूत हो जाएगा। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 3 सीटें मिलीं और उसे 46.4% वोट प्राप्त हुए थे। भारत के चुनावी इतिहास में यह आंकड़ा सबसे ज्यादा था इससे स्पष्ट हो जाता है कि कश्मीर में अपना जनाधार बढ़ाए बिना भी भाजपा राज्य की राजनीति में अपना मुख्य स्थान बना सकती है । उधर पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस कश्मीर की पार्टी हैं और उनका जनाधार कश्मीर में ही मजबूत है। कश्मीर में सीटों की संख्या घटने से राज्य में पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस की संभावनाओं पर सीधा आघात लगेगा।
       इस वर्ष के लोकसभा चुनाव में कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस को 3 सीटें मिली थी लेकिन जम्मू क्षेत्र में उसे केवल 7.9% वोट मिले थे 2014 में पीडीपी को जिन सीटों पर विजय मिली थी वह उसके हाथ से निकल गईं। इसका प्रदर्शन अत्यंत निराशाजनक रहा। उसे महज 2.4% वोट मिले । कांग्रेस का जनाधार भी घट सकता है। पिछले चुनाव में उसे 28.5% वोट मिले थे फिर भी जम्मू और कश्मीर दोनों क्षेत्रों में पार्टी का जनाधार लगभग समान है। लिहाजा परिसीमन के बाद जनसंख्या बदलेगी तब भी कांग्रेस के समीकरण पर कोई विशेष असर नहीं पड़ेगा। लेकिन यह तय है उसके सामने चुनौतियां आएंगी इसलिए उसे सावधान रहना होगा। धारा 370 हटाए जाने के बाद भाजपा के बढ़ते वर्चस्व के कारण वहां बाहरी ताकतों  के  हर प्रयास के बावजूद सामाजिक  परिवर्तन सकारात्मक होगा और यह स्थिति जम्मू के विकास में जहां सहायक होगी वहीं भारतीय जनता पार्टी के शक्तिशाली होने में भी मददगार होगी। अगर संक्षेप में कहें तो परिसीमन के बाद वहां उभरी नई स्थिति भारत देश के पक्ष में होगी और भाजपा उसका कारक कही जाएगी। यह ताजा समीकरण भारत के अन्य हिस्सों पर भी राजनीतिक बदलाव की प्रक्रिया को तीव्र करेगा।

Wednesday, September 11, 2019

पाकिस्तान को भारत की कड़ी फटकार

पाकिस्तान को भारत की कड़ी फटकार

जिनेवा में मंगलवार को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की बैठक में भारत में पाकिस्तान को जमकर फटकार लगाई और कहा की पाकिस्तान मनगढ़ंत बातें कह रहा है। भारत ने यह भी साफ कर दिया कि चूंकि कश्मीर का मसला भारत का आंतरिक मसला है इसलिए  वह इस मसले पर किसी तरह का विदेशी हस्तक्षेप स्वीकार नहीं करेगा। इसके पहले पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने परिषद में अपना भाषण पेश किया था । परिषद में भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे विदेश मंत्रालय की सचिव (पूर्व ) विजय ठाकुर सिंह ने मंच संभाला और पाकिस्तानी विदेश मंत्री की धज्जियां उड़ा दीं। उन्होंने कहा कि भारत मानव अधिकारों को बढ़ावा देने वाला है और उसकी रक्षा में दृढ़ विश्वास करता है। उधर पाकिस्तान आतंकवाद का जनक है और वह वैकल्पिक कूटनीतिक तौर पर भारत के विरुद्ध आतंकवाद का संचालन करता है। भारतीय प्रतिनिधि ने जोर देकर कहा कि जो लोग किसी भी तौर पर आतंकवाद को बढ़ावा देने और उसे वित्तीय समर्थन मुहैया कराने में लगे हैं वास्तव में वही मानवाधिकार का हनन कर रहे हैं। उन्होंने परिषद को बताया धारा 370 पर संसद में बहस के बाद ही फैसला लिया गया। इसे पूर्ण रूप से भारत की जनता का समर्थन है। पाकिस्तान चारों तरफ घूम-घूम  कर पीड़ित होने का ढोल पीट रहा है जबकि सच यह है कि वह खुद मानवाधिकार का हनन करता है और उसका अपराधी है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि कुछ लोग मानवाधिकार की आड़ में दुर्भावनापूर्ण राजनीतिक एजेंडे   के लिए इस मंच का इस्तेमाल करते हैं । असल में यही लोग मानवाधिकार के अपराधी हैं। यह लोग अन्य देशों में अल्पसंख्यकों के मानवाधिकार पर ढोल पीटते हैं जबकि सच यह है कि वह खुद अपने मुल्क में ही मानवाधिकार का व्यापक हनन करते हैं। जनता को पैरों तले रौंद देते हैं। विजय सिंह ठाकुर ने कहा कि कश्मीर के बारे में जो निर्णय किया गया है उस निर्णय से लैंगिक भेदभाव सहित संपत्ति पर अधिकार और स्थानीय निकायों में प्रतिनिधित्व खत्म होगा और बाल अधिकारों को संरक्षण हासिल होगा । घरेलू हिंसा रुकेगी । शिक्षा ,सूचना और काम के अधिकार का कानून लागू होगा तथा शरणार्थियों के खिलाफ भेदभाव नहीं रह जाएगा। जम्मू और कश्मीर में वर्तमान प्रतिबंधों को स्पष्ट करते हुए भारतीय प्रतिनिधि ने कहा इस सीमा पार से आतंकवाद का भारी खतरा है और इसलिए नागरिकों की सुरक्षा के उद्देश्य से यह सावधानी पूर्ण कदम उठाया गया है।
        कश्मीर पर पाकिस्तान को हर मंच पर मात मिल रही है और वह बौखला गया है और अपनी बौखलाहट में वह तरह तरह के बयान दे रहा है । संयुक्त राष्ट्र संघ मानवाधिकार परिषद जेनेवा में पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने कश्मीर पर अपनी बात के दौरान कह दिया कि "भारतीय राज्य जम्मू एवं कश्मीर।" कुरैशी ने भारत पर आरोप लगाते हुए कहा कि भारत यह बताने की कोशिश कर रहा है कि कश्मीर में जिंदगी सामान्य हो गई है। अगर जिंदगी सामान्य है तो अंतरराष्ट्रीय मीडिया, अंतरराष्ट्रीय संगठन, एन जी ओ, सिविल सोसायटी यह लोगों को कश्मीर में क्यों नहीं प्रवेश करने दिया जा रहा है ताकि वह खुद हकीकत देख लें। कुरैशी ने कहा कश्मीर में कर्फ्यू हटते ही हकीकत सामने आ जाएगी तब दुनिया देखेगी वहां क्या हो रहा है।
         इसके पहले भी भारत ने साफ कह दिया था कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और इसका कोई राष्ट्रीय या राजकीय धर्म नहीं है। अल्पसंख्यकों की हिफाजत इसकी राजनीतिक व्यवस्था का एक खास हिस्सा है। दरअसल पाकिस्तान ने भारत में अल्पसंख्यकों से बर्ताव को लेकर भारत की आलोचना की है संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के 27 मई सत्र में भारत के अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने कहा ,भारत के संविधान में अल्पसंख्यकों अधिकारों को बनाए रखने की व्यवस्था है और उसके लिए कई  प्रावधान हैं। भारत में जाति या धर्म को लेकर भेदभाव नहीं किया जाता। यहां बोलने और अभिव्यक्ति की पूरी आजादी है और वह आजादी संविधान द्वारा दी गई है। रोहतगी ने कहा कि हम शांति और अहिंसा पर विश्वास रखते हैं । भारतीय संस्कृति में प्रताड़ना की कोई जगह नहीं है। उन्होंने अफस्पा का जिक्र करते हुए कहा यह अधिनियम केवल अशांत इलाकों में लागू है और यह इलाके बहुत कम हैं। एक के बाद एक सभी अंतरराष्ट्रीय मंच पर कश्मीर को लेकर पाकिस्तान को कोई सहयोग नहीं मिलने से वह दिनों दिन मायूस होता जा रहा है और यह मायूसी बौखलाहट में बदलती जा रही है। पीओके में घटी घटनाओं से यह साफ पता चलता है।  पाकिस्तान अपनी बौखलाहट में "कुछ भी" कर सकता है इसलिए भारत को सतर्क रहना चाहिए।

Tuesday, September 10, 2019

फिर चली है हवा नागरिकता रजिस्टर की

फिर चली है हवा नागरिकता रजिस्टर की

केंद्रीय मंत्री अमित शाह सोमवार को गुवाहाटी में थे और उन्होंने इस बात को मानने से इंकार कर दिया कि सरकार नागरिकता संशोधन बिल को दोबारा पेश करना चाह रही है। उन्होंने कहा कि उत्तर पूर्वी राज्य और वहां के निवासियों की संवैधानिक सुरक्षा में कटौती नहीं करेगी और नागरिकता संशोधन विधेयक उनके बीच नहीं आएगा। दरअसल जब से कश्मीर की घटना हुई है पूर्वोत्तर भारत के लोगों को लगातार यह डर सता रहा है कि कहीं अनुच्छेद 370 के बाद अब अनुच्छेद 371 को तो नहीं  रद्द कर दिया जाएगा । अमित शाह ने ही संसद में 370 को खत्म करने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया था। वही अमित शाह धारा 371 को बचाने में लगे हैं या कहिए बचाना चाहते हैं। लेकिन क्यों? गुवाहाटी में सोमवार को उनके भाषण के बाद लगातार लोगों के मन में यह सवाल उठ रहा है। लेकिन लोग यह जानने की कोशिश नहीं कर रहे हैं 371 में और 370 में फर्क क्या है।  अमित शाह के अनुसार धारा 370 अस्थाई प्रावधानों से जुड़ा था जबकि धारा 371 विशेष प्रावधानों के संदर्भ में है। दोनों में बड़ा फर्क है। हमारे देश के संविधान में  धारा 369 से लेकर धारा 395 तक को स्पष्ट किया गया है। पूर्वोत्तर के राज्यों के लिए विशेष प्रावधान बनाए जाने का मुख्य कारण था कि अनेक राज्य बहुत पिछड़े हुए थे और उनका विकास सही समय से नहीं हो पाया था। यही नहीं वहां की जनजातीय संस्कृति का भी यह धारा संरक्षण करती है। धारा 370 और 371 में जो स्पष्ट दृश्य अंतर था वह था धारा 370 के अंतर्गत कश्मीर का अलग झंडा और अलग संविधान  हुआ करता था जबकि धारा 371 के अंतर्गत पूर्वोत्तर राज्यों का कोई पृथक झंडा नहीं है नाही कोई अलग संविधान। धारा 370 को समाप्त करने के पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि इसके तहत राज्य पिछड़ा हुआ है लेकिन उत्तर पूर्वी राज्यों में यह तर्क नहीं काम करेगा। 
        उत्तर पूर्वी राज्य में फिलहाल नेशनल सीटीजन रजिस्टर की हवा तेज है और इस वातावरण में सरकार वहां कोई भी नया मोर्चा नहीं खोलना चाहती। गुवाहाटी में अपने भाषण में गृहमंत्री ने महाभारत के किरदारों का पूर्वोत्तर से जोड़कर यह बताना चाहा इस क्षेत्र का भारत के शेष हिस्से से पौराणिक और स्वाभाविक संबंध है। यही नहीं अरसे से भाजपा की नजर इस क्षेत्र पर लगी हुई है धारा 371 न केवल भारत के उत्तर पूर्वी राज्य पर ही लागू है बल्कि महाराष्ट्र गुजरात और हिमाचल प्रदेश के भी कुछ हिस्सों में लागू है। इसके अंतर्गत महाराष्ट्र और गुजरात के राज्यपालों कुछ खास अधिकार मिले हुए हैं।
           कहते हैं ना कि "जब बात निकली है तो दूर तलक जाएगी" उत्तर पूर्वी राज्यों में एनआरसी का मामला राजस्थान के पुष्कर में आर एस एस की बैठक में भी उठा और संघ के संयुक्त महासचिव दत्तात्रेय होसाबले ने बैठक के बाद कहा कि एनआरसी में कई त्रुटियां हैं जल्दी से जल्दी ठीक किया जाना चाहिए। बैठक में उपस्थित पार्टी के महासचिव राम माधव ने भी लोगों को एनआरसी के बारे में विस्तार से बताया और इसमें सरकार के हस्तक्षेप का सुझाव दिया। बैठक के बाद इस बात पर चिंता व्यक्त की गई कि एनआरसी से लगभग 10 लाख बांग्ला भाषी हिंदुओं को बाहर कर दिया गया है। यह चिंता का विषय है। भाजपा नागरिकता संशोधन बिल को लेकर  भीतर ही भीतर कोशिश में लगी है लेकिन पूर्वोत्तर राज्यों में इसके विरुद्ध है हिंसक प्रदर्शन को देखते हुए उसे थोड़ा रोक दिया गया है। संघ की बैठक में कहा गया कि हिंदू चाहे दुनिया के किसी कोने में रहता हो भारत के दरवाजे उसके लिए सदा खुले हैं। वह भारत में रह सकता है और यहां की नागरिकता ले सकता है।
दूसरी तरफ राष्ट्र संघ मानवाधिकार संस्था ने एनआरसी पर चिंता जाहिर की है। जेनेवा में अपने भाषण की शुरुआत में मानवाधिकार उच्चायुक्त मिशेल बेसलेट  ने कहा कि एनआरसी से बहुत ही चिंता और अनिश्चितता पैदा हो रही है । उन्होंने सरकार से अनुरोध किया किया, ऐसी स्थिति पैदा करें जिससे लोगों को आत्म संतोष हो। एनआरसी तथा धारा 371 का भविष्य क्या होगा यह तो आने वाला समय बताएगा लेकिन संघ की बात सुनकर एक दिशा तो दिखाई पड़ रही है कि पूर्वोत्तर भारत में हिंदुत्व को बढ़ावा देने के लिए यह सब किया जा रहा है। अगर ऐसा होता है तो सबसे बड़ा आघात उस क्षेत्र की पहचान यानी सामाजिक पहचान पर होगा और उसके बाद क्या होगा यह कहना थोड़ा कठिन है।

Sunday, September 8, 2019

चंद्रयान दो के पास अभी भी देने के लिए बहुत कुछ है

चंद्रयान दो के पास अभी भी देने के लिए बहुत कुछ है

इसरो प्रमुख के शिवम   शनिवार को प्रधानमंत्री के समक्ष रो पड़े और प्रधानमंत्री ने उन्हें गले लगा लिया। इस भावुक को दृश्य ने देश की आंखें गीली कर दी। कहा जा रहा है कि लेंडर विक्रम सही काम नहीं कर पा रहा है लेकिन वैज्ञानिक बिरादरी का मानना है कि ब्लेंडर का चाहे जो हो चंद्रयान2 मिशन अभी भी बहुत कुछ ऐसा भेज सकता है जिससे चांद के विभिन्न पहलुओं पर रोशनी पड़े और उसका वैज्ञानिक विश्लेषण हो सके। रविवार को  खबर आई  लेंडर विक्रम  को  खोज लिया गया है  और जल्दी ही  उससे  संपर्क किया जाएगा । अधिकांश वैज्ञानिक आंकड़े तो आर्बिटर से मिलने हैं, लेंडर और रोवर से नहीं । भारत के पहले चंद्र मिशन चंद्रयान -1 में जो उपस्कर लगे थे उन्हें अन्य देशों से मंगाया गया था। लेकिन चंद्रयान- 2 मे जो कुछ भी भेजा गया है वह भारत में निर्मित है। केवल एक उपस्कर लेजर रिफ्लेक्टर है जो नासा से लिया गया है। इस बार जो चंद्रयान भेजा गया उसके कुल 3 भाग में 14 वैज्ञानिक उपस्कर थे । जिनमें आठ चंद्रयान के आर्बिटर में लगे थे जिसे सफलतापूर्वक चांद की कक्षा में स्थापित कर दिया गया है और वह 1 वर्ष तक चांद के चारों ओर घूमता रहेगा। यह उपस्कर इसरो को वैज्ञानिक आंकड़े भेजते रहेंगे जिससे हमारे वैज्ञानिकों को चांद के बारे में और भी बहुत कुछ जानने में मदद मिलेगी। दूसरी तरफ लेंडर और प्रज्ञान रोवर महज 14 दिनों तक सक्रिय रहेंगे। इसरो के एक बयान के मुताबिक इस मिशन की उम्र बहुत लंबी है लगभग 7 वर्ष, यद्यपि इसकी योजना 1 वर्ष की ही थी। विक्रम लेंडर को योजना अनुसार 35 किलोमीटर की कक्षा में उतरना था और चांद की सतह से 2 किलोमीटर तक पहुंचना था। इस बिंदु तक लेंडर के सभी सेंसर और सिस्टम सही-सही । काम कर रहे थे और कई नई तकनीकों की शुद्धता तथा उनके अचूक होने की जांच में भी खरे उतरे। ऐसे मिशन में  प्रत्येक चरण की सफलता का आकलन किया जाता है और आज तक मिशन का उद्देश्य  90 से 95%   पूरा हो चुका है। जिस लेंडर में गड़बड़ी हुई है उसे चांद के दक्षिणी ध्रुव पर उतरना था। अब कुछ लोग, सही कहें तो नकारात्मक विचार वाले ,लोग यह कह कर आलोचना करते सुने जा रहे हैं कि दक्षिणी ध्रुव को  चुनना ही गलत था। इस पर सोचने से पहले यह जानना जरूरी है कि दक्षिणी ध्रुव ही क्यों ? दक्षिणी ध्रुव चांद का वह क्षेत्र है जो अभी भी वैज्ञानिक जानकारी के अंधेरे में है। इसके बारे में बहुत कम जानकारी है। यहां सूरज की रोशनी बहुत कम पड़ती है। यही नहीं, चंद्रमा की धुरी  यहां थोड़ी सी झुकी हुई है इसलिए यहां कुछ क्षेत्रों में सूरज की रोशनी भी बहुत कम पहुंचती है। यहां विशाल गड्ढे भी हैं जिन्हें कोल्ड ट्रेक्स कहते हैं। यहां का तापमान  औसतन शून्य से 200 डिग्री नीचे रहता है जिसके चलते न केवल पानी बल्कि कई तत्व और गैसें भी जमी हुई अवस्था में रहती हैं।
       इस यान के आर्बिटर पर जो पेलोड भेजा गया है उनमें जो कैमरे हैं जिसके माध्यम से वह एक ही जगह की दो हाई रेजोल्यूशन तस्वीरें प्रेषित कर सकता है। इसके अलावा एक अन्य कैमरा टीएमसी 2 है जिसे वैज्ञानिक भाषा में टेरेन मैपिंग कैमरा कहते हैं, चांद की सतह की 3D तस्वीरें भेजेगा। इन दोनों से भविष्य के मिशन के लिए तैयारियों में मदद मिलेगी। इसके अलावा जो पेलोड है वह है सोलर एक्सरे मॉनिटर इससे सूरज के कोरोना का एक्स-रे मापा जाता है और यह चंद्रयान2 के बड़े क्षेत्र के सॉफ्ट एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर के साथ काम करता है। एक और  उपस्कर है  रिगोलिथ। यह उपस्कर चांद की सतह पर सिलिकॉन, कैल्शियम, मैग्नीशियम, अल्मुनियम ,आयरन और सोडियम जैसे तत्व की मात्रा को निश्चित करेगा। दो और उपस्कर हैं जो वहां पानी उपस्थिति का अध्ययन करेंगे इसके अलावा यह सूरज से होने वाले विकिरण की भी जांच करेंगे।
          बेशक लेंडर खो गया है और चांद के दक्षिणी ध्रुव से इसरो को आंकड़े नहीं प्राप्त होंगे । जो प्राप्त करना है वह  चंद्रयान 2 योजना में था लेकिन ऑर्बिटर और नासा के एल आर ओ से जो आंकड़े तथा चित्र भेजे जाएंगे उससे भारत के भविष्य के चंद्र मिशन के लिए बहुत मदद मिलेगी। अतः  हमारे वैज्ञानिकों का नैतिक बल और प्रतिभा बल  दोनों काफी सुदृढ़ रहेंगे। इसमें मायूस होना तथा इसे असफलता समझना गलत है।

Friday, September 6, 2019

मसूद अजहर इत्यादि को  आतंकवादी घोषित किये जाने  का मकसद

मसूद अजहर इत्यादि को  आतंकवादी घोषित किये जाने  का मकसद

भारत ने लश्कर प्रमुख हाफिज सईद, उसके डिप्टी जकी-उर-रहमान लखवी, जैश-ए-मोहम्मद प्रमुख मसूद अजहर, और भगोड़े अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहिम को नए गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के तहत बुधवार को आतंकवादी घोषित कर दिया।
हाफिज सईद के सिर पर अमरीका का पहले से ही 1 करोड़ डॉलर  का इनाम है, और भारत ने लश्कर और जैश दोनों पर प्रतिबंध लगा दिया था।
अब सवाल है कि इस पहल से  भारत को  आतंक पर युद्ध में मदद मिलेगी?
इन 4 आतंकवादियों को नामजद करने के लिए मोदी सरकार का कदम केवल एक नौकरशाही पुनर्व्यवस्था है जो कुछ भी नहीं बदलता है।
कभी भी  हाफिज सईद और अन्य जिहादियों के एक गिरोह को व्यक्तिगत रूप से आतंकवादी बनाने वाली "प्रमुख कहानी" के रूप में कुछ भी नहीं बदला। सुर्खियों में जाने से लगता है कि यह प्रमुख था, लेकिन यह सिर्फ एक नौकरशाही व्यवस्था है जो कुछ भी नहीं बदलती है। कई मायनों में, यह कदम इन लोगों को पकड़ने या प्रत्यर्पित करने में असमर्थ होने के लिए भारत की पूरी तरह से हताशा को छिपा देता है। यह कुछ नहीं है बस कार्रवाई के विकल्प के रूप में कागज पर एक नया शब्द दिया जा रहा है।
कथित कानूनी मामला यह है कि पहले संगठनों को आतंकवादी के रूप में नामजद किया गया था, व्यक्तियों को नहीं। इसका मतलब था कि व्यक्ति अपने संगठनों को बदल सकते हैं या उनका नाम बदल सकते हैं। समस्या यह है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने कभी भी भारत के अपराध को गंभीरता से नहीं लिया। वैश्विक समुदाय और यूएन जैसे संगठनों ने हमेशा अपराध के सबूत के आधार पर व्यक्तियों पर काम किया है। इसका मतलब यह है कि जहां तक ​​दुनिया जाती है, वास्तव में कुछ भी नहीं बदलता है, वे अभी भी एक मामले-दर-मामला व्यक्तिगत आधार पर आतंकवादियों का मूल्यांकन करते हैं।
दरअसल, इससे भी बुरी बात यह है कि यह पाकिस्तान को कम आतंक फैलाने वालों को सौंपने का बहाना देता है, बजाय इसके कि वह पूरे आतंकी संगठन पर शिकंजा कसे और यह दावा करे कि हर बार अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ने पर वह आतंक से लड़ने के लिए प्रतिबद्ध है। नरेंद्र मोदी सरकार के कदम के बावजूद,  जमीन पर या कूटनीतिक रूप से क्या बदलता है? कुछ भी तो नहीं। यदि आपको लगता है कि इस पदनाम के कारण कोई भी अधिक दृढ़ है, तो फिर से सोचें।
यह देखा जाना बाकी है कि इन आतंकवादियों के खिलाफ यूएपीए को कैसे समझा जाय। किया जाएगा। यह वह जगह है जहाँ संभावित गड़बड़ी निहित है।
सिद्धांत रूप में, दोनों संगठनों और आतंकवादियों के रूप में नामजदगी को देश के आतंकवाद-निरोधी तैयारियों  में मुख्य हथियार के रूप में देखा जाना चाहिए। यह उन लोगों के लिए स्पष्टता और दिशा प्रदान करता है जिनके पास आतंकवादियों से लड़ने के लिए आधिकारिक जनादेश है। यहां तक ​​कि यह भारत को अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए अपने दृष्टिकोणों को स्पष्ट रूप से पेश करने की अनुमति देता है। यह कदम उन व्यक्तियों की संभावना को भी समाप्त कर देता है जो अपने संगठनों के परिणामों को आतंकवादी के रूप में निर्दिष्ट कर रहे हैं।  मोदी सरकार का यह कदम ऐसे  आतंकवादियों के खिलाफ दंडात्मक प्रतिबंधों को लागू करने की भारत की क्षमता पर भी ध्यान केंद्रित करता है। यह मानने का कोई कारण नहीं है कि पहले वर्तमान की दुर्बलताओं के कारण भारत वास्तव में ऐसा करने की किसी भी स्थिति में है, या यह संशोधित कानून देश को  आतंकवादियों की इस पहली सूची के खिलाफ कोई कार्रवाई करने में सक्षम करेगा।
यद्यपि, नामजद आतंकवादियों की वर्तमान सूची अबाधित है। यह  देखा जाना बाकी है कि क्या और कैसे यूएपीए कानून भारत के भीतर और बाहर से आतंकवादी गतिविधियों में संलिप्त व्यक्तियों के खिलाफ लागू किया जाएगा।
इन चार आतंकवादियों की नामजदगी  को पाकिस्तान पर कानूनी और कूटनीतिक दबाव के रूप में देखा जाना चाहिए।
अब व्यक्तियों को आतंकवादी के रूप में नामित किया जा सकता है और उनकी यात्रा पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है और राज्य डीजीपी की अनुमति के बिना उनकी संपत्ति राष्ट्रीय जांच एजेंसी द्वारा जब्त की जा सकती है। यह, कई बार, बोझिल साबित होता है और शीघ्र कार्रवाई में देरी का कारण बनता है।
यूएपीए में संशोधन के साथ, और मसूद अजहर, हाफिज सईद, ज़की-उर-रहमान लखवी और दाऊद इब्राहिम को आतंकवादी घोषित करने के साथ, भारत ने आतंकवाद के खिलाफ युद्ध पर बड़े पैमाने पर आवाज़ उठाई है, यह इस संकट से निपटने की तात्कालिकता का संकेत दिया है।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा पहले से ही नामित आतंकवादियों की घोषणा करने से उन पर तत्काल कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता है, लेकिन यह निश्चित रूप से ’होमग्रोन’ आतंकवादियों पर प्रभाव डालेगा और उचित निवारक कदम उठाकर संभावित आतंकवादी कृत्यों को रोक देगा।
यह कहते हुए कि, पाकिस्तान स्थित जैश-ए-मोहम्मद द्वारा पुलवामा में हमले के प्रतिशोध में बालाकोट में हमारी ‘सर्जिकल स्ट्राइक ने आतंकवाद के खिलाफ हमारी लड़ाई में एक नया मानदंड स्थापित किया है और पाकिस्तान के लिए लागत बढ़ा दी है। भारत अपने नामित आतंकवादियों को निशाना बनाकर अपनी संप्रभुता और अखंडता की रक्षा करने के अधिकार के भीतर अच्छी तरह से रहेगा।  यह एक महत्वपूर्ण कदम है क्योंकि दुनिया कभी-कभी उन समस्याओं की गंभीरता को गंभीरता से नहीं लेती है जिनका भारत सामना करता है। ये आतंकवादी अंतरराष्ट्रीय और भारत में कुछ सबसे खराब आतंकवादी हमलों के पीछे रहे हैं। मोदी सरकार के नवीनतम कदम के बाद, 'आतंकवादी' शब्द उनके नाम का एक उपसर्ग बन जाएगा। स्थिति की गंभीरता को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जाना जाना चाहिए, और इन लोगों को उन आतंकवादी गतिविधियों के लिए शर्मिंदा होना चाहिए जिसमें वे शामिल हैं।
अपने कर्मों की संदिग्ध प्रकृति के कारण ये व्यक्ति छाया में दुबकने में सक्षम हैं। वे भी स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हैं कि वे आतंकी हमलों के मास्टरमाइंड हैं, लेकिन फिर भी "स्कॉट-फ्री" रहने  का प्रबंध करते हैं। यह एक खुला रहस्य है क्योंकि संयुक्त राष्ट्र ने पहले ही उनमें से दो को आतंकवादियों के रूप में मान्यता दी है।
भारत के खिलाफ पाकिस्तान ने जो प्रचार शुरू किया गया है, वह दुनिया को पता होना चाहिए। पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर और भारत के अन्य हिस्सों में आतंक फैला रहा है। इसलिए, यह महत्वपूर्ण है कि वर्तमान संदर्भ में, दुनिया को पता है कि इस  संकट को किसने पैदा किया है - पाकिस्तान और ये आतंकवादी।
जब इन  नामों की बात आती है, तो इससे भारत के मामले में कोई फर्क नहीं पड़ता है। हाफिज सईद, मसूद अजहर के खिलाफ विभिन्न आतंकी हमलों की योजना बनाने के मामले पहले से ही लंबित हैं। वे कौन हैं और उनकी गतिविधियाँ क्या हैं, इसकी स्पष्ट समझ है।
आतंकवादियों ने  खुद को फिर से संगठित करना शुरू कर दिया, भले ही उन संगठनों में व्यक्ति समान रहे। अब भारत सरकार व्यक्तियों को नामित कर सकती है, भले ही उनके संगठनों का नाम और आकार बदल जाए।
संशोधित यूएपीए कानून के आलोक में, घरेलू आतंकवादियों को भी आतंकवादी के रूप में नामित किया जा सकता है। हमें देखना चाहिए कि सरकार इससे कैसे आगे बढ़ती है, खासकर कश्मीर के संदर्भ में।
सवाल यह है कि किसी को आतंकवादी बनाने के मानदंड कौन तय करेगा? संशोधित कानून में भी यह स्पष्ट नहीं है। वे कश्मीर वापस आकर,उन  जमीनी कार्यकर्ताओं पर काबू पा लेंगे - जो गैर-लड़ाके हैं और किसी भी आतंकवादी गतिविधि में भाग नहीं लेते हैं, लेकिन उन्हें सैन्य सहायता प्रदान करते हैं - जिन्हें आतंकवादी भी माना जाता है? भारत सरकार द्वारा इन धूसर क्षेत्रों से कैसे निपटा जाएगा?
यह कानून भारतीय एजेंसियों को ताकत देता है क्योंकि जब व्यक्तियों को आतंकवादी घोषित किया जाता है, तो उनकी संपत्ति सील कर दी जाती है और उन्हें यात्रा करने से रोक दिया जाता है।
भारत अब वैश्विक मंचों से संपर्क कर सकता है और कह सकता है कि किसी व्यक्ति को उसके कानून के तहत आतंकवादी घोषित किया गया है और उस व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई  हो।

Thursday, September 5, 2019

कश्मीर पर पाकिस्तान का बदलता सुर एक छलावा

कश्मीर पर पाकिस्तान का बदलता सुर एक छलावा

न्यूयॉर्क टाइम्स में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने पिछले हफ्ते एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने कश्मीर की ओर दुनिया का ध्यान आकर्षित करने के उद्देश्य से संभावित परमाणु युद्ध की चर्चा की थी। उन्होंने इसके लिए द्वितीय विश्वयुद्ध का उदाहरण दिया था और कहा था कि म्युनिख की तुष्टीकरण के लिए दूसरा विश्व युद्ध हुआ ठीक वैसा ही खतरा विश्व पर फिर मंडरा रहा है लेकिन इस बार उस पर परमाणु की छाया है। दूसरे दिन पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने बीबीसी उर्दू के एक इंटरव्यू में कहा कि कश्मीर समस्या के समाधान के लिए वह( परमाणु युद्ध ) विकल्प नहीं है। उनकी आवाज नरम थी। वे बहुत नरमी से भारत के साथ द्विपक्षीय वार्ता की बात कर रहे थे। इसके विपरीत इमरान खान ने स्पष्ट तौर पर कहा कि कश्मीर को जब तक भारत 5 अगस्त के पहले वाली स्थिति नहीं प्रदान करता तब तक किसी किस्म की बातचीत का कोई सवाल नहीं उठता है। लेकिन अब इमरान खान की आवाज बदल गई है। उनका कहना है कि "पाकिस्तान भारत से जंग की शुरुआत नहीं करेगा। भारत और पाकिस्तान दोनों परमाणु ताकतें हैं और अगर तनाव बढ़ता है तो दुनिया के सामने खतरा उपस्थित हो जाएगा। मैं भारत से कहना चाहूंगा की जंग किसी समस्या का कोई समाधान नहीं है। जंग में जीतने वाला भी खोता है। जंग कई और समस्याओं को जन्म देती है । " उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा जिससे समझा जाए कि पाकिस्तान परमाणु हथियार के पहले उपयोग नहीं करने की अपनी नीति बदल रहा है। उन्होंने कहा कि दो परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र युद्ध के मुहाने पर भी आ जाएंगे तब भी हम पहले युद्ध नहीं आरंभ करेंगे। यही नहीं पाकिस्तान की रणनीति में और भी कई दिलचस्प मोड़ आ गए हैं। इसने भारतीय उच्चायुक्त को बाहर निकाल दिया है। यह एक ऐसी कार्रवाई है जिससे तनाव बढ़ता है, लेकिन जब भारतीय व्यवसायिक उड़ानों के लिए पाबंदियां लगाने की बात आई तो इस्लामाबाद ने फिलहाल ऐसा नहीं करने का फैसला किया और कहा कि दोनों मुल्क अपने युद्धक विमान भेजने के लिए हाथ पांव नहीं मार रहे हैं।
        जब भारत ने कश्मीर की संवैधानिक स्थिति बदली उस समय इमरान खान ने भारत को अपने परमाणु जखीरे और आतंकियों का भय दिखाया। उन्होंने कहा कि पुलवामा जैसी घटनाएं हो कर  रहेंगी। मैं पहले ही कह सकता हूं कि ऐसा होगा और वे लोग इसका दोष फिर पाकिस्तान पर लगाएंगे। जब पाकिस्तान की सरकार इसे मसला बनाना चाहती है तब जल्दी ही एक बड़ा हमला होता है। 26 नवंबर का वह मुंबई हमला याद होगा। यह हमला उस समय हुआ था जब पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने कहा था कि उनकी सरकार भारत के खिलाफ पहला परमाणु हमला नहीं करेगी । इस कथन के कुछ ही दिन के बाद मुंबई पर हमला हो गया। जब भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अचानक पाकिस्तान पहुंच गए तो इसके एक हफ्ते के भीतर ही भारतीय हवाई अड्डे पर हमला हो गया। इसके बाद नरेंद्र मोदी ने द्विपक्षीय वार्ता छोड़ दी।
         इस बार हालांकि पाकिस्तान ने आतंकी हमले की खुली चेतावनी दी है लेकिन एक महीना बीत गया अभी तक ऐसा नहीं हुआ। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि पाकिस्तान दुनिया की निगाह में है और दबाव में है। वह डोनाल्ड ट्रंप से बातचीत कर रहा है तथा कंगाली से जूझ रहा है । कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि सितंबर के अंत में जब राष्ट्र संघ महासभा की 74 वीं बैठक खत्म हो जाएगी, तब आतंकी हमला हो सकता है। मुंबई हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान पर कोई  आक्रमण नहीं किया। यद्यपि इसके लिए भारत पर बहुत ज्यादा घरेलू दबाव था। इसी तरह भारत ने करगिल युद्ध के दौरान नियंत्रण रेखा नहीं लांघी। ना ही 1999 में कंधार हवाई हमले का मुंह तोड़ जवाब दिया। यही नहीं 2001 में भारतीय संसद पर हमले के बाद भी भारत ने सैनिक कार्रवाई नहीं की। हालांकि  ऐसा करने के लिए चेतावनी दी जा रही थी। इसके पीछे विचार यही था कि भारत पाकिस्तान के मुकाबले दुनिया के सामने ज्यादा जिम्मेदार दिखे ताकि पाकिस्तान के खिलाफ लॉबी तैयार की जा सके। यह रणनीतिक संयम दुनिया भर में पाकिस्तान की साख हो मटियामेट करने के उद्देश्य से अपना ही गई थी। इसका उद्देश्य था की अंतरराष्ट्रीय मंच पर पाकिस्तान को एक आतंकी मुल्क के रूप में चित्रित किया जाए ऐसी रणनीति का देश पर कोई सैनिक व नहीं भरता है उल्टे अन्य देशों से संबंध रखते हैं पर्यटकों का आगमन होता है आन मंत्री नरेंद्र मोदी ने 2016 के सर्जिकल स्ट्राइक और 2019 के हवाई हमले के साथ ही इस नीति को बदल दिया। अभी जो कश्मीर में पाबंदियां जारी हैं उसे देखते हुए पाकिस्तान इसे बदले का एक अवसर मानता है और इसी उद्देश्य से व अपना सुर बदल रहा है । ताकि ,दुनिया उसे बुरा देश ना माने। लेकिन शायद ऐसा नहीं हो सकेगा क्योंकि पाकिस्तान से मदद पाने वाले आतंकी कश्मीर को अंतरराष्ट्रीय स्वरूप देने की गरज से और दुनिया भर में सुर्खियों में लाने के लिए  कुछ करेंगे और अगर ऐसा है तो फिर पाकिस्तान को फौजी कार्रवाई की क्या जरूरत। एक कारण है कि पाकिस्तान गायक हमला केवल कश्मीर तक सीमित नहीं है वाह मोदी के भारत को एक अधिनायक वादी सत्ता के रूप में चित्रित करना चाहते हैं वह दुनिया भर में यह फैला रहा है कि भारत में धार्मिक अल्पसंख्यक असुरक्षित हैं और उनके साथ समान व्यवहार नहीं किया जाता। इस रणनीति के एक हिस्से के रूप में इमरान खान और उनकी सरकार बार-बार "आर एस एस फासिस्ट हिटलर जैसे शब्दों का उपयोग कर रही हो न्यूयॉर्क टाइम्स के अपने लेख में इमरान खान ने लगभग ए एक चौथाई भाग यह कहने में खर्च किया कि भारत में हिंदू राष्ट्रवाद का विकास हो रहा है उन्होंने ईसाईयों और दलितों के प्रति चिंता भी जाहिर की है वे अपने भाषणों में बार-बार गौ रक्षकों द्वारा लिंचिंग और असम में एनआरसी  का जिक्र करते हैं उनके विदेश मंत्री दो भारत में धर्मनिरपेक्षता को श्रद्धांजलि देते सुने जाते हैं एक जमाना था जब पाकिस्तान ने धर्मनिरपेक्षता को खारिज कर दिया था यूनिसेफ की बैठक हो या बर्नी सांडर्स कि कश्मीर पर बातचीत हो पाकिस्तान की यह अभिव्यक्तियां दोहराई जा रही हैं। कुछ ऐसा लगता है कि मोदी सरकार ने कश्मीर के फैसले को लेकर भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि को जोखिम में डालने का फैसला किया है। इसके पीछे विचार यह है दुनिया के सामने वह एक ताकतवर मुल्क की तरह खड़े हों और दुनिया के मामले की वह कश्मीर के खिलाफ किसी भी हमले के मुकाबले में अड़े रहेंगे।  भारतीय अर्थव्यवस्था नीचे की ओर आ रही है और कश्मीर के मामले में ऐसा करके सौदेबाजी की अपनी क्षमता को घटा रही है। उधर भारत कश्मीर पर जितनी देर तक पाबंदियां कायम रखेगा उतने दिनों तक अंतरराष्ट्रीय मीडिया में इसकी चर्चा रहेगी। पाबंदियां हमेशा कायम नहीं रह सकती। आजकल में वह खत्म हो जायेंगी। लेकिन, इसके बाद कश्मीर में व्यापक हिंसा हो सकती है और  पाकिस्तान इसी अवसर की प्रतीक्षा में है। अब यहां यह बात नहीं है कि घटना कैसे मोड़ लेती है लेकिन पाकिस्तान भारत की छवि को खराब करने में लगा हुआ है। भारत को पाकिस्तान के नरम सुर के छलावे में नहीं आना चाहिए और उसे काफी समझदारी के साथ कदम उठाना चाहिए। पाकिस्तान ने रणनीति बदली है स्वभाव नहीं।

Wednesday, September 4, 2019

कश्मीरियों की भावनाओं को भी देखें

कश्मीरियों की भावनाओं को भी देखें

कश्मीर को लेकर  पाकिस्तान के इस  अरण्य रुदन  के मध्य जब कोई सामान्य कश्मीरियों से बात करता है कि वास्तव में उन्हें क्या दिक्कत है तो वे धारा 370 की बारीकियों के बारे में बात नहीं करते हैं। यह कहना बिल्कुल सही नहीं है कि कश्मीर में सब कुछ ठीक-ठाक है एकदम अमन है। नरेंद्र मोदी   सरकार ने गत 5 अगस्त को धारा 370 हटा दिया इसके ठीक एक महीने बाद जम्मू-कश्मीर में सामान्य स्थिति की उम्मीद करना एकदम सही नहीं है। वहां क्या चल रहा है यह जानने के लिए सबसे पहले विदेशी टीवी चैनलों को बंद करना होगा और विदेशी अखबारों की  वेबसाइटों पर से भी नजरें हटानी होंगी। इसके विपरीत  कुछ लोगों का मानना ​​है कि कश्मीर में खून नहीं बह रहा है। सच्चाई इन दोनों  के बीच  है। कश्मीर तनावग्रस्त है।  लोग परेशान, बीमार और गुस्से में हैं। क्या कश्मीर में ऐसे कुछ लोग हैं जो  370 पर केंद्र के इस कदम का समर्थन करते हैं? लगभग कोई नहीं। सुरक्षा बलों की प्रशंसा करनी चाहिए। वे कश्मीर में हिस्सेदारी का दावा करने वाले हर व्यक्ति की आलोचना, सौदेबाजी और हमलों का शिकार रहे हैं। वे चाहे कार्यकर्ता हों या टिप्पणीकार या 'संघर्ष क्षेत्र' के पत्रकार या ऐसे उदारवादी जो धारा 370 को हटाये जाने का सार्वजनिक रूप से विरोध नहीं करते , और भोले-भाले राजनेता जो नरेंद्र मोदी की छवि को एक मजबूत, निर्णायक प्रधानमंत्री के रूप में मानते हैं। अगर कश्मीर में कोई सामान्य स्थिति नहीं है, तो वे इस पर ध्यान देंगे।
5 अगस्त से 300 से अधिक पथराव की घटनाएं हुई हैं लेकिन केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सी आर पी एफ) का दावा है कि उसने एक भी गोली नहीं चलाई है। सीआरपीएफ ने फरवरी में पुलवामा आतंकी हमले में अपने 40 साथियों को खो दिया था।
यह देखना जरूरी  है कि जनता के गुस्सा कितना है  और सीआरपीएफ
को उकसाया जा सकता  है या नहीं।  वरिष्ठ सुरक्षा अधिकारी यह कहते हैं: "वे (भारत के बाहर के लोग) जो गुआंतानामो बे के अस्तित्व को आसानी से भूल गए हैं वे आज कश्मीर के बारे में उत्सुक हैं।"
2016 में हिजबुल कमांडर बुरहान वानी के मारे जाने के बाद पहले हफ्ते में करीब 40 मौतें हुई थीं। उग्रवादियों द्वारा मारे गए एक दुकानदार को छोड़कर, धारा 370 के निरसन के बाद पहले चार हफ्तों में कोई नहीं मरा है। इसका श्रेय सुरक्षा बलों को जाना चाहिए।
घाटी में अग्रिम पंक्ति के लोग विश्वास-निर्माण के उपाय कर रहे हैं। राजनीतिक वर्ग को सेवा करनी चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं है।  सेनाओं में कश्मीरियों के  दुष्प्रचार  के मुकाबला करने के लिए प्रयास होना चाहिए। सुरक्षा बलों को के लिए संयम बनाए रखने के निर्देश के तहत  लोगों को अपनी हताशा और गुस्से को तब तक दूर करने देते हैं जब तक कि उनके अपने जीवन के लिए कोई खतरा नहीं है। लेकिन सुरक्षा बल केवल इतना ही कर सकते हैं। राजनीतिक शून्य को लंबे समय तक बनाये नहीं रखा जाना  चाहिए। सुरक्षा प्रतिष्ठान की उम्मीद उत्तेजित कश्मीरियों पर जल्द से जल्द कामयाब होती जा रही है और धारा 370 के उल्लंघन को एक फितूर मानने के रूप में सामने दिखाई पड़ती है।   केंद्रीय विकास पैकेज और नौकरियों और निवेश के वादों से भी कश्मीरियों के पिघल जाने की उम्मीद है।
पिछले हफ्ते  राज्यपाल सत्य पाल मलिक द्वारा कश्मीर के विकास के बारे में ग्रामीणों को यह कहते सुना गया। कुछ युवा एक बुजुर्ग व्यक्ति के  सवालों के जवाब में मुस्कुराते हुए
  कहते हैं: “क्या यह विकास के बारे में बात करने का समय है? हम खत्म हो गए हैं। कृपया छोड़ दें। "हम समझ सकते थे।
विकास के विषय पर  कश्मीरी नौजवानों अक्सर यह कहते सुना जाता है कि अन्य हिस्से के लोग कश्मीरी को गरीब समझते  हैं और मोदी हमें खरीद सकते हैं। एक अकुशल मजदूर को आप कितना भुगतान करते हैं - एक दिन में 350 रु। हम इन प्रवासी मजदूरों (ज्यादातर उत्तर भारत से) को प्रतिदिन 750 रुपये का भुगतान करते हैं। क्या आपने यहां किसी भिखारी को देखा है? अपने विकास और नौकरियों को बनाए रखें। ”हालांकि वे घमंड में आ सकते हैं। बुरहान वानी की हत्या के बाद शुरू हुए आंदोलन के बीच, बीएसएफ में 100 रिक्त पदों के लिए 15,000 आवेदकों ने आवेदन किया था।
घाटी में आज बहुत निराशावाद  है, लेकिन इससे भविष्य के बारे में कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता । अगर कश्मीरियों को उपचुनावों को नए सिरे से शुरू कराने का  फैसला किया जाए तो केंद्र अभी भी सही साबित हो सकता है। लेकिन ऐसा होने के लिए, केंद्र, विशेष रूप से सत्तारूढ़ दल, को कुछ समझौते करने के लिए तैयार होना चाहिए।
नेशनल कॉन्फ्रेंस (नेकां) और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) का साथ अप्रासंगिक है और कांग्रेस एक मामूली खिलाड़ी बन कर रह गयी है। ऐसे में   भाजपा जम्मू- कश्मीर में अपने दम पर सत्ता में आ   सकती है।  चुनावों में कश्मीर की मुख्यधारा की पार्टियों की भागीदारी पर एक बड़ा सवालिया निशान है वह कि यदि उनके साथ सरकार बनती  है तो वह   कुछ समय के लिए ही है। नेकां और पीडीपी प्रमुख अभी भी हिरासत में हैं और केंद्र के पास उन्हें तत्काल छोड़ने  की कोई योजना भी नहीं है। रिहा होने के बाद भी, ये पूर्व मुख्यमंत्री, जो आज घाटी में ‘भारत समर्थक’ नेता के रूप में पहले से ही मशहूर हैं, चुनाव में भाग लेने के लिए और बिना वास्तविक शक्ति वाले यूटी सीएम के पद के लिए चुनाव चाहेंगे।  इन पार्टियों के चुनावों से दूर रहने की स्थिति में, जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश की एक विघटित विधान सभा का गठन सही नहीं  होगा।
1987 में  विधानसभा चुनाव के परिणाम को देखें तो पता चलेगा कि   मुस्लिम संयुक्त मोर्चा ने बेईमानी के साथ फारूक अब्दुल्ला को मुख्यमंत्री के रूप में फिर से स्थापित करने के लिए धांधली की। यह आने वाले वर्षों में घाटी में रक्तपात के लिए उकसावा था। संयोग से यूसुफ शाह ,ए.के. सैयद सलाहुद्दीन ने मुस्लिम संयुक्त मोर्चा टिकट पर 1987 के चुनाव लड़े  थे और   हार गए थे। वह प्रमुख आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन में चला गया। इधर चुनाव में विलंब ,
भले ही  जम्मू-कश्मीर केन्द्र शासित प्रदेश में भाजपा को सत्ताधारी पार्टी के रूप में स्थापित करता हो,  से अधिक नुकसान की संभावना है। इस समय, कोई भी व्यक्ति प्रधानमंत्री के रूप में यूटी में किसी भी वैकल्पिक राजनीतिक नेतृत्व को उभरता नहीं देख सकता है।
इस बीच, केंद्र गवर्नर मलिक को एक लेफ्टिनेंट गवर्नर के पद से बदल   सकता है। स्थानीय राजनीतिक नेतृत्व की अनुपस्थिति में, जम्मू या कश्मीर का एक एलजी शायद एक साथी कश्मीरी के साथ बेहतर तरीके से जुड़ेगा।  घायल ईगो पर एक मरहम  होगा।
यह भाजपा द्वारा बड़े राष्ट्रीय हित के लिए एक बलिदान होगा। दूसरा बलिदान जो भाजपा को करना चाहिए, वह कि चूंकि कश्मीरियों से   राज्य  से विशेष दर्जा छीन लिया गया है अब उनके घायल ईगो पर नमक नहीं छिड़कना चाहिए। । हालांकि सरकार के करीबी लोगों  का दावा है कि मोदी ने मंत्रियों और सांसदों को निर्देश दिया है कि धारा 370 पर अधिक जश्न न मनाएं।  पार्टी की एक अलग योजना है। भाजपा ने धारा 370 पर रविवार से एक महीने का जन संपर्क अभियान शुरू किया है; यह देश भर में 35 मेगा रैलियां और 370 आउटरीच कार्यक्रम आयोजित करेगा। सत्तारूढ़ दल द्वारा  विजय का ऐसा प्रदर्शन कश्मीरियों को और अलग कर देगा।तीसरा बलिदान भाजपा को बड़े राष्ट्रीय हित के लिए करना चाहिए। अपने नेताओं - कार्यकर्ताओं को इस बारे में बात करने से रोकना चाहिए कि कैसे सभी भारतीय अब कश्मीर में जमीन खरीद सकते हैं या कश्मीरी महिलाओं से शादी कर सकते हैं। जब आप सामान्य कश्मीरियों से बात करते हैं कि वास्तव में उन्हें क्या नुकसान होता है, तो वे अनुच्छेद 370 की बारीकियों के बारे में बात नहीं करते हैं। यह अधिक सामान्य, भावनात्मक मुद्दा है कि उनकी विशेष स्थिति को उनकी सहमति के बिना छीन लिया  गया है। आहत भावनाएं समय के साथ ठीक हो सकती हैं। जो कुछ भी उन्हें लगता है कि उनका मानना ​​है कि  बाहरी लोगों को उनके अधिकारों और विशेषाधिकारों को विभाजित करने और जनसांख्यिकीय परिवर्तनों को प्रभावित करने के लिए योजनाबद्ध तरीके से कश्मीर में लाया जाएगा।  इसपर सरकार को सोचना चाहिए।

Tuesday, September 3, 2019

कुलभूषण को काउंसलर एक्सेस

कुलभूषण को काउंसलर एक्सेस

पाकिस्तान की जेलों में बंद भारतीय नौसेना अधिकारी कुलभूषण जाधव को पहली बार भारतीय राजनयिक से मुलाकात करने का अवसर दिया गया। इस मुलाकात का अवसर अंतरराष्ट्रीय अदालत द्वारा पाकिस्तान पर बनाए गए दबाव के फलस्वरूप प्राप्त हुआ। अंतरराष्ट्रीय अदालत ने अपने फैसले में कहा था कि पाकिस्तान कुलभूषण जाधव मामले में पुनर्विचार करे और उसकी मुलाकात भारतीय अधिकारियों से करने दे । कुलभूषण जाधव को 3 मार्च  2016 को पाकिस्तान ने गिरफ्तार किया था उस पर आरोप था कि वह जासूसी कर रहा था और आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा था। उसे फांसी की सजा सुनाई गई थी लेकिन अंतरराष्ट्रीय कोर्ट ने उसे रोक दिया। पाकिस्तान में तैनात भारत के डिप्टी हाई कमिश्नर गौरव आहलूवालिया की कुलभूषण से यह मुलाकात एक सब जेल में हुई।    पाकिस्तान सरकार द्वारा करवाई गई यह मुलाकात लगभग 2 घंटे तक चली मुलाकात के पहले पाकिस्तान ने इसकी जगह बदल दी थी।  यह पता नहीं चला है मुलाकात हुई कहां? गौरव अहलूवालिया के मुताबिक पाकिस्तानी अधिकारी   डॉक्टर मोहम्मद फैसल के साथ पहले बातचीत हुई । भारत ने आखरी बार अप्रैल 2017 में जाधव के काउंसलर एक्सेस अनुरोध किया था। यह पाकिस्तान को दिया गया सोलहवां आवेदन था। जब पाकिस्तान ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया तो भारत में मई 2017 में यह मामला आईसीजी ने पेश किया। पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की कोशिशों से जाधव की मां और पत्नी ने  उनसे  जेल में मुलाकात की थी। विदेश मंत्रालय के अनुसार कुलभूषण पर पाकिस्तान का भारी दबाव था। उनकी बातचीत से ही महसूस हो रहा था और इसी कारण कुलभूषण तोते की तरह बयान दे रहे थे। भारत के विदेश मंत्रालय ने इस मुलाकात के बाद कहा है कि जैसे ही पूरी जानकारी मिलेगी आगे की कार्रवाई की जाएगी। विदेश मंत्रालय की ओर से यह भी कहा गया कि इस बात की भी जांच होगी कि क्या कुलभूषण के मामले में अंतरराष्ट्रीय अदालत के आदेशों पर अमल किया जा रहा है या नहीं? विदेश मंत्रालय के बयान के मुताबिक सरकार कुलभूषण जाधव को न्याय दिलाने और स्वदेश वापस लाने के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध है।
       इसे संयोग  ही कहा जा सकता है कि करतारपुर गलियारा और जाधव की काउंसलर एक्सेस दो ऐसे विषय हैं जिसने भारत और पाकिस्तान के बीच एक छोटी सी खिड़की खोल रखी है वरना कश्मीर पर जो तनाव है उससे तो सारे दरवाजे ही बंद थे । भारत को पूर्ण और अबाध काउंसलर एक्सेस दिए जाने की बात थी इसके बावजूद भारत सरकार की ओर से जारी बयान में मुलाकात के वातावरण इत्यादि के बारे में कुछ नहीं कहा गया । जबकि पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने कहा था कि भारत को पहले ही बता दिया गया था की यह मुलाकात पूरी तरह रिकॉर्ड की जाएगी और मुलाकात के दौरान पाकिस्तान सरकार से अधिकारी वहां मौजूद रहेंगे। वस्तुतः इस मुलाकात के बाद भारत ने पहले इस मामले पर बयान जारी किया। इसी बयान में बताया गया जाधव काफी दबाव में थे। भारत के बयान में और कुछ नहीं था। इसका अर्थ है कि वह अपने राजनयिक से रिपोर्ट प्राप्त होने के बाद  दोबारा बयान जारी करेगा। विदेश मंत्रालय के बयान में कहा गया है कि भारतीय राजनयिक से रिपोर्ट प्राप्त होने के बाद ही आगे की कार्रवाई पर विचार किया जाएगा। बात अबाध और संपूर्ण काउंसलर एक्सेस की थी इसका अर्थ  कि जाधव की भारतीय राजनयिक से अकेले में मुलाकात होगी। उसमें पाकिस्तान के  किसी अधिकारी की मौजूदगी या इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्डिंग कि कोई सुविधा नहीं होगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इस बारे में भारत का कहना है कि वह इस मुलाकात में केवल कुलभूषण की सेहत और कुशलता को जानना चाहते थे। अब साउथ ब्लॉक में जो कानाफूसी चल रही है उसके अनुसार जब अहलूवालिया  की रिपोर्ट भारत आएगी तो हालात को समझने में सहूलियत होगी।  इसके बाद ही कोई कदम उठाया जा सकता है।

Monday, September 2, 2019

आर्थिक मंदी और सरकार की घोषणाएं

आर्थिक मंदी और सरकार की घोषणाएं

हमारे देश में सियासत का एक बहुत पुराना चलन है कि हमारे नेता आर्थिक सुधारों की पहल तभी करते हैं जब हालात बेकाबू होने लगें। वैसे हर सरकार की कोशिश होती है अर्थव्यवस्था को लेकर सुर्खियां ना बनें लेकिन इस विषय पर सुर्खियों का बनना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना अर्थव्यवस्था को संभालने का प्रयास करना। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने पिछले हफ्ते पत्रकारों से बातचीत का फैसला इसलिए किया कि इसके तुरंत बाद स्पष्ट किया गया कि मोदी जी के  कार्यकाल में गुजरे 6 वर्ष में चालू तिमाही ही ऐसी थी जिसमें जीडीपी की वृद्धि दर सबसे कम रही और उत्पादन में सबसे कम 0.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इसी के बाद वित्त मंत्री ने बैंकिंग सेक्टर में धमाका किया। एक ऐसी बिजली चमकाई जिसके आगे यह आंकड़े फीके पड़ गए। अब नए हालात में एक  दृश्य सामने है। वह कि अर्थव्यवस्था की रफ्तार 2013 के दिनों की तुलना में कम है। पिछली चार तिमाहियों में वृद्धि दर 6.1 प्रतिशत थी परंतु पिछली तिमाही में यह वृद्धि दर मात्र 5% हो गई और चालू तिमाही के लिए संभावनाएं कम ही हैं।   कहा जा सकता है कि 2012 - 13 के बाद से सबसे धीमी वार्षिक वृद्धि दर इस वर्ष होगी।
        एक  आम धारणा है कि आर्थिक वृद्धि का संकट अचानक पिछले कुछ महीने से आया है।  अब तक कुछ ऐसा हुआ भी है। इसके कई मानक दिखते हैं । उदाहरण के लिए इस साल की शुरुआत मैं आई एल एंड एफ एस में  गिरावट से यह दिखता है। उसी समय वाहन क्षेत्र में बिक्री घटने लगी थी, हवाई भाड़े में वृद्धि होने लगी और हवाई सफर महंगा हो गया। इस के बावजूद जीडीपी के जो आंकड़े हैं वह अनुमानित ही हैं। लेकिन सरकार के आलोचक यह साफ कहते हैं पाए जा रहे हैं कि इस संकट का पूर्वानुमान लगाया जा सकता था। अंत में जब बिस्किट  की बिक्री घटने लगी और बिस्किट उत्पादन क्षेत्र में छंटनी होने लगी तो अर्थव्यवस्था की खस्ता हालत के बारे में बात होने लगी। अब बिस्कुट जैसी वस्तु को सामने रखकर कृषि और गैर कृषि रोजगार में वास्तविक ग्रामीण मजदूरी के संदर्भ में विचार करें । सरकार ने कई कदमों की घोषणा की लेकिन इसके बावजूद इसकी वित्तीय हालत मुश्किल में है। इस संदर्भ में जीएसटी पर सीएजी की रिपोर्ट साफ-साफ बताती हैं कि  मोदी सरकार ने सुधार की जो कोशिशें की थीं वह कामयाब नहीं रहीं और राजस्व संग्रह के मामले में आगे भी निराश करती रहेगी। अब वर्तमान मोदी  सरकार को इसके  कारण हुए नुकसान को कम करने के प्रयास करने होंगे। इस बीच कठिन वृद्धि दरों को हासिल करने पर जोर देना। अर्थव्यवस्था को मौजूदा स्थिति से निकलने के लिए गंभीरता से सोचना होगा।
         सरकार ने ऐसी अपशकुनी खबरों का प्रभाव कम करने के लिए जवाबी परिदृश्य तैयार किया और उभरती स्थिति से मुकाबले की कार्रवाई की। क्योंकि क्रेडिट फ्लो में बाधा की शिकायत हमेशा रही है इसलिए इसे दूर करने के और बैंकों को फिर से पूंजी देने के उद्देश्य से सरकार ने 10 बैंकों को मिलाकर 4 बैंक बनाने की घोषणा की। इसका मतलब था  मजबूत बैलेंस शीट वाली संस्थाओं का निर्माण करना।  इसके बाद दूसरी घोषणा हुई। ताबड़तोड़ बजट में टैक्स की कटौती  और खुदरा क्षेत्र के दरवाजे विदेशी निवेश के लिए खोले जाने लगे और चीनी निर्यात के लिए के लिए बड़ी सब्सिडी देने का ऐलान किया गया ताकि चीनी मिलें इस पैसे से बकाया का भुगतान कर सकें। रणनीति के लिहाज से लगातार घोषणा एक बड़े पैकेज की घोषणा से शायद बेहतर है। क्योंकि एक बड़ा पैकेज अगर कामयाब नहीं हो सका तो हालात पहले से भी ज्यादा बिगड़  जाएंगे जबकि निरंतर घोषणा में कम जोखिम  होती है और इसमें ज्यादा खुलेपन की गुंजाइश होती है। उचित तो यह होता है कि सरकार इसे तब तक जारी रखे जब तक इसके सामूहिक असर के कारण लोग भविष्य के बारे में दूसरे तरह से ना सोचने लगें  एवं ज्यादा खर्च न करने लगें और निवेश करने लगें। इस नजरिए से देखें तो सरकार को अभी कुछ और सुधार की जरूरत है ताकि लोगों का मूड सरकार की उम्मीद के मुताबिक बदले। अर्थव्यवस्था में निवेश एवं खर्च के लिए जरूरी है कि लोगों के उपभोग में बदलाव आना चाहिए और कंपनियां नकदी के संकट से निवेश में परहेज करने से ना डरें। यह तब तक नहीं हो सकता जब तक उपभोग में बदलाव ना आये और बिक्री में सुधार ना हो। बैंकरों का मानना है कि कॉरपोरेट क्रेडिट की मांग घटी है। अभी त्योहारों का सीजन शुरू हो चुका है और उम्मीद है कि खुदरा मांग बढ़ेगी। क्योंकि लोग इसी अवसर के लिए अपनी जरूरतों को टाल कर रखे हुए थे । लेकिन गन्ना किसानों की समस्याओं को निपटाने के अलावा सरकार ने ग्रामीण मांग में तेजी के लिए बहुत कोशिश नहीं की है। यहां यह गौर करने की बात है कि कृषि कीमतें लगातार  कम ही रही  हैं। इसलिए ग्रामीण मजदूरी भी लगभग स्थिर रही है। अतः  चालू परिदृश्य में बदलाव लाने के लिए सरकार को अभी बहुत कुछ करना है।


Sunday, September 1, 2019

19 लाख से ज्यादा लोग बेवतन

19 लाख से ज्यादा लोग बेवतन

असम में नेशनल सिटीजन रजिस्टर की आखिरी सूची जारी हो चुकी है और इसमें 19 लाख छह हज़ार 657 लोगों को बे वतन करार दिया गया है। नई लिस्ट में 3 लाख 11 हजार से कुछ ज्यादा लोगों को शामिल किया गया है। इस लिस्ट के जारी होने के बाद केंद्र सरकार और असम के मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल ने असम की जनता को आश्वस्त किया है सूची में नाम ना होने पर किसी व्यक्ति को हिरासत में नहीं लिया जाएगा और उसे 120 दिन के भीतर अपनी नागरिकता साबित करने के हर मौके दिए जाएंगे। असम के मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल में जनता को आश्वस्त किया है कि इस सूची में नाम नहीं होने पर वह घबराए नहीं शांति बनाए रखें। इस बीच दिल्ली बीजेपी के अध्यक्ष मनोज तिवारी ने मांग की है कि दिल्ली में भी एनआरसी को लागू किया जाना चाहिए। उधर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने एनआरसी को मुस्लिम उत्पीड़न का जरिया बताया है। बहुत व्यापक पैमाने पर एनआरसी को हिंदू मुस्लिम विरोध का झगड़ा बताया जा रहा है । यह खुद में एक सियासत है विरोध को सामने रख कर भाजपा कह सकती है विरोध करने वाले दल मुसलमानों के साथ खड़े हैं। इस सारी प्रक्रिया में मुस्लिमों को पीड़ित बताने की कोशिश की जा रही है। अब हालत यह है कि जब यह हिंदू मुसलमान का झगड़ा हो ही गया तो सच्ची जानकारी की तलाश की मेहनत कौन करे, इसका झंझट कौन पाले। दरअसल एनआरसी मुस्लिम विरोधी नहीं है, यह बंगाली विरोधी है अब वे हिंदू बंगाली हों या मुस्लिम। यह प्रक्रिया जटिल है कि बंगाली विरोधी इस मुहिम की चपेट में गोरखा समुदाय जैसे छोटे-मोटे समूह भी आ गए यही नहीं मातुआ  समुदाय को भी से खतरा हो गया है।
       पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एनआरसी की अंतिम लिस्ट को एक विफलता बताया और कहा कि इससे उन सभी का पर्दाफाश हो गया जो इसे लेकर राजनीतिक फायदा हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं ममता बनर्जी ने बड़ी संख्या में बंगालियों को एनआरसी की आखरी सूची से बाहर होने पर चिंता जताई है। उन्होंने ट्वीट किया है कि " एनआरसी की नाकामी ने उन सभी लोगों के चेहरे पर से पर्दा हटा दिया है जो इससे राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश कर रहे हैं । उन्हें देश को जवाब देना पड़ेगा।" आडवाणी से अमित शाह भाजपा लगातार अवैध बांग्लादेशियों का मामला उठाती रही है और उन्हें यहां से हटाने की बात कर रही है। भाजपा सरकार ने कम से कम दो बार यह संकेत दिया है कि जिनके नाम लिस्ट में नहीं है उन्हें वापस भेजा जाएगा लेकिन विगत 4 अगस्त 2018 को तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह बांग्लादेश के गृहमंत्री असदजुम्मा खान को आश्वस्त किया कि उन्हें भगाने की बात नहीं चल रही है। वर्तमान विदेश मंत्री एस जयशंकर ने हाल की अपनी ढाका यात्रा के दौरान भी कहा है कि एनआरसी एक आंतरिक मामला है और इसमें किसी को हटाने का कोई प्रश्न नहीं है। लेकिन भाजपा के लिए अभी खेल नहीं खत्म हुआ है। उसका प्रयास है कि कोई सही आदमी वंचित न हो और गलत आदमी लाभ प्राप्त करें। लेकिन असम के लोग एनआरसी से बाहर लोगों की संख्या को कम मान रहे हैं।  उनका मानना है कि बहुत से लोगों को छोड़ दिया गया है। दूसरी तरफ इस संख्या को देखकर प्रदेश भाजपा बहुत खुश नहीं है। उसका मानना है कि राज्य की आबादी के लगभग 6% लोगों को इसमें शामिल  किया गया है और अब यह लोग असम के फॉरेन ट्रिब्यूनल में अपील करेंगे और उस ट्रिब्यूनल के न्याय स्थिति किसी से छिपी नहीं है । हालांकि एनआरसी प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट द्वारा आरंभ की गई है। लेकिन इसे लागू किए जाने में बहुत सियासत है। एक तरह से यह असम की आंतरिक राजनीति में शामिल हो गया कि बाहर के लोग विरोधी है अब इस श्रेणी में बंगाली हिंदू और मुसलमान, नेपाली और हिंदी भाषा  लोग भी शामिल हो गए हैं। एम आर सी का मामला हां - में फंस गया है और हो सकता है कि आने वाले दिनों में इसे लेकर कोई आंदोलन खड़ा हो जाए  या फिर यह अदालतों का चक्कर लगाता रहे। इस पूरी की पूरी कवायद का कोई असर ही ना हो तथा एक बहुत बड़ी संख्या में जनता खुद को लगातार असुरक्षित महसूस करती रहे।