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Thursday, April 30, 2020

अब आगे क्या रास्ता है

अब आगे क्या रास्ता है 

 3 मई तक लॉक डाउन कर दूसरा  फेज  चलेगा और इसके बाद  यह खत्म हो जाएगा जैसा कि सरकार ने घोषणा की है।  हालांकि मुख्यमंत्रियों से प्रधानमंत्री की  टेली कॉन्फ्रेंसिंग में अधिकांश मुख्यमंत्रियों में लॉक डाउन की अवधि बढ़ाने की सिफारिश की है।   लॉक डाउन बढ़ेगा या खत्म हो जाएगा इस पर  आम जनता में कन्फ्यूजन है।  कुछ लोग कहते हैं लॉकडाउन  बढ़ सकता है  और कुछ लोग इस उम्मीद में हैं  कि  लॉक डाउन खत्म हो जाएगा। यद्यपि प्रधानमंत्री ने अभी तक इस संबंध में कोई संकेत नहीं दिया है।  अभी हाल में प्रधानमंत्री ने  मन की बात में कहा था कि हमारा देश युद्ध के बीच में और लोगों को सावधानी बरतनी जरूरी है।  प्रधानमंत्री ने देश  वासियों से यह बात ऐसे मौके पर कही जब आर्थिक गतिविधियों को फिर से चालू करने के लिए राज्यों और केंद्र की सरकारें  धीरे-धीरे छूट दे रही हैं।  पश्चिम बंगाल में एक तरफ जहां यह खबर छपती है पिछले 34 घंटों में कोरोना वायरस के संक्रमण के 33 मामले सामने आए हैं। 35 नए मामलों के साथ ही बंगाल में पूर्णा वायरस संक्रमण की संख्या 550 हो गई जिनमें 5 लोग ठीक हो कर घर चले और 22 लोगों की मौत हो चुकी है।  अगर देश भर  के आंकड़ों को देखें इस महामारी से संक्रमित लोगों की संख्या में रोजाना वृद्धि हो रही है पिछले 24 घंटों के दौरान 1897 नए मामले  आए हैं और 1007 लोगों की मृत्यु हो गई है। देश में  अब तक कुल 31332 मामलों की पुष्टि हुई है जिनमें 111 विदेशी  मरीज हैं।  लेकिन इनके बीच एक उम्मीद भी दिखाई पड़ रही है कि  संक्रमित लोगों के ठीक होने की रफ्तार भी तेज  हुई है। खबरों की अगर मानें तो बंगाल में कोरोनावायरस से संक्रमण के लगभग 88%  मरीज कोलकाता हावड़ा और उत्तर 24 परगना में हैं।  इसके बावजूद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने ग्रीन जोन में कामकाज आरंभ करने तथा दुकाने इत्यादि खोलने की इजाजत  दे दी है।  यही नहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने एक सहानुभूति भरा कदम बढ़ाते हुए लॉक डाउन के कारण देश के विभिन्न हिस्सों में फंसे प्रवासी मजदूरों  छात्रों और पर्यटकों को अपने घर जाने की इजाजत दे दी है और उनके घर जाने का बंदोबस्त राज्य सरकारें करेंगी।  सरकार ने निर्देश दिया है कि  फंसे हुए लोगों को घर पहुंचाए जाने के लिए  प्रदेश की सरकार है नूडल अधिकारी की नियुक्ति करेगी।  जिन राज्यों के बीच आवागमन होने वाला है वहां की अथॉरिटी सड़क के माध्यम से आवागमन सुनिश्चित करेगी। जाने वाले लोगों  की स्क्रीनिंग की जाएगी और अगर कोविड-19 के लक्षण नहीं मिले तब ही उन्हें जाने की इजाजत मिलेगी।  गंतव्य स्थान तक पहुंचने के बाद उन दोनों की स्थानीय स्तर पर स्क्रीनिंग की जाएगी। ऐसे लोगों को आरोग्य सेतु  ऐप का उपयोग करना होगा ताकि उनकी सेहत पर निगरानी रखी जा सके।  यही नहीं खाड़ी के देशों में फंसे भारतीयों को  लाने के लिए 3 युद्धपोत भेजे जाएंगे। प्रधानमंत्री का यह  साहसिक कदम सचमुच सराहनीय है।  क्योंकि जो लोग विभिन्न स्थानों पर फंसे हुए हैं और दाने-दाने को मोहताज हैं वह सचमुच देश के लिए बहुत बड़ा संकट बन सकते हैं। क्योंकि,  वुभुक्षित: किम ना  करोति  पापः।  आज देश की राजधानी दिल्ली से लेकर सुदूर राज्य तक हजारों ऐसे मजदूर फंसे हुए हैं जिनके सामने भूखों मरने की स्थिति आ गई है। उनके पास ना आई कार्ड है ना राशन कार्ड और ना आधार कार्ड  लिहाजा उन्हें  पीडीएस का लाभ बहुत कम मिलेगा या नहीं मिलेगा।  समय-समय पर राष्ट्र संघ द्वारा जारी हंगर इंडेक्स देखते हुए सरकार ने अनाज के गोदाम भरे ताकि कोई भूख से परेशान ना हो लेकिन कोरोना वायरस संक्रमण के  कारण  अनाज से भरे गोदाम व्यर्थ हैं।  इसी स्थिति में  मदद के लिए सरकार ने आर्थिक पैकेज की घोषणा की।  कुछ लोगों का कहना है इस तरह की घोषणा से बहुत ज्यादा बात नहीं बनेगी।  हालांकि इससे  लाभ मिलेगा  और यह लाभ दो तरफा होगा। पहला कि लोगों में प्रधानमंत्री  के प्रति सहानुभूति बढ़ेगी जिससे देश में एकजुटता कायम होगी और यह किसी युद्ध के लिए सबसे जरूरी है। ध्यान रहेप्रधानमंत्री ने  खुद कहा था कि हम एक युद्ध के बीच में खड़े हैं। इस युद्ध से निकलने के लिए या इस पर विजय प्राप्त करने के लिए सबसे आवश्यक है हम एकजुट रहें और अफवाहों पर ध्यान नहीं दे।   लॉक डाउन की अवधि बढ़ भी सकती है हम भी हो सकती है लेकिन सरकार द्वारा सुनिश्चित किए गए उपाय निश्चित रूप से लाभकारी होंगे। सरकार की आलोचना करने वाले लोग यह प्रश्न कर सकते हैं कि  जब मालूम है कि  सोशल  डिस्टेंसिंग से   कोविड-19 की रोकथाम हो सकती है कुछ क्षेत्रों में व्यापारिक गतिविधियों को अनुमति देने की क्या जरूरत है क्योंकिइससे सोशल डिस्टेंसिंग खत्म होने लगेगा खास करके हमारे देश में जहां  आबादी  बहुत  घनी है। कोई अगर चाहे  कि  चुटकियों में यह मसला हल हो जाएगा तो वह  आर्थिक रूप से लंबे अरसे तक हमें प्रभावित करेगा लेकिन तब भी कारोबार को रोकना बुद्धिमानी नहीं होगी।  क्योंकि लॉक डाउन से जहां व्यापक आर्थिक क्षति होती है वही एक बहुत बड़ा वर्ग प्रभावित भी होता है।  इसलिए  कारोबार को आरंभ किया जाना देश के नागरिकों के कल्याण में जरूरी है।  क्योंकि अगर ऐसा नहीं किया जाता है  तो हो सकता है आगे चलकर सामाजिक असंतोष  बढ़े। अगर बाजारवाद शब्दावली में  कहें कि आंशिक रूप से  व्यापारिक गतिविधियों वह आरंभ किए जाने की अनुमति एक तरफ से सप्रेशन अप्रोच है  और ऐसा किए जाने से ना केवल लोगों में   थोड़ा इत्मीनान  आएगा  बल्कि अन्य क्षेत्रों में उम्मीद भी  जगेगी  अगर  लॉक डाउन बढ़ता भी है  तो पहले की तरह नहीं होगा लेकिन ज्यादा उम्मीद होगी कि शायद लॉकडाउन खत्म  हो जाए।  ऐसी उम्मीदें और इत्मीनान न केवल देश के लिए लाभदायक होगा बल्कि समाज को भी   इससे लाभ होगा।  कम से कम तनाव के कारण होने वाले मनोरोग पर अंकुश लगेगा। 


Wednesday, April 29, 2020

पुलिस पर हमले

पुलिस पर हमले 

 जब से कोविड-19 का संक्रमण महामारी बना है तब से  कोरोना वायरस  से जुड़ी खबरों के अलावा  एक और चौंकाने वाली खबर आ रही है वह है  पुलिस पर हमलों  की।  लगभग सभी राज्यों  से इस तरह  के हमलों की  खबरें मिल रही हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश और बंगाल के कुछ हिस्सों में इस तरह की घटनाएं लगातार सुनी जा रही हैं।  मंगलवार को बंगाल के हावड़ा मेंकई इलाकों में पुलिस पर हमले हुए।  हमले अपने चरित्र में न केवल घातक लग रहे थे बल्कि ऐसा लग रहा था कि  उनके पीछे सत्ता का समर्थन है।  सच क्या है यह तो विश्लेषण के बाद ही पता चलेगा लेकिन खुल्लम खुल्ला रैफ पर हमलों  की खबर चौका देने वाली है।  मंगलवार की शाम से इस संबंध में वीडियो वायरल हुआ और उस आधार पर जो जानकारी मिलती है और भी चौंका देने वाली है। हालांकि इस हमले में शामिल कुछ लोगों को गिरफ्तार किया गया है लेकिन इससे बात नहीं बनेगी। क्योंकि,  हमला करने वाले लोग भारतीय राष्ट्र में सोशल इंजीनियरिंग को खराब करने में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।  यह तो बात की बात है लेकिन यहां दो प्रश्न हैं  पहला हमलों के  मूलभूत कारण क्या  हो सकते हैं और दूसरा कि  आपसी मदद के हाथ बढ़ाने से कितना लाभ हो सकता है। पहला, हमलों मूलभूत कारण क्या हैं? अगर इसे वर्तमान स्थिति में मनोविज्ञान की कसौटी पर  परखें  तो कारण तनाव दिखेगा।  जो लोग सामान्य ढंग से कमाने खाने वाले हैं उन पर बंदिशें अगर लगती हैं तो बंदिश लगाने वालों पर गुस्सा दिखेगा ही।  यह हमले मनोवैज्ञानिक तौर पर सत्ता पर हमलों  की अभिव्यक्ति  कहे जा सकती हैं।  जैसा कि कश्मीर में पत्थरबाज किया करते थे। परंतु वह घटना बिल्कुल पृथक की और उसके कारण भी अलग  थे।  वर्तमान में जो हमले हो रहे हैं  उन्हें अगर भारतीय परिप्रेक्ष्य में इसे  परखें  तो यह निष्पत्ति सही नहीं दिखेगी। क्योंकि भारतीय पुलिस की रचना सत्ता के नियमों को समाज पर लागू करने के लिए ही हुई थी और यह एक तरह से सत्ता और समाज के बीच कड़ी के रूप में काम करने  लगी क्योंकि हमारे समाज में पुलिस व्यवस्था ही ऐसी पहली सरकारी व्यवस्था है  जिसका जनता से सीधा और सामूहिक संपर्क रहता है।  इसलिए गुड पुलिसिंग के तहत पुलिस पब्लिक संबंध पर ना केवल जोर दिया जाता है बल्कि इसे व्यवहारिक रूप में काम में लेने  की सिफारिश की जाती है। लेकिन वर्तमान में जो हो रहा है वह  इस सार्वभौम  तथ्य से पृथक है । यहां जो हमले  हो रहे हैं  वह सामाजिक वर्चस्व कायम करने और खुद को वर्चस्व शाली  के रूप में पेश करने में व्यवधान की अभिव्यक्ति है। यहां पुलिस ना केवल हम लोग का शिकार होती है बल्कि  कुछ लोगों के समूह द्वारा एक तंत्र को घुटनों पर लाने इस सनक है।  यहां  प्रतिरोधी बल प्रयोग आवश्यक है लेकिन सत्ता द्वारा सामाजिक व्यवस्था को कायम रखने  के प्रयास के स्वरूप प्रथम बल प्रयोग पर रोक है।  यह लोकतंत्र का तकाजा भी है।

    लेकिन इसी के साथ एक बात  पर समाज के सभी अंगों को और समुदायों को सहमत किया जाता तो हालात ऐसे न होते।  यहां सबसे जरूरी है एकता , एकजुटता  और सहयोग का हाथ बढ़ाने का  मानस।  यह बताना जरूरी है कि विपत्ति की इस घड़ी में  जब हाथ मिलाना वर्जित है तो सहयोग  के हाथ  बेहद फलदाई हो सकते हैं ।सहयोग के हाथ  तू दूर  सहयोग के दो शब्द ही पर्याप्त होंगे।  हमारे देश में  26 नवंबर को मुंबई पर हमले हुए थे और उस  हमले के बाद  पूरे देश ने  यह स्वीकार किया कि  हमले और गुस्से  से कुछ नहीं होने वाला यह सब व्यर्थ प्रयास है।  क्योंकि जैसे हमले  अभी हो रहे हैं  उनके लिए ना युद्ध का मैदान और ना  सेना  की  जरूरत होती है। छोटे-छोटे हमले  समाज का स्वरूप बिगाड़ रहे हैं।  अगर महामारी और उसके दुष्प्रभाव अभी कायम रहे तो इसका और भी खराब सामने आएगा। क्योंकि अभी जो वैज्ञानिक और आर्थिक समृद्धि हमें प्राप्त हुई है वह धीरे-धीरे खत्म हो रही है।  बेरोजगारी बढ़ती जाएगी और आर्थिक विकास घटता जा रहा है।  पूरा देश या कह सकते हैं विश्व का अधिकांश भाग लॉक डाउन की पीड़ा झेल रहा है।  वैज्ञानिक इसकी वैक्सीन निकालने के लिए रात दिन एक कर रहे हैं। वायरस का प्रभाव जल्दी ना पड़े इसके लिए लॉक डाउन के साथ साथ सोशल डिस्टेंसिंग  का भी पालन किया जा रहा है।  जो लोग पालन नहीं कर रहे हैं  उन पर दबाव डाला जा रहा है।  अब चूंकी  पुलिस ऐसी व्यवस्था है जो आम जनता के बीच सरकार का प्रतिनिधित्व करती है तो इस जवाब के लिए उसी का उपयोग किया  जा रहा है। लेकिन हमारे यहां कुछ अजीब सी परिस्थिति है कुछ लोग  इस व्यवस्था को सही मान रहे हैं  तो कुछ गलत।  कुछ लोगों का कहना है कि सरकार अपनी नाकामी छुपाने के लिए पुलिस का उपयोग कर रही है कुछ लोगों का मानना है कि रोग का संक्रमण अधिक ना हो इसलिए सोशल डिस्टेंसिंग  व्यवस्था के लिए पुलिस का उपयोग जरूरी है । लेकिन सच है कि राज्य सरकार हो या केंद्र सरकार हो सब लोगों के  बचाव के लिए प्रयासरत हैं।  इस महामारी के कारण जो आर्थिक क्षति हुई है वह  भयानक है।  जो लोग अनौपचारिक मजदूरी करते थे या जो लोग स्वरोजगार से जुड़े थे उनकी रोजी चली गई और वह भविष्य में रोटी के लिए चिंतित हैं। आंकड़े बताते हैं कि लगभग 5 करोड़ रोजगार समाप्त हो गए और हालात है तो यह संख्या बढ़ेगी। इसके अलावा 12.50 करोड़  किसानों और कृषि मजदूरों  का भविष्य भी संकट में है।  ऐसे में समाज के विभिन्न समुदाय अगर सहयोग का हाथ नहीं बढ़ाते हैं तो आने वाले दिनों में स्थिति बहुत खराब हो जाएगी।  जो लोग पुलिस पर हमले कर रहे हैं उन्हें यह समझना होगा कि  हमलों से कोई बात नहीं बनेगी।जो कुछ भी होगा वह शांति और सहयोग से होगा। 


Tuesday, April 28, 2020

इस महामारी के बाद विश्व बदल जाएगा

 इस महामारी के बाद विश्व बदल जाएगा 

 जो समाज वैज्ञानिक लक्षण दिखाई  पड़ रहे हैं  उससे प्रतीत होता है की जो दुनिया पहले थी वह इस महामारी के बाद नहीं रह पाएगी। 9/11  और महामंदी के बाद दुनिया सिकुड़ गई थी अब ऐसा लग रहा है कि हम एक आत्मनिर्भर विश्व की ओर बढ़ रहे हैं।  कोई भी ऐसी घटना जो  व्यापक स्तर पर विखंडन पैदा करती हो  वह कई वर्षों के बाद  या कह सकते हैं कि कई दशकों के बाद होती है।कोई ऐसी विखंडन कारी घटना  जिसकी उम्मीद ना हो या लंबे समय तक कायम रहे तथा दूर-दूर तक उसका प्रसाद है जैसा कि कोविड-19 के दौरान हो रहा है वैसे ही घटनाएं अक्सर और साधारण परिवर्तन  ला देती हैं।  बाद में मनोवैज्ञानिक कारक इसमें अपनी भूमिका निभाते हैं। उनकी भूमिकाएं अत्यंत व्यापक होती है। इसके अलावा मौजूदा सामाजिक, तकनीकी, राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तनकारी तत्व मनोविज्ञान के साथ मिल जाते हैं और व्यापक परिवर्तन लाते हैं। इस मायने में कहा जा सकता है कि विखंडन कारी घटनाएं परिवर्तन को   बढ़ावा देती हैं,  इसमें आवेग को बल देती हैं तथा एक दिशा में उसे प्रेषित करती हैं।  इस दिशा में घटनाएं पहले भी  बढ़ती रही हैं लेकिन उनकी दिशा निश्चित नहीं होती है। महामारी से क्या क्या बदलेगा इसे समझने के लिए हमें 9/11 के आतंकी हमले या 2008 के महामंदी के बाद   के हालात पर विचार करना होगा। 

       जरा  11 सितंबर 2001 को न्यूयॉर्क में  हुए आतंकवादी हमले पर विचार करें।  इस हमले ने अमेरिकियों के  सोचने का ढंग बदल दिया।  न्यूयार्क  टाइम्स के अनुसार लगभग आधे अमेरिकियों में ट्राॅमा के उपरांत के तनाव के लक्षण पाए गये और  इसका प्रभाव लंबे समय तक देखा गया।  लोगों में अपनी सुरक्षा के लिए हमेशा भय बना रहता था धार्मिक तथा राजनीतिक सहिष्णुता गुस्सा इत्यादि तो अन्य प्रक्रियाएं थीं। इसके अलावा लोगों में देश भक्ति के भाव और परिवार से जुड़े रहने की भावनाएं एवं अन्य लोगों से संपर्क बनाए रखने का एक भाव बोध पैदा हो गया था।  हमेशा कुछ ऐसी व्यवस्थाएं खोजी जा रही थी जो लोगों में ऑनलाइन बातचीत की सुविधाएं मुहैया कराएं।  फेसबुक और व्हाट्सएप इसी अवधि के विकास  हैं।  एक सोशल नेटवर्किंग साइट “मीटअप” के विकास करने वाले स्कॉट  हीफरमैन  के अनुसार   उन्होंने कभी सोचा नहीं था वे  समुदाय में दिलचस्पी रखते हैं लेकिन उस अनुभव ने एक प्रश्न खड़ा किया लोग मुझसे और मैं लोगों से कैसे जुड़  जाऊं । लोग अपने समुदाय से दूर रहकर भी कैसे बात करें और फिर इस साइट का विकास हुआ।  यही नहीं जब अमेरिका में मार्क जुकरबर्ग से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मिले और वहां  मार्क के  माता-पिता मौजूद और नरेंद्र मोदी की मां-बाप के प्रति भावनाओं को सुनकर वह लगभग रो पड़े।  अमेरिका जैसे भौतिकवादी देश  में लोग आपस में जुड़ने की कोशिश करने  लगे। यह मनोवैज्ञानिक  फिनोमिना  इतना प्रबल हुआ  कि आम आदमी सोशल साइट्स में  जुड़ कर  दोस्त बनने लगा अपने गोपनीयता का खुलासा करने लगा यहां तक कि खरीदारी की आदतों के बारे में भी अभिव्यक्ति आने लगी।  हम दूर रहकर भी अजनबियों से मिलकर खुश होते  हैं। लोगों ने अपने व्यक्तिगत आयोजनों  की तस्वीरें शेयर करनी  शुरू कर दीं।  सोशल नेटवर्क बहुत तेजी  से विकसित हुआ, हम सबके लिए  दुनिया सिकुड़ गई।

       2008 में महामंदी आई।  यह एक तरह से आर्थिक घटना थी लेकिन उसने समाज को मनोवैज्ञानिक और सामाजिक तौर पर बहुत ज्यादा प्रभावित किया।  लंबे समय तक आर्थिक अभाव खासकर नौजवानों में कायम आर्थिक अभाव ने  मालिकाना और जमा करके रखने की अवधारणा को बदल दिया।  मंदी के बाद  जब हालत सुधर भी गए तो बहुतों ने मकान खरीदना बंद कर दिया यहां तक कि मोटर गाड़ियों की खरीदारी कम हो गई गई।  वाहन निर्माताओं को दूसरे देशों की ओर रुख करना पड़ा।  उसी अवधि में उन क्षेत्रों में  एप कैब  की अवधारणा का विकास हुआ। उस समय एक मंत्र विकसित हुआ कि  वस्तुओं की खरीदारी पर कम से कम खर्च किया जाए और अनुभव एवं संचय का ज्यादा से ज्यादा विकास किया जाए। 

      अब कोविड-19 आया है और उल्टी दिशा में परिवर्तन की ओर इशारा कर रहा है।  इसका संकेत वैश्विक से स्थानिक  की ओर  है।  कोविड-19 ने ऐसा परिवर्तन किया है जिसे खत्म नहीं किया जा सकता।  सोशल डिस्टेंसिंग और  सेल्फ क्वारेंटिंग ने हमारे कार्यक्रमों और जीवन शैली  के चारों तरफ  छोलदारियां  खड़ी कर दी हैं जिससे आम आदमी भौतिक तथा मनोवैज्ञानिक तौर पर  आबद्ध हो गया है, हमारा नजरिया संकुचित हो जया है।  विचित्र तरह की  खरीदारियां और  सीमा पार के परिवहन पर पाबंदियों  के कारण अंतरराष्ट्रीय सप्लाई चैन बाधित हो गया है। लोग स्थानीय उत्पादित वस्तुओं  को प्राथमिकता दे रहे हैं। महामारी ने  एक नारा दिया आत्मनिर्भरता,   निगरानी तथा  व्यक्तिगत सामाजिक जिम्मेदारी।  यह मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया दुबारा बदलाव के लिए उत्प्रेरक का काम करेगी। इसके अलावा  पर्यावरण में परिवर्तन साफ दिखाई पड़ रहा है और लोगों के बर्ताव के आकलन के लिए कृत्रिम इंटेलिजेंस का उपयोग शुरू हो गया है।आरोग्य सेतु इसी कृत्रिम इंटेलिजेंस का अंग है। इस महामारी  की गंभीरता जो खत्म होगी चाहे उसमें जितना भी वक्त लगे यह दुनिया बदली हुई होगी। आम आदमी स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा देगा चाहे वह खेती हो घर का खाना।  विदेशी वस्तुओं और ब्रांड के प्रति लोगों में रुझान घटेगा और संदेह बढ़ेगा। अंतरराष्ट्रीय पर्यटन को भी सही होने में वक्त  लगेगा। नीति निर्माताओं के लिए यह बड़ा कठिन समय है। उन्हें स्वास्थ सेवा ,  टैक्स लगाए जाने ,  सामाजिक सुरक्षा और रोजगार के प्रति ज्यादा संवेदनशील होना पड़ेगा।  इन सबके बावजूद राष्ट्रवादी प्रवृतियां बढ़ेंगी।  पूरी दुनिया एक ऐसे द्वीपीय स्थल में  बदल जाएगी जिसे हम लोगों ने अभी तक न देखा है ना महसूस किया है। 


Monday, April 27, 2020

कोविड-19ः एकाकीपन में मरते लोगों की पीड़ा

कोविड-19ः  एकाकीपन में मरते  लोगों की पीड़ा 

 देश में 24 घंटे में  कोरोना वायरस के  संक्रमितों  की संख्या बेतहाशा बढ़ती जा रही है और अब यह बढ़कर 26917 हो गई है जिसमें 1975 नए मामले हैं। देश में इससे मरने वालों की संख्या 826 हो गई है।  यही नहीं ,अगर पूरी दुनिया की बात करें तो दुनिया भर में कोविड-19 से 28 लाख से ज्यादा लोग संक्रमित हुए हैं और दो लाख से ज्यादा लोग मारे जा  चुके हैं।  यही नहीं जो लोग खोकर जा रहे हैं उनके बारे में भी डब्ल्यूएचओ ने एक नोट में कहा है इस बात का कोई सबूत नहीं मिला जो लोग ठीक हो कर जा रहे हैं  उनमें एंटीबॉडी विकसित हो गया है और दुबारा संक्रमण नहीं होगा और वह सुरक्षित हैं।   ज्यादातर अध्ययन बताते हैं  जो लोग ठीक हो गए हैं उनकी बॉडी में एंटीबॉडी है लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनके शरीर में एंटीबॉडी का स्तर कम है। इससे एक निष्कर्ष यह भी निकला कि  शरीर में रोग प्रतिरक्षा प्रणाली के भीतर मौजूद टी  सेल की भी संक्रमित  सेल से लड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।  अभी तक ऐसा कोई अध्ययन सामने नहीं आया है जिससे तस्दीक हो सके कि  किसी  वायरस की  एंटीबॉडी मौजूदगी इम्यून सिस्टम को आगे भी वायरस के संक्रमण से रोकने की क्षमता प्रदान करती है। डब्ल्यूएचओ का कहना है कि एंटीबॉडी के प्रभावी होने को लेकर लैब टेस्ट की जरूरत है। इसका मतलब है एक खतरा भी खत्म और संक्रमण   से आक्रांत लोगों की संख्या अभी पूरी तरह खत्म नहीं होगी  तथा जब लोग इससे संक्रमित होंगे तो हो सकता है उनमें मौतें भी हों।

पूरी दुनिया में क्या हाल है इस पर विचार करने से पहले हम अगर अपने देश में मरने वालों की स्थिति पर सोचें तो दहलाने  वाले दृश्य सामने आएंगे।  सबसे बड़ी बात है जो लोग मौत के शिकार हो रहे हैं वे या तो क्वॉरेंटाइन में हैं या फिर आइसोलेशन में हैं। अपने घर वालों से दूर अनजान जगह पर अनजान लोगों के बीच मरना कितना हृदय विदारक हो सकता है इसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। लोग आइसोलेशन में पड़े रहते हैं  उनमें से कुछ लोगों की मृत्यु हो जाती है।  मरने वालों से प्रेम  करुणा और सहानुभूति रखने वालों उनके पास पहुंचने नहीं दिया जाता है। डॉक्टर  यह नहीं बताते किस की मौत हुई है और कब हुई । बेशक  वे भी मनुष्य हैं और मरने वाले  के एकाकीपन की पीड़ा से  क्षुब्ध हो जाते हैं।  लोगों को एकाकीपन में मरने के लिए छोड़ देने के पीछे एक ही अवधारणा है  कि  आइसोलेशन और सोशल डिस्टेंसिंग के कारण  कोविड-19 का  प्रसार कम होगा।  हालांकि इसके बारे में  प्राप्त सबूतों  से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है  कि यह तरीका बिल्कुल सही नहीं है।  लोगों को एकाकीपन में मरने के लिए छोड़ देने के अलावा कई ऐसे भी तरीके हैं जिनसे आइसोलेशन और  सोशल  डिस्टेंसिंग को  बहुत हद तक कायम रखा जा सकता है। अगर परिवार का कोई बहुत करीबी आदमी या कोई बेहद प्रेम करने वाला अगर कोविड-19 के संक्रमण का जोखिम उठा  सकता  है  और बाद में  खुद को  सेल्फ  क्वॉरेंटाइन में रखने को तैयार हो जाता है तो कोविड-19 से मर रहे अपने  स्वजन या प्रेमी  के पास आखिरी समय में मौजूद  तो रह सकता ही है।  दरअसल अपने स्वजन  या प्रेम करने वाले को एकांत में मरने के लिए छोड़ दिया जाना हमारे समस्त नैतिक सिद्धांतों के विरुद्ध है।इससे कोई बहुत ज्यादा हानि नहीं हो सकती क्योंकि अपने किसी बहुत ही करेली व्यक्ति  को एकाकीपन में मरने के लिए छोड़ देने  से मानसिक स्वास्थ्य को भारी आघात  पहुंचता है।  किसी को मरने के लिए अकेले छोड़ दिया जाना या अजनबियों के बीच छोड़ दिया जाना  एक तरह से आत्म संप्रभुता पर आघात जाता है खास करके ऐसे समय में जब मरने वाले मरीज को सहानुभूति और अपनों के साथ की जरूरत होती है। यह मरने वाले व्यक्ति के प्रति न्याय के नैतिक सिद्धांतों को  भंग करता है।क्योंकि मरने के लिए छोड़ दिए जाने वालों में  बुजुर्ग लोग अधिकांश  हैं और उन्हें  अंतिम समय के आखिरी क्षणों में अकेले छोड़ दिया जाना अन्याय पूर्ण है। एक समाज के रूप में हम वृद्ध हत्या के दोषी हैं।

     एंड आफ लाइफ  नाम की  विख्यात चैरिटी संस्था की मैरी  क्यूरी ने अस्पताल वालों से अनुरोध किया है वे किसी की आखिरी समय में परिवार के निकटवर्ती लोगों को साथ रहने की अनुमति दें।  इसराइल में ऐसी व्यवस्था होने लगी है और सब जगह इसके अनुकरण की जरूरत है। यह एक तरह से नैतिक अनिवार्यता है। चिकित्सक और लेखक लिस्ट थॉमस ने लिखा है कि  आखिरी समय में स्पर्श हमारे भीतर ना केवल एक अनुभूति छोड़ जाता है बल्कि हमारे दिमाग में कुछ ऐसे निशान भी छोड़ जाता है जो बताते हैं कि कभी कोई था।  ऐसे  स्पर्श से मरने वाले के भीतर भी आखिरी समय में  एक खास किस्म का सुकून  रहता है। कोविड-19 के संक्रमण के इस दुखद  काल में  एक दूसरे से अलग होने की बाध्यता से बेहद ह्रदय विदारक स्थिति सामने आ रही है।  क्योंकि हम बचपन से देखते हैं स्पर्श इंसान की जरूरत है।  स्पर्श   मौन  की सबसे  मुखर भाषा है।   फ्रायड  अगर मानें तो” इंसानी त्वचा एक सोशल आर्गन और उसे स्पर्श किया जाना एक तरह से सामाजिक सूचना है। “ स्पर्श को पढ़ना बहुत कठिन है इसे केवल महसूस किया जा सकता है।” स्पर्श ऐसे ही एहसास के लिए महादेवी वर्मा ने  “लिखा तुम छू दो मेरे प्राण  अमर हो जाएं। “


देश में संवाद का अभाव

 देश में संवाद का अभाव

 फिलहाल कोविड-19 की महामारी दुनिया में कहर बरपा हुआ है। इस महामारी के कारण लगभग सभी देशों में सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था पर अचानक बहुत बड़ा  बोझ बढ़ गया है। यही नहीं  इस संकट की घड़ी में सार्वजनिक संवाद की कमी का संकट आ गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने  विभिन्न मौकों पर देश को और दुनिया को इस संकट की गंभीरता से आगाह करने की कोशिश की है लेकिन उनके अलावा रोज विभिन्न राज्यों तथा सोशल मीडिया पर इस संकट को लेकर तरह-तरह की भ्रांतियां फैलाई जा रही हैं।  राजनीतिक दलों को छोड़ दें तब भी  कुछ बुद्धिजीवी भी प्रधानमंत्री के संवाद  की शैली  की खिल्ली उड़ाते  पाए जा रहे हैं।   विख्यात संवाद शास्त्री  मैक्लुहानके अनुसार  सही संवाद का अर्थ है कि  संवाद की बात को ग्रहण किया जाए और उसे  समझा जाए।  इस कसौटी पर प्रधानमंत्री की बातें बिल्कुल सही उतरती हैं  लेकिन हमारे सोशल मीडिया में और राजनीतिक विश्व में जो बातें फैलाई जा रही हैं उनका एक विशेष एजेंडा नजर आ रहा है।  आज सूचना की सबसे बड़ी  खपत सोशल मीडिया के माध्यम से होती है और इसकी सबसे बड़ी  ट्रेजडी है  कि सूचना देने वाले और सूचना पाने वालों के बीच सीधा संवाद नहीं होता है जबकि प्रधानमंत्री की कोशिश होती है कि देश की जनता को किया गया संबोधन उनसे  सीधे संवाद  के स्वरूप में हो।  इसमें वे सफल  भी हैं और यही कारण है कि देश विदेश में  उनकी बात सुनी जा रही है ।विभिन्न समूहों के  साथ सीधा संवाद  किसी भी संकट से निपटने के लिए आवश्यक है।  अगर सूचना स्पष्ट नहीं होगी तो हम इस संकट से निपटने के लिए  जूझते रह जाएंगे।  11 मार्च को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोविड-19 को महामारी घोषित कर दी क्योंकि उस समय तक कोरोनावायरस से संक्रमित मरीजों की संख्या 13 गुना बढ़ चुकी।  उस समय भारत में संक्रमण के केवल 62 मामले सामने आए थे जो दुनिया भर में कुल संक्रमण के 0.05 प्रतिशत ही थे।  जहां पूरी दुनिया ने  खासकर यूरोपीय देशों ने इस महामारी को गंभीरतापूर्वक लिया और इससे निपटने के लिए आवश्यक संसाधनों  को भी जोड़  लिया लेकिन भारत चुपचाप बैठ कर केवल उसने रक्षात्मक रुख अपनाया।  इसके बाद यह भारत के राज्यों में फैलने लगा लेकिन राज्यों की सरकारों  और केंद्र सरकार के बीच  समन्वय हीनता तथा संवाद हीनता व्याप गई थी।

  28 राज्यों के 736 जिलों और केंद्र शासित प्रदेशों वाले इस देश में अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग बोलियां बोली जाती हैं अलग-अलग भाषाएं हैं और संस्कृतियां  हैं।  सबसे संवाद कायम करना बड़ा ही जटिल काम है इसलिए प्रधानमंत्री ने बिम्बों का सहारा लिया और  कभी ताली तथा कभी दीपक बनाया।  इसी के साथ उन्होंने हर राज्य के लिए विशेष संवाद की व्यवस्था तैयार करनी शुरू कर दी और इसका फायदा हुआ कि  सबसे कमोबेश संवाद कायम होने लगा । सरकार चूंकि  एक कल्याणकारी राज्य को चलाने के लिए जिम्मेदार होती है इसलिए प्रधानमंत्री के इस संवाद का उद्देश्य हर आदमी चाहे वह किसी भी भाषा यह संस्कृति का हो  उस तक यह  संदेश जाए  कि उनकी सरकार उनके कल्याण के लिए  कुछ कर रही है। इसी के तहत कुछ क्षेत्रों में कर्फ्यू लगाया गया और कुछ क्षेत्रों में धारा 144 लागू की गयी। इसी के अंतर्गत डॉक्टरों और  स्वास्थ्यकर्मियों  पर हमले के खिलाफ दंडात्मक कानून बना।  यह कानून कुछ करे या ना करे  लेकिन  इससे एक संदेश जाता है कि सरकार महामारी से लड़ने वालों का सम्मान कर रही है इससे उनका हौसला बढ़ता है। अब इसके बाद जरूरी है कि संवाद को सरकार दूसरे स्तर तक ले  जाए जिससे संकट के तमाम पहलुओं  और व्यवस्था में खामियों जैसे पेचीदा मामला पर जनता से स्पष्ट रूप से बात की जा सके।  संवाद शास्त्र में इस तकनीक को रिटोरिक अरेना  थ्योरी  कहते हैं जिसके तहत अलग-अलग किरदार मिलकर किसी संकट के बारे में संवाद करते हैं।  सब ने गौर किया होगा प्रधानमंत्री ने कई बार इसी उद्देश्य के लिए राज्यों से बातें  करते हैं।  इस सिद्धांत के मुताबिक संकट से निपटने में  जुटे तमाम विभाग और लोग जनता से ऐसे संबंध में करते हैं  कि  पारस्परिक संवाद कायम रहे और बातें दोहराई न जाएं।  जैसे राज्यों के अधिकारी,  अर्ध सरकारी  अधिकारी आपस में मशविरा करके आंकड़े  साझा करके संकट से जुड़ी जानकारी जनता तक पहुंचाएं।  ऐसे में आपसी सहयोग  वाली साझेदारियों से संवाद जमीनी स्तर तक पहुंचा पाने में मदद मिलती है।  यहीं आकर अखबारों की भूमिका आरंभ होती है।  ऐसी प्रक्रिया में संवाद एक एक ही दिशा में चलता है और उसमें छोटे स्तर से लेकर व्यापक स्तर तक कोई विरोधाभास नहीं  होता। साथ ही आपसी समन्वय से यह सभी भागीदार फेक न्यूज़ या अफवाह फैलाने वालों को काबू में रख पाते हैं। क्योंकि सार्वजनिक स्वास्थ्य की चुनौती के समय यह संवाद की रणनीति तभी असरदार साबित होती है जब सटीक जानकारी को जनता के हर तबके तक पहुंचाया जाए। चूंकि ,  के शब्द अपने आप में सब को समेटने वाले होते हैं।  हममें से बहुतों को स्वामी विवेकानंद अमेरिका में  उस ऐतिहासिक भाषण  की शुरुआत के शब्द याद होंगे और आज जब प्रधानमंत्री अपने भाषण को शुरू करते हैं तो उनके द्वारा उपयोग में लाए गए शब्दों को भी हम सुनते हैं। यह  संवादिक  रणनीति है और यह रणनीति तभी कारगर होती है जब जनता के हर तबके के लोगों में यह भाव पैदा हो कि बातें उसी से की जा रही हैं। किसी भी सूचना की व्याख्या और उसे किस रूप में देखा जाएगा यह अलग-अलग समुदायों में अलग अलग होता है यहीं आकर सूचना की विशेषज्ञता उत्पन्न होती है।  आज कोरोना वायरस का संक्रमण किस स्तर पर है यह इस चरण में प्रवेश कर रहा है इसकी जानकारी लोगों तक पहुंचाने के लिए जरूरी है कि  सूचना को ऐसे गधा जाए यह हर तबके की आवश्यकताओं की पूर्ति करे। संवाद संप्रेषण के अलग-अलग साधन होते हैं और उन  साधनों के माध्यम से  संवाद को ग्रहण करने वाले वर्ग भी अलग-अलग इसलिए यह देखा जाना जरूरी है इसका कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़े।  कोविड-19 को लेकर तरह-तरह के  भ्रम  फैल रहे हैं  मसलन   लॉक डाउन  तीन मई के बाद कायम रहेगा या खत्म कर दिया जाएगा परिवहन व्यवस्था आरंभ होगी या नहीं होगी इसे लेकर  भारी कंफ्यूजन है।  इस कन्फ्यूजन को खत्म करना  संवाद  व्यवस्था से जुड़े हर पक्ष का कर्तव्य बनता है।

 


Friday, April 24, 2020

भारत ने दुनिया के आगे मिसाल पेश की

भारत ने दुनिया के आगे मिसाल पेश की

 पहले विश्व युद्ध के पूर्व यूरोप, अमेरिका और इनकी उपनिवेशों में जाने के लिए किसी तरह की वीजा या पासपोर्ट की जरूरत नहीं पड़ती थी। इसके बाद धीरे-धीरे हालात बदलते   गए और दुनिया के सभी देशों ने खुद को  समेट लिया, सीमाएं कठोर होने लगीं  और दूसरे विश्व युद्ध के बाद हालात और बदल गए। आपसी संबंधों  वाली  एक दूसरे दुनिया पर निर्भर संस्थागत  वैश्विक दुनिया का रूप बना पिछले 75 सालों के उतार-चढ़ाव के बाद भी यही व्यवस्था कायम रही।  अब कोविड-19 जैसी महामारी का हमला यह सभी देशों में एक खास किस्म का युद्ध बन गया है। ऐसे में भारत में लॉक डाउन और  सोशल डिस्टेंसिंग  की व्यवस्था की।  दुनिया के कुछ लोगों ने ,जो वैश्विक विचार का निर्माण करते हैं, भारत के इस कदम की आलोचना की है। जॉन्स हापकिंस यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर  स्टीव  हैंकी  ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कदमों की आलोचना करते हुए कहा है कि यह फैसला बिना विचार के लिया गया। विदेशी अखबारों ने  प्रोफेसर हैंकी  इन विचारों को प्रमुखता से प्रकाशित किया।  कोरोना वायरस से उत्पन्न यह महामारी एक तरह से पूरे विश्व  की व्यवस्था को पहले की स्थिति में लाने की धमकी दे रही है। जैसी पहले  विश्वयुद्ध  के  बाद यह दुनिया आत्म केंद्रित थी,  सभी देश सत्ता समर्थक थे।  कुछ राजनीति विज्ञानियों ने कोरोनावायरस के बाद ऐसी ही दुनिया उदय होने की बात कही है।  इसमें  सत्ता संकीर्ण राष्ट्रवाद में सिमटी की रहेगी। अर्थशास्त्री भूमंडलीकरण और मुक्त व्यापार की व्यवस्था के खत्म होने की बात कर रहे हैं। आखिर  इतनी निराशा क्यों?  महज 0.125  माइक्रो व्यास वाले एक वायरस के कारण ?शायद नहीं,  दरअसल दुनिया के 2 सबसे शक्तिशाली देशों  ने संपूर्ण विश्व के आत्मविश्वास को हिला दिया है। विचार इतिहासकार निएल  फर्गुसन ने  इस नई व्यवस्था को चीमेरिका कहा है। पिछले दशक के कुछ पहले चीन और अमेरिका ने आर्थिक विकास  के संबंधों वाला एक नया मॉडल विकसित किया। कोरोना से उत्पन्न महामारी ने इसी मॉडल को काल्पनिक धारणा में बदल दिया। चीनी नेतृत्व ने  पहले इस बीमारी को छुपाया जिससे  यह पूरी दुनिया में फैल गया। वाशिंगटन के थिंक  टैंक  अमेरिकन  इंटरप्राइज इंस्टिट्यूट  के अनुसार चीन में  संक्रमितों की कुल संख्या 29 लाख हो सकती है जबकि चीन की सरकार इसे 82 हजार बताती है। चीन का नजरिया दुनिया के प्रति तीन सिद्धांतों से निर्देशित होता है पहला है जीडीपी वादा है दूसरा है   चीन को केंद्र में रखने का  भाव और तीसरा है खुद को लेकर असाधारण क्षमता का बोध। यह तीनों भाव माओ के सिद्धांतों से निकले हैं।  यहां सबसे दिलचस्प तथ्य यह है जो देश इस महामारी का डट कर मुकाबला कर रहे हैं वह एशियाई देश हैं, चाहे वह दक्षिण कोरिया  हो या सिंगापुर या हांगकांग या ताइवान सबने समय से कारगर कदम उठाए। प्रोफेसर  हैंकी के विचारों के विपरीत भारत ने लोकतांत्रिक सक्रियता का उदाहरण पेश किया। वैश्विक महामारी कोविड-19  के इस दौर में  सरदार पटेल को याद करना बहुत महत्वपूर्ण है जब उन्होंने लेख खेलने पर बहुत ही अहम  कदम उठाए थे और अदम्य साहस का परिचय दिया  था। 1917 में अहमदाबाद में प्लेग फैल गया, सारे संस्थान बंद हो गए ,लोग शहर छोड़कर चले गए। उस काल में अहमदाबाद अपने कपड़ा उद्योग के लिए   विख्यात था और प्लेग के कारण कपड़ा मिलों में सन्नाटा छा गया।  मजदूरों को रोकने के लिए मिलों  ने अलग प्लेग  अलाउंस देने की घोषणा की। पटेल ने व्यक्तिगत सुरक्षा की अनदेखी कर शहर छोड़ने से इनकार कर दिया। जेबी मालवंकर ने लिखा है कि पटेल  गलियों में निकल जाते थे नालियों की सफाई कराते थे दवाओं का छिड़काव कराते थे। अगर कोई मित्र उनकी सुरक्षा पर बात करता  तो  वे चुपचाप देखते रहते।  मानों कह रहे हों  कि लोगों की सुरक्षा की जिम्मेदारी हम पर है मैं किससे  सुरक्षा की बात करूं। पटेल के व्यवहार को मोदी जी ने मूर्त रूप दिया है और देश को एक सक्षम महामारी योद्धा के रूप में प्रस्तुत किया है।

 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राज्य सरकारों के साथ मिलकर लॉक डाउन और सोशल डिस्टेंसिंग  को  सफलतापूर्वक लागू किया। वह आगे बढ़ कर नेतृत्व कर रहे हैं तथा पूरा देश उनके साथ है।  130 करोड़ की आबादी वाले देश में  कोरोनावायरस से अब तक 21000 से कुछ ज्यादा  लोग संक्रमित हुए हैं।  प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी ने कोई मनमानी नहीं की है और ना ही कोई अधिकार वादी फैसला किया है। जो नई वैश्विक व्यवस्था स्वरूप ले रही है उसमें  अमेरिका और जर्मनी जैसे देशों के साथ  मिलकर भारत ने मानव संसाधन सुझाया है।  भारत समावेशन के माध्यम से एक नई विश्व व्यवस्था निर्माण में लगा है।  यह नए अटलांटिक चार्टर का वक्त है।  पर्यावरण, स्वास्थ्य सेवा , तकनीक और लोकतांत्रिक उदारवाद नए अटलांटिक चार्टर के मुख्य बिंदु हो सकते हैं।  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में धारा के विपरीत तैर कर लक्ष्य को प्राप्त करने का हुनर है। 


Thursday, April 23, 2020

पुलिस राज में डॉक्टरों पर हमले के खिलाफ अध्यादेश

 पुलिस राज में डॉक्टरों पर हमले के खिलाफ अध्यादेश 

कोविड-19 के मरीजों के उपचार में लगे डॉक्टरों  और स्वास्थ्य कर्मियों पर हमलों खबरें लगातार आ रहीं हैं । इंडियन मेडिकल काउंसिल  इन हमलों के विरुद्ध सरकार कई बार आगाह किया और अंत में आंदोलन की धमकी भी दी। बुधवार को मंत्रिपरिषद की बैठक में प्रधानमंत्री ने इन हमलों पर  सख्ती जाहिर करते हुए  एक नयाअध्यादेश जारी कर दिया।  विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा कोरोनावायरस को महामारी घोषित किए जाने के बाद देश में 123 साल पुरानी महामारी बीमारी कानून 1897 लागू  है।  इस कानून की धारा 3 में प्रावधान है इसके तहत बनाए गए किसी भी नियम या आदेश की अवहेलना दंडनीय है और माना जाएगा कि व्यक्ति ने भारतीय दंड संहिता की धारा 188 का उल्लंघन किया है। इसी तरह आपदा प्रबंधन कानून 2005 की कम से कम 9 धाराओं में दंड और जुर्माने का प्रावधान है जिसमें 2 साल तक की अधिकतम सजा और जुर्माना हो सकता है।  लेकिन इसमें किसी खास वर्ग का उल्लेख नहीं है।  इसलिए डॉक्टरों पर हमले के विरुद्ध नया अध्यादेश लागू करना पड़ा है। चूंकि संसद की बैठक  नहीं चल रही है इसलिए अध्यादेश जारी करना पड़ा। यह अध्यादेश अगले 6 महीने तक लागू रह सकता है। इस नए कानून के तहत डॉक्टरों और स्वास्थ्य कर्मियों पर हमला करने वालों को 5 साल की जेल और आर्थिक जुर्माना लग सकता है। इस पर दायर मामले पर 30 दिनों के भीतर कार्रवाई पूरी हो जाएगी और दोषी को दंड दिया जा सकेगा। एक ऐसा देश जहां कोविड-19 के संक्रमण का मामला 20000 से ऊपर पहुंच गया और मरने वालों की संख्या 652 हो गई है वहां रोगियों के इलाज कर रहे डॉक्टरों पर हमले अत्यंत निंदनीय है और प्रधानमंत्री का यह कदम बेहद सामयिक और प्रशंसनीय है। प्रधानमंत्री ने  देश में कोविड-19  की रोकथाम के लिए जितने भी कदम उठाए हैं वह अत्यंत प्रशंसनीय  हैं। माइक्रोसॉफ्ट कॉरपोरेशन के संस्थापक  बिल गेट्स नए प्रधानमंत्री के कदमों की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि उनकी सरकार द्वारा देशव्यापी  लॉक डाउन को अपनाया जाना,  क्वॉरेंटाइन किया जाना और आइसोलेशन के साथ साथ हॉटस्पॉट की पहचान किया जाना यह एक अच्छा प्रयास है।  बिल गेट्स ने अपने पत्र में कहा है  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किस तरह पूरे देश को संभाला उसे  लेकर  दुनिया भर में उनकी तारीफ हो  रही है।  बिल गेट्स का कहना है कि  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने असाधारण डिजिटल क्षमताओं का उपयोग किया। इससे देश में संक्रमण रफ्तार  बहुत धीमी हो गई। 

      प्रधानमंत्री कि इन कार्यों की अगर समाज वैज्ञानिक व्याख्या करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने फंतासी  को इंसानी काबिलियत  का  बिंब बना दिया  और उस  बिंब को   दशकों तक कायम रखने के लिए  अपनी  साख का उपयोग किया।  आज जब पूरा विश्व  कोविड-19 से आक्रांत है और  नेतृत्व के दूरदर्शिता के अभाव  के संकट से गुजर रहा है ऐसे में प्रधानमंत्री ने एक दृष्टि को  स्वरूप  दिया।  लेकिन यहां एक सवाल उभरता है कि  इस नई बीमारी की वजह से  समाज में जो मनोवैज्ञानिक तनाव बढ़ा है और उस तनाव को झेल नहीं पाने के कारण कुछ लोग अलग-अलग ढंग से आचरण कर रहे हैं उनकी पड़ताल कर उनका उपचार कैसे किया जाए क्योंकि जब तक ऐसे लोग चाहे वह थोड़े भी हों  समाज में रहेंगे तब तक कुछ न कुछ घटनाएं होती ही रहेंगी। इसका कारण है इस तरह के लोग सामने वाले को गलत मांग कर दंड देने की कोशिश करते हैं।   पालघर में साधुओं को मारा जाना और कई स्थानों पर पुलिस पर हमला डॉक्टरों पर हमले व कर्मियों से दुर्व्यवहार इत्यादि इसी मनोभाव के धीरे-धीरे उभार के लक्षण हैम। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद इंग्लैंड में अचानक आपराधिक गतिविधियों के बढ़ने का यही कारण  था।  अभी सरकार ने कुछ इमरजेंसी सेवाएं आरंभ की है जिसमें साइक्लोजिकल काउंसलिंग भी एक है।  सरकार ने एक कानून बनाया इससे डॉक्टरों की  हिफाजत हो सकती है  लेकिन कानून का भी अपना एक दर्शन होता है।  कानून लागू करने  वाले  प्राधिकरण कई बार अक्षम दिखाई पड़ते हैं क्योंकि जो मनोवैज्ञानिक रुप में तनावग्रस्त होते हैं उनमें विचारों का अभाव होता है।  वह सोच नहीं सकते इसीलिए लॉक डाउन के आरंभिक दिनों में प्रधानमंत्री ने  ताली,   थाली  बजाने तथा मोमबत्तियां और दीए जलाने की बात की थी ताकि लोगों में आस्तिकता  बोध बढ़े लेकिन उससे बहुत ज्यादा लाभ नहीं हो सका।  जो लोग साइकोपैथ होते हैं उनको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।  जहां तक अपने देश भारत का प्रश्न है वहां इतनी बड़ी आबादी है और इतने तरह-तरह के विचार तथा पंथ हैं  कि उन्हें एक डोर में नहीं बांधा जा सकता।  जहां तक लॉक डाउन का प्रश्न है वहां स्थिति और विकट होती जा रही है। हमारे लोकतंत्र के तीन स्तंभों में से केवल एक ही काम कर रहा है।  कार्यपालिका  ने सारे अधिकार अपने हाथ में ले लिए हैं न्यायपालिका तथा विधायिका के काम ठप  पड़े हुए है। मीडिया के तौर पर एक गैर आधिकारिक स्तंभ और भी है इसे चौथा खंभा यह लीजिए।  इसे काम करने दिया जा रहा है लेकिन यह केवल आईना दिखा रहा है।  आईने में समाज की क्या तस्वीर उभरती है और उस तस्वीर को देखकर समाज के एक हिस्से में क्या प्रतिक्रिया होती है इस पर कोई बहस नहीं है। लॉक डाउन  का निजाम कायम है।  यह व्यवस्था संक्रमण रोकने के लिए देश में पहली बार  इजाद हुई।  यह ना संविधान का अंश है और ना इसे संसद की मंजूरी है।  लॉक डाउन के तहत आपका कोई भी गुनाह अपराध में शामिल हो सकता है  और उसकी सजा पुलिस कुछ भी तय कर सकती है।  यह सजाएं और यह गुनाह उन मामलों से अलग है जो देशभर में कोरोना अपराधियों  के खिलाफ दर्ज किए गए हैं।  उत्तर प्रदेश में लॉक  डाउन तोड़ने वालों  से अब तक 6 करोड़ रुपए वसूले जा चुके हैं।  बड़ी संख्या में  लोगों पर एफ आई आर दर्ज है। लेकिन यह व्यवस्था  वीआईपी लोगों पर लागू नहीं होती है।  अभी कुछ दिन पहले पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा के  पौत्र की शादी  हुई, बिहार के शिक्षा मंत्री के निजी सहायक द्वारा जहानाबाद में आयोजित पार्टी,  कर्नाटक में भाजपा विधायक द्वारा तुमकुर जिले के एक सरकारी स्कूल के भवन में बड़े पैमाने पर जन्मदिन समारोह का आयोजन  इत्यादि कुछ ऐसे उदाहरण है जिन पर प्रशासन ने कुछ नहीं किया। इस महामारी से निपटने के लिए और देशवासियों को बचाए जाने के नाम पर पुलिस और सुरक्षाकर्मियों द्वारा लगातार चौकसी की जा रही है।   लाउड स्पीकर पर  घोषणाएं हो रही है लक्ष्मणरेखा  ना लांघे ,घरों में रहें यही नहीं  लॉक डाउन का उल्लंघन करने वालों को शर्मसार करने के नए-नए तरीके पुलिस जांच कर रही है लेकिन लव डाउन का उल्लंघन हो रहा है।  ऐसे में डॉक्टरों और स्वास्थ्य कर्मियों पर हमले के कानूनों   को  किस हद तक अमल में लाया जा सकता है और लागू किया जा सकता है यह तो आने वाला समय बताएगा।


Wednesday, April 22, 2020

कोविड-19 ने कैसे बदल दिया है हमारी जिंदगी को

कोविड-19 ने कैसे बदल दिया है हमारी जिंदगी को 

कोलकाता महानगर में फुटपाथों पर  लगभग 70000 लोग रहते थे। कोविड-19 के भयंकर  प्रहार से इनकी जिंदगी और इनके रहने के लिए कुछ नहीं रहा उसी तरह अन्य शहरों में भी हालत हैं। कोलकाता का तो आलम यह है कि सड़क पर भिखारी नजर नहीं आते। मंदिरों के सामने  भिखारियों का जमघट एक स्थाई दृश्य था खत्म हो गया। मंदिर बंद हो गए ।परोक्ष रूप से कहें तो देश के लगभग 130 करोड़ लोग  घरों के अंदर कैद हो गए हैं।  मानव इतिहास में ऐसा कभी पाया नहीं गया है। भारत जहां की सड़कें  सदा जीवंत रहती थीं। उन सड़कों पर जिंदगी के हर पहलू देखने को मिला करते थे। आज सब वीरान हैं। 3 मई तक यह सब कुछ जारी रहने की उम्मीद है। गूगल द्वारा जारी  मोबाइलिटी डाटा के अनुसार भारत में   सार्वजनिक उद्यानों में लोगों की आवाजाही   में  69%  की कमी हुई है। बस अड्डों और रेलवे स्टेशनों  में भीड़ लगभग नहीं है।  जिन  सघन बाजारों में  सुबह से शाम तक भारी भीड़ लगी रहती थी और उनकी तस्वीरें अलग-अलग कोणों से  सोशल मीडिया में घूमती रहती थी, आज वहां वीरानी है।  इस बीच  विभिन्न आर्थिक ,सामाजिक और पर्यावरणीय  पहलुओं पर  बहस चल रही है  और लॉक डाउन के प्रभावों का आकलन हो रहा है। बातों  की दिशा अक्सर नकारात्मक हुआ करती है।  सब लोग डरावनी तस्वीरों  के कोलाज पेश कर रहे हैं। हर बात को  खारिज करने  और उसकी जगह दूसरी बात चस्पां करने की कोशिशें लगातार हो रही हैं।   यहां तक कि हिंसक अपराधों को भी लॉक डाउन के कारण पैदा हुए तनाव का परिणाम बताया जा रहा है। लेकिन जरा ध्यान से सोचें  कि इस लॉक डाउन का देश के विभिन्न शहरों पर क्या प्रभाव पड़  रहा है।  हमारा देश मोटे तौर पर दो भागों में बंटा है -  शहरी और ग्रामीण भाग। यहां हम केवल शहरी भाग पर इस लॉक डाउन  के प्रभाव और लोगों के दैनिक जीवन का पब्लिक स्पेस से संबंध का आकलन करेंगे। मुंबई में हर व्यक्ति के बीच 1. 28  वर्ग मीटर का स्पेस उपलब्ध है जबकि लंदन में यह 31.68 वर्ग मीटर और न्यूयॉर्क में 26.4 वर्ग मीटर स्पेस उपलब्ध है। भारत में बड़े शहरों में जो स्पेस उपलब्ध हैं वह जन संकुल बाजारों रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों पर जाकर और कम हो जाता है। लेकिन यही जगह हैं जहां से जिंदगी की गति शुरू होती है। यह सार्वजनिक स्थल आमतौर पर शोर-शराबे से भरे  होते हैं। इन जगहों पर जाना और इधर उधर पहुंचने की कोशिश करना हमारे देश के लोगों की जिंदगी का अभिन्न अंग है। यह साधारण सार्वजनिक स्थल सामाजिक इंटरेक्शन के सफल होते हैं जहां से आर्थिक और सामाजिक लाभ हानि का आकलन होता है। इन शहरों के  साधनहीन लोग  और भी कठिन परिस्थितियों में तथा जन संकुल स्थितियों में रहते हैं। मंगलवार को एक वर्चुअल कॉन्फ्रेंस के बाद विख्यात उद्योगपति रतन टाटा ने कहा था हम जिन पर गर्व करते थे उन्हीं स्थितियों को लेकर शर्मिंदा हैं लोग अभी भी झोपड़ियों में रहते हैं।  उन्होंने लोगों को अपनी जरूरतों को बदलने  की सलाह दी ताकि सार्वजनिक स्पेस कम से कम रहने लायक तो हो जाए।  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसी तरह की मिलती-जुलती बात कही थी और स्मार्ट सिटी  की परिकल्पना प्रस्तुत की थी। उस समय उनकी कई क्षेत्रों में  व्यापक आलोचना हुई। लेकिन आज कई विद्वानों  ने प्रधानमंत्री  की स्मार्ट सिटी की परिकल्पना का समर्थन किया है  विशेषकर नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी और विश्व विख्यात आर्किटेक्ट डेविड सिम  ने इस पर विशेष बल दिया है।  लेकिन दुर्भाग्यवश शहरी योजना कारों ने इस पर बहुत ध्यान  दिया। प्रधानमंत्री  नए 2022 तक  एक सौ स्मार्ट सिटी बनाने की बात की थी  जिसमें पर्याप्त बिजली मोबिलिटी और सफाई की संपूर्ण व्यवस्था हो ताकि शहर रहने लायक हो सके लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा है।

 आज देश के विख्यात स्थल लॉक डाउन के कारण  वीरान हो गए हैं लेकिन तब भी लोग जरूरत की चीजें खरीदने के लिए सड़कों पर निकलते हैं। उनका इस तरह निकलना अक्सर सोशल स्पेस या कह सोशल डिस्टेंसिंग का सरासर उल्लंघन का उदाहरण है।  इस प्रक्रिया में जानकारी का अभाव और कुछ जानबूझकर किए जाने का भाव दोनों शामिल है। यह वर्तमान  सामाजिक बिहेवियर के  तौर-तरीकों में शामिल है। इन बाजारों में अक्सर देखने को मिल सकता है कि दो परिचित लोग  यहां तक कि कुछ अपरिचित भी सियासत,  खेल और सिनेमा पर बहस कर रहे हैं।  जैसा कि लोगों का आचरण होता है और उनके बातचीत के तौर तरीके होते हैं इससे  शहरों  के चरित्र को समझा जा सकता है।  इस चरित्र में बदलाव लोगों की जिंदगी  की गुणवत्ता को बढ़ाने में मदद मिल सकती है। कोरोनावायरस के प्रसार से लोगों में एक विशेष किस्म का नवीन पारस्परिक संबंध का विकास हुआ है जैसे एक दूसरे से पूरी दूरी बनाकर कतार में खड़े रहने का  धैर्य  विकसित हुआ है। अचानक हुए परिवर्तन से शहरों के बहुस्तरीय जीवन में महत्वपूर्ण सुधार लाया जा सकता है। एक बार अगर लॉक डाउन खत्म हो जाता है तो हो सकता है लोगों में अफरा-तफरी मच जाए लेकिन तब भी लोग चाहेंगे की एक दूसरे से दूरी  बनी रहे।  भारतीय योजनाकारों  खासकर शहरों को बनाने योजना में लगे विशेषज्ञों के लिए यह एक अवसर होगा।  वे अगर चाहें तो  शहरों की पुरानी  लय  और गति को बदल सकते हैं तथा पूरी तरह से योजनाबद्ध ढंग से तैयार किए गए सार्वजनिक स्पेस अफरा तफरी के बीच एक रचनात्मक  धीमापन लाया जा सकता है। प्रधानमंत्री की  स्मार्ट सिटी की परिकल्पना को सही ढंग से पूरा किया जा सकता है। इस लॉक डाउन ने हमारी जिंदगी में एक बहुत ही रचनात्मक परिवर्तन का सूत्रपात किया है वह परिवर्तन है कि हम कैसे एक दूसरे से दूरी बनाए रखकर भी बर्ताव को सही रख सकते हैं। 


Tuesday, April 21, 2020

नोट छापने के अलावा विकल्प नहीं

 नोट छापने के अलावा विकल्प नहीं 

 जितने भी सेक्टर हैं चाहे वह  आर्थिक हों या श्रम सभी जगहों से एक ही बात आ रही है कि सरकार को कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे उन 10 करोड़ लोगों को ज्यादा से ज्यादा राहत मिले जिन्होंने कोविड-19 के प्रहार से अपनी नौकरियां या अपना रोजगार गंवाया है।  10 करोड़ का यह अनुमान फिलहाल बहुत ही तर्क सम्मत नहीं है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक,अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संगठन, सीएमआईई जैसी संस्थाओं और एजेंसियों में इससे भी बड़े पैमाने पर नौकरिया जाने की आशंका जताई है।  सीएमआईई के मुताबिक लॉक डाउन की वजह से शहरों में बेरोजगारी की दर 23% तक जा सकती है। आईएलओ के मुताबिक कोरोनावायरस के संक्रमण से भारत में असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले 40 करोड़ लोगों को और गरीबी में पड़ जाना होगा। आईएमएफ का अनुमान है1930 के बाद  यह दुनिया की सबसे बड़ी मंदी है। लोगों का सुझाव है कि सरकार व्यवसायियों को बड़ा पैकेज दे, राज्यों को ज्यादा वित्तीय सहायता दे , सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत बनाने के लिए उन पर ज्यादा खर्च करे इत्यादि इत्यादि। विशेषज्ञ लोग भी इस पर एकमत हैं। लेकिन कोई यह बता नहीं रहा है कि पैसा आएगा कहां से। वित्त प्रबंधन को लेकर सियासत शुरू हो गई है।  लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर उंगलियां उठा रहे हैं कि वित्त प्रबंधन में वह पिछड़ रहे हैं। लेकिन यह पैसे जो इन सारे कार्यों के लिए आवश्यक है उनकी व्यवस्था कहां से होगी यह कोई नहीं बता रहा है। प्रधानमंत्री इसे लेकर परेशान हैं। सरकार के सामने केवल एक ही विकल्प है कि नोट छापे जाएंऔर खर्च किए जाएं। गरीबों के लिए और परेशान हाल व्यापार जगत के लिए राहत के पैकेज दिए जाए। आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि  सामान्य स्थितियों में यह कदम बेहद गैर जिम्मेदाराना है। इससे मुद्रास्फीति बढ़ेगी और विदेशी मुद्रा का संकट आएगा जैसा कि 1991 में हुआ था। मंगलवार के अखबारों में खबर है कि तेल की कीमतों में रिकॉर्ड गिरावट आई है और सरकार के पास पर्याप्त कोष है इसलिए विदेशी मुद्रा का संकट उतना ज्यादा नहीं है इतना कि बताया जा रहा है। अब जहां तक स्थिति की बात है तो अभी जो हालात हैं उन्हें सामान्य स्थिति नहीं कहेंगे। किसी भी आर्थिक विशेषज्ञ से पूछ लें कि  सरकार को इन सारे कामों के लिए कितने रुपयों की जरूरत पड़ेगी, कोई सही नहीं बता सकता लेकिन इसकी संख्या तक पहुंचने के लिए शुरुआत इस विचार को ध्यान में रखते हुए करनी होगी कि आर्थिक वृद्धि की दर क्या है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भारत की आर्थिक वृद्धि की दर 1.9 प्रतिशत रहने की भविष्यवाणी की है लेकिन यह संदिग्ध है। संदेह का कारण है कि अक्सर आशावादी भविष्यवाणी की जाती है और बाद में उसमें संशोधन किया जाता है। आईएमएफ तो अक्सर ऐसा करता है।  भारत के आर्थिक इतिहास को देख ले शायद ही कोई वर्ष इस तरह की गतिविधि से बचा हो।कुछ लोग तो यह बताते हैं कि इस वर्ष आर्थिक वृद्धि की दर में संकुचन होगा क्योंकि सकल घरेलू उत्पाद जिन तत्वों से बनता है उनमें से आधे जैसे मैन्युफैक्चरिंग ,परिवहन एवं व्यापार ,निर्माण, कर्ज देने वाले वित्तीय क्षेत्र, मनोरंजन अथवा आर्थिक क्षेत्र में गतिविधियां बंद हैं। मार्च के आंकड़े बताते हैं यह बिजली के उपभोग में 25% की कमी आई है, बेरोजगारी 3 गुना बढ़कर 24% हो गई है, निर्यात में 35% की गिरावट आई है।  यह आंकड़े आशा जनक नहीं है। ऐसी स्थिति में भारत अगर वृद्धि दर्ज करता है तो यह किसी चमत्कार से कम नहीं होगा। 

  अब जरा इसके वित्तीय पहलू पर गौर करें। जब सरकार पर मांगों का दबाव पड़ेगा तभी टैक्स का आधार तेजी से संकुचित होगा। अगर टैक्स के मोर्चे पर 10 से 15% की भी कमी आई तब भी कोई खास बात नहीं है। अर्थशास्त्री बताते हैं कि इसका अर्थ होगा लगभग 5 खरब का घाटा, यानी  वित्तीय घाटा उस स्तर पर पहुंच जाएगा जहां पहले कभी नहीं था और यही स्थिति 1991 वाली स्थिति से भी हो सकती है। अब अगर सरकार को संकट निवारण के उपायों पर ही खर्च करना पड़े तो इसका मतलब है अतिरिक्त पांच खरब का घाटा । ऐसी स्थिति में सरकार के पास नोट छापने के अलावा कोई विकल्प नहीं  बचता है। यद्यपि नोट छापना जोखिम से मुक्त नहीं होगा क्योंकि असाधारण स्थितियों में उठाए गए कदम आदत बन जाते हैं। आज अमेरिका बहुत बड़े घाटे में पड़ा है लेकिन वह इससे उबर जाएगा। क्योंकि अमेरिका वैश्विक वित्त केंद्र है और वित्त केंद्रों के मुकाबले विकासशील देशों की हालत हमेशा पतली रहती है  और ऐसी स्थितियों में उसे भारी कीमत चुकानी पड़ती है। इसी स्थिति को देखते हुए उर्जित पटेल में भारत को नोट छापने से चेतावनी दी है लेकिन वर्तमान जो हालात हैं उसमें शायद इसे कबूल किया जाए। मोदी जी को मालूम है कि हम बहुत ही खतरनाक मोड़ पर खड़े हैं। 

       कई मामलों में सरकार पर पहले से ही  बोझ बढ़ा हुआ है और ऐसे में जब लोग कल्याणकारी राज्य की मांग कर रहे हैं तो इस  बोझ में नैतिकता भी जुड़ गई है। प्रधानमंत्री संभावनाओं का विस्तार करते हुए इस संकट से गुजरने का अधिकतम प्रयास कर रहे हैं। लेकिन ऐसे में यह भी ध्यान रखना होगा कि लोगों को पर्याप्त तकलीफें उठानी पड़ेंगी।  नोटबंदी के जमाने में तो एक उम्मीद के कारण लोगों ने सहयोग किया परंतु आज की जो स्थिति है उसमें वह उम्मीद का गुणक गायब है। कम आय वाली अर्थव्यवस्था जल जल के दौर से गुजरती है तो उसे इसकी ज्यादा कीमत चुकानी पड़ती है और सबसे ज्यादा बोझ उन पर पड़ता है जो लोग हाशिए पर हैं।  क्योंकि उनके पास कोई जमा पूंजी नहीं है और इससे नजरअंदाज करना पलायनवाद कहा जाएगा। उन्हीं लोगों को राहत पहुंचाने के लिए प्रधानमंत्री ने कुछ नोट छापने के दिशा में सोचना आरंभ किया है हालांकि इसके सिवा सरकार के पास कोई विकल्प फिर भी लोग इसकी आलोचना करने पर तुले हुए हैं। प्रधानमंत्री  ऐसी आलोचनाओं को नजरअंदाज कर हाशिए पर खड़े लोगों के बारे में सोच रहे हैं यह एक उचित दिशा है।


Monday, April 20, 2020

मजदूरों का पलायनः सरकार के लिए मौका

मजदूरों  का पलायनः सरकार के लिए मौका

 भारत में कोविड-19 के व्यापक संक्रमण के बाद देशव्यापी   लॉक डाउन ने असंगठित क्षेत्रों के मजदूरों की ना केवल रोजी छीन ली  बल्कि रोटी के लिए भी मोहताज कर दिया। उनके पास जीने का कोई जरिया नहीं रहा और वह वहां से अपने गांव को चल पड़े। दिहाड़ी पर काम करने वाले यह मजदूर झुंड बनाकर बड़े शहरों को छोड़  रहे हैं ।अपने गांव लौटने के सिवा उनके पास कोई विकल्प नहीं है हालांकि उनका भविष्य गांव में भी निराशाजनक है। सार्वजनिक परिवहन का कोई साधन नहीं होने पर वे बड़े शहरों से भाग रहे हैं। जो साधन उनके पास है लौट रहे हैं।  खबरों की मानें तो कुछ साइकिल से आ रहे हैं तो कोई रिक्शे पर ही अपना पूरा परिवार लेकर आ रहा है तो कोई मोपेड से आ रहा है। बाकी लोग कंधे पर बच्चों को बैठा कर या फिर खाली हाथ पैदल ही आ रहे हैं। इन मजदूरों की दुर्दशा कल्पना से परे है।

        शहर में  उनके वायरस संक्रमित होने की आशंका से  इंकार नहीं किया जा सकता और यह भी हो सकता है कि गांव लौटने पर वे कुछ लोगों को संक्रमित कर दे। हमारे देश के दूरदराज के गांव में ना  अस्पताल है और अगर है भी तो उसमें सुविधाएं नहीं हैं। इससे स्थितियां और बिगड़ जाएंगे। औसतन हमारे देश में गांवों में पंद्रह सौ लोगों पर एक डॉक्टर है और यह कोविड-19 के संक्रमण को रोकने के लिए नाकाफी है।  प्रति वर्ग मील 450 लोगों की आबादी के घनत्व वाले इस देश में अगर प्रधानमंत्री ने संपूर्ण लॉक डाउन की घोषणा करके बहुत ही बड़ा काम किया। उनका फैसला बिल्कुल सही है और संक्रमण के प्रसार को रोकने के लिए इसके सिवा और कोई साधन नहीं है। शहरों में सफाई बनाए रखना बेहद मुश्किल काम  है यहां तक कि झुग्गियों में साबुन से हाथ धोना भी एक समस्या है। आमदनी के अभाव में साबुन खरीदना बहुत बड़ी समस्या है और साथ ही पानी की कमी इससे भी बड़ी समस्या है। 10 फुट की कोठरी में 5 लोगों का रहना और सामाजिक दूरी बनाना कितना कठिन है वही लोग समझ सकते हैं जो इससे दो-चार होते हैं। शहरों में प्रवासी मजदूर अत्यंत ही दयनीय हालत में रहते हैं उनकी  अमानवीय स्थितियां कि सिर्फ कल्पना की जा सकती है ।जरूरी सेवाओं का दबाव पानी शौचालय इत्यादि का अभाव तो उनके जीवन का अनिवार्य अंग है। शहरों में झुग्गी झोपड़ियों हटाए जाने का विरोध होता है सामान्य हालत में इसे अमानवीयता कहेंगे लेकिन यह एक अच्छा विचार है। इससे जरूरी सेवाओं पर भारी दबाव पड़ता है। कुछ शहरों में तो मजदूरों का आगमन घटा है। कोलकाता और हैदराबाद जैसे शहरों में पिछले सालों से  मजदूरों का आना कम हुआ है। पर्यावरण से जुड़ी स्थितियों के कारण जहां निर्माण कार्य कम हुए हैं और इससे रोजगार मिलना कम हो गया है लिहाजा, मजदूर या तो अपने गांव लौट रहे हैं या फिर दूसरे शहरों में जा रहे हैं। कहा जा सकता है कि मजदूरों का स्वैच्छिक पलायन जबरन थोपे गए पलायन की तुलना में कम रहा है। जोखिम उठाने के लिए तैयार कुछ नौजवान दूसरे छोटे शहरों में जा रहे हैं। वे वहां स्टार्टअप और एग्रीटेक के कारण जाते हैं। लेकिन,  उद्यमियों के लिए सही सहकर्मी की तलाश लगातार चुनौती बनी रही है। दूसरी तरफ प्रवासी मजदूरों के लिए पैसे कमाने के कुछ ही विकल्प हैं। गांव में अगर उनके पास जमीन है भी तब भी उनका काम नहीं चल सकता। दैनिक मजदूरी और कारीगरी के काम उस अर्थव्यवस्था में नामुमकिन है जो पहले से ही बोझ तले दबी है। वास्तव में बेरोजगारी की वजह से ग्रामीण डिमांड कम हो रही है। कुछ गांव को छोड़कर कहीं भी छोटे उद्योग नहीं हैं और अक्सर छोटे शहरों से हुए काम की तलाश में बड़े शहरों में चले जाते हैं। हाल के दिनों में ज्यादा  मजदूर छोटे शहरों से बड़े शहरों में गए हैं।

       अगर देखें और ठीक से योजना बने तो हमारे देश के गांव में छोटे-छोटे उद्योग हो सकते हैं खासतौर से खाद्य प्रसंस्करण इत्यादि। भारत फलों और सब्जियों का दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा  उत्पादक देश है। इनका ज्यादातर हिस्सा बर्बाद हो जाता है। क्योंकि, हमारे देश में गांवों में बुनियादी ढांचा या तो है ही नहीं और अगर है भी तो बेहद जर्जर है। ऐसे हालात ग्रामीण अर्थ व्यवस्था को कमजोर बनाते हैं। दूसरे बाहर के निवेशक गांवों में  निवेश नहीं करते। इसके लिए जरूरी है बिजली की नियमित सप्लाई पानी अच्छी सड़क और कनेक्टिविटी सबसे ज्यादा जरूरी है। यहां तक कि दूरदराज के हिस्सों में भी पक्की सड़क होनी चाहिए। ऐसा नहीं होने पर उन क्षेत्रों में हमेशा पिछड़ापन कायम रहेगा और स्थिति वही रहेगी जो पहले से कायम है। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक बात याद आती है कि उन्होंने कहा था कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के  बाद ही हम आत्मनिर्भर हो सकते हैं। इसके पहले की सरकारों ने खासकर जवाहरलाल नेहरू ने शोभित ढांचे पर भारी उद्योगों को विकसित करने और तीव्र उद्योगी करण पर जोर दिया जिससे शहरों का विकास तो हुआ लेकिन गांव पीछे छूट गए और गांव से पलायन आरंभ हो गया। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को नजरअंदाज किया जाना इस नजरिए से एक तरह से साजिश है। क्योंकि इसमें किसी तीसरे पक्ष के मुनाफे का संदेह होता है। उन मजदूरों को रोजगार देना जो शहर की ओर नहीं जाना चाहते  यह अब सरकार के लिए चुनौती है ऐसा छोटे स्तर पर नोटबंदी के समय हुआ था। अगर सरकार इस ओर नहीं ध्यान देती है तो यह लोग रोजी रोटी के लिए फिर से शहरों की नारकीय जिंदगी में लौट आएंगे। गांव को तेजी से विकसित करना होगा। लॉक डाउन का यह संकट आकस्मिक विपदा है। इससे शहरों में न केवल भीड़ कम होगी बल्कि एक ग्रामीण ग्रामीण मजदूर के पास विकल्प हो कि वह शहर में रहे या गांव में जाए।


Friday, April 17, 2020

उम्मीदें जरूरी हैं

उम्मीदें जरूरी हैं  

दुनिया के हर कोने से डरावनी खबरें आ रही हैं। पूरी मानवता सशंकित है। कल क्या होगा? इससे जहां तनाव बढ़ रहे हैं वही लोगों में निराशा भी  बढ़ रही है। उम्मीदें बहुत कम दिखाई पड़ रही हैं।  ऐसे में हमारे विश्व के नेता कुछ ऐसे बयान दे रहे हैं जिससे उम्मीदें खत्म होती जा रही हैं। केवल भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने बयानों में या अपने भाषणों में लोगों में उम्मीद बढ़ाने का काम किया। इससे बेशक मेडिकल लाभ तो नहीं हुआ लेकिन इस महामारी से दो-दो हाथ करने की क्षमता बढ़ गई।
एक रात आपने उम्मीद पे क्या रखा है
आज तक हमने चिरागों को जला रखा है

नेपोलियन अक्सर कहा करता था , "एक नेता उम्मीदों का व्यवसाई है।" जॉन डब्ल्यू गार्डनर ने  अपनी विख्यात पुस्तक "लीडरशिप" में कहा है कि "किसी नेता का पहला और अंतिम काम लोगों में उम्मीद को जीवित रखना है।" यहां कहा जा सकता है कि वास्तविक नेतृत्व का अर्थ है सही उम्मीद हो बनाए रखना। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषणों ,अपने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए इस उम्मीद को बनाए रखने की पूरी कोशिश की है। चाहे वह ताली या थाली बजाने का आह्वान हो या दिए जलाने का । सब में एक उम्मीद झलक दिखाई पड़ती है।
  लगभग एक सदी पहले दुनिया में एक ऐसी ही  बीमारी आई थी और इस महामारी से भारत में करीब 1.8 करोड़ लोग मारे गए थे। यह भारत की तत्कालीन आबादी का 6% था। उस समय हम गुलाम थे और गुलामों की जान की कोई कीमत नहीं होती। इस बीमारी का नाम स्पेनिश फ्लू दिया गया था। एच वन एन वन वायरस के कारण इस महामारी से पूरी दुनिया की आबादी के एक तिहाई के करीब यानी 50 करोड़ लोग प्रभावित हुए थे। 1918 में पहली बार एक अमरीकी सैनिक में इसका प्रभाव देखा गया था और इस वायरस की पहचान हुई थी। अमेरिका में ही इसके शिकार होकर 6.75 लाख लोगों की मौत हुई थी। अब कोविड-19 ने पूरी दुनिया में तबाही मचाई है। चीन के वुहान प्रांत से फैले इस वायरस ने दुनिया के 200 देशों में कहर बरपा किया हुआ है और विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के मुताबिक 12 अप्रैल तक 16 लाख 14951 लोगों में कोरोना की पुष्टि हुई है और 99887 लोगों की मौत की पुष्टि हो चुकी है। इस हिसाब से देखें तो आज भारत में आबादी के घनत्व की तुलना में प्रभावित लोगों की संख्या कम नजर आ रही है। अभी तक के आंकड़े निसंदेह बेहतर संकेत दे रहे हैं लेकिन भविष्य बेहतर नजर नहीं आ रहा है। कोविड-19 के मामले भारत में जांच बढ़ने के साथ लगातार बढ़ रहे हैं। भारत से पड़ोसी देश चीन से रिश्ते मधुर नहीं रहे। जिसके कारण दोनों देशों में आवाजाही कम हो गयी है। भारत में पहला मामला चीन से आये व्यक्ति का था, लेकिन ज्यादातर मामले उन्हीं लोगों के हैं जो ईरान, इटली, अमेरिका से लौटे हैं। भारत से लोगों के विदेश जाने का लंबा इतिहास है। 2015 तक के आंकड़ों के अनुसार भारत के 156 लाख लोग विदेशों में रहते हैं। अगर हम विस्थापन के वैश्विक आंकड़े को देखें तो भारत से सबसे ज्यादा 35 लाख लोग  संयुक्त अरब अमीरात में गए हैं और दूसरा स्थान पर अमेरिका है जहां 20 लाख लोग हैं। खाड़ी के अन्य देशों में भी बड़े पैमाने पर लोग रोजगार के लिए जाते हैं। उन देशों में कोरोना संकट बढ़ने पर बड़े पैमाने पर भारत के मजदूर अपने देश की ओर भागे। भारत ने सैकड़ों नागरिकों को विमान भेज कर अपने देश में बुला लिया। इनके अलावा  हवाई यातायात  जारी रहने के कारण  बहुत सारे लोग  आए  और  देश की घनी आबादी में मिल गए ।  पता नहीं चला  कौन कहां गया  और  कहां रह रहा है। केवल तबलीगी जमात के मरकज के कुछ सौ सदस्य विदेश गए या विदेश से इस दौरान भारत आए। उन्होंने बीमारी फैलाई। लेकिन आबादी के घनत्व को देखते हुए या बहुत ज्यादा नहीं है फिर भी लोगों में एक आतंक फैल गया। उस आतंक का नकारात्मक प्रभाव देखने को मिलता लेकिन प्रधानमंत्री ने लोगों में उम्मीदें जगा कर और पारस्परिक संवेदना का भाव जगा कर उस प्रभाव को रोकने में सफलता पाई। यहां प्रसंग वश  यह कहना  उचित लगता है  और यह जानकर आश्चर्य भी होता है की पहली बार कोरोनावायरस की खोज करने वाली महिला स्कॉटलैंड के बस ड्राइवर की बेटी थी जिन्होंने 16 वर्ष की आयु में स्कूल छोड़ दिया था। उनका नाम है जून आलमेडा जो वायरस इमेजिंग क्षेत्र के चर्चित लोगों की फेहरिस्त में अपना नाम लिखना चाहती थी। बीमारी ने अपने पंजे फैलाए और दुनिया को ग्रस लिया। सोचिए कि हम लोगों के दिमाग में इस भयानक बीमारी से निपटने के लिए क्या छवि बनती है। हम विज्ञान के बारे में सोचते हैं। हम क्वॉरेंटाइन या मास्क के बारे में सोचते हैं। अथवा फ्लू के वक्त हाथ धोने या छींकते-खांसते वक्त मुंह को ढक लेने के बारे में सोचते हैं।  बुखार के वक्त किसी पेशेवर डॉक्टर से मिलते हैं । लेकिन कोविड-19 से मुकाबले के लिए जो दूसरा तरीका है उसके बारे में हम सोचते नहीं है। वह तरीका है उम्मीद और लोगों में आपसी संवेदना। लोगों के भीतर एक स्वस्थ विश्व बनाने की जरूरत की आशा और प्रधानमंत्री ने इसी जरूरत की आशा को जगाने के लिए और संवेदना को कुरेद कर मनके स्तर पर ले आने के लिए यह सारे प्रयास शुरू किए। यह अत्यंत ही जटिल मनोवैज्ञानिक प्रयोग था। लेकिन प्रधानमंत्री ने इस प्रयोग को इतनी सरलता से उपयोग किया कि लोग सोच नहीं सके। सोचिए कोई बीमारी हमें कई तरीकों से प्रभावित करती है न केवल स्वास्थ्य के स्तर पर बल्कि मानसिक स्वास्थ्य, संदेह , भय और नफरत स्तर पर भी हमें प्रभावित करती है। इसका या किसी भी महामारी का प्रसार मानव द्वेष और आपसी दुराव के कारण भी होता है। यह बीमारी सबसे पहले चीन में फैली और चीन से नफरत के कारण लोगों में धीरे-धीरे बात फैलने लगी और इसके रोकथाम के प्रयास नहीं हुए । नतीजा हुआ इसने महामारी का रूप ले लिया । आपसी संवेदना और स्नेह जरूरी है । यह जरूरत केवल कोविड-19 के लिए नहीं है बल्कि किसी भी बीमारी के लिए है। संवेदना और स्नेह हमें सियासत से दूर एक ऐसा समाज बनाने का अवसर देतें है जो उचित है।  यह लोगों को एक सम्मिलित समाज का निर्माण करने का अवसर भी देता है। यह सब को जोड़ता है। विख्यात मनोवैज्ञानिक सैन्द्रो गैली ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रयासों की सराहना करते हुए कहा है कि जब तक कोई कारगर दवा या टीका नहीं बने तब तक पूरे विश्व नेताओं को नरेंद्र मोदी के इन प्रयासों का अनुसरण करना चाहिए। इससे विश्व मानवता को लाभ होगा। इस संकट की घड़ी में हमें प्रेम और उम्मीद की बात करनी चाहिए।
दिल ना उम्मीद तो नहीं नाकाम ही तो है
लंबी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है


Wednesday, April 15, 2020

मुश्किलें हैं तो क्या हुआ

मुश्किलें हैं तो क्या हुआ 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सोमवार को देश को संबोधित किया। इसके पहले वाराणसी अपने चुनाव क्षेत्र मतदाताओं को संबोधित करते हुए कहा था महाभारत 18 दिनों में जीता गया और कोरोना वायरस से जंग 21 दिनों में जीती जाएगी। प्रधानमंत्री की बात एक उम्मीद थी। लेकिन वह उम्मीद पूरी नहीं हुई और फिर सोमवार को युद्ध का दूसरा शंख बजा। प्रधानमंत्री ने लॉक डाउन अवधि को 3 मई तक बढ़ा दिया है। इसमें जो सबसे महत्वपूर्ण है दुआ है कि देश के 130 करोड़ लोगों की जीवन की सबसे बड़ी जिम्मेदारी  प्रधान मंत्री पर है और वे इस जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए जी जान से जुटे हैं।बेशक इस युद्ध में प्रधान मंत्री को देश ही नहीं विदेश के नेताओं का साथ ही मिल रहा है। यह बात दूसरी है कि हमारे देश के कुछ नेता इसकी आलोचना कर रहे हैं। इस पुनीत कार्य में भी सियासत खोज रहे हैं। देशवासी उनकी इस गतिविधि को बहुत ध्यान से देख रहे हैं और अगले चुनाव में उन्हें इसका फल मिलेगा ही। प्रधानमंत्री को जो सहयोग मिल रहा है उससे थोड़े समय के लिए ही सही उनका भरोसा मजबूत होगा प्रधानमंत्री ने सोमवार के अपने भाषण में इसी तरह के सहयोग की बात कही थी और पूरा देश संकट की घड़ी में उनके साथ है।  प्रधानमंत्री के समक्ष इस समय और भी कई चुनौतियां हैं तत्काल नहीं हल हो सकतीं। वे चुनौतियां हैं हमारे देश की लचर स्वास्थ्य सुविधाएं, बहुत बड़ी आबादी का बोझ और लॉक डाउन के कारण सामने आईं आर्थिक मुश्किलें। जब से विश्व स्वास्थ्य संगठन में कोरोना को वैश्विक महामारी घोषित कर दिया है तब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस संकट का सामना आगे बढ़कर कर रहे हैं। प्रधानमंत्री जी ने पहली बार स्वास्थ्य कर्मियों के लिए उत्साह बढ़ाने के लिए कहा और बाद में इस संक्रमण के प्रति एकजुटता प्रदर्शित करने के लिए बत्तियां बुझा कर मोमबत्तियां और दिए जलाने को कहा। पूरा देश उनके साथ था। हर आम और  खास आदमी ने इसमें प्रधानमंत्री का सहयोग किया। कुछ अति उत्साही लोगों ने प्रधानमंत्री के ताली बजाने और दिए जलाने के पीछे वैज्ञानिक कारणों का भी उल्लेख किया उन्होंने वैज्ञानिक आधार को ना केवल तलाशा बल्कि उन्हें सोशल मीडिया पर लोगों को बताने की कोशिश भी की। इसके अलावा मीडिया के एक वर्ग में इसे एक विशिष्ट वर्ग के लोगों को जुड़ा और उसे इस बीमारी यह फैलाने में जिम्मेदार भी बताया। उन्होंने इसे आधार बनाकर टि्वटर युद्ध भी छेड़ दिया। उनकी दलील है कि जिन लोगों में संक्रमण पाए गए उनमें एक तिहाई लोग वह हैं जो मार्च में तबलीगी जमात में शामिल हुए थे। कई लोगों ने अपने ट्विटर हैंडल पर दिखा कि वे  कोरोना जिहाद में लगे थे। हालांकि मोदी और उनकी पार्टी को इस तरह की मनोवृति का फायदा मिलता है लेकिन ऐसे मौके पर उन्होंने इस बारे में ना केवल चुप्पी साधी है बल्कि लोगों को चेताया भी है कि हालात का लाभ ना उठाएं ।क्योंकि मुश्किल के समय में इस तरह के धार्मिक ध्रुवीकरण देश को गलत राह पर ले जाएंगे पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने तो स्पष्ट कहा संक्रमण के मुद्दे को सांप्रदायिक रंग ना दें।

        प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने  जब पहली बार लॉक डाउन की घोषणा की थी उन्होंने इसके बाद समाज के दूसरे इनफ्लूएंसर्स जैसे विपक्षी दल के नेता ,राज्यों के मुख्यमंत्रियों ,खिलाड़ियों ,पत्रकारों से बात कर सरकार का साथ देने में हाथ आगे बढ़ाने की अपील की।इससे घरेलू  मोर्चे पर सरकार को एक महत्वपूर्ण साथ मिला । नतीजा यह हुआ विपक्षी दल वायरस संक्रमण से युद्ध में सरकार की तैयारियों में खामियां बहुत सशक्त ढंग से नहीं उठा सके। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने सरकार को खर्चे कम करने का सुझाव दिया और खुद किनारा कर लिया। कांग्रेस के सुझाव में मीडिया इंडस्ट्री को 2 वर्ष तक विज्ञापन नहीं देने का सुझाव भी शामिल है।  अब यह मीडिया आउटलेट्स कांग्रेस के पीछे पड़ गए हैं। मलेरिया की दवा से भारत की मेडिकल डिप्लोमेसी मजबूत हुई है यहां तक कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने मलेरिया की दवा को गेमचेंजर बताया है। इस दवा के उत्पादन में भारत दुनिया में सबसे आगे है। इसलिए इसे मुहैया कराने के वादे को दुनिया के कई नेताओं में प्रशंसा की है। ट्रंप ने तो यहां तक कहा है कि मोदी जी ने  मानवता की रक्षा की है। भारत से जिन जिन देशों को दवा मिली है उनमें बांग्लादेश, नेपाल, भूटान. श्रीलंका और मालदीव भी शामिल हैं।मेडिकल डिप्लोमेसी के अलावा इस महामारी का एक मौके की तरह इस्तेमाल करते हुए मोदी ने सार्क के सदस्य देशों के बीच के तार को एक बार फिर जोड़ दिया है भारत और पाकिस्तान के आपसी मतभेदों के कारण 2016 में इसमें गतिरोध आ गया था।श्रीलंका ,नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, मालदीव और पाकिस्तान जितने भी सार्क देशों के सदस्य हैं उन्होंने मोदी के वीडियो कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लिया बल्कि इस महामारी के खिलाफ लड़ाई में संयुक्त तौर पर फंड तैयार करने के लिए सहमत भी हो गए।

  इस महामारी के खिलाफ भले ही दुनिया के देश भारत के साथ हैं लेकिन घरेलू मुश्किलें जैसे खस्ताहाल मेडिकल सुविधाएं और आर्थिक कठिनाइयां एक चुनौती है। सरकार ने 2019 में नवंबर में संसद में बताया था देशभर में प्रति 1445 लोगों पर महज एक डॉक्टर है यह विश्व स्वास्थ्य संगठन मानक से कम है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानक है प्रति 1000 लोगों पर एक डॉक्टर। खबरें मिल रही हैं कि  पीपीटी किट और वेंटिलेटर जैसे मेडिकल उपकरणों की भारी कमी है। डॉक्टरों की शिकायत है कि जब अधिकारियों से मेडिकल उपकरणों की कमी के बारे में कहा जाता है तो वे उन्हें ही उल्टा फटकारते हैं इस संबंध में एम्स के डॉक्टरों ने 6 अप्रैल को प्रधानमंत्री को एक पत्र भी लिखा था। मेडिकल उपकरणों के अलावा भारत में अर्थव्यवस्था भी एक चुनौती है। कुछ लोग तो पहले से ही आलोचना करते थे देश की अर्थव्यवस्था  कमजोर है। रिजर्व बैंक के अनुसार महामारी देश के भविष्य पर एक बुरे साए की तरह झूल रही है।

     मौजूदा लॉक डाउन के चलते देशभर में असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लाखों मजदूरों के सामने ना केवल रोटी बल्कि रोजी  की भी समस्या उत्पन्न हो गई है इन्हें गरीबी से या कि उस दुरावस्था से निकालने की चुनौती भी प्रधानमंत्री पर है। फिर भी सब लोग समझ रहे हैं की मजबूरियां क्या है और प्रधानमंत्री की सबसे बड़ी सफलता है कि लोग उनके साथ खड़े हैं विश्व  उन से सहयोग कर रहा है। जब देश इस महामारी से ऊबर जाएगा तो बेशक प्रधानमंत्री अन्य चुनौतियों का भी ना केवल मुकाबला करेंगे बल्कि उन्हें फतह भी कर लेंगे।






Tuesday, April 14, 2020

प्रधानमंत्री ने देश से सहयोग मांगा

प्रधानमंत्री ने देश से सहयोग मांगा 

बैसाखी, पोहेला बैसाख और देश के विभिन्न कोनों में मनाए जाने वाले अलग-अलग त्योहारों के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार की दोपहरी से कुछ पहले कोरोना वायरस से मुकाबले के लिए पूरे देश से सहयोग मांगा। प्रधानमंत्री का रुख और उनकी बॉडी लैंग्वेज एक नेता या देश के शासनाध्यक्ष की तरह नहीं थी, बल्कि घर के एक चिंतित बुजुर्ग जैसी थी। ऐसा बुजुर्ग जो अपने परिवार के दुख-सुख  के लिए लोगों को चेतावनी देता है और उनसे सहयोग की मांग करता है। यह पहला अवसर है जब प्रधानमंत्री का रुख ऐसा था। उन्होंने 3 मई तक  लॉक डाउन बढ़ाने की घोषणा की। बेशक मीन मेख निकालने वाले इसका तरह तरह से इंटरप्रिटेशन कर सकते हैं। लेकिन, स्पष्ट रूप से देखा जाए तो उनका रुख परिवार के मुखिया की तरह था जो हर सदस्य के लिए उसके कल्याण के लिए चिंतित था।
      अगर मंगलवार की सुबह तक के आंकड़े देखें तो हमारे देश में कोरोनावायरस से संक्रमित कुल 10363 मामले हुए जिनमें 1036 स्वस्थ हो गए और 339 लोगों की मृत्यु हुई ।130 करोड़ की आबादी में 339  लोगों का किसी खास महामारी से मारा जाना बहुत बड़ी संख्या नहीं है। लेकिन , नरेंद्र मोदी ने इसे अपने दिल पर लिया है और इस बीमारी से लड़ने के लिए पूरे देश से सहयोग मांगा है। इस जंग के लिए एक मोहलत तय की गई है और उस मोहलत को 3 मई मान कर मौजूदा लॉक डाउन की अवधि को बढ़ा दिया गया है। प्रधानमंत्री ने यह कदम खुद से नहीं उठाया उन्होंने लड़ाई कैसे लड़ी जाए उसके लिए राज्यों से निरंतर चर्चा की और सब ने यही सुझाव दिया कि लॉक डाउन को बढ़ा दिया जाए। सारे सुझाव को देखते हुए लॉक डाउन  की अवधि बढ़ाई गई है। प्रधानमंत्री ने देश को बताया कि इस लॉक डाउन के कारण भारत जानहानि   को टालने में सफल रहा है। बेशक इसके कारण दिक्कतें बहुत हुई है। चाहे वह खाने पीने की परेशानी हो या फिर आने जाने की। लेकिन जो बीमारी फैल रही है वह ज्यादा घातक ना हो जाए इसलिए देश के हर नागरिक को अपना कर्तव्य निभाना होगा। लॉक डाउन और सोशल डिस्टेंसिंग से बहुत लाभ मिला है। कुछ अर्थशास्त्रियों ने यह जरूर कहा है कि यह आर्थिक दृष्टि से बहुत महंगा पड़ेगा। लेकिन वह महंगा  होना देश के लोगों की जान से ज्यादा महंगा नहीं है। उनकी जिंदगी का सामने इस महंगे होने का कोई मूल्य नहीं है। जान है तभी तो जहान है।
       प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में इस बात पर काफी बल दिया कि कोरोना के संक्रमण को नए क्षेत्रों में नहीं बढ़ने देना है और इसके लिए हॉटस्पॉट की निशानदेही कर सतर्कता बरतनी होगी। जिन क्षेत्रों में हॉटस्पॉट बनने की आशंका है उनसे पहले ही सावधान हो जाना होगा और जहां आशंका कम है उन इलाकों में 20 अप्रैल के बाद बहुत मामूली छूट मिलेगी। लेकिन यह छूट भी सशर्त होगी। प्रधानमंत्री ने देश के द्वारा किए गए प्रयासों का भी जिक्र किया है और बताया कि जब हमारे यहां इसके प्रसार की हाय तोबा नहीं बची थी तब भी कोरोना प्रभावित क्षेत्रों से आने वाले लोगों की स्क्रीनिंग होती थी। भारत ने समस्या के बढ़ने का इंतजार नहीं किया इसलिए हमारे देश में हालात काफी संभले हुए हैं । प्रधानमंत्री ने 7 बातों को याद रखने की ताकीद की। ये बहुत जरूरी थी। उन्होंने कहा कि बुजुर्गों का ख्याल रखें । हर घर में हर परिवार में कोई ना कोई बुजुर्ग होता है जिसे कोई न कोई बीमारी होती ही है। इसलिए उनका ख्याल रखना जरूरी है और साथ ही सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करें। शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के लिए आयुष मंत्रालय के निर्देशों का पालन करें साथ ही संक्रमण रोकने के लिए आरोग्य सेतु मोबाइल ऐप जरूर डाउनलोड करें। जो सबसे बड़ी दो बातें उन्होंने कहीं वह थी कि अपने आसपास रहने वाले गरीब परिवारों के भोजन की हर शख्स व्यवस्था करें ताकि कोई पड़ोसी भूखा न रहे साथ ही नौकरी करने वालों को नौकरी से नहीं निकालें। यह दोनों आखरी अपील अति मार्मिक थी और प्रधानमंत्री के बोलने का अंदाजभी इतना  मार्मिक था कि दिल में उतर जाए। वह कहते हैं ना
दिल की हालत अगर नहीं बदली तो
ऐहतियात- ए- नजर से क्या होगा
प्रधानमंत्री की अपील दिल में उतर जाने वाली थी और दिल को बदल देने वाली थी।
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक विगत 14 दिनों में देश के 15 राज्यों के 25 जिलों में संक्रमण का कोई भी नया मामला सामने नहीं आया है। स्वास्थ्य मंत्रालय के सचिव है लव अग्रवाल ने बताया कि अब तक दो लाख कोरोना के टेस्ट हो चुके हैं और अगले 6 हफ्ते तक और टेस्ट करने की तैयारी है। इससे पहले आईसीएमआर के एक अध्ययन में कहा गया था लॉक डाउन जैसे कदम उठाकर भारत 62 से 89 प्रतिशत मरीजों की संख्या कम कर सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का भी कहना है कि अगर लॉक डाउन के साथ साथ टेस्टिंग और कांटेक्ट ट्रेसिंग की जाए तो संक्रमण बड़े कारगर ढंग से रोका जा सकता है। इस संबंध में विश्व स्वास्थ्य संगठन के दक्षिण पूर्व एशिया में निदेशक डॉक्टर रोड्रिगो आफरीन के अनुसार कोविड-19 की रोकथाम के लिए भारत सरकार ने जो कदम उठाए वह सराहनीय हैं। भारत सरकार ने जो लॉक डाउन किया है साथ ही ट्रेन और बस सेवाओं को रोकने का फैसला किया इससे संक्रमण के फैलने की दर में कमी आएगी लेकिन इसके साथ ही टेस्टिंग और कांटेक्ट ट्रेसिंग करना  होगा। इन सारी परिस्थितियों में प्रधानमंत्री के सामने जान और जहान में संतुलन स्थापित करने की चुनौती थी। जिस चुनौती के लिए मंगलवार को उन्होंने देश की समस्त जनता से सहयोग मांगा। जो लोग अर्थव्यवस्था की सुस्ती की बात करते हैं उन्हें यह साफ समझना चाहिए प्लीज संक्रमण के विराट को सपाट बनाने के प्रयास से कहीं ज्यादा जरूरी है इस बात की निगरानी कि कौन संक्रमित है अथवा कौन नहीं है। इसलिए लॉक डाउन की अवधि को बढ़ाना आवश्यक था और देश के कल्यान को देखते हुए प्रधानमंत्री ने यह सहयोग मांगा। उचित होगा देश की पूरी जनता उनके साथ सहयोग करे:
वह मेरे घर नहीं आता मैं उसके घर नहीं जाता
मगर इन एहतियात से ताल्लुक नहीं मर जाता


Monday, April 13, 2020

कोरोना वायरस के बरक्स बाजार

कोरोना वायरस के बरक्स बाजार 

1929- 39 की वैश्विक महामंदी के बाद आधुनिक राज्य का अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप बढ़ने लगा दूसरे महायुद्ध  में भारी तबाही के बाद अर्थव्यवस्था में राज्य के हस्तक्षेप की मुहिम तेज हो गई। जिससे आधुनिक राज्य लोक कल्याणकारी राज्य के रूप में विकसित होने लगा। इसका काम नागरिकों को भोजन, आवास, रोजगार, स्वास्थ्य आदि बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराना माना गया। कल्याणकारी राज्य के कारण बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में दुनिया भर में आर्थिक असमानता में कमी आई और जनता के जीवन स्तर में भारी सुधार हुआ। इन सब स्थितियों के बावजूद दुनिया 1967 में एक बार फिर मंदी में आ गई और मुक्त बाजार आधारित अर्थव्यवस्था की मांग ने जोर पकड़ा। मिल्टन फ्रीडमैन, एफ ए हायेक, रॉबर्ट नोजिक जैसे दार्शनिकों और अर्थशास्त्रियों ने राज्य व्यवस्था का अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप को वित्तीय मंदी का कारण बताया। क्योंकि राज्य वैश्विक संस्थाओं से कर्ज ले रहे थे और उस कर्जे के पैसे से कल्याणकारी स्कीमें चला रहे थे। भारत में मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था का सिद्धांत 1991 के बाद प्रभावी होने लगा और यह इतना प्रभावी हो गया कि नरेंद्र मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रचार के दौरान नारा दिया कि "गवर्नमेंट का बिजनेस में कोई काम नहीं है।" क्योंकि जनता ने उन्हें चुना इसलिए माना जा सकता है कि उनकी इस नीति को जनता का समर्थन प्राप्त हो गया। 2020 में कोरोना महामारी के कारण दुनिया भर में बाजार को बंद करना पड़ा इस महामारी के समय जिस तरीके से व्यवहार किया गया है जैसे खाने पीने की वस्तुओं का भाव कई बार अचानक  बढ़ जाना और जरूरी सेवाओं का स्थगित हो जाना। इसकी वजह से लोगों की दैनिक जरूरतों को पूरा करने में राज्य या कहें  सरकार को सामने आना पड़ा। महामारी ने प्रमाणित कर दिया की मोदी की नीति सही है। और वैश्विक समस्या से बाजार अपने दम पर नहीं निपट सकता। इसको दुनिया भर में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति और जन वितरण प्रणाली से समझा जा सकता है। इस समय जबकि भयानक महामारी का दौर चल रहा है प्राइवेट अस्पताल और नर्सिंग होम मरीजों का इलाज करने से पीछे हट रहे हैं वहीं सरकारी अस्पताल इस काम में डटे हुए हैं। लंबे समय से एक लॉबी जन वितरण प्रणाली में करप्शन का हवाला देकर इसे खत्म करने की मांग करती आ रही है। तर्क यह दिया जा रहा है कि इस प्रणाली को खत्म कर अनाज की जगह लाभार्थी को पैसा दे दिया जाए। ताकि वह बाजार से अनाज खरीद सकें। प्रधानमंत्री ने इसे मानने से साफ इंकार कर दिया और कोरोना के दौर में इस तरह की दलीलों की धज्जियां उड़ गयी। सोचिए कि अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जन वितरण प्रणाली को खत्म कर दिया होता तो क्या होता? आज तो वही उपयोगी साबित हो रहा है। कुल मिलाकर कोरोना के कारण बाजार में सरकार   के हस्तक्षेप को बल मिला है और आने वाले दिनों में ऐसा लग रहा है कि दुनिया भर में नरेंद्र मोदी के इस दर्शन को समर्थन मिलेगा।
    लगभग यही हाल स्वास्थ्य सेवाओं का भी है  दवाइयों और चिकित्सा के माध्यम से रुपया बटोरने की गरज से सरकारी स्वास्थ्य सेवा को सदा लचर बताया जाता रहा है और उसे बंद करने की मांग भी उठती रही है। लेकिन आज निजी चिकित्सा व्यवस्थाएं किसी काम की नहीं और सरकार ने विश्व व्यवस्था का समर्थन किया। वह सरकारी चिकित्सा व्यवस्था चलती रही और यह प्रधानमंत्री की नीति थी कि इसे चालू रखा जाए। आईसीएमआर आंकड़े बताते हैं कि पिछले 5 दिनों में भारत में रोजाना 15,747 कोविड-19 टेस्ट हुए हैं जिनमें औसतन 584 मामले पॉजिटिव पाए गए हैं। आईसीएमआर के डॉक्टर मनोज मुरहेकर के अनुसार अब तक 1,86,906 टेस्ट किए गए। स्वास्थ्य मंत्रालय के उपसचिव लव अग्रवाल ने बताया है दक्षिण कोरिया, जापान से ऐसे मामलों की जानकारी आ रही है जिससे कोविड-19 से ठीक हुए लोग फिर से बीमार पड़ रहे हैं । यह नया वायरस है। इसके बारे में लगातार नई जानकारियां सामने आ रही हैं। ठीक हुए लोगों के पॉजिटिव पाए जाने के मामले पर नजर रखी जा रही है। कोविड-19 के उपचार के लिए कारगर औषधि खोजने के उद्देश्य से दुनिया भर में कारगर दवाओं पर काम चल रहा है लेकिन अभी तक कोई लाभ नहीं हुआ है।
     कुछ लोग मोदी सरकार द्वारा लॉक डाउन किए जाने की घोषणा पर सवाल भी कर रहे हैं। लेकिन उन्हें कैसे बताया जाए यह कितना जरूरी था।  सोचिए यह नरेंद्र मोदी के करिश्मे का यह असर था कि लॉक डाउन के दौरान लोग आदेशों का पालन करते रहे। थाली बजाने  और दीया, मोमबत्ती चलाने की अपील पर लोग अमल करते हैं। आज अगर मोदी जी की जगह कोई दूसरा प्रधानमंत्री होता तो क्या कोरोनावायरस से लड़ाई का नेतृत्व कर रहा होता? शायद नहीं। लेकिन मोदी जी के राज में भारत उनसे अलग नहीं है स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण सचिव प्रीती सुदन के करीबी लोग बताते हैं कि अगर वे रात 2:00 बजे भी मोदी जी को खुराना के बारे में मैसेज भेजती हैं तो मिनटों में जवाब आ जाता है। 2:00 बजे रात तक मोदी काम करते रहते हैं। नरेंद्र मोदी एक आग्रही व्यक्ति हैं उनके नेतृत्व गुण में केवल प्रभावशाली व्यक्तित्व और व्यक्तित्व  की भावनाएं जगाने जैसी विशेषताएं ही शामिल नहीं है बल्कि वे लोगों का निर्माण करने में भी माहिर हैं। वे वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से सारे मुख्यमंत्रियों से बातें करते रहते हैं। इसलिए स्पष्ट होता है कि वे किस तरह सरकार चलाते हैं। जब संपूर्ण देश में लॉक डाउन घोषित करने का फैसला हुआ तब मुख्यमंत्रियों को इसके बारे में पहले सूचित नहीं किया गया और इसके लिए कई मुख्यमंत्रियों ने विरोध भी जाहिर किया। लेकिन उनका मानना था कि यदि बातचीत में ज्यादा समय जाया किया जाता तो महामारी का स्वरूप बदल सकता था। क्योंकि लॉक डाउन के सिवा कोई दूसरा विकल्प नहीं था। आज देश में कोरोना महामारी की स्थिति में सुधार हो रहा है। बेशक  सुधार बहुत मामूली है लेकिन इसका श्रेय प्रधानमंत्री को जाता है।


Friday, April 10, 2020

गैरजरूरी या मजबूरी

गैरजरूरी या मजबूरी

21 दिन का लॉकआउट 14 अप्रैल को खत्म होने वाला है। अब इस को आगे बढ़ाने को लेकर तरह-तरह की बातें हो रही हैहैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यहां तक कह दिया है कि हालात बहुत मुश्किल हैं। लेकिन, उन्होंने ऐसा कुछ संकेत नहीं दिया है लॉक डाउन को पूरी तरह हटा दिया जाएगा या नहीं। उनके बॉडी लैंग्वेज या उनकी आवाज या बोलने का अंदाज़ यह प्रतिबिंबित करता है कि हो सकता है लॉक डाउन की अवधी बढ़े। देश के अधिकांश राज्य इसे बढ़ाने के पक्ष में हैं केवल कर्नाटक ने स्पष्ट कहा है की जिन इलाकों में संक्रमण का मामला सामने नहीं आया है उनमें लॉक डाउन हटा देना उचित होगा।यद्यपि और कोरोना संक्रमित जिलों में चरणबद्ध तरीके से लॉक डाउन रहे इसके पक्ष में वे भी हैं। लॉक डाउन खत्म हो या उसे आगे बढ़ाया जाए इसको लेकर किये गए एक सर्वे के मुताबिक 63% लोगों की राय है कि लॉक डाउन को कुछ प्रतिबंधों के साथ हटा देना चाहिए। डॉक्टरों का मानना है कि लॉक डाउन कायम रहे। जबकि, अर्थशास्त्रियों का कहना है लॉक डाउन खत्म हो जाए। दोनों पक्षों के अपने-अपने तर्क हैं।
     लॉक डाउन शुरू होते समय प्रधानमंत्री ने कहा था कि इसका  मकसद वायरस के चेन को तोड़ना और इस बीमारी को समझना है। सचमुच दुनिया के लिए यह बीमारी बिल्कुल अनजान है और जब तक इसे समझा ना जाए तब तक इसके रोकथाम तैयारी नहीं की जा सकती। इसके लिए 21 दिन का वक्त माकूल है। लेकिन अर्थशास्त्रियों का कहना है कि आर्थिक हालात बहुत खराब होते जा रहे हैं इसलिए लॉक डाउन खत्म करना जरूरी है। भारत सरकार के पूर्व मुख्य वित्तीय सलाहकार शंकर आचार्य ने सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज के आंकड़ों के हवाले से कहते हैं कि शहरों में दिहाड़ी मजदूरी करने वाले 29% लोग हैं जबकि उपनगरीय इलाकों में इन का अनुपात 36% है और गांव में 47%।  गांव में अधिकांश खेतिहर मजदूर हैं। यह आंकड़े साफ बताते हैं कि अगर लॉक डाउन की अवधि बढ़ी तो रोजगार नहीं मिलेगा और ऐसे में परेशानी और बढ़ेगी। सरकार ने इसके लिए आर्थिक पैकेज की घोषणा की है। लेकिन अभी यह देखा नहीं जा सका है कि आर्थिक पैकेज कितना कारगर है। वैसे रोज कमाने खाने वाले लोगों के सामने एक ही विकल्प है कि उन्हें काम मिले। रोजी नहीं रहेगी तो रोटी मिलेगी नहीं और रोटी मिलेगी नहीं तो वे जीते जी मर जाएंगे। बेशक यह तर्क सही है। लेकिन सरकार की अपनी जिम्मेदारी भी कुछ है। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कहा था कि एक भी आदमी इस बीमारी से मरा तो यह हमारे लिए शर्मिंदगी की बात है। जो व्यक्ति देश की जनता से इतना जुड़ा हुआ है जिसे उनकी इतनी फिक्र है वह बिना सोचे समझे कुछ करेगा, इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती है। हां यह मानने में कोई आपत्ति नहीं है कि लॉक डाउन के कारण अर्थव्यवस्था बिगड़ रही है। भारत दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में से एक है और इस श्रृंखला में उसका छठा स्थान है। उसकी यह मजबूरी है कि अपनी इस स्थिति के कारण ना वह विकासशील देश है और ना ही विकसित देश। इस बीमारी से लड़ने के लिए सरकार ने 1.7 लाख करोड़ की आर्थिक मदद की घोषणा की है और साथ ही स्वास्थ्य प्रणाली में सुधार के लिए 15,000 करोड़। यह पूरी रकम हमारी जीडीपी का केवल 0.8 प्रतिशत है। यहां एक चीज स्पष्ट हो रही है कि सरकार के पास इतना धन या  अन्य संसाधन नहीं है कि वह देश की 8 दशकों की बिगड़ी हुई स्वास्थ्य प्रणाली को सुधारे। साथ ही उद्योगपतियों को आर्थिक मदद देने की उसमें आर्थिक क्षमता भी नहीं है।
    देश के मजदूर इस लॉक डाउन से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। सीआईआई के  आंकड़े बताते हैं कि देश के लगभग 80% उद्योग बंद पड़े हैं और उत्पादन बंद होने के कारण होने वाले आर्थिक घाटे का प्रभाव रोजगार पर पड़ेगा। लॉक डाउन बढ़ता है तो ज्यादा रोजगार खत्म होगा और संभवतः भविष्य में मध्यवर्ग के लिए भी आर्थिक पैकेज की घोषणा करनी पड़े।
   इन तर्कों में गंभीरता तो जरूर है पर उस संवेदनशील व्यावहारिकता का अभाव है जिस संवेदनशीलता को बार-बार प्रधानमंत्री ने रेखांकित किया है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि रोजगार जाने के इन दलीलों की पृष्ठभूमि में इस बीमारी से मरने वालों की तादाद भी अपनी जगह ठीक है लेकिन इनके पास यह बात भी तो होनी चाहिए की लॉक डाउन खत्म किये जाने से कितनी जाने बच जाएंगी या कितना रोजगार बच जाएगा। यह आंकड़े भी नहीं हैं कि भूख से कितने लोग मरेंगे। लेकिन समस्या गंभीर जरूर है। फर्क है कि हम इसे किस चश्मे से देखते हैं। प्रधानमंत्री जिस चश्मे से देख रहे हैं उसके मुताबिक अभी 21 दिनों में लॉक डाउन का मकसद नहीं पूरा हुआ क्योंकि मजदूरों का पलायन और दिल्ली में तब्लीगीयों की घटना के बाद देशभर में वही स्थिति नहीं रही जैसी उम्मीद की  जाती थी। इसलिए लॉक डाउन को थोड़ा और  बढ़ाने की जरूरत है। एक अध्ययन के अनुसार भारत में वायरस का एक मरीज 30 दिनों में 400 से अधिक लोगों को संक्रमित कर सकता है। अगर प्रधानमंत्री ने लॉक डाउन की घोषणा नहीं की होती तो देश की तस्वीर कुछ दूसरी होती। ऐसी स्थिति में सुरक्षा ही बचाव है। यद्यपि अभी कुछ तय नहीं हुआ है लेकिन प्रधानमंत्री की बातों से यह संकेत मिल रहा है की सारे तर्कों के बावजूद लॉक डाउन बढ़ाया जाएगा और अगर खोला भी गया तो कुछ प्रतिबंधों के साथ। देश की जनता को बचाने की जिम्मेदारी सरकार पर होती है और यह सरकार की मजबूरी है कि उसे लॉक डाउन बढ़ाने की दिशा में सोचना पड़ रहा है।


Thursday, April 9, 2020

अभी जल्दी नहीं खत्म होगा लॉक डाउन

अभी जल्दी नहीं खत्म होगा लॉक डाउन

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुधवार को कोरोनावायरस पर लॉक डाउन को लेकर एक सर्वदलीय बैठक की और उस बैठक से जो निष्कर्ष निकला इससे लगता है कि एक साथ लॉक डाउन का खत्म होना मुश्किल है। सरकार ने कोरोना वायरस को फैलने से रोकने के लिए 25 मार्च को देशभर में 21 दिनों का लॉक डाउन लागू कर दिया था। यह दिन 14 अप्रैल को पूरा होता है। इस बीच सरकार यह समीक्षा कर रही है कि लॉक डाउन को आगे बढ़ाया जाए या नहीं या उसे क्रमिक रूप में खत्म किया जाए।
     कई राज्य सरकारों ने प्रधानमंत्री से अनुरोध किया है लॉक डाउन बढ़ाया जाए। प्रधानमंत्री ने देश के हालात को सामाजिक आपातकाल की संज्ञा दी है। उन्होंने कहा कि देश के प्रत्येक व्यक्ति की जान को बचाना हमारी प्राथमिकता है। लॉक डाउन खोला जाए इस पर पिछले दिनों कई लोगों ने विशेषकर मुख्यमंत्रियों ने अपनी राय दी। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने कहा कि इसे जारी रखने के अलावा हमारे पास कोई चारा नहीं है। इसे आगे बढ़ाया जाना चाहिए।  पिछले कुछ दिनों से मीडिया में यह बात चल रही है कि 14 अप्रैल के बाद भी लॉक डाउन बढ़ सकता है। इसको देखते हुए लोगों में संवेदनशीलता बढ़ी है । लेकिन सब तरफ एक ही सवाल है कि अगर लॉक डाउन रहा तो क्या होगा? उधर उत्तर प्रदेश सरकार के अतिरिक्त मुख्य गृह सचिव अवनीश अवस्थी ने कहा है कि हमारे प्रदेश में अगर एक भी मरीज रह जाता है तो लॉक डाउन खोलना उचित नहीं होगा। यही नहीं इस बैठक में राज्य सरकारों, जिला प्रशासनों और विशेषज्ञों ने लॉक डाउन को आगे बढ़ाने की सिफारिश की। प्रधानमंत्री ने इसे सामाजिक आपातकाल बताते हुए सुझाव दिया है कि सामाजिक दूरी बनाए रखें और जनता कर्फ्यू या लॉक डाउन का पालन करें। इसमें प्रत्येक नागरिक का योगदान और उसके साथ अनुशासन समर्पण और प्रतिबद्धता की उन्होंने प्रशंसा की है। प्रधानमंत्री  ने कहा कि   इस बदली हुई परिस्थिति में देश को अपनी कार्य संस्कृति और काम करने की शैली में बदलाव करने की कोशिश करनी चाहिए। उन्होंने स्पष्ट कहा कि हमारी पहली प्राथमिकता प्रत्येक व्यक्ति का जीवन बचाना है। वर्तमान स्थिति मानवता के इतिहास में युगांतरकारी घटना है और भारत को इसके दुष्प्रभाव से निपटना ही होगा।
       यह बैठक ऐसे वक्त में हुई है जब सरकार ने संकेत दिया है कि वायरस को तेजी से फैलने से रोकने के लिए कई राज्यों और विशेषज्ञों ने देशव्यापी लॉक डाउन को 14 अप्रैल के बाद बढ़ाने का सुझाव दिया है। हाल ही में प्रधानमंत्री ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, द्रमुक के प्रमुख स्टालिन सहित कई नेताओं से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए बातचीत कर महामारी को रोकने के लिए सरकार के प्रयासों की जानकारी दी। देश में 24 मार्च को 21 दिनों का लॉक डाउन हुआ और उसके बाद प्रधानमंत्री की विपक्षी दलों से यह पहली बातचीत है। हालांकि प्रधानमंत्री ने इस मसले पर 2 अप्रैल को देश के सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों से बातचीत की थी। प्रधानमंत्री ने हाल के दिनों में डॉक्टरों ,पत्रकारों ,विदेशों में भारतीय मिशन के राजनयिकों  सहित विभिन्न पक्षकारों से बात की थी।
      2 हफ्ते पहले जब अमेरिका के राष्ट्रपति ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था को खोले जाने और ईस्टर तक उसके गति पकड़ने के लिए तैयार होने की उम्मीद व्यक्त की थी तो बात निहायत मूर्खतापूर्ण लगी थी। अब कुछ दिन के बाद ही ईस्टर है। लेकिन अमेरिका में इसके संक्रमण के मामले चार लाख से ऊपर हो गए हैं जिनमें 12000 लोग काल के गाल में समा गए। ऐसे में अगर ट्रंप लॉक डाउन हटाते हैं तो निहायत हृदय हीन व्यक्ति होंगे, जिन लोगों की मुसीबतों से कोई फर्क नहीं पड़ता है। ट्रंप बेशक इस मामले में गलत हैं। भारत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस तरह की बात सोच भी नहीं सकते। इंसानियत को अगर एक तरफ रख दें, मानवीयता को अगर नजर से ओझल कर दें तो हकीकत बहुत ही कठोर है। अर्थव्यवस्था में लगातार गिरावट जारी है और कमजोर वर्गों के स्वास्थ्य तथा उनकी जिंदगी पर इसका बहुत गंभीर असर पड़ेगा। लोगों की जान बचाने के लिए लागू किए गए निवारक उपाय के रूप में लॉक डाउन अंततः आजीविका और जिंदगी दोनों के लिए काफी भयावह होगा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर स्वास्थ्य सेवा से जुड़ी नौकरशाही और कई राज्यों के राजनीतिज्ञों का भारी दबाव है कि लॉक डाउन की अवधि को और बढ़ाया जाए। यह अवधि 14 और 15 अप्रैल के दरमियानी रात को होगी अगर आंकड़ों को माने तो उस समय तक हमारे देश में संक्रमण के मामले 10,000 से ऊपर हो चुके रहेंगे। जो शायद अगले सप्ताह में दोगुने हो जाएं अतः  स्पष्ट है कि लॉक डाउन को आगे बढ़ाने में फायदे ज्यादा है और बेरोजगारी की दर में उछाल से ज्यादा लाभदायक भी है सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इकोनॉमी के अनुसार B 23.4% बेरोजगारी बढ़ेगी और यह शहरी क्षेत्र में 30.9% हो जाएगी। इसलिए लॉक डाउन को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करना होगा और इसकी मोडालिटी सरकार को तैयार करनी होगी। प्रधानमंत्री को लॉक डाउन की अवधि को बढ़ाने यह सुझाव को अक्षरश: BबB नहीं मानना चाहिए लेकिन बुरी तरह प्रभावित इलाकों को अपवाद रूप में रखा जा सकता है इस बीमारी के टीके और दवाइयां आने में डेढ़ साल 2 साल के आसपास समय लग सकता है। ऐसे में संक्रमण के मामले को रोकने के लिए लॉक डाउन सबसे बढ़िया  उपाय है। लेकिन इसके बारे में जो राजनीतिक सलाह आ रही है उस पर प्रधानमंत्री को गंभीरता से विचार करना चाहिए। कई बार बीमारी के मुकाबले इलाज अधिक नुकसान देह होता है। जान बचाने के लिए रोजगार खत्म करना बिना रोजगार के जीवन भी उतना महत्वपूर्ण नहीं हो सकता। जिस तरह बीमारी के लिए सही प्रतिरोधक है स्वस्थ शरीर और कोविड-19 के लिए सही प्रतिरोधक है स्वस्थ अर्थव्यवस्था। बेशक प्रधानमंत्री इसे तुरंत हटाने की नहीं सोच रहे। वह इसे चरणबद्ध रूप में खत्म करने की योजना पर विचार कर रहे हैं।


Wednesday, April 8, 2020

मामूली दवा को लेकर असाधारण हालात

मामूली दवा को लेकर असाधारण हालात 

मलेरिया की दवा हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन को लेकर एक बार दुनिया का संतुलन गड़बड़ाता  नजर आ रहा है अमेरिका ने चेतावनी दी है कि अगर भारत ने यह दवा नहीं दी तो जवाबी कार्रवाई की जा सकती है। दरअसल यह बहुत पुरानी दवा है और बेहद सस्ती भी । अमेरिका में कोरोना पीड़ितों के इलाज के रूप में ट्रंप इसे देख रहे हैं वहां इस बीमारी से अब लगभग 16000 लोगों की मौत हो चुकी है और अट्ठारह लाख से ज्यादा लोग संक्रमित हो गए हैं। ट्रंप ने भारत से मदद मांगी है और कथित रूप में साथ में चेतावनी भी दी है कि अगर उसे यह दवा नहीं दी गई तो वह जवाबी कार्रवाई कर सकता है। यहां यह बता देना जरूरी है कि भारत में इस दवा के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया था। खबर है कि भारत ने इस प्रतिबंध में आंशिक ढील का निर्णय किया है और कंपनियों को यह सुविधा मिल रही है कि वे पुराने आर्डर को भेजें। भारत में इसके निर्यात पर इसलिए रोक लगाई है कि वह चाहता है कि हम अपनी जरूरतों का आकलन कर सकें और हमारे पास पर्याप्त स्टॉक रहे। भारत में भी इसका उपयोग चुनिंदा लोगों पर किया जा रहा है। अमरीका ने पहले ही इस दवा के 2.9 करोड़ डोज का राष्ट्रीय स्टॉक तैयार कर लिया है।
    वैसे अभी इस दवा के कारगर होने की पुष्टि नहीं हुई है। यूरोपियन मेडिसन  एजेंसी ने कहा है कि कोरोनावायरस के इलाज में इस दवा का इस्तेमाल क्लीनिकल ट्रायल के अलावा नहीं किया जाना चाहिए। उधर विदेश मंत्रालय ने अपने एक बयान में यह भी कहा है कि मीडिया के एक वर्ग में कोरोनावायरस से जुड़ी दवाओं को लेकर गैरजरूरी विवाद पैदा किया जा रहा है। विदेश मंत्रालय ने अपने बयान में कहा भी है की किसी भी जिम्मेदार सरकार की तरह हमारी भी पहली प्राथमिकता अपनी आबादी के लिए दवा को जमा करना है।  इस पर जो प्रतिबंध लगा था वह इसी को देखते हुए लगाया गया था। सरकार ने सभी परिस्थितियों का आकलन करने के बाद 14 दवाओं के निर्यात पर रोक लगा दी है लेकिन अभी यह रोक आंशिक तौर पर हटाई गई है।
     इसमें दो बातें बहुत ही महत्वपूर्ण लग रही हैं। पहली बात कि मलेरिया की दवा को लेकर कोरोना के मामले में इतनी हाय तौबा क्यों और दूसरी बात कि मोदी सरकार ने क्या कहा है? यद्यपि जिस दिन ट्रंप और मोदी की टेलीफोन पर बातचीत हुई थी उस दिन तो अमेरिकी विदेश विभाग ने भी बयान में कहा था की वार्ता बहुत ही अच्छी हुई ।
    अभी पहली बात पर आते हैं कि आखिर दवा को लेकर इतनी परेशानी क्यों? विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि कोरोनावायरस के इलाज में यह दवा कितनी प्रभावी है इसके प्रमाण नहीं हैं। कैसे अमेरिका के राष्ट्रपति ने मलेरिया में काम आने वाली दवाई का बार-बार जिक्र किया है। जबकि फेसबुक ने ब्राजील के राष्ट्रपति बोलसोनारो का एक वीडियो गलत जानकारी फैलाने की वजह से हटा दिया है। उस वीडियो में बोलसोनारो को यह कहते हुए दिखाया गया है कि यह दवा सब जगह काम कर रही है। लंबे समय से हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन का इस्तेमाल मलेरिया को भगाने में किया जाता था या मलेरिया का बुखार कम करने में किया जाता था। यद्यपि कुछ डॉक्टरों का कहना है यह दवा कुछ मामलों में काम कर रही है, फिलहाल इसके कारगर होने या प्रभावी होने के सबूत नहीं हैं। दूसरी ओर इस दवा का लीवर पर गंभीर साइड इफेक्ट होता है। डॉक्टरों का मानना है कि इसके लिए रेंडम क्लीनिकल ट्रायल की जरूरत है। अमेरिका, ब्रिटेन, स्पेन और चीन में इस दवा के 20 से ज्यादा परीक्षण चल रहे हैं। उधर यूएस फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए ) का मानना है कि कई मामलों में इसका सीमित उपयोग किया जा सकता है। यानी, एफडीए इन दवाइयों का इस्तेमाल करने की अनुमति देता है। हालांकि भारत सरकार की शोध संस्था ने इसके प्रयोग को लेकर सीमित उपयोग की इजाजत दी है।
     अब आती है बात ट्रंप की चेतावनी की। हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन और पेरासिटामोल बहुत ही सस्ती दवाइयां हैं इसका इस्तेमाल होना चाहिए। कोविड-19 ने अक्सर थोक में बेची जाने वाली इन दवाइयों को दुनिया के लिए मूल्यवान वस्तु बना दिया। अब राष्ट्राध्यक्ष इसके लिए फोन कर रहे हैं तो यह भारत के लिए बेहतरीन अवसर है। वैसे पेरासिटामोल का कच्चा माल चीन से आता है, सच कहें तो वुहान से। साठ के दशक में जो अमेरिका विरोध था भारत में वह आज नहीं है। लेकिन आज भी कुछ लोग कहते चल रहे हैं कि अमेरिका ने इस दवा को मांगा है। हमें उन्हें मना करना चाहिए । यही कारण है की विचार शुन्य विरोध हमारा सबसे टिकाऊ पाखंड है। 6 मार्च कि शाम को  जब  ट्रंप ने मोदी से दोबारा बातचीत की और बाद में प्रेस को बताया की भारत ऐसा नहीं करेगा क्योंकि भारत और अमेरिका के बीच परस्पर संबंध अच्छे हैं बाद में उन्होंने जोड़ा की भारत अगर इंकार करेगा तो बेशक प्रतिशोधात्मक कार्रवाई की जा सकती है, क्यों नहीं। जब यह बात हुई तो भारत में मंगलवार को सुबह 4:00 बज रहे थे। कुछ अमेरिका विरोधी लोग नींद से जागे और कहने लगे ट्रंप ने मोदी की बांह मरोड़ दी। भारत ने एक बार फिर अमेरिका के सामने घुटने टेके। मोदी ने ट्रंप से भारत की संप्रभुता का सौदा किया। लेकिन जो लोग मोदी जी को नीचा दिखाना चाहते हैं उन्होंने इस तथ्य को देखा नहीं इस दवा पर से प्रतिबंध को हटा दिया गया है और निर्यातकों को यह छूट दे दी गई है कि वे पुराने ऑर्डर की आपूर्ति करें। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद जिद्दी हैं लेकिन मानवता को लेकर उनमें व्यापक सहानुभूति है।  जो लोग इस तरह की अफवाहें उड़ा रहे हैं उनके बारे में देशवासियों को यह सोचना होगा की वह केवल अपने देश की और सरकार की आलोचना नहीं कर रहे हैं बल्कि एक दूसरे देश की प्रशंसा भी कर रहे हैं। जबकि मोदी जी का कहना है कि "हम रहे ना रहे हमारा हिंदुस्तान रहना चाहिए।" हम हिंदुस्तान के बारे में नहीं सोचते।


Monday, April 6, 2020

देश ने दिखाया संकल्प की शक्ति


देश ने दिखाया संकल्प की शक्ति 

सत्याधारस्तपस्तैलं दयावर्ति: क्षमाशिखा।
अंधकारे प्रवेष्टव्ये दीपो यत्नेन वार्यताम्

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की जनता से अनुरोध किया था कि वह रविवार को रात 9:00 बजे 9 मिनट तक अपने अपने घरों की बत्तियां बुझा दें और दी,ए मोमबत्ती, टॉर्च यहां तक कि मोबाइल फोन के फ्लैशलाइट को जलाए रखें। पूरे देश  ने प्रधानमंत्री किस बात  का सम्मान किया।  रविवार की रात 9:00 बजे  सारी बत्तियां बुझा दी गयीं  और  सभी खिड़कियों पर  दीए जलने लगे।    दीयों की संख्या  को अगर  नजरअंदाज कर दें  तो  ऐसा लगता था कि  यह दिवाली ही है। दिवाली से भी  कुछ आगे।  क्योंकि , इसका  वर्तमान में स्पष्ट  उद्देश्य था।  कह सकते हैं  कि जब  पूरा विश्व  डगमग कर रहा था  भारत  जगमग कर रहा था।  यह  दिवाली  कुछ ऐसी थी  जैसे संपूर्ण देश  किसी को  चुनौती दे रहा है। सभी जानते हैं की वह चुनौती कोरोना वायरस  से मुकाबले  के रूप में थी।  पूरा देश  "तमसो मा ज्योतिर्गमय" की  शक्ति महसूस कर रहा था। दीपक  या मोमबत्ती या प्रकाश का कोई भी स्वरूप  स्वयं में  एक ऊर्जा है।    विज्ञान कहता है  ऊर्जा का  नाश नहीं हो सकता,  उसका स्वरूप बदल जाता है।  दीपक  के  प्रकाश  से निकली ऊर्जा  का स्वरूप  अगर  सूक्ष्म  रूप में  सामने आएगा  तो वह  कुछ वैसा ही होगा जैसे कोई धर्म योद्धा युद्ध भूमि में असत से उत्पन्न असुर का विनाश करने के लिए उपस्थित हुआ है और  पूर्ण सृष्टि को  सत  की ओर  जाने की प्रेरणा दे रहा है , "आसतो मा सद्गमय"। प्रधानमंत्री के इस आह्वान पर तरह तरह की बातें होने लगीं। कुछ लोग इसमें सियासत करने लगे। कुछ लोग इसे देश को भरमाने वाला बताने लगे। जितनी मुंह और जितने तरह की सोच उसी तरह की बातें। लेकिन इन सबसे अलग इसका एक अपना महत्त्व भी है । हमारे देश में दीपक प्रज्वलन को शुभ मानते हैं। इसीलिए किसी भी शुभ अवसर पर दीप जलाने की परंपरा है। लेकिन पूछ सकते हैं कि कोरोनावायरस से होने वाली मौतों और बीमारियों यह बीच ऐसा शुभ क्या है जिसे प्रधानमंत्री देख रहे हैं? लेकिन है! सचमुच है! पहले तो पूरे देश ने यह बता दिया की संकट की घड़ी में वह ना केवल प्रधानमंत्री के साथ है बल्कि संकट से दो-दो हाथ करने के लिए तैयार है । दीप  केवल प्रकाश का उत्स ही नहीं है बल्कि अंधेरे से संघर्ष की शंख ध्वनि भी है।
सूर्यपुत्र हूं मैं उजाल हूं
मैं उन्नत अंगार भाल हूं
बिंदु बिंदु झरते जाना है
मुझे तिमिर पीते जाना है
बस यह लक्ष्य लिए अर्पित हूं
दीपक हूं मैं लालायित हूं

वैसे प्रधानमंत्री की बात पर सियासत से अलग होकर कुछ सोचें तो इसके स्पष्ट रूप में दो पक्ष सामने आएंगे। पहला इसका अध्यात्मिक पक्ष और दूसरा इसका मनोवैज्ञानिक पक्ष। आध्यात्मिक पक्ष पर कई बातें हो सकती हैं बहस हो सकती है। लंबे-लंबे व्याख्यान दिए जा सकते हैं। एक दूसरे के तर्कों को काटा जा सकता है । लेकिन मनोवैज्ञानिक पक्ष चूंकि विज्ञान से संबंद्ध है इसलिए इस पर भरोसा किया जा सकता है।
   इस महामारी के कारण बेरोजगारी, आर्थिक तंगी जैसी चिंताएं  लोगों को सता रही हैं और लोग मानसिक दबाव में हैं । इस माहौल में घबराहट बेचैनी अकेलापन और अवसाद एक गंभीर समस्या बन सकता है। ऐसे में अंधकार में दीपक का जलाना लोगों के भीतर संकल्प की नई ऊर्जा ,नई शक्ति की अभिव्यक्ति होगी और लोग सकारात्मकता से एक दूसरे से जुड़ जाएंगे। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार प्रकाश एक ऐसी शक्ति है जो मनुष्य के वैचारिकता को प्रभावित करती है। अतः प्रकाश "कॉग्निटिव मैप" है और "इमोशनल ड्राइवर" भी। साथ साथ यह "गेस्टालटिक डिवाइस" के रूप में भी काम करता है। जिससे मनुष्य को बाहरी सच्चाई को अपने भीतर देखने और समझने क्षमता पैदा होती है । यह एक तरह से मनुष्य के आचरण में सकारात्मक सोच को विकसित करता है। यही कारण है कि मोदी जी ने अंधेरी रात में बत्तियां बुझा कर एक चिराग जलाने की गुजारिश की। इससे यह महसूस होगा कि हम अपने पीड़ित भाइयों बहनों से पृथक नहीं हैं और ना हमें तथा हमारे प्रयास को अनदेखा किया जा रहा है। यह एक सामूहिक  प्रयास था।  ऐसी महामारी में समाज जब हारने लगता है तो उसमें लड़ने की क्षमता को विकसित करने के लिए साहस के संचार की आवश्यकता होती है और अगर साहस के साथ संकल्प आ गया तो फिर "पंगु चढ़े गिरीवर गहन।" रोशनी एक तरह से  रक्षा कवच है और इससे सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है जिससे इंसान के और समाज के सामूहिक सोच में निरंतरता बनी रहती है।
मोदी जी के  आह्वान पर समूचा राष्ट्र उनके साथ हो गया है। इसका मतलब है कि पूरे देश को इस वायरस से मुकाबले की ना केवल इच्छा है बल्कि जिजीविषा भी और इसीलिए देश ने दीपक को जलाना सार्थक समझा।
शुभं करोति कल्याणमारोग्यं धनसंपदा ।
शत्रुबुद्धिविनाशाय दीपज्योतिर्नमोऽस्तुते ॥