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Friday, July 29, 2011

भारत- पाक वार्ता : हवा का ताजा झोंका


हरिराम पाण्डेय
28 जुलाई 2011
युवा और उचित रूप में दूरदर्शी पाकिस्तान की विदेश मंत्री सुश्री हिना रब्बानी खार ताजा हवा के रूप में भारत आयीं। दो दिनों की इस यात्रा के दौरान नयी दिल्ली में अपने भारतीय समकक्ष एस एम कृष्णा से बातचीत एवं विभिन्न मसलों पर विचार- विमर्श हुआ। इसके पहले साल जुलाई में ही इस्लामाबाद में पाकिस्तान के पूर्ववर्ती विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी से कृष्णा से वार्ता में जिन मसलों पर विचार किया गया था उनमें प्रगति की समीक्षा की गयी। पिछली बैठक में कुरैशी के कारण वार्ता लगभग कूटनीतिक आपदा में बदलने वाली थी। पिछली बैठक के अंत में संयुक्त प्रेस कान्फ्रेंस के दौरान कुरैशी के उपेक्षाजनक बर्ताव, खासकर कश्मीर के मामले में, करने पर बात बिगड़ï गयी थी। इसे सुधारने में लम्बा समय लग गया। फरवरी 2011 में सार्क सम्मेलन के दौरान थिम्पू में दोनों देशों के विदेश सचिवों में वार्ता के बाद विश्वकप क्रिकेट मैच में आये पाकिस्तान के प्रधानमंत्री से भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की छोटी सी मुलाकात के बाद हालात कुछ सकारात्मक हुए। इस बार उन वार्ताओं में तयशुदा मुद्दों पर हुई प्रगति की समीक्षा करने हिना भारत आयी थीं। हालांकि पाकिस्तान की नवनियुक्त विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार के रुख को लेकर कुछ हद तक आशंकाएं भी जताई जा रही थीं। जिस तरह भारत आते ही उन्होंने कश्मीर के अलगाववादी नेताओं से मुलाकात की, उससे वार्ता की सफलता को लेकर लोगों के मन में सवाल उठ खड़े हुए थे, पर जल्दी ही भ्रम दूर हो गया।
पिछले दो दशकों की बातचीत में पहली बार पाकिस्तान ने कश्मीर का मुद्दा नहीं उठाया है। साझा बयान में पाक विदेश मंत्री ने एक बार भी 'कश्मीरÓ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। निश्चय ही यह पाकिस्तान के बदलते रवैये का संकेत है। खार जैसी युवा महिला को अपना विदेश मंत्री बनाकर पाकिस्तान सरकार ने जता दिया है कि वह पुराने माइंडसेट से बाहर आकर बदलते वक्त के अनुरूप अपनी नीतियां बनाना चाहती है। उसने यह भी संकेत करने की कोशिश की है कि पाकिस्तान कठमुल्लाओं से प्रभावित - निर्देशित होने वाला मुल्क नहीं है, बल्कि एक आधुनिक राष्ट्र है, जिसमें नई पीढ़ी की महिलाओं को न सिर्फ उच्च शिक्षा हासिल करने की आजादी है, बल्कि वे सियासत और राजनय में भी शीर्ष पर पहुंच सकती हैं। दरअसल पाकिस्तान अपनी पुरानी छवि से मुक्त होना चाहता है। खार ने एक खास बात कही है कि भारत और पाकिस्तान की नई पीढ़ी आपसी संबंधों को लेकर उस तरह नहीं सोचती जिस तरह पुरानी पीढ़ी सोचती थी। इस वक्तव्य में पाकिस्तान के नये सोच की झलक है। पाकिस्तान की युवा पीढ़ी का पूरी दुनिया से संपर्क बढ़ा है। वह भी और मुल्कों के लोगों की तरह तरक्की और खुशहाली चाहती है। पर वह जानती है कि ऐसा तभी संभव है जब दूसरे देशों से मधुर संबंध हों, उनमें आपसी आवाजाही और व्यापार में बढ़ोतरी हो। उसे यह मंजूर नहीं कि कट्टरपंथियों की जिद की वजह से इस प्रक्रिया में कोई बाधा आये। भारत भी तो यही कहता आ रहा है। हम यही चाहते हैं कि पाकिस्तान में कट्टरपंथियों की जगह आधुनिक सोच वाले लोगों को बढ़ावा मिले। आवश्यकता इस बात की है कि पाकिस्तानी राजनेता भारत के प्रति अपनी ग्रंथियों से मुक्त होकर द्विपक्षीय सहयोग बढ़ाने को लेकर दृढ़ता दिखाएं, ताकि दोनों तरफ के लोगों के लिए रोजी-रोजगार के अवसर बढ़ें, उनके पारंपरिक सांस्कृतिक बंधन और मजबूत हों। ठीक है कि सारे मतभेद रातोंरात नहीं खत्म होने वाले, लेकिन दोस्ती को लेकर दोनों पक्षों के इरादे मजबूत होंगे तो एक न एक दिन हम आपस की तमाम उलझनें सुलझा ही लेंगे। विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा ने ठीक ही कहा है कि भारत-पाक का रिश्ता सही रास्ते पर आ चुका है। अब इस पर मजबूती के साथ आगे बढऩे की जरूरत है। लेकिन जो हालात हैं वे हिना की कम तजुर्बेकार और जवान ऐसे नेता के वश की बात नहीं है,जिनका पहला ही कदम भारत पाकिस्तान कूटनीति पर पड़ा है। सबसे पहले जरूरी है कि पाकिस्तानी सेना और आई एस आई के सोच में बदलाव आये। सेना को भारत के प्रति अपने सोच में बदलाव की जरूरत को महसूस करना ही होगा। खबर है कि अमरीका के हाथों अपमान के बाद पाकिस्तानी सेना आत्मनिरीक्षण के दौर से गुजर रही है। यदि इससे सेना के सोच में बदलाव आया तो इस क्षेत्र की सियासी- कूटनीतिक हालत बदल सकती है।

हिंदुत्व और नार्वे का खून खराबा


हरिराम पाण्डेय
27 जुलाई 2011
ओस्लो में 32 वर्षीय नार्वे वासी ब्रेविक ने धमाके कर 80 युवकों को मौत के घाट उतार दिया। मीडिया में कहा गया कि वह दक्षिणपंथी विचारधारा के आवेश में था, यहां कहने का अर्थ है कि वह हिंदुत्व की विचारधारा के आवेश में था। इन खबरों से हिंदुत्व के बारे में सुसंगत सोच वाले लोगों को बड़ी पीड़ा हुई और साथ ही वे सोचने में नाकामयाब रहे कि आखिर ऐसा कैसे हुआ और क्यों हुआ? जहां तक ब्रेविक का सवाल है तो इस खून खराबे के पहले उसकी सनक से ना आसपास का समाज वाकिफ था और ना पुलिस को इसका इल्म था। इस घटना के बाद सरकारी जांच और निजी अन्वेषणों से पता चला कि वह कुछ समय से इस सनक की गिरफ्त में था और इसके बारे में किसी को कुछ मालूम नहीं था। वह अर्से से विभिन्न वेब साइटों पर अपने विचारों को अभिव्यक्त करता रहा था। मनोविज्ञानियों का कहना है कि सनक कुछ अपने भीतर पनपती है और कुछ बाहरी उद्दीपक तत्वों से प्रोत्साहित होती है। बाहरी उद्दीपक तत्व ऐसे विचारों को अक्सर गलत दिशा की ओर मोड़ देते हैं। ब्रेविक की मनोवृत्ति भी कुदरत के इस नियम से अलग नहीं है। अच्छी शिक्षा दीक्षा के बावजूद ब्रेविक के दिलोदिमाग में सनक और अविवेकपूर्ण विचारों ने जन्म लिया तथा इंटरनेट के माध्यम से अन्य देशों के धर्म और संस्कृति से सीधे सम्पर्क के बावजूद उसकी सनक और विवेकहीनता में कमी नहीं आयी। उसकी इस अविवेकपूर्ण विचारधारा को उद्दीप्त करने वाले तत्वों में इस्लामविरोधी कट्टïर हिंदुत्व विचारधारा भी एक थी। उसके भीतर दो तरह की विचारधाराएं थीं पहली तो इस्लाम विरोधी और दूसरी इस्लाम से बढ़ते खतरे को नहीं भांप कर उसके प्रति उदारता से पैदा हुआ गुस्सा। हालांकि ये दोनों छद्म हैं और इनका हकीकत से कोई लेना देना नहीं है। यह विचारधारा ठीक वैसी है जैसे किसी बच्चे को अंधेरे में भूत का भय लगता है। इस्लाम के प्रति कथित खतरे के भय ने उसे संभवत: हिंदू संगठनों और कट्टïर आदर्शों की साइबर दुनिया में पहुंचाया। वह पहले से ही मुतमईन था कि इस्लाम खतरनाक है अत: जब वह वेब की दुनिया में हिंदू संगठनों के उन लेखों से दो- चार हुआ जिसमें मुसलमानों के हाथों हिंदुओं को सताये जाने और मुसलमानों के अवैध घुसपैठों के झूठे- सच्चे जिक्र थे। वह इन लेखों को इस्लाम के खराब होने के विषयनिष्ठï विश्लेषण मानने लगा। ऐसे में इस निष्कर्ष पर पहुंचना गलत होगा कि हिंदुत्वविचारों के प्रति उसकी चोंचलेबाजी ने उसके भीतर पल रहे इस्लामविरोधी क्रोध को उद्दीप्त कर दिया है। इसके विपरीत ऐसा लगता है कि वह हिंदुत्ववादी वेब साइटों पर पढ़े गये विचारों के आलोक में अपने विश्लेषण को सही मानता था। अपने देश में गुजरात और अयोध्या में भीड़ की सनक के उदाहरण हमने देखे हैं पर किसी एक आदमी की सनक का ऐसा उदाहरण अभी देखने को नहीं मिला है। प्रतिबद्धता के बल पर भीड़ की सनक को नियंत्रित किया जा सकता है। यह दूसरी बात है कि हमारे देश में अयोध्या और गुजरात जैसी सामूहिक सनक की घटनाओं पर काबू नहीं किया जा सका। इसका कारण था कि सरकार उसे काबू करने के प्रति प्रतिबद्ध नहीं थी। जहां तक किसी एक आदमी की सनक का प्रश्न है तो कोई भी सरकार चाहे वह कितनी भी प्रतिबद्ध क्यों ना हो उसे काबू नहीं किया जा सकता है। ऐसे में हिंदुत्व का या किसी भी धर्म का प्रचार करने वालों को गंभीरता से सोचना चाहिये।

फकत करप्शन ही मसला नहीं है


हरिराम पाण्डेय
26जुलाई 2011
अगर देश के टी वी चैनलों और पत्रिकाओं की मानें तो यहां सबसे बड़ी समस्या करप्शन (भ्रष्टïाचार) ही है। लेकिन शायद यह सच नहीं है। भ्रष्टïाचार दरअसल मध्यवर्गीय आवेश और उसका ध्यान बंटाने का प्रपंच है। बेशक भ्रष्टïाचार बहुत बढ़ा हुआ है और ऐसा भी नहीं है कि पिछली सरकारों में यह बहुत कम था। यहां इरादा यूपीए सरकार को दोषमुक्त करना या उसे साफसुथरा बताना नहीं है। सच तो यह है कि यह सरकार भ्रष्टïाचार पर लगाम लगाने और नाजायज तौर पर धन संग्रह को रोकने के लिये कोशिशें कर रही है और उसकी कोशिशें रंग भी ला रही है। फिर भी खबरों और रहस्योद्घाटनों का रेला लगातार आ रहा है, इसका कारण है कि इस सरकार में पहले की सरकारों से कम गोपनीयता है और खबरें पोशीदा नहीं रह पाती हैं। इसलिये भ्रष्टïाचार की खबरें ज्यादा सुनायी - दिखायी पड़ती हैं और हम कहते हैं कि अबसे ज्यादा भ्रष्टïाचार कभी था ही नहीं। सच तो यह है कि अगर कोई भ्रष्टïाचार से उत्पन्न धन के आंकड़े और गैरकानूनी ढंग से रुपयों की आय का हिसाब तैयार करे तथा बेईमानियों का लेखा- जोखा बनाये तो पता चलेगा कि हालात पहले से बहुत खराब नहीं हैं। अगर हम महंगाई और विकास की दरों को उस हिसाब में से निकाल दें तो हालात वही दिखेंगे जो पहले थे। यही नहीं अर्थ व्यवस्था को मुक्त करने और लाइसेंस तथा परमिट राज को खत्म करने एवं निगरानी की व्यवस्था सुधरने के बाद भ्रष्टïाचार घटा है। तब क्या कारण है कि मध्यवर्ग इससे आवेशित रहता है जबकि कई समस्याएं हैं जिससे मध्यवर्गीय समाज परेशान और पीडि़त है। मसलन घर, पीने का साफ पानी, सुरक्षित यातायात व्यवस्था, बिजली, सस्ता ईंधन और बैंकिंग और बुनियादी चिकित्सा सुविधाएं इत्यादि ऐसी समस्याएं हैं जिससे मध्य वर्ग परेशान है पर उसके बारे में कितना छपता या दिखता है अंग्रेजी अथवा एलिट भाषाई मीडिया में? मीडिया में काम करने वाले और उसके महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोगों में मध्यवर्ग का वर्चस्व है। क्या उन्हें नहीं मालूम कि हमारे देश की एक बड़ी आबादी बेहद गंदी बस्तियों में रहती है, यह आबादी एशिया, अफ्रीका या लातिनी अमरीका के कई देशों से ज्यादा है। लेकिन उनकी दशा को सुधारने के लिये कितना लिखा जाता है। वे सब कुछ जानते हैं पर बताना नहीं चाहते। क्योंकि यह इतना विशाल, चुनौतीपूर्ण और बेकाबू है कि उसे याद करना तो दूर वे उसकी बात सोचने से भी डरते हैं जबकि भ्रष्टïाचार उनके एजेंडे में माफिक बैठता है और उसे वे काबू करने के लायक समझते हैं। अब सवाल उठता है, यह काबू करने के लायक क्यों है? इसलिये कि मध्यवर्ग और उच्च वर्ग के लोगों के मुताबिक भ्रष्टïाचार में लिप्त लोगों की संख्या बहुत कम है। कितने लोग हैं? सारे सांसद , विधायक , सरकारी नौकर और थोड़े से कारपोरेट सेठ। ये थोड़े से लोग हैं, बस कुछ हजार। इसलिये ऐसा लगता है कि इनपर काबू पाया जा सकता है। जबकि देश में भूख और गरीबी से पीडि़त लोगों की संख्या लाखों में है और उन्हें उससे मुक्त कराना संभव नहीं है। इसके अलावा भ्रष्टïाचार जाति पांति , वर्ग और राष्टï्रीयता , क्षेत्रीयता और अन्य बातों से प्रभावित नहीं होती और इसके खिलाफ आंदोलन में झंझट भी कम है और लोगों का ध्यान ज्यादा आकर्षित करता है। भीड़ ज्यादा खींचता है और इसके कारणों में विश्लेषण जैसे क्लिष्टï उपायों की जरूरत नहीं होती जबकि कोई कहे कि देश में गरीबी या महंगाई के क्या कारण हैं तो यह बड़ा विकट सवाल हो जायेगा तथा इसमें भारी विवाद भी होगा। भ्रष्टïाचार इस देश की सबसे बड़ी समस्या नहीं है, हां इसे नियंत्रित करना जरूरी है। जबकि इसके प्रति इतना आंदोलन बेशक महत्वपूर्ण मसलों से जनता का ध्यान हटाने की साजिश है।

Tuesday, July 26, 2011

गरीबों की खोज



हरिराम पाण्डेय
25 जुलाई 2011
देशभर के शहरों में रहनेवाले गरीबों के आंकड़े जुटाने के लिए एक जून से सात माह का सर्वे शुरू हो चुका है। इसके साथ ही गरीबों की पहचान के मानदंड पर बहस भी फिर छिड़ गयी है। यह भारतीय लोकतंत्र की विडंबना ही है कि एक तरफ तो यह चुनावी प्रक्रिया में गरीबों की बढ़ती भागीदारी पर गर्व महसूस करता है, दूसरी तरफ इसी भागीदारी ने राजनीतिक और सांख्यिकीय रूप से गरीबों की पहचान को अत्यंत जटिल और चुनौतीपूर्ण बना दिया है। इस हद तक कि हम महात्मा गांधी के उस वाक्य को भी भूल गये, जिसमें उन्होंने कहा था कि कोई भी कदम उठाने से पहले सबसे गरीब व्यक्ति के चेहरे को याद करें और खुद से पूछें कि आपका यह कदम क्या उसके किसी काम आयेगा?
गरीबी की हकीकत जानने और तथाकथित बीपीएल (गरीबी रेखा से नीचे) सूची तैयार करने (जिसके लिए ग्रामीण विकास विभाग ने 1992 में प्रयास शुरू किये थे) से होने वाले नफा-नुकसान को लेकर भ्रम की स्थिति के बीच, बताया गया है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों ने एक नयी चर्चा शुरू की है कि फ्रिज, लैंडलाइन टेलीफोन और दोपहिया वाहन जैसी चीजें अब आम आदमी की पहुंच में हैं और इन्हें रखना अमीर होने का सबूत नहीं रह गया है।
खुद योजना आयोग यह मान चुका है कि देश में केवल 57 फीसदी गरीबों के पास राशन कार्ड हैं। आयोग यह भी कह चुका है कि अनुदानित मूल्य पर बांटा जा रहा 58 फीसदी अनाज बीपीएल परिवारों तक नहीं पहुंच पाता है और इसके 36 फीसदी हिस्से की कालाबाजारी हो रही है। जनवितरण प्रणाली में जारी भ्रष्टाचार पर जस्टिस वाधवा कमिटी की रिपोर्ट में इसका जिक्र है। महत्वपूर्ण यह भी है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल के कुछ सदस्य देश के विभिन्न भागों में भुखमरी और इससे होने वाली मौतों की खबरों को भी निराधार बताते रहे हैं। नि:संदेह भारत में पिछले दो दशक में कई मिथक टूट चुके हैं।
बावजूद इसके यह विरोधाभास कायम है कि एक ओर यहां अरबपतियों की सूची लंबी होती जा रही है, दूसरी ओर गांवों में महिलाएं अब भी आजीविका के लिए बाहर गये पतियों के घटते वेतन का इंतजार करती हैं। घोटालों के वर्तमान दौर में राजनेता असंभव को संभव करने की कला के लिए बधाई के पात्र हैं, लेकिन गरीबी के मूलभूत तथ्य के प्रति वे लापरवाह होते जा रहे हैं। गरीबी केवल कुछ सामानों या आय से नहीं मापी जा सकती, यह सत्ता और आजादी से लोगों की दूरी को दर्शाती है। गरीब सत्ता द्वारा तय मानदंड के ही शिकार नहीं हैं, बल्कि वे समान अवसर और संस्थागत संसाधनों में भागीदारी से भी वंचित हैं। इसी कारण देश में भूख, भुखमरी और कुपोषण की स्थिति लगातार गंभीर होती जा रही है। ऐसी स्थिति केवल सुदूर उड़ीसा के जनजातीय समुदायों की ही नहीं है, बल्कि मुंबई जैसे महानगर से भी भूख से मौत की खबरें आती हैं। गरीबी की प्रक्रिया में समाज और कभी-कभी सत्ता भी शोषक की भूमिका निभाती है। इस संदर्भ में राजनीतिक विश्लेषक पार्थ चटर्जी के सामाजिक और राजनीतिक समाज के बीच दूरी संबंधी विचार सार्थक लगते हैं। वे कहते हैं कि भारत के अधिकतर लोगों के पास संविधान की परिकल्पनाओं के मुताबिक मूलभूत अधिकार नहीं हैं। वे न तो सिविल सोसाइटी का हिस्सा हैं और न ही राज्य के संस्थान उन्हें अपना अंग मानते हैं। गरीबों की संख्या कम नहीं हो रही, क्योंकि गरीबी उन्मूलन और ग्रामीण विकास की ज्यादातर सरकारी योजनाएं गरीबों को वंचित और बेसहारा मानकर तैयार की जाती हैं। जबकि सरकार को गरीबों की आवाज और क्षमता पर भरोसा कर देश में गरीबों की संख्या कम करने की योजना तैयार करनी चाहिए। परंपरागत रूप से गरीब लोगों को कम आय वाला और स्वास्थ्य एवं शिक्षा से वंचित समझा जाता है। बीपीएल सूची के आधार पर अलग से बनने वाली विभिन्न योजनाएं उन्हें आगे भी अमानवीय जीवन जीने के लिए विवश करती हैं। संक्षेप में, यह मान लिया जाता है कि गरीबों में सम्मान और स्वाभिमान के साथ जीने की क्षमता ही नहीं है। सामाजिक नीतियां तय करने में इस बात को दरकिनार कर दिया जाता है कि गरीब मानवता को आगे बढ़ाने में बहुत बड़ी सकारात्मक भूमिका निभाते हैं। उपभोक्ताओं के खर्च के बहुप्रचारित सर्वे, जिनके आधार पर भारत का योजना आयोग गरीबी का अनुमान लगाता है, के मुताबिक सामाजिक नीति तैयार करने में सांख्यिकीय अनिश्चितता और हठधर्मिता दिखती है। सरकार की कल्याणकारी योजनाएं गरीबों को सबसे निचले पायदान का व्यक्ति मानकर तैयार की जाती हैं।

भाजपा अकर्मण्य न बने



हरिराम पाण्डेय
23 जुलाई 2011
अवैध खनन मामले में लोकायुक्त द्वारा आरोपी बनाए गये कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी एस येदियुरप्पा को उनके पद से हटाने की मांग अब भाजपा के भीतर से ही उठने लगी है। पार्टी के उपाध्यक्ष और कर्नाटक के पूर्व प्रभारी शांता कुमार ने भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी और वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को लिखे पत्र में यह मांग की है। पत्र में कहा गया है कि येदियुरप्पा के मुख्यमंत्री पद पर बने रहने से देश भर में भाजपा की छवि खराब होगी। पार्टी इस मामले में पहले ही काफी समझौता कर चुकी है। लेकिन अब उसे राज्य में नेतृत्व परिवर्तन के लिए और प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए।Ó भाजपा, हालांकि आधिकारिक रूप से अभी इस बारे में इस आधार पर कुछ कहने से बचती रही है कि लोकायुक्त की रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हुई है।
हालांकि रिपोर्ट में दूसरी पार्टी के बड़े नेताओं के भी नाम हैं लेकिन सत्ताधारी पार्टी होने के नाते सबसे ज्यादा कीचड़ बीजेपी और मुख्यमंत्री पर उछलेगा।
अक्सर पार्टी विद डिफरेंस का नारा देने वाली बीजेपी जब कर्नाटक का जिक्र आता है तो कन्नी काट जाती है। दक्षिण में उसकी पहली सरकार उसके लिए लगातार शर्मिंदगी का सबब बनी हुई है। जमीन के सौदे, राज्यपाल से लगातार टकराव, सीएम और बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं के बीच समस्याएं ऐसी ही कुछ वजहें हैं।
देश में जारी भ्रष्टाचार से आजिज आ चुके लोगों के दिलोदिमाग में इन मामलों से यह आम भावना पुख्ता होगी कि पार्टी विद डिफरेंस होने के बजाय बीजेपी और कांग्रेस में कोई अंतर नहीं है। बहुत ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। जब केंद्र्र में बीजेपी के नेतृत्व में एनडीए सरकार सत्ता में आई थी, तब विश्लेषकों का कहना था कि 'हो सकता है मतदाताओं ने कांग्रेस को कई मौके दिए हों, लेकिन वे (मतदाता) आपको उतने मौके नहीं देने वाले। क्यों? क्योंकि वे उम्मीद करते हैं कि कोई उन्हें बेहतर शासन दे। क्योंकि पार्टी बहुत से वादों के साथ सत्ता में आयी है, अतएव उससे बहुत ज्यादा उम्मीदें हैं और अगर वे बेहतर शासन देने में नाकाम रहते हैं तो इसका मतलब होगा कि लोगों का गुस्सा उनके प्रति और ज्यादा बढ़ जाएगा। इसलिए सबसे पहले उन्हें जनता की भलाई के बारे में सोचना चाहिए। इससे खुश होकर जनता उन्हें अगली बार और अधिक पावर का इनाम देगी। लेकिन यह सब कहना आसान है करना मुश्किल।Ó
यहां यह कहने में जरा भी हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिये कि भ्रष्टïाचार के कुछ नये पैमाने तत्कालीन एनडीए सरकार के कुछ हाई प्रोफाइल मंत्रियों ने ही बनाये थे। इसमें कोई हैरानी नहीं थी जब जनता ने पार्टी को सत्ता से बाहर कर दिया। जब सरकार का कार्यकाल समाप्ति की ओर था, तब हालात संभालने की कुछ कोशिशें हुईं लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी। अब फिर यह डर है कि यह इस बार भी खुद को ऐसे ही मोड़ पर खड़ा पा रही होगी। हालांकि फिलहाल केवल एक राज्य पर शासन को लेकर सवाल उठ रहे हैं, लेकिन इसके परिणाम देशभर में देखने को मिलेंगे। इसमें मीडिया को कवरेज के लिये नया मसाला मिल जायेगा। ईमानदारी से देखा जाए, तो बीजेपी जब सत्तासीन यूपीए और कांग्रेस को भ्रष्टïाचार के मामलों में पकडऩे की कोशिश करती है तब वह खुद कहां इससे अछूती रह जाती है? हमने पिछले कुछ सालों में केन्द्र में अब तक की सबसे करप्ट सरकार देखी है। अगर मौका मिले तो मतदाता इस शासन को जल्द से जल्द समाप्त कर दें। लेकिन, जब वे देखते हैं उनके पास विकल्प ऐसा है तो वे बहुत ही दुविधापूर्ण और ठगा हुआ महसूस करते हैं। बीजेपी और विपक्षी पार्टी में अगर थोड़ी सी भी हिम्मत और विवेक है तो वे ताकतवर नेताओं की खुशामद करने में और समय गंवाने के बजाय उन पर कार्रवाई करें। हो सकता है कि तात्कालिक तौर पर इससे सत्ता का नुकसान हो लेकिन कालांतर में यह उनकी विश्वसनीयता बढ़ाने का काम करेगा।

सपनों को हकीकत में बदलने का वायदा



हरिराम पाण्डेय
22 जुलाई 2011
अल्फ्रेड टेनिसन ने कहा था
'वहां तक मैने भविष्य को निरखा,
इंसानी आंखों से सम्भव हो सकता है जहां तक ,
और उस विश्व के दर्शन किये, वे सारे अजूबे देखे,
जो कभी हकीकत बन जाएंगेÓ

यहां के मशहूर ब्रिगेड परेड ग्राउंड में गुरुवार को पश्चिम बंगाल की पहली महिला मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की विशाल सभा में उनके भाषण में विकास के सपने नहीं दिखे बल्कि विकास की शपथ और प्रतिबद्धता दिखायी - सुनायी दी। सपनों को हकीकत बनाने का अहद महसूस हुआ। सुबह से तेज बारिश और मैदान में घुटनों तक कीचड़ के बावजूद राज्य भर से आए लाखों लोगों की उस सभा में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का नया चेहरा दिखा। मर्दों की किसी भी सीढ़ी के सहारों के बिना फकत परिवर्तन के नारे के जरियेे अपराजेय समझे जाने वाले वाममोर्चे के दुर्ग को ध्वस्त कर देने के दो महीने बाद हुई सभा ने साफ तौर पर ममता की विकास की तड़प को महसूस किया। लगभग 35 मिनट चले अपने भाषण में मुख्यमंत्री ने पिछले दो महीनों में सरकार की उपलब्धियों का जिक्र किया। आने वाले दिनों में राज्य सरकार की ओर से उठाए जाने वाले कदमों की जानकारी दी। उनके सम्पूर्ण भाषण को अगर संक्षेप में कहा जाय तो उसमें 'गरीबी और अज्ञान के अंत तथा बीमारी एवं अवसरों की विषमताओं के उन्मूलन की प्रतिज्ञा थी।Ó ममता जी की सभा पूर्ववर्ती शासन की सभाओं से भिन्न थी, क्योंकि वह नेताओं के आश्वासन और बड़बोले नारों को सुनने के लिये जुटाई गयी भीड़ नहीं थी बल्कि वह सत्ता से जनता के संवाद का 'स्पेस Ó था और वहां लोक मतदाता नहीं था , वह तंत्र का परीक्षक था। जिन्होंने इतिहास पढ़ा हैै, वे जानते होंगे कि भारत में महात्मा गांधी के पहले आंदोलन में शरीक चंपारण के निलहे किसानों में लगभग यही भाव था। वे गांधी समर्थक नहीं थे उनके परीक्षक थे। ममता जी की सभा में उपस्थित समुदाय में भी यही भाव था। पिछले बीस वर्षों में पहली बार दिखा कि राज्य में सत्ता के शीर्ष से 'इंटरएक्शनÓ के लिये एकत्र भीड़ इतनी अनुशासित और स्वत:स्फूर्त थी। इसका मुख्य कारण था कि उस भीड़ में सत्ता से सम्पर्क का सामूहिक दंभ नहीं था, उसमें सत्ता के प्रति जिम्मेदारी का बोध था। वहां उपस्थित समुदाय के माध्यम से उन्होंने राज्य की जनता से कहा कि वह इस बात का ध्यान रखे कि उसे माकपा की राह पर नहीं चलना है। ममता जी ने अपने दो माह के कार्यकाल में किये गये कार्यों का जिक्र करने से पहले परिवर्तन का एक बेहतरीन चाक्षुष बिम्ब प्रस्तुत किया। आकाश की ओर हाथ उठा कर कहा 'सभा से पहले घने बादल और तेज बारिश थी और सभा के दौरान बादल छंट गये, बारिश थम गयी और धूप निखर गयी, इसी को कहते हैं परिवर्तन।Ó उन्होंने दो महीनों के शासन काल में जो कुछ भी किया वह इतना स्पष्टï और प्रत्यक्ष है कि उसका यहां जिक्र जरूरी नहीं है। इससे अलग उन्होंने जो वायदे किये उसके बारे में बताना प्रासंगिक होगा। उन्होंने वायदा किया कि वे तीन साल में राज्य के हर गांव में बिजली पहुंचा देंगी, दुर्गापुर, आसनसोल तथा उत्तर व दक्षिण 24 परगना में बनेगी कमिश्नरी, नये जिलों का गठन होगा , नए थाने बनेंगे , पुलिस का आधुनिकीकरण होगा, अगले दो साल में बुनियादी सुविधाओं के विकास, औद्योगीकरण की प्रक्रिया में तेजी लायी जायेगी, रोजगार के अवसर सृजित किये जाएंगे, बालूरघाट , मालदह, हल्दिया, दीघा , सुंदरवन को हवाई यातायात से जोड़ा जायेगा।Ó ये वायदे बेशक महत्वाकांक्षी हैं और लुभावने भी लेकिन ममता जी के अब तक के ट्रैक रिकार्ड को देखते हुए यह यकीन करने में कोई दिक्कत नहीं है कि वे इन्हें हकीकत में बदल सकती हैं। ममता जी के भाषण और वहां एकत्र भीड़ तथा राज्य भर में टी वी से चिपके लाखों लोगों के रेस्पांस को देखते हुए सहज ही कहा जा सकता है कि उनसे आम जन को बड़ी उम्मीदें हैं। पूर्ववर्ती सरकार ने यहां की जनता के भरोसे और उसके जायज विरोध की उर्जा को दुरभिसंधि के बल पर नियंत्रित कर अपने सियासी एजेंडे को पूरा करने के लिये निष्क्रिय कर दिया था। नतीजा हुआ कि राज्य की कार्मिक दक्षता और कार्यसंस्कृति दोनों पंगु हो गयी और आर्थिक स्थिति तार- तार हो गयी। ममता जी ने उस उर्जा को नियंत्रणहीन तो नहीं किया , उन्होंने उसे सकारात्मक दिशा में निर्देशित करना शुरू कर दिया है। अगर वे कार्य संस्कृति का पुनरुद्धार कर सकीं तो यकीनन 'वेस्ट बंगाल Ó जल्दी ही 'बेस्ट बंगालÓ बन जायेगा।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिये

पाक का नापाक कर्म


हरिराम पाण्डेय
21 जुलाई 2011
अमरीका में कश्मीरी अलगाववादी नेताओं के लिए काम करने वाले पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के एक एजेंट को पकड़ा गया है। गिरफ्तार एजेंट पर आरोप है कि वह आईएसआई से पैसे लेकर अमरीकी नीति निर्माताओं को प्रभावित करने के लिए लॉबिंग करता था। हालांकि पाकिस्तान ने इसका खंडन किया है और कहा है कि फाई का पाकिस्तान या आईएसआई से कोई संबंध नहीं है। गुलाम पर आरोप है कि वह पाकिस्तान सरकार की साजिश का हिस्सा है और अमरीकी सरकार को जानकारी दिए बगैर पाकिस्तान के लिए काम कर रहा है। आईएसआई के फ्रंटमैन के तौर पर काम कर रहे एक अन्य शख्स जहीर अहमद पर भी एफबीआई की नजर है। लेकिन इस समय वह पाकिस्तान में रह रहा है। फाई की गिरफ्तारी से साफ हो गया है कि पाकिस्तान अपने नापाक मंसूबों को अंजाम देने के लिए किस तरह से गैरकानूनी चीजों को बढ़ावा दे रहा है। फाई अमरीकी नागरिक है और वह वाशिंगटन डी सी में कश्मीरी-अमरीकन काउंसिल (केएसी) नाम का एक गैर सरकारी संगठन चलाता है और वह केएसी का कार्यकारी निदेशक है। इसकी शाखाएं लंदन और ब्रसेल्स में भी हैं। अपने काम के सिलसिले में फाई अमरीकी सांसदों से मिलता- जुलता था। अमरीका का कहना है कि केएसी आईएसआई के लिए काम करने वाली संस्था (फ्रंट ऑर्गेनाइजेशन) है। एफबीआई द्वारा इस मामले में पेश हलफनामे के मुताबिक केएसी यह दावा करता है कि वह एक कश्मीरी संस्था है और इसे कश्मीरी ही चलाते हैं। केएसी के मुताबिक संस्थान को अमरीका द्वारा ही फंड मुहैया कराया जाता है। हलफनामे के मुताबिक केएसी उन तीन कश्मीरी संगठनों में से एक है, जो पाकिस्तानी सरकार खासकर आईएसआई के इशारे पर काम कर रहे हैं। एफबीआई के मुताबिक एक चश्मदीद ने जांचकर्ताओं को बताया है कि वह आईएसआई से फाई को मिलने वाली रकम को गुप्त रखने की योजना का हिस्सा बन चुका है। चश्मदीद के मुताबिक इस रकम का इस्तेमाल फाई को केएसी के लॉबिस्ट के रूप में पाकिस्तान सरकार के हितों को साधने के लिए किया गया। इससे यह तो जाहिर हो गया कि आई एस आई से मिलने वाले धन का ज्यादा हिस्सा अमरीकी नीति निर्माताओं के जेब में जाता था और वे उसके बदले न केवल पाकिस्तान की कश्मीर नीति के प्रति अमरीकी रुख को प्रभावित करवाते थे, बल्कि पाकिस्तान को मिलने वाले धन के लिये भी जोड़ तोड़ करते थे। यह एक रहस्योद्घाटन है जहां एक ओर कपटपूर्ण सांठगांठ की पोल खोलता है वहीं आई एस आई की अमरीकी प्रशासन में पैठ के संकेत भी देता है। इससे यह पता चलता है कि आई एस आई अमरीकी सत्ता प्रणाली में सेंध लगा चुकी है, यही नहीं उसकी पहुंच दुनिया की महाशक्तियों के भीतर तक हो गयी है। यह पूरी स्थिति कुछ वैसी ही है जैसी अमरीकी उपन्यासकार मैट तबिबी ने अपने उपन्यास 'द बैंकÓ में ग्लोबल बैंकिंग समूह के मालिक का जिक्र किया है कि 'यह मानवता पर लिपटी उस वैम्पायर की मानिंद है जो खून सूंघती फिर रही है।Ó यहां खून की जगह आतंक के साधन समझने होंगे।

वही पुराना राग


हरिराम पाण्डेय
20 जुलाई 2011
अमरीका की विदेश सचिव हिलेरी क्लिंटन ने मंगलवार को पाकिस्तान से कहा कि वह आतंकवादी शिविरों को खत्म करे। भारत के दौरे पर आयीं अमरीकी विदेश सचिव हिलेरी क्लिंटन ने विदेश मंत्री एस एम कृष्णा के साथ भारत-अमरीका रणनीतिक वार्ता के दूसरे दौर के बाद कहा कि गृह सुरक्षा और आतंकवाद निरोधी कार्रवाई के मुद्दे पर विशेष बल दिया गया है। उन्होंने कहा कि दोनों पक्ष दोनों देशों को आतंकवाद से बचाने के तरीके खोज रहे हैं। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान को स्पष्ट कर दिया गया है कि सभी तरह के हिंसक उग्रवाद का मुकाबला करना उसी के हित में रहेगा। हिलेरी ने कहा कि हम इस बात में भरोसा नहीं करते कि ऐसा कोई आतंकवादी है जिसे किसी सरकार द्वारा सुरक्षित पनाह या मुक्त मार्ग प्रदान किया जाना चाहिए क्योंकि इस तरह की आतंकवादी गतिविधि को अगर नियंत्रित नहीं किया गया तो बाद में उसके नतीजों को संभालने में बहुत कठिनाई होगी। कृष्णा के साथ साझा प्रेस कांफ्रेंस में अमरीकी विदेशी सचिव ने कहा कि मुंबई में 2008 के आतंकवादी हमलों के बाद अमरीका ने बिल्कुल स्पष्ट कर दिया था कि षड्यंत्रकारियों को न्याय के कठघरे में लाने में सहयोग देना पूरी तरह अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारी है। हिलेरी के अनुसार अमरीका ने समान तौर पर ही पाकिस्तान को स्पष्ट कर दिया है कि इस काम को पारदर्शिता से पूरी तरह और तत्काल करने में उसकी भी विशेष वचनबद्धता होनी चाहिए। बैठक के बाद जारी एक संयुक्त वक्तव्य के मुताबिक कृष्णा और हिलेरी दोनों ने क्षेत्रीय स्थिरता और सुरक्षा के लिए और पाकिस्तान के भविष्य के लिए वहां आतंकवादियों की पनाहगाहों को समाप्त करने के महत्व पर जोर दिया। यदि सच कहा जाय तो यह वही पुराना राग है जो अब तक अमरीका भारत से वार्ता के बाद अलापता रहा है। यकीनन इससे भारतीय जनता बिल्कुल प्रभावित नहीं है। जब भी भारत के किसी शहर पर हमला होता है तो इसी तरह के बयान जारी हो जाते हैं। इससे हमें मूल मसले से अपना ध्यान नहीं हटाना चाहिये। अमरीका किसी चालाक व्यवसायी की तरह मीठी- मीठी बातें कर भारत को अपने शिकंजे में लेना चाहता है ताकि पूर्ववर्ती परमाणु समझौते की शर्तों में संशोधन किया जा सके। वह चाहता है कि भारत को परमाणु बिजली बनाने के लिये यूरेनियम की आपूर्ति पर थोड़ी पाबंदी लगा दी जाय, जो कि पूर्ववर्ती समझौते की शर्तों में शामिल नहीं है। वह चाहता है कि समझौते में संशोधन के इकरारनामे पर भारत हस्ताक्षर कर दे और फिर वह मनमुताबिक संशोधन कर डाले। भारत को इस झांसे में नहीं आना चाहिये। लेकिन इस मामले में प्रधानमंत्री की चुप्पी खटक रही है।
दूसरी तरफ जहां तक पाकिस्तान का सवाल है, वहां की सरकारी एजेंसियां ही भारत में उपद्रव के लिये साधन और धन मुहैया करा रही हैं। इस बात का प्रमाण यही है कि जब भी भारत उससे सम्बंध सुधारने की कोशिश करता है और वहां की जनता भी समर्थन करने लगती है तो अचानक भारत में उपद्रव करा दिया जाता है। वह चाहे कारगिल का हमला हो हो मुम्बई पर आक्रमण या मुम्बई में विस्फोट या अन्य कोई इस तरह की घटना। अत: भारत को अमरीकी झांसे से बचने के साथ ही पाकिस्तान के प्रति सतर्क रहना होगा। उसे यह सोच कर शांत नहीं रहना होगा कि पाक से दोस्ती की बात चल रही है तो शांति रहेगी। भारत के सम्बंध में दोनों अविश्वसनीय हैं।

पहाड़ों पर अमन की उम्मीद


हरिराम पाण्डेय
19 जुलाई 2011
सोमवार को गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन (जी टी ए) के नाम से दार्जिलिंग समझौता कलमबंद हो जाने के बाद अब उम्मीद की जा सकती है कि पहाड़ के तीन सबडिविजनों, दार्जिलिंग, कर्सियांग और कलिम्पोंग में अमन रहेगा। अब से दो दशक पहले भी इसी तरह का एक समझौता हुआ था। दार्जिलिंग पर्वतीय अनुमंडल में अमन और स्वशासन के लिये मंडल गोरखालैंड पार्वत्य परिषद नाम का वह समझौता उसके नेता सुवास घीसिंग और उनके चंद करीबी लोगों की नालायकी से बुरी तरह नाकाम हो गया। अब इस नये समझौते का भी वही हश्र ना हो इसके लिये समझौता में शामिल गोरखा युवा मोर्चा, जो पूर्ववर्ती गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट से ही टूट कर बना है, के नेताओं को चाहिये कि सत्ता का मनमाना या बेलगाम दुरुपयोग ना करें। नये समझौते में यह ज्यादा जरूरी है क्योंकि इसने पूर्ववर्ती गोरखा पार्वत्य परिषद से कहीं अलग कई मामलों में ज्यादा स्वायत्तता का वायदा किया है। जिन मामलों में ज्यादा स्वायत्तता है उनमें कर वसूली से लेकर पर्यटन, वन, सड़क , कृषि , शिक्षा, सिंचाई , उद्योग, महिला और बाल विकास , संस्कृति और क्रीड़ा तक कई हैं। प्रचुर प्राकृतिक सम्पदा और सम्पन्न मानवसंसाधन के बावजूद बुरी तरह पिछड़े उस क्षेत्र में विकास की बेहद संभावना है। अब अगर निर्वाचित सदस्य विवेकपूर्ण, ईमानदार और स्वशासन के लिये प्रतिबद्ध होंगे तो वहां सामाजिक और भौतिक स्तर पर बहुत विकास हो सकता है। पश्चिम बंगाल सरकार ने जी टी ए को केंद्र से तीन वर्ष तक धन मुहय्या कराने का वादा किया है और इसके बाद जी टी ए के नेता खुद केंद्र से धन पाने का प्रयास करेंगे, जैसा अन्य राज्य करते हैं। यह एक अच्छी व्यवस्था है। क्योंकि पूर्ववर्ती गोरखा पार्वत्य परिषद के नाकाम होने का मुख्य कारण यही था कि उसके लिये धन की व्यवस्था पश्चिम बंगाल सरकार करती थी और उसे हमेशा कोलकाता का मुंह जोहना पड़ता था। ऐसे में सियासी चालबाजियों की भारी गुंजाइश होती है। अगर सुवास घीसिंग ने अपने लोगों से कथित तौर पर दगा दी तो इसके पीछे जितनी उनकी भ्रष्टï मानसिकता थी उससे कहीं ज्यादा माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका थी। अगहर इस परिप्रेक्ष्य में पूरी स्थिति का आकलन करें तो पता चलेगा कि इस मामले में कोलकाता का जितना कम हस्तक्षेप होगा उतना ही दार्जिलिंग के लिये लाभ होगा। ऐसे में अगर समझौता नाकाम होता है तो गोरखा युवा मोर्चा के नेता दूसरे पर उंगली नहीं उठा सकेंगे, वे खुद इसके लिये जिम्मेदार होंगे। यहां यह कहना प्रासंगिक होगा कि जीटी ए के नेताओं को सिलीगुड़ी और डुआर्स के मैदानी इलाके को अपने में शामिल करने के लिये अडऩा नहीं चाहिये। उन्हें अछूता छोड़ देना चाहिये। हालांकि मुख्य मंत्री ममता बनर्जी ने इसका जनसांख्यिकी अध्ययन कर अपनी रपट पेश करने के लिये एक कमिटी का गठन किया है। हालांकि यह काम अभी रुक सकता है पर सबसे जरूरी है कि जी टी ए अपना अधिकार स्थपित करे। उसके काम काज से जितनी जल्दी यह जाहिर होगा कि वहां शासन है उतनी जल्दी सकारात्मक परिवर्तन आयेगा। क्योंकि कुछ वर्षों से दार्जिलिंग में कानून और व्यवस्था के हालात बहुत खराब रहे हैं। अब जी टी ए के नेताओं को यह प्रमाणित करना होगा कि वे अपने लोगों के साथ मिलकर स्वशासन चला सकते हैं और आलोचक।ें की जुबान बंद कर सकते हैं। जो कुछ भी सकारात्मक हो सकता था ममता जी ने कर दिया, अब आगे काम जी जे एम के नेताओं और जी टी ए का है, देखना है कि वे अपने लोगों की उम्मीदों पर कितने खरे उतरते हैं।

इक्कीसवीं सदी में दूसरी हरित क्रांति लानी होगी


हरिराम पाण्डेय
18 जुलाई 2011
प्रधानमंत्री ने शुक्रवार को एक और हरित क्रांति का आह्वïान किया है। प्रधानमंत्री ने कहा है कि देश में वर्ष 2010-11 में अन्न का रेकॉर्ड 241 मिलियन टन उत्पादन हुआ, लेकिन भविष्य में अन्न की बढ़ती मांग देखते हुए दूसरी हरित क्रांति की जरूरत है। प्रधानमंत्री ने कहा कि महत्वपूर्ण फसलों का उत्पादन बीते वर्ष में रेकार्ड स्तर तक पहुँच गया है।
गेहूं , मक्का और दालों के बेहतर उत्पादन की वजह से 2010-11 के दौरान 241 मिलियन टन का उत्पादन हुआ।
प्रधानमंत्री ने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के एक समारोह में भाषण देते हुए कहा कि तिलहन उत्पादन में भी रेकार्ड वृद्धि हुई है। मनमोहन सिंह ने किसानों और वैज्ञानिकों के प्रयासों की भरपूर सराहना करते हुए कहा कि उनकी वजह से ही ये संभव हो पाया है। वैसे वर्तमान हालात में हरित क्रांति जरूरी है, क्योंकि खाद्यान्न की बढ़ती कीमत का रोना सभी रो रहे हैं। सबका मानना है कि अनाज की बढ़ती कीमत एक दिन आम आदमी की पहुंच से बाहर हो जाएगी और उसके बाद शुरू होगी भुखमरी, जिसके संकेत अभी से मिलने शुरू हो गये हैं। इसका प्रमुख कारण है उपभोक्ताओं की बढ़ती तादाद और लगातार घटता खेतों का उत्पादन और खेती में बढ़ती लागत। योजना आयोग के लिए देश के भूगर्भ जल की ताजा स्थिति पर एक रपट (सिनॉप्सिस ऑफ ग्राउंड वाटर रिसोर्सेज इन इंडिया) बता रही है कि खुश्क इलाकों में जमीनी जल के दोहन व रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल से अब हर जगह जमीन बांझ, खेती महंगी और भूमिगत जल का स्तर कम हो रहा है। ग्लोबल वार्मिंग ने भी बारिश का मिजाज असंतुलित बना दिया है।
वर्षा की अनियमित चाल देखते हुए गेहूं के साथ कम से कम पानी में भी पेट भरने लायक अन्न उपजा सकने वाली फसलों का चक्र बना, जिससे कम बारिश वाले इलाकों के किसान भी गेहूं के साथ ज्वार, बाजरा और दालों की अनेक सस्ती स्थानीय किस्में उगाकर अनावृष्टि के सालों में भी पोषाहार पाते रहे। जल व वनस्पति संरक्षण से जुड़े सामाजिक - धार्मिक नियमों के असर से न तो इन इलाकों के सीमित जल स्रोत नष्ट हुए, न पशुपालन, जिसके वास्ते जंगलों व गोचरों में पर्याप्त चारा और जल स्रोतों में पर्याप्त पानी हमेशा बचाया गया। साठ के दशक में जब बौने गेहूं और धान की अधिक उपज देने वाली किस्मों के साथ अधिकाधिक जल और उर्वरकों के इस्तेमाल का संदेश लेकर हरित क्रांति देश में आई, तो उसने अन्न के मामले में भारत को आत्मनिर्भर ही नहीं बनाया, बल्कि खाद्य सुरक्षा की शुरुआत भी की, जिससे अकाल का डर कम हुआ। लेकिन हरित क्रांति से कुछ पेचीदा समस्याएं भी पैदा हुईं। नहरों से सिंचित राज्यों में इस क्रांति के परिणाम देख धीमे-धीमे वर्षा सिंचित इलाकों में भी किसानों का मन बदलने लगा। वे अब पेट भरने वाले लोकल मोटे अनाज के बजाय गेहूं, चावल, कपास या सोयाबीन सरीखी भरपूर दाम देने वाली फसलों की तरफ झुकने लगे, जो काफी अधिक जल और भरपूर रासायनिक खाद मांगती थीं। अपने मतदाता बैंक की तुष्टि के लिए सरकारों ने भी चुनाव-दर-चुनाव खुश्क इलाकों के किसानों को हैंडपंप और नलकूप लगाने के लिए लगातार सब्सिडी और मुफ्त या सस्ती बिजली और रासायनिक उर्वरक दिए। साथ ही हरित क्रांति को देश के हर कोने तक फैलाने को कृषि शोध कार्यक्रमों से लेकर समर्थन मूल्य, सब्सिडियां और विस्तार कार्यक्रम भी रचे गए। इसके तात्कालिक नतीजे भले सुखद निकले हों, लेकिन दबाव और हड़बड़ी में कई बार अकुशल और अप्रशिक्षित किसानों के हाथों में बिना पर्याप्त हिदायतों के नए बीज, उर्वरक और बिजली के पंप थमाए गये। उनके नासमझ इस्तेमाल से अब हरित क्रांति की सीमा और दुष्परिणाम सतह पर आ रहे हैं। बदले गए फसल चक्र, बिजली चालित गहरे जलकूपों से सिंचाई और मौसम में आई भारी तब्दीलियों का सबसे बुरा असर पहले-पहल उन इलाकों में दिखा, जहां पारंपरिक रूप से मौसम खुश्क और जल का भंडार सीमित रहा है। 1960-61 में इन इलाकों में सिंचाई के लिए 61 फीसदी पानी नहरों और जलाशयों से आता था और ट्यूबवेल कुल जल का सिर्फ 0.6 फीसदी हिस्सा मुहैया कराते थे, पर सन् 2002-2003 तक आते-आते नहरों और जलाशयों से मिलने वाला जल सिर्फ 33 फीसदी जरूरत निपटा पा रहा था, 39 फीसदी पानी ट्यूबवेलों से खींचा जाने लगा था। योजना आयोग की ग्यारहवीं योजना के मसौदे के अनुसार हर जगह जबरन गेहूं, धान और कपास तथा सोयाबीन सरीखी फसलें उगाने की जिद से एक तरफ तो जमीन को उर्वरा बनाए रखने वाले पारंपरिक मोटे अनाज, फसलों से आने वाला चारा और जैविक खाद गायब हो गए हैं, दूसरी तरफ रासायनिक खाद के भरपूर प्रयोग से दो-तिहाई जमीन की उर्वरा शक्ति छीज गयी है। कपास, आलू या दलहन जैसी फसलों में रेडीमेड को पसंद करने वाला नया बाजार और नए उद्योग जो गुण तलाश रहे हैं, पारंपरिक कृषि उनको नहीं दे पा रही। नतीजतन लोन लेकर इनकी खेती करने वाले किसान दिवालिया होकर आत्महत्या कर रहे हैं। हरित क्रांति ने हमारी जरूरत के वक्त हमको बहुत मदद दी, यह तो सोचना भी घातक होगा कि खेती का कोई विकल्प हो सकता है। हां, खेती के ढंग को बदलना होगा। कुछ ऐसी विधि खोजनी होगी जो कम लागत में ज्यादा उत्पादन को बढ़ावा दे सके। सरकार को कृषि विज्ञानियों को इस क्षेत्र में खोज करने के लिए प्रोत्साहित करना होगा। अब समय आ गया है कि हमारे कृषि वैज्ञानिक सिर्फ खेती और पूंजी को तवज्जो देने की बजाय देश की नयी समग्र सामाजिक - आर्थिक स्थिति के मद्देनजर शोध करें। वरना यह तय है कि अब कुछ सालों में ही खाने के लिए हिंसा होगी और इतिहास हमें माफ नहीं करेगा। इक्कीसवीं सदी में दूसरी हरित क्रांति लानी हो तो असिंचित क्षेत्रों की प्रमुखता, जल संचयन तकनीकी और भंडारण के पारंपरिक तरीकों और खाद से सरकारी खरीदी तक के लिए नए मानकों पर नयी तरह से योजनाबद्ध काम करना जरूरी है। यह लंबी व कठिन डगर है, पर अब इसकी अनदेखी करना आत्मघाती होगा।

Sunday, July 17, 2011

ऐसा केवल हमारे ही देश में होता है


हरिराम पाण्डेय
16जुलाई 2011
पाकिस्तान में जिस दिन अमरीकी सेना ने ओसामा बिन लादेन को मारा था उसी दिन से यह लगने लगा था कि अमरीका से बदला लेने के लिये मुम्बई की घटना की तरह कोई घटना हमारे देश में होगी। क्योंकि हेडली के मामले से यह साबित हो चुका है कि भारत पर हमले के लिये अल कायदा या लश्कर ए तायबा को आई एस आई की मदद मिल सकती है। वैसे भी पाकिस्तान भारत को अमरीका का समर्थक मानता है। सरकार को मालूम है कि यह गुनाह किसने किया है पर वह कुछ नहीं कहेगी। विदेश मंत्रालय पाकिस्तान सरकार को एक नरम टिप्पणी भेजेगा और दो एक दिन में गृह मंत्रालय किसी हिंदू संगठन, खास कर राष्टï्रीय स्वयंसेवक संघ, की ओर इशारा करेगा और बात खत्म हो जायेगी। वैसे कांग्रेस के बड़बोले नेता दिग्विजय सिंह ने कुछ इसी तरह कहना शुरू भी कर दिया है। तत्पश्चात धर्म निरपेक्षता की दुहाई देती हुई कांग्रेस साम्प्रदायिकता की भत्र्सना करेगी और फिर सबकुछ सामान्य हो जायेगा। असली दुश्मन से मुकाबले से अच्छा, सहज और सुरक्षित है आर एस एस से लडऩा, इससे चुनाव जीतने में भी सुविधा होगी। सच तो यह है कि पाकिस्तान कुछ सरकारी और कुछ आतंकियों के सहयोग से ऐसे हमले करवा सकता है। शिकागो की अदालत में हेडली- राना की गवाहियों से यह साबित भी हो चुका है। इनसे मुकाबले में भारत अभी भी बेअसर रहा है। विदेश में छिपे आतंकियों ,अपराधियों को पकडऩे के सीबीआई के विभिन्न प्रयासों से हमें यह कई बार देखने को मिला है कि जब मौका आता है तो सीबीआई के कागजात अधूरे होते हैं या पुराने होते हैं। अपराधी चंगुल से निकल जाता है। हमारा विदेश विभाग उन अपराधियों को पनाह देने वाले देशों को एक कड़ा पत्र लिखता है जिसे वह देश बिना पढ़े रद्दी की टोकरी में डाल देता है। अब सवाल उठता है कि क्या कारण है कि भारत इतना नम्र है और क्यों वह अपने अंदरूनी सियासी झगड़ों - कांग्रेस बनाम भाजपा -को निपटाने के लिये इतना बेचैन रहता है। 26/ 11 के हमले के बाद यह घोषणा की गयी थी कि वी आई पी लोगों को बेवजह मिली जेड सुरक्षा हटा ली जायेगी ताकि आम जनता की सुरक्षा के लिये साधन हासिल हो सके। पर यह कभी क्रियान्वित नहीं हुआ। पुराने महाराजाओं की तरह लाल बत्ती का लोभ हमारे नेताओं में वर्तमान में है। बेशक जनता मारी जाये पर नेताओं की सुरक्षा हो। उन्हें यह भी फिक्र नहीं है कि जनता को मरते समय भी यह इतमीनान हो जाय कि हमारी सुरक्षा के लिये जितना हो सकता था नेताओं ने किया। 26/11 की घटना के बाद कुछ भी तो नहीं सुधरा। पता नहीं कितनी जानें जाएंगी तब सरकार को यह अहसास होगा कि इन फालतू नेताओं से आम जनता का मोल ज्यादा है। जब 26/11 की घटना हो रही थी तो सरकार को इस बात की फिक्र सता रही थी कि मुम्बई में कहीं साम्प्रदायिक दंगा ना शुरू हो जाय। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मुम्बई की जनता ना केवल समझदार है बल्कि यह भी जानती है कि कौन दोस्त है और कौन दुश्मन। हेडली- राणा की गवाही से साफ जाहिर हो गया है कि ऐसे जुल्म कौन करवाता है। अमरीका भी हकीकत जानता है।
ऐसा नहीं है कि इससे भी हमारी सरकार कुछ सीखेगी और इस तरह की घटना दुबारा नहीं होगी। यह तय है कि फिर हमले होंगे और फिर इसी तरह हिंदू संगठनों पर तोहमतें लगेंगी। सरकार को इस बात की फिक्र होगी कि कहीं साम्प्रदायिक दंगे ना हो जाएं। सरकार अपनी जनता की हिफाजत नहीं कर पा रही है। सरकारी स्कूलों की तरह सरकारी सुरक्षा व्यवस्था भी नकारा हो चुकी है और ऐसा केवल भारत में ही होता है।

सुरक्षा पर से घटता भरोसा


हरिराम पाण्डेय
15जुलाई 2011
मुम्बई विस्फोट की ताजा घटना के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मुम्बई जाने की घोषणा इस बात का परिचायक है कि वे इससे कितने शर्मसार हैं और चिंतित भी। चिता का कारण है कि 26/11 की घटना के बाद सरकार ने आतंकवादी हमलों को रोकने के लिये जिन उपायों को लागू किया था और उनके बारे में बढ़-चढ़ कर बताया गया था सब निष्फल साबित हुए इसका बेहद नकारात्मक सियासी प्रभाव हो सकता है। आतंकवादी हमले रोकने में सरकार की नाकामी से आम जनता का , खास कर मुम्बई वासियों का जिनपर पांच बार हमले हो चुके, भरोसा घटता जा रहा है। आतंकवादी हमले रोकने में खुफियागीरी की मुश्किलों के बारे में सरकार चाहे जो दलील दे पर वह आम जनता का भरोसा नहीं वापस ला सकती। ऐसा एक दो बार होता तो हो सकता है लोग बात मान भी लेते लेकिन एक ही शहर में पांच बार हमले अलग ही बात कहते हैं। अगर लंदन, न्यूयार्क या मेड्रिड में एक बार हमला होने के बाद सुरक्षा एजेंसियां जनता को आश्वस्त कर सकती हैं कि ऐसा दुबारा नहीं होगा और उन्होंने अपने आश्वासन को पूरा कर दिखाया तो क्या कारण है कि हमारे देश की सुरक्षा एजेंसियां ऐसा नहीं कर सकतीं? सरकार से जनता का यह सवाल बिल्कुल जायज है। पिछले हमलों के बाद की गिरफ्तारियों के बावजूद आतंकी संगठनों के पास फिदायीं हमलों का अभाव नहीं है। उनके गुटों में भर्ती होने और ट्रेंड हो कर काम करने वालों की कमी नहीं है। इससे जाहिर होता है कि उनके बारे में पता लगाने और उन्हें समाप्त करने तथा उनके संसाधनों को तबाह करने में पुलिस तथा सुरक्षा एजेंसियां कामयाब नहीं हैं। 13 जुलाई 2011 को जो हमला हुआ वह 1993, 2003 और 2006 की तरह ही था, जिन हमलों में एक ही तरह के 'मोडस ऑपरेंडीÓ का उपयोग किया गया था। ऐसे हमलों में बेहतर मोटिवेशन और मामूली ट्रेनिंग की जरूरत है न कि किसी खास प्रकार की विशेषज्ञता की। 2008 में जो हमला हुआ था उसकी 'मोडस ऑपरेंडीÓ इनसे थोड़ी अलग थी। इस घटना की जिम्मेदारी अभी तक किसी ने नहीं ली है और ना ही कोई आशाजनक सुराग मिला है। सुरक्षा एजेंसियां भूसे में सुई ढूंढ रहीं हैं। अलबत्ता एक शव में लिपटे इलेक्ट्रानिक सर्किट पाये जाने की खबर गंभीरता से जांच होनी चाहिये। अगर यह सही है तो चिंता की बात है क्योंकि यह विदेशी मदद से फिदायीं हमले का सूचक है। यदि यह गलत है तो समयबद्ध (टाइम्ड) हमले की घटना साबित होती है जिसे रासायनिक टाइमर या घड़ी वाले टाइमर या मोबइल फोन के टाइमर से अंजाम दिया गया है। 1993 में दाउद गिरोह ने जो मुम्बई में विस्फोट कराये थे वे केमिकल टाइमर से कराये गये थे जोकि आई एस आई ने मुहय्या कराया था। अधिकारियों का कहना है कि इस विस्फोट में अमोनियम नाइट्रेट का उपयोग किया गया है। सरकार को मालूम है कि सारी दुनिया में यह सर्व सुलभ विस्फोटक है तब भी नाइट्रोजन युक्त उर्वरक की बिक्री पर क्यों नहीं नजर रखी जाती है?
यह करतूत चाहे इंडियन मुजाहिदीन की हो या अन्य किसी की वह बताना चाहता है कि सरकार के दावों के बावजूद उन संगठनों की कमर अभी टूटी नहीं है। यह महज एक शहर की घटना नहीं है, सरकार को देश के सभी बड़े शहरों पर निगाह रखनी होगी। साथ ही , जबतक पाकिस्तान या आई एस आई के इसमें हाथ होने के पुख्ता सबूत ना मिल जाएं तब तक पाकिस्तान से चल रही वार्ता की प्रक्रिया पर इसका असर ना हो, यह सरकार की कोशिश रहनी चाहिये।

एक सुनियोजित विस्फोट


हरिराम पाण्डेय
14जुलाई 2011
देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में बुधवार शाम तीन जगहों पर धमाकों में आईईडी, अमोनियम नाइट्रेट से कराए गए सीरियल ब्लास्ट में 18 लोग मारे जा चुके हैं और 130 जख्मी हैं। जांच एजेंसियों से जुड़े सूत्रों की मानें तो विस्फोट सेल फोन अलार्म से किया गया। धमाके के पीछे इंडियन मुजाहिदीन और लश्कर का हाथ माना जा रहा है। एनआईए, एनएसजी और फॉरेंसिक टीमें जांच में जुटीं हुई हैं। मुंबई धमाकों में मारे गए लोगों में से एक की लाश पर इलेक्ट्रिक सर्किट पाए जाने से यह सवाल उठने लगा है कि क्या ये धमाके फिदायीन हमले का हिस्सा थे? जे जे अस्पताल के एक डॉक्टर ने यह जानकारी दी है कि एक लाश पर इलेक्ट्रिक सर्किट मिला है। अस्पताल के डीन टी पी लहाणे ने यह जानकारी संबंधित अधिकारियों को बता दी है। ऐसी आशंका है कि इस इलेक्ट्रिक सर्किट का इस्तेमाल धमाकों में से एक को अंजाम देने के लिए किया गया हो, जो एक मृतक के शरीर पर मिला है। मुंबई पहुंचे गृहमंत्री पी चिदंबरम ने कहा कि बुधवार के इन विस्फोटों के बारे में केंद्रीय और प्रदेश की सुरक्षा एजेंसियों के पास कोई खुफिया जानकारी नहीं थी। लेकिन उन्होंने इस बात से इनकार किया कि यह हमला खुफिया एजेंसियों की असफलता है। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि भारत के हर शहर पर खतरा है। उन्होंने कहा, ऐसे सभी गुट, जो ऐसा हमला करने में सक्षम हैं, संदेह के दायरे में हैं और उन पर कड़ी निगरानी रखी जा रही है। चिदम्बरम ने बुधवार को मुंबई में हुए आतंकवादी हमले की निंदा करते हुए कहा कि इस हमले में अब तक 18 लोगों की मौत हुई है, जबकि 131 लोग घायल हुए हैं। हालांकि इससे पहले 21 लोगों के मरने की खबर आई थी, लेकिन गुरुवार सुबह मुंबई पहुंचे गृहमंत्री ने 18 लोगों के मारे जाने की पुष्टि की। हमले में घायल 131 लोगों में से 23 को गंभीर चोटें आयी हैं, जिनमें कुछ की हालत गंभीर है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने विस्फोट में मारे गए प्रत्येक व्यक्ति के परिवार को 5 लाख रुपये मुआवजे के रूप में देने की घोषणा की है। गृहमंत्री ने कहा कि यह एक सुनियोजित विस्फोट था और इसमें आईईडी में अमोनियम नाइट्रेट के साथ टाइमर का इस्तेमाल किया गया था। उन्होंने बताया विस्फोट स्थल की घेराबंदी कर दी गयी है और लोगों को वहां नहीं जाने दिया जा रहा है। उन्होंने मीडिया से किसी तरह के कयास लगाने से बचने की अपील करते हुए कहा कि केंद्रीय गृह मंत्रालय और राज्य सरकार अपने-अपने स्तर पर हर दो घंटे के बाद न्यूज बुलेटिन जारी करेंगे। उन्होंने कहा, '26/11 की घटना के बाद देश में दो आतंकवादी हमले हुए हैं और दोनों महाराष्ट्र में हुए हैं। पहला हमला पुणे में और दूसरा मुंबई में
हुआ। लेकिन मुझे आशा है कि मुंबई और महाराष्ट्र की जनता इस सदमे से उबर जाएगी।Ó इतना तो साफ है कि देश में स्थितियां ऐसी नहीं हैं कि आप निश्चिंत होकर बैठ सकें। बुधवार की रात मुंबई में हुए विस्फोटों से यह तथ्य रेखांकित होता है कि शरारती तत्व हमारी सुरक्षा एजेंसियों की चौकस नजरों से कहीं ज्यादा शातिर ढंग से स्थितियों का मुआयना कर रहे हैं। वे इसका फायदा कहीं भी उठा सकते हैं और कभी भी। मुंबई वैसे भी आतंकवादियों की सूची में पहले नंबर पर रही है। सन् 1993 से वहां हर साल-दो साल बाद इस तरह की कोई न कोई वारदात होती ही रही है।
यह भारत की व्यापारिक राजधानी है। यहां व्यस्तता है, भीड़-भाड़ है, मिलीजुली आबादी है और उग्र राजनीति की वजह से कोई वारदात आसानी से सांप्रदायिक तनाव को जन्म दे सकता है। सन् 2008 के हमले ने यह भी समझा दिया है कि इस शहर पर विदेशी जमीन से भी आतंकवादी हमला हो सकता है। यहां छोटी घटना भी बड़ी भगदड़ और सनसनीखेज खबरों में बदल सकती है। ताजा विस्फोट सन् 2008 के हमले की तरह नहीं है। लेकिन इन्हें देखकर पहली नजर में ही पता चल जाता है कि यह आतंकवादी वारदात है और सुनियोजित है। पर शायद इसके लिए पहले की तरह बड़ा फंड नहीं मिला या उतनी बड़ी तैयारी नहीं की जा सकी। इसीलिए पहला शक इंडियन मुजाहिदीन जैसे संगठन पर जाता है। हालांकि अभी ऐसा कोई भी निष्कर्ष निकालना उचित नहीं है और पूरी जांच के बाद ही इसके सभी सूत्र स्पष्ट होंगे। फिलहाल ऐसी हालत में हमारे लिए चुनौतियां और बढ़ जाती हैं, क्योंकि आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए अपना सारा ध्यान और सारे संसाधन हम सिर्फ विदेशी और बड़े संगठनों की ओर ही लगाए रखते हैं। अब समय आ गया है कि हम एक सतर्क समाज की तरह चौकसी बरतना सीखें। लोग यह समझें कि हमें किस तरह से साजिशों का निशाना बनाया जाता है। हम उन्माद और अफवाहों का शिकार नहीं बनें और अनहोनी के समय में भी संयम बनाए रखना सीखें। निश्चित रूप से मुंबई ने एक से ज्यादा बार अपने धैर्य और अमनपसंदी का सबूत दिया है। लेकिन खुफिया एजेंसियों और प्रशासन ने चौकसी में ढील बरती है। इसी का एक नमूना यह है कि वारदात की खबर की पुष्टि होने के बाद दिल्ली से एनआईए (राष्ट्रीय जांच एजेंसी) की टीम मुंबई रवाना की गयी। हम सारी एजेंसियां दिल्ली में ही जमाकर के क्यों रखते हैं? इस एजेंसी की शाखाएं हमारे दूसरे महानगरों में भी क्यों नहीं रखी गयी हैं? सन् 2008 के हमले के बाद ऐसा फैसला हुआ था कि देश के चार स्ट्रेटजिक महानगरों में ऐसे संगठनों की शाखाएं होंगी, जो तत्काल घटनास्थल पर पहुंच सकें। लेकिन उस पर हमने गंभीरता से अमल नहीं किया। इस ताजा वारदात ने हमें चेता दिया है कि सुरक्षा और सतर्कता के मामले में हम तनिक भी कोताही नहीं बरत सकते। हमने देखा कि न्यूयार्क में वर्ष 2001 में 9/11 का हमला हुआ उसके बाद वहाँ सुरक्षा इतनी चुस्त दुरुस्त कर दी गयी कि हर बार चरमपंथी हमले को नाकाम कर दिया गया। लंदन में सन् 2005 में हुए चरमपंथी हमलों के बाद से वहाँ भी चरमपंथी सुरक्षा व्यवस्था को भेद नहीं पाए हैं।
आंकड़े बताते हैं कि पिछले 20 बरसों में मुंबई में 13 हमले हो चुके हैं, क्यों हम अपनी व्यावसायिक राजधानी को सुरक्षित नहीं रख पाते? मुंबई कभी अंडरवल्र्ड के साये में रहती है तो कभी चरमपंथी हमलों के डर से कांपती रहती है। क्या मुंबई में सुरक्षा व्यवस्था को चाक-चौबंद करना सचमुच कठिन है या फिर राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है?

मायावती सरकार पर चोट


हरिराम पाण्डेय
9जुलाई 2011
ऊपरी तौर पर देखने से लगता है कि ग्रेटर नोएडा में जमीन अधिग्रहण रद्द करने का फैसला बिल्डर्स और फ्लैट खरीदने वालों के खिलाफ है। लेकिन टीकाकारों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट का निर्णय वास्तव में माया सरकार की साख पर चोट है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अब कुछ महीने ही बाकी हैं, इसलिए जाहिर है कि विपक्ष को सरकार पर हमले का एक और मजबूत हथियार मिल गया है।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश और मौखिक टिप्पणी में मुख्य बात यह है कि ग्रेटर नोएडा अथॉरिटी यानी उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से किसानों को सुनवाई का मौका दिए बगैर 'तत्काल जरूरत (अर्जेंसी)Ó के आधार पर जमीन अधिग्रहण करना सरकार को मिली शक्तियों का दुरुपयोग है। दूसरे यह कि जिस औद्योगिक विकास का उद्देश्य दिखाकर जमीन ली गयी, वह धोखा था और असली उद्देश्य बिल्डर्स को फायदा पहुंचाना था। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अपनी पदयात्रा में भी मायावती सरकार की ओर से किसानों के साथ अन्याय और कंपनियों को फायदा पहुंचाने की बात कही। जहाँ मुख्यमंत्री मायावती ने आम आदमी तो क्या अपनी पार्टी के विधायकों और मंत्रियों से भी दूरी बना रखी है, वहीं राहुल गांधी सीधे आम आदमी के बीच जाकर उनसे भावनात्मक रिश्ता जोडऩे की कोशिश कर रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी ने तो जमीन अधिग्रहण घोटाले पर बाकायदा श्वेत पत्र जारी किया है। बहुजन समाज पार्टी के प्रवक्ता ने कहा है, 'उनका किसान प्रेम मात्र एक दिखावा है और उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव को देखते हुए यह राजनीतिक ड्रामेबाजी कर रहे हैं।Ó मायावती सरकार हर बार केवल यही बात कह रही है कि केन्द्र पुराना जमीन अधिग्रहण कानून बदले। मायावती यह भी कह रही हैं कि राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में पदयात्रा की नौटंकी न करके दिल्ली जाकर भूमि अधिग्रहण कानून बदलवाएं और डीजल का बढ़ा दाम वापस कराकर किसानों को राहत दिलाएं। पिछले लोकसभा चुनाव के परिणामों पर नजर डालें तो साफ दिखता है कि बहुजन समाज पार्टी को बलिया से गौतम बुद्धनगर तक उन अधिकांश सीटों पर हार का सामना करना पड़ा, जो प्रस्तावित गंगा एक्सप्रेस-वे योजना का इलाका है। पश्चिम में तो इस समय 5 एक्सप्रेस-वे योजनाएं प्रस्तावित हैं। अकेले यमुना एक्सप्रेस-वे में 6 जिलों के लगभग 1200 गांव प्रभावित हैं। पूरे प्रदेश में कई हजार गाँव हैं, जो उत्तर प्रदेश सरकार की जमीन अधिग्रहण की कार्रवाई से प्रभावित हैं। बिल्डर्स और कंपनी वाले शायद अभी तक इस भरोसे में थे कि पहले की तरह मायावती सरकार सुप्रीम कोर्ट से उन्हें राहत दिला देगी, मगर ऐसा नहीं हो पाया। चर्चा तो यह भी है कि न्यायमूर्ति के जी बालकृष्णन के जमाने में मायावती के सिर पर अदालत का हाथ था। अब वह स्वयं जांच के घेरे में हैं। सरकार संभलना चाहे तो नौकरशाही को किनारे कर प्रभावित किसानों से सीधे बात करे, उनकी समस्याओं का समाधान करे या फिर चुनाव में राजनीतिक नुकसान उठाने के लिए तैयार रहे।

भूमि अधिग्रहण शोषण का साधन ना बने


हरिराम पाण्डेय
7जुलाई 2011
कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश के भट्टा पारसौल में मायावती सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण के मुद्दे ने तूल पकड़ा है तबसे ऐसा लगने लगा है, जैसे भारतीय राजनीति में कई लोगों के सिंहासन डँवाडोल करने वाली आँधी यही है। बात सिर्फ इतनी नहीं है कि उत्तर प्रदेश सरकार के भ्रष्टाचार और अत्याचार के खिलाफ आंदोलनकारियों को समर्थन देने के लिए राहुल गाँधी धरने पर बैठ गए थे और उनके साथ-साथ कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने भी गिरफ्तारी दी। यह बात रेखांकित करना जरूरी है कि भूमि अधिग्रहण सरकार के लिए संकट सिर्फ उत्तरप्रदेश में ही नहीं बना है।
पश्चिम बंगाल में चार दशक तक निरंकुश राजपाट करने के बाद माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को जिस करारी हार का सामना करना पड़ा उसका एक प्रमुख कारण खुद को किसानों का मित्र कहने वाली सरकार द्वारा नंदीग्राम और सिंगुर में औद्योगिक विकास के बहाने किसानों की भूमि का अधिग्रहण था। ममता बनर्जी ने अपने चुनाव अभियान के दौरान यह ऐलान किया था कि जीतने के बाद किसानों को वामपंथी सरकार द्वारा ली गयी जमीन वे तत्काल लौटा देंगी। फिलहाल सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें ऐसा करने से रोकते हुए टाटा घराने के पक्ष में एक स्थगन आदेश जारी किया है पर साथ ही यह टिप्पणी भी की है कि मामला उच्च न्यायालय के विचाराधीन है और यह स्थगन आदेश उसके फैसले को प्रभावित करने वाला नहीं समझा जाना चाहिए। इसी आधार पर ममता बनर्जी ने फैसले का स्वागत किया है।
हकीकत यह है कि दोनों ही पक्ष इसे अपनी जीत बताने की कोशिश भले ही करें, अभी यह लड़ाई लंबी चलने वाली है। इस बारे में दो राय नहीं हो सकती कि उपजाऊ जमीन को किसानों को बहला-फुसलाकर जिस तरह अंतत: जबरन टाटा समूह के हवाले किया गया था, वह प्रक्रिया अपारदर्शी तानाशाही ही थी। इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि माक्र्सवादियों के भरोसे, उनके वादे और करार पर एतबार कर टाटा समूह ने कई हजार करोड़ रुपयों का निवेश वहाँ अपनी फैक्टरी में किया। रतन टाटा को आशंका है कि अगर ममता ने हारूं अल रशीद वाले अंदाज में इस जमीन के पट्टे फिर से किसानों को सौंप दिए तो उन्हें कीमती मशीनरी आदि वहाँ से सही-सलामत निकालने का मौका नहीं मिलेगा।
ओडिशा में भी भूमि अधिग्रहण का मामला नवीन पटनायक के गले की हड्डी बन चुका है। पहले नियमगिरी में आदिवासियों ने उनकी जान सांसत में डाल दी। वहाँ भी राहुल गाँधी ने ही उत्पीडि़तों, विस्थापितों के बीच मसीहा वाली भूमिका अपनाई और उस घड़ी केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय भी बड़े जोशो-खरोश के साथ ओडिशा सरकार के विरुद्ध हमले में जुट गया पर कुछ ही समय बाद वेदांत-पोस्को वाले भूमि अधिग्रहण के मसले में वह पलटी खाता नजर आया।
उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल की तरह ही ओडिशा में भी गैर कांग्रेसी सरकार शासन कर रही है। इसलिए भूमि अधिग्रहण को लेकर उसे घेरने का प्रयत्न कांग्रेस करती रही है पर गुत्थी काफी उलझी हुई है।
मनमोहन सिंह की केंद्र सरकार उन आर्थिक सुधारों को तेजी से लागू करने पर आमादा है, जो भारत को भूमंडलीकरण का अपने हित में दोहन करने के लिए परमावश्यक बतलाए जाते हैं। इस बारे में देश में आम सहमति नहीं है पर तब भी कुल मिलाकर केंद्र सरकार के लिए उद्योगपति लाड़ले और खेतिहर किसान सौतेली संतानें हैं। विकास का जो मॉडल मनमोहन-मोंटेक, प्रणव-चिदंबरम आदि को रास आता है, उसमें उपजाऊ जमीन का औद्योगिक विकास के लिए अधिग्रहण सर्वोच्च प्राथमिकता पर नजर आता है। यह विषय विदेशी पूँजी के निवेश के साथ भी जुड़ा हुआ है और केंद्र सरकार की चिंता का विषय यह भी है कि अगर इस काम में ढिलाई हुई तो भारत में पूँजी लगाने वाले विदेशी रूठ कर पलट जाएँगे। गैर कांग्रेसी सरकारों के खिलाफ मोर्चाबंदी तो ठीक है पर कहीं न कहीं आंदोलनकारियों पर लगाम लगानी ही होगी। एक विडंबनापूर्ण स्थिति कुछ समय पहले कर्नाटक में भी देखने को मिली थी। उस वक्त भी भूमि अधिग्रहण का सवाल उद्योग बनाम खेती, शहर बनाम देहात वाली बहस के साथ जोड़ा जा रहा था मगर यह बात किसी से छिपी नहीं थी कि असली झगड़ा सरकारी लूट में अपना हिस्सा वसूल करने का था। यदि भूमि अधिग्रहण आपका अपना दल करता है तो सब कुछ जायज है लेकिन यदि यह मौका विपक्ष को मिलता है तो अत्याचार का हाहाकार ही सुनने को मिलता है।
असली समस्या यह है कि खेती की यह जमीन का उपयोग माफिया और नेता अपनी निजी आमदनी के लिए करना चाह रहे हैं। हमारी सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि भूमि अधिग्रहण का वर्तमान कानून उस समय बना, जब अँग्रेज हमारे देश के शासक थे और उन्होंने प्रजा के हितों के नाम पर अपना हित साधने की गरज से यह कानून बनाया था। आज जरूरी है कि सरकार देश में व्याप्त जनभावना को ध्यान में रख कर जमीन का अधिग्रहण करे और उससे जुड़े कानून बनाए। हमारे देश में जमीन निजी प्रतिष्ठा का साधन हैं। इतिहास में जितनी भी जंग हुई हैं और जितनी भी बरबादियां हुई हैं वे सब जमीन से ही जुड़ी रही हैं। फिलहाल सरकार को सोच समझ कर ही कोई कदम उठना चाहिए।