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Friday, November 29, 2019

बुजुर्गों के लिए सम्मान जरूरी

बुजुर्गों के लिए सम्मान जरूरी 

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बुधवार को राज्यसभा में माना कि देश की अर्थव्यवस्था सुस्त हो गई है ,मंद नहीं है। लेकिन यह सुस्ती कैसी है? यह सुस्ती बेहद निराशाजनक है। बेरोजगारी बढ़ रही है यह किसी से नहीं छिपा है। कुछ दिनों में फैक्ट्रियां बंद होगी, काम धंधे बंद होंगे , बेरोजगारी और बढ़ेगी। सरकार ने आर्थिक सुस्ती खत्म करने के लिए और खपत बढ़ाने के लिए कई कदम उठाए हैं, लेकिन कुछ नहीं हो पा रहा है। उल्टे देश में खास करके  नौजवानों में एक विशेष प्रकार की खीझ बढ़ती जा रही है। विख्यात समाजशास्त्री मास्लोव ने लिखा है की समाज को स्वस्थ और शांतिपूर्ण रहने के लिए आवश्यक है मनुष्य पर किसी किस्म का हमला न हो और उसकी सुरक्षा तथा स्थायित्व का पूरा बंदोबस्त हो। आर्थिक मंदी के कारण इंसानी हिफाजत और स्थायित्व को आघात पहुंच रहा है। लोग खुद को भीतर से परेशान पा रहे हैं और उसका साफ असर हमारे समाज पर दिखाई पड़ रहा है। खास करके वह समाज जो आर्थिक सुस्ती से गुजर रहा है और अनिश्चितता तेजी से बढ़ती जा रही है। आज से लगभग एक दशक पहले यह कहा जाता था कि भारत नौजवानों का देश है। यहां नौजवानों की संख्या सबसे ज्यादा है और हमें इसका डेमोग्राफिक डिविडेंड मिलेगा। लेकिन यह देश इस डिविडेंड से अमीर बनने के पहले बूढ़ा होता जा रहा है। अगर अर्थव्यवस्था को सुस्ती से उबारने के जल्दी कोई प्रभावकारी प्रयास नहीं किए गए तो समाज पर इसका गहरा असर पड़ेगा और प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सभी इसके शिकार होंगे । सबको इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। इस बिगड़ती स्थिति का प्रभाव जो हमारे समाज पर पड़ रहा है उसका पहला उदाहरण हम अपने आसपास देख सकते हैं। हमारे देश में अरसे से या कहिए प्राचीन काल से नौकरी शुदा बच्चे अपने बुजुर्गों की मदद करते हैं और अगर नौकरी है ही नहीं कहां से मदद करेंगे लिहाजा परिवार और आश्रितों पर दबाव बढ़ेगा खासकर के परिवार के बुजुर्गों की मुश्किलें बढ़ जाएंगी । अक्सर अखबारों में खबर आती है कि बुजुर्ग माता-पिता के साथ बच्चे बदसलूकी करते हैं। क्योंकि अपने बच्चों की शिक्षा के मुकाबले बुजुर्ग माता-पिता की देखभाल उनकी प्राथमिकता सूची में बहुत नीचे होती है। खासतौर पर ऐसा तब जब उनकी आमदनी कम हो जाती है। दूसरी तरफ हमें  यह भी अखबारों में पढ़ते हैं के बच्चे मुश्किल हालात से निकलने के लिए बुजुर्ग माता-पिता की देखभाल के लिए अपनी नौकरी छोड़ देते हैं। दोनों ही मामलों में मुश्किलें  बुजुर्गों के सामने आती हैं और सरकार की कोई दखल इसमें नहीं होती।
         हमारे देश में 60 साल या उससे अधिक उम्र वाले लोगों की स्थिति तुलनात्मक तौर पर अधिक खराब है। क्योंकि ,वह कमा सकते नहीं और देखभाल के लिए परिवार के सदस्यों पर आश्रित रहते हैं। इन बुजुर्गों ने अपनी कामकाजी जिंदगी में बचत से जो घर खरीदा होता है बढ़ती उम्र के साथ वह बच्चों के नाम कर देते हैं और बाद में कुछ बुजुर्गों को उसी घर से बेदखल कर दिया जाता है। संयुक्त परिवार टूट रहे हैं और एकल परिवारों का चलन बढ़ता जा रहा है । देश में 87.8% बुजुर्ग अपने बच्चों के साथ रहते हैं। परिवार हमारे देश में बुजुर्गों का मुखिया  होता है और जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती जाती है वह कमजोर होते जाते हैं।  परिवार पर उनकी निर्भरता बढ़ती जाती है सामाजिक सुरक्षा के मामले में भारत दूसरे देशों से पिछड़ा हुआ है । यहां बुजुर्गों की देखभाल की संस्थागत व्यवस्था का भाव है देश की 70% आबादी को ही किसी न किसी तरह से सामाजिक सुरक्षा हासिल है हमारे देश में 26.3% बुजुर्गों के लिए वित्तीय तौर पर आत्मनिर्भर हैं जबकि 20.3% बुजुर्ग आंशिक तौर पर दूसरों पर आश्रित हैं। देश की 53.4%   बुजुर्ग आबादी आंशिक सुरक्षा के लिए अपने बच्चों पर ही निर्भर हैं।  बच्चों के पास रोजगार का कोई साधन नहीं है। दूसरी तरफ भारत में रहने वाले की औसत उम्र 27.1 साल है इसलिए यह युवा देश लेकिन जन्म दर में गिरावट के कारण भारत में बुजुर्गों की संख्या तेजी से बढ़ रही है । अभी हाल में इकोनामिक एंड पॉलीटिकल वीकली में प्रकाशित 'इकोनामिक इंडिपेंडेंस एंड सोशल सिक्योरिटी इंडिया एल्डरली" रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में उम्र दराज लोगों की बढ़ती संख्या की पड़ताल करने  और उससे खड़ी होने वाली समस्याओं को हल करने की जरूरत है जन्म दर में गिरावट के कारण आबादी की बनावट में बहुत बुनियादी बदलाव हो रहे हैं। देश में साल 2011 में 10 .34 करोड़ बुजुर्ग थे 2040 तक 15% सकता है आर्थिक सुस्ती का जो हाल है उसके अनुसार धीरे-धीरे अर्थव्यवस्था भी खस्ताहाल होती जाएगी और कामकाजी आबादी कम होती जाएगी
          इनकम टैक्स में छूट और बचत पर अधिक ब्याज भी बुजुर्गों के लिए बहुत जरूरी है इससे में वित्तीय सुरक्षा हासिल करने में सहायता मिलेगी। रेल और हवाई किराए में रियायत से उन्हें  घूमने फिरने के लिए प्रेरित किया जा सकता है । जिससे हुए खुद को प्रसन्न महसूस कर सकें। समाजशास्त्री डॉक्टर साहेब लाल के अनुसार बाजारवाद और उदारीकरण के बाद बदले हुए समाज में बुजुर्गों का सम्मान गिरा है। उपभोक्ता समाज में बुजुर्गों को खोटा सिक्का समझा जाने लगा है। अगर आपसी सामंजस्य हो तो आज भी बुजुर्ग परिवार और समाज के लिए काफी उपयोगी है। बुजुर्गों को सम्मान प्राप्त होगा तो समाज भी संगठित होगा ढेर सारी सामाजिक बुराइयां यहां तक कि आतंकवाद पर भी अंकुश लगेगा।


Thursday, November 28, 2019

आंकड़ों से गड़बड़ ना करें

आंकड़ों से गड़बड़ ना करें

आंकड़ों से गड़बड़ ना करें
पिछले हफ्ते 100 से ज्यादा शोधकर्ताओं और योजनाकारों ने सरकार से मांग की है कि वह राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय ( एनएसएसओ) एस ओ द्वारा किए गए घरेलू खपत के आंकड़ों को जारी करें। इन आंकड़ों को राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एन एस ओ) द्वारा रोक दिया गया है। सांख्यिकी कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय (एम ओ एस पी आई) द्वारा किए गए सर्वेक्षणों के आंकड़े को लेकर शोधकर्ताओं ने सरकार पर दबाव डाला है कि वह सभी सर्वेक्षण आंकड़ों को जारी करें।  कुछ दिन  पहले एम ओ एस पी आई ने घोषणा की थी की वह एनएसओ द्वारा 2017 -18 के घरेलू खपत के बारे में किए गए सर्वेक्षणों के आंकड़ों को जारी नहीं करेगा। हाल में जो आंकड़े लीक हुए ,वह बताते हैं कि  भारतीय कि प्रति व्यक्ति खपत 3.7 प्रतिशत कम हो गई है। एनएसओ की रिपोर्ट के बारे में उम्मीद की जाती थी कि यह इस वर्ष जून में जारी हो जाएगी। लेकिन ,आंकड़ों की गुणवत्ता के मामले को लेकर इन आंकड़ों को रद्द कर दिया गया । सरकार के अनुसार एनएसओ इस सर्वे के आंकड़ों तथा राष्ट्रीय लेखा सांख्यिकी (एन ए एस ) के आंकड़ों में अंतर है। भारत में आंकड़ों का इस्तेमाल करने वाले हर व्यक्ति को यह मालूम है कि हमारे देश में आंकड़ों की प्रणाली कैसे काम करती है। अब यहां सवाल उठता है कि आखिर कारण क्या है? सरकार आंकड़ों को छुपा रही है। कारण है कि लगातार तेजी से बदहाल होती अर्थव्यवस्था पिछले 1 महीने के आंकड़ों को अगर देखें तो पाएंगे कि हर चीज का उत्पादन गिर गया है। खास करके कोयला तेल प्राकृतिक गैस सीमेंट स्टील और बिजली सब का उत्पादन समग्र रूप से 5.2% गिरा है। अगर, सितंबर 2018 से इसकी तुलना की जाए तो यह 8 सालों में सबसे कम है और बाकी अर्थव्यवस्था यानी सकल घरेलू उत्पाद 6 वर्षों में सबसे कम है। फिर भी, हैरतअंगेज ढंग से शेयर बाजार नई ऊंचाइयों की ओर इशारा कर रहे थे। ऐसा क्यों? खपत के आंकड़ों में तेजी से गिरावट आई है । कोर सेक्टर में सुस्ती है । पिछले 5 वर्षों में सबसे कम कारपोरेट मुनाफा हुआ है। बैंक संघर्ष कर रहे हैं। बैंकों में 3.4 लाख करोड़ के कर्ज बट्टे खाते डाल दिए जाने के बावजूद बैंकों का सकल घाटा 10.3% हो गया था। सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र में बैंकों को पूंजी उपलब्ध कराने में थोड़ी उदासीनता दिखाई है। इसमें मदद की गयी लेकिन परेशानियां कम नहीं हुईं। पिछले 2 वर्षों में पब्लिक सेक्टर की हालत खराब हो गई। कृषि क्षेत्र में विकास दर 2.7% रह गई थी, जो विगत 11 तिमाहियों में सबसे कम थी और इससे अनाज तथा खाने-पीने के सामानों के भाव गिरते रहे। रोजगार  बुरी तरह घट गये। बेरोजगारी बढ़ गई।
         लोगों ने सोचा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रतिष्ठा पर इस गिरती अर्थव्यवस्था का असर पड़ेगा। चुनाव में बेशक किसी के हारने की उम्मीद नहीं थी लेकिन 2014 वाली बात होने की भी उम्मीद नहीं थी।  यह देखकर सब हैरान रह गए कि इस बार लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को पहले से बहुत ज्यादा सीटें मिलीं। जैसे ही मोदी को रिकॉर्ड तोड़ विजय मिली बाजार की उम्मीदें भी आसमान छूने लगी । लोगों को लगा की राजनीतिक शक्ति के बदौलत बड़े आर्थिक सुधार होंगे। जिससे अर्थिंग बेड़ियां कट जाएंगी। यदि, ऐसा नहीं हुआ मोदी सरकार का दूसरा पहले दौर से भी खराब स्थिति में पहुंच जाएगा। "द इकोनॉमिस्ट"  ने प्रधानमंत्री को छोटे छोटे कदम उठाने वाला कहा था।  उन्होंने बड़े फैसले लिए। जैसा कि अनुमान था दुनिया ने इस पर ध्यान दिया। प्रधानमंत्री ने सुपर टैक्स लगाने की अपनी योजना को गलत स्वीकार भी किया । अब वक्त आ गया है कि तमाम विसंगतियों दूर की जाए और बड़े आर्थिक सुधारों को दिशा दिखाई जाए ।  ऐसा कुछ नहीं हुआ सरकार की हर जगह बढ़ती दखलंदाजी दिखाई पड़ी। जिस दिन मोदी सरकार ने दूसरे कार्यकाल का पहला बजट पेश किया था उस दिन यह दखलअंदाजी अपनी पराकाष्ठा पर थी। सरकार ने जो सबसे निष्ठुर कदम उठाया वह था सीएसआर के तहत स्वेच्छा से Mकिए गए योगदान को फौजदारी मामला बना देना। शुक्र है कि जल्दी उसे हटा दिया गया। लेकिन इससे सरकार की मूल प्रवृत्ति का उदाहरण प्राप्त हो गया। अब हालत यह है कि हमारे देश की अर्थव्यवस्था एक ऐसे दौर से गुजर रही है जहां चारों तरफ बदहाली दिख रही है।  महंगाई बढ़ती जा रही है। बिजली की खपत घट रही है , कर राजस्व काफी धीमी गति से बढ़ रहा है और भी कारण हैं। इससे सरकार को अपना  लक्ष्य हासिल करने में काफी कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। सेंटीमेंट को अर्थव्यवस्था की कुंजी माना जाता है लेकिन सेंटीमेंट पस्त हो रहा है। सवाल है कि ऐसे मैं  सरकार को क्या करना चाहिए। अर्थव्यवस्था में जान डालने के लिए कई प्रस्तावों पर विचार हो रहा है। इनमें बुनियादी ढांचे पर अतिरिक्त निवेश, नीतिगत सुधार और निजी करण इत्यादि शामिल हैं। इससे सरकार को मदद मिलेगी मगर इनके नतीजे तुरंत नहीं दिखेंगे। आर्थिक मंदी से केवल निवेश बढ़ाकर और नीतिगत सुधार करके नहीं निपटा जा सकता। आर्थिक मंदी के स्वरूप और उससे पैदा होने वाली चुनौतियों के बारे में  लोगों के साथ पारदर्शी  संवाद जरूरी है।  यह संवाद तभी हो सकता है जब सरकार सर्वे के निष्कर्षों को कबूल करे। इसके बगैर सुधार संभव नहीं है।  अगर अर्थव्यवस्था की हालत नहीं सुधरी तो हमारा विकास भी संभव नहीं है। विकास के सारे सपने धरे रह जाएंगे। इससे सरकार की प्रतिष्ठा गिरेगी।


Wednesday, November 27, 2019

इसे उम्मीद कहें या नाउम्मीदी

इसे उम्मीद कहें या नाउम्मीदी

इस शहर में वह कोई बारात हो या वारदात
अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियां

महाराष्ट्र में जो कुछ हुआ उसके लिए कुछ भी कहना और समझना बड़ा कठिन है। अजित पवार के अपना पक्ष परिवर्तन कर लेने के बाद महाराष्ट्र की राजनीति में भाजपा को बुरी तरह शर्मसार होना पड़ा और वह एक तरह से मैदान से बाहर हो गई। यह एक तरह से दुखद और सुखद नाटक का मिश्रण है।  यह नाटक सिर्फ सरकार बदलने तक सीमित नहीं है यह आने वाले समय में भाजपा के भविष्य पर भी असर डालेगा और इससे ज्यादा इसका प्रभाव भारतीय राजनीतिक संस्कृति और देश की राजनीतिक नैतिकता पर भी  पड़ेगा। राजनीति किस तरह से देश की जनता की सोच को बदल देती है इसका उदाहरण पिछले तीन दशकों में कई बार देखने को मिला। तीन दशक पहले हमारे मोहल्ले , हमारे शहर और देश  घटनाओं से हम विचलित हो जाते थे और अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करने लगते थे। 1976 की आपात स्थिति के दौरान जयप्रकाश नारायण को केंद्र करके लिखी गई कविता,
     खलक खुदा का
मुल्क बादशाह का
और हुकुम शहर कोतवाल का
सब लोग अपने अपने घरों की
खिड़कियां बंद कर लें

जनता को मौन रहने और उस पर दबाब डालकर चुप्पी साध लेने की सरकार की क्रिया पर इससे बड़ा व्यंग नहीं सकता । उधर इसी पर अपनी व्यथा जाहिर करते हुए लिखा गया
कहां तो तय था चरागां हर घर के लिए
यहां रोशनी मयस्सर नहीं है शहर भर के लिए

हालात बदलते गए और समाज भी बदलता गया। 30 वर्षों के अंतराल में हम मानवद्वेषी हो गए और राजनीतिक संगठन की दुरभिसंधियों के प्रति चुप रहने लगे। वह बात बेमानी हो गई कि जिंदा कौमें 5 वर्ष तक इंतजार नहीं कर सकतीं। पिछले पांच - सात वर्षों में क्या हम कभी कोई जन आंदोलन देख सके हैं, संभवत नहीं। पिछले 5-7 दिनों में  महाराष्ट्र में जो हुआ वह और विचित्र हुआ। भाजपा शिवसेना को अपने साथ नहीं रख सकी। भाजपा नेतृत्व का अहंकार खास करके इस वर्ष के संसदीय चुनाव के बाद  जो कुछ भी हुआ वह आंशिक रूप से इस स्थिति के लिए दोषी है।  भाजपा की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा तथा शिवसेना की क्षेत्रीय वर्चस्व बनाए रखने के प्रति   असाधारण आसक्ति के बीच का बेमेल संयोग इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। यह विचलन पिछले  में 25 वर्षों से कायम है लेकिन पिछले चुनाव के बाद जब भाजपा और शिवसेना को मिली सीटों में अनुपातिक गड़बड़ी हो गई तो यह बेमेल संयोग खुलकर सामने आ गया। शिवसेना के नेतृत्व को यह मुगालता हो गया था कि अब उसे अलग कुछ दिखाना पड़ेगा ताकि वह मराठा गौरव के रखवाले के रूप में खुद को प्रस्तुत कर सके। शरद पवार की पार्टी एनसीपी इस पद के लिए या कहिए मराठा गौरव के प्रतिनिधि के रूप में खुद को प्रस्तुत करने के लिए पहले से ही संघर्ष कर रही है। शिवसेना से अलग होने के बाद भाजपा नेतृत्व ने एनसीपी की तरफ हाथ बढ़ाया ताकि मुंबई में सरकार बना सकें। यह फैसला सीधा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की ओर इशारा कर रहा है और इसके नाकामयाब होने का मतलब है कि भाजपा के दो सबसे बड़े  नेताओं ने अपनी अपरिपक्वता जाहिर कर दी।
         इस मामले में जिस तरह से सभी पार्टियों का आचरण देखा गया तो  ऐसा नहीं लगता कि कोई भी इस कीचड़ से बाहर है। अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा के लिए पहला मौका है जब उसे इतनी ज्यादा सीटें मिलीं और सरकार नहीं बन सकी है।  गोवा और हरियाणा जैसे राज्यों में बहुमत से बहुत दूर रहने के बावजूद उनकी सरकार बन गई। यह जो कुछ भी हुआ वह भारत के राजनीतिक इतिहास में पहली घटना है। क्योंकि, जब भी कोई पार्टी सरकार बनाने का दावा पेश करती हैं तो उसके पास संख्या बल होता है लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। अजित पवार के हाथ से सत्ता फिसल जाने का अर्थ है उनके पास विधायकों की उचित संख्या नहीं थी। उधर शरद पवार ने 54 में से 53 विधायकों को पेश किया। लिहाजा अजीत पवार को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। इस पूरे खेल में सबसे ज्यादा नुकसान भाजपा और देवेंद्र फडणवीस को हुआ । अब चर्चा है कि फिर राजनीति की शतरंज में शरद पवार ने अमित शाह को पीट दिया। अब महाराष्ट्र में जो सरकार बनेगी वह भी बेमेल संयोग की सरकार होगी। इसलिए जरूरी है कि इनको अपने अंतर्विरोध खत्म करने पड़ेंगे और यह सुनिश्चित करना पड़ेगा की केवल वहां सरकार बनाने के लिए नहीं है शासन के लिए भी हैं। क्योंकि महाराष्ट्र में भाजपा अलग हो गई और वह सत्ता से अलग होकर रचनात्मक सवाल उठाएगी जिससे यकीनन महाराष्ट्र की जनता प्रभावित होगी।
      परिंदे अब भी पर तोले हुए हैं
     हवा में सनसनी खोले हुए हैं
    तुम ही कमजोर पड़ते जा रहे हो
     तुम्हारे ख्वाब तो शोले हुए हैं


Tuesday, November 26, 2019

ये जो कुछ हो रहा है इसपर चुप क्यों हैं आप ?

ये जो कुछ हो रहा है इसपर चुप क्यों हैं आप ?

बड़ा अजीब संयोग है 26 नवंबर को संविधान दिवस है । संविधान की रक्षा और उसकी शक्तियों पर लंबी-लंबी बहसें  रही हैं और ठीक इसके 1 दिन पहले महाराष्ट्र में जो सियासी नाटक हुआ वह संविधान द्वारा प्रदत्त संस्थानों को अपना अधिकार छोड़ने और राजनीतिक हेरा फेरी का परिणाम था। पहली संस्था जो अपने पद से या अधिकार से नीचे गिरी वह था राज्यपाल का कार्यालय। ऐसा अन्य राज्यों में भी होता देखा गया है।  इसके बाद संविधान के संरक्षक के तौर पर तैनात राष्ट्रपति का कार्यालय। 23 नवंबर की सुबह राष्ट्रपति के कार्यालय ने धारा 356 खत्म कर दिया। इस बात पर विचार करने की जरूरत नहीं है कि भाजपा के पास बहुमत था या नहीं लेकिन प्रश्न यह है कि सुबह-सुबह दावा क्यों स्वीकार कर लिया और उस पर कार्रवाई क्यों हुई ? लोकतांत्रिक  संस्था का अधिकार खत्म करने की संपूर्ण प्रक्रिया तब पूरी हुई जब कोर्ट ने सदन में बहुमत साबित करने की प्रक्रिया के आदेश देने के बदले सुनवाई की तारीख को टालना शुरू कर दिया। यहां रूसो का "थ्योरी ऑफ सोशल कॉन्ट्रैक्ट" का एक कथन याद आता है कि "एक राजनीतिक दल विभाजित  आस्था पर काम करता है। किसी भी राजनीतिक दल के सदस्यों द्वारा अपने  दल के घोषित सिद्धांतों के विपरीत अपनी मर्जी से वोट लेने की आजादी ना केवल दल को शर्मसार करेगी बल्कि इसकी प्रसिद्धि एवं जनता के बीच इसकी छवि को भी आघात पहुंचाएगी।  जबकि जनता का भरोसा ही इसके कायम रहने का जरिया है।" लेकिन, रूसो का आदर्शवाद का सिद्धांत बहुत पुराना हो चुका है।  बट्रेंड रसैल  की  पुस्तक  "पॉलिटिकल पावर"  के मुताबिक  इन दिनों राजनीति में आदर्शवाद की उम्मीद रखने वाले लोगों को बेवकूफ माना जाता है। नेता सत्ता हड़पने के लिए हर बार ज्यादा से ज्यादा दुस्साहस दिखाते हैं और नागरिक मौन रहकर उस नेता का मनोबल बढ़ाते हैं। सत्ता के लिए ध्रुवीकरण के दौर में ऐसा लगता है कि सही अथवा गलत की परिभाषा बदल चुकी है। हम जो करें और सब सही है दूसरा करे वह गलत। हम संविधान दिवस का जश्न मनाते हैं उस पर बहस होती है लेकिन संविधान जिस पर आधारित है वह है लोकतंत्र।  लोकतंत्र के अस्तित्व से जुड़े प्रश्नों पर सार्थक चर्चा की गुंजाइश लगातार कम होती जा रही है। राजनीतिक खिलाड़ियों के किसी भी काम पर हम चुप रहते हैं जबकि जिंदा कौमें या विचारशील कौम 5 साल तक इंतजार नहीं करती। अब जनादेश का अपमान देखकर लोग बौखलाते नहीं है। विगत कुछ वर्षों में कई राज्यों में जनादेश की अनदेखी हुई है लेकिन जनता में इसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं देखी गई। मजबूत और सत्ताधारी दल हमेशा से मनमानी करते हैं । अपने दौर में कांग्रेस ने तो आपातकाल लगा कर उदाहरण ही स्थापित कर दिया था। लेकिन  अभी जो हो रहा है वह सब कुछ जाएज है और पर सवाल नहीं उठने चाहिए । पिछले कुछ वर्षों के अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि लोकतांत्रिक मूल्यों में किसी का भी विश्वास नहीं रहा । महाराष्ट्र के मामले में ही देखें जनादेश शिवसेना और भाजपा के गठबंधन को मिला था, लेकिन हो क्या रहा है । जनता तो ठगी सी महसूस कर रही है । भले वह कुछ ना बोले । लेकिन यहां यह मानना जरूरी है कि हर खेल के कुछ तो नियम होते हैं, चाहे वह कितना भी छोटा खेल क्यों ना हो। जो कुछ भी हो रहा है वाह संविधान और लोकतंत्र की बुनियाद से जुड़ा मसला है। इसलिए इस पर गंभीरता से बात होनी चाहिए। कुछ सवाल ऐसे हैं जिनके जवाब राज्यपाल महोदय महामहिम कोशियारी से मांगे जाने चाहिए । उनकी गतिविधि को देखकर ऐसा महसूस होता है कि उन्हें अपने पद का खतरा था और नियम मानने की बजाय उन्होंने हुक्म मानना बेहतर समझा। हालांकि वे पहले राज्यपाल नहीं हैं जिन्होंने ऐसा किया । उनके पहले कई आ चुके हैं जो नियम और कानून को ताक पर रखकर काम करते रहे हैं।
          महाराष्ट्र में राजनीतिक दलों ने जो कुछ किया ऐसा लगता है कि उन्होंने मतदाताओं और वहां के लोगों की उम्मीदों को पैरों तले रौंद दिया। ऐसे दल जिनके सिद्धांत राजनीतिक तौर पर एक दूसरे से विपरीत थे वे साथ आ गए । उन्होंने सत्ता की भागीदारी कर ली। यहां एक बात उठाई जा सकती है कि अगर किसी राजनीतिक पार्टी के उम्मीदवार की आपराधिक पृष्ठभूमि तथा उसकी दौलत की घोषणा हो सकती है और उसे कानूनन मान्य किया जा सकता है तो फिर क्यों नहीं चुनाव आयोग किसी भी राजनीतिक दल के उम्मीदवार अथवा इंडिपेंडेंट उम्मीदवार से यह घोषणा पत्र मांगे कि उसके सिद्धांत क्या हैं और वह किन सिद्धांतों के आधार पर किसी दल से गठबंधन करेगा । इससे मतदाताओं को यह तय करने का अवसर मिलेगा कि किसी विशिष्ट दल पर कितना भरोसा किया जा सकता है। उसकी क्या प्रतिबद्धता हो सकती है। संविधान सभा में बीआर अंबेडकर ने कहा था कि "किसी भी संविधान का कार्य पूरी तरह से संविधान की प्रकृति पर निर्भर नहीं करता। संविधान की आवाज राज्य जैसे तंत्र मुहैया करा सकता है।" इसमें प्रमुख कारक हैं वहां की जनता और सत्तारूढ़ राजनीतिक दल, जो जनता तथा राजनीति की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए अपने तंत्र तैयार करेंगे। लोकतंत्र केवल वोट देना नहीं है या सरकार बनाना नहीं है। यह मतदाताओं तथा चुनाव के बाद बनी सरकार के बीच एक भरोसा भी है। महाराष्ट्र में क्या हुआ? यह भरोसा कहां तक खत्म हुआ है यह हमारे देश की जनता खुद तय करे।


Monday, November 25, 2019

न जाने आगे क्या है!

न जाने आगे क्या है!

महाराष्ट्र का राजनीतिक नाटक कई मोड़ से गुजरता हुआ आगे बढ़ रहा है। जो कभी समाज के अगुआ समझे जाते थे आज समाज में जाल लिए घूमते हैं किसको कहां से उठाएं और कहां डालें। आधुनिक राजनीति में होटल और रिसोर्ट राजनीति की प्रतिनिधियों के शरण स्थल बन गए हैं। महाराष्ट्र में पिछले दो-तीन दिनों से जो कुछ हो रहा है उसमें कहीं भी नैतिकता के प्रतिमान नहीं दिखाई पड़ रहे हैं। शुक्रवार को हालात कुछ ऐसे थे मानो एनसीपी की कांग्रेस के साथ मिलकर मिलकर सरकार बन जाएगी लेकिन अचानक भाजपा के देवेंद्र फडणवीस और एनसीपी के अजित पवार ने शपथ ले ली। दोनों ने विधायकों की जरूरी संख्या दावा भी किया। दिन बीतने के साथ-साथ स्थितियां बदलने लगीं। भाजपा ने जिस बहुमत का अपनी मुट्ठी में होने का दावा किया था वह रेत की तरह उसकी मुट्ठी में से फिसलता हुआ नजर आने लगा। उधर एनसीपी के प्रमुख शरद पवार ने नारे लगाए अजित पवार के पास दो तिहाई बहुमत के लायक समर्थन नहीं है। ऐसे में भाजपा अपना बहुमत साबित नहीं कर पाएगी । उधर जब बीजेपी को लगा शिवसेना और एनसीपी मिलकर राज्य में सरकार बना सकती है तब बीजेपी ने पवार की कमजोर कड़ी को तोड़ने की कोशिश की। अजीत पवार को अपने ही परिवार से कुछ समस्याएं थीं। अजित पवार अपने भतीजे रोहित पवार के करजत सीट से विधानसभा चुनाव  से नाराज थे और इन मामलों को लेकर  परिवार में मनमुटाव चल रहा था । भाजपा ने शरद पवार की इसी कमजोर स्थिति यानी अजीत पवार का फायदा उठाया। शरद पवार यह कह तो रहे हैं कि उनके पास विधायक हैं और सरकार बनाएंगे लेकिन उनकी समस्या यह है कि वह सरकार बनाने में ध्यान लगाएं या फिर परिवार बचाने में। उधर एनसीपी को बचाना पवार के लिए चुनौती है। इधर अजित पवार की घटना के बाद लोग कहने लगे शरद पवार को उनके भतीजे ने पटकनी देदी और राजनीति से संन्यास लेने की घोषणा करने वाले शरद पवार से उनकी पार्टी को छीनने का काम अजीत पवार ने कर डाला। वैसे भी अजित पवार और शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले के बीच  पार्टी की विरासत को लेकर  रस्साकशी चल रही थी। लेकिन , जैसा कि  लोग जानते हैं  सुप्रिया सुले को  केंद्रीय राजनीति में दिलचस्पी है  और  वह  सांसद के रूप में  दिल्ली में राजनीति कर रहे हैं।  दूसरी तरफ  अजीत पवार को  महाराष्ट्र की राजनीति में  सक्रिय पाया जाता है। अभी जो स्थिति है  उससे तो लग रहा है कि अजित पवार  एनसीपी की  लीडरशिप की दौड़ से  बाहर निकल आए हैं और  शरद पवार की  राजनीतिक विरासत अजित पवार के हाथों से फिसल गई है। लेकिन बदले हालात ने यह प्रमाणित कर दिया है कि अजित पवार बुरे फंसे । जब अजित पवार ने भाजपा का समर्थन कर सरकार बनाई तो यह दावा किया गया है कि उनकी पार्टी के कुल 54 विधायकों में से 35 उनके साथ हैं । कानूनन अगर दो तिहाई या उससे ज्यादा विधायक अथवा सांसद किसी दल से अलग होते हैं तो उन पर दल बदल कानून नहीं लागू होता है उनकी सदस्यता कायम रह जाती है। एनसीपी के विधायकों के मामलों में यह संख्या 36 बनती है । अगर 35 विधायक अजित पवार के साथ होते तो एक विधायक का और जुगाड़ कर वे आसानी से एनसीपी को तोड़ सकते थे। लेकिन यही गणित गड़बड़ हो गया। अधिकांश विधायक अभी शरद पवार के साथ हैं। एनसीपी की बैठक में 54 में से 49 विधायक शामिल थे अब अजित पवार फंस गए हैं । जो कुछ भी हुआ हो रहा है उसमें शरद पवार शिकार नहीं की बल्कि उसके केंद्र में है और ऐसा लगता है कि पवार ने अपने भतीजे के माध्यम से भाजपा को फजीहत करने की योजना बनाई थी। लेकिन राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं है इस समय जो ताजा स्थिति है उसमें महाराष्ट्र की राजनीति में पवार सबसे मजबूत खिलाड़ी के रूप में दिखाई पड़ रहे हैं और एक साथ कई निशानों को भेदते नजर आ रहे हैं । अब जो नई राजनीतिक परिस्थितियां बन रही है उससे लगता है कि एनसीपी के विधायक अजित पवार के साथ नहीं है और इस आधार पर कहा जा सकता है कि मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के लिए विधानसभा में बहुमत साबित करना कठिन हो जाएगा।  अगर ऐसा होता है तो फडणवीस के लिए आगे का राजनीतिक सफर बहुत मुश्किल नजर आ रहा है।
          शरद पवार की चाल का सबसे बड़ा प्रभाव भाजपा अध्यक्ष एवं गृह मंत्री अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर होता हुआ दिख रहा है। सूत्रों के मुताबिक अजित पवार के कहने पर भाजपा के महाराष्ट्र प्रभारी भूपेंद्र यादव ने अमित शाह को बहुमत का भरोसा दिलाया था लेकिन अब ताजा परिस्थिति में ऐसा नहीं लग रहा है और अगर पार्टी बहुमत साबित नहीं कर सकी तो सबसे ज्यादा हास्यास्पद स्थिति पार्टी के शीर्ष नेताओं की हो जाएगी। कहा जाने लगेगा कि कैबिनेट बैठक बुलाए बिना महाराष्ट्र से राष्ट्रपति शासन हटाया जाना और राज्यपाल के माध्यम से भाजपा सरकार को शपथ दिलाने का काम किए जाने की क्या जल्दी थी? अमित शाह ने पिछले कुछ वर्षों से ऐसी छवि बनाई थी जिससे लोग उनको भारतीय राजनीति का चाणक्य समझने लगे थे। लेकिन इस ताजा स्थिति से उनकी इस छवि को आघात लग सकता है। शरद पवार की नीति अमित शाह पर भारी पड़ती दिख रही है।
पॉलिटिक्स की बिसात पर विपक्षी को मात देने का हुनर भाजपा अच्छी तरह से जानती है और उसने यहां भी वही किया है। आगे देखना है कि यह सब लोकतंत्र के लिए कितना शुभ और कितना अशुभ है।


Sunday, November 24, 2019

महाड्रामा: क्लाइमेक्स तो अभी बाकी है

महाड्रामा: क्लाइमेक्स तो अभी बाकी है

देश के सियासी इतिहास में शनिवार को एक महा ड्रामा हुआ। शह और मात का रोमांचक खेल। ऐसा लग रहा था जैसे 80 के दशक की फिल्में देख रहे हैं या फिर उन्हीं फिल्मी कहानियों को 22 वीं शताब्दी के दूसरे दशक में चस्पा कर दिया गया है। शुक्रवार की शाम को शिवसेना के उद्धव ठाकरे को अंधेरे में रख राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अजित पवार ने अचानक बाजी उलट दी और भाजपा के देवेंद्र फडणवीस के साथ उप मुख्यमंत्री की शपथ ले ली। शरद पवार जब नींद से जागे तो उन्हें यह खबर मिली और अजीत पवार की चाल ने उन्हें चौंका दिया।
कहा तो यह जा रहा है अजित पवार के ऐसा करने के पीछे मुख्य कारण है उनके ऊपर चल रही जांच। वे फिलहाल 2 आपराधिक मामलों में फंसे हुए हैं। पहला मामला  मुंबई पुलिस की आर्थिक अपराध शाखा ने दायर किया है। यह महाराष्ट्र स्टेट कोऑपरेटिव बैंक में 25000 करोड़ रुपयों के घोटाले का मामला है और मुंबई हाई कोर्ट के निर्देश पर यह मामला दायर किया गया। सिंचाई घोटाले में भी उन पर जांच चल रही है।
अजित पवार की यह चाल उनके चाचा शरद पवार की 41 साल पहले की चाल को याद कराती है, जब शरद पवार ने कांग्रेस के दो धड़ो की  सरकार गिरा कर राज्य के सबसे नौजवान प्रधानमंत्री का तमगा हासिल कर लिया । शरद पवार ने 1978 में जनता पार्टी  की गठबंधन सरकार का नेतृत्व किया था जो 2 साल से भी कम समय तक चली।संजोग से इस बार भी वह राज्य में कांग्रेस और शिवसेना से हाथ मिला कर इसी तरह का गठबंधन करने की कोशिश में थे। लेकिन  उनके भतीजे अजित पवार ने उन्हें मात देदी। उन्होंने 23 नवंबर की सुबह उप मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली। इस पर प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए शरद पवार ने कहा कि भाजपा को समर्थन देने का फैसला उन्होंने नहीं किया है। यह उनके भतीजे अजीत पवार का व्यक्तिगत फैसला है। शरद पवार ने अपनी किताब "ऑन माय टर्म्स" लिखा है कि "1977 में इमरजेंसी के बाद देशभर में इंदिरा विरोधी लहर चल रही थी और कई लोग स्तब्ध थे। पवार के गृह क्षेत्र बारामती से वीएन गाडगिल कांग्रेस की टिकट से हार गए थे। इंदिरा जी ने 1970 की जनवरी में कांग्रेस को विघटित कर दिया और पवार स्वर्ण सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस (एस ) में चले गए। क्योंकि उनके गाइड यशवंतराव चौहान भी इसी गुट में थे । 1 महीने के बाद महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव हुए और कांग्रेस ( एस) को 69 सीटें तथा कांग्रेस (आई) को 65 सीटें मिलीं। जनता पार्टी को 99 सीटें हासिल हुईं और इस तरह से किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला ।  कांग्रेस के दोनों धड़ों को मिलाकर सरकार बनाई गई। लेकिन दोनों में तनातनी कायम रही और सरकार का चलना मुहाल था। पवार ने कांग्रेस के 38 विधायकों के साथ मिलकर नई सरकार बनायी और वह सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री बने ।  1980 में दोबारा इंदिरा जी की सरकार बनी और पवार की सरकार को होने बर्खास्त कर दिया कुंवार बड़ी चालाकी से राजीव गांधी के नेतृत्व के तहत अपनी मूल पार्टी में चले आए। आज जो अजित पवार ने किया है यह संभवत शरद पवार के सियासी  स्टाइल का दोहराव है। इस बार भी किसी को बहुमत नहीं मिला है। महाराष्ट्र विधानसभा की 288 सीटों के लिए 21 अक्टूबर को चुनाव हुए थे और 24 अक्टूबर को उसके नतीजे आए थे। चुनाव में भाजपा को 105 शिवसेना को 56 एनसीपी को 54 और कांग्रेस को 44 सीटें मिली थीं। किसी भी पार्टी का  गठबंधन के सरकार बनाने का दावा नहीं पेश कर सका। इस के बाद 12 नवंबर को राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था । इसके बाद जो ताजा समीकरण बने हैं उनको देखते हुए ऐसा लग रहा है कि देवेंद्र फडणवीस सबसे बड़े घाटे में रहेंगे। क्योंकि शिवसेना कांग्रेस और एनसीपी ने अपने विधायकों को अपने पास रखा है और इनके लिए बहुमत साबित करना मुश्किल हो जाएगा। इनके बाद घाटे में रहेंगे अजित पवार क्योंकि उन्होंने अपने चाचा शरद पवार के साथ बगावत कर एनसीपी की विश्वास को आघात पहुंचाया है । इससे उनकी साख को भारी नुकसान हुआ है। उन्हें शरद पवार के वारिस के रूप में देखा जाता था और यह जो कुछ हुआ वह शरद पवार के साथ गद्दारी मानी जाएगी। उन्होंने यद्यपि परीक्षा पास की लेकिन अभी कई परीक्षाएं बाकी हैं और इसमें भाजपा के फेल होने के आसार बहुत ज्यादा हैं। उधर अजीत पवार को एनसीपी के विधायक दल के नेता के पद से हटा दिया गया है और उनकी जगह राज्य एनसीपी अध्यक्ष जयंत पाटील को दी गई है। पाटिल की नियुक्ति का स्पष्ट अर्थ है की जब देवेंद्र फडणवीस और अजित पवार की सरकार सदन में अगले हफ्ते बहुमत साबित करने के लिए खड़ी होगी तो पाटिल व्हिप जारी कर सकते हैं।  व्हिप के उल्लंघन का स्पष्ट अर्थ है पार्टी से निष्कासन और निष्कासन का मतलब विधायक पद समाप्त उधर अटकलें लगाई जा रही हैं 25 से ज्यादा विधायक अजित पवार से संपर्क में है लेकिन एनसीपी के विधायक दल बैठक में 45 विधायकों की उपस्थिति यह स्पष्ट करती है कि पार्टी के अधिकांश विधायक अजीत पवार के साथ नहीं हैं। विधायक दल की बैठक में कहा गया कि अजीत पवार ने जो कुछ किया है वह पार्टी के विरुद्ध है इसलिए उन्हें विधायक दल के पार्टी से निष्कासित किया जाता है और विधायकों को व्हिप देने का अधिकार भी उनसे वापस दिया जाता है इसके पूर्व शिवसेना के प्रमुख उद्धव ठाकरे के साथ एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में शरद पवार ने कहा कि उन्हें नहीं लगता राज्य सरकार बहुमत साबित कर पाएगी।
           अब मामला किस करवट बैठता है यह आने वाला समय बताएगा । क्योंकि पूरी की पूरी बात सुप्रीम कोर्ट के सामने है और सुप्रीम कोर्ट रविवार को ही इस पर सुनवाई करने जा रहा है।
आंकड़े बाज लोग आंकड़े इकट्ठे करते रहे ।कुछ लोगों का मानना है इस पूरे गेम में देवेंद्र फडणवीस सबसे ज्यादा घाटे में रहेंगे। इस पूरे मामले का क्लाइमेक्स अभी बाकी है देखिए क्या होता है आगे आगे।


Friday, November 22, 2019

अब चुनावी बांड का मामला गरमाया

अब चुनावी बांड का मामला गरमाया 

कांग्रेस और विपक्षी दलों ने गुरुवार को लोक सभा में चुनावी बांड का मामला उठाया और सरकार पर भ्रष्टाचार को अमलीजामा पहनाने का आरोप लगाते हुए काफी शोर-शराबा मचाया तथा सदन से बहिर्गमन  कर गया।
दरअसल कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद वहां हालात सामान्य करने को लेकर कांग्रेस ने संसद के शीतकालीन सत्र की शुरुआत को मुद्दा बनाया। गृह मंत्री अमित शाह के जवाब के बाद अब चुनावी बांड का मुद्दा उठने लगा ।  बुधवार को सोनिया गांधी ने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के साथ बैठक की। उसमें चुनावी बांड के बारे में प्रदर्शन करने का फैसला किया गया।
कांग्रेस का कहना है कि रिजर्व बैंक के मना करने के बावजूद भाजपा ने चुनावी बॉन्ड की व्यवस्था की ताकि ना चंदा देने वाले का और ना चंदे की राशि के स्रोत तथा ना चंदा पाने वाले का पता चले। जहां तक पता चला है कि 2017 के बजट के ठीक पहले रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने चुनावी बांड का विरोध किया था । लेकिन मोदी सरकार ने रिजर्व बैंक की आपत्तियों को दरकिनार करते हुए चुनावी बांड की घोषणा कर दी ।  रिजर्व बैंक ने चुनावी बांड का खुलकर विरोध किया था। लेकिन कुछ नहीं हुआ और तत्कालीन राजस्व सचिव हंसमुख अढिया ने रिजर्व बैंक की आपत्तियों को खारिज कर दिया। उन्होंने कहा कि बैंक इस सिस्टम को सही ढंग से समझ नहीं पाया। उन्होंने  रिजर्व बैंक के पत्र के जवाब में लिखा कि बैंक की सलाह देर से आई है और वित्त विधेयक छप चुका है। इसलिए सरकार इस प्रस्ताव पर आगे कदम बढ़ा सकती है। कुल मिलाकर बैंक की आपत्तियों को स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया गया। बांड जारी करते हुए सरकार का दावा था कि इसके माध्यम से राजनीतिक दलों के खातों में चंदा जमा करने की गुमनाम व्यवस्था पर रोक लगेगी और चुनाव में काले धन पर अंकुश लगेगा। लेकिन, बांड खरीदने वाले की पहचान को गुप्त रखने का जो प्रावधान इस योजना में रखा गया उससे सरकार क्या चाहती है यह स्पष्ट हो गया। एक तरफ चुनावों में राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों का खर्च बेतहाशा बढ़ रहा है और चुनाव आयोग इस खर्च पर अंकुश लगाने में खुद को असमर्थ पा रहा है। कारपोरेट क्षेत्र से प्राप्त चंदे की अब चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका है। सात- सात चरणों तक चुनाव को खींच ले जाना सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष में जा सकता है । क्योंकि , चुनावी बांड के माध्यम से प्राप्त धन को वह चुनाव प्रचार में झोंक सकती है ।
अपने देश में चुनाव में सबसे अधिक काला धन खर्च होता है 2017 के बजट से पहले 20000 रुपए से ऊपर चंदा देने वालों को चेक से देने की व्यवस्था थी और उसके बाद उससे कम के लिए रसीद लेनी होती थी ।राजनीतिक पार्टियां इस प्रावधान का गलत इस्तेमाल करने लगी थीं। इससे देश में काला धन बढ़ रहा था। इस धन का इस्तेमाल चुनाव में भी होता था। कुछ दलों ने तो ऐसा दिखाया 80- 90% चंदा 20,000 से कम रुपय के रूप में हासिल हुआ। चुनाव आयोग की सिफारिश पर 2017 18 के बजट सत्र में केंद्र सरकार ने गुमनाम नगद की सीमा घटाकर ₹2000 कर दी थी। इसका मतलब यह हुआ कि ₹2000 से अधिक चंदा लेने के लिए राजनीतिक दलों को बताना होगा कि यह चंदा किस स्रोत से आया है। सरकार ने घोषित तौर पर इसे रोकने के लिए बड़े जोर जोर से चुनावी बांड की व्यवस्था की। लेकिन शायद उससे घोषित उद्देश्य पूरा नहीं हो सका।
विधि आयोग ने अपनी 255 वीं रिपोर्ट में 20000 के नीचे  राजनीतिक चंदों को भी राजनीतिक दलों द्वारा सार्वजनिक किए जाने की जाने की अनुशंसा की थी जबकि सब मिलकर 20 करोड़ से ज्यादा धन हो जाते हैं।
राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय पार्टियों की ओर से चुनाव आयोग को दाखिल की गई वार्षिक ऑडिट रिपोर्ट में जो जिक्र है उसके अनुसार 2018  - 19 में  जो चुनावी बांड बिके और उसके आधार पर जो आंकड़े सामने आए हैं उनसे ऐसा लगता है कि भारतीय जनता पार्टी के लिए 45 सौ करोड़ रुपये के बांड खरीदे गए हैं। हालांकि भाजपा ने अभी तक अपनी रिपोर्ट पेश नहीं की है जबकि वार्षिक ऑडिट रिपोर्ट जमा करने की अंतिम तारीख 31 अक्टूबर थी।
      रिपोर्ट जमा  नहीं करने की सूरत में यह समझ में नहीं आ रहा है कि भाजपा को कितना मिला और पार्टी की ओर से इस पर चुप्पी साध ली गई है । जनप्रतिनिधि कानून की विभिन्न धाराओं के मुताबिक राजनीतिक पार्टियों को चुनावी बांड के बारे में जानकारी देने की जरूरत नहीं है लेकिन इनकम टैक्स के मुताबिक राजनीतिक पार्टियों के लिए अपनी आय की जानकारी चुनाव आयोग को देनी जरूरी है। चुनाव आयोग के पास इस मामले में बहुत ज्यादा अधिकार नहीं हैं। वार्षिक ऑडिट रिपोर्ट ना जमा करने की सूरत में आयोग पार्टियों को केवल कारण बताओ नोटिस दे सकता है। यहां सवाल उठता है कि आखिर   क्यों मोदी सरकार में जनवरी 2018 में इस बांड योजना अधिसूचित की गई थी और उसके साथ कहा गया था कि इससे चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता आएगी लेकिन शायद ऐसा नहीं हो सका। क्योंकि यह जरूरी नहीं है कि राजनीतिक पार्टियां चुनावी बांड खरीदने वालों के बारे में चुनाव आयोग को बताए। अब इससे कभी पता नहीं चल पाएगा कि 6000 करोड़ के चुनावी बांड  खरीदने वाले कौन लोग थे। कुल मिलाकर इससे राजनीतिक भ्रष्टाचार को एक तरह से बढ़ावा ही मिलता है और काला धन भी प्रोत्साहित होता है। ऐसा नहीं कि कांग्रेस दूध की धुली है लेकिन लोकसभा में कांग्रेस द्वारा इस बात को उठाया जाने का स्पष्ट अर्थ मोदी सरकार को घेरने का एक अवसर पैदा कर रही है । राजनीति में यह चलता ही है लेकिन इसमें जो रणनीति है वह बिल्कुल इमानदारी भरी नहीं है, क्योंकि कमोबेश बांड की राशि उसे भी तो मिली है।
         


Thursday, November 21, 2019

एनआरसी पर गरमा रही है राजनीति

एनआरसी पर गरमा रही है राजनीति 

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भाजपा की  केंद्र सरकार का नागरिकता संशोधन विधेयक को लेकर तीव्र आलोचना की है और कहां है कि वह इस राज्य में एनआरसी नहीं लागू कर देंगी। गृहमंत्री अमित शाह ने बुधवार को संसद में बयान दिया था कि जब भी देशभर में एनआरसी लागू किया जाएगा असम में भी उसे दोहराया जाएगा। विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों ने  देश भर में एन आर सी के  खिलाफ बयान दिए हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एनआरसी बिल पर केंद्र सरकार को आड़े हाथों लिया है । उन्होंने कहा है कि कोई भी किसी से नागरिकता का अधिकार नहीं छीन सकता और उसे शरणार्थी नहीं बना सकता है।
राज्य सरकार का दावा है कि बंगाल में एनआरसी को लेकर आतंक बढ़ता जा रहा है और कई लोगों ने पिछले 1 महीने में आत्महत्या कर ली है। उधर, अमित शाह ने कहा है, पश्चिम बंगाल में एनआरसी का लागू होना तय है और उससे पहले सरकार नागरिकता संशोधन अधिनियम के जरिए हिंदू सिख जैन ईसाई और बौद्ध शरणार्थियों को भारत की नागरिकता दे देगी। अमित शाह ने ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस पर आरोप लगाया कि वह एनआरसी को लेकर लोगों को गुमराह कर रही है। उधर राजनीतिक हलकों में यह बात उठ रही है कि सरकार एनआरसी के जरिए बांग्लादेशी नागरिकों को देश से बाहर निकालने की बात तो कर रही है लेकिन यह कैसे होगा यानी कैसे निकाला जाएगा लोगों को इस मुद्दे पर सरकार चुप है।
उन्होंने कहा कि असम में एनआरसी असम समझौते का हिस्सा था और यह समझौता राजीव गांधी के जमाने में हुआ था। उन्होंने कहा कि यह देशभर में कभी लागू नहीं हो सकता। ममता जी ने किसी के नाम तो नहीं लिया लेकिन कहा, कुछ लोग राज्य में उपद्रव करना चाहते हैं यह कह कर कि बंगाल में एनआरसी लागू किया जाएगा। मै  स्पष्ट करना इसे कभी लागू नहीं करने दिया T। मैं लोगों को धर्म के नाम पर बांटने नहीं दूंगी।" उन्होंने दावा किया कि राज्य को धर्म के नाम पर बांटने की साजिश चल रही है लेकिन अगर कोई बंगाल को ऐसा करने के बारे में सोचता है तो गलतफहमी में है । असम में लगभग 19 लाख लोग एनआरसी की सूची से बाहर   जिन्हें एनआरसी की सूची से बाहर रखा गया है। उनमें बंगाली हिंदू, मुसलमान ,गोरखा और बौद्ध है इन्हें डिटेंशन सेंटर में भेजा जाएगा। बंगाल में ऐसा कभी नहीं करने दिया जाएगा और ना ही कोई डिटेंशन सेंटर बनने दिया जाएगा। यहां एक बुनियादी प्रश्न है कि यदि एनआरसी एक कानूनी प्रक्रिया है तो असम एनआरसी के तहत गैर नागरिक घोषित लोगों के साथ कानूनी प्रक्रिया कैसे अपनाई जाएगी? एक तरफ सरकार बांग्लादेश की आश्वासन देती है कि एनआरसी की प्रक्रिया उसे प्रभावित नहीं करेगी तो फिर असम के इन 19 लाख लोगों का क्या किया जाएगा? कब तक की 19 लाख लोग मानवाधिकारों के बिना रहेंगे?
        उधर असम में भी एनआरसी के खिलाफ आवाज उठ रही है बुधवार को ही असम के मंत्री हेमंत विश्व शर्मा ने कहा है इसे रद्द किया जाना चाहिए और  एक ही  कट ऑफ  तारीख से  देशभर में लागू किया जाना चाहिए। असम में यह कटऑफ तारीख 24 मार्च 1971 है। जो आवेदक यह प्रमाणित कर देगा कि उस तारीख से या उसके पहले से वह  या उनके पूर्वज असम में रह रहे थे उनके नाम नागरिकता सूची में  कर लिए जाएंगे। असम में पहली एनआरसी 1951 में बनी थी और वर्तमान एनआरसी उस संदर्भ में अद्यतन है। जिन लोगों के नाम 1951 की सूची में हैं उनके परिवार के  नाम एनआरसी में लिखे जा सकते हैं और अब जो नए नाम लिखे जाएंगे वह 25 मार्च 1971 के आधार पर होंगे। यानी ,उस दिन की रात के 12:00 बजे तक यदि किसी के नाम मतदाता सूची में अथवा वैसे ही किसी वैधानिक दस्तावेज में है तो वह नाम एनआरसी में लिखा जा सकता है। एनआरसी की पहली सूची 31 अगस्त को प्रकाशित हुई थी जिसमें  19 लाख लोगों के नाम शामिल नहीं थे। ऐसे लोगों को राज्य के विदेशी ट्रिब्यूनल के समक्ष अपनी बात कहने का मौका दिया जा सकता है।
           इसके पहले अमित शाह ने कहा था कि नागरिकता संशोधन विधेयक संसद के इसी सत्र में रखा जाना है और यह अखिल भारतीय स्तर पर एनआरसी के पहले पारित हो जाएगा। यहां एक ध्यान देने की बात है कि एनआरसी यानी  नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन कट ऑफ तारीख के आधार पर नागरिकता तय करेगा जबकि नागरिकता संशोधन विधेयक धर्म के आधार पर बाहर से आए लोगों के बारे में तय करेगा। लेकिन अभी  राज्यसभा में जाने से पहले ही प्रस्तुतीकरण की तारीख पार होने के कारण निरस्त हो गया। इस विधेयक में नागरिकता अधिनियम 1955 में संशोधन का प्रस्ताव है। इसमें भारत के गैर मुस्लिम 6 अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय के लोगों के लिए थोड़ी रियायत मिली है । इनमें शामिल हैं अफगानिस्तान ,बांग्लादेश और पाकिस्तान से आए हिंदू, सिख ,बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई । प्रभावशाली सामाजिक और राजनीतिक संगठनों का कहना है कि नागरिकता संशोधन विधेयक एनआरसी के विपरीत है । अगर असम में यह विधेयक पारित हो जाता है तो जो हिंदू एनआरसी से वंचित रह गए हैं वे भी नागरिक हो जाएंगे जबकि मुसलमान इस सुविधा से वंचित रहेंगे। ऐसी स्थिति में वर्तमान एनआरसी बेकार है। अगर देशभर में एनआरसी लागू होता है तो एक बार फिर राजनीतिक तौर पर बवाल होगा और तनाव बढ़ेगा। वैसे तनाव संभवत कोई असर नहीं डाल पाएगा क्योंकि क्योंकि ग्रास रूट स्तर तक सरकार की राजनीतिक दलबंदी  है और इसका स्पष्ट उदाहरण बाबरी मस्जिद फैसले के बाद देखने को मिला।
    


Wednesday, November 20, 2019

जरा कल के बारे में भी सोचें

जरा कल के बारे में भी सोचें

भारत में  दूषित हवा  और दूषित पानी  की खबरों ने  चारों तरफ तहलका मचा दिया है। हर आदमी  परेशान है कि सांस कैसे ले पिए क्या ? दिल्ली जैसे शहर में तो ऑक्सीजन काउंटर खुल गया है। धीरे धीरे धरती का तापमान बढ़ता जा रहा है, समुद्र उथला होता जा रहा है। यानी हमारी पृथ्वी को और हमारे देश को मौसम का खतरा झेलने के लिए बाध्य होना पड़ेगा एक तरह से हम  अपनी ही  करनी का अभिशाप भोगने को मजबूर किए जा रहे हैं।
सत्यं बृहदृतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति 
सा नो भूतस्य भव्यस्य पत्न्युरुं लोकं पृथिवी नः कृणोतु ॥1॥

विख्यात पत्रिका लांसेट की काउंटडाउन  रिपोर्ट में कहा गया है कि जिस तेजी से कार्बन का उत्सर्जन हो रहा है उसका असर आज पैदा होने वाले हर बच्चे को जिंदगी भर भुगतना पड़ेगा। आज पैदा हुआ बच्चा जब 71 वर्ष का होगा तब तक धरती का तापमान 17 वीं शताब्दी के मध्य से 4 डिग्री सेल्सियस ज्यादा रहेगा। यानी गर्मी बहुत बढ़ेगी। हमारे देश के ऐसे बच्चे जो इस समय दूषित हवा में सांस ले रहे हैं , दूषित जल पी रहे हैं और कुपोषण तथा संक्रामक रोगों की चपेट में आसानी से आ सकते हैं उन पर इस जलवायु परिवर्तन का  व्यापक असर पड़ेगा। कृषि उत्पादन घटेगा। अब सवाल है कि हमारी आने वाली पीढ़ी की जिंदगी में कृषि कितना असर डालेगी? सरकारी रिपोर्ट बता रही है कि चावल और मक्का की औसत पैदावार कम हो रही है।  अब ऐसा होने से इनकी कीमत बढ़ेगी जिससे कुपोषण का बोझ बढ़ेगा। हमारे देश के बच्चे वैसे ही पहले से कुपोषण के शिकार हैं।  मौसम बदलने से संक्रामक रोग बढ़ेंगे और बच्चे इस का सबसे पहला शिकार होंगे। वायु प्रदूषण बढ़ने से जलकण में व्याप्त धूल के कण से मरने वालों की संख्या बढ़ेगी। विनाशकारी बाढ़ ,सूखे जंगलों में आग इत्यादि परिणाम होंगे बढ़ते तापमान के। यह आम बात है कि बच्चे बदलते जलवायु के कारण होने वाले स्वास्थ्य जोखिम के शिकार जल्दी जाते हैं। क्योंकि, उनके शरीर में प्रतिरक्षा प्रणाली  पूरी तरह विकसित नहीं हुई रहती है। एक और रिपोर्ट में कहा गया है कि इस दुनिया में औसत तापमान में वृद्धि से भारत की आधी आबादी को खतरा है। भविष्य को बचाने के लिए हमें ऊर्जा परिदृश्य में तेजी से परिवर्तन लाना होगा और ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस पर सीमित करने की कोशिश करनी होगी। जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाले संकट आज मनुष्यता के लिए सबसे बड़े खतरों में से एक हैं। लेकिन हम आज भी अपनी सरकार की ओर देख रहे हैं , खुद कुछ नहीं करते। यानी हम आने वाली पीढ़ी को तड़प तड़प कर मरने के लिए सरकार के भरोसे छोड़ रहे हैं। जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के लिए पेरिस समझौता हुआ यह 2020 से कार्यान्वित होगा । लेकिन अगर इसे ईमानदारी से और पूरी ताकत से लागू नहीं किया गया तो जो विनाश होगा उसे  बर्दाश्त नहीं किया जा सकेगा।
          जैसे-जैसे तापमान बढ़ेगा कृषि पैदावार घटने लगेगी और खाद्य पदार्थों की कीमत बढ़ने लगेगी। यह वृद्धि गरीबों की पहुंच से बाहर होगी। जैसा कि सब जानते हैं नवजात और छोटे बच्चे कुपोषण के सबसे ज्यादा शिकार होते हैं । नतीजा यह होता है कि उनका विकास रुक जाता है और उनके भीतर की  प्रतिरक्षा प्रणाली सुस्त हो जाती है ।  भविष्य की समस्याएं बढ़ जाती हैं। जैसी की खबर है, बढ़ते तापमान के कारण में पिछले 30 वर्षों में दुनिया भर में अनाज की उपज की क्षमता घट गई है। रिपोर्ट  के अनुसार मक्के की उपज में 4% गेहूं की उपज में 6% सोयाबीन की उपज में 3% और चावल की उपज में 4% गिरावट आई है। 1960 को आधार मानकर किए गए आकलन के अनुसार भारत में मक्का और चावल की उपज में औसत 2% की गिरावट आई है और पिछले 5 साल में 5 साल से कम उम्र के दो तिहाई बच्चों की मृत्यु का कारण कुपोषण रहा है । इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के मुताबिक भारत में जलवायु परिवर्तन से कृषि उत्पादन लगातार गिर रहा है 2010 अगर आधार मान लिया जाए तो 2030 में भारत में कृषि उत्पादन बहुत ज्यादा गिर जाएगा।  2030 में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण भूख से पीड़ित लोगों की अनुमानित संख्या 22.5 प्रतिशत से ज्यादा हो सकती है । या कह सकते कि एक सौ 20 करोड़ की आबादी में करीब 24 करोड़ लोग भूख से पीड़ित होंगे।  यह भूख क्या रंग लाएगी इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।
       और तो और बीमारियां बढ़ेंगी। बदलते मौसम के साथ एक खास किस्म की बैक्टीरिया विब्रियो के फैलने का खतरा बढ़ जाता है और इससे पेचिश की बीमारी दुगनी हो जाती है। अस्पतालों में डायरिया से ग्रस्त बच्चों की लंबी सूची को देखकर स्पष्ट अंदाजा लगाया जा सकता है कि हम किधर बढ़ रहे हैं । जलवायु परिवर्तन के साथ मच्छर बढ़ते हैं और इस समय डेंगू दुनिया में सबसे ज्यादा तेजी से फैलने वाला रोग बन गया है । एक शोध के मुताबिक भारत की आधी आबादी को इससे खतरा है । आज के बाद जो परिदृश्य रहेगा और हवा की प्रदूषण तथा वातावरण  के तापमान की जो स्थिति रहेगी उससे बच्चों के फेफड़े ज्यादा प्रभावित होंगे और सांस की बीमारियां बढ़ती जाएगी। अभी खनिज तेल का प्रयोग तेजी से बढ़ रहा है और इससे वातावरण में कार्बन मोनोऑक्साइड के पार्टिकुलेट मैटर भी बढ़ रहे हैं अत्यंत बारीक इसके कण सांस के साथ हमारे रक्त प्रवाह में फैलते जा रहे हैं। इससे अकाल मृत्यु का खतरा बढ़ता जा रहा है । आज बच्चा जन्म ले रहा है, उसके सामने जीवन में आगे चलकर गंभीर बीमारियां, लंबे समय तक सूखे और जंगली आग का खतरा बढ़ जाएगा । रिपोर्ट के मुताबिक 196 देशों में से लगभग 152 देशों में 2001 से 4 के बाद जंगल की आग के शिकार लोगों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ी है ।भारत में इस संख्या में लगभग 2 दशमलव 10 करोड़ और चीन में 1 दशमलव 70 करोड़ से ज्यादा वृद्धि हुई है इस वजह से लोग मर रहे हैं। सांस की बीमारियां फैल रहीं हैं और उन्हें अपने घरों से भी हाथ धोना पड़ रहा है। 2018 अब तक का सबसे गर्म वर्ष रहा है इस साल दुनिया भर में 22 करोड़ लोग लू से मरे भारत में जनसंख्या 4.30 करोड़ थी। भारत में साल 2000 बाद अत्यधिक गर्मी के कारण है    काम के घंटे बर्बाद हुए।अकेले कृषि क्षेत्र में 12 अरब काम के घंटों का नुकसान हुआ। इस खतरनाक  स्थिति से अंदाजा लगाया जा सकता है कि आने वाला दिन कैसा होगा और हमारे बच्चों को क्या झेलना पड़ेगा।


Tuesday, November 19, 2019

सड़क दुर्घटनाओं में बंगाल सबसे आगे

सड़क दुर्घटनाओं में बंगाल सबसे आगे 

कोलतार की लंबी काली सड़कें और उस पर दौड़ते काले टायर उन दैत्यों की तरह है जो सड़कों पर बिखरे खून को मिनटों में चाट जाते हैं और बचे रह जाते हैं अपनों के चेहरे पर आंसुओं के निशान और उनके जीवन पर व्यथा की लकीर । ताजा आंकड़े बताते हैं कि अपने प्रदेश में पांच जानलेवा सड़क दुर्घटनाओं में 3 यहां  के हाईवे पर होती है। अभी हाल में सड़क परिवहन एवं राज्य पथ मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक  2018 में  बंगाल में  कुल रोड एक्सीडेंट का 62% हाईवे पर हुए। दुर्घटना की ऊंची दर इस साल नई नहीं है बल्कि पिछले 3 वर्षों से लगातार चली आ रही है 2015 16 और 17 में भी यही हालत थी। सरकारी सूत्रों के मुताबिक राज्य में 2,998 किलोमीटर नेशनल हाईवे है और 3,693 किलोमीटर राज्य सरकार की हाईवे है। 2018 में बंगाल की सड़कों पर दुर्घटनाओं की कुल 12 हजार 705 घटनाएं हुई और अगर मोटे तौर पर आबादी से हम इसका अनुपात आंकते है तो प्रति एक लाख आबादी पर 13.4 दुर्घटनाएं होती हैं। हालांकि सरकार  कहना है की दुर्घटनाओं की संख्या तेजी से घट रही है।
         दुर्घटनाओं में न केवल जाने जाती हैं बल्कि उसका एक दूरगामी असर भी पड़ता है। आंकड़े बताते हैं कि भारत के सकल घरेलू उत्पाद पर दुर्घटनाओं का 3.5% असर पड़ता है और  शहरों की सड़कों में सुधार  और  ड्राइवर्स  की ट्रेनिंग के साथ-साथ  परिवहन नियमों  को कड़ाई से लागू करने पर  इस  घाटे को रोका जा सकता है । दुर्घटनाओं में मरने वालों का अनुपात अगर देखें तो इनमें 70% लोग 18 से 45 वर्ष की आयु के बीच के हैं। 2018 में  विश्व बैंक की  एक रिपोर्ट में  कहा गया था कि  अगर 2038 तक इन सड़क दुर्घटनाओं में घायल और मरने वालों की संख्या को आधा कर दिया जाए तो हमारा सकल घरेलू उत्पाद 7% के आसपास हो जाएगा। 2018 में देश भर में कुल 4,67,044 सड़क दुर्घटनाएं हुई जो पिछले वर्ष से 0. 5% ज्यादा थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में जितने वाहन हैं उसका केवल एक प्रतिशत भारत में है और दुनिया भर में सड़क दुर्घटनाएं होती हैं उसका 6% केवल भारत में होता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि 2018 में दक्षिण और दक्षिण पूरब एशिया में जितने लोगों की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हुई उसमें केवल 73% मौतें भारत में हुई । भारत में मृत्यु के 12 आम कारण है सड़क दुर्घटना उनमें से एक है। 2017 में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी ग्लोबल हेल्थ एस्टिमेट्स के मुताबिक भारत में मौतों के 12 कारण है जिनमें सड़क दुर्घटना भी 7वां कारण है और अपंगता कि जितने भी कारण से उनमें सड़क दुर्घटना दसवां कारण है। 2018 में जितनी भी सड़क दुर्घटनाएं हुई उनमें ज्यादातर 36% दुपहिया वाहनों के कारण में और 13% सड़क के किनारे चलने वालों के कारण हुईं। सड़कों पर फर्राटे से तेज रफ्तार चलने वाले दुपहिया वाहनों के कारण ज्यादा दुर्घटनाएं होती हैं। हमारे देश के कानून के मुताबिक इसके लिए 500 रुपये से 5000 रुपये तक जुर्माना है और कई मामलों में ड्राइवर को जेल भी हो सकती है।
हमारे देश में चार लेन की सड़कों पर गति सीमा 80 किलोमीटर प्रति घंटा है जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे 53 से 57 किलोमीटर प्रति घंटा के बीच करने का सुझाव दिया है। सरकार  ने  गति सीमा का उल्लंघन करने  के लिए  दी जाने वाली सजा  में संशोधन किया है। नए कानून में पहली घटना में 6 महीने तक की कैद और ₹10000 जुर्माना है दूसरी घटना में 2 साल की कैद ₹15000 जुर्माना अथवा दोनों है।
         दरअसल सड़क दुर्घटनाओं में सबसे बड़ी भूमिका परिवहन कानून की है और इस कानून को हमारे देश में या हमारे राज्य में बहुत ढीले ढाले ढंग से लागू किया जाता है। कई बार तो देखा गया है कि पुलिस के सामने से तेज रफ्तार दोपहिया या चार पहिया वाहन निकल जाते हैं और वहां ड्यूटी पर तैनात पुलिसकर्मी से देखता रहता है, कुछ नहीं कर पाता। इसके कई कारण हो सकते हैं लेकिन अगर कारणों को नजरअंदाज कर दिया जाए और सख्ती से कानून लागू किया जाए तो बहुत बड़ी संख्या में लोगों की जानें बचाई जा सकते हैं।  इसके लिए जरूरी है वाहन चालकों में कानून का डर और वाहन नियमों के प्रति जागरूकता। यहां तक कि शराब पीकर गाड़ी चलाने वालों को भी रोका नहीं जाता। या जो लोग इस अपराध में पकड़े भी जाते हैं उन्हें बहुत ज्यादा सजा नहीं मिलती। लेकिन इसे लागू किए जाने में केवल रानू में ढिलाई बरतना ही एकमात्र कारण नहीं है बल्कि कानून लागू करने वाले तंत्र का कमजोर होना भी है । हमारे देश में, पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ब्यूरो की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2018 में कुल 85 हजार 144 ट्रैफिक के सिपाहियों की जरूरत थी जबकि है उसका 30% ही भरा गया है, बाकी खाली हैं।
    यही नहीं, सड़क पर चलने वाले बहुत से वाहन ऐसे हैं जिनके चालकों के पास ड्राइविंग लाइसेंस नहीं होता। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 2018 में जितने एक्सीडेंट हुए उनमें शामिल 20% वाहनों के चालकों के पास  लाइसेंस नहीं पाया गया। वैसे भी लाइसेंस कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिससे पता चल सके कि ड्राइवर योग्य है। वस्तुतः वाहन मालिक ही ऐसे ड्राइवरों को काम दिया करते जिनके पास वैध लाइसेंस नहीं होता अथवा जो बहुत योग्य नहीं होते। यही नहीं , अक्सर यातायात नियंत्रण और संचालन के लिए तैनात पुलिसकर्मियों के पास ऐसे औजार नहीं होते या बहुत कम होते हैं जिससे पता लगाया जा सके कि ड्राइवरों ने शराब पी रखी है।  यही नहीं घटनास्थल पर यातायात पुलिस के पहुंचने में देरी के कारण दोषी बच जाते हैं। यदि यातायात नियमों को कड़ाई से लागू किया जाए तो बहुत बड़ी संख्या में लोगों की जानें बच सकती हैं और भारत के सकल घरेलू उत्पाद में उनकी भूमिका भी शामिल हो सकती है।


Monday, November 18, 2019

फिर अब तूल पकड़ने वाला है अयोध्या मामला

फिर  अब तूल पकड़ने वाला है अयोध्या मामला 

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने अयोध्या में राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला मानने से इनकार किया है और इस पर पुनर्विचार याचिका दायर करने की घोषणा की है । मुस्लिम पक्ष ने कहा कि उसे किसी दूसरी जगह पर मस्जिद के लिए 5 एकड़ जमीन नहीं चाहिए। सुप्रीम कोर्ट का फैसला राम मंदिर के पक्ष में जाने के बाद रविवार को ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इस मामले पर मीटिंग की और इसके बाद फैसले को चुनौती देने का एलान किया। बोर्ड ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि विवादित जमीन पर नमाज पढ़ी जाती थी और मंदिर तोड़कर मस्जिद नहीं बनाई गई है। गुंबद के नीचे जन्मस्थान होने कोई सबूत नहीं है और जन्म स्थान को न्यायिक व्यक्ति नहीं माना जा सकता। बोर्ड का कहना है कि उसने जिस जमीन के लिए लड़ाई लड़ी हुई जमीन से चाहिए। बोर्ड का मानना है अगर मस्जिद को ना तोड़ा गया होता तो क्या अदालत मस्जिद तोड़कर मंदिर बनाने के लिए कहती ?
       देश के प्रमुख मुस्लिम संगठन जमीयत उलेमा ए हिंद के प्रमुख मौलाना अरशद मदनी का मानना है कि कोर्ट ने 1000 से ज्यादा पृष्ठों वाला फैसले में मुस्लिम पक्ष के अधिकतर तर्कों को माना है ऐसे में अभी भी कानूनी विकल्प मौजूद है। कोर्ट ने स्वीकार किया है कि मस्जिद का निर्माण किसी मंदिर को तोड़कर नहीं किया गया और 1949 में मस्जिद के बाहरी हिस्से में अवैध तरीके से मूर्ति रखी गयी है फिर वहां उसे अंदर गुंबद के नीचे वाले हिस्से में स्थान्तरित किया गया । जबकि उस दिन तक नमाज का सिलसिला जारी था। मदनी ने कहा 1949 तक वहां नमाज पढ़ी जा रही थी तो फिर 90 साल तक जिस मस्जिद में नमाज पढ़ी गई उसको मंदिर बनाने के लिए देने की बात समझ से परे है। जिलानी ने कहा के उस जमीन के लिए आखिरी दम तक कानूनी लड़ाई लड़ी जाएगी ।उन्होंने कहा कि 23 दिसंबर 1949 की रात बाबरी मस्जिद में भगवान राम की मूर्तियों को रखा जाना और असंवैधानिक था तो फिर उच्चतम ने उन मूर्तियों को आराध्य कैसे मान लिया। वह जो हिंदू धर्म शास्त्र अनुसार भी आराध्य नहीं हो सकते।
       ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड मीटिंग के लिए अंतिम समय में जगह बदल दी गई। लखनऊ के नदवा क्षेत्र में होने वाली थी बैठक। अचानक उस क्षेत्र को बदल दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में रामलला विराजमान के नाम से फैसला सुनाया है और निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड का दावा खारिज कर दिया था तथा मुस्लिम पक्ष को अयोध्या में ही 5 एकड़ जमीन देने का निर्देश दिया था
           इस बैठक के बाद एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सचिव जफरयाब जिलानी, बोर्ड के सदस्य  रसूल इलियास और अन्य सदस्यों ने पत्रकारों से बात की। जिलानी ने बताया की मुस्लिम पक्ष कारों में से मिसबाहुद्दीन, मौलाना महफूज उर रहमान, मोहम्मद उमर और हाजी महबूब ने पुनर्विचार याचिका दायर करने की अनुमति दे दी है। एक अन्य पक्षकार इकबाल अंसारी के बारे में पूछे जाने पर कहा गया कि उन पर पुलिस प्रशासन और जिला प्रशासन बहुत दबाव डाल रहा है। गिलानी के अनुसार इकबाल अंसारी इसलिए याचिका के पक्ष में नहीं है क्योंकि अयोध्या के प्रशासन और पुलिस उन पर दबाव डाल रहा है।  प्रशासन ने हमें भी इस बैठक को आयोजित करने से मना किया था और हमने बैठक दूसरी जगह किया जिलानी के अनुसार वरिष्ठ वकील राजीव धवन बोर्ड की तरफ से पुनर्विचार याचिका दायर करेंगे। उन्होंने ही पहले सुप्रीम कोर्ट में मुस्लिम पक्षकारों के वकील थे। लेकिन, हिंदू महासभा के वकील वरुण सिन्हा के अनुसार मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड केस में पक्षकार है ही नहीं वह याचिका कैसे दायर कर सकता है। इस मामले में सुन्नी वक्फ बोर्ड का फैसला लेना होगा। वरुण ने कहा कि हर किसी को पुनर्विचार याचिका दायर करने का अधिकार है लेकिन इस फैसले के खिलाफ जाने का कोई कानूनी आधार नहीं है। जिलानी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह जोर दिया कि मुस्लिम इंसाफ मांगने सुप्रीम कोर्ट में गए थे। बाबरी मस्जिद के बदले कोई दूसरी जगह मांगने नहीं गए थे। उन्होंने कहा कि अयोध्या में पहले से ही  27 मस्जिदें हैं इसलिए  बात मस्जिद की नहीं है।
दूसरी तरफ सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष जफर फारुकी ने फैसले के दिन कहा था कि बोर्ड अपील में नहीं जाएगी या किसी तरह के पुनर्विचार पर जोर नहीं देगी। जो भी हो चुका उसे सुन्नी वक्फ बोर्ड स्वीकार कर लेगी। सुन्नी वक्फ बोर्ड कोर्ट द्वारा तय की गई 5 एकड़ जमीन लेगी या नहीं लेगी इस पर 26 नवंबर को एक बैठक में फैसला किया जाएगा। सुन्नी वक्फ बोर्ड का यह कथन ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के निर्णय से सीधा विपरीत है
पुनर्विचार याचिका का मामला सामाजिक रूप में तूल पकड़ सकता है इसलिए पूरे समाज में सौहार्द एवं शांति बनाए रखने की कोशिश की जानी चाहिए ,हालात का शोषण नहीं। ऐसा कभी-कभी होता है खास करके जो भावना प्रधान मामले होते हैं कि हम अपने निष्कर्ष निकालते हैं और इस बात पर ध्यान केंद्रित करते हैं कि जो हमारे विपरीत सोच रहे हैं या कर रहे हैं उन्हीं की गलती है और इसका उन्हें परिणाम भुगतना होगा। यह एक सामूहिक सोच बन जाती है और कार्रवाई में बदल जाती है। पिछले अनुभवों से एक बार सोचें जब  हम किसी स्थिति के बारे में सभी तथ्यों को नहीं समझते हैं और    कुछ ऐसा  करने की संभावना बन जाती है जो हमें नहीं करना चाहिए। मंदिर और मस्जिद का मामला बिल्कुल भावना प्रधान है और इस पर हमें सामाजिक रूप से बहुत सतर्क रहने की जरूरत है।


Sunday, November 17, 2019

शहर की हवा पानी सब खराब कैसे जिएंगे आप

शहर की हवा पानी  सब खराब कैसे जिएंगे आप 

शहर की हवा पानी सब खराब कैसे जिएंगे आप
खबरों के मुताबिक अपने देश के महानगरों में मुंबई का पानी सबसे सुरक्षित है और कोलकाता का पानी अत्यंत दूषित। ब्यूरो इंडियन स्टैंडर्ड्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली, कोलकाता और  के पानी की जांच करने पर 11 मामलों में से 10 में नकारा साबित हुआ। 17 अन्य राज्यों में पानी के नमूने इकट्ठे किए जो इंडियन स्टैंडर्ड के मानकों के मुताबिक नहीं थे। उपभोक्ता मामले के मंत्री रामविलास पासवान ने अध्ययन के दूसरे चरण फिर रिपोर्ट जारी करते हुए कहा कि मुंबई को छोड़कर देश के सभी राज्यों की राजधानियों का पानी अत्यंत दूषित है। सरकार इस पानी को शुद्ध करने के लिए कठोर कार्रवाई करने का निर्देश राज्यों को दे रही है।
आबादी के तेजी से बढ़ते दबाव और जमीन के नीचे से पानी का अंधाधुंध दोहन साथ ही जल संरक्षण की कोई कारगर नीति नहीं होने की वजह से पानी की समस्या साल दर साल गंभीर होती जा रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े बताते हैं कि भारत में लगभग 10 करोड़ लोगों को पीने का साफ पानी मयस्सर नहीं है। लेकिन यह आंकड़ा सिर्फ शहरी इलाकों का है। गांव के 70% लोग अभी प्रदूषित पानी पीने को मजबूर हैं। अब जबकि 2028 तक भारत की आबादी चीन से ज्यादा पहुंच जाएगी यह समस्या और भयावह हो जाएगी । एक और तो गांव में शुद्ध जल नहीं मिल रहा है और दूसरी ओर महानगरों में वितरण की कमी के कारण लाखों गैलन पानी रोज बर्बाद हो जाता है। फिलहाल देश में प्रति व्यक्ति 1000 घन मीटर पानी उपलब्ध है और धीरे-धीरे यह उपलब्धता घटती जा रही है। नदियों का देश होने के बावजूद हमारी नदियों  का पानी पीने के लायक नहीं है और ना नहाने के लायक है।
         दरअसल किसी भी शहरी क्षेत्र में पानी की आपूर्ति नगर निगम के पाइपों से की जाती है और उसकी शुद्धता का आकलन पेयजल की उपलब्धता, उससे उत्पन्न होने वाली स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं और उस तक आम आदमी की पहुंच के आधार पर किया जाता है। पश्चिम बंगाल प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और कोलकाता नगर निगम द्वारा जारी प्रासंगिक आंकड़ों में कई बातें बहुत ही महत्वपूर्ण है। आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है की उपलब्ध पेयजल की गुणवत्ता अच्छी नहीं है। इसका मुख्य कारण है उसकी उपलब्धता साथ ही नगर निगम की जलापूर्ति के विकल्प के रूप में लोगों द्वारा अपनाया जाने वाला भूजल भी दूषित  है। उसमें आर्सेनिक और लेड जैसे भारी धातु की उपस्थिति पाई गई है। अब जल की अनुपलब्धता और उसके शुद्धिकरण में कमी के कारण तरह-तरह की बीमारियां पनप रही हैं। कोलकाता नगर निगम द्वारा एकत्र किए गए आंकड़ों के मुताबिक कोलकाता शहर में अधिकांश लोगों को पेचिश और उसकी छूत से उत्पन्न होने वाली आंत की विभिन्न बीमारियां शहर के अधिकांश भाग में फैली हुई हैं। यह जल जनित बीमारियां हैं। सही पेयजल की व्यवस्था और स्वच्छता से इन बीमारियों से मुक्ति पाई जा सकती है । शहर के जल के दूषण के और भी कारण हैं। इनमें विशिष्ट भौगोलिक और ऐतिहासिक कारणों के साथ साथ विशाल आबादी, इसकी ढलवां भूमि और जलजमाव के साथ-साथ जल निकासी की समुचित व्यवस्था का अभाव यहां के पेयजल के दूषण में अपनी भूमिका निभाता है। कोलकाता नगर निगम शहर की आबादी के 70% को पानी मुहैया कराता है बाकी 30% आबादी विभिन्न स्रोतों से पेयजल का बंदोबस्त करती है। 2011 की जनगणना के मुताबिक कोलकाता मेट्रोपॉलिटन अथॉरिटी के 79 प्रतिशत भाग में पेयजल की सप्लाई होती है लेकिन व्यवहारिकता में यह कम है। आबादी रोजाना बढ़ रही है। खास करके, शहर का हर क्षेत्र तेजी से जन संकुल होता जा रहा है। इसके साथ ही शहर में जमीन घटती जा रही है और शहर का माइक्रोक्लाइमेट धीरे-धीरे बिगड़ता  जा रहा है।  इससे शहरी लोगों के लिए बाहरी समस्याएं पैदा हो रही हैं। यही नहीं शौचालयों की अपर्याप्त व्यवस्थाओं के कारण अभी भी शहर की फुटपाथों पर खूब तड़के शौच करते लोग देखे जा सकते हैं। शहर में  जो लोग रहते हैं उनके खान-पान और उनके भीतर की बीमारी  के अनुसार  उनके मल मूत्र में भी  तरह-तरह के रोगाणु  पाए जाते हैं।  जैसे  1 ग्राम  मल मैं एक करोड़ वायरस, 10 लाख बैक्टीरिया होती है , एक हजार पैरासाइट तथा कीटाणुओं के एक सौ अंडे होते हैं।  इससे विभिन्न तरह की छूत की जानलेवा बीमारियां उत्पन्न हो रही हैं।
कोलकाता महानगर इतना जन संकुल हो गया है इसमें अब लोगों के रहने की जगह नहीं है और यह शहर चारों तरफ फैल रहा है और तालाबों को पाट कर ऊंची ऊंची इमारतें बन रही हैं और और उसमें भूजल के दोहन की व्यवस्था है। इन इलाकों में एक तरफ लगातार जमीन की पानी को निकाला जा रहा है और दूसरी तरफ महानगर में एक बड़ी आबादी के लिए पीने का पानी नहीं है। इससे तरह-तरह की बीमारियां फैल रही हैं।
2014 में अन्थामेटेन तथा हेजेन द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार हवा और पानी में बढ़ता प्रदूषण कोलकाता शहर की समस्या है और निकट भविष्य में इस समस्या के समाधान की कोई राह भी नहीं दिख रही है। जल संरक्षण के उपाय और जमीन में स्थित पानी के दोहन की नीति बनाकर इस समस्या पर काफी हद तक अंकुश लगाया जा सकता है। लेकिन इसको लागू कैसे किया जाए? इसके लिए सबसे जरूरी चीज है जन जागरूकता। जब तक इस ओर कदम नहीं उठाया जाएगा कोई उपलब्धि नहीं होने वाली।


Friday, November 15, 2019

राफेल पर हमला फेल

राफेल पर हमला फेल 

सुप्रीम कोर्ट ने राफेल विमान के सौदे इस समीक्षा के लिए पेश की गई सभी दलीलों को खारिज करते हुए पूरे मामले को खत्म कर दिया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनाव प्रचार के दौरान चौकीदार चोर कहे जाने पर भी अदालत ने सख्ती बरतते हुए इसे समाप्त कर दिया। इस तरह राफेल और उससे संबंधित सारी हवाई लड़ाई या कहें राहुल गांधी का सारा हमला नाकाम हो गया। भाजपा ने इसके लिए कांग्रेस तथा राहुल गांधी से माफी मांगने को कहा है जबकि विपक्षी दल ने कहा है कि यह अदालती फैसला एक आपराधिक जांच के दरवाजे खोलता है। पूर्व वायु सेना प्रमुख धनोवा ने भी इस न्याय की आलोचना की है ।
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने राफेल मामले में अदालत के फैसले को सत्य की जीत बताया और कहा राहुल गांधी इस संबंध में माफी मांगें। शाह ने कहा ,राफेल मामले में पुनर्विचार याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से उन दलों और नेताओं को करारा जवाब मिलता है जो बेबुनियाद और दुर्भावनापूर्ण अभियान चला रहे हैं। अमित शाह ने एक ट्वीट में कहा है कि 'शीर्ष अदालत के फैसले से स्पष्ट हो गया है कि राफेल लड़ाकू विमान सौदे को लेकर संसद को बाधित करना शर्मनाक था।' उन्होंने कहा कि, इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला नरेंद्र मोदी सरकार की विश्वसनीयता की पुष्टि करता है । नरेंद्र मोदी के सरकार पारदर्शी और भ्रष्टाचार मुक्त है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर कहा कि प्रधानमंत्री और उनकी सरकार ईमानदार और स्वच्छ है यह कोर्ट के फैसले से स्पष्ट हो गया। उन्होंने कहा कि  इस दुर्भावना प्रेरित अभियान के लिए देश की जनता  कांग्रेस को कभी माफ नहीं करेगी। कांग्रेस लोगों को गुमराह कर रही थी इसलिए वह लोगों से माफी मांगे।
जैसा कि स्वाभाविक है कांग्रेस ने इस मामले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति गठित करने की मांग की है। कांग्रेस ने कहा है कि फैसले से यह साबित होता है कि इस घोटाले में  जांच के लिए बड़ी गुंजाइश है और ऐसे जांच के लिए अब संयुक्त संसदीय समिति का गठन होना चाहिए।राहुल गांधी ने    सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति जोसेफ के हवाले से कहा कि  जस्टिस जोसेफ ने भी कहा है  कि राफेल घोटाले की जांच के लिए बड़ी गुंजाइश पैदा हुई है और पूरे मामले की जांच शुरू होनी चाहिए।
     भारतीय वायु सेना के पुराने विमानों को बदल कर उनकी जगह अधिक क्षमतावान विमानों को खरीदने के काम में कथित भ्रष्टाचार को लेकर अदालत में पुनर्विचार याचिका दायर की गई थी। हालांकि यूपीए सरकार ने भी 126 विमान खरीदने का फैसला किया था लेकिन आपत्ति इस बात पर थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2015 में अपनी फ्रांस यात्रा के दौरान 36 विमान खरीदने की घोषणा की जो कि पूर्ववर्ती यूपीए सरकार द्वारा तय किए गए दामों से ज्यादा कीमत पर थी। राफेल से जुड़े एक अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने राहुल गांधी का माफीनामा मंजूर कर लिया है। राहुल गांधी ने 2019 के चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी द्वारा खुद को   चौकीदार कहे जाने पर आपत्ति उठाते हुए एक नारा दिया था कि चौकीदार चोर है । राफेल सौदे के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल 14 दिसंबर को एक फैसला दिया था जिसमें उसने भारत सरकार को साफ बरी कर दिया था ।
लेकिन अदालत के समक्ष याचिका दायर की गई जिसमें निर्णय लेने की प्रक्रिया, मूल्य निर्धारण और ऑफसेट पार्टनर के चयन पर सवाल उठाया गया।
अब  इस फैसले की समीक्षा के लिए अदालत में कई याचिकाएं दायर की गई थीं और 10 मई 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के बाद इस पर अपना फैसला टाल दिया था। याचिका दायर करने वालों में पूर्व मंत्री अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा, सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण और आम आदमी पार्टी के संजय सिंह की याचिका है शामिल थी। इन सभी लोगों ने सुप्रीम कोर्ट से दरख्वास्त की थी कि पिछले साल दिए गए फैसले पर फिर से विचार करें । इसी में एक और मामला जुड़ गया था क्योंकि इसी सौदे के संदर्भ में राहुल गांधी ने 2019 के चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कहा था कि "चौकीदार चोर है।" अब इस आरोप के खिलाफ भाजपा सांसद मीनाक्षी लेखी कोर्ट में चली गयीं और राहुल गांधी पर आपराधिक मामला चलाने की मांग की । उन्होंने कहा कि एक राजनीतिक पार्टी के नेता को प्रधानमंत्री के खिलाफ ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
       सुप्रीम कोर्ट ने इस पर 15 अप्रैल को सुनवाई की और उसने साफ कहा था इस तरह की टिप्पणी उसने कभी की ही नहीं, जैसा कि राहुल गांधी अपने बयानों में हवाला दे रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने राहुल गांधी को 22 अप्रैल तक अपना जवाब देने को कहा था। राहुल गांधी ने अपने शपथ पत्र में लिखा  " मेरा बयान सियासी प्रचार की गर्मा गर्मी में दिया गया था और मेरे विरोधियों ने इसे गलत ढंग से पेश किया ताकि ऐसा प्रतीत हो यह मैंने कहा है। ऐसी सोच तो ले ली दूर-दूर तक कहीं नहीं है। यह भी स्पष्ट है कोई भी अदालत कभी भी ऐसा कुछ नहीं कहेगी और इसके लिए मैं अदालत से क्षमा मांगता हूं।"
        साथ ही राहुल गांधी ने बिना माफी मांगी और इस केस को बंद करने की गुहार लगाई। चाहे जो हो कानूनी दांव पर से पृथक सामाजिक रूप में अगर देखा जाए तो राजनीतिज्ञों को इस तरह के आरोप-प्रत्यारोप में अपना समय बर्बाद नहीं करना चाहिए।


Thursday, November 14, 2019

सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस का भी कार्यालय अब आरटीआई के दायरे में

सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस का भी कार्यालय अब आरटीआई के दायरे में 

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश कार्यालय भी अब सूचना के अधिकार के अंतर्गत आ गया। यह फैसला मुख्यतः पारदर्शिता और स्वतंत्रता के अधिकार के संतुलन के लिए आया है। यह फैसला अत्यंत महत्वपूर्ण है । यह महत्व इसलिए है क्योंकि सूचना के अधिकार के दरवाजे खोल रहा है। लेकिन, इसके विभिन्न बिंदुओं का अध्ययन करने से यह ज्ञात होगा कि कौन सी लाल पट्टी इसके प्रभाव के बारे में निर्णय करेगी। सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि पारदर्शिता से न्यायिक आजादी कभी प्रभावित नहीं होती। प्रधान न्यायाधीश श्री रंजन गोगोई की संविधान पीठ ने अपने फैसले में कहा कि निजता और गोपनीयता का अधिकार अपने आप में एक महत्वपूर्ण स्थिति हैं और मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय से जानकारी प्राप्त करते समय यह संतुलित होनी चाहिए। 2010 का यह मामला सुप्रीम कोर्ट में एक अपील के तौर पर था और यह अपील सुप्रीम कोर्ट के महासचिव ने दिल्ली हाई कोर्ट के एक आदेश के तहत की थी। संविधान पीठ ने 4 अप्रैल को इस पर अपना फैसला दे दिया था, लेकिन उसे सुरक्षित रख लिया गया था।  हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया का कार्यालय आरटीआई कानून की धारा 2 (एच) के अंतर्गत पब्लिक अथॉरिटी है यह पूरा मामला तब शुरू हुआ जब आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल में चीफ जस्टिस के कार्यालय को आरटीआई के तहत जाने की याचिका दायर की।
        जहां तक आरटीआई का मामला है इसकी शुरुआत 1766 में स्वीडन में हुई थी और फ्रांस में 1978 में स्वीडन में 1982 में लागू हुआ भारत में यह कानून  2005 में लागू हुआ था । अब एक ऐसे संस्थान जिसकी सार्वजनिक जांच नहीं हो सकती है और जो अपने भीतर झांकने की शायद ही कभी इजाजत देता है उस संस्थान के दरवाजे न्यायिक  जिम्मेदारी को स्पष्ट करने के लिए खोल दिए गए हैं। अक्सर देखा गया है की कार्यपालिका और न्यायपालिका में नियुक्तियों को लेकर रस्साकशी चलती रहती है और कोर्ट अपने फैसले के बारे में आम जनता को बताने के लिए बाध्य नहीं होता। जबकि सरकार अपने किसी भी फैसले के बारे में आम जनता को बताने के लिए बाध्य होती है। सार्वजनिक बहस में कभी भी उसपर उंगली नहीं उठाई जाती । लेकिन इस   मामले पर बहुत खुश होने की जरूरत नहीं। क्योंकि, अदालत द्वारा सूचना के अधिकार के आवेदन को स्वीकार करने की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि हो सकता है वह उसे स्वीकार ही ना करे।  ऐसा करने के कई कारण गिना दिए जाएंगे। अभी जो व्यवस्था दी गई है आम आदमी हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में नियुक्तियों और तबादलों के बारे में जानकारी ले सकता है। इस अधिकार के तहत व्यक्तिगत सूचना निर्णयाधीन रहेगी।
      जब यह कानून बनाया गया तो कुछ अप वादों को छोड़कर सब पर लागू करने के लिए कहा गया। जिन अपवादों को छोड़ा गया वह भारतीय कानून की धारा 8 के अंतर्गत आते हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा मसला या जहां तक किसी आपराधिक मामले की जांच जिससे प्रभावित हो ऐसे कुछ अपवाद हैं इसके अलावा सब कुछ सूचना के अधिकार के तहत आता है भारतीय कानून की धारा 24 के तहत खुशियां और सुरक्षा एजेंसियों को छोड़कर यह सब पर लागू होता है। इन एजेंसियों में भी भ्रष्टाचार और मानवाधिकार के मामले में सूचना देनी पड़ती है। यह कानून बहुत व्यापक है इसलिए सुप्रीम कोर्ट इसके अंतर्गत ना आए यह तो अजीब था।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से एक बार फिर आरटीआई कानून की श्रेष्ठता से उभर आई है और एक बार फिर यह कानून न्याय की कसौटी पर खरा उतरा है। यह खासकर इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि सरकार ने लगातार इस कानून को और इससे जन्मी प्रणाली को कमजोर करने की कोशिश करती रहती है। मौजूदा सरकार ने हाल ही में इस कानून में संशोधन करके सूचना आयुक्तों के कार्यकाल और उनके वेतन पर अपना नियंत्रण और बढ़ा दिया इसके पहले भी कई बार इस कार्यालय को कमजोर करने की कोशिशें हुई हैं एक संशोधन के तहत सभी राजनीतिक पार्टियों को इसके दायरे से बाहर रखा गया था।


Wednesday, November 13, 2019

अभी भी मौका है

अभी भी मौका है 

महाराष्ट्र में विधानसभा को निलंबित कर दिया गया है और राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया है। इसका मतलब है की वहां सत्ता के जितने भी दावेदार हैं वह किसी भी वक्त अपेक्षित  समर्थन के  सबूत लेकर राज्यपाल का दरवाजा खटखटा सकते हैं। विशेषज्ञों का मत है कि चुनाव के बारे में चुनाव आयोग की अधिसूचना को नई विधानसभा के रूप शिवसेना और कांग्रेस के बीच सुरती एनसीपी की यह गति शरद पवार की राजनीतिक शास्त्रीय प्रतिगामी माना जा सकता है अब ऐसे हालात नगर चुनाव होते हैं तो बीजेपी के लिए मैदान खुला हुआ है भाजपा सबसे बड़ी पार्टी थी लेकिन सरकार नहीं बना पाए और इसके कारण शिवसेना विचारधारा से विपरीत जाकर सरकार बनाने की कोशिश में लग गई भाजपा इस नई स्थिति को चुनाव प्रचार के दौरान खूब भुना सकती है बाकी दल इस सियासी हालात को कैसे फोन आएंगे यह तो कहीं कोई योजना स्पष्ट नहीं दिख रही है लिया जाएगा। 1994 में एसआर बोम्मई के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उन परिस्थितियों के बारे में व्यवस्था दी थी जहां अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लागू करना जरूरी हो जाता है। विशेषज्ञों का मानना है कि राष्ट्रपति शासन लागू होने के बाद ऐसे परिदृश्य बन सकते हैं कि राष्ट्रपति विधानसभा भंग कर सकते हैं और जल्द चुनाव कराने के लिए कह सकते हैं या विधानसभा को निलंबित रखकर राजनीतिक पार्टियों को सरकार बनाने के राज्यपाल के समक्ष दावा पेश करने की अनुमति दे सकते हैं। अब यह राज्यपाल की प्राथमिकता है कि वह राज्य में सरकार बनने देते हैं अथवा नहीं।
       ऐसा बहुत कम होता है की चुनाव के पूर्व राजनीतिक दलों में जो गठबंधन हुआ और जिस गठबंधन के बल पर बहुमत हासिल हुआ वह सरकार नहीं बना सका। भाजपा और शिवसेना के गठबंधन ने महाराष्ट्र में बहुमत हासिल किया लेकिन यह गठबंधन सरकार नहीं बना सका और वहां राष्ट्रपति शासन लागू हो गया। भाजपा और शिवसेना में यह राजनीतिक समझौता लगभग तीन दशकों से चला आ रहा है। वहां स्थानीय निकायों में, प्रांतीय सरकार में और यहां तक कि केंद्र में भी दोनों पार्टियां शासन में शामिल हैं। दोनों के आदर्श बहुत मिलते जुलते हैं । खासकर हिंदुत्व के मामले में और इसी के कारण इनके रिश्ते भी बड़े मजबूत हैं। अब खटपट शुरू हुई है और महाराष्ट्र में सरकार बनाने के मौके दोनों चूकते जा रहे हैं। "नई भाजपा" फिलहाल विजय रथ पर सवार है लेकिन उस के लिए यह आत्म निरीक्षण का वक्त है। कुछ साल पहले तक भाजपा को कांग्रेस से विपरीत  समझा जाता था । समझा जाता है कि इस पार्टी में लचीलापन है और गठबंधन में आई दरार को पाटने का हुनर भी है। 1996 में जब 13 दिन की सरकार के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई बहुमत हासिल करने से चूक गए थे तब से इस पार्टी के बारे में कहा जाता था यह राजनीतिक विभाजन कर अपना वर्चस्व बढ़ा रही है। लेकिन इस दौरान इसने खुद को इतना काबिल बनाया कि किसी भी गठबंधन के साथ निभा सके।  अब थोड़ा बदलाव आ रहा है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की कमान में कई चुनाव जीतने के बाद अब पार्टी में धीरे-धीरे पुराना लचीलापन खत्म होता जा रहा है।  दूसरों के साथ गठबंधन करने की उसकी इच्छा समाप्त होती जा रही है। महाराष्ट्र और हरियाणा चुनाव के नतीजे भारी बहुमत से भाजपा के दूसरी बार लोकसभा चुनाव जीतने के बाद आए।  यह नतीजे अपने आप में एक संदेश भी हैं। वह कि कोई भी पार्टी मतदाताओं का स्थाई विश्वास नहीं पा सकती है और यह लोकतंत्र के लिए एक अच्छी बात है।
       महाराष्ट्र में जो कुछ भी हुआ शिवसेना के साथ उसके बाद कहा जा सकता है कि महाराष्ट्र में भाजपा ने अपना आखिरी पत्ता खोल दिया। वहां राष्ट्रपति शासन लागू हो चुका है । लेकिन एक सवाल जो सबके मन में आता है कि जब राज्यपाल ने एनसीपी को मंगलवार की रात 8:30 बजे तक का समय दिया तो दोपहर आते-आते हैं उनका मन क्यों बदल गया? शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस की गोटी किसने बिगाड़ दी। अब यह देखना जरूरी है कि इस सारे गेम में किसने सबसे ज्यादा खोया?
जहां तक शिवसेना का प्रश्न है उसने मुख्यमंत्री पद की मांग की थी लेकिन वह नहीं हो सका। अब यहां तो वह सत्ता से बेदखल हो गए और केंद्र में भी मंत्री पद जाता रहा। उधर एनसीपी कांग्रेस के हाथ में सत्ता की लगाम दिखने से आदित्य ठाकरे के करियर का शानदार आगाज होते होते रुक गया। हालांकि शिवसेना सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई है लेकिन शायद ही उसे कुछ हासिल हो पाएगा।
       दूसरी तरफ दुविधा के संक्रमण से पीड़ित कांग्रेस एक बार फिर फैसला नहीं कर पाई। कांग्रेस ने इस सारी प्रक्रिया को विशेषकर राष्ट्रपति शासन लगाए जाने की प्रक्रिया को लोकतंत्र का अपमान बताया है। कांग्रेस के प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने कहा कि राज्यपाल संवैधानिक प्रक्रिया का मखौल उड़ा रहे हैं। सुरजेवाला ने कहा कि चुनाव के पहले सबसे बड़े गठबंधन को सरकार बनाने के लिए बुलाना चाहिए था इसके बाद चुनाव से पहले बने दूसरे गठबंधन को बुलाना चाहिए था और राज्यपाल सिंगल पार्टियों को बुला रहे थे। उन्होंने कांग्रेस को क्यों नहीं बुलाया? सुरजेवाला का आरोप है राज्यपाल ने समय का मनमाना आवंटन किया। भाजपा को 48 घंटे दिए और शिवसेना को 24 घंटे तथा एनसीपी को 24 घंटे भी नहीं। जो लक्षण दिखाई पड़ रहे हैं उससे ही लगता है कि महाराष्ट्र  कांग्रेस चाहती थी कि सरकार को समर्थन दे दिया जाए लेकिन सोनिया गांधी ने ऐसा कुछ नहीं किया और मामला धरा का धरा रह गया। अब हो सकता है आने वाले दिनों में कांग्रेस में टूट-फूट हो।
       जहां तक एनसीपी की बात है तो शरद पवार को कांग्रेसियों से बातचीत के लिए अधिकृत किया गया था और कांग्रेस के सुशील कुमार शिंदे के साथ एनसीपी की बातचीत चल रही थी।  बात चलती रही और उधर बात बिगड़ गई। अब क्या भाजपा को यह भनक लग गई कि शायद शिवसेना ,एनसीपी और कांग्रेस में बात बन जाए और उसने अपना पत्ता चल दिया ।
वैसे महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा विधायक दल के नेता देवेंद्र फडणवीस का मानना है कि सरकार न बनने के कारण राष्ट्रपति शासन लगना दुर्भाग्यपूर्ण है। क्योंकि महागठबंधन के पक्ष में स्पष्ट जनादेश था। उन्होंने उम्मीद जताई है की जल्दी ही स्थिर सरकार बनेगी साथ ही उन्होंने अस्थिरता से होने वाले खतरों को लेकर आगाह किया है।

शिवसेना और कांग्रेस के बीच झूलती एनसीपी की यह गति को शरद पवार की राजनीतिक प्रक्रिया का प्रतिगामी माना जा सकता है। अब ऐसे हालात अगर चुनाव होते हैं तो बीजेपी के लिए मैदान खुला हुआ है। भाजपा सबसे बड़ी पार्टी थी लेकिन सरकार नहीं बना पाई और इसके कारण शिवसेना विचारधारा से विपरीत जाकर सरकार बनाने की कोशिश में लग गई। भाजपा इस नई स्थिति को चुनाव प्रचार के दौरान खूब भुना सकती है बाकी दल इस सियासी हालात को कैसे भुनाते हैं यह तो कहीं कोई योजना स्पष्ट नहीं दिख रही है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि सरकार बनाने के मौके अभी भी हैं बशर्ते राजनीतिक तालमेल हो और उस तालमेल के पक्के सबूत हों। उनके साथ राज्यपाल से पार्टियां मुलाकात करें और राज्यपाल को यह विश्वास दिलाने में कामयाब हो सकें कि सरकार कायम रहेगी। अगर ऐसा नहीं होता है यह मौका भी हाथ से निकल जाएगा तथा चुनाव की रणभेरी बज उठेगी जो ऐसी स्थिति में लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं है।


Tuesday, November 12, 2019

हिंदू राष्ट्र से लेकर आर्थिक गतिरोध तक

हिंदू राष्ट्र से लेकर आर्थिक गतिरोध तक 

शनिवार को देश की सबसे बड़ी अदालत ने फैसला दिया ,राम मंदिर वहीं बनेगा जहां 1992 तक बाबरी मस्जिद थी। यह फैसला बहुत ही महत्वपूर्ण है और आस्था एवं देश को  तीन दशकों से  नियंत्रित करने वाली सियासत के दोराहे के चतुर्दिक घूम रहा है। अब कानूनी जंग खत्म हो गयी और देखना है कि इस बिंदु से वह कौन से दिशा होगी जिधर आने वाले दिनों में भारतीय राजनीति अपना कदम बढ़ाएगी। 1947 में जब भारत आजाद हुआ तो हिंदू राष्ट्रवाद हाशिए पर खड़ा एक विचार था। 1947 के बाद के कुछ दशकों तक हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी जनसंघ की  लोकसभा में बहुत मामूली उपस्थिति थी और यह पार्टी कुछ ही राज्यों में सिमटी हुई थी। जनसंघ से पार्टी का नया रूप बदलकर भारतीय जनता पार्टी हुआ और 1984 के लोकसभा चुनाव में इसे केवल 2 सीटें मिलीं। 1980 के दशक के आखिरी दिनों में राम जन्मभूमि का आंदोलन आरंभ हुआ और पूरे देश की राजनीतिक फिजां अचानक बदल गई। हिंदुत्व मुख्य हो गया। इस आंदोलन को व्यापक समर्थन मिला। भाजपा ने एक कदम और आगे बढ़ाया और आंदोलन का उग्र स्वरूप सामने आया। बाबरी मस्जिद ढहा दी गई । इसके बाद राज्यों में हिंदुत्व की लहर फैल गई।  गौ मांस विरोधी कानून सख्त हो गया, धर्म परिवर्तन पर कठोर अंकुश लग गया तथा धर्मनिरपेक्षता मजाक की बात हो गई । भारतीय संघ ने  नई दिशा की तरफ कदम बढ़ाना शुरू किया वह कदम था हिंदू आईडियोलॉजी के लक्ष्य को प्राप्त करना।
        अब सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया और  इस फैसले ने एक तलाश है राम जन्मभूमि के आंदोलन को स्वीकृति दे दी यह समझने के लिए कि धर्म और सत्ता किस तरह आपस में घुल मिल गई फैसले को समझना जरूरी है सुप्रीम कोर्ट ने राम मंदिर बनाने के लिए किसी निजी संस्था को आदेश नहीं दिया है, बल्कि मोदी सरकार द्वारा गठित एक ट्रस्ट को यह जिम्मेदारी सौंपी गई है। इस जमाने में जो आदर्श, जो आईडियोलॉजी हाशिए पर थी और उस आईडियोलॉजी की बात करने के लिए या सत्ता के गलियारे हैं उस बात को सुने जाने के लिए चरमपंथी आंदोलन का रास्ता अख्तियार किया गया था। वह आज भारत का सहज ज्ञान हो गया है। भाजपा ने हिंदू राष्ट्र बनाने के लक्ष्य की ओर कदम बढ़ाना शुरू किया। हिंदुत्व के विकास में भारतीय जनता पार्टी के विकास अंतर्निहित हैं। जबकि 1986 में कोर्ट के आदेश पर बाबरी मस्जिद का ताला खुलवा कर वहां  पूजा करने के लिए  अनुमति दिए जाने के रूप में राम जन्मभूमि के आंदोलन को वस्तुतः कांग्रेस ने हवा दी थी लेकिन देखते ही देखते भाजपा ने उस पर कब्जा कर लिया है और ऐसा जन आंदोलन आरंभ किया जो बाबरी मस्जिद को जाता है। पड़ा और आज वहां मंदिर बनने जा रहा है जहां बाबरी मस्जिद थी। महज दो दशक बाद भाजपा को लोकसभा में साधारण बहुमत मिला और उसके बाद धीरे-धीरे उसकी पकड़  भारत राष्ट्र पर मजबूत होती गई। हमारे लिए यानी देश की जनता के लिए बहुत ही संतोष का विषय है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शासनकाल में राम मंदिर का मामला सुलझ गया। अब भाजपा एक ऐसी पार्टी नहीं है जिसे लोकसभा में केवल बहुमत हासिल है बल्कि एक ऐसी पार्टी बन गई है जो देश का विचार गढ़ रही है। जैसा कांग्रेस में 1947 के पहले और बाद में किया था अब जब भारत राष्ट्र का इतिहास दोबारा लिखा जाएगा तो यह काल स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा। इन सारी स्थितियों से उभरकर एक निष्पत्ति सामने आती है वह है कि हिंदुत्व का विकास मुस्लिम विचारधारा को हाशिए पर धीरे-धीरे लाने के बाद ही हुआ और या आगे भी जारी रहेगा ,उदाहरण के लिए 2014 में लोकसभा में मुसलमानों का अनुपात 1951 के बाद सबसे कम था। सामाजिक आर्थिक आंकड़े भी बताते हैं की मुस्लिमों की आर्थिक स्थिति आज तक बहुत खराब थी। यहां तक कि दलितों के मुकाबले भी वह अच्छी नहीं थी। कानून भी बने तो वह भी कुछ ऐसे जो मुस्लिमों को अलग-अलग करने वाले थे। जैसे अपनी पत्नी को छोड़ने के लिए केवल मुस्लिम ही दंडित किए जाएंगे। इधर अर्थव्यवस्था की हालत यह है कि गरीबों को जीवन यापन करना कठिन होता जा रहा है। गरीब रोटी का एक टुकड़ा नहीं मांग सकते हैं ।  पर सिक्किम मिल रहा है ,पीओके का झुनझुना बजाने को मिल रहा है। इस तरह की कई चीजें प्राप्त हो रही हैं। 2019 में तो कमाल ही हो गया। भाजपा के मन में यह बात थी कि अगर मंदिर बनता है या मंदिर के पक्ष में फैसला होता है तो यह भारत के लोगों का ध्यान आर्थिक गतिरोध तथा सामाजिक दुरावस्था से विचलित कर देगा। भाजपा जो चाहती थी वही हुआ। चारों तरफ  बात चल रही है कि अगले ही कुछ वर्षों में मंदिर का निर्माण हो जाएगा। यहां वास्तविकता यह लग रही है की बाबरी मस्जिद की जगह पर राम मंदिर बनाने का मुख्य लक्ष्य भारतीय राजनीति के दायरे में एक नई स्थिति का सृजन करना है जो अति राष्ट्रवाद के पर्दे में सारी कमियों को छुपा दे। शनिवार को जो फैसला आया फिर ठीक उसी दिन रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने मुस्लिम पर्सनल लॉ समाप्त किए जाने की बात शुरू कर दी। अब केवल अयोध्या ही नहीं था हिंदुत्व विचारधारा के लोगों से अगर बात की जाए तो वह बताते हैं कि बहुत से मंदिर हैं जिन्हें तोड़कर मस्जिदें  बनाई गई है और आने वाले दिनों में इन मस्जिदों पर बात हो सकती है। वैसे उम्मीद नहीं है कि बहुत जल्दी इन चीजों के बारे में भी भाजपा बात करें लेकिन यह आवश्यक है कि जब जरूरत हुई तो यह पत्ते भी फेंके जा सकते हैं।


Monday, November 11, 2019

सहमी हुई है खुशी चारों तरफ

सहमी हुई है खुशी चारों तरफ 

सोमवार के अखबारों की सुर्खियां देशभर में सहमी हुई  खुशी की ओर इशारा कर रही हैं। ऐसे हालात के बरअक्स मंदिर फैसले पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का देश के नाम संबोधन को अगर देखें तो पता चलेगा भाषण बड़ा ही मधुर था।  नरेंद्र मोदी का घोर विरोधी भी उस भाषण में कोई कमी नहीं निकल सकते। उस भाषण से तीन सुर थे। पहला की एक लंबे समय के बाद सुप्रीम कोर्ट ने आखिर मामले को निपटा ही दिया और इसी के साथ एक विभाजन कारी मसला खत्म हो गया। अब समय है नकारात्मकता को भूलकर आगे बढ़ा जाए । सचमुच अगर देश  को अब तरक्की करनी है और एक समावेशित समाज के रूप में खुद को प्रस्तुत करना है तो यह जरूरी है। प्रधानमंत्री के भाषण से एक दूसरा स्वर यह निकला कि 9 नवंबर को ही बर्लिन की दीवार गिराई गई थी। बर्लिन की दीवार एक बिंब है जिसने शीत युद्ध के दौरान दुनिया को बांट दिया था। बर्लिन की दीवार गिराए जाने का बड़ा ही दिलचस्प उदाहरण है। मंदिर की रोशनी में यह बात उन्होंने अयोध्या के प्रसंग में नहीं बल्कि करतारपुर साहब के प्रसंग में कही। करतारपुर के गलियारे उद्घाटन भी 9 नवंबर को हुआ। इसने भारत और पाकिस्तान के बीच एक धार्मिक सेतु का निर्माण किया। इसके लिए भारत और पाकिस्तान दोनों ने अपने झगड़ों को भुलाकर मिलकर काम किया था। मोदी जी के भाषण से तीसरा स्वर सामने आता है वह है कि अब सुप्रीम कोर्ट ने राम मंदिर बनाने के लिए हरी झंडी दिखा दी। अब देश के सभी नागरिकों को राष्ट्र निर्माण में खुद को लगा देना चाहिए। उन्होंने भाषण के आखिर में ईद उल मिलाद की बधाई भी दी। इसमें हिंदू मुस्लिम एकता का स्वर साफ सुनाई पड़ रहा था।
     दूसरी बार सत्ता में आने के बाद मोदी और भाजपा सरकार ने अपने हर उस वादे को पूरा कर दिया जो वह अभी तक अपने मतदाताओं से खासकर हिंदू मतदाताओं से करती आ रही थी। उन्होंने मुस्लिम मतदाताओं के लिए भी समान आचार संहिता जैसे तीन तलाक पर रोक इत्यादि का काम खत्म कर दिया। अब सवाल है कि आगे क्या हो? बाकी करने के लिए क्या बचा है? 2014 में जब मोदी जी आए थे तो उन्होंने कई वादे किए थे, जैसे अच्छे दिन, विकास और रोजगार, अधिकतम शासन न्यूनतम सरकार इत्यादि। लेकिन पिछले 3 साल से अर्थव्यवस्था - रोजगार की स्थिति बिगड़ती जा रही है। 2019 में हिंदू राष्ट्रवाद और गरीबों के खाते में करोड़ों रुपए डाले  और देश के करोड़ों वोटरों को अपनी आर्थिक तंगी को भूल जाने के लिए फुसलाने में सफल हो गए। इसके बल पर जनादेश हासिल हो गया। लेकिन अब?
        आगे बढ़ने के पहले कुछ ऐसी बातें चिंतनीय है जिनका असर आगे हो सकता है। 5 जजों की पीठ ने अयोध्या का फैसला दिया है। बेशक इस फैसले में वजन है लेकिन यह सामूहिक और प्रतियोगिता मूलक दावों  के रास्ते आड़े आएगा। यह फैसला सांप्रदायिक शिनाख्त तथा आस्था पर प्रभाव भी डाल सकता है। यहां जो सबसे मूलभूत प्रश्न है वह है  कि क्या इसके बाद सब कुछ ठीक हो जाएगा? वह जो हो रहा है वह सब बंद हो जाएगा। लेकिन शायद ऐसा नहीं होगा ? आने वाले दिनों में हो सकता है कि इस मामले को लेकर अदालत में अपील ना हो या कोई याचिका दायर ना हो पर पूरी संभावना है कि देश भर में ऐसे कई स्थल हैं जिनकी सूची तैयार होगी और उनके लिए भी इसी तरह के मामले आरंभ होंगे और अयोध्या का फैसला उसका आधार बनेगा। वैसे देश थक चुका है मंदिर मस्जिद विवाद  और सांप्रदायिक भेदभाव से। अब जरूरत है कि कोर्ट के फैसले के बाद यह सब खत्म हो जाए और सब लोग मिलजुल कर सौहार्दपूर्ण ढंग से देश के निर्माण में जुटे जैसा कि प्रधानमंत्री ने कहा है ।
         अब देश में अमन कायम करने के लिए सरकार को कश्मीर में पाबंदियों में रियायत देकर हालात हो सामान्य बनाने की कोशिश करने के  साथ  ही पाकिस्तान से तनाव कम करने और कुछ ऐसा करने की जरूरत है कि लोग उसके नाम से उग्र ना हों। सरकार को बालाकोट में बमबारी, सर्जिकल स्ट्राइक जैसे जुमलों को इस्तेमाल कर आक्रामकता को बढ़ावा नहीं देना चाहिए । सरकार को  चाहिए कि सब देश की खुशहाली के लिए काम करें और जनता को यह महसूस  होने दें सब बराबर हैं। किसी से कोई भेदभाव नहीं है और देश खुशहाली की ओर बढ़ रहा है। बेरोजगारी खत्म हो रही है जब तक ऐसा नहीं होगा तनाव कायम रह सकता है।


Sunday, November 10, 2019

भारत की भूमि पर एक सदी का सबसे बड़ा फैसला

भारत की भूमि पर एक सदी का सबसे बड़ा फैसला 

104 वर्षों से विवाद में फंसे राम मंदिर का 9 नवंबर 2019 को फैसला हुआ। सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों ने सर्वसम्मति से यह फैसला सुनाया। 9 नवंबर बड़ा ही ऐतिहासिक दिन है इस दिन कई दीवारें गिरीं और आस्था के माध्यम से दिलों को मिलाने के लिए कई नए पुल बने। इतिहास को देखें इसी दिन यानी 9 नवंबर को ही बर्लिन की दीवार गिराई गई थी और जर्मनी एक हो गया था। इसी दिन करतारपुर साहिब कॉरिडोर खोला गया और भारत और पाकिस्तान के सिखों के दिल मिल गए। यही नहीं 104 बरस पुराने अयोध्या विवाद इसी दिन खत्म हुआ और इस फैसले से भारत के इतिहास में शांति और सौहार्द का एक नया सुनहरा पृष्ठ जुड़ गया।
      पूरे मामले में जो सबसे दिलचस्प तथ्य है वह है सुप्रीम कोर्ट द्वारा रामलला विराजमान को एक पक्ष स्वीकार किया जाना। 1989 में जब बर्लिन की दीवार गिराई गई थी उसी वर्ष हिंदू पक्ष में रामलला विराजमान को भी इस विवाद को मिटाने के लिए एक पक्ष बनाने का फैसला किया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस फैसले के बाद दो बहुत ही महत्वपूर्ण बातें कहीं। एक तो उन्होंने कहा यह राम रहीम नहीं भारत की भक्ति का वक्त है और दूसरी बात राष्ट्र को संबोधित करते हुए उन्होंने कही कि आपसी सद्भाव तथा सौहार्द बनाए रखें। पहली बार मोदी जी ने कोई चुनौतीपूर्ण बात नहीं कही ,नाही किसी को ललकारते हुए कुछ ऐसा कहा जिससे किसी को बुरा लगे। उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों को एक होकर राष्ट्र निर्माण में आगे आने का आह्वान किया।
      इस पूरे मामले में जो सबसे महत्वपूर्ण तत्व है वह है सुप्रीम कोर्ट ने माना कि रामलला का भी हक बनता है और उनकी भी हैसियत है। धर्म और आस्था के इस इंटरप्ले में सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला आज के युग में बहुत मायने रखता है। राम हमारी संस्कृति के न केवल अगुआ थे बल्कि आपसी सौहार्द के ज्वलंत प्रतीक भी थे।
       वक्त और फैसले का कुछ ऐसा सामंजस्य रहा कि अब तक विरोध में खड़े मुस्लिम समाज  के नेता भी अपना सुर बदलते दिखे और उनका नजरिया भी शांति सौहार्द तथा राष्ट्रीयता का दिखा। शाही इमाम अहमद बुखारी ने स्पष्ट कहा किस देश में शांति रहनी चाहिए यह हिंदू मुस्लिम बंद किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा, फैसला मुसलमानों के पक्ष में नहीं आया है लेकिन इसे माना जाएगा और इसे मानने के लिए देश के मुसलमान भी तैयार हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री के बयान पर उम्मीद जाहिर की कि मुल्क में सांप्रदायिक सौहार्द बढ़ेगा। अब इस फैसले को चुनौती नहीं दी जानी चाहिए। कोर्ट का फैसला मान लिया जाना चाहिए। इस फैसले पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए जमीयत उलेमा ए हिंद के  मौलाना अरशद मदनी ने कहा कि यह फैसला हमारी अपेक्षा के अनुकूल नहीं है लेकिन सुप्रीम कोर्ट सर्वोच्च संस्था है उन्होंने देशवासियों से अपील की इस फैसले को हार जीत की दृष्टि से ना देखें और भाईचारा बनाए रखें।
       ऊपर रामलला की चर्चा की गई थी यह चर्चा इसलिए भी आवश्यक है कि पहली बार किसी अदालत ने राम को एक सामाजिक अस्तित्व माना है और इसी अस्तित्व के कारण हमारे समाज में समरसता और सौहार्द के लक्षण स्पष्ट होने लगे हैं।  मानव जीवन में एक धारावाहिकता है और मनुष्य में सामाजिक रूप से जीवन और अनुभूति के स्तर पर गुणात्मक विकास होता रहा है। यह मनुष्य का एक समग्र मनोविज्ञान है इस मनोविज्ञान के बाद ही जातियों तथा धर्मों का अस्तित्व आरंभ होता है। यही कारण है कि हर विद्वेष के बाद मनुष्य कर्म प्रयोजन और सापेक्षवाद के स्तर पर इतिहास की चीज बन जाता है। इस प्रकार परस्पर वार्ता के स्तर पर मानव जीवन में एक अजस्रता होती है इसीलिए व्यक्ति और समाज में अटूट संबंध होता है। अभी तक धार्मिक बिंब या प्रतीक चिन्ह इस संबंध को कायम रखने का प्रयास करते थे। कई बार कामयाबी भी मिली और कई बार नहीं। लेकिन इस फैसले में रामलला को शामिल किए जाने से सबसे बड़ी उपलब्धि हुई है वह है विषय और अर्थ जो कभी पृथक थे वह आपस में जुड़ गए और भविष्य का पशु व्यवहार भी अर्थ क्रियात्मक हो गया। जो इतिहास था उसमें व्यक्ति और समाज की भूमिका पृथक थी लेकिन इस फैसले के बाद मानव विकास के इतिहास में समय लगता है लेकिन यहां व्यक्ति और समाज दोनों ही समान रूप से प्रधान हो गए और इसमें कोई प्राथमिक नहीं रह गया। मनुष्य की की मानवीय प्रवृत्ति सामाजिक होती जा रही है और मनुष्य अनेक मनुष्य के साथ एक सामान्य जीवन में भागीदार होना चाहता है। यही कारण है कि सांप्रदायिक तनाव से युक्त हमारे समाज में अचानक समरसता और सौहार्द की शुरुआत होती दिख रही है और यह शुभ लक्षण है। इस देश के भविष्य के लिए राम मंदिर का फैसला धार्मिक या आस्था का स्तर पर चाहे जो हो लेकिन सामाजिक स्तर पर उसकी यह भूमिका प्रशंसनीय है और देश के सभी नागरिकों तथा नेताओं को इस स्थिति को और मजबूत करने के प्रयास करने चाहिए। यही कारण है कि इसे यहां इस सदी का भारत भूमि पर सबसे बड़ा फैसला कहा गया है।


Friday, November 8, 2019

देश को अयोध्या के फैसले का इंतजार

देश को  अयोध्या के फैसले का इंतजार 

जैसी उम्मीद है एक हफ्ते के भीतर चार दशकों  से चल रहे अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ जाएगा।  बहस इस बात पर नहीं है कि फैसला किस पक्ष के लिए होगा या फैसले में क्या होगा? चिंता इस बात की है कि फैसले के बाद क्या होगा ? देश का हर आदमी चाहता है कि शांति बनी रहे और कोर्ट का फैसला मान लिया जाए। अयोध्या में भी भारी चिंता व्याप्त है। पूरा शहर धड़कते दिल से तरह-तरह की आशंकाओं के बारे में अनुमान लगा रहा है। जैसी कि खबरें हैं पूरा अयोध्या शहर किले में तब्दील हो गया है। राज्य सरकार की पुलिस के अलावा केंद्र सरकार ने भी चार हजार अर्धसैनिक बलों को वहां भेजा है । रेलवे ने अपने पुलिस कर्मियों की छुट्टियां रद्द कर दीं हैं। प्रशासनिक स्तर पर किसी भी अप्रिय स्थिति से निपटने की पूरी तैयारी है। जगह-जगह पुलिस पैदल चलने वालों को और मोटरसाइकिल सवारों को चेक कर रही है उनकी तलाशी ली जा रही है। राम मंदिर जन्मभूमि के भीतर भी चारों तरफ आगंतुकों पर नजर रखी जा रही है। अयोध्या के बाहर धार्मिक और राजनीतिक स्तर पर विचार अलग-अलग लेकिन लगभग सभी चिंतित हिंदुओं में विचार है कि राम जन्मभूमि स्थल उन्हें सौंप दिया जाना चाहिए। मायावती ने ट्वीट कर कहा है समस्त देशवासी  अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हर हाल में सम्मान करें । इसके अलावा मायावती ने केंद्र और राज्य सरकारों से भी अपनी संवैधानिक और कानूनी जिम्मेदारी निभाने और जनमानस के जानमाल  की सुरक्षा सुनिश्चित करने की अपील की है।
            सुप्रीम कोर्ट में राम मंदिर मामले में सुनवाई पिछले महीने खत्म हो चुकी है। अब देशभर की निगाहें  इस मामले में कोर्ट के इस फैसले पर टिकी हुई है। फैसला आने से पहले लोगों में सद्भाव बनाए रखने के लिए सरकारों की तरफ से भी प्रयास हो रहे हैं। पंचकोशी परिक्रमा से लेकर अलग व्यवस्था की गई है। ड्रोन से अयोध्या शहर की निगरानी की जा रही है। अजोध्या को लेकर स्थानीय प्रशासन ने शांति समितियां बनाई हैं। इन समितियों में शामिल लोग जिले के गांव में जाकर लोगों से शांति और प्रेम बनाए रखने की अपील कर रहे हैं। बाहर के जिलों में दर्जनों की संख्या में अस्थाई जेल बनाए गए हैं । स्कूल और अन्य निजी बिल्डिंग्स को अस्थाई जेल के लिए चिन्हित किया गया है। अयोध्या के हर इलाके में अर्धसैनिक बलों की तैनाती है। गृह मंत्रालय ने इस फैसले को देखते हुए सभी राज्यों को सलाह दी है कि वे सतर्क रहें। कुछ लोगों का मानना है फैसला 13 से 16 नवंबर के बीच किसी भी दिन हो सकता है। ज्यादा संभावना 13 नवंबर या फिर 14 नवंबर को है। सुप्रीम कोर्ट के कैलेंडर को अगर देखा जाए तो वहां कार्य दिवस 7 और 8 नवंबर ही हैं। इसके बाद 9, 10, 11 और 12 नवंबर को छुट्टी है। 13 नवंबर को कोर्ट खुलेगा। 16 नवंबर को शनिवार और 17 नवंबर को रविवार है। चीफ जस्टिस रंजन गोगोई 17 नवंबर को रिटायर कर जाएंगे यानी  फैसला 15 नवंबर के पहले हो जाना चाहिए।
         अगर इस मामले पर कोई ठोस फैसला नहीं आता और इस फैसले को देश के अधिकांश लोग मानने से इनकार कर देते हैं तो स्थिति बहुत जटिल हो जाएगी। भारत का विभिन्न जातियों में बटा समाज अपने-अपने नजरिए से पूरी स्थिति का विश्लेषण करने लगेगा और वह विश्लेषण एक प्रतिक्रिया को जन्म देगा जिससे व्यापक अंतर्विरोध पैदा हो जाएगा। भारतीय जनता पार्टी की मौजूदा राजनीति कई तरह के परम्यूटेशन और कंबीनेशन से जुड़ी है। जो अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग है। अयोध्या का मामले का फैसला हिंदुओं के पक्ष में हो या ना हो यह आने वाले दिनों की सियासत की नई दिशा तय कर सकता है। देखना यह है कि वह दिशा किधर जाएगी। इस बारे में अभी से कुछ भी कहना बहुत जल्दीबाजी होगी। जो कुछ भी होगा वह वक्त बताएगा।
       


Thursday, November 7, 2019

रक्षक ही अरक्षित है

रक्षक ही अरक्षित है 

समय की विडंबना है कि हमारी रक्षा के लिए बनाई गई पुलिस खुद अरक्षित है। हम रोज  पुलिस के साथ  राजनीतिज्ञों  और उनसे जुड़े हुए लोगों के दुर्व्यवहार देखते हैं, सुनते हैं, अखबारों में पढ़ते हैं  और  यह कह कर  टाल देते हैं  कि ऐसा  तो होता ही है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है अभी हाल में दिल्ली में एक अद्भुत घटना हुई है। दिल्ली प्रदेश के पुलिस कर्मचारियों ने कमिश्नर के कार्यालय के समक्ष उपस्थित होकर मांग की उनकी सुरक्षा हो। ऐसा कोई दूसरा उदाहरण है भारतीय पुलिस के इतिहास में नहीं । झगड़ा किस बात का हुआ कि बात यहां तक आ गयी। तीस हजारी कोर्ट के समीप पार्किंग के विवाद को लेकर वहां कानून की हिफाजत करने वाले वकीलों ने पुलिस की पिटाई कर दी। उनका दावा है कि पुलिस ने गोलियां चलाई जिससे  वकील घायल हो गए और उसी की प्रतिक्रिया के स्वरूप यह सारा बवाल हुआ। इसके बाद दिल्ली की सभी अदालतों के वकील हड़ताल पर चले गए । अजीब बात है! अब अगर इस घटना की समुचित जांच हो तभी हकीकत सामने आएगी। लेकिन अगर इस पूरी घटना को अपराध शास्त्रीय दृष्टिकोण से विश्लेषित करें तो दो प्रवृतियां उभरकर सामने आ रही हैं । पहली कि , हमारा समाज तत्काल न्याय चाहता है और वह न्याय भीड़ की कार्रवाई द्वारा मुहैया कराया जा रहा है।  दूसरा, पुलिस के उच्चाधिकारी और साधारण पुलिसकर्मी के बीच दूरियां बढ़ती जा रही हैं।
        हमारे समाज में कानून की प्रतिष्ठा समाप्त होने के कई उदाहरण हैं इनमें सबसे महत्वपूर्ण है कानून को लागू करने में ढिलाई और पक्षपातपूर्ण ढंग से कानून को लागू करने की प्रवृत्ति। कई मामले तो ऐसे भी देखे गए हैं जिसमें पुलिस खुद कानून की परवाह नहीं करती। खुल्लम-खुल्ला लोग कानून का उल्लंघन करते हैं और या तो अपने रुतबे की धौंस  दिखाकर या फिर पुलिस कर्मचारियों से सांठगांठ करके मामला रफा-दफा कर दिया जाता है। हालात धीरे-धीरे बिगड़ते गए और अब विश्रृंखलता पैदा हो गई। हालात बेकाबू होने लगे हैं । लिंचिंग करने वाली भीड़ के लोग कैमरे के सामने डिंग मारते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है हमलावरों को पिछले हमले के बाद कोई सजा नहीं मिली। वह कानून के पंजे से बचा लिए गए। यह सब राजनीतिज्ञों के सहयोग से होता है । क्योंकि अपराधी उनकी पार्टी के सदस्य होते हैं। अब यह जो बचने की और बचा लिए जाने की प्रक्रिया है वह चारों तरफ फैल गई है । कुछ दिन पहले बुलंदशहर में इंस्पेक्टर सुबोध कुमार को मार डाला गया  क्योंकि वह गौ रक्षकों की भीड़  से एक कथित गौ हत्यारे को बचाना चाहते थे। जहां तक पुलिस का पक्ष है तो उसे देखने से ऐसा लगता है कि केवल कानून हीनता ही मुख्य कारण नहीं है या कि चुनौती नहीं है बल्कि उनके अधिकारियों की प्रभावहीन भूमिका भी इसमें सहयोग करती है।
             यह स्पष्ट होता जा रहा है कि पुलिस के बड़े अधिकारियों का पूरी तरह राजनीतिकरण हो गया है। यहां तक कि वे अक्सर अपनी मुश्किलों के लिए राजनीतिक वर्ग को दोष देते हैं । लेकिन वरिष्ठ अधिकारी राजनीतिक सांठगांठ से ही काम करते हैं। क्योंकि इससे उनके कैरियर को लाभ होता है।  अच्छी जगह नियुक्ति होती है। वरिष्ठ अधिकारी खासकर आईपीएस अधिकारी पुलिस सुधार की बात करते हैं लेकिन उसकी बात कभी नहीं करते या उसमें कोई दिलचस्पी नहीं लेते हैं जो उनके अधिकार क्षेत्र में है । वे पुलिस कर्मचारियों के रहन सहन और कामकाज की स्थिति को सुधारने में कोई दिलचस्पी नहीं लेते। वह हथियारों के आधुनिकीकरण ,संचार व्यवस्था में सुधार और आधुनिक औजारों की बात करते हैं। लेकिन कभी भी ट्रेनिंग के स्तर की बात नहीं करते।
       अभी समय आ गया है कि पुलिस के बड़े अधिकारियों को पुलिस में सुधार की बात गंभीरता से उठानी होगी। क्योंकि पुलिस एक सेवा है पुलिस  बल नहीं है।


Wednesday, November 6, 2019

पाकिस्तान को कश्मीर से नहीं अफगानिस्तान से ज्यादा खतरा है

पाकिस्तान को कश्मीर से नहीं अफगानिस्तान से ज्यादा खतरा है

कश्मीर का मसला क्षेत्रीय और ग्लोबल एजेंडे से मिट नहीं सकता लेकिन पख्तून का सवाल है जो पाकिस्तान के और इस उपमहाद्वीप के भविष्य को हमेशा शंकित करता रहेगा सदा भयभीत करता रहेगा। हरदम एक प्रकार का भय बना रहेगा। जमायत उलेमा ए इस्लाम के नेता मौलाना फजलुर रहमान का आरोप है पाकिस्तानी सत्ता भारतीय एजेंडे को आगे बढ़ाने में लगी है। मौलाना ने कहा है कि इमरान खान ने ही कहा था कि "अगर मोदी दोबारा सत्ता में आ जाते हैं तो कश्मीर का विवाद खत्म हो जाएगा।" रहमान का कहना है कि इमरान खान अयोग्य हैं और उन्होंने कश्मीर को बदलाव से रोका नहीं। इस्लामाबाद में भारत पर चारों तरफ से आरोप लगाए जा रहे हैं । पाकिस्तानी सत्ता ने आरोप लगाया कि अफगानिस्तान और तालिबान के झंडे इस देश में चारों तरफ लहराए जा रहे हैं। मौलाना ने इसे फालतू बात कहते हुए नकार दिया। हालांकि मौलाना ने अपने समर्थकों से कहा है कि वे तालिबान का झंडा नहीं लहराएं। लेकिन  उन्होंने जनता को यह भी स्मरण दिलाया कि पाकिस्तान और अन्य देशों की सरकारें तालिबान को गले लगा रही हैं।
     चाहे जो हो, मौलाना और इमरान दोनों तालिबान के समर्थक रहे हैं। इस्लामाबाद में यह माना जा रहा है भारत एक खतरा है तथा तालिबान दोस्त। इस जुमले में एक कटु सत्य है जो पाकिस्तानी नहीं देख पा रहे हैं और ना समझ पा रहे हैं । पाकिस्तान को सबसे बड़ा खतरा अफगानिस्तान से है, कश्मीर से नहीं। कश्मीर के बारे में जो पाकिस्तान में बड़बोला पन चल रहा है और दिल्ली के प्रति जो खीझ पैदा हो रही है वह उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना महत्वपूर्ण अफगानिस्तान में गृह युद्ध की संभावनाएं हैं। अरसे से भारत और पाकिस्तान दोनों मुल्कों में एक रहस्य को हवा दिया जा रहा है कि जब तक कश्मीर पर पूर्ण नियंत्रण नहीं होगा तक तक भारत या पाकिस्तान के राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया संपूर्ण नहीं होगी। एक दूसरी कहानी है कि जम्मू कश्मीर क्षेत्रीय सुसंगति हकीकत को विचलित कर देती है । यहां कई विविधता पूर्ण क्षेत्र एक जगह आ जुटे हैं। तीसरी बात यह घूम रही है कि कश्मीर का जियोपोलिटिकल महत्व ऐसा है कि यह दुनिया का सबसे खतरनाक परमाणु युद्ध का स्थल बन गया है। यह रहस्योद्घाटन वाशिंगटन में परमाणु अप्रसार के समर्थकों ने किया था ।  ये लोग सदा भारत और पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रमों को खत्म करने में जुटे रहते थे। इस इस कथा से पाकिस्तान ने एक नया सबक सीखा। उसने परमाणु की अपनी रणनीति के माध्यम से दुनिया को ब्लैकमेल करना शुरू किया और दुनिया के विभिन्न देशों ने परमाणु के आतंक के दबाव में दिल्ली को यह समझाना शुरू किया कि वह अपनी जमीन छोड़ दे । एक और कहानी बीच में जुड़ती है, जिसके अनुसार भारत और पाकिस्तान में विवाद का मुख्य विंदु कश्मीर है । लेकिन किसी भी तरह से यह स्पष्ट नहीं है कि यदि भारत पाकिस्तान के साथ कश्मीर का मसला हल कर ले तो रातों-रात पाकिस्तान-भारत  दोस्त हो जायेंगे। भारत और पाकिस्तान के  विवाद की चड़ बंटवारे की विरासत में गहराई तक घुसी हुई है। यही नहीं बात तो यह भी चलती है कि  भारत कश्मीरियों को मुक्त कर दे और यदि रावलपिंडी अंतरराष्ट्रीय समुदाय को  इतने दबाव में डाले कि उनके चलते भारत कश्मीर छोड़ने पर मजबूर हो जाए। पाकिस्तान से अपने विवाद में अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप को लेकर दिल्ली भी भीतर -भीतर आतंकित थी।  इस मामले में  दिल्ली की तरफ से पाकिस्तान को सिर्फ एक रियायत मिली की 1947 -48  में यह मामला राष्ट्र संघ में ले जाया गया।
       कई युद्ध और सैनिक कार्रवाई  के बाद भी कश्मीर का मसला हल नहीं हो सका। अब कहा जाता है कि इस उपमहाद्वीप के उद्भव में कश्मीर मुख्य रहा है । कश्मीर यकीनन पाकिस्तान के लिए एक अत्यंत भावना प्रधान मसला रहा है। दोनों देशों में यह विभाजन की ऑडियोलॉजिकल विरासत रहा है। रावलपिंडी के सेना मुख्यालय के लिए यह 1971 के बदले का आधार भी रहा है। कश्मीर भारत-पाक के बीच राजनीति का मुख्य आधार भी है।
           उपमहाद्वीप पर कश्मीर में गतिरोध और अफगानिस्तान के प्रभाव की तुलना करें तो इतिहास में अब तक उपमहाद्वीप पर जितने बड़े सैनिक अभियान हुए हैं वह अफगानिस्तान की तरफ से हुए हैं। आज के जमाने में या कहें कि पिछले 4 दशकों में अफगानिस्तान ने दुनिया को क्या दिया? 1978 में सोवियत कब्जे के दौरान सोवियत सेना के खिलाफ पाकिस्तान समर्थित जिहादी दुनिया के हर कोने से एकत्र किए गये और उन्हीं के माध्यम से पाकिस्तान की हुकूमत ने  जन समुदाय को कट्टर इस्लाम की घुट्टी दी। पाकिस्तान में तालिबान और अल कायदा का विकास हुआ। अमेरिकी फौज पर लगातार हमले होते रहे और अब अमेरिका वहां से बाहर निकलना चाहता है और यह  तालिबान की वापसी का एक संभावित वक्त है। कश्मीर का गतिरोध कायम रहेगा लेकिन यह अफगानिस्तान की रणनीति है जो क्षेत्रीय व्यवस्था को एक बार फिर गड़बड़ाएगी और इसका सबसे बुरा असर पाकिस्तान पर पड़ेगा। कश्मीर में फिलहाल जो हालात हैं उससे भारत में बहुत कुछ नहीं बिगड़ेगा सिवा इसके कि पाकिस्तान प्रत्यक्ष रूप में भारत पर हमला कर दे और यह आशंका लगातार बनी हुई है। यही नहीं ,अगर इमरान खान को सत्ता से हटा दिया गया और वहां मौलाना सत्ता में आ गए तो एक बार अपनी लोकप्रियता को प्रदर्शित करने के लिए मौलाना जरूर भारत की तरफ रुख करेंगे। लेकिन इससे कुछ होने वाला नहीं है उल्टे पाकिस्तान में कट्टर इस्लामीकरण   की मांग बढ़ जाएगी जो आने वाले वक्त में विश्व के लिए खतरा बन सकती है।