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Thursday, March 31, 2011

द्वंद्व वाममोर्चा और बदलाव के बीच है


हरिराम पाण्डेय
विगत एक सदी से समाजशास्त्रीय तौर पर बंगाल में दो धाराएं चलती आ रही हैं। पहली गोपाल कृष्ण गोखले की उस उक्ति वाली 'जो बंगाल आज सोचता है वह पूरा देश कल सोचता हैÓ तर्ज पर भद्रलोग का बंगाल और दूसरी धारा 'जंगल बुकÓ लगातार बतियाते रहने और चोलबे ना का उद्घोष करने वाले उत्पाती लोग वाला बंगाल। देश में शायद कोई ऐसा राज्य नहीं है जहां यहां की तरह दो विपरीत सामाजिक धारायें प्रवहमान हैं। रवींद्र नाथ टैगौर और सत्यजीत राय की बंगाली सभ्यता की विरासत के जवाब में सियासत में आकंठ डूबा उत्पाती बंगाली समाज। विगत साढ़े तीन दशक से बंगाल के समाज पर वामपंथ का कब्जा हो गया। इसका कारण था कि आक्रोशित किसान की हंसिया या हथौड़ा उठाये विशाल पोस्टर वाले 'संघर्षशील मानुषÓ की छवि आम बंगाली को विमुग्ध करती है और सामाजिक गरीबी को गौरवशाली बनाती है। इस भावुकता ने जहां बंगाल में वामपंथ की नींव को पुख्ता कर दिया उसी बिंदु से बंगाल का विकास भी नकारात्मक दिशा में बढऩे लगा। अब तक जो भी चुनाव हुए उनमें जितने घोषणापत्र जारी हुए उन्हें जनता ने तरजीह नहीं दी, क्योंकि वह भावुकता से आत्ममुग्ध थी। बंगाल की प्रगति दिनों दिन घटती गयी। तृणमूल कांग्रेस के घोषणापत्र में उल्लिखित आंकड़ों के मुताबिक 1975-76 में बंगाल के सकल घरेलू उत्पादन का 19 प्रतिशत भाग यहां के उद्योगों का था जो 2008-09 को घट कर 7.4 हो गया। इसी तरह देश के कुल कल- कारखानों का 7.6 प्रतिशत भाग बंगाल में था जो 2008-2009 में सिर्फ 4 प्रतिशत रह गया। यही नहीं पश्चिम बंगाल में वामपंथी शासन के एक दशक के बाद भी यहां के उत्पादन उद्योग में रोजगार का हिस्सा लगभग 19 प्रतिशत था जो 2008-09 में घट कर 5 प्रतिशत हो गया। हालांकि उस घोषणापत्र में यह नहीं उल्लिखित है कि यहां के कर्मचारियों को बंद , हड़ताल और नो वर्क के कारण मानव दिवस के नुकसान में बंगाल सबसे आगे है, लेकिन यह जरूर कहा गया है कि उत्पादकता की दौड़ में बंगाल पिछड़ गया है। बंगाल के पिछडऩे की कहानी 1967 से आरंभ होती है। इसके बाद से देश का आर्थिक विकास हुआ है जबकि बंगाल में बड़ा गतिरोध आ गया। बंगाल जहां 1960 तक महाराष्टï्र के बाद देश का दूसरा सबसे बड़ा औद्योगिक राज्य था वहीं अब वह कई राज्यों से पीछे आ गया। वामपंथ का दावा है कि उसका ग्रामांचलों में भारी समर्थन है। बेशक इसका और कारण भूमिसुधार तथा बर्गादार कानून है। लेकिन इस कदम से ग्रामीण जनता को जो ताकत मिली उस पर माकपा का नियंत्रण था। माओ तथा स्टालिन का गुणगान करने वाले कम्युनिस्टों का मानना है कि 'आमजन की सारी गतिविधियों का उत्प्रेरण सियासत हैÓ और इसे ही ध्यान में रख कर उसने समाज का राजनीतीकरण आरंभ कर दिया। नतीजा यह हुआ कि शासन से सम्बद्ध जितने स्कंध हैं सबको राजनीति के लाल रंग में रंग डाला। साढ़े तीन दशकों तक वाम दलों ने समाज को इस बेतरतीबी से टुकड़ों में तकसीम कर दिया। सीपीएम को वोट नहीं देने वाले विजातीय घोषित कर दिये गये। हालात यह थे कि खुलकर अपने को माकपा विरोधी कहना जोखिम का काम बन गया। माकपा को मुगालता था कि पुलिस के बल पर वह बंगाली समुदाय की आकांक्षाओं को नियंत्रित कर लेगी और बंगाल की जनता को स्थायी रूप से दोयम दर्जे का बना कर रख देगी। लेकिन खुशकिस्मती से जब देश का सर्वांगीण आर्थिक विकास होने लगा तो बंगाल की जनता को महसूस होने लगा कि वे सचमुच पिछड़ गये। अपने को सर्वोच्च तथा बौद्धिक मानने वाले बंगाली समुदाय को यह स्वीकार करना कि वे सचमुच पिछड़ गये हैं एक बड़ा मानसिक परिवर्तन है। दरअसल यह विधानसभा चुनाव वाममोर्चा और तृणमूल कांग्रेस के बीच नहीं है। यह चुनाव दरअसल वामपंथ और उस बंगाली समुदाय के बीच है जो अब वाम दलों के पीछे नहीं चलना चाहता। 1967 के पूर्व बंगाल एक आदर्श स्थान था और उम्मीद करें कि 2011 के बाद बंगाल एक बेहतर जगह होगी।

Monday, March 28, 2011

मोहाली में आतंकियों के छापामार हमले से बचाव जरूरी




हरिराम पाण्डेय
मोहाली में भारत- पाकिस्तान क्रिकेट विश्व कप मैच का सेमी फाइनल देखने के लिये भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का आमंत्रण पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने स्वीकार कर लिया है और वे मोहाली आ रहे हैं। मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के राष्टï्रपति आसिफ अली जरदारी को न्योता भेजा था पर उनके बारे में पाकिस्तान सरकार के प्रवक्ता फरहतुल्ला बाबर ने कुछ नहीं कहा जबकि गिलानी के भारत जाने के बारे में मीडिया को उन्होंने जानकारी दी। जरदारी के बारे में कुछ नहीं कहे जाने का मतलब यह समझने में कोई हर्ज नहीं कि वे भारत नहीं आ रहे हैं। हालांकि जब न्यौता भेजा गया था उस समय यह बात कूटनीतिक हलकों में चल रही थी कि उसे अस्वीकार करना सही नहीं होगा, खास कर ऐसे मौके पर जब भारत - पाक में सम्बंध सामान्य बनाने की प्रक्रिया चल रही है। हालांकि यह भी तय था कि जरदारी नहीं आयेंगे इसका कोई राजनीतिक या कूटनीतिक कारण नहीं है, बल्कि सुरक्षा का कारण इसके पीछे प्रमुख है। जरदारी इस समय पाकिस्तानी जेहादियों के लिये प्रथम श्रेणी के दुश्मन हैं। उनके करीबी समझे जाने वाले पाकिस्तान के पूर्व राज्यपाल सलमान तासीर को ईश निंदा कानून की आलोचना करने के कारण मौत के घाट उतार दिया गया। राष्टï्रपति जरदारी भी निशाने पर हैं। खासकर अमरीकी वाणिज्य दूत रेमण्ड डेविस की रिहाई में उनकी खुली भूमिका से आतंकी संगठन काफी नाराज हैं। डेविस को मारने पर आमादा थे आतंकी। जरदारी पाकिस्तानी पंजाब में भी यात्रा से बचते हैं। यह भी कहा जा रहा है कि सलमान तासीर की हत्या के बाद से जरदारी के अंगरक्षकों में से पंजाबियों को हटा दिया गया है। वैसे भी गिलानी और जरदारी दोनों को आमंत्रित करना हमारे प्रधानमंत्री जी के लिये उचित नहीं था। भारत के खुफिया या सुरक्षा एजेंसियों के अफसरों को जरदारी पर खतरे के बारे में जानकारी जरूर होगी। ऐसे में उनका मैच देखने आना काफी जोखिम का काम था। अब केवल गिलानी आ रहे हैं तो मैच में उनकी सुरक्षा का जोखिम उठाया जा सकता है। खबर है कि मोहाली मैच में आतंकी उत्पात मचा सकते हैं। अब तक कई बार कई अवसरों को लेकर हमलों की आशंका जाहिर की जा चुकी है, पर कठोर तथा अचूक सुरक्षा के कारण अभी तक कोई हमला नहीं हो सका। मोहाली में छापामार शैली (कमांडों स्टाइल) के हमले आसानी से हो सकते हैं। अब हमारे देश की सुरक्षा एजेंसियों पर निर्भर करता है कि वे कैसी सुरक्षा का इंतजाम करते हैं। मोहाली में सबसे जरूरी है कमांडों की तैनाती और मैदान तक किसी भी हथियारबंद आदमी की पहुंच को रोकना। सीमा के आरपार भी सुरक्षा के कड़े बंदोबस्त किये जाने की जरूरत है। मोहाली पहुंचने वाली बसों, ट्रेनों और हवाई जहाजों पर भी नजरदारी जरूरी है। सबसे प्रभावशाली सुरक्षा बंदोबस्त है कि मोहाली आने वाले हर आदमी की निगरानी हो। गिलानी जब से आयें और जब तक भारत में ठहरें उनकी हिफाजत की जिम्मेदारी भारत की होनी चाहिये। हालांकि उनकी व्यक्तिगत सुरक्षा की जिम्मेदारी वहां की वी आई पी सुरक्षा प्रणाली की है पर उन तक किसी के पहुंचने तथा उनके आवागमन की सुरक्षा भारत की जिम्मेदारी हो। भारत को चाहिये वह इसकी योजना सावधानी पूर्वक और दूरदर्शिता पूर्ण ढंग से बनाये। भारत और पाकिस्तान ने खुफियागिरी को और चुस्त कर दिया है। हमें अमरीकी मदद लेने से भी नहीं हिचकना चाहिये। जब तक गिलानी भारत में रहें सम्पूर्ण अफगानिस्तान- पाकिस्तान क्षेत्र पर निगरानी रहनी चाहिये।

Sunday, March 27, 2011

'अशिक्षित बनाये रखने की साजिश



हरिराम पाण्डेय
भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के ताजा आंकड़े बताते हैं कि देशभर में प्राइमरी स्कूलों में दाखिला लेने वाले बच्चों की तादाद में खासी गिरावट आयी है। हमारी आबादी के परिप्रेक्ष्य में ये आंकड़े चौंकाने वाले हैं। यह स्थिति तब है, जब शिक्षा के अधिकार के बारे में इतनी बातें की जा रही हैं। संभव है हम किसी सनसनीखेज खबर के बाद इस आंकड़े को भी भुला दें, लेकिन यह बहुत चिंताजनक स्थिति है। यदि हम ग्लोबल दुनिया के अनुसार प्रशिक्षित नहीं होंगे और प्राथमिक शिक्षा उस प्रशिक्षण के लिए पहला कदम है तो हम नौकरों और क्लर्कों का देश बनकर रह जाएंगे। इसके कई कारण हैं पर दो अत्यंत व्यावहारिक कारण हैं पहला है कमर तोड़ महंगाई और दूसरा हमारे नेताओं को खुद को हमारा खुदा समझते हैं उनकी सुविधा। अभी हाल में बजट आया। यही करीब महीना भर हुए होंगे। दुर्भाग्य से कहें यही शिक्षा के नये सत्र की शुरुआत का भी समय है। सरकार शिक्षा के बुनियादी अधिकार की बात करते नहीं अघा रही है पर किसी ने गौर किया है कि कागज, स्याही , छपाई , स्कूलों की बढ़ती फीस इत्यादि में कोई कटौती नहीं हुई। शिक्षित होने के ये जरूरी साधन सस्ते नहीं हुए। महंगाई ने निम्न आय वर्ग के लोगों का जीना मुहाल कर रखा है। ऐसे में वे अपने बच्चों को स्कूल में पढऩे क्यों भेजेंगे, खासतौर पर तब, जब उस शिक्षा के लाभ स्पष्ट नहीं हैं। वे अपने कामकाज में उनकी मदद क्यों नहीं लेना चाहेंगे।? रोटी, कपड़ा और मकान के बाद शिक्षा सबसे जरूरी वस्तु है। लेकिन आम आदमी को शिक्षित होने के सारे रास्ते धीरे - धीरे बंद किये जा रहे हैं और दूसरी तरफ रंगीन टेलीविजन और कम्प्यूटर जैसी चीजें लगातार सस्ती हो रहीं र्है। यह पूरे देश की भविष्यत पीढ़ी को अनपढ़ बनाये रखने की साजिश है। ये चमकदार दृश्य माध्यम हैं। इसमें मंत्रियों- नेताओं के जिंदा तिलस्माती भाषण सुनिये- देखिये या कूल्हे-कमर मटकाती 'मुन्नी बदनाम हुई...Ó सुनिये या देखिये। इससे भी समय ना कटे तो क्रिकेट देखिये और सुनिये कि किस उद्योगपति ने कितने करोड़ रुपये में किस मैच का टिकट बुक कराया है या किस खिलाड़ी को किस छक्के पर कितने रुपये मिले। यह सब आम आदमी के सोचने समझने की ताकत को कुंद कर देने की सोची- समझी गयी स्कीम है। जिस देश में बच्चे पैसे के अभाव में पढ़ नहीं पाते उस देश में ये सब बातें ऐसे तिलिस्म का सृजन करती हैं जिनकी गलियां गंभीर कुंठा या आत्महत्या के घिनौने अंधेरे में जाकर गुम हो जाती हैं।
सारी दुनिया और सभ्यताओं को जिन दो आविष्कारों ने आमूल चूल बदल डाला वे थीं बारूद और कागज। कागज यानी ज्ञान विज्ञान का लिखित दस्तावेज और साथ ही शिक्षा की इजारेदारी घटाकर उसे आम आदमी के लिये मुहय्या कराने का साधन। निरक्षरता या अद्र्धशिक्षित स्थिति से राजनेताओं को परोक्ष रूप से होने वाला फायदा। वोट बैंक की राजनीति करने और आराम से घपले करने के लिए निरक्षर या अद्र्धशिक्षित लोग बहुत उपयोगी साबित होते हैं। यदि भारत के लोग सुशिक्षित होते तो क्या इतने सारे घोटालों के बावजूद सरकार बनी रह सकती थी? आज भी हमारे प्रधानमंत्री अपने बचाव में सबसे बड़ा तर्क यही देते हैं कि लोगों ने हमें वोट दिया है, इसलिए हमारी गतिविधियां न्यायोचित हैं। डीएमके का आज भी तमिलनाडु में ठोस जनाधार है। यदि हम विवेकसंगत होते तो क्या यह लूट-खसोट जारी रह सकती थी?
अगर शासन की यह मंशा नहीं होती तो कम से कम किताबों और कापियों पर सब्सिडी मिलती, स्कूलों की दशा में सुधार किया जाता। आज हमारे स्कूलों की स्थिति दयनीय है। यदि किसी ग्रामीण स्कूल को देखें तो इस बात का अंदाजा हो जाएगा। क्लासरूम व फर्नीचर से लेकर शिक्षकों तक सभी की गुणवत्ता निम्नस्तरीय है। क्यों? क्या ग्रामीणों को यह अधिकार नहीं कि वे अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा मुहैया कराएं? यह कहा जा सकता है कि चूंकि ग्रामीण स्कूल शासकीय अनुदान पर संचालित होते हैं, लिहाजा गुणवत्ता की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। लेकिन क्या हमें स्कूलों के बुनियादी ढांचे में अधिक निवेश नहीं करना चाहिए? क्या हमें स्कूलों की परंपरागत प्रणाली में नए सिरे से सुधार नहीं करने चाहिए? शिक्षा भले ही प्राथमिक स्तर की हो, लेकिन गुणवत्ता उच्च होनी चाहिए। खराब गुणवत्ता वाली शिक्षा वास्तव में शिक्षा ही नहीं है।
दूसरी बात यह कि हमारे स्कूलों का पाठ्यक्रम आज भी घिसा-पिटा है। पिछले तीन सालों में पेशेवर दुनिया कितनी बदल गयी है और उसकी तुलना में हमारे पाठ्यक्रमों में कितना बदलाव आया है? हमारे पाठ्यक्रमों का निर्धारण करने वाले लोग कौन हैं? क्या वे उद्योग और सेवा क्षेत्र की जरूरतों के मद्देनजर पाठ्यक्रम में समय-समय पर बदलाव करते हैं? गरीब लोग अपने बच्चों को स्कूल में इसलिए भी पढ़ाने भेजते हैं कि वे वहां धन कमाने के हुनर सीखेंगे। यदि स्कूल उन्हें यह हुनर नहीं सिखाएंगे तो वे क्यों पढऩा चाहेंगे? गरीबों को वह शिक्षा आकर्षित नहीं करती, जो महज बच्चों की जिज्ञासा शांत करती है या उन्हें खानापूर्ति के लिए कुछ सिखा देती है। ऐसा तो नहीं है कि लोगों को अनपढ़ बनाये रखने के लिए जानबूझकर कोई रणनीति बनायी गयी हो ताकि सत्ता के सीता हरण में जनता जटायु बनकर व्यवधान न डाले।

हड्डियों से बन रहा है 'देसी घी कोलकाता में



महानगर की लेबोरेटरी में परीक्षण की कोई व्यवस्था नहीं
हरिराम पाण्डेय
कोलकाता: आदिकाल से घी का प्रयोग हमारे संस्कारों और अध्यामिकता में रचा बसा हुआ है। हिंदुओं का कोई भी धार्मिक कृत्य घी के बगैर पूरा नहीं होता। लेकिन यदि घी नकली हो और वह भी मवेशियों के हड्डिïयों और उनके मांस में मौजूद वसा (फैट) से बना हो तो लोगों के मन और भावना पर क्या असर पड़ेगा, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। इन दिनों शहर में देशी घी के नाम पर बिकनेवाले घी का बहुत बड़ा भाग नकली है।
कैसे बनता है नकली घी:
वैसे तो कोलकाता की जरूरत के अनुरूप घी की आपूर्ति कभी नहीं रही लेकिन पहले उस जरूरत को वनस्पति से पूरा किया जाता था। अब मांग और बढ़ गयी है तथा वनस्पति के अलावा जो जरूरत होती है वह नकली घी से पूरी होती है। कोलकाता में लगभग 20 टन घी की रोजाना खपत होती है। यदि 250 रुपये प्रति किलो की दर से नकली घी बिके तो शहर में 15 करोड़ रुपये मासिक और लगभग 180 करोड़ï रूपये वार्षिक का बाजार है। यह किसी की नीयत को बिगाड़ देने के लिये काफी है।
सूत्रों के मुताबिक स्थानीय कसाई घरों से हड्डिïयां और मांस विक्रताओं से मांस के वसा, जिसे चालू भाषा में तेल कहते हैं, एकत्र कर उन्हें अलग-अलग पीसा जाता है और फिर अलग - अलग ही 20 प्रतिशत ऐसेटिक एसिड और 10 प्रतिशत हाइड्रोक्लोरिक एसिड के मिश्रण में उबाला जाता है। और फिर उसमें एसेंस मिला कर पैक कर दिया जाता है। यह स्वाद और सुगंध में देसी घी की तरह होता है। मजे की बात है कि इसे किसी भी स्थानीय लेबोरेटरी में पकड़ा नहीं जा सकता है। क्योंकि कोलकाता या नयी दिल्ली में जितने भी लैब हैं वहां इसका रासायनिक परीक्षण नहीं होता है।
कैसे होता है परीक्षण :
घी का रासायनिक संघटन और हड्डिïयों को गलाने से बने पेस्ट का रासायनिक संघटन लगभग एक होता है। घी की रासायनिक संरचना होती है ष्ट॥३(ष्ट॥२)२ष्टह्रह्र॥ जबकि हड्डिïयों के पेस्ट की संरचना होती है ष्ट॥३ष्ट॥२ष्ट॥२ष्टह्रह्र॥ घी की जांच के लिये तीन तरीके उपयोग में लाये जाते हैं, वे हैं रिचर्ट- मिसेल वैल्यू, पोलेंस्क वैल्यू और बटेरो रिफ्रैक्टोमीटर इंडेक्स। लेकिन जिन भैंसों को बिनौले खिलाये जाते हैं उनके दूध से बने घी के मॉल्यूक्यूलर स्ट्रक्चर और इस नकली घी के मॉल्यूक्यूलर स्ट्रक्चर बिल्कुल समान होते हैं। देश में मिलावट की जांच की बाइबिल मानी जाने वाली पुस्तक 'हैंडबुक ऑव फूड एडल्टरेशन एंड ऑथेंसिटी-पुष्पा कुलकर्णी, रेखा सिंघल और दीनानाथ रेगेÓ में मिलावट की जांच की कई विधियां बतायी गयीं हैं। लेकिन इससे भी हड्डिïयों से बने घी को पकड़ पाना संभव नहीं है।
एक और विधि है 'अल्ट्रावायलेट स्पेक्ट्रोमीटरÓ से परीक्षण। इसमें नकली घी का रंग नीला दिखता है और असली घी का रंग हल्का हरा। लेकिन दुर्भाग्यवश जिन पशुओं को बिनौला खिलाया जाता है उनके दूध से बने घी का रंग भी नीला ही दिखता है। यानी पशुओं की हड्डïी से बने घी को पकड़ पाना लगभग असंभव है।
वैसे नकली घी साधारण तापमान पर पिघला रहता है और असली घी जम जाता है। असली घी लगभग 30 डिग्री से. पर जम जाता है। जबकि नकली घी को जमने के लिये 23-24 डिग्री से. की जरूरत होती है।
नकली घी का अर्थशास्त्र :
सारे खर्चों के बाद एक लीटर नकली घी के उत्पादन में लगभग 40-45 रुपये लगते हैं और विक्रेताओं को वह 120 रुपये प्रति लीटर की दर से बेचा जाता है। जो व्यापारी इस घी को बेचते हैं उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि वे क्या बेच रहे हैं। क्योंकि सभी जानते हैं कि देसी घी को बनाने में लगभग 260 से 270 रुपये खर्च पड़ते हें। कोई उत्पादक उसे उतनी कम कीमत में बाजार में उतार ही नहीं सकता। इसके सबसे बड़े खरीदार हैं थोक उपयोगकर्ता। छोटे -छोटे पैकेटों में इसे दुकानों से और जहां इसकी भारी मात्रा में खपत होती है वहां इसे सीधे सप्लाई के माध्यम से बेचा जाता है।
प्रशासन और आम उपभोक्ताओं की आंखों में धूल झोंकने के लिये इसका कारेबार बड़े पोशीदा ढंग से चलता है ताकि किसी को संदेह ना हो सके। इसके तीन चरण हैं, पहला- हड्डिïयों को एकत्र कर उन्हें उबालने का, दूसरा उसके पैकेजिंग का और तीसरा विपणन का। पैकेजिंग भी दो टुकड़ों में होती है। कई ब्रांडेड कम्पनियों के डब्बे और कार्टून छाप कर अलग रखे जाते हैं और उन्हें पैक अलग किया जाता है। हड्डिïयों को पीसने और उबालने का काम वहीं होता है जहां कसाई घर हैं और पैकिंग का काम बड़ाबाजार से हावड़ा तक फैला हुआ है। खरीदते समय यह सावधानी जरूरी है कि मान्यता प्राप्त ब्रांड(एगमार्क) और मान्यता प्राप्त दुकान(अप्रूव्ड शॉप) से ही घी खरीदें। खरीदें ओैर साख वाले ब्रांड का घी खरीदें। फिर भी यदि घी में संदेह हो तो जिस पा्रांड का ााी हो उस की कम्पनी में शिकायत करें तथा सरकारी स्वास्थ्य विभाग में भी शिकायत करें।

Saturday, March 26, 2011

तमाशा बनने से बचे संसद




हरिराम पाण्डेय
बुधवार को टेलिविजन पर संसद की कार्यवाही देखकर देश के भविष्य और संसद की सत्ता के प्रति भारी आशंका हो गयी। एक अमरीकी वेबसाइट विकीलीक्स द्वारा पेश किये गये कुछ दस्तावेज को लेकर दोनों पक्ष गुत्थम गुत्था थे। साफ साफ लग रहा था कि हमारी संसद अपरिपक्व लोगों की जमात है जहां इस तरह के कलंकों पर इतनी लम्बी बहस होती है। भय है कि इससे भ्रष्टïाचार को और बढ़ावा न मिले। भ्रष्टïाचार को लेकर देश में कुछ दिन पहले जो बवंडर उठा था उसके फल मिलने लगे हैं। कुछ राजनेताओं को सियासी कीमत चुकानी पड़ी और कुछ लोगों को दंड मिलने की उम्मीद भी है। अभी जांच चल रही है, कानून अपना काम कर रहा है। आशा है इसका भी फल जरूर मिलेगा। लेकिन संस्थागत साख अभी कायम नहीं हो सकी। संसद में भ्रष्टïाचार पर बोलने के लिये जिसे आधार बनाया गया है वह हमारी संस्थागत साख को और कलंकित कर रहा है। इस कलंक से बचने के लिये हमें अधिक कल्पनाशील सकारात्मक रिवाजों की पड़ताल करनी होगी। जिस तरह से विकीलीक्स की रपटों को संसद में तरजीह दी गयी है उससे पूरी दुनिया में भारतीय मखौल बन कर रह गये हैं। नोट लेकर वोट के मसले पर कई गंभीर सवाल हैं लेकिन उस अमरीकी वेबसाइट की रिपोर्ट को इतनी तरजीह देकर आखिर हमारे प्रतिनिधि संसद की गरिमा को क्यों समाप्त कर रहे हैं? यह तो ऐसा लग रहा है कि एक अमरीकी राजनयिक से गपशप को हमारे नेता संसद की कार्यवाही से ज्यादा महत्व दे रहे हैं। इससे क्या संदेश जायेगा?
पहला यह कि हमारे नेता संसद की कार्यवाही के प्रति गंभीर नहीं हैं। वे इसे बाधित करने और उल्टी- सीधी हरकतें करके समय बर्बाद करने का बहाना खोजते रहते हैं। इसमें सबसे अपमानजनक जो बात है विकीलीक्स की रपट में पेश तथ्य नहीं है बल्कि यह है कि किसी भी दल ने चाहे वह भाजपा ही क्यों ना हो ऐसा होने क्यों दिया। अब वे शोर मचा रहे हैं। अब समय की मांग है कि संसद अपने अधिकार का प्रयोग करे। वह निगरानी समितियों को मजबूत करे और उनकी साख को बढ़ाने का बंदोबस्त करे, ताकि विभिन्न मंत्रालय अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने में कोताही न बरतें तथा बचने के लिये कोई बाइपास ना खोजें। दूसरी बात कि सांसदों को इसका ख्याल रखना होगा कि यह केवल शिकायतों को सामने लाने वाला मंच नहीं है, बल्कि मंच विधायी कार्यों के लिये है। लम्बित विधायी मामले बढ़ते जा रहे हैं। कोई काम नहीं हो पाता और करदाताओं का लाखों रुपया इसमें फूंका जा रहा है। इनमें तो कई बहुत महत्वपूर्ण भी हैं। शोर शराबा तो चलता रहता है पर इस बीच कोई ऐसी भी स्थिति पैदा करनी जरूरी हो जब सकारात्मक कार्यवाही हो सके, क्यों कि इसमें हमारी समृद्धि छिपी है। लेकिन ऐसा लगता है कि राजनीतिक दलों ने भ्रष्टïाचार पर बहस को विधायी कार्य के बराबर मान लिया है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो दुनिया में बड़ी बेइज्जती होगी। कोई तो इस मूर्खता भरी हरकतों से ऊपर उठ कर सही राजनेता की तरह काम करना शुरू करे। क्या जनता का धन बर्बाद करने के लिये वे संसद में जाते हैं। अगर संसद में ही ऐसा होता रहा तो इसका असर अन्य संस्थानों पर भी पड़ेगा। पहला कि कल्पित अपराध का एक वातावरण चारों तरफ बन जायेगा। इससे चार भयानक हानियां होंगी। यहां यह बता देना जरूरी है कि भ्रष्टïाचार पर कड़ाई ना हो इसकी वकालत करना यहां कत्तई इरादा नहीं है, बल्कि कहना यह है कि अगर हर नीतिगत फैसले पर विवाद होगा तो कोई बी निर्णय लेने में सरकार हिचकेगी। हमारे नेता या मीडिया को यह याद नहीं रहता कि नीतिगत निर्णय करना सरकार का अधिकार है। आज हमारे नेता किसी भी नीतिगत फैसले के पीछे भ्रष्टïाचार का शोर केवल इसलिये उठाते हैं कि वह फैसला उन्हें व्यक्तिगत तौर पर या पार्टीगत तौर पर मान्य नहीं है। दूसरी हानि है कि अगर एक कल्पित अपराध का वातावरण रहेगा तो शासन की वैधानिकता समाप्त हो जायेगी और सरकार का कोई बी पुर्जा किसी भी फैसले से बचेगा। यानी यह भ्रष्टïाचार को रोकने के बजाय उसे और प्रश्रय देने लगेगा। आज इसका असर दिखने लगा है। बैंकों से लेकर अफसरों तक का नैतिक बल गिर गया है। तीसरी हानि होगी कि सरकारी संस्थान अपना काम नहीं करने के बहाने खोजेंगे क्योंकि उनके अफसरों को भय रहेगा कि इस तरह सार्वजनिक अपमान उनका भी हो सकता है। इसके कारण संसद सत्य का संधान करने वाली संस्था न होकर अपने सदस्यों या उसके घेरे में आने वाले किसी को भी अपमानित करने वाली संस्था बन जायेगी। भ्रष्टïाचार की परिभाषा है कि अपने व्यक्तिगत लाभ के लिये अधिकार का दुरुपयोग। लेकिन यहां भ्रष्टïाचार से मुकाबले के नाम पर अधिकार का दुरुपयोग हो रहा है। सबसे बड़ा भ्रष्टïाचार तो यही है कि हम कुछ करते नहीं दिख रहे हैं और दुनिया के सामने तमाशा बन कर रह गये हैं।

Friday, March 25, 2011

बदलेगा बंगाल अब?



हरिराम पाण्डेय
ममता बनर्जी कांग्रेस से सीटों के गठबंधन के बाद पश्चिम बंगाल में विपक्ष की सबसे बड़ी नेता के रूप में उभर कर आयी हैं। हालांकि उन्होंने कांग्रेस की हैसियत इस राज्य में जूनियर पार्टनर की बना दी पर उसे साथ में रखा है, क्योंकि संभवत: उन्हें इसमें दो लाभ नजर आये हैं, पहला कि वामपंथ के विरोधी वोट बटेंगे नहीं और दूसरा कि उनकी पार्टी राष्टï्रीय स्तर की पार्टी से जुड़ी रहेगी। राष्टï्रीय स्तर की पार्टी से जुड़ा रहना उनकी एक तरह से मजबूरी भी है क्योंकि इसका सम्बंध पश्चिम बंगाल में वामपंथी शासन के इतिहास से है। 1977 में जब सी पी एम का गठबंधन सत्ता में आया तो उसने लोगों में एक उम्मीद जगायी। खास कर आजादी के बाद साम्प्रदायिक दंश से पीडि़त बंगाली समुदाय को इससे मुक्ति की आशा और आर्थिक विकास के लिये ऑपरेशन बर्गा तथा बटाईदार को जमीन का हक देकर उसे खेतिहर मजदूर से खेतिहर बनाने का सुनहरा सपना दिखाया उसने। पर जल्दी ही उसने बंगाल के समाज की आवाज को दबा दिया और स्कूलों में नाम लिखाने से नौकरी पाने तक हर मामले पर सियासत हावी हो गयी। इससे उद्योग और व्यापार को भारी हानि पहुंची और अर्थ व्यवस्था पंगु होने लगी। पेशेवर लोग राज्य से बाहर जाने लगे तथा पूंजी का निर्गम शुरू हो गया। बाद में सीपीएम को जब होश आया तो स्थिति नियंत्रण से बाहर जा चुकी थी। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टïाचार्य ने बुधवार को स्वीकार किया कि असफलताओं के लिये वे स्वयं जिम्मेदार हैं। इन हालात ने ममता जी के लिये अवसर प्रदान किये। ममता जी ने बड़े ही व्यूहबद्ध तरीके से अपना काम शुरू किया। पहले उन्होंने वामपंथ के कथित अत्याचारपूर्ण शासन के खिलाफ कोलकाता की सड़कों पर बुद्धिजीवियों को उतार दिया। इसके बाद स्थानीय निकायों के चुनावों के माध्यम से उन्होंने वाममोर्चे के किले में सेंध लगा दी। आज ममता बनर्जी ऐसी स्थिति में पहुंच गयी हैं जहां वह वाममोर्च के लिये स्पष्टï चुनौती हैं। हो सकता है इस विधानसभा चुनाव में वे वाम मोर्चा को उखाड़ फेंकने में भी कामयाब हो जाएं। लेकिन वाममोर्चा ने जो सपने यहां मतदाताओं को दिखाये थे उनकी भयानक स्मृति अब यहां के लोगों को सपने देखने से डराती है। लोगों के भय भ्रांति को दूर करने के इरादे से ममता जी ने अपने चुनाव घोषणा पत्र को उपादान बनाया। इसलिये ममता जी ने जो घोषणा पत्र जारी किया वह केवल वायदों का पुलिंदा नहीं है। वायदे तो राजनीतिक दल चुनावों में करते ही हैं पर वह घोषणा पत्र वायदों से इसलिये अलग है कि उसमें हर काम को पूरा करने की एक अवधि तय कर दी गयी है और यह भी कहा गया है कि यदि तयशुदा समय में वायदे नहीं पूरे किये गये तो इसके लिये पार्टी जवाबदेह होगी। वायदों को एक समय के फ्रेम में बांध देना और असफलता के लिये पार्टी को जवाबदेह बनाना इसे अलग स्वरूप प्रदान करता है। यहां यह ध्यान देने वाला तथ्य है कि बुद्धदेव भट्टïाचार्य ने जन आकांक्षाओं को नहीं पूरा करने के लिये खुद को दोषी बताया है। उन्होंने पार्टी को इसके लिये उत्तरदायी नहीं कहा है। यानी ममता जी ने इसके लिये संयुक्त जिम्मेदारी का सिद्धांत अपनाते हुए पूरी पार्टी पर उंगली उठाने का हक मतदाताओं को दिया है। समय सीमा इस घोषणा पत्र को एक ठोस स्वरूप प्रदान करता है। क्योंकि अन्य पार्टियां जब अपने वायदों को पूरे नहीं कर पातीं तो वे बड़ी बेशर्मी से कह देती हैं कि हमें अभी बहुत कुछ करना है, बड़ी लम्बी दूरी तय करनी है। लेकिन ममता जी ऐसा नहीं कह सकतीं क्योंकि यह लक्ष्य भी उन्होंने खुद ही चुना है। जैसा कि आमतौर पर होता है, इस घोषणापत्र की शुरुआत भी वाममोर्चे की असफलता से होती है पर वहीं खत्म नहीं हो जाती है और केवल वायदों का पिटारा नहीं बनी रह जाती। इससे लगता है कि उनके पास सोचने वाले और नीतियों को गढऩे वाले रचनात्मक लोग भी हैं। इसमें शासन, अर्थव्यवस्था और शिक्षा में सुधार का लक्ष्य तय किया गया है। बदलाव की हवा चल चुकी है और लोग बदलाव का स्वागत करने और बदलाव को स्वरूप देने को तैयार हैं तथा ममता जी उस बदलाव को सकारात्मक बनाने के लिये तैयार हैं। उधर कांग्रेस का साथ बंगाल के लोगों को यह संदेश भी दे रहा है कि एक ऐसी पार्टी उनके लिये प्रस्तुत है जो केंद्र में उसके साथ काम करती है। चूंकि केंद्र सरकार संसद को जवाबदेह होती है और ममता जी केंद्र सरकार के साथ हैं और उन्होंने राज्य में जवाबदेही खुद तय की है। अतएव बंगाल की जनता के प्रति उनकी दोहरी जवाबदेही बनती है। यहां की जनता को सबसे बड़ा भय सुरक्षा का है। उनकी इस जिम्मेदारी की स्वीकृति को यहां हिंसा पर अंकुश लगाये जाने की आश्वस्ति भी माना जा सकता है। इस प्रवृत्ति से जनता को अपनी अपेक्षाओं को पूरा होने का आश्वासन भी मिलता है।

Wednesday, March 23, 2011

कांग्रेस - तृणमूल गठबंधन तो हुआ पर...


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हरिराम पाण्डेय
कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस में पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनाव के लिये सोमवार को सीटों का तालमेल हो गया। कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में 98 सीटें मांगीं थीं, पर उसे मिलीं 65 सीटेें। सोमवार की सुबह तक कांग्रेस खेमे में चर्चा थी कि सम्मानजनक तालमेल किया जायेगा पर शाम 4 बजे तक यह जुमला दब गया और तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने चाहा वैसा ही तालमेल करना पड़ा। यहां यह बता देना लाजिमी है कि ममता जी ने सोमवार के चार बजे तक का कांग्रेस को इसके लिये अल्टिमेटम दिया था। इस तालमेल को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अनुमोदित कर दिया है। अब तृणमूल कांग्रेस राज्य में 227 सीटों पर चुनाव लड़ेगी और बाकी पर कांग्रेस और एस यू सी आई लड़ेंगे। कांग्रेस को जो अतिरिक्त सीट मिली है वह कैनिंग है। इस पूरे गठबंधन में कांग्रेस की औकात एक जूनियर पार्टनर की बन गयी है। हैरत की बात है कि ममता जी ने उसे कोलकाता में कोई सीट नहीं दी। यहां तक कि कांग्रेस की कई जीती हुई सीटों पर भी अपना दावा कर दिया। इस गठबंधन के बाद हालांकि ममता जी ने यह कहा कि अब हमलोग मिल कर वामपंथ का पत्ता साफ कर देंगे, लेकिन कांग्रेस में भारी रोष है। मानस भुइयां ने तो खले आम अपनी नाराजगी जाहिर की है। अधीर चौधरी हर जगह उबलते दिख रहे हैं। विक्षुब्ध कांग्रेसी नेता अपनी ही पार्टी पर लांछन लगाने से भी नहीं चूक रहे हैं। कुछ नेता तो यह कहते फिर रहे हैं कि कई विजयी विधायकों को टिकटें नहीं दी गयीं जबकि प्रणव मुखर्जी के पुत्र अभिजीत और उनकी रिश्तेदार शुभ्रा को टिकट दे दिया गया। प्रणव मुखर्जी के पुत्र स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया की नौकरी छोड़ कर आये हैं और उन्हें नलहाटी सीट से टिकट मिला है जबकि शुभ्रा घोष को हावड़ा के आमता से टिकट मिला है। मुर्शिदाबाद से वरिष्ठï कांग्रेसी नेता अधीर चौधरी ने तो ऐलान कर दिया है कि वे तृणमूल के लिये प्रचार नहीं करेंगे, क्योंकि यह गठबंधन हम लोगों पर थोपा गया है। उनका कहना है कि तृणमूल कांग्रेस का मुर्शिदाबाद में कोई आधार ही नहीं है। अधीर चौधरी की तरह कई और कांग्रेसी नेता भी गुस्से में हैं और उनका रोष ममता पर कम हाई कमान पर ज्यादा है। कांग्रेस के नेताओं का कहना है कि यह तालमेल प्रदीप भट्टïाचार्य, देवी पाल और अब्दुल मन्नान जैसे वरिष्ठï नेताओं को चुनाव में खड़े होने से वंचित कर देगा। उनका कहना है कि वे 294 सीटों वाली विधान सभा में अपने लिये एक तिहाई सीटें यानी 98 सीटें चाहते थे और बाकी दो तिहाई सीटें तृणमूल के लिये छोड़ रहे थे, पर वह उसे मान्य नहीं है। जबकि 2009 के चुनाव में ममता जी ने ऐसा ही वादा किया था। यही नहीं ममता जी ने एक मात्र दलित नेता राम प्यारे राम का भी पत्ता काट दिया जबकि राम प्यारे राम कई बार चुनाव जीत चुके हैं। हालांकि कांग्रेस नेतृत्व का कहना है कि चंूकि कोलकाता की 22 सीटें 'डीलिमीटेशनÓ के बाद 11 सीटों में सीमित हो गयीं। अब इसलिये राम प्यारे राम जैसे कई नेताओं को टिकट नहीं दिया जा सका, अब इसमें हाई कमान का क्या दोष? नाराज कांग्रेसी नेता इसे आत्म समर्पण बता रहे हैं जबकि हाई कमान इसे पश्चिम बंगाल की जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप बता रहा है। उधर एस यू सी आई भी ममता जी की हठधर्मिता से नाराज है। उसका कहना है कि यदि ममता जी 5-7 सीटें नहीं दीं तो वह 12 चुनाव क्षेत्रों में अपने उम्मीदवार खड़े करेगा। जो दो सीटें उसे दी गयी हैं वह तो उसी की थीं और उस पर वह दशकों से जीतती आयी है। ममता जी ने पहले ही अपने उम्मीदवारों की सूची की एकतरफा घोषणा कर दीं थीं। उन्होंने 64 सीटें कांग्रेस के लिये छोड़ी थीं। सोमवार को सोनिया गांधी ने इस समझौते के लिये स्वीकृति दी। संभवत: केंद्र में घोटालों और विकीलीक्स के खुलासे से त्रस्त कांग्रेस को यूपीए की सरकार बचाने के लिये ममता के 19 सांसदों का समर्थन पश्चिम बंगाल में पार्टी के आत्मसम्मान से ज्यादा जरूरी लगा होगा। वैसे भी कांग्रेस की मौजूदा ताकत इतनी नहीं है कि वह पश्चिम बंगाल में चुनाव लड़ कर बहुत अच्छा कर सकती हो। वैसे भी अगर माकपा के खिलाफ वह अकेले खड़ी होती तो केरल में भी उस मुश्किलों का सामना करना पड़ता। कांग्रेस के लिये यह कदम उचित था और उसने जो किया वह सबसे अच्छा विकल्प माना जा सकता है।

Tuesday, March 22, 2011

लीबिया होगा अमरीका के लिये सिरदर्द



हरिराम पाण्डेय
यह सच है कि लीबिया पर आरंभिक हमले फ्रांस ने किये पर यह पूरी तरह अमरीकी देखरेख में हुआ और बाद में अमरीका भी मिसाइलें दागने लगा तथा ब्रिटेन भी इसमें शामिल हो गया। अगर इन हमलों को किसी ने टीवी पर देखा होगा और इराक पर हमलों की याद उसे होगी तो दोनों में काफी समानता , खास कर हमले के बहानों में, काफी समानता दिखायी पड़ रही होगी। इराक पर 2003 में जब हमले शुरू हुए थे तो तत्कालीन राष्टï्रपति जार्ज बुश ने इसे सद्दाम हुसैन का सिर कुचलने की क्रिया बतायी थी। शनिवार को जब लीबिया पर आक्रमण हुए तो कहा गया कि इसका उद्देश्य मानवीय है और दरअसल यह हमला नहीं केवल विद्रोहियों के कब्जे वाले इलाकों में लोगों को मदद पहुंचाने के लिये एक तरह से हस्तक्षेप है। पर असली इरादा तो निरंकुश शासक कर्नल मुअम्मर गद्दाफी को हटा कर उसकी जगह पश्चिमी देशों की दुम हिलाऊ सरकार को गद्दी पर बैठाना है ताकि अमरीकी तेल और गैस कम्पनियां वहां लौट सकें और अपना कारोबार शुरू कर सकें। लीबिया में हमले के पीछे तेल का लोभ है ना कि मानवाधिकार की चिंता है या लोकतंत्र के प्रति मोह है।
ईश जाने देश का लज्ज विषय
तत्व है कि कोई आवरण
उस हलाहल सी कुटिल द्रोहाग्नि का
जो कि जलती आ रही चिरकाल से
स्वार्थ लोलुप सभ्यता के अग्रणी
नायकों के पेट में जठराग्नि सी
जिस तरह इराक में सद्दाम हुसैन के अत्याचार के कारण उसके ही मुल्क के लोग उसके दुश्मन हो गये और अपनी अकड़ के कारण वह पड़ोसी देशों की आंख का कांटा बन गया था ठीक उसी तरह गद्दाफी ने भी अपने अत्याचार भरे रवैये और अकड़ के कारण अपने विनाश का पथ प्रशस्त किया। दुनिया की कोई ताकत सद्दाम हुसैन को 2003 में नहीं बचा सकी और दुनिया की ताकत 2011 में गद्दाफी को भी नहीं बचा सकेगी। सियासी तौर पर गद्दाफी का विनाश तो हो चुका है। जब भी कोई राजनेता - चाहे वह लोकतांत्रिक हो या निरंकुश- अपनी जनता का समर्थन खो देता है तो उसका अंत अवश्यम्भावी हो जाता है। अब यहां सवाल यह नहीं है कि कितने दिनों में गद्दाफी का पतन होगा बल्कि सवाल यह है कि कब होगा और किन हालातों में होगा? यही नहीं, उसका पतन वहां के लोगों पर क्या कहर ढायेगा? यही नहीं , पश्चिमी देशों के इस हस्तक्षेप से क्या सचमुच लीबिया की जनता को लाभ होगा या वे इटली तथा अन्य पश्चिमी देशों के तेल और गैस के प्रवाह से मिलने वाले मामूली धन पर जीने वाली अर्थव्यवस्था का हिस्सा बन जायेंगे।
यह जब्र भी देखा है तारीख की नजरों ने
लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पायी
इराक पर हमले ने वैश्विक स्तर पर कई घटनाओं को उत्प्रेरित किया और अंतत: जार्ज बुश तथ टोनी ब्लेयर की नीतियों की धज्जियां उड़ गयीं। उन्हें पूरी तरह गलत साबित कर दिया। यहां तक कि ओबामा ने खुद स्वीकार किया कि इराक पर हमले के कारण अफगानिस्तान- पाकिस्तान क्षेत्र में अमरीका के लिये कई मुश्किलें पैदा हो गयीं हैं। इससे लगा कि ओबामा ने इराक तथा अफगानिस्तान से सबक लिया है पर लीबिया पर हमले से लगता है कि उन्होंने कुछ भी नहीं सीखा। इतिहास गवाह है कि अमरीका ने जब भी अपने मुल्क से बाहर कोई कार्रवाई की है तो उसे गौरव हासिल नहीं हुआ, चाहे वह कोरा हो या वियतनाम या सोमालिया या अफगानिस्तान या इराक। अब अगर ओबामा सोचते हैं कि लीबिया अपवाद होगा तो वे गलती कर रहे हैं। इस हमले का पहला असर होगा कि लोकतंत्र का जो बवंडर ट्यनिशिया से उठा था और मिस्र में पहुंच गया और अरब मुल्कों को भी प्रभावित करने लगा वह बवंडर थम जायेगा। अरब के स्वेच्छाचारी शासक जो अभी अमरीका या पश्चिमी देशों के साथ हैं उन्होंने यह इसलिये नहीं किया है कि लीबिया की जनता के लिये उनमें बहुत मोह है बल्कि उन्होंने यह कदम इसलिये उठाया है कि अमरीका और अन्य पश्चिमी देशों का ध्यान लीबिया पर रहेगा और इस अवसर का लाभ उठा कर वे अपने- अपने देशों में लोकतंत्र की आवाज को दबा देंगे और आंदोलनकारियों को कुचल डालेंगे। उधर पश्चिमी देशों को भी लीबिया में अरब का समर्थन चाहिये ताकि वे सबको यह बता सकें कि यह सही अर्थों में निरंकुश गद्दाफी के खिलाफ अंतरराष्टï्रीय गठबंधन है जिसमें इस्लामी ताकतें भी शामिल हैं। बहरीन में ऐसा ही हुआ था। जहां लोकतंत्र समर्थक आंदोलन को कुचलने में अमरीका ने चुप्पी साध कर मदद की थी। उसी की शह पर वहां के सुन्नी नेता ने शिया आंदोलनकारियों को कुचल डाला था। आज जो बहरीन में हुआ कल हो सकता है वह सऊदी अरब में भी हो। लीबिया में अरब के समर्थन का सच यही है। लीबिया में जो भी हो पर उसकी गूंज हर जगह सुनायी पड़ेगी जहां अमरीकी जीवन और खतरे में पड़ेगा। चाहे वह अफगानिस्तान - पाकिस्तान हो या यमन हो या मिस्र। हमने अफगानिस्तान में नव तालिबान को पनपते देखा है और आज यह अमरीका के लिये सिरदर्द है। हो सकता है कल हमें नव अलकायदा देखने को मिले। गुस्से से आतंकवाद को बढ़ावा मिलता है। जितना ज्यादा गुस्सा होगा उतना ही आतंकवाद को भी बढ़ावा मिलेगा।

Friday, March 18, 2011

वसंत खोया नहीं है



हरिराम पाण्डेय
ठंडक ने आहिस्ता से मौसम का गाल चूमा और मौसम के रगों में गर्मी दौड़ गयी... लोगों ने कहा वसंत आ गया। होली आ गयी।...और आज सचमुच होली है।
लेकिन कहां ... कल शाम पड़ोस की एक महिला ने बताया कि सड़कों पर रौनक नहीं है। उसकी भूरी पारदर्शी आंखों में विषाद बैठा साफ दिख रहा था। ...वसंत आया, तो गया कहां?
आधी रात को एक पड़ïोसी के पिंजरे में कैद कोयल देर तक चीखती रही। शायद वसंत को टेर रही थी।
सचमुच वह तो खो गया है, सीमेंट और कंकरीट के जंगल में। अब प्रकृति के रंग भी बदलने लगे हैं। लोग तो और भी तेजी से बदलने लगे हैं।
हेमंत के पियरा पत्ते एक एक कर झर चले हैं, जीर्ण वसन विहाय प्रकृति नया परिधान धारण कर रही है, वह ललछर नन्हा मुन्हा किसलय और वह चिकनी रेशमी कोंपलें जैसे मेरे अपने पोते और पोती।
और अब छोटे छोटे पीले फूलों की बहार है। हवा का एक शरीर झोंका उन्हें छेड़ जाता है, सरसों की पतली कमर हजार हजार बल खा गयी, लाजवंती तन्वंगी छुईमुई हो चली, वासंती छवि सबकी आंखों में अंजन बन जाती है। सामने एक स्वर्ण द्वीप जगमगा रहा है। सोने के ताल में लहरिया वर्तुल थिरक रही है। सारा का सारा पलाश वन दहक उठा है। एक मशाल जुलूस सा यह पलाश वन। झारखंड में बीते बचपन में जो मील - मील के लंबे पलाश वन देखा था वह आंखों के सामने थिरक उठा।
फूलों का मौसम अर्थात अहर्निश अगरु, धूप, गंध चर्चित प्रार्थना का मौसम। शायद ऐसे ही मौसम में विदुर के घर कृष्ण आए े होंगे। यह दृष्टि कहां से आये। यह दृष्टि... यह संवेदनशीलता जिसे हमारा क्षण क्षण पर्व बन जाए और संपूर्ण जीवन एक उत्सव, एक समारोह हो जाए। प्रतिकूल कठिनतम परिस्थितियों में भी जीवन की इस उत्सव धर्मिता को निस्तेज न होने देना ही कदाचित वास्तविक पुरुषार्थ है। जब हम हंसते हैं तो वह हंसी वास्तव में परमात्मा द्वारा प्रदत्त प्रसन्नता की हमारी ओर से एक कृतज्ञतापूर्ण स्वीकृति होती है। विख्यात जैन मुनि प्रसन्न सागर ने एक दिन बातों ही बातों में कहा था कि 'हम केवल कृतज्ञ होना सीख सकें तो हमें किसी प्रार्थना या उपासना की आवश्यकता नहीं होगी। कृतज्ञता स्वयं में सर्वोत्तम प्रार्थना और उपासना है।Ó लेकिन आज मानव समुदाय त्रस्त है। स्वयं उसके भीतर अभावों ,लोकैषणा और एक अदद चुपड़ी वासना का अनवरत होलिका दहन हो रहा है और उसमें इंसान की ईमानदारी, निष्ठा, आस्था, श्रद्धा, स्वाभिमान का प्रह्लाद नित्यप्रति भस्म होता जा रहा है। नृसिंह के प्रकट होने में तो अभी विलंब है। कौन है जो इस होलिका दहन से आदमी भीतर के प्रह्लाद को बचाएगा। त्राण बाहर खोजना स्वयं में एक नादानी है । त्राण तो अपने भीतर है उसे टेरना होगा। इस टेरने और हेरने के क्रम में स्वयं में एक टेर हो जाना होगा। हेरते-हरते हेरा जाना होगा।
दरअसल यह वसंत तो कंदर्प का सखा है यह होली का पर्व स्वयं में मदनोत्सव है। महाशिव की समाधि भंग करने जब काम गया था तब उसका सखा वसंत भी उसके साथ ही था। परंतु शिव के तीसरे नेत्र को बचा न सका। भगवान शंकर का कोप भी विधाता के इस नटखट बेटे के लिये वरदान हो गया। वह अनंग अशरीरी होकर और भी व्यापक हो गया ऐसे में कामस्तवन की गुनगुनाहट सुन पड़ती है।
कुसुम लिपि में लिखे आमुख
मूल जिससे निसृत हर सुख
अपरिचित तुमसे सभी दुख
अनवरत गतिशील सक्रिय
कब हुए श्लथ
अहे मन्मथ
विधाता का यह बेटा निहायत नटखट सिद्ध हुआ। सबसे पहले इसने विधाता को ही अपने पंच साधक का लक्ष्य बनाया फिर क्या था ब्रह्मा आत्मज सरस्वती पर आसक्त हो गये। धर्म के देवता यम और सहोदरा यमी को परस्पर कामगत आकर्षण से दग्ध कर दिया था इस मीन केतु ने। यही नहीं क्यूपिड के रूप में इसने यूनानी पुराण में कौन से अनर्थ नहीं कराए।
कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी कहते हैं अधोगत काम विधाता और यम जैसे अनर्थ कराता है, बलात्कार और हत्याएं करवाता है और कामोन्नयन संस्कृति को राधा-कृष्ण उमा-महेश, कालिदास , टैगोर और गेटे आदि देता है। होली के रंग में सराबोर लथपथ अबीर गुलाल के बादलों में विजेता के डैनों पर उड़ते हुए मन को जब यह हल्की हल्की आंच देता है तो पोर पोर अनिर्वचनीय आनंद का आतिथेय होता है।
... और तब कहते हैं कि वसंत खो गया है। वसंत पूरी मादकता के साथ लहकता रहता है। ये सारे तथ्य बताते हैं कि वसंत है, यहीं कहीं है, हमारे भीतर है, हम सबके भीतर है, बस, जरा-सा दुबक गया है और हमारी आंखों से ओझल हो गया है। अगर हम अपने भीतर इस वसंत को ढूंढ़े, तो उसे देखते ही आप अनायास ही कह उठेंगे- हां यही है वसंत, जिसे मैं और आप न जाने कब से ढूंढ़ रहे थे। वसंत वहीं है। वसंत कहीं नहीं खोया है। अभी भी वही रौनक है मैडम पड़ोसन! ... आधी रात को कोयल की कूक? वह तो वसंत में कैद की पीड़ïा है।

वामपंथ जरूरी है जम्हूरियत के लिये



हरिराम पाण्डेय
बीसवीं सदी में ढेर सारे बदलाव हुए। इनमें सदियों से भारतीय समाज में चल रहे जाति- पांति के भेद भाव और छुआ छूत वगैरह प्रमुख थे। बीसवीं सदी में ये सब समाप्त होने शुरू हुए और सबको बराबरी का दर्जा हासिल हुआ, मताधिकार, मानवाधिकार और अभिव्यक्ति की आजादी मिली। यह सही है कि अभी बहुत कुछ होना बाकी है। फिर भी जो कुछ मिला वह सब हमारी लम्बी लोकतांत्रिक जंग का परिणाम है। लोकतंत्र के लिये जंग जारी रहनी जरूरी है। कोई भी क्रांति ठहरती नहीं है। वह एक 'डायनामिक स्टेट ऑफ सिचुएशन हैÓ, उसका विकास होगा या वह प्रतिगामी ताकतों के कब्जे में जाकर मिट जायेगी। आज हमारे लोकतांत्रिक आंदोलन के प्रतिगामी ताकतों के हाथों में आ जाने का खतरा बढ़ गया है क्योंकि देश का मु_ïी भर अमीर और उच्च वर्ग का पूरी आबादी पर वर्चस्व होता जाा रहा है। दूसरे शब्दों में कहें कि वे लोकतंत्र को एक ऐसे तंत्र में बदलने की कोशिश में लगे हैं जो उसकी काया को दीन हीन और निर्बल बना दे। दरअसल इसकी शुरुआत इमरजेंसी के समय ही हो गयी थी और तत्कालीन व्यवस्था ने ऐसा करने का प्रयास भी किया था, पर उस समय सफलता नहीं मिली। राजग शासन काल में भी प्रयास हुए पर अदालतों के बीच में आने से कोई विशेष कामयाबी नहीं मिल सकी। लोकतंत्र को नख- दंत हीन बनाने के सभी प्रयास स्पष्टïत: दिखते हैं पर पर व्यवस्था के विरोध के भय से अक्सर चुप्पी बनी रहती है। इस दिशा में दूसरा हथकंडा होता है साम्प्रदायिक ताकतों को मजबूत बनाना। एक तरह से यह प्रक्रिया कुत्ते को जंजीर से बांध कर रखने जैसी है। जब चाहा किसी पर ललकार दिया। तीसरा हथकंडा है खूबसूरत और आकर्षित करने वाले नारों के जरिये मतभेंद पैदा करना और उसे बढऩे देना जिसके कारण नव उदारवाद को प्रवेश मिल सके। जैसे मुक्त बाजार के साथ नव उदारवाद का संयोग होगा तत्काल ही व्यवस्था कठपुतली बन कर रह जाती है। नीतियां उन्हीं के अनुरूप गढ़ी जाती हैं नहीं तो पूंजी के विस्थापन का खतरा रहता है। अगर किसी ने इसका विरोध किया तो उस पर देश की आर्थिक प्रगति में रोड़ा अटकाने का प्रयास करने और देश को आर्थिक महाशक्ति बनने से रोकने की कोशिश करने जैसी तोहमतें मढ़ दी जाती हैं। उसे देश विरोधी करार दिया जाता है तथा कॉरपोरेट मीडिया उसके पीछे पड़ जाता है। वह कॉरपोरेट क्षेत्र के हितों को राष्टï्र का हित बताने में जमीन आसमान के कुलाबें मिला देता है। इसका चौथा हथकंडा होता है धार्मिकता को भड़काना तथा पूर्व आधुनिक काल की सामाजिक संस्थाओं को मजबूत होने देना, खाप पंचायत का उदाहरण हमारे सामने है। वैसे धार्मिकता बुरी चीज नहीं है लेकिन इसका व्यक्तिगत होना जरूरी है। इसके सार्वजनिक या संघबद्ध होने से लोकतांत्रिक संस्थाओं का अराजनीतिकरण हो जाता है जिसके फलस्वरूॅप सामाजिक सौहार्द में दूषण पैदा हो जाता है। वामपंथ इन सबका विरोधी होता है और वह एक मात्र ऐसा संगठन होता है जो सतत राजनीतिकरण करते हुए लोकतंत्र की मशाल को जलाये रखता है। देश में वामपंथ के विरोध का अर्थ है लोकतांत्रिक आंदोलन को खत्म करने का प्रयास। पश्चिम बंगाल में ही वामपंथ के विरोध की बयार बह रही है और इसके लिये नंदीग्राम तथा सिंगुर के उदाहरण दिये जा रहे हैं। बेशक इस मामले में वामपंथी सरकार ने गलतियां कीं हैं पर क्या कोई यह कह सकता है कि उसने इस दौरान भी आम जन के लोकतांत्रिक मूल्यों या संस्थाओं को कुंद करने की कभी भी कोशिश की? संभवत: नहीं।

Wednesday, March 16, 2011

साथी कैसे- कैसे




हरिराम पाण्डेय
तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस पार्टी में पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनाव में सीटों के लिये समझौते पर बातचीत का एक और दौर बिना किसी नतीजे पर पहुंचे समाप्त हो गया। ये हालात विधान सभा चुनाव के रंग - ढंग का भी बयान करते हैं। इस चुनाव में तृणमूल कांग्रेस की प्राथमिकता है वाम मोर्चा को सत्ता से हटाना पर वह कांग्रेस को भी हाशिये पर लाकर उसे केवल बंगाल में नाम भर की पार्टी बना देना चाहती है। दोनों दलों में 294 सीट की विधानसभा में 95 सीटों पर वार्ता शुरू हुई ममता जी ने आधी आधी सीटों देने की मंशा जतायी। वह इस गठबंधन की बड़ी पार्टी बनी रहना चाहती हैं। इन दोनों के बीच किसी संख्या पर यदि समझौता हो जाता तो लगता कि गठबंधन कायम है। पर ऐसा होता नहीं दिख रहा है। कांग्रेस का कहना है कि 2006 में इसने तृणमूल से ज्यादा सीटें जीती थीं इसलिये वह ज्यादा सीटों की हकदार है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मानस भुइयां जूनियर पार्टनर नहीं बने रहना चाहते हैं। ममता जी का तर्क है कि पश्चिम बंगाल में भूमि आंदोलनों के कारण पिछले तीन वर्षों में जमीनी हकीकत काफी बदल चुकी है। इसलिये जो मिल रहा है वह ले लें वर्ना रास्ता देखिये। अब ऐसी स्थिति में कांग्रेस के पास बात करने के लिये बचा ही क्या रहा। ममता जी यह नहीं समझतीं कि उनकी पार्टी मूलत: क्षेत्रीय है। अपने देश में क्षेत्रीय पार्टियां तीन तरह की हैं। पहली द्रमुक और असम गण परिषद की तरह, जो किसी आंदोलन के कारण गठित हुईं। दूसरी तरह की पार्टी है मिजो नेशनल फ्रंट की तरह जो किसी अलगाववादी भाव का नतीजा हैं। तीसरी तरह की पार्टी है कांग्रेस से टूट कर बनने वाली। जैसे तृणमूल कांग्रेस और एन सी पी इत्यादि। अब किसी आंदोलन या अलगाववादी भाव के कारण उत्पन्न पार्टियोंं का मूल आधार कांग्रेस विरोधी होता है और वे इक्का- दुक्का उदाहरण को छोड़ कर शायद ही देश की सबसे बड़ी जनाधार वाली पार्टी से समझौता या सीटों का तालमेल करती हैं। जबकि कांग्रेस से अलग होकर बनी पार्टियां मौका मिलते ही अक्सर तालमेल कर लेती हैं। लेकिन यहां कुछ दूसरी ही बात महसूस हो रही है। राष्टï्रीय और प्रांतीय स्तर पर सत्ता के लिये तालमेल जरूरी है। जबकि तृणमूल चाहती है कि कांग्रेस राज्य में ना मालूम सी पार्टी बनी रहे। यही कारण है कि जब भी थोड़ा मनमुटाव होता है तृणमूल दूसरे गठबंधनों में शामिल हो जाती है और जैसे मौका अनुकूल देखती है तो तुरत कांग्रेस की ओर हाथ बढ़ा देती है। इसके कई स्थानीय कारण भी हैं जैसे मुस्लिम वोट बैक पर कब्जा करना इत्यादि। ममता जी ने इसीलिये यह रणनीति अपनायी है कि किसी भी सूरत में बड़ी पार्टी को बड़ा पार्टनर न बनने दिया जाय अथवा गठबंधन में उसका वर्चस्व न बढऩे दिया जाय। वैसे पश्चिम बंगाल में कांग्रेस में बगावत आम है। लेकिन पार्टी से टूट कर ममता जी ने जो किया वह कोई नहीं कर सका है। विगत 12 वर्षों में उन्होंने राज्य में कांग्रेस को लघु से लघुतर दल बना दिया। अब वह सीटों के बंटवारे वाले मसले पर कांग्रेस को ऐसे दल में बदलना चाहती हैं जो अपने वजूद के लिये तृणमूल पर निर्भर रहे ताकि उसकी विधायी गतिविधियां एकदम सीमित हो जाएं। भारतीय गणतंत्र चुनाव और विधायी गतिविधियों से सक्रिय होता है। चुनाव को सियासी दल ज्यादा तरजीह देते हैं क्योंकि बहुमत मिलते ही कोई दल अपने साथ के दलों की हैसियत को मिटाने में लग जाता है। चुनाव दरअसल दोस्तों और दुश्मनों में आपसी प्रतियोगिताओं को त्वरित करते हैं। पश्चिम बंगाल में ममता जी के निशाने पर वाम मोर्चा है पर उन्होंने कांग्रेस पर से नजरें नहीं हटायी हैं। यह गठबंधन बंगाल में कांग्रेस के पराभव का कारण बनेगा।

Tuesday, March 15, 2011


हरिराम पाण्डेय
परम पावन दलाई लामा ने अवकाश प्राप्त करने का मन बना लिया है। उन्होंने निर्वासित तिब्ब्त सरकार के राजनीतिक और प्रशासनिक प्रमुख का पद छोडऩे की इच्छा जाहिर कर दी। विगत 52 वर्षों से तिब्बत की आजादी की आकांक्षी जनता की आकांक्षओं का प्रतिनिधित्व करने वाले दलाई लामा की लम्बी आयु की कामना के साथ हमें अब इस बात के लिये मानसिक रूप से तैयार होना पड़ेगा। दलाई लामा 10 मार्च 1959 को ल्हासा से भारत आए थे। यह उनके भारत निर्वासन का 52वां वर्ष है। इस दिवस पर वे हर वर्ष एक संदेश देते हैं। इस बार के संदेश में आई उनकी इस घोषणा पर निर्वासित तिब्बती सरकार के प्रधानमंत्री सामदोंग रिनपोचे ने कहा कि परम पावन (दलाई लामा) के अनुरोध के बावजूद तिब्बती एवं निर्वासित सरकार बिना उनके अपना नेतृत्व स्वयं करने में सक्षम नहीं मानती। हालांकि आगे उन्होंने कहा कि तिब्बती सरकार को लोगों की आकांक्षाओं एवं परम पावन की चाहत को समायोजित करने के लिए नये रास्ते ढूंढने होंगे। रिनपोचे के इस वक्तव्य से स्पष्ट है कि दलाई लामा की चाहत आसानी से पूरी होने वाली नहीं। लेकिन यदि वे नहीं रहते हैं तो उनके सपनों को कैसे पूरा किया जा सकता है, इस बारे में वार्ता उनके प्रति अनादर का भाव कतई नहीं माना जा सकता है। यह तो तय है कि उनके अवसान के बाद उनके वारिस की वैधता पर गंभीर सवाल उठाये जायेंगे। उनमें सबसे ज्यादा पूछा जायेगा कि उनका वारिस तिब्बतियों द्वारा चुना गया है और उनके द्वारा पूजनीय है अथवा चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के हाथों की कठपुतली किसी समिति द्वारा चुना गया होगा। जैसा कि पंछेन लामा के बारे में हुआ। दोनों को लेकर काफी विवाद हुआ। एक का चुनाव तिब्बती परम्पराओं के मुताबिक तिब्बती सरदारों द्वारों किया गया था और दूसरे निर्र्वाचन में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने अपनी चाल चली थी। परम पावन के बाद अगले दलाई लामा को स्थापित होने के पूर्व तक खटकने वाला खालीपन रहेगा। जब तक अगले दलाई लामा तिब्बती परम्परा के अनुसार निर्वाचित होकर संस्कारित नहीं हो जाते तबतक यह खालीपन कायम रहेगा। इस अवधि में तिब्बत की निर्वासित सरकार के बुजुर्ग तथा सयाने लोगों का यह कर्तव्य होगा कि वे तिब्ब्ती जनता के हितों का ख्याल रखें और उनका मनोबल ऊंचा रखने की कोशिश करें। ऐसा न हो कि वारिस के सवाल पर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी चीन और बाहर की तिब्बती जनता में अफवाहें फैलाकर भ्रम न पैदा कर दे। तिब्बत की जनता को सही दिशा दिखाने और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के षड्यंत्रों को विफल करने के लिये जरूरी है कि कोई ऐसा राजनीतिक नेता जिसे तिब्बत की जनता का आदर और विश्वास हासिल हो तथा परम पावन का भी विश्वास पात्र हो परम पावन के साथ रहे। उनके अवसान तक ऐसे किसी आदमी के चयन को रोके रखना अक्लमंदी नहीं होगी। परमपावन दो तरह के शिरस्त्राण धारण करते हैं, उनमें एक उनके धार्मिक प्रमुख होने का होता है तथा दूसरा शासन प्रमुख होने का होता है। धर्मप्रमुख का शिरस्त्राण वे अभी किसी को ना सौंपे और जब तक जीवित रहें उस हैसियत से काम करते रहें। जबकि वे अपना प्रशासनिक तथा राजनीतिक पद किसी ऐसे व्यक्ति को सौंप दें जो खुद उनका और तिब्बत की जनता का विश्वस्त हो। उस व्यक्ति के चयन पर वे स्वयं निगरानी रखें जिससे देश और विदेशों में बसे तिब्बतियों में भरोसे की कमी नहीं हो। पृथक राजनीतिक और प्रशासनिक प्रतिनिधि का चयन तिब्बती जनता और सरदारों द्वारा तुरत आरंभ कर देना चाहिये। गत 10 मार्च को दलाई लामा द्वारा दिये गये भाषण कि वे अब अपने राजनीतिक और प्रशासनिक अधिकार किसी दूसरे को सौंप देना चाहते हैं, पर तिब्बती जनता को ज्यादा भावुक नहीं होना चाहिये। उन्हें इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिये और परम पावन का आशीर्वाद प्राप्त किसी योग्य राजनीतिक प्रतिनिधि के चयन की प्रक्रिया आरंभ कर देनी चाहिये।

Sunday, March 13, 2011

लोकतांत्रिक पत्रकारिता का आईना है 'कही अनकही'




उत्तर-पूर्व के राज्यों और पश्चिम बंगाल में हिन्दी पत्रकारिता में लोकप्रिय अखबार 'सन्मार्ग' की महत्वपूर्ण भूमिका है। यह इस क्षेत्र का सबसे बड़ा अखबार है। इसका व्यापक पाठक समुदाय इसकी सबसे बड़ी ताकत है। अहिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी को जन-जन तक संचार की भाषा बनाए रखने में इस अखबार की बहुत बड़ी भूमिका है। यह भूमिका उस समय और भी बढ़ जाती है जब इन राज्यों में हिन्दी विरोधी आंधी चलती है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो 'सन्मार्ग' हिन्दीभाषियों की भाषायी और जातीय पहचान का लोकतांत्रिक आईना है। सामान्य नागरिक से लेकर सत्ता के गलियारों तक इस अखबार को बड़े चाव के साथ पढ़ा जाता है।
हाल ही में मुझे सन्मार्ग में सन् 2010 में प्रकाशित सम्पादकीय टिप्पणियों का एक संकलन 'कही अनकही' के नाम से देखने को मिला। देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि जब समाचारपत्रों में संपादक गायब हो गया हो,संपादक की पहचान प्रबंधक की रह गयी हो, ऐसी अवस्था में हिन्दी के एक दैनिक के सम्पादकीयों का पुस्तकाकार रूप में आना संपादक के गरिमामय पद की मौजूदगी का संकेत देता है। इन दिनों 'सन्मार्ग' के संपादक हरिराम पाण्डेय हैं। पाण्डेयजी विगत दो दशक से भी ज्यादा समय से इस अखबार के साथ जुड़े हुए हैं और इस अखबार को जनप्रिय बनाने में उनकी मेधा और कौशल की बड़ी भूमिका है।
कोलकाता से निकलने वाले समाचारपत्रों में 'सन्मार्ग' अकेला ऐसा अखबार है जिसने अपने पाठकों की संख्या में क्रमशः बढोतरी के साथ अपने सर्कुलेशन और विज्ञापनों से होने वाली आय में भी निरंतर इजाफा किया है। इस दौरान अन्य अनेक नए हिन्दी अखबारों ने अपने कोलकाता संस्करण प्रकाशित किए हैं। लेकिन 'सन्मार्ग' की लोकप्रियता के ग्राफ में इससे कोई कमी नहीं आयी है। इस समय कोलकाता से प्रभातखबर, दैनिक जागरण, नई दुनिया,राजस्थान पत्रिका,विश्वमित्र, जनसत्ता, छपते-छपते आदि अनेक दैनिक प्रकाशित हो रहे हैं। इससे कोलकाता के हिन्दी प्रेस में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का विकास हुआ है।
'कही अनकही' संकलन में 'सन्मार्ग' में सन् 2010 में प्रकाशित सम्पादकीयों को संकलित किया गया है। इस संकलन की एक ही कमी है ,इसमें संपादकीय टिप्पणी के साथ प्रकाशन तिथि नहीं दी गयी है। प्रकाशन तिथि दे दी जाती तो और भी सुंदर होता। इससे मीडिया पर रिसर्च करने वालों को काफी मदद मिलती। यह एक तरह की शोध स्रोत सामग्री है।
सामान्यतौर पर संपादकीय टिप्पणियों के प्रति 'लिखो और भूलो' का भाव रहता है। लेकिन इस संकलन के प्रकाशन ने 'लिखो और याद रखो' की परंपरा में इन टिप्पणियों को पहुँचा दिया है। संपादकीय टिप्पणियों में जिस नजरिए का प्रतिपादन किया गया है उससे एक बात झलकती है कि सम्पादक अपने नजरिए को किसी एक खास विचारधारा में बांधकर नहीं रखता। इसके विपरीत विभिन्न किस्म के विचारधारात्मक नजरिए के साथ उसकी लीलाएं सामने आती हैं। इनमें बुनियादी बात है सम्पादकीय की लोकतंत्र के प्रति वचनवद्धता । लोकतांत्रिक नजरिए के आधार पर विभिन्न विषयों पर कलम चलाते हुए संपादक ने सतेत रूप से 'सन्मार्ग' को सबका अखबार बना दिया है।
समाचारपत्र के संपादकीय आमतौर पर अखबार की दृष्टि का आईना होते हैं। इनसे अखबार के नीतिगत रूझानों का उद्घाटन होता है । 'कही अनकही' में विभिन्न विचारधाराओं के सवालों पर संपादकीय अंतर्क्रियाओं ने संपादकीय को विचारधारात्मक बंधनों से खुला रखा है। इन टिप्पणियों में मुद्दाकेन्द्रित नजरिया व्यक्त हुआ है। इसके कारण संपादकीय की सीमाओं को भी प्रच्छन्नतः रेखांकित करने में मदद मिलती है। पत्रकारिता के पेशे के अनुसार संपादक किसी एक विचारधारा या दल विशेष के प्रति निष्ठावान नहीं हो सकता।लेकिन समाचारपत्र के संपादकों की अपनी विचारधारात्मक निष्ठाएं होती हैं,जिन्हें वे समय-समय पर व्यक्त करते रहते हैं।
संपादकीय टिप्पणियां संपादकमंडल की सामूहिक पहचान से जुडी होती हैं। वे किसी एक की नहीं होतीं। जिन टिप्पणियों के साथ नाम रहता है वे उस लेखक की मानी जाती हैं । लेकिन जिन संपादकीय टिप्पणियों को संपादकीय के रूप में अनाम छापा जाता है उन्हें अखबार की आवाज कहना समीचीन होगा। इसके बाबजूद इस अखबार के संपादक होने के नाते हरिराम पाण्डेय ही इन संपादकीय टिप्पणियों के प्रति जबाबदेह हैं और ये टिप्पणियां उनकी निजी पत्रकारीय समझ को भी सामने लाती हैं।
'कही अनकही' का महत्व यह है कि इसके बहाने पहलीबार भारत के किसी हिन्दी अखबार की सम्पादकीय टिप्पणियों को देखने का मुझे अवसर मिला है। हिन्दी संपादकों में संपादकीय टिप्पणियों को पुस्तकाकार रूप में छापने की परंपरा नहीं है। बेहतर होगा अन्य दैनिक अखबारों के संपादक इससे प्रेरणा लें।

कोलकाता से प्रकाशित हिंदी दैनिक सन्मार्ग में ब्लागर हरिराम पाण्डेय द्वारा लिखे सम्पादकीय के संकलन 'कही अनकही Ó के अध्ययन के बाद प्रो जगदीश्वर चतुर्वेदी ने अपने ब्लाग jagadishwarchaturvedi.blogspot.com
में प्रकाशित किया है।
जगदीश्‍वर चतुर्वेदी। कलकत्‍ता वि‍श्‍ववि‍द्यालय के हि‍न्‍दी वि‍भाग में प्रोफेसर। पता- jagadishwar_chaturvedi@yahoo.co.in

जापान के जलजले से सबक



हरिराम पाण्डेय
जापान की राष्टï्रीय विपदा से दुनिया के सभी संवेदनशील लोगों का मन भर आया है और हमारी पूरी सहानुभूति जापानियों के साथ है। वैसे तो दुनिया ने कई त्रासदियां देखीं और झेलीं हैं लेकिन जापान की पीड़ा कुछ ज्यादा ही है। पहले तो वह सुनामी का शिकार हुआ और उसके बाद आया भूकम्प। अभी इससे वह उबरा भी नहीं था कि फुकुशिमा में परमाणु बिजली घर में विस्फोट हो गये। खबरों के मुताबिक वहां से लगभग 1लाख 70 हजार लोगों को हटाया गया है। परमाणु बिजली घरों पर निगरानी रखने वाले राष्टï्र संघ के संगठन ने कहा कि परमाणु रियेक्टर का बिजली घर बिल्कुल बर्बाद हो गया। जापानी अधिकारियों का कहना है कि रियेक्टर बिल्कुल सुरक्षित है क्योंकि वह फौलाद के बक्से में है। यानी परमाणु विकिरण का खतरा उतना ज्यादा नहीं जितना भय था। सरकार ने आतंक को कम करने के लिये इस त्रासदी को कम कर के बताने नीति अपनाई है। सरकार का कहना है कि फुकुशिमा के प्लांट नम्बर 1 के आस पास विकिरण का स्तर फिलहाल घट गया है। परमाणु मेल्टडाउन शब्द दुनिया में दो परमाणु दुर्घटनाओं के पश्चात बना। पहली दुर्घटना अमरीका के एक द्वीप में 1979 में घटी थी और दूसरी यूक्रेन के चरनेबिल में 1986 में घटी थी। इसमें अति ताप उत्सर्जित हुआ था जिससे रियेक्टर का कवच पिघल गया था। रियेक्टर के बाहरी आवरण के पिघलने की ये पहली घटना थी। अब सवाल उठता है कि क्या फुकुसिमा में भी वैसी ही घटना घटना घटी है। ऐसा लगता है कि घटना के पहले ही रियेक्टर बंद कर दिये गये थे इसलिये विकिरण का खतरा कम जरूर हो गया परंतु आसपास के क्षेत्रों में सीजियम के आइसोटोप का पाया जाना इस बात का संकेत देता है कि रियेक्टर का कोर वायुमंडल के सम्पर्क में है। हालांकि जापान को परमाणु कार्यक्रमों का लम्बा अनुभव है। लेकिन परमाणु मसले पर जापानी अधिकारियों के अतीत के बयान बहुत सटीक नहीं पाये गये हैं अतएव इस बार के उनके बयानों की विश्वसनीयता पर सबको पूरा भरोसा नहीं है। फ्रांस और जापान की परमाणु ऊर्जा पर भारी निर्भरता है इस लिये वे किसी आपदा को ध्यान में रख कर परमाणु बिजली घरों का निर्माण और डिजाइन तैयार करते हैं। परमाणु खतरे के बारे में सवाल पूछने वालों के लिये जापानी अधिकारियों के पास रटारटाया जवाब रहता है कि उनके बिजली घर प्राकृतिक आपदा को ध्यान में रख कर बनाये गये हैं। लेकिन इस विस्फोट के बाद उनका विश्वास हिल जायेगा और जापान में परमाणु बिजली घरों का विरोध बी बढ़ जायेगा। जापाान ही नही चीन और पाकिस्तान में बी उसका विरोध बढ़ेगा। हमें भी अपने परमाणु बिजली घरों की सुरक्षा के प्रति न केवल अब सचेत होना पड़ेगा बल्कि मनुष्य द्वारा किये जाने वालेे तोड़ फोड़ या प्राकृतिक आपदाओं से होने वाले नुकसान से बचाव के के उपायों की समीक्षा करनी होगी। वैसे हमें अपने परमाणु सुरक्षा को कम करके नहीं आंकना चाहिये साथ ही हमें अपनी खामियों को भी नजर अंदाज नहीं करना चाहिये। फुकुशिमा में जो हुआ वह तों प्राकृतिक आपदा थी पर यदि कोई आत्मघाती आतंकी हमारे परमाणु संयंत्र में जा घुसे तो क्या हाग्ेगा। देश के आतंकवाद विशेषज्ञों और यहां तक इस पत्र ने भी कई बार यह मसला उठाया है। लेकिन हमें भी वही रटारटाया जवाब मिलता है कि हमारे परमाणु विशेषज्ञों ने इस पर विचार कर समुचित उपाय कर लिया है। बेशक उनकी बात पर अविश्वास का कोई कारण नहीं है पर यह जरूर है कि हमें अपनी सुरक्षा की समीक्षा कर लेनी चाहिये। फुकुसिमा की घटना पूरे विश्व के लिये चिंता का कारण है पर हमारी सुरक्षा में खामी पूरी दुनिया के लिये आत्मघाती हो सकती है।

लोकतांत्रिक पत्रकारिता का आईना है 'कही अनकही'




उत्तर-पूर्व के राज्यों और पश्चिम बंगाल में हिन्दी पत्रकारिता में लोकप्रिय अखबार 'सन्मार्ग' की महत्वपूर्ण भूमिका है। यह इस क्षेत्र का सबसे बड़ा अखबार है। इसका व्यापक पाठक समुदाय इसकी सबसे बड़ी ताकत है। अहिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी को जन-जन तक संचार की भाषा बनाए रखने में इस अखबार की बहुत बड़ी भूमिका है। यह भूमिका उस समय और भी बढ़ जाती है जब इन राज्यों में हिन्दी विरोधी आंधी चलती है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो 'सन्मार्ग' हिन्दीभाषियों की भाषायी और जातीय पहचान का लोकतांत्रिक आईना है। सामान्य नागरिक से लेकर सत्ता के गलियारों तक इस अखबार को बड़े चाव के साथ पढ़ा जाता है।
हाल ही में मुझे सन्मार्ग में सन् 2010 में प्रकाशित सम्पादकीय टिप्पणियों का एक संकलन 'कही अनकही' के नाम से देखने को मिला। देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि जब समाचारपत्रों में संपादक गायब हो गया हो,संपादक की पहचान प्रबंधक की रह गयी हो, ऐसी अवस्था में हिन्दी के एक दैनिक के सम्पादकीयों का पुस्तकाकार रूप में आना संपादक के गरिमामय पद की मौजूदगी का संकेत देता है। इन दिनों 'सन्मार्ग' के संपादक हरिराम पाण्डेय हैं। पाण्डेयजी विगत दो दशक से भी ज्यादा समय से इस अखबार के साथ जुड़े हुए हैं और इस अखबार को जनप्रिय बनाने में उनकी मेधा और कौशल की बड़ी भूमिका है।
कोलकाता से निकलने वाले समाचारपत्रों में 'सन्मार्ग' अकेला ऐसा अखबार है जिसने अपने पाठकों की संख्या में क्रमशः बढोतरी के साथ अपने सर्कुलेशन और विज्ञापनों से होने वाली आय में भी निरंतर इजाफा किया है। इस दौरान अन्य अनेक नए हिन्दी अखबारों ने अपने कोलकाता संस्करण प्रकाशित किए हैं। लेकिन 'सन्मार्ग' की लोकप्रियता के ग्राफ में इससे कोई कमी नहीं आयी है। इस समय कोलकाता से प्रभातखबर, दैनिक जागरण, नई दुनिया,राजस्थान पत्रिका,विश्वमित्र, जनसत्ता, छपते-छपते आदि अनेक दैनिक प्रकाशित हो रहे हैं। इससे कोलकाता के हिन्दी प्रेस में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का विकास हुआ है।
'कही अनकही' संकलन में 'सन्मार्ग' में सन् 2010 में प्रकाशित सम्पादकीयों को संकलित किया गया है। इस संकलन की एक ही कमी है ,इसमें संपादकीय टिप्पणी के साथ प्रकाशन तिथि नहीं दी गयी है। प्रकाशन तिथि दे दी जाती तो और भी सुंदर होता। इससे मीडिया पर रिसर्च करने वालों को काफी मदद मिलती। यह एक तरह की शोध स्रोत सामग्री है।
सामान्यतौर पर संपादकीय टिप्पणियों के प्रति 'लिखो और भूलो' का भाव रहता है। लेकिन इस संकलन के प्रकाशन ने 'लिखो और याद रखो' की परंपरा में इन टिप्पणियों को पहुँचा दिया है। संपादकीय टिप्पणियों में जिस नजरिए का प्रतिपादन किया गया है उससे एक बात झलकती है कि सम्पादक अपने नजरिए को किसी एक खास विचारधारा में बांधकर नहीं रखता। इसके विपरीत विभिन्न किस्म के विचारधारात्मक नजरिए के साथ उसकी लीलाएं सामने आती हैं। इनमें बुनियादी बात है सम्पादकीय की लोकतंत्र के प्रति वचनवद्धता । लोकतांत्रिक नजरिए के आधार पर विभिन्न विषयों पर कलम चलाते हुए संपादक ने सतेत रूप से 'सन्मार्ग' को सबका अखबार बना दिया है।
समाचारपत्र के संपादकीय आमतौर पर अखबार की दृष्टि का आईना होते हैं। इनसे अखबार के नीतिगत रूझानों का उद्घाटन होता है । 'कही अनकही' में विभिन्न विचारधाराओं के सवालों पर संपादकीय अंतर्क्रियाओं ने संपादकीय को विचारधारात्मक बंधनों से खुला रखा है। इन टिप्पणियों में मुद्दाकेन्द्रित नजरिया व्यक्त हुआ है। इसके कारण संपादकीय की सीमाओं को भी प्रच्छन्नतः रेखांकित करने में मदद मिलती है। पत्रकारिता के पेशे के अनुसार संपादक किसी एक विचारधारा या दल विशेष के प्रति निष्ठावान नहीं हो सकता।लेकिन समाचारपत्र के संपादकों की अपनी विचारधारात्मक निष्ठाएं होती हैं,जिन्हें वे समय-समय पर व्यक्त करते रहते हैं।
संपादकीय टिप्पणियां संपादकमंडल की सामूहिक पहचान से जुडी होती हैं। वे किसी एक की नहीं होतीं। जिन टिप्पणियों के साथ नाम रहता है वे उस लेखक की मानी जाती हैं । लेकिन जिन संपादकीय टिप्पणियों को संपादकीय के रूप में अनाम छापा जाता है उन्हें अखबार की आवाज कहना समीचीन होगा। इसके बाबजूद इस अखबार के संपादक होने के नाते हरिराम पाण्डेय ही इन संपादकीय टिप्पणियों के प्रति जबाबदेह हैं और ये टिप्पणियां उनकी निजी पत्रकारीय समझ को भी सामने लाती हैं।
'कही अनकही' का महत्व यह है कि इसके बहाने पहलीबार भारत के किसी हिन्दी अखबार की सम्पादकीय टिप्पणियों को देखने का मुझे अवसर मिला है। हिन्दी संपादकों में संपादकीय टिप्पणियों को पुस्तकाकार रूप में छापने की परंपरा नहीं है। बेहतर होगा अन्य दैनिक अखबारों के संपादक इससे प्रेरणा लें।
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कोलकाता से प्रकाशित हिंदी दैनिक सन्मार्ग में ब्लागर हरिराम पाण्डेय द्वारा लिखे सम्पादकीय के संकलन 'कही अनकही Ó के अध्ययन के बाद प्रो जगदीश्वर चतुर्वेदी ने अपने ब्लाग jagadishwarchaturvedi.blogspot.com
में प्रकाशित किया है।
जगदीश्‍वर चतुर्वेदी। कलकत्‍ता वि‍श्‍ववि‍द्यालय के हि‍न्‍दी वि‍भाग में प्रोफेसर। पता- jagadishwar_chaturvedi@yahoo.co.in

लोकतांत्रिक पत्रकारिता का आईना है 'कही अनकही'




उत्तर-पूर्व के राज्यों और पश्चिम बंगाल में हिन्दी पत्रकारिता में लोकप्रिय अखबार 'सन्मार्ग' की महत्वपूर्ण भूमिका है। यह इस क्षेत्र का सबसे बड़ा अखबार है। इसका व्यापक पाठक समुदाय इसकी सबसे बड़ी ताकत है। अहिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी को जन-जन तक संचार की भाषा बनाए रखने में इस अखबार की बहुत बड़ी भूमिका है। यह भूमिका उस समय और भी बढ़ जाती है जब इन राज्यों में हिन्दी विरोधी आंधी चलती है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो 'सन्मार्ग' हिन्दीभाषियों की भाषायी और जातीय पहचान का लोकतांत्रिक आईना है। सामान्य नागरिक से लेकर सत्ता के गलियारों तक इस अखबार को बड़े चाव के साथ पढ़ा जाता है।
हाल ही में मुझे सन्मार्ग में सन् 2010 में प्रकाशित सम्पादकीय टिप्पणियों का एक संकलन 'कही अनकही' के नाम से देखने को मिला। देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि जब समाचारपत्रों में संपादक गायब हो गया हो,संपादक की पहचान प्रबंधक की रह गयी हो, ऐसी अवस्था में हिन्दी के एक दैनिक के सम्पादकीयों का पुस्तकाकार रूप में आना संपादक के गरिमामय पद की मौजूदगी का संकेत देता है। इन दिनों 'सन्मार्ग' के संपादक हरिराम पाण्डेय हैं। पाण्डेयजी विगत दो दशक से भी ज्यादा समय से इस अखबार के साथ जुड़े हुए हैं और इस अखबार को जनप्रिय बनाने में उनकी मेधा और कौशल की बड़ी भूमिका है।
कोलकाता से निकलने वाले समाचारपत्रों में 'सन्मार्ग' अकेला ऐसा अखबार है जिसने अपने पाठकों की संख्या में क्रमशः बढोतरी के साथ अपने सर्कुलेशन और विज्ञापनों से होने वाली आय में भी निरंतर इजाफा किया है। इस दौरान अन्य अनेक नए हिन्दी अखबारों ने अपने कोलकाता संस्करण प्रकाशित किए हैं। लेकिन 'सन्मार्ग' की लोकप्रियता के ग्राफ में इससे कोई कमी नहीं आयी है। इस समय कोलकाता से प्रभातखबर, दैनिक जागरण, नई दुनिया,राजस्थान पत्रिका,विश्वमित्र, जनसत्ता, छपते-छपते आदि अनेक दैनिक प्रकाशित हो रहे हैं। इससे कोलकाता के हिन्दी प्रेस में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का विकास हुआ है।
'कही अनकही' संकलन में 'सन्मार्ग' में सन् 2010 में प्रकाशित सम्पादकीयों को संकलित किया गया है। इस संकलन की एक ही कमी है ,इसमें संपादकीय टिप्पणी के साथ प्रकाशन तिथि नहीं दी गयी है। प्रकाशन तिथि दे दी जाती तो और भी सुंदर होता। इससे मीडिया पर रिसर्च करने वालों को काफी मदद मिलती। यह एक तरह की शोध स्रोत सामग्री है।
सामान्यतौर पर संपादकीय टिप्पणियों के प्रति 'लिखो और भूलो' का भाव रहता है। लेकिन इस संकलन के प्रकाशन ने 'लिखो और याद रखो' की परंपरा में इन टिप्पणियों को पहुँचा दिया है। संपादकीय टिप्पणियों में जिस नजरिए का प्रतिपादन किया गया है उससे एक बात झलकती है कि सम्पादक अपने नजरिए को किसी एक खास विचारधारा में बांधकर नहीं रखता। इसके विपरीत विभिन्न किस्म के विचारधारात्मक नजरिए के साथ उसकी लीलाएं सामने आती हैं। इनमें बुनियादी बात है सम्पादकीय की लोकतंत्र के प्रति वचनवद्धता । लोकतांत्रिक नजरिए के आधार पर विभिन्न विषयों पर कलम चलाते हुए संपादक ने सतेत रूप से 'सन्मार्ग' को सबका अखबार बना दिया है।
समाचारपत्र के संपादकीय आमतौर पर अखबार की दृष्टि का आईना होते हैं। इनसे अखबार के नीतिगत रूझानों का उद्घाटन होता है । 'कही अनकही' में विभिन्न विचारधाराओं के सवालों पर संपादकीय अंतर्क्रियाओं ने संपादकीय को विचारधारात्मक बंधनों से खुला रखा है। इन टिप्पणियों में मुद्दाकेन्द्रित नजरिया व्यक्त हुआ है। इसके कारण संपादकीय की सीमाओं को भी प्रच्छन्नतः रेखांकित करने में मदद मिलती है। पत्रकारिता के पेशे के अनुसार संपादक किसी एक विचारधारा या दल विशेष के प्रति निष्ठावान नहीं हो सकता।लेकिन समाचारपत्र के संपादकों की अपनी विचारधारात्मक निष्ठाएं होती हैं,जिन्हें वे समय-समय पर व्यक्त करते रहते हैं।
संपादकीय टिप्पणियां संपादकमंडल की सामूहिक पहचान से जुडी होती हैं। वे किसी एक की नहीं होतीं। जिन टिप्पणियों के साथ नाम रहता है वे उस लेखक की मानी जाती हैं । लेकिन जिन संपादकीय टिप्पणियों को संपादकीय के रूप में अनाम छापा जाता है उन्हें अखबार की आवाज कहना समीचीन होगा। इसके बाबजूद इस अखबार के संपादक होने के नाते हरिराम पाण्डेय ही इन संपादकीय टिप्पणियों के प्रति जबाबदेह हैं और ये टिप्पणियां उनकी निजी पत्रकारीय समझ को भी सामने लाती हैं।
'कही अनकही' का महत्व यह है कि इसके बहाने पहलीबार भारत के किसी हिन्दी अखबार की सम्पादकीय टिप्पणियों को देखने का मुझे अवसर मिला है। हिन्दी संपादकों में संपादकीय टिप्पणियों को पुस्तकाकार रूप में छापने की परंपरा नहीं है। बेहतर होगा अन्य दैनिक अखबारों के संपादक इससे प्रेरणा लें।
प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी ने यह टिप्पणी ब्लागर हरिराम पाण्डेय द्वरा कोलकाता से प्रकाशित होने वाले हिंदी दैनिक सन्मार्ग में लिखे सम्पादकीय के संकलन 'कही-अनकहीÓ के अध्ययन के बाद अपने ब्लाग http://jagadishwarchaturvedi.blogspot.com/
में प्रकाशित किया है।
जगदीश्‍वर चतुर्वेदी। कलकत्‍ता वि‍श्‍ववि‍द्यालय के हि‍न्‍दी वि‍भाग में प्रोफेसर। पता- jagadishwar_chaturvedi@yahoo.co.in
http://jagadishwarchaturvedi.blogspot.com/

Thursday, March 10, 2011

इस सुलह का राज क्या?




हरिराम पाण्डेय
कांग्रेस और द्रमुक की तकरार खत्म हो गयी और दोनों दलों में सुलह सफाई हो गयी, अब सीटों के बंटवारे पर मंथन चल रहा है। यह सियासत की अजीब बिसात है। यहां कभी प्यादा बादशाह और वजीर को भी मार देता है और कभी घोड़ा सीधे भी चलने लगता है, लेकिन जब देश को लूट कर अपना झोला भरने वाले दो दल गठबंधन में हों और तकरार के बाद उनकी गांठें खुल जाएं और फिर बंध जाएं तो बिना बोले रहा भी नहीं जा सकता है और लोकतंत्र में आम जनता को हक है यह जानने का आखिर ऐसा क्यों हुआ? कांग्रेस के नेताओं का कहना है कि जब उनकी नेता सोनिया गांधी ने करुणानिधि के प्रतिनिधियों दयानिधि मारन और एम के अजागिरी को कस के झाड़ा तो अकड़ ढीली हो गयी और जिन तीन सीटों पर विवाद था उसे देने के लिये वे फौरन तैयार हो गये। बड़े अंग्रेजी अखबारों ने लिखा कि 'सोनिया गांधी ने पार्टी की प्रतिष्ठïा के मुकाबले सरकार को मूल्य नहीं दिया और इसी कारण वे विजयी हुईं।Ó लेकिन यह बात उतनी सही नहीं है। कांग्रेस कैम्प की गतिविधियों को देख कर लगता है कि बात इतनी सरल नहीं थी। केवल सी टों के विवाद के कारण करुणानिधि ने अपने मंत्रियों को केंद्र सरकार से हट जाने का हुक्म नहीं दिया था। दरअसल बात यह थी कि 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में सीबीआई करुणानिधि की बेटी किनिमोझी से पूछताछ करने वाली थी और इससे करुणानिधि सख्त नाराज थे। यदि एक बार वह सीबीआई के हत्थे जा चढ़ी तो सब किया धरा मिट्टïी में मिल जायेगा। पहले तो करुणानिधि ने खौफ दिया कि वे हट जायेंगे तो सरकार गिर जायेगी अतएव किनीमोझी को इस झंझट से बरी किया जाय पर एक तरफ सोनिया जी का अडिय़ल रवैया और दूसरी तरफ राजनीतिक समीकरण के असंतुलन ने करुणानिधि को मजबूर कर दिया। अब समझौते के अलावा उनके पास चारा नहीं था। हालांकि जब बात बिगड़ रही थी तो कांग्रेस ने प्रणव मुखर्जी को उनसे मिलने तथा समझाने के लिये भेजा। वैसे कहते हैं कि करुणानिधि ने ही प्रणव मुखर्जी से बात करने की इच्छा जाहिर की थी। जब प्रणव उनसे मिले तो वे भड़क उठे थे। किंतु प्रणव के पास उनके लिये दिल्ली दरबार का संदेश था और वह था कि 'किनीमोझी को बचा लिया जायेगा।Ó जानकारों का कहना है कि करुणानिधि पहले तो प्रणव पर बिफर पड़े थे पर जब उन्होंने आश्वासन के बारे में जाना तो नरम पड़ गये। हालांकि प्रणव ने समझाया कि 2 जी घोटाले का मामला खुद सुप्रीम कोर्ट मॉनिटर कर रहा है और इसमें बहुत कुछ किया भी नहीं जा सकता है। कहते हैं कि इसी बात पर करुणानिधि आपे से बाहर हो गये। उन्होंने शालीनता छोड़ते हुये प्रणव मुखर्जी से कहा कि 'मुझे सियासत सिखाते हैं मैं पांच बार मुख्यमंत्री रह चुका हूं। Ó आश्वासन की पुडिय़ा छोड़कर प्रणव मुखर्जी वहां से चले आये। इसके बाद नयी दिल्ली में सोनिया जी से करुणानिधि के दूत की बैठक का कोई मतलब नहीं था, वह बेशक एक औपचारिकता थी। अलबत्ता हो सकता है कि इस बैठक में सोनिया जी ने उससे कुछ शिकायतें जरूर की होंगी। पर ऐसा कुछ खास नहीं था। हां, सोनिया जी प्रणव को भेजना नहीं चाहती थीं क्योंकि प्रणव मुखर्जी का अतीत देखते हुये गांधी परिवार उन पर बहुत ज्यादा भरोसा नहीं करता है और यह तो एक तरह से उन पर निर्भरता थी लेकिन करुणानिधि के दबाव के कारण उन्हें भेजना पड़ा। मामला सुलझ गया। इस इनकार - इकरार में कांग्रेस के विश्लेषकों ने बड़े- बड़े मसायलों को लोगों के सामने पेश किया पर जो सबसे महत्वपूर्ण था वह नहीं बताया गया। इस पूरे प्रकरण में खास था कि 'लूट के माल पर लड़ रहे थे लुटेरे।Ó

मोहम्मद यूनुस के सम्बन्ध हूजी और अल कायदा से


जालसाजी करके पाया नोबेल पुरस्कार, भारत में आतंकवाद के लिये धन मुहय्या कराते हैं
हरिराम पाण्डेय
कोलकाता : नोबेल शांति पुरस्कार विजेता और बंगलादेश में ग्रामीण बैंक के संस्थापक मोहम्मद यूनुस न केवल घोर पाखंडी, छली, 'टिपीकल रक्तशोषकÓ के स्तर तक सूदखोर हैं बल्कि भारत में आतंकवाद के लिये हरकत- उल- जेहद- अल- इस्लामी (हूजी) तथा अलकायदा को कथित रूप में धन भी मुहय्या कराते हैं। भारत में होने वाली आतंकी घटनाओं में भी उनके धन के उपयोग का आरोप है। कल से शुरू हुई भारत बंगलादेश वार्ता में भी यह मसला उठाया जा सकता है।
वैसे तो बंगलादेश की प्रधानमंत्री उन्हें शुरू से ही 'ब्लड सकरÓ यानी खून चूसने वाला बताती रहीं हैं लेकिन आतंकवादियों से उनके रिश्तों का जैसे ही पर्दाफाश हुआ उन्हें ग्रामीण बैंक के शीर्ष पद से हटने का आदेश दे दिया गया।
बंगलादेश के खुफिया विभाग द्वारा सरकार को प्रेषित साठ पेज की एक रपट में मो. यूनुस के आतंकियों से सम्बंधों का कच्चा चि_ïा खोला गया है। कथित तौर पर यह भी है कि उस रपट में शेख हसीना के शासन सम्भालने के बाद वहां बंगलादेश रायफल्स में विद्रोह के पीछे यूनुस और हूजी की बड़ी भूमिका थी। प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद के कार्यालय के एक बड़े अफसर ने 'सन्मार्गÓ को बताया कि मोहम्मद यूनुस पर करोड़ों डालर के घोटाले के आरोप हैं। अभी हाल में नार्वे की सरकार ने उन्हें माइक्रो फाइनांस के नाम पर 10 करोड़ डालर दिया था वह रकम कहां गयी इसका कोई जिक्र नहीं है। अफसरों को शक है कि वह रकम आतंकियों को दी गयी है। यही नहीं उस अफसर के मुताबिक 'निर्धनतम ग्रामीण महिलाओं को बहुत कम ब्याज पर कर्ज देकर उनका जीवन स्तर उठाने की अफवाह फैलाने वाले इस कथित मसीहे का सच यह है कि उन्हें विदेशों से इस नाम पर हर साल बहुत बड़ी रकम दान में या अधिकतम तीन प्रतिशत ब्याज की दर पर ऋण मिलता है जबकि वे गांवों की महिलाओं को 40-50 प्रतिशत ब्याज पर कर्ज देते हैं तथा उसके वसूली का तरीका भी इतना अमानुषिक है कि कइयों ने उस डर से खुदकुशी कर ली है।Ó
उस रपट में कथित तौर पर यह खुलासा किया गया है कि कैसे उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला? रपट में कहा गया है कि चूंकि कट्टïरपंथियों से उनके प्रगाढ़ï संबंध थे और पहले भी वे उन्हें मोटी रकमें दिया करते थे। उन्हें भी एक ऐसे आदमी की जरूरत थी जिसकी छवि एकदम उज्ज्वल हो और उन्हें जहां जरूरत हो प्रचुर धन भी दे सके। 9/11 की घटना के बाद आतंकियों को धन का अभाव महसूस होने लगा था और धन देने वालों पर निगाह भी रखी जाने लगी थी।
इसीलिये कथित तौर पर अलकायदा और हूजी के गुर्गों ने तबलीग की जमीयत की आड़ में पूरी दुनिया में उनका गुणगान शुरू कर दिया। दूसरी तरफ मुस्लिम साइक को मरहम लगाने के लिये उस अवधि में एक ऐसे आदमी की जरूरत थी जो मुस्लिम हो और जिसेे 'ग्लोबल आइकनÓ बनाया जा सके। नोबेल कमेटी आतंकियों के इस छल में आ गयी।
अभी हाल ही में चटगांव के जोबरा गांव के एक निवासी ने 'सन्मार्गÓ को बताया कि मोहम्मद यूनुस ने नोबेल पुरस्कार लिये जाने के बाद जो डॉक्यूमेंट्री फिल्म दिखायी थी, वह झूठ का पुलिंदा है। 13 अक्टूबर 2006 को ओस्लो में दिखायी गयी उस डॉक्यूमेंटरी में चटगांव के जोबरा गांव की ही एक महिला का वृत्तांत है कि ग्रामीण बैंक से पहला कर्ज उसी ने लिया था। उस महिला सुफिया ने कर्ज का उपयोग कर किस तरह अपना जीवन सुखमय बनाया। वह एकदम दयनीय स्थिति से उठकर दो मंजिले मकान की मालकिन बन गयी। सच तो यह है कि सुफिया और उसका परिवार अभी भी उस दो मंजिले मकान के बगल में एक टूटी झोपड़ïी में रहता है। वह मकान जाबाल हुसैन नाम के आदमी का है और जाबाल अभी दुबई में रहता है। सन्मार्ग को जिस व्यक्ति ने जानकारी दी, वह जबाल का रिश्तेदार है। उसने बताया कि जाबाल ने मोहम्मद यूनुस को मुकदमा करने की चेतावनी दी थी तब कहीं जाकर उसने वह डॉक्यूमेंटरी दिखानी बंद की। यही नहीं जाबाल के उस रिश्तेदार ने सुफिया की दो बेटियां नुरुननाहर और हलीमा से भी सन्मार्ग की बात करवायी। उन्होंने बताया कि कैसे उनकी मां सुफिया गरीबी में एडिय़ां रगड़ कर मरी और वे भिखारियों की मानिंद जिंदगी गुजार रहीं हैं।
यही नहीं अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति की पत्नी और वर्तमान में अमरीकी विदेश सचिव हिलेरी क्लिंटन जब अमरीका की प्रथम महिला के तौर पर बंगलादेश आयीं थीं तो उनके सम्मान में मोशीतला के ऋषिपल्ली में यूनुस ने 'हिलेरी आदर्शÓ के नाम से एक परियोजना शुरू की। इसके कुछ ही दिन के बाद यह गांव सूद वसूली के आतंक में डूब गया और पूरा गांव कंगाल हो गया। आज 'हिलेरी आदर्शÓ सूदखोरी के आतंक का प्रतीक हो गया है। यह कहा जा रहा है कि उस गांव की दर्जनों लड़कियां कोलकाता और मुम्बई के चकलाघरों में बिक गयीं और कई लोगों ने आत्महत्या कर ली।

Wednesday, March 9, 2011

आखिर ऐसी गलती क्यों हुई?



हरिराम पाण्डेय
जो लोग अपनी गलती नहीं मानते और उसे सुधारने के लिये प्रस्तुत नहीं रहते वे अक्सर उत्साहहीन और नैतिक तौर पर निर्बल हुआ करते हैं। यह कितना दुखद है कि हमारे प्रधानमंत्री जी ने जिस तरह राज्य सभा में स्वीकार किया कि पी जे थॉमस की नियुक्ति निर्णय की भूल थी। श्री सिंह ने राज्य सभा में कहा कि वे थॉमस के खिलाफ चल रहे मामलों से अनभिज्ञ थे , यही नहीं उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय में तत्कालीन राज्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण के मत्थे दोष मढ़ दिया कि उन्होंने यह जानकारी नहीं दी थी। जब भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सरकार घिरने लगी, ऐसे में सहयोगियों को बदनाम करना कांग्रेस की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा ही नजर आता है। देश का इतिहास गवाह है कि भ्रष्टाचार से निपटना इस बात पर निर्भर नहीं करता कि सरकार कितनी पार्टियों से मिलकर बनी है, यह तो सरकार चलाने वालों की राजनीतिक इच्छाशक्ति पर निर्भर होता है। अबतक शायद ही किसी ने ऐसी इच्छाशक्ति दिखाई है। लगता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी इस मामले में औरों से अलग नजर नहीं आ रहे हैं। सी वी सी की नियुक्ति में प्रधानमंत्री का तर्क बेवजह है। इसके लिये वे सीधे जिम्मेदार हैं। उनका यह कहना कि यह निर्णय की गलती थी एकदम बेमानी है। प्रधानमंत्री के बारे में लोगों का यह कहना है कि वे बेहद नम्र और सुलझे हुए इंसान हैं , बिल्कुल सही नहीं है। प्रधानमंत्री जी के 'बिहेवियर पैटर्नÓ को देख कर ऐसा नहीं लगता। उससे तो लगता है कि वे जिद्दी इंसान हैं। सीवीसी की नियुक्ति का मसला देखें या भारत अमरीका परमाणु समझौते की बात हो या बढ़ते बाजार भाव का सब जगह उनकी छवि एक जिद्दी इंसान की रही है। यही नहीं प्रधानमंत्री अगर यह स्वीकार करते कि उनके आसपास ऐसे लोग हैं जो भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहे हैं, शायद उनकी इस बेबाकी से आम जनता में ये भरोसा पैदा होता कि हमारे नेता में दम है। राजनीतिक परिस्थितियों से जूझ रहे अपने नेता पर लोगों का भरोसा हमेशा के लिए खरा बैठता और शायद हम एक नये भारत के निर्माण की नींव रखते। लेकिन मनमोहन सिंह ने ये हिम्मत भी नहीं दिखायी। दिखाते भी कैसे, आखिरकार पार्टी और दस जनपथ के बीच, खुद उनका क्या कद है। सत्ता चलाने के लिए और सत्ता में बने रहने के लिये, एक पार्टी और उसके तमाम तंत्र की जरूरत होती है। एक नेता की जरूरत होती है, जो कम से कम हमारे प्रधानमंत्री खुद को नहीं मानते। तो फिर क्या गलत कहा मनमोहन सिंह ने, बतौर इंसान वो भी तो हमारी तरह ही हैं, कमजोर और मजबूर। भ्रष्टाचार से निपटने के लिए मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार की आहुति दे दी होती, तो शायद कांग्रेस का कद ऊपर उठ गया होता, लेकिन सरकार बचाने के लिए भ्रष्टाचारियों को पनाह देने की करतूत कांग्रेस को महंगी पड़ सकती है। फिर भले ही पार्टी मनमोहन सिंह जैसी साफ-सुथरी छवि वाले नेता को आगे क्यों न कर रही हो। हां ये हमारे देश और हम सबों का दुर्भाग्य जरूर है कि हमें एक अदद नेता नहीं मिला। अब अगले चुनाव तक हमें इसी तरह कमजोर बने रहना होगा।

Tuesday, March 8, 2011

गांव तो सरकार के लिये कुछ हैं ही नहीं!


हरिराम पाण्डेय
सरकार की निगाह में देशवासियों का लगता है कोई वजूद ही नहीं है। सरकार देशवासियों के स्वास्थ्य को लेकर जरा भी चिंतित नहीं है, खास कर गांवों में रहने वाली आबादी को तो वह तरजीह ही नहीं देती। वैसे मुंह से कहने के लिये हमारे मंत्री चाहे जो कहें पर इस बार के बजट में स्वास्थ्य के लिये प्रावधान को देखकर ऐसा नहीं लगता। सरकार ने सेंट्रली एअर कंडीशंड अस्पतालों जिसमें उससे ज्याद बेड्स हैं, पर सेवा कर लगा दिया। जबकि उसमें महामारियों या छूत की बीमारियों की रोकथाम का कोई प्रावधान नहीं है। यही नहीं गांवों में तड़पते- बिलखते करोड़ों लोगों को प्रारंभिक चिकित्सा सुविधा भी मयस्सर नहीं है। यद्यपि भारत ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है लेकिन अब यह जनसंख्या वृद्धि की तुलना में पिछड़ता जा रहा है। पिछले एक दशक में जनसंख्या में 16 प्र.श. की वृद्धि हुई है जबकि प्रति हजार जनसंख्या में बीमार व्यक्तियों की संख्या में 66 प्र.श.। इस दौरान प्रति हजार जनसंख्या पर अस्पताल में बेडों की संख्या मात्र 5.1 प्र.श. बढ़ी। देश में औसत बेड घनत्व (प्रति हजार जनसंख्या पर बेड की उपलब्धता) 0.86 है जो कि विश्व औसत का एक तिहाई ही है। चिकित्साकर्मियों की कमी और अस्पतालों में व्याप्त कुप्रबंधन के कारण कितने ही बेड वर्ष भर खाली पड़े रहते हैं। इससे वास्तविक बेड घनत्व और भी कम हो जाता है।
स्वास्थ्य सुविधा के उपर्युक्त आंकड़े राष्ट्रीय औसत के हैं। ग्रामीण स्तर पर देखें तो इसमें अत्यधिक कमी आएगी। आंकड़ों के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में जहां देश की 72प्र.श. जनसंख्या निवास करती है, वहां कुल बेड का 19 भाग तथा चिकित्साकर्मियों का 14 भाग ही पाया जाता है। ग्रामीण स्वास्थ्य उपकेंद्रों, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में चिकित्साकर्मियों की भारी कमी है। इन केंद्रों में 62 प्र.श. विशेषज्ञ चिकित्सकों, 49 प्र.श. प्रयोगशाला सहायकों और 20 प्र.श. फार्मासिस्टों की कमी है। यह कमी दो कारणों से है। पहला जरूरत की तुलना में स्वीकृत पद कम हैं, दूसरे, बेहतर कार्यदशा की कमी और सीमित अवसरों के कारण चिकित्साकर्मी ग्रामीण क्षेत्रों में जाने से कतराते हैं। इससे ग्रामीणों को गुणवत्तायुक्त चिकित्सा सेवा नहीं मिलती और वे निजी क्षेत्र की सेवा लेने के लिए बाध्य होते हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2004 के अनुसार 68प्र.श. देशवासी सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं को नहीं लेते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि यहां ठीक ढंग से इलाज नहीं होगा। सरकारी स्वास्थ्य सेवा तुलना में अत्यधिक महंगी होने के बावजूद बहुसंख्यक भारतीय निजी चिकित्सालयों की सेवा लेते हैं।
1983 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति ने चिकित्सा क्षेत्र में निजी भागीदारी को प्रोत्साहित किया। इसके बाद निजी स्वास्थ्य सेवा का तेजी से विस्तार हुआ। आज देश में 15 लाख स्वास्थ्य प्रदाता हैं जिनमें से 13 लाख निजी क्षेत्र में हैं। समुचित मानक और नियम-विनिमय की कमी ने निजी स्वास्थ्य सेवा को पैर फैलाने का अवसर दिया। चूंकि निजी स्वास्थ्य सुविधाएं अधिकतर नगरीय क्षेत्रों में स्थित हैं इसलिए ग्रामीण एवं नगरीय स्वास्थ्य सुविधाओं की खाई और चौड़ी हुई। निजी स्वास्थ्य सेवा इतनी महंगी होती है कि 70 प्र.श. देशवासी उसे वहन करने में सक्षम नहीं होते। यद्यपि सरकार ने विभिन्न प्रकार की स्वास्थ्य बीमा योजनाएं शुरू की हैं, लेकिन केवल 12 प्र.श. देशवासी ही स्वास्थ्य बीमा कराते हैं।

करोड़ों का सवाल


हरिराम पाण्डेय
अरब में लोकतंत्र के आंदोलन और उसके प्रति अमरीकी रुख को समन्वित रूप से देखने पर एक सवाल उठता है कि एक तरफ अमरीका या उसके शांति नोबेल पुरस्कार विजेता राष्टï्रपति बराक हुसैन ओबामा अरब की सरकारों को हटाने के लिये आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं, क्योंकि वहां की सरकारें बेहद भ्रष्टï और अमानुषिक हैं, दूसरी तरफ उतनी ही भ्रष्टï और अमानुषिक पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान की सरकारों को वही अमरीका अरबों डालर की मदद दे रहा है। दरअसल खुद को अक्लमंद तथा विकसित सोच वाला समझने के दंभ में आतंकित अमरीका ने 9/11 के बाद मुस्लिम विश्व विचारों की जंग शुरू कर दी जैसा इसने शीत युद्ध के दौरान कम्युनिस्ट ब्लॉक किया था और सफलता पायी थी। वहां यह जंग इसलिये सफल हुई कि सत्ता का सरोकार इंसानी वजूद और हक से जुड़ा था। लेकिन मुस्लिम विश्व में इसके नाकामयाब होने के दो मुख्य कारण हैं- पहला कि यह पूरी जंग धार्मिक मान्यताओं के मुकाबिल थी और दूसरा कि इस काम के लिये अमरीका ने जिन देशों पर भरोसा किया था वे ही आतंकवाद के पैरोकार निकले। अमरीका को आशा थी कि वैचारिक युद्ध की बिगुल बज उठेगा तथा कट्टïरपंथ एव अलकायदा को इस्लाम के भीतर से ही चुनौतियां मिलने लगेंगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं, क्योंकि मुस्लिम देशों के भ्रष्टï शासकों को कट्टïरपंथ मुफीद आता है और वे उसकी हिफाजत करते हैं। अरब शासकों के पास लादेनवाद का विकल्प है ही नहीं। हार कर वहां की जनता ने यह कदम उठाया। यह कार्य उन लोगों ने लादेनवाद के विकल्प के रूप में नहीं किया है, बल्कि अपना मुकद्दर बदलने की ललक से किया है, इसीलिये अलकायदा की बोलती बंद है। यह बहुत बारीक तथ्य है और आज की जनता को इसे समझ लेना जरूरी है। अधिनायकवादी सत्ता का आधुनिक अलकायदाई जवाब और कुछ नहीं, बल्कि मध्ययुगीन खिलाफत पर आधुनिकता का मुलम्मा है, इसीलिये इसे ट्यूनिशिया से यमन तक चारों तरफ जनता ने आंदोलन की लगाम अपने हाथों में ले रखी है।
अप्रैल 6 युवा आंदोलन, इखवान-अल-मुसलमीन और अलबरदेई के समर्थक गुटों के इस नजरिए को ट्यूनीशिया में जनविद्र्रोह के हश्र को देखते हुए समझा जा सकता है, जहां राष्ट्रपति जाइन अबिदीन बेन अली के भागने के बाद उनकी तानाशाही का हिस्सा रहे लोग सत्ता तंत्र पर काबिज हो गए। अब मिस्र पर सारी दुनिया की निगाहें हैं। ट्यूनीशिया से उठी लहर मिस्र में उथल-पुथल पैदा करने के बाद अब बहरीन, यमन, जॉर्डन, अल्जीरिया से ईरान तक पहुंच चुकी है। पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका के इन देशों में मुक्ति की जैसी चाहत का इजहार हो रहा है, वह अभूतपूर्व है, लेकिन इस नवजाग्रत चेतना का परिणाम क्या होगा, यह बड़ा प्रश्न है। इसका उत्तर शायद मिस्र से ही मिले। मिस्र में वास्तविक लोकतंत्र की नींव पड़ी तो इससे उस पूरे इलाके में एक नये युग का सूत्रपात हो सकता है।
हो सकता है कि आगे चलकर यह आंदोलन धार्मिक कट्टïरपंथियों के हाथों में पहुंच जाय, लेकिन अभी तो यह तय है कि लोग 21 सदी के लोकतंत्र की ललक से इसमें कूदे हैं न कि 7वीं सदी की व्यवस्था में सडऩे के लिये। इसलिये बाहरी मदद से अरब की दुनिया के आंदोलन में बहुत कुछ नहीं किया जा सकता है। उन्हें अपनी मदद खुद करनी होगी।

सत्ता की बिसात : एक तरफ फाइल, दूसरी तरफ सांसद



हरिराम पाण्डेय
तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे को लेकर कांग्रेस और द्रविड़ मुनेत्र कषगम (द्रमुक) में तकरार हो गयी और दोनों का 6 वर्ष पुराना गठबंधन टूट गया। हुआ यह था कि कांग्रेस ने अचानक अपना रुख बदला और वह विधानसभा चुनाव में अधिक सीटों की मांग करने लगी। इस अचानक बदलाव के कारण शनिवार की रात द्रमुक ने पार्टी से अपना रिश्ता तोड़ लेने का निर्णय किया। इसके फलस्वरूप अब द्रमुक केंद्र सरकार से अपने सभी मंत्रियों को हटा लेगा। केंद्र में द्रमुक के 6 मंत्री हैं, जिनमें 2 कैबिनेट मंत्री हैं और चार राज्यमंत्री हैं। द्रमुक का कहना है कि कांग्रेस उसे संप्रग से बाहर धकेलना चाहती है जबकि द्रमुक ने मनमोहन सिंह सरकार को मुद्दों पर आधारित समर्थन देने का वायदा किया है। लेकिन रात में ही जैसा द्रमुक के नेता टी आर बालू ने कहा कि द्रमुक अपने फैसले पर दुबारा विचार भी कर सकता है। उनके कहने का निहितार्थ था कि मुद्दों पर आधारित समर्थन रोका भी जा सकता है। जबकि कांग्रेस के नेता कह रहे हैं कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है बात चल रही है। लेकिन कांग्रेस का रवैया देख कर यह समझा जा सकता है कि कांग्रेस ने इस मामले को खत्म करने का भार भी द्रमुक पर ही डाल दिया है। उसका मानना है कि द्रमुक ने बैठक बुला कर गठबंधन से अलग होना तय किया और वही इसका निपटारा करे। द्रमुक का यह फैसला ऐसे वक्त पर आया है जब 13 अप्रैल के चुनाव के लिये नामांकन पत्र दाखिल करने में महज एक पखवाड़ा रह गया है। अभी जो स्थिति है और द्रमुक के साइक को देख कर ऐसा नहीं लगता है कि मामला खत्म हो जायेगा, क्योंकि कांग्रेस का रवैया ऐसा है मानों वह द्रमुक को बोझ समझती है और द्रमुक कांग्रेस को बोझ समझती है। अब ऐसी स्थिति में कहीं गठबंधन कायम रह सकता है। द्रमुक के इस समर्थन वापसी के बाद केंद्र सरकार एक बार फिर आकड़ों के गणित में उलझी हुई है। द्रमुक के नेता टीआर बालू ने यह कह कर बातचीत का विकल्प खुला रखा है कि अगर कांग्रेस बातचीत करना चाहती है और 60 सीटों पर समझौते के लिए तैयार है तो पार्टी केंद्र से मंत्रियों की वापसी के मुद्दे पर पुनर्विचार कर सकती है। ऐसी खबरें हैं कि कांग्रेस अपने कुछ वरिष्ठ नेताओं को द्रमुक नेतृत्व से एक बार फिर बातचीत करने के लिए कहेगी। दूसरी तरफ राजनीतिक हलकों में कई तरह के कयास भी लगाए जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि कांग्रेस द्रमुक को छोड़ कर जयललिता से भी केंद्र सरकार के लिए समर्थन ले सकती है। उल्लेखनीय है कि जब द्रमुक नेता और केंद्र में दूरसंचार मंत्री ए राजा पर कार्रवाई की बात आयी थी तो जयललिता ने एक टीवी चैनल से साक्षात्कार में कहा था कि अगर द्र्रमुक यूपीए से समर्थन वापस लेगी तो अन्नाद्रमुक केंद्र को पूरा समर्थन दे सकती है। दूसरी तरफ यह भी अनुमान लगाया जा रहा है ए राजा पर कार्रवाई के बाद से ही दोनों दलों के रिश्तों में खटास आ गयी थी और वह केंद्र सरकार पर उस फाइल को कमजोर करने पर दबाव दे रहा था पर सरकार झुकने को तैयार नहीं थी इसलिये यह कदम उठाकर उसने दबाव की रणनीति बनायी है। यही कारण है कि उसने समर्थन देने की बात को बाजार में छोड़ दिया है। समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने कहा है कि द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम (द्रमुक) के समर्थन वापसी के बाद भी केन्द्र की संप्रग सरकार को कोई खतरा नहीं है।
द्रमुक की समर्थन वापसी के बाद केन्द्र सरकार के वजूद को लेकर पूछे गए सवाल के जवाब में यादव ने आज यहां संवाददाताओं से कहा ''केन्द्र सरकार को कोई खतरा नहीं है और यह अब भी अल्पमत में नहीं है.ÓÓ उन्होंने कहा कि सपा का संप्रग सरकार को दिया गया समर्थन आगे भी जारी रहेगा।
यह पूछे जाने पर कि क्या केन्द्र सरकार में शामिल होने का निमंत्रण पाने पर सपा उसे स्वीकार करेगी, यादव ने इस सवाल को काल्पनिक बताते हुए कोई उत्तर देने से मना कर दिया।
उन्होंने स्पष्ट कहा कि हाल-फिलहाल सपा के सरकार में शामिल होने के बारे में कोई बातचीत नहीं हुई है।
गौरतलब है कि लोकसभा में सपा के 22 सदस्य हैं और 18 सांसदों वाले द्रमुक के समर्थन वापस लेने के बाद सपा के केन्द्र सरकार में शामिल होने की अटकलें तेज हो गयी हैं।
यादव ने यह भी कहा कि रही द्रमुक के समर्थन वापसी की बात, तो दोनों दलों के नेताओं के बीच बातचीत अब भी चल रही है और मतभेद दूर भी हो सकते हैं।
सपा मुखिया ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि संप्रग सरकार को उनकी पार्टी बाहर से समर्थन दे रही है और वह जारी रहेगा।
यादव ने सवालों के जवाब में कहा कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से उनकी मुलाकात होती रहती है और अभी तीन दिन पहले भी उनसे बातचीत हुई थी, मगर वह देश के सामने उपस्थित अन्य समस्याओं और सदन की कार्यवाही को सुचारु रूप से चलाने के बारे में थी।

Friday, March 4, 2011

लाखों फूंके जाएंगे अरबों के घोटाले पर


हरिराम पाण्डेय
2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के लिए संसदीय जांच समिति (जेपीसी)का गठन किया जा चुका है। इसमें ऐी कोई व्यवस्था नहीं ह कि जिस पर जुर्म साबित हो उससे समिति का खर्चा भी वसूला जायं यह समिति सरकारी खर्चे यानी महंगाई पीडि़त भारतीय जनता के टैक्स से चलेगी। यानी हमारा और आपका रुपया इसमें लगेगा। विडम्बना देखिये कि इस जांच में जनता की कोई भागीदारी नहीं है। अब हमारे लाखों रुपये खर्च कर इस घोटाले से पर्दा उठाने की कोशिश करेगी। अब चूंकि गरीबों का पैसा इसमें लग रहा ह तो हम भारत की जनता कुछ सवाल तो इस समिति से पूछ ही सकती है। सवाल है कि क्या इससे वह पाया जा सकेगा, जिसकी इससे उम्मीद की जा रही है? कुछ और खुलासे करने के बजाय, क्या वह असली मकसद को पा सकेंगे? क्या इस 'कीमतीÓ जेपीसी से कुछ और पाने की उम्मीद की सकती है? और सबसे अहम बात यह कि आखिर क्यों नहीं इसे पारदर्शी बनाते हुए इसमें पब्लिक की भागीदारी भी सुनिश्चित की जाए?
इससे पहले भी दो चर्चित घोटालों पर जेपीसी का गठन हो चुका है। एक 1990 में शेयर घोटाले में और दूसरी 2003-2004 में एक शीतल पेय में पेस्टिसाइड्स की जांच के लिए।
शेयर घोटाले पर गठित जेपीसी का हाल हम सभी जानते हैं। तब चेयरपर्सन ने कई गोपनीय तथ्य गैरजरूरी प्रेस ब्रीफिंग कर लीक कीं। यह अक्सर देखा गया कि मीडिया को एक खास मकसद से मसालेदार टिप्स दी गईं।
जेपीसी के बाद इस पर खूब हंगामा हुआ। स्टॉक मार्केट रेग्युलेटर मजबूत हुए, लेकिन इन सबके बावजूद कई बड़े स्टॉक मार्केट घोटाले हुए। जिसका खामियाजा आम आदमी और छोटे निवेशकों को भुगतना पड़ा।
फरवरी 2004 में शीतल पेय में कीटनाशी पर बनी जेपीसी ने अपनी जांच में सेंटर फॉर साइंस ऐंड इन्वाइरनमेंट की उस स्टडी की तस्दीक की जिसमें बताया गया था कि देश में बिक रहे शीतल पेय के टॉप 12 ब्रैंड्स में खतरनाक स्तर तक कीटनाशी मौजूद हैं। लेकिन हुआ क्या? मेरा मानना है कि जेपीसी की यह पूरी कवायद बस खानापूर्ति है। जेपीसी के अधिकतर सदस्यों के लिए यह सम्मानजनक काम भर है।
यह क्यों नहीं हो सकता जैसा कुछ ने सुझाया भी है कि इसमें पब्लिक की भागीदारी भी हो। आमतौर पर इसमें राजनीतिज्ञ ही शामिल रहते हैं। एक-दूसरे को संतुष्ट करने के उनके रवैये से पब्लिक के सामने बहुत कम चीजें सामने आ पाती हैं। हमें इसे क्यों स्वीकार करना चाहिए?
सब लोग े जानते हैं कि घोटाले क्यों होते हैं। इसके लिए इरादतन बनाई गई नीतियां और उनमें छोड़े गयी अंधी गलियां जिम्मेदार हैं। ये वीथियां तथ्यों से छेड़छाड़ करने, जुबानी ऑर्डर देने और विवेकाधीन अधिकारों के दुरुपयोग की ताकत देती हैं।
सवाल तो यह है कि जो लोग इस खेल के मास्टर हैं, वे इस गंदगी को दूर करने में दिलचस्पी दिखाएंगे? कभी नहीं। इन सब से बचने के लिए जरूरी है कि इसमें पब्लिक की भागीदारी भी हो। जांच में मिले तथ्य पब्लिक फोरम में रखें जाएं। इससे संचालन में कुछ दिक्कतें आ सकती हैं, इतने सारे विचारों और सुझावों को साथ रखना थोड़ा मुश्किल जरूर है, लेकिन यह असंभव नहीं है।
जब हम इसमें होंगे और जानेंगे कि आखिर ये घोटाले होते कैसे हैं, क्यों नहीं कमिटी को इसकी जांच के लिए थोड़ी और शक्ति देने और अंधी गलियों को बंद करने के तरीके सुझाने की सिफारिश कर सकते, जिससे इन घोटालों को जड़ से खत्म किया जा सके, या कम से कम तो किया ही जा सके। जनता के पैसे से चलने वाली कमिटी जनता फंड की लूट को भी क्यों नहीं बेनकाब करती? वह अपने आपको केवल एक घोटाले तक ही क्यों सीमित रखती है?
वैसे लगता नहीं है कि इस कमिटी से कुछ होगा या जांच में कोई खास बात निकल कर आयेगी या कोईै सुधार होगा। अलबत्ता इस फैसले का एक सकारात्मक पहलू यह है कि संसद की कार्यवाही सुचारू रूप से चलेगी और बजट सत्र में व्यवधान नहीं पड़ेगा।

Thursday, March 3, 2011

भारतीयों को भ्रष्टï बनाया गया है

हरिराम पाण्डेय
2-जी घोटाले में ही केवल भ्रष्टïाचार नहीं है। यह बात दूसरी है कि इसे सियासी लाभ के लिये इतना तूल दिया गया कि पूरा मुल्क हिल गया। भ्रष्टïाचार की सड़ांध क्या क्रिकेट से नहीं आती? 11 नालायक छोकरे इसे खेलते हैं और पांच में से तीन मैच हार जाते हैं लेकिन शोहरत और दौलत बटोर लेते हैं। हाल में आई पी एल की नीलामी हुई दुनिया भर ने उसे टेलीविजन पर देखा। खिलाडिय़ों की बिक्री देख कर लगता था कि वे असबाब हों या ढोर हों या पुराने जमाने के गुलाम हों जिनकी बोलियां लग रहीं हों। कई तो बिके ही नहीं और कई अनाप- शनाप दामों में बिक गये। क्रिकेट ने देश के अन्य खेलों का सत्यानाश कर दिया। इसने मीडिया और विज्ञापन विश्व को मोह लिया है लिहाजा एक उभरती महाशक्ति भारत अन्य खेलों में बहुत पिछड़ गया। आज दुनिया में फुटबॉल में इसका 145वां , बास्केट बॉल में 232वां स्थान है। और दूर कहां जायेंगे चीन को ही देखें यह फकत 30 वर्षों में दुनिया में खेलों में अग्रणी हो गया। विज्ञापनों की जहां तक बात है दूसरे देशों में खिलाड़ी केवल खेल का विज्ञापन करते हैं, लेकिन यहां तो खिलाड़ी कीटनाशक से दूषित शीतल पेय और सोडा के परदे में शराब तक का विज्ञापन करते हैं। क्या इसे भ्रष्टïाचार नहीं कहेंगे? वही हालात फिल्म उद्योग का है। अभिनेताओं को महान मान लिया गया है जबकि वे कुछ नहीं हैं। अधिकांश अभिनेता और फिल्में विदेशी सिनेमा की नकल होती हैं और ये कहे जाने वाले महान लोग किसी एक्टिंग स्कूल से संस्कारित होकर नहीं आते बल्कि बड़े परिवार और रसूख से प्रवेश करते हैं। यही हाल उद्योगों का भी है। एक मोटर सायकिल बनाने वाली कम्पनी एकदम ताजा तकनीक के नाम पर विज्ञापन करती है जबकि सच यह है कि वह तकनीक पश्चिमी दुनिया में 80 में ही त्याग दी गयी। विज्ञापनों को ध्यान से देखें तो उनमें तकनीक का खुलासा नहीं किया जाता है बल्कि कोई मशहूर अभिनेता सुन्दरियों के साथ फर्जी स्टंट का प्रदर्शन करता है। भारतीयों में गोरे होने की ललक है और इस ललक को क्रीम बनाने वाले भुनाते हैं। चार दिनों में गोरा बना देने का दावा करके लोगों को ठगना नहीं है? क्या यह भ्रष्टïाचार का स्वरूप नहीं है? इसके अलावा भी भ्रष्टïाचार के कई गूढ़ स्वरूप हैं मसलन, बैंकों से धोखाधड़ी , रिश्वतखोरी, टैक्स की चोरी वगैरह। यह कितनी दुखद बात है कि बैंक अपने ग्राहकों की ठगी से बचने के लिये पहले इंतजाम करता है ,व्यापार बाद में। अदालत में जहां घूस लेने के मामले पर सुनवाई चलती है वहीं जज के सामने घूस का लेन- देन होता है। इस सबके बावजूद भारतीयों को इस प्रकार के भ्रष्टïाचार के लिये क्षमा किया जा सकता है। क्योंकि हिंदूकुश से लेकर 26/11 के मध्य लगभग 20 शताब्दियों में भारतीयों के मन में आतंक बैठा दिया गया है। इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका के अनुसार इस अवधि में लाखों भारतीयों को मौत के घाट उतार दिया गया। इस नरमेध में केवल हिंदू नहीं थे बल्कि आज के 95 प्रतिशत भारतीय मुसलमानों के पूर्वज भी थे जिन्हें काट डाला गया या धर्म बदल देने के लिये बाध्य किया गया। सीरियाई ईसाई थे जो भारत की मुख्य धारा से जुड़ गये थे उन्हें पुर्तगालियों ने भारत में आकर जबरन कट्टïर ईसाइअत अपनाने पर बाध्य कर दिया और ईसाई धर्म को दो भागों में विभाजित कर दिया। अरबी सैनिकों ने भारत से बौद्ध धर्म को समूल उखाड़ फेंकने का प्रयास किया और बहुत हद तक कामयाब भी रहे। लिहाजा भारतीयों के साइक में आतंक घर कर गया। उन्हें जाने के लिये झूठ बोलने और गलत तंत्र का इस्तेमाल करने की आदत पड़ गयी। यह आदत आजादी के बाद भी कायम रही। इसे रोकने के लिये क्या किया जा सकता है? इसके लिये अच्छा वेतन और दोषी पाये जाने पर बेहद कठोर सजा। वैसे भारत सरकार को चीन का अनुकरण करने की जरूरत नहीं है जहां भ्रष्टïाचार के दोषी पाये जाने वाले राजनीतिकों को गोली मार दी जाती है। पर इतना तो जरूर है कि राजा जो अरबों रुपये के घोटाले से लांछित है उसे कम से कम दस साल जेल में बामशक्कत सजा तो मिलनी ही चाहिये। इससे लोगों के मन में शासन के प्रति विश्वास पैदा होगा और आम आदमी को भी लगेगा कि हमें ईमानदार होना चाहिये। सच तो यह है कि हम भारतीय महान परम्परा के लोग हैं। उन्हें आतंकित कर भ्रष्टï बनने पर बाध्य किया गया है। यह एक बीमारी है। इससे निजात तब ही मिल सकती है जब हम शासन की बागडोर सही आदमी के हाथों में सौंपें।

Wednesday, March 2, 2011

चीन का बढ़ता खतरा



हरिराम पाण्डेय
खबर है कि अधिकृत कश्मीर में चीन ने अपनी गतिविधियां फिर से शुरू कर दी हैं। चीन पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में अपने मजदूरों के लिए एक कालोनी का निर्माण कर रहा है। भारतीय विदेश मंत्रालय के आकलन के मुताबिक पीओके और गिलगिट-बालटिस्तान में करीब 17 परियोजनाओं पर चीन के हजारों मजदूर काम कर रहे हैं। इसमें करीब 14 प्रोजेक्ट तो पीओके में ही चल रहे हैं। भारत सरकार को मिली जानकारी के अनुसार पाकिस्तान में करीब 122 चीनी कंपनियां सक्रिय हैं। इनमें से ज्यादातर पीओके और गिलगिट-बालटिस्तान में भी अलग-अलग प्रोजेक्ट के तहत काम कर रही हैं। चीन की यह 'हरकतÓ ऐसे समय पर सामने आयी है जब हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अगले महीने बीजिंग के दौरे पर जाने वाले हैं। मनमोहन सिंह ब्राजील, रूस, भारत और चीन (ब्रिक) देशों के गुट में दक्षिण अफ्रीका का स्वागत करने के सिलसिले में होने वाली बैठक में हिस्सा लेने चीन जा रहे हैं। उम्मीद है कि पीएम की इस यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच संबंधों में मधुरता आएगी। वैसे चीन की हालिया दो-चार बड़ी हरकतों पर अगर बारीकी से विचार करें तो स्पष्टï होगा कि हमारा पड़ोसी नया कुछ भी नहीं कर रहा। नई बात बस यह है कि इसकी शिद्दत को हमने अब जाकर हमने महसूस किया है। भारत और चीन के बेहद जटिल संबंधों को थोड़ी और गहराई से देखें तो पता चलता है कि जब भी वह भारत के अन्य बड़े शक्तिशाली देशों से संबंधों को गहरा होते देखता है तो वह भारत पर अपना कूटनीतिक और रणनीतिक दबाव बढ़ाना शुरू कर देता है। दुनिया के बड़े देशों को यह दिखाने की कोशिश करता है कि भारत उसके सामने बहुत मामूली देश है। मसलन जब से भारत ने अमरीका के साथ संबंधों पर बहुत ज्यादा ध्यान देना शुरू किया तो दूसरे बड़े मुल्कों से कुछ दूरी बन गयी। चीन को दोनों बातें नागवार लगीं। एक तो भारत की अमरीका से नजदीकी और दूसरा भारत उसकी अनदेखी कर अमरीका से पींगें बढ़ाएं, ये दोनों सूरतें चीन को अपने हितों के माफिक नहीं लगतीं, इसलिए उसके ताजा कदम इसी नीति का हिस्सा हैं। हमारी सारी सीमाओं पर तनाव बनाए रखना उसकी इसी रणनीति का हिस्सा है। चीन ऐसा इसलिए भी कर रहा है कि आर्थिक, सामरिक और राजनयिक रूप से हम उससे बहुत पीछे छूट गए हैं। भारत उससे पीछे ही बना रहे, इसके लिए वह हमें अपने पड़ोसियों के जरिये भी घेर रहा है। पाकिस्तान के साथ उसने सांठगांठ की हद तक घनिष्ठ संबंध बना रखे हैं। पाकिस्तान के आणविक हथियारों में चीन का योगदान खुद पाकिस्तान के योगदान से ज्यादा है। उसकी शक्ति संतुलित एकांगिक और सुनियोजित है, जबकि हमने अपने देश के भीतर जो राजनीतिक प्रणाली विकसित की है, उससे हम कमजोर और विभाजित हुए हैं। इसी के चलते साहसिक कदम उठा पाने में हम असमर्थ रहते हैं।
वैसे भी आजकल विश्व में बात-बात पर युद्ध की भाषा नहीं बोली जा सकती। बड़े-बड़े देश भी अपनी बात मनवाने के लिए बातचीत करते हैं और कई दौर की बातचीत और राजनयिक दबावों से अनुचित लाभ भी प्राप्त कर लेते हैं। हमारा देश इस मामले में काफी भावुक मुल्क है। उदाहरण के लिए 1962 के चीनी आक्रमण के बाद हमने प्रस्ताव पारित किया कि जब तक चीन हमारे भू-भाग को वापस नहीं देता, तब तक उससे कोई बातचीत ही नहीं होगी। हालांकि बाद में हमें विवश होकर उससे बातचीत शुरू करना पड़ी। इससे यह सिद्ध होता है कि संबंध कितने ही खराब क्यों न हों, पर संवाद चलते रहना चाहिए और संबंध विच्छेद नहीं होना चाहिए। अगर हम चीन को उसी की भाषा में जवाब देना चाहते हैं तो हमें यह जान लेना होगा कि उसकी दुखती रग तिब्बत है और जिस दिन हम तिब्बत के मसले को लेकर चीन को घेरना शुरू कर देंगे, उस पर दबाव बनने लगेगा। जब हम उसे कटघरे में लाना शुरू करेंगे तो वह निश्चित रूप से बचाव की मुद्रा में आ जाएगा। दुर्भाग्य से अभी हम ऐसा नहीं कर रहे हैं। अगर नेपाल और तिब्बत की नीति को हम थोड़ा स्पष्ट शब्दों में दुनिया के सामने रखेंगे, तो चीन अपनी हेकड़ी दिखाना बंद करेगा।