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Friday, March 30, 2018

बंगाल में रामनवमी में हिंसा

बंगाल में रामनवमी में हिंसा

 बंगाल में रामनवमी को लेकर हिंसा जारी है,  या कह सकते हैं कि भगवा हमला चल रहा है। अगर इसका समाज वैज्ञानिक  विश्लेषण करें तो ऐसा लगेगा कि यह बंगाल के सांस्कृतिक ताने-बाने को दोबारा बुने जाने की कोशिश है। पिछले दो- तीन सालों से बंगाल में रामनवमी और उसे लेकर तनाव एक तरह से नियमित हो गया है और उसका मुख्य कारण है यहां की सामाजिक सांस्कृतिक पुनर्गठन का मिशन। इस मिशन को  राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और  भाजपा ने तैयार  किया है। ये लोग बंगाली हिंदुओं को हिंदी भाषा के हिंदुत्व वाले हिंदू समुदाय में बदल देना चाहते हैं। ऐसा भी कहा जा सकता है की तेजी से फैलते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी शाखाओं के बल पर पूरे बंगाल को "उपनिवेश" में बदल देना चाहते हैं।  बंगाल पर दक्षिणपंथी प्रभुत्व कभी नहीं रहा अब  वहां इस्लामी खतरा और हिंदू पहचान जैसी मायावी  सांप्रदायिक दुर्भावना फैलाकर  चुनाव जीतना चाहते हैं।

  संघ और भाजपा को बंगाल के इतिहास तथा संस्कृति को लेकर ग़लतफ़हमियां है। वे नहीं समझ पा रहे हैं कि एक बंगाली पहले बंगाली है बाद में हिंदू है या मुसलमान है, या ब्रह्म समाजी  है , वैष्णव है, बौद्ध है अथवा ईसाई है।  दूसरी बात सब के सब यहां बांग्ला बोलते हैं और बांग्ला संस्कृति को मानते हैं। यही कारण था बांग्लादेश में भाषा को लेकर पाकिस्तान से जंग छिड़  गई थी। संघ और भाजपा शायद यह नहीं समझ पा रही है सभी  बंगाली हिंदू नहीं हैं और  सभी मुसलमान बांग्लादेशी जिहादी नहीं हैं। पिछले साल जब यहां रामनवमी का जुलूस निकला था तो उसमें तलवारों और  त्रिशूलों के प्रदर्शन से चारों तरफ सनसनी फैल गयी थी। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने बंगालियों के भीतर की भावना व्यक्त किया उन्होंने कहा " भगवा ब्रिगेड नहीं जानता बांग्ला संस्कृति क्या है वह सिर्फ तलवार भागना जानते हैं। " पिछले साल हिंसा नहीं हुई लेकिन हालात साल-दर-साल बिगड़ते जा रहे हैं इस साल रामनवमी के जुलूस में हिंसा हुई। दो आदमी मरे भी। पुलिस पर भी हमले  हुए और एक अफसर बुरी तरह घायल हो गया। इस पूरे परिदृश्य मैं एक ही रणनीति नजर आती है वह है राम के नाम पर वोट लेकिन  इस रणनीति में शांति तथा व्यवस्था बनाए रखने की चुनौती भी है। बंगाल की संस्कृति को देश के विभिन्न भागों से आयातित हिंदुत्व के माध्यम से तहस-नहस करने की कोशिश शुरू हो गई है।

 बंगाल की संस्कृति में राम की पूजा नहीं होती जैसा कि पश्चिमी और उत्तर उत्तर भारत में होता है। बंगाल में रामनवमी में अन्नपूर्णा पूजा होती है और यह एक तरह से शक्ति पूजा है।  इस परंपरा का लाखों बंगाली पालन करते हैं। बंगाल में पर्वों का बाहुल्य है, यहां तो कहावत ही है कि " बारो  माशे तेरो पूजा "  यानी साल के 12 महीनों में बंगाल में 13 पूजा होती है। बंगाल में त्यौहार और  और मेला का यहां के आर्थिक- सांस्कृतिक प्रणाली से गहरा संबंध है। बंगाल की पूजा में सभी संप्रदाय के लोग शामिल होते हैं। 

   बंगाल शक्ति  पूजक है और  सदियों  से ऐसा ही है। बांग्ला भाषा और संस्कृति  का विकास पाल वंश के शासनकाल  (सन 750 से सन 1174 ईस्वी ) में हुआ था। इस वंश का बंग  पर लगभग 424 वर्षों तक शासन था । यह अवधि मुगलों तथा अंग्रेजी के शासन  से बहुत पहले की है। बंगाल में गुप्त काल में संस्कृत बोली जाती थी और बंगाल संस्कृत का केंद्र था। बांग्ला भाषा का विकास ( सन1000 से 1206 ईस्वी) के मध्य संस्कृत और मागधी प्राकृत से हुआ। 

 बौद्ध तारा पूजा करते थे। मां काली के मंदिर बनने से पहले तारापीठ में मां तारा का मंदिर  बना था।  बौद्ध धर्म के महायान तंत्र   का विकास बंगाल में ही हुआ था। विख्यात बौद्ध संत और दार्शनिक असित  (सन 982 से 1054 ईसवी) बंगाली थे।  उनका पहला नाम  दीपंकर था।   अनुतारा योग तंत्र  का विकास (सन 988 से 1069  ईस्वी) के बीच तिलपा ने किया था। बाद में " गंगा महामुद्रा" की भी रचना की। बांग्ला में तिलपा के शिष्य नेरुपा जो नालंदा विश्वविद्यालय के स्नातक थे, बंगाली थे।  बिहार के नालंदा विश्वविद्यालय पर बंगीय दार्शनिकों बहुत प्रभाव था। पाल वंश के समय से ही बंगाल में शक्ति पूजा आरंभ हुई। बंगाल में बौद्ध शासन  के बाद बंगाल की बौद्ध संस्कृति और शाक्त संस्कृति की शक्तियों को मिलाकर दस महाविद्या की परंपरा शुरू हुई। इस समय बंगाल में  मां काली  और मां दुर्गा सबसे ज्यादा पूजनीय हैं, लेकिन साथ नहीं सरस्वती और लक्ष्मी जी की भी पूजा की जाती है। शक्ति पूजक  बंगाल में दो अत्यंत महत्वपूर्ण सुधार भी हुये।  इससे महिलाओं को लाभ मिला।  यह दोनों सुधार महत्वपूर्ण समाज सुधार थे। इसमें पहला राममोहन राय द्वारा किया गया सती प्रथा के विरोध में आंदोलन और दूसरा ईश्वर चंद्र विद्यासागर द्वारा विधवा विवाह के हक के लिए किया गया   आंदोलन। यह दोनों बंगाल पुनर्जागरण के अवसर पर के दौरान हुये थे। बंगाल की साहित्य, संस्कृति,  धर्म, कला और आध्यात्मिकता पर इसका बहुत प्रभाव पड़ा।

  बंगाल का इतिहास और संस्कृति जानने के बाद जब यहां रामनवमी का हिंसक आयोजन होता है पो एक ही बात मन में आती है कि कहीं यह संस्कृति को बदलने की साजिश तो नहीं है। अभी जो चल रहा है उसे "गाय पट्टी" वाले हिंदुत्व का बंगाल में आरोपण कहा जा सकता है। बंगाल को भगवा ब्रिगेड से  नहीं सीखना है। राष्ट्रीयता या हिंदुत्व क्या है यह बंगाल जानता है। विवेकानंद ,महर्षि अरविंद सुभाष चंद्र बोस, मौलाना आजाद इत्यादि बंगाल के कई ऐसे व्यक्तित्व  हैं जिन्होंने राष्ट्रीयता और हिंदुत्व के लिए खुद को बलिदान कर दिया। बंगाल को अगर बंगाल बने रहना है उसे भगवा ब्रिगेड के इस हमले को रोकना होगा लेकिन यह एक बहुत बड़ी चुनौती है। ऐसा लग रहा है कि रामायण के छद्म में महाभारत के बल पर बंगाल को भंग करने की कोशिश हो रही है।  चुनाव की घड़ी जैसे जैसे नजदीक आएगी यह हमने और तीखे होते जाएंगे तथा इनकी व्यूह रचना भी बदलती जाएगी। भारत का भविष्य,  कई बार पहले भी हुआ है , बंगाल के भविष्य पर निर्भर है या कहिए दांव अब इससे बड़ा नहीं हो सकता। 

  

Thursday, March 29, 2018

 इस बार भाजपा बनाम क्षेत्रीय दल ?

 इस बार भाजपा बनाम क्षेत्रीय दल ?

 इस  महीने गोरखपुर और फूलपुर तथा कैंब्रिज एनालिटिका और संसद में शोर शराबा जैसे मसाइल  भाजपा के नुकसान के सबूत बने रहे और  देश का ध्यान उसी पर लगा रहा। उधर भाजपा के एक बड़े नेता ने एक  दक्षिण भारतीय राज्य की राजधानी में  एक  दक्षिण भारतीय नेता से मुलाकात की।   इरादा था दोनों के बीच यानी दोनों पार्टियों के बीच जमी बर्फ को  तोड़ना और 2019 के चुनाव में समर्थन के लिए  पथ   प्रशस्त करना।  क्षत्रिय नेता  हैरत में था कि भाजपा का इतना बड़ा नेता विभिन्न प्रांतों के चुनाव में पार्टी की भरी विजय के बाद मोदी और अमित शाह  से अलग इस काम के लिए यहां आयाहै।  भाजपा नेता की बातचीत से ऐसा लग रहाथा कि वह भीतर से हिला हुआ है तथा उसे यकीन नहीं आ रहा है कि  पार्टी 2014 की तरह इस बार बहुमत पा सकेगी। यहीनहीं, भाजपा का एक वरिष्ठ सदस्य जो इस समय पार्टी नेतृत्व से उखडा हुआ  है वह भी इस काम में लगा हुआ था कि क्षेत्रीय  पार्टियों के साथ गहरा तालमेल बनाए जा सके और मीडिया को इस की हवा ना लगे।  साथ ही , एक वैकल्पिक फार्मूला तैयार हो जाय । एक और दक्षिण भारतीय नेता जिनके  भाजपा के साथ रिश्ते में थोड़ी खटासआ गई है वह निजी बातचीत में लगातार वैकल्पिक भाजपा नेता के नाम का सुझाव दे रहा है जो उसे ज्यादा स्वीकार्य है।  लेकिन इससे  यह समझना गलत होगा 2019 में कुछ   चुनावी चमत्कार होगा।  अभी जो कुछ दिख रहा है हवाई किला बनाने जैसा है। क्योंकि मोदी और शाह के अंतर्गत भाजपा ने खुद को एक ऐसी चुनावी मशीन बना रखा है जोसबसे आगे चलती है। उत्तर प्रदेश की पराजय एक गंभीर झटका है लेकिन उम्मीद की जातीहै कि दोनों नेता मिलकर इसे 2019 तक ठीक कर लेंगे। अधिकांश क्षेत्रीय दल इसके साथ ही यह भी सोच रहे हैं कि बहुत कुछ बदल देंगे। क्षेत्रीय दलों के कई नेता तो यह समझने लगे हैं कि यदि आमना – सामना ऐकिक हुआ  या कहा जा सकता है कि भाजपा के खिलाफ  यदि विपक्ष का एक ही कैंडिडेट खड़ा हुआ तो 1996 का समीकरण दोहराया जा सकता है । उस समय   व्याकुल राजनीतिक दलों को एक साथ जोड़ा गया था। दक्षिण भारतीय नेता के चंद्रशेखर राव तो  देवगौडा  वाले समीकरण को दोहराने  का ख्वाब देखने लगे हैं। राव  मांनने लगे हैं कि वह सत्ता के शीर्ष के लिए हैं।  इसके पीछे दलील यह है की उन्हेंसरकार चलाने का तजुर्बा है तथा  हिंदी, इंग्लिश, उर्दू और तेलुगु में पारंगत हैं।   पिछली बार यानी 2014 में तेलंगाना में सत्ता पर आने के बाद, इस बार, उन्होंने तेलंगाना कार्ड को दोबारा खेलने की तैयारी कर ली है।   नरसिंह राव के बाद तेलंगाना से दूसरे नेता होंगे।   चंद्रशेखर राव ही एकमात्र ऐसे नेता नहीं है जो यह सोच रहे हैं कि “ अब दिल्ली दूर नहीं । ”  बंगाल से ममता बनर्जी खुद भाजपा विरोधी मोर्चे केंद्र में हैं और नेतृत्व के लिए योग्यतम हैं। ममता जी की तृणमूल कांग्रेस इसबार 42 लोकसभा सीटों  में से अधिकांश  पर  विजय हासिल करना चाहती है और 2019 में तीसरी सबसे बड़ी संसदीय पार्टी के रूप में उभरना चाहती है और अगर ऐसा होता है तो ममता जी प्रधानमंत्री पद के लिए दावा पेश कर सकती हैं?  वही नहीं चंद्रबाबू नायडू अगले महीने के पहले हफ्ते में दिल्ली आ रहे हैं।यह उनकी पहली यात्रा है जब से तेलुगू देशम ने “ एन डी ए “ से पल्ला झाड़ा।   वह खुद को भी प्रधानमंत्री के लिए पेश कर सकते हैं और उनका अनुभव इसमें उन्हें समर्थन देगा।  वही नहीं शरद पवार 25 वर्षों से लाल किले पर से  स्वतंत्रता दिवस समारोह को संबोधित करने का सपना देख रहे हैं। लेकिन महाराष्ट्र में कांग्रेस के जूनियर दल के रूप में चुनाव लड़ने के कारण संभावनाएं खत्म हो जा रहीं थीं ।  अगर 2019 में स्पष्ट बहुमत आता है तो पवार अपने संपर्कों के जरिए शीर्ष  पद के लिए जोड़-तोड़ करेंगे।

 लेकिन , अगर कर्नाटक में कांग्रेस अपना दुर्ग बचा लेती है तो  किसी भी  क्षेत्रीय पार्टी कि संभावना ख़त्म हो जाती है।  क्योंकि , 12 मई के चुनाव में यदि कांग्रेस को  कर्नाटक में बहुमत प्राप्त हो गया  तो यह समझा जायेगा कि  पार्टीसत्ता की दौड़ से बाहर नहीं है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाएगा के चंद्रशेखर राव , चंद्रबाबू नायडू  जिन्हें कांग्रेस से नहीं पटती वह यकीनन दूसरी जगह खेमा  गाड़ेंगे। यहां यह कहना महत्त्वपूर्ण  है कि अगला चुनाव भाजपा बनाम एकजुट विपक्षी दलों के बीच हो यह जरूरी नहीं है।  

 

Wednesday, March 28, 2018

कितने मुनासिब हैं ये लोग ....

कितने मुनासिब हैं ये लोग ....

जब नरेंद्र मोदी चुनाव प्रचार कर रहे थे तो  देश  भर में देशभक्ति का एक खास किस्म का माहौल  तैयार किया गया था।  उसके बाद जब वह प्रधानमंत्री बने तो स्वाभवत:  यह उम्मीद बनने लगी कि वह सेना को मजबूत बनाएंगे , क्योंकि पिछले कई वर्षों से सेना को लेकर भाजपा सत्तारूढ़ दलों पर टीका टिप्पणियां  करती रही थी। सरकार ने सैनिकों की  खूब बड़ाई की और अपने चारों तरफ देशभक्ति का गिलाफ लपेट लिया।  लेकिन, हाल में रक्षा मंत्रालय से  जुड़ी संसदीय समिति  की रपट में रहस्योद्घाटन हुआ है कि जब सुरक्षा विभाग में धन का आवंटन करना था जो सरकार में इतनी देशभक्त नहीं थी जितनी वह दिखाती है।  आमतौर पर सुरक्षा बजट सकल घरेलू उत्पाद का 2% हुआ करता था लेकिन पिछले 2 वर्षों से यह घटकर  1.56 प्रतिशत  और 1.4 प्रतिशत हो गया। इस कमेटी की अध्यक्षता भाजपा  सांसद अवकाशप्राप्त मेजर जनरल बी सी खंडूरी थे। समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि सेना के 68% हथियार पुराने ढंग के हैं और  महज 24% हथियार आधुनिक प्रकार के हैं।  केवल 8% ही पूरी तरह आधुनिक हैं। सेना के उप प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल शरत चंद ने  समिति को बताया की अपर्याप्त   धन  के कारण कुछ नया नहीं हो पा रहा। जो कुछ मिलता है वह नियमित खर्चों में निकल जाता है। अचानक या आपात खरीदारी नहीं हो पाती है। इसके चलते हथियारों की क्षमता पर भी प्रभाव पड़ रहा है और साथ ही समय पर भुगतान नहीं होने के कारण कानूनी दिक्कतें आ रही हैं। धन की कमी से एक क्षेत्र तो बुरी तरह प्रभावित हो रहा है, वह है सैनिक अड्डों और  संस्थापनाओं की हिफाजत।  उड़ी, नगरोटा  और शुंजवान पर हमले के बाद यह बहुत जरूरी हो गया है।  यह सुनकर कोई भी  प्रभावित हो सकता है आने वाले वित्त वर्ष में सेना को 2 लाख 79 हजार 305 करोड़ों रुपए मुहैया कराए गए हैं। इसके साथ ही 1 लाख 8 हजार 853 रुपए पेंशन के लिए दिए गए हैं। इतनी बड़ी रकम के बारे में सुनकर हैरत में पड़ना और प्रभावित होना स्वाभाविक है। लेकिन, यह सोचिए भारतीय सेना दुनिया की सबसे बड़ी सेना है और उसे प्राप्त धन का एक बड़ा हिस्सा वेतन तथा भत्तों में निकल जाता है, जो बचता है वह हथियारों के रखरखाव मैं खत्म हो जाता है। 

  वास्तविकता तो यह है की तीनों सेनाओं ने नए हथियार खरीदने के लिए 1 लाख  72हजार 203 करोड़ रुपयों की मांग की थी और उन्हें  दिया गया केवल 93हजार 982  करोड़। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं नए हथियार खरीदने की बात तो दूर फौज के पास इतना रुपया नहीं रह जाता है कि जिन हथियारों के लिए पहले से ऑर्डर दिए जा चुके हैं  उनके लिए समय पर भुगतान किया जा सके। 

 बड़ी-बड़ी बातें करने वाली सरकार, दुश्मन को मुंहतोड़ जवाब देने की बात करने वाली सरकार की सेना की यह हालत है कि उसके पास 40 दिनों तक युद्ध करने के गोला बारूद भी पर्याप्त नहीं हैं और अगर जमकर युद्ध हो तो गोला - बारूदों का मौजूदा भंडार महज 10 दिन चल सकता है। सरकार ने 2,246 करोड़ रुपयों  के मूल्य के गोला बारूद खरीदने की सहमति के बाद 9,980 करोड़ रुपयों की खरीद की  बातचीत चल रही है। फौज के पास जो अभाव है उसे पूरा करने की 6,380 करोड़ों  की जरूरत है। जब कि उसे मात्र  3600 करोड़ रुपये ही आवंटित किए गए। इसका मतलब है देश फिलहाल छोटे युद्ध  में भी नहीं टिक सकता। 

  यही नहीं हमारी पूरी सुरक्षा प्रणाली आयातित हथियारों पर टिकी हुई है। स्टॉकहोम की एक संस्था पीस रिसर्च इंस्टिट्यूट की रिपोर्ट के मुताबिक 2013 से 2017 के बीच भारत परिष्कृत हथियारों के मामले में दुनिया का  सबसे बड़ा  आयातक देश  रहा है। दुनिया में कुल जितने हथियार आयात किए जाते हैं उसका 12% तो भारत आयात करता है और 2008 से 2012 तथा 2013 से 2017 के बीच  यह  औसत 24% हो गया।

   कोई भी देश अगर खुद हथियार नहीं बनाता और उसकी डिजाइन नहीं तैयार करता है तो कभी महत्वपूर्ण सैन्य शक्ति नहीं बन सकता। क्योंकि जो हथियार बाहर  बनाए जाते हैं वह उत्पादक देश की जरुरत के अनुसार डिजाइन किए होते हैं और दूसरी परिस्थितियों में जाकर उसने कारगर नहीं होते। इसमें सबसे बड़ी विपदा तो यह है कि सुरक्षा मंत्रालय ने निर्देश दे रखा है कि चीन और पाकिस्तान से दोहरी लड़ाई लड़ने के लिए तैयार रहें। अगर संसदीय समिति की रिपोर्ट सही है तो हमारी स्थिति अकेले पाकिस्तान से युद्ध के लायक भी नहीं है चीन तो दूर की बात है।

    सेना  जिन मुश्किलात से दो चार है उसका समाधान सब जानते हैं। पहला और सबसे जरूरी है कि सर्वोच्च स्तर पर सुधार किए जाएं और तीनों सेना एक टीम की तरह काम करे। इसके लिए जरूरी है सुरक्षा मंत्रालय दो स्तरों पर सलाह मशविरा करे। पहला स्तर फौजी अफसरों का होगा और दूसरा सिविल सर्विस के अफसरों का। दोनों की अलग अलग समितियां बनाकर  उनसे मशवरा करें। रक्षा मंत्रालय का दुर्भाग्य तो यह है कि विशेषज्ञ  सैन्य सलाहकार के बावजूद सरकार  सिविलियन अफसरों से  मशवरा करती है।   यह अफसर वास्तविक स्थिति और मामलों को प्रक्रियागत फंदों में उलझा देते हैं, ताकि   सेना पर उनका वर्चस्व बना रहे। इसके कारण हथियार खरीद की कोशिश थम  गई और तीनों सेना  आधुनिकीकरण अटका पड़ा है। खतरे चारो तरफ मंडरा रहे हैं। अगर जंग होती है तो हमारी सरकार हमारे फौजियों एक तरह से खुदकुशी के लिये झोंक देगी।

मिलती नहीं कमीज तो पांवों से पेट ढंक लेंगे

कितने मुनासिब हें ये लोग इस सफर के लिये 

Tuesday, March 27, 2018

अज्ञानता  स्वीकार बड़प्पन है

अज्ञानता  स्वीकार बड़प्पन है
अज्ञानता को स्वीकार करना सबसे बड़ा ज्ञान है। सभी दर्शन  की पूर्वशर्त है यह।अब देखिए, पिछले दिनों राहुल गांधी से किसी बच्चे ने पूछ लिया एन सी सी के  “सी” सर्टिफिकेट को पूरा करने के बाद वह कौन सी सुविधाएं देंगे और राहुल गांधी ने यहीं पर एक राजनीतिक अपराध  कर डाला। उन्होंने कहा , नहीं जानते। राहुल ने स्पष्ट तौर पर कहा कि उन्हें मालूम नहीं है कि एन सी सी  में क्या ट्रेनिंग दी जाती है ? इसलिए वह इस में वे कुछ नहीं कह  सकते हैं। इसके बाद कांग्रेस अध्यक्ष ने  बताया कि वह “ नौजवान भारतीयों को रिटायर होने के पहले क्या क्या देना चाहते हैं। “ जहां तक NCC का सवाल है उसके बारे में वे बहुत कुछ नहीं जानते ।  खास तौर पर यह नहीं जानते कि उन्हें क्या –क्या  ट्रेनिंग दी जाती है।

 अब  लीजिए हो गया बवाल। कर्नाटक चुनाव सिर पर  है और कांग्रेस अध्यक्ष  का यह कथन राष्ट्रीय बहस का मसला बन गया। राहुल गांधी ने कहा कि वह इसकी विस्तृत तौर  पर जानकारी नहीं रखते। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इसे बिना सोचे समझे  हवा में उड़ा दिया। सोशल मीडिया नेटवर्क में बात फैली कि  राहुल गांधी एन सी सी के बारे में कुछ नहीं जानते। यह आजाद भारत में एक विशिष्ट संस्थान का अपमान है।

 सोशल मीडिया के वाल को पढ़ने के बाद ऐसा लगने लगा कि यह मसला राहुल गांधी बनाम एन सी सी का  हो गया है।  लेकिन बात यह नहीं है।   पहले तो राहुल को इस मसले  का जरा चालाकी से  उत्तर देना चाहिए था , जैसा आमतौर पर राजनीतिज्ञ  करते हैं।  लेकिन राहुल की इमानदारी  कहिए कि वे अपनी अभिव्यक्ति में धूर्तता नहीं ला  सके। उन्हें एन सी सी  के समर्थन में बड़ी-बड़ी बातें करनी चाहिए थीं  और तब कहना चाहिए था बेशक जिस कैडेट ने  इसे पास किया है उसे हर संभव सुविधा दी जाएगी।  लेकिन क्या इस तरह का उत्तर राजनीतिक जुमलेबाजी नहीं होगा 15 -15 लाख रूपए जमा कराने वाले भाषण कई तरह ।  यह प्रतिबद्धता नहीं है धोखा है।  यही नहीं इस तरह के उत्तर  एन सी सी  के आतंरिक मूल्यों के विपरीत होंगे।  अपने कॉलेज के दिनों में हमारे बहुत से  पाठकों ने एनसीसी ने भाग लिया होगा और उन्हें मालूम होगा एन सी सी  के आंतरिक मूल्य क्या हैं , तथा चालाकी भरे उत्तर उसके उन मूल्यों से विपरीत हैं।  एन सी सी  का उद्देश्य है एकता और अनुशासन। उसका वह राष्ट्रगीत “ मंदिर गुरुद्वारा भी यहां है और मस्जिद भी हैं यहां.....”

बहुत कम लोग जानते होंगे की इस गीत को किसने लिखा।  राहुल गांधी का  यह साफ कहना एन सी सी  के आंतरिक मूल्य के अनुकूल है। खास तौर पर उसके आंतरिक मूल्य की सूची के  अंतिम दो पैरा देखें।

पहला-  ईमानदारी, सच्चाई, आत्मबलिदान, अभ्यास और कठोर परिश्रम के मूल्य को समझना और उसका सम्मान करना।

 दूसरा- ज्ञान, विद्वता और वैचारिकता का सम्मान करना।

 एन सी सी  का सबसे बड़ा प्रमाण पत्र “ सी”  सर्टिफिकेट है।  गूगल में सर्च करेंगे  तो दिखेगा कि “ सी” सर्टीफिकेट   हासिल करने के बाद सेना में भर्ती होने और सरकारी नौकरियों में सुविधा मिलेगी लेकिन इस पर विचार करना जरूरी है । सोचने वाली बात है इस सर्टिफिकेट को पाने के बाद अगर समुचित अकादमिक योग्यता नहीं रही तो क्या उस उम्मीदवार को केवल इस सर्टिफिकेट के बल पर सुविधाएं मिल सकती हैं ?

 ऐसी बहस के दौरान अक्सर राजनीतिक नीति संबंधी उत्तर देते हैं।  यह सबसे सुरक्षित तरीका है और दूसरा  तरीका है अपनी अज्ञानता प्रकट करने का।  जो राजनीतिक तौर पर हानिकारक होता है।  बड़बोलापन कुछ देर के लिए कारगर होता हुआ  सा लगता है लेकिन   हमेशा  कारगर नहीं रहता। आज की विडंबना यह है कि हमारे राजनीतिज्ञ यह दिखाते हैं कि वह सब कुछ जानते हैं जो कुछ नहीं जानते उसके बारे में इतना शोर मचा देते हैं कि बात ही गुम हो जाती है। यह गड़बड़ी  तब से शुरू हुई जब से टी वी  पर बहस होने लगी और बातों को तोड़ मरोड़ कर उनके विभिन्न अर्थ निकाले जाने लगे।  यहां से यह तौर तरीके  सोशल मीडिया में आए और सीमित कैरेक्टर के साथ  गरमा गरम  समाचारों के प्रवाह  में विचार  बन कर जनता के सामने  आने लगे। इसके बाद गड़बड़ी यह हुई कि हम अपने अपरिपक्व को विचारों को सही बता कर उनकी तरफदारी शुरू करने लगे। उसके पक्ष में  तरह-तरह के तर्क देने लगे।  यह सोचने की कोई ज़रुरत  नहीं समझते हैं कि तर्क का भी एक शिष्टाचार होता है।

सबसे खराब तो यह हुआ की हम राजनीति और नीति दोनों के  जटिल विचारों को  भूल छिछलेपन सेव्यक्तित्व को जोड़ने  लगे।  आज शायद ही किसी  सोशल मीडिया का कोई कोना  ऐसा मिले जिसमें समुचित विरोध और जायज समर्थन दोनों का   उचित तालमेल  हो।  जो लोग मोदी जी की आरती गाते हैं वे नोटबंदी का विरोध नहीं कर सकते या दलितों पर हमले का प्रतिवाद नहीं कर सकते ।  इस जमात में ऐसा  आदमी पाना दुष्कर होगा जो जीएसटी पर कांग्रेस के विचारों का समर्थक हो या  यह स्वीकार करे कि जाति और संप्रदाय से जुड़े हमले गलत हैं ।  नेता यह गलतफहमी पाल  लेते हैं कि वह सब कुछ जानते हैं और ऐसा ही फैला भी  देते हैं । कुछ भी   नहीं जानना स्वीकार  करने के पीछे एक मनोवैज्ञानिक भय  है होता है कि  कहीं गलती तो नहीं हो रही है। इसी वजह से सब लोग अपने को सर्वज्ञात बताते हैं। लेकिन इस   अदूरदर्शितापूर्ण गलत विचार या कहें  गलतफहमी से बेहतर है कि धीरे-धीरे जानकारी प्राप्त करने की ओर बढ़ा जाए।  इस राह पर पहला कदम होगा ना जानकारी को स्वीकार करना वरना आगे जाकर पूरी राजनीति झूठ और जुमलों ,  जबरदस्ती के थोपे  हुए विचारों और कुतर्कों का केंद्र बन जाएगी ।