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Thursday, February 2, 2012

सोनार बांग्ला की काली तसवीर


अमर उजाला में एक फरवरी 2012 को प्रकाशित

हरिराम पाण्डेय
शस्य श्यामला भूमि और सोनार बांग्ला के नाम से मशहूर पश्चिम बंगाल के गांव आरंभ से ही गरीबी और भुखमरी का शिकार रहे हैं। एक तरफ गरीबी और कर्ज से ऊबकर खुदकुशी करते किसान हैं, दूसरी तरफ बीमार बच्चों को तड़पते और मरते देखने के लिए मजबूर मां-बाप। यही नहीं, मुर्शिदाबाद और मालदह जिलों से बच्चों की तस्करी और युवतियों की परोक्ष रूप से खरीद-फरोख्त भी सोनार बंगला के काले पक्ष का खुलासा करते हैं।
राज्य के विभिन्न अस्पतालों में बच्चों की लगातार मौत ने एक बार फिर यहां की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की हकीकत पर से परदा उठा दिया है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि राज्य में औसतन साल भर में 40,000 बच्चे विभिन्न कारणों से मौत के शिकार होते हैं। केवल विगत एक जनवरी से 31 जनवरी के बीच राज्य के विभिन्न अस्पतालों में 100 से ज्यादा बच्चे मर गए, जिनकी उम्र तीन घंटे से तीन साल के बीच थी। मौजूदा सरकार इसे साजिश बताती है, जबकि बच्चों के मां-बाप इसे अस्पतालों की लापरवाही बताते हैं। डॉक्टरों का कहना है कि चिकित्सा सुविधाओं और चिकित्सकों की कमी के कारण यह सब हो रहा है। हालांकि केंद्र सरकार में स्वास्थ्य राज्य मंत्री और तृणमूल कांग्रेस के नेता सुदीप बंदोपाध्याय का दावा है कि राज्य में शिशु मृत्युदर घटी है और बच्चों की मौत का प्रचार साजिश है। लेकिन उनके पास इसका कोई जवाब नहीं है कि साजिश कौन कर रहा है। यही हाल मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का भी है।
सरकार और उसके समर्थक चाहे जो कहें, पर सचाई यह है कि राज्य में शुरू से अब तक स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार और विकास पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। यहां के सरकारी अस्पतालों पर सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं का राज चलता रहा है। ये राजनेता डॉक्टरों का अपमान करते हैं, जिससे उनका नैतिक बल गिरता है। इसके अलावा सरकारी अस्पतालों में भरती रोगियों की तादाद दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। जिन अस्पतालों में बच्चों की मौत हुई है, उनमें क्षमता से तीन गुना ज्यादा बच्चे भरती हैं। ये बच्चे डायरिया, सांस में तकलीफ या कुपोषण के शिकार हैं। तीनों स्थितियों में शरीर की प्रतिरोधक क्षमता घट जाती है और तरह-तरह की बीमारिया धर दबोचती हैं।यही नहीं, आर्थिक दुरावस्था के कारण गर्भ के दौरान माताओं को उचित पोषाहार नहीं मिलने के कारण बच्चे जन्म से ही कमजोर होते हैं। इसके अलावा महंगी दवाओं तक पहुंच नहीं होने से मां-बाप असहाय होते हैं।
पश्चिम बंगाल की सबसे बड़ी त्रासदी है यहां की शासन व्यवस्था, जो अपनी हर कमजोरी को पूर्ववर्ती सरकार पर डालकर किनारा कर लेती है। इसके अलावा यहां की विपन्न आर्थिक स्थिति को सामाजिक व्यवस्था और मूल्य पद्धति भी दुखद बनाती हैं। मुहल्ले के क्लबों और खेल संघों को करोड़ों रुपये बांटने वाली सरकार अस्पतालों में सस्ती दवा नहीं मुहैया कराती। दूर-दराज के प्रखंड स्तरीय अस्पतालों में मामूली दवाएं तक नहीं हैं। बंगाल के पूर्वी क्षेत्र में सबसे ज्यादा मौतें सांप काटने से होती हैं और बच्चे इसके सबसे ज्यादा शिकार हैं। लेकिन स्थानीय सरकारी अस्पतालों में इसके इलाज की कोई व्यवस्था नहीं है। डॉक्टर मरीजों को शहर ले जाने का सुझाव न देकर इलाज का नाटक करते हैं। इसके बारे में प्रशासन को भी जानकारी होती है, लेकिन वह भी असंवेदनशील रवैया अपनाता है।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, पश्चिम बंगाल में 10.6 फीसदी आबादी को साल भर पर्याप्त भोजन नहीं मिलता।ऐसे में बीमार होना स्वाभाविक है। अस्पतालों में बच्चों की मौत एक सामाजिक संकट है। कुपोषित और बीमार बच्चों को तभी अस्पताल लाया जाता है, जब उनकी हालत नियंत्रण से बाहर चली जाती है। ऐसे में डॉक्टरों के अभाव से जूझते अस्पताल कुछ नहीं कर पाते। सरकार को चाहिए कि सभी रेफरल अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों में सस्ती दवा की दुकानें खुलवाने की व्यवस्था करे। सरकार यदि व्यापक कल्याण चाहती है, तो उसे इस दिशा में कुछ करना ही होगा।