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Wednesday, January 31, 2018

भारत में शिक्षा

भारत में शिक्षा
हर साल देश में शिक्षा की स्थिति पर रिपोर्ट जारी होती है उसने लंबी लंबी बातें होती हैं ,आंकड़े होते हैं और बाद में उन आंकड़ों पर बहस होती है।  इस वर्ष भारत में हालात कुछ दूसरे और ऐसा लगता है इस पर अलग से सोचना जरूरी है। यह वर्ष ऐतिहासिक रूप से शिक्षा के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि पहली बार शिक्षा का अधिकार प्राप्त बच्चे आठवीं तक पहुंचे हैं। शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2010 में बना था। यानी, ये बच्चे 8 वर्ष तक स्कूली शिक्षा में रहे हैं। अब हम बहुत अच्छी स्थिति में है कि इनके बारे में गंभीरता से सोचें कि 8 बरस स्कूली शिक्षा में बिताने के बाद इन बच्चों में क्या-क्या बदला है।
   देश में शिक्षा की स्थिति के लिए दो आंकड़े हैं पहला ए एस ई आर  और दूसरा जिलावार शिक्षा रिपोर्ट, जिसे नेशनल अचीवमेंट सर्वे ( एन ए एस)कहते हैं। अभी हाल में एन ए एस की रिपोर्ट जारी हुई। इस रिपोर्ट में आमतौर पर 14 से 18 वर्ष आयु वर्ग के छात्रों पर ध्यान दिया जाता है। यह रिपोर्ट देश के ग्रामीण क्षेत्रों पर ज्यादा फोकस करती है और इसमें बुनियादी शिक्षा के अलावा भी कई चीजों का आकलन किया जाता है।  इसमें यह देखा जाता है कि बच्चे पढ़ने में कैसे हैं और गणित जैसे जटिल और उलझन भरे विषय को वे किस तरह समझते हैं। यह एक तरह से बच्चों के समझने के मनोविज्ञान का आकलन किया जाता है ।  ए एस ई आर की रिपोर्ट में गणित और उसके संदर्भ में दैनिक जीवन में छात्रों के विकास का आकलन किया जाता है। उसमें यह नहीं देखा जाता है कि कोई छात्र परीक्षाओं में कैसा नंबर लाया है। आठवीं कक्षा के छात्र कुछ ऐसे होते हैं जो छपे हुए पाठ को  पढ़ लेते हैं लेकिन उसे समझते नहीं हैं। कुछ ऐसे होते  जो नहीं छपता है उसे भी समझ लेते हैं।  किसी भी चीज को खासकर गणितीय समस्याओं को समझने में सक्षम हो जाते हैं। 2017 के आंकड़े बताते हैं कि बच्चे अब ज्यादा समझदार और समस्याओं को सुलझाने में ज्यादा दक्ष हो रहे हैं। इन आंकड़ों को देखने से ऐसा महसूस होता है कि अब सामान्य शिक्षण से अलग सबके लिए शिक्षा पर जोर देना जरूरी है। हर साल वित्त मंत्रालय बजट तैयार करता है और  उसके लिए विभिन्न स्तरों पर विचार-विमर्श करता है। हाल में ऐसे विचार विचार विमर्श के दौरान सुझाव दिया गया था कि शिक्षा विकास कोष मुहैया कराया जाए। यहां शिक्षा विकास का मतलब शिक्षण का विकास नहीं है,  सीखने की प्रवृत्ति को विकसित करने से है और इसके लिए कोष। शिक्षा में विकास के लिए जरूरी है योजना प्रक्रिया में उसके लिए अलग से धन मुहैया कराया जाए। लेकिन जब बात स्कूल मुहैया कराने से शिक्षा मुहैया कराने की तरफ आती है तो समस्या उसके लागू होने में हो जाती है।
आज हमारे पास पर्याप्त आंकड़े हैं जिसके बल पर यह समझा जा सकता है कि भारत में शिक्षा का संकट खासकर सीखने का संकट बढ़ता जा रहा है। जबकि बच्चे सीखने को उत्सुक हैं। अब समय आ गया है कि शिक्षण और शिक्षा दोनों को विकेंद्रित कर शिक्षा पर विशेष बल दिया जाए जिससे बच्चों में वह गुण आ सके जिसका उद्देश्य शिक्षा में निहित है। यह रिपोर्ट का एक पक्ष है।  ए सी ई आर 2017 की कमी यह है कि इस रिपोर्ट को एकतरफा कहा जा सकता है , क्योंकि इसमें देश के ग्रामीण क्षेत्रों को शामिल नहीं किया गया है । जिला राज्य स्तर राष्ट्रीय स्तर के आंकड़े प्रस्तुत किए गए हैं। यह रिपोर्ट देश के 24 राज्यों के 28 जिलों के सर्वेक्षण के आधार पर तैयार की गई है और इसमें 14 से 18 वर्ष के  बच्चों  को चुना गया है।  उम्र के केवल 14.4 प्रतिशत बच्चे ही स्कूल या कॉलेज में पंजीकृत नहीं हैं,हलाकि उम्र बढ़ने के साथ-साथ इस संख्या में अंतर आना शुरू हो जाता है। मसलन, 14 साल की उम्र के केवल 5.3% बच्चे, 17 साल की उम्र के  20.7 प्रतिशत बच्चे तथा 18 साल की उम्र के तकरीबन 30.2% बच्चे हाई स्कूल में  दाखिला नहीं ले पाते हैं। वस्तुतः इस सर्वेक्षण में देश के 10% आबादी ही शामिल है।  यह आंकड़े गंभीर हालात की ओर इशारा करते हैं। इसके अलावा हाई स्कूल में नामांकन  के मामले पर भी इस रिपोर्ट में प्रकाश डाला गया है। दाखिले में उम्र के साथ-साथ लड़कियों की संख्या में तेजी से कमी आने लगती है। एक ओर 14 वर्ष की आयु वर्ग के लड़के और लड़कियों का नामांकन अनुपात लगभग बराबर है वहीं दूसरी तरफ 18 साल की उम्र पहुंचते-पहुंचते 28% लड़कों की तुलना में 32% लड़कियां स्कूल कॉलेज जाना बंद कर चुकी होती हैं। एक और चौंकाने वाली बात है कि एनडीपी में के चलन में आने के बाद से बच्चों की सीखने की क्षमता लगातार कम होने लगी है । रिपोर्ट के मुताबिक कक्षा 5 के 48 प्रतिशत यानी कह सकते हैं कि लगभग आधे बच्चे क्लास 2 की किताब ठीक से नहीं पढ़ पाते हैं। दूसरी तरफ गवई इलाके के तीसरी क्लास में पढ़ने वाले मात्र 45% प्रतिशत बच्चे सामान्य भाग बनाने में समर्थ  होते हैं। ग्रामीण  स्तर पर बच्चों में अंग्रेजी पढ़ने की क्षमता तेजी से कम हो रही है। रिपोर्ट के मुताबिक लड़कियां इसलिए स्कूल छोड़ती हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालयों का अभाव है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि स्कूलों में बड़ी संख्या में शौचालय का निर्माण किया गया है लेकिन सच तो यह है उनमें में से बहुत से शौचालय बेकार हैं। प्राथमिक शिक्षा की बदहाली का मुख्य कारण शिक्षा पर होने वाले खर्च में भारी और असमानता है । चौंकाने वाली बात है कि  केरल में प्रति व्यक्ति शिक्षा पर 42 हजार रुपए खर्च होते हैं जबकि बिहार और कई अन्य राज्यों में महज 6हजार रूपए । जनसंख्या के लिहाज से सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में  70% बच्चे पांचवी कक्षा के बाद पढ़ाई-लिखाई छोड़ने को मजबूर हो जाते हैं । जाहिर है इसके लिए हमें समावेशी नीति बनानी होगी ताकि शिक्षा का उचित विस्तार हो सके। क्योंकि शिक्षा ही देश के विकास के लिए आवश्यक है।

Tuesday, January 30, 2018

प्रभावित हो सकता है भारत का विकास दर

प्रभावित हो सकता है भारत का विकास दर

सोमवार को सरकार ने संसद में 2018 का आर्थिक सर्वेक्षण पेश किया। सर्वेक्षण में कहा गया है कि यह वर्ष विकास के तौर पर  धीमा रहा पर अगले देश के आर्थिक विकास की दर 6.75% रही पर अगले साल इसमें सुधार हो सकता है और यह बढ़कर 7% से 7.5% तक हो सकता है।

विकास दर बढ़ने का कारण है नोटबंदी और सरकार द्वारा उठाए गए अन्य सुधारात्मक कदम। सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद  सुब्रमण्यम ने आर्थिक सर्वेक्षण में कहा है कि सरकार अर्थव्यवस्था में समुचित मांग पैदा कर रही है। नरेंद्र मोदी की सरकार आर्थिक सुधारों  को लाकर विकास गति दे रही है। साथ ही , सर्वेक्षत में चेतावनी दी गई है कि वैश्विक जोखिम बढ़ रहा है ,जैसे तेल की  कीमत और पूंजी का देश से बहिर्गमन। इससे ऋणात्मक प्रभाव पड़ सकते हैं। आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया है कि भारत में कर चुकाने वाली आबादी में  18 लाख नये करदाता जुड़े हैं। यह जीएसटी और नोटबंदी का प्रभाव है। हलांकि यह यह संख्या कुल करदाताओं के 3% ही है लेकिन संख्या बढ़ी तो है। सर्वेक्षण में कहा गया है कि सरकारी उपायों से भारत अस्थाई तौर पर ही सही एशिया के तीसरे सबसे बड़े अर्थव्यवस्था के रूप में उभरा है। हालांकि यह आंकड़े 2016 के नोटबंदी के उथल पुथल वाले वक्त के हैं। सर्वेक्षण में कहा गया है कि जो  कर दाता बढ़े हैं उनमें अधिकांश निचले टैक्स स्तर( स्लैब ) के हैं।
वित्त मंत्री द्वारा संसद में 2019 वित्त वर्ष के बजट पेश किए जाने के 3 दिन पहले प्रस्तुत आर्थिक सर्वेक्षण में मुख्य आर्थिक सलाहकार ने यह भी कहा है कि सरकार की नीतियां निवेश को बढ़ावा देने वाली होनी चाहिए। अभी निवेश में प्रोत्साहन को दोबारा  लाना बहुत जरूरी है सर्वे में बताया गया है कि मैक्रो आर्थिक व्यवस्था को स्थाई किया जाना चाहिए और एयर इंडिया की बिक्री प्राथमिकता में रखनी चाहिए। सर्वेक्षण में आगे कहा गया है सरकार लाभ नहीं कमाने वाले बैंकों को बंद कर दे। हाल में सरकार ने बैंकों के लिए एक लाख करोड़ की पूंजी का बंदोबस्त किया था, लेकिन इसका उपयोग कैसे होगा इसकी कोई ठोस व्यवस्था नहीं की गई थी, ना ही बैंकों के विलय की योजना बनाई गई थी।  मध्य अवधि के लिए सर्वे में कहा गया है कि रोजगार शिक्षा और कृषि पर ध्यान दिया जाना चाहिए। निर्यात के बारे में सर्वेक्षण में कहा गया है कि इसमें प्रतियोगिता का अभाव हो गया है और यह हाल के वर्षों से बढ़ा नहीं है । जिसका नतीजा हुआ कि भारत के निर्यात में कमी आई और उत्पादन क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पाद में से हिस्सा घट गया। 2 वर्षों तक निर्यात ऋणात्मक रही है लेकिन अब 2016 -17 में उसमें धनात्मक गति देखी जा रही है और आशा है कि 2017 -18 में तेजी से बढ़ेगी। सुब्रमण्यम स्वामी ने सर्वेक्षण में इस वर्ष के लिए भारतीय कृषि विकास को 2.1 प्रतिशत बताया है। इसके पहले साल यह 4.2% था ।सर्वेक्षण में चेतावनी दी गई है कि सरकार  किसानों की आय को 2022 तक  दोगुना करने की जो बात कह रही है उसके लिए वह समुचित कदम उठाने होंगे। खासकर लक्ष्यहीन सब्सिडी बंद करनी होगी और तकनीक में सुधार कर सिंचाई की मुकम्मल व्यवस्था करनी होगी।  सर्वेक्षण में चेतावनी दी गई है कि वातावरण और पर्यावरण का कृषि प विकास पर प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है। इससे कृषि आय में 20 से 25% तक कमी हो सकती है। इसलिए पर्यावरण में सुधार जरूरी है। अगर ऐसा नहीं होगा तो कृषि अर्थ व्यवस्था में कमीआएगी। सर्वे में जहां सरकार की पीठ ठोंकी गई है वहीं कई चेतावनियां भी दी गयीं हैं।इन चेतावनियों पर अगर ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाला समय कष्टदायक हो सकता है।

Monday, January 29, 2018

गांधी आज भी मौजूद हैं

गांधी आज भी मौजूद हैं
आज महात्मा गांधी की पुण्यतिथि है। बेशक गांधी जी की हत्या हुई और इससे उनका शरीर खत्म हो गया। लेकिन, इसके बाद भी गांधी हमारे बीच हैं और उनकी मौजूदगी तो हमें एहसास होता रहता है। मृत्यु के बाद गांधी  भारत और दक्षिण अफ्रीका के रहकर  पूरे विश्व के हो गए। हैरत होती है दूर कि दूर अमरीका और इंग्लैंड में स्कूली बच्चे गांधी पर लेख लिखते हैं। कभी बातें होती हैं तो वे गांधी के बताए हुए सबक के बारे में जानने को इच्छुक दिखाई पड़ते हैं। बच्चे पूछते हैं कि गांधी जी ने क्या सबक दिया? गांधी अक्सर कहा करते थे कि" मेरी जिंदगी प्रेम और सत्य के लिए ही है।" सत्य और प्रेम से ही हिंसा और नफरत खत्म होती है ,बदले की भावना समाप्त होती है और प्रेम बढ़ता है। आज पूरा विश्व नफरत की आग में झुलस रहा है। आए दिन अखबारों में देखने को मिलता है कि किसी देश में या किसी स्थान पर फसाद हो गए दर्जनों लोग मारे गए या आहत हो गए। अजीब सी वितृष्णा हो जाती है। क्या कारण है? मनोवैज्ञानिक युद्ध से सत्य पराजित होता दिखता है।  हमारे ही देश में  भी दिलों में नफरत पाले हुए लोग गांधी को इनकार करने में लगे हैं। वे नहीं सोचते कि गांधी का मरना अहिंसा की हत्या थी। जो ज्ञानगुमानी हैं वे इसी में लगे हैं कि गांधी को मारा नारा किसने?  किसने मारा इस बात की विवेचना से अलग यह जानना जरूरी है कि गांधी के मरने से क्या मर  गया? गांधी कहा करते थे कि "आंख के बदले आंख  लेने  की भावना गलत है। " क्योंकि अगर यह भावना जारी रही तो जल्द ही एक ऐसा समय आएगा सब लोग अंधे हो जाएंगे। अब से लगभग 15 साल पहले अमरीका में एक संगठन बना था "ग्लोबल इंटरफ़ेस पीस।" इस संगठन के लोग बगदाद जाकर वहां के निर्दोष नागरिकों की हिफाजत में जुटे हुए थे। इस तरह की भावनाएं विभिन्न देशों  में भी देखने को मिलती हैं। जब इराक युद्ध चल रहा था तो न्यूयॉर्क टाइम्स ने खबर दी थी कि" सैकड़ों कार्यकर्ता लंदन से इराक के लिए रवाना हुए हैं जो वहां जाकर निर्दोष नागरिकों के लिए मानव कवच की तरह काम करेंगे।" इसका आयोजन "ह्यूमन शील्ड इराक" नामक संगठन की ओर से किया गया था। ये लोग गांधी के समर्थक थे या विरोधी मालूम नहीं पर ये हिंसा के विरोधी थे। बहुत से जानते होंगे कि  उस युद्ध में  80% मारे गए या घायल लोग निर्दोष महिलाएं और बच्चे थे, सैनिक नहीं थे। लंदन में अध्यापनरत एक मित्र ने बताया, केवल लंदन विश्वविद्यालय में सौ से ज्यादा छात्र गांधी पर शोध कर रहे हैं।

  कई शहरों से खबरें आती हैं, ये शहर भारत के ही नहीं विदेशों के भी हैं ,जहां व्यापारिक तौर पर गांधी के नाम और चित्र का  इस्तेमाल व्यापारिक लाभ किया जाता है। कुछ दिन पहले लंदन में एक टी-शर्ट आई थी जिसका नाम गांधी टी-शर्ट था और  कहा जाता था कि अब फुटबॉल के मैदान में अहिंसा को बढ़ावा देने का प्रयास शुरू किया गया है। यही नहीं गांधी पर कई कार्टून भी बनाए गए हैं जिसमें उनका मजाक उड़ाया गया है। जितने मुंह इतनी बातें होती हैं। अगर मनोवैज्ञानिक रूप में देखें तो पाएंगे कि गांधी अधिकांश लोगों के मन में मौजूद हैं और इनका सबके लिए कोई न कोई विशेष महत्व है। आज उनकी पुण्यतिथि है और उम्मीद की जाती है कि लोग कुछ क्षण रुक कर गांधी के बारे में सोचेंगे । गांधी की अहिंसा को अगर सोचें तो एक बात सामने आएगी । 
बिजली बनके थी शमशीर चली
पर आप आप ही मुकर गई 
कहते हैं गांधी के सीने में जाकर तलवार स्वयं ही टूट गई।

Sunday, January 28, 2018

हम क्या थे क्या हो गए आज

हम क्या थे क्या हो गए आज

बीते हफ्ते के आखिरी कुछ दिन को याद करें। 25 जनवरी गणतंत्र दिवस के ठीक एक दिन पहले जबकि बहुत से लोग इस बात का इंतजार कर रहे थे समाज सेवा और देश सेवा के लिए कितने लोगों को पद्मश्री और पद्मभूषण मिले वहीं दूसरी तरफ दिल्ली की सड़कों पर स्कूली बस पर पथराव  हो रहे थे। टेलीविजन पर इस घटना को देखकर यकीन नहीं आ रहा था कि हमारे देश में ऐसा हो रहा होगा। लेकिन, शिक्षक बच्चों से हिंदी में बोल रहे थे कि "सीट के नीचे छुप जाओ ताकि पत्थर और कांच के टुकड़े  ना लगें।" बात हिंदी में हो रही थी इसलिए लगा कि घटना भारत की है वरना महसूस हो रहा था किसी दूसरे देश में हो रहा होगा।  गणतंत्र दिवस के दिन उत्तर प्रदेश के कासगंज में सिर्फ इसलिए मारपीट हो गई कि एक संप्रदाय के लोग सड़क पर ध्वजारोहण कर रहे थे और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ता उधर से मोटरसाइकिल जुलूस निकालना चाह रहे थे। दोनों पक्षों के हाथों में तिरंगे थे और दोनों लड़ रहे थे। इस घटना की भगौलिक स्थिति से दूर दावोस में हमारे प्रधानमंत्री दुनिया के सामने भाषण दे रहे थे कि "हमारा देश वसुधैव कुटुंबकम का समर्थक है " और उसकी पृष्ठभूमि में गणतंत्र दिवस समारोह में शामिल होने के लिए विदेशी मेहमान भारत आ रहे थे।            पूरी घटना को एक साथ रख कर देखें तो बड़ा अजीब लगेगा,  मानो हम किसी अवास्तविक हॉरर फिल्म के बीच में पहुंचे हैं। ऐसा क्यों हो रहा है देश में ? फिल्म रिलीज करने को लेकर मारकाट हो जा रही है और उसमें शामिल लोग या  मारकाट करने वाले लोग खुलेआम घूम रहे हैं । इन लोगों को गिरफ्तार नहीं किया जा रहा है। कानून और व्यवस्था को बनाए रखना सरकार का कर्तव्य है लेकिन ऐसा लग रहा है कि जो सरकार के पक्ष में है वह इससे मुक्त है। कभी यह लोग गो रक्षकों के वेश में आते हैं, तो कभी ऐसे राष्ट्रभक्तों के वेष में कि जो उनके  मत का समर्थन ना करते हों वे दूसरे राष्ट्र के गुप्तचर या दलाल हैं या समर्थक है और उन्हें खत्म कर दिया जाना चाहिए। वे कभी दलितों और अल्पसंख्यकों के विरोध में खड़े दिखाई पड़ते हैं। लेकिन इन सारी स्थितियों  में अंतर्निहित जो तथ्य है वह है एक खास किस्म की गुंडागर्दी जो सरकार के समर्थन से चलती है। हर बार हिंसा होती है कभी प्रधानमंत्री देश के सामने तो कभी ट्विटर पर माफी मांग लेते  हैं और इसे विपक्षी दलों के षड्यंत्र की संज्ञा देकर हाथ जोड़ लेते हैं या कभी चेतावनी देते हैं। यह अविश्वसनीय है कि वे जिस राजनीतिक दल की ओर इशारा करते हैं वह लोक सभा में  बमुश्किल 44 सीटें बचा पाया है और वह इस स्तर पर इतने व्यापक फसाद का षड्यंत्र कर सकता है । 
    इस पूरी घटना के मनोविज्ञान का अगर विश्लेषण करें तो स्पष्ट पता चलता है कि कुछ लोग ऐसे हैं जो सत्ता में रह कर भी निहित स्वार्थ के लिये इन उपद्रवियों को मदद कर रहे हैं । उपद्रवियों को  लगातार आश्वासन मिल रहा है जो कुछ हो रहा है इससे उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा। पूरे देश में एक खास किस्म का आतंक व्यापा हुआ है और ऐसे में प्रधानमंत्री दावोस जाते हैं और विदेशी निवेशकों से अपील करते हैं कि वे भारत में निवेश करें। एक विदेशी निवेशक , जो भारत के बारे में यहां की समाज व्यवस्था के बारे में बहुत कम जानता है । उसे इन फसादों को समझने में बड़ा वक्त लगेगा। वह समझ नहीं पा रहे हैं इसका मतलब क्या है। बेशक प्रधानमंत्री उन निवेशकों के अगवानी में गलीचे बिछायें  लेकिन उन्हें तो ऐसा लगता होगा कि उन गलीचों के नीचे खंजर छिपे हुए हैं। वे नहीं समझ पा रहे होंगे कि यह हो क्या रहा है?   प्रधानमंत्री का दावोस से स्वदेश लौटना और गणतंत्र दिवस समारोह में विदेशी अतिथियों का स्वागत करना इस चकाचौंध से जरा आगे बढ़ कर यह जानने की कोशिश तो करें कि आज हमारे बच्चे आजादी और लोकतंत्र के बारे में क्या समझते हैं ? उन्हें क्या मालूम है कि स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस में क्या फर्क है?  शायद नहीं फेसबुक पर तिरंगे लेके तस्वीर लगा देने और शहीद सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के अलावा उन्हें कुछ नहीं मालूम है कि साल भर में इसके अलावा और क्या होता है? इन्हें नहीं मालूम है कि " हिंदू और मुसलमान की जगह बड़े और मोटे अक्षरों में भारतीय क्यों लिखा जाना जरुरी है?" प्रधानमंत्री कहते हैं भारतीय सभ्यता दुनिया की प्राचीनतम सभ्यता है, लेकिन जरा  ठहरिए  और  समझिए  यह देश है क्या, हमारे गणतंत्र की खूबी क्या है? अगर हम इसे नहीं जानते तो फिर इतने फसाद क्यों ?इतना प्रचार क्यों?  एक तरफ कहा जाता है कि" कुछ बात है जो हस्ती मिटती नहीं हमारी " और दूसरी तरफ कहा जाता है कि "जरा सोचें कि हम क्या थे और क्या हो गए आज।"

Thursday, January 25, 2018

हमारा गणतंत्र दिवस और हम 

हमारा गणतंत्र दिवस और हम 

जम्हूरियत वह तर्जे हुकूमत है 

जहां बंदे गिने जाते हैं तौले नहीं जाते 

भारतीय गणतंत्र के 68वर्ष पूरे हो चुके हैं। यह देश्ह फख्र से कहता है कि वह विश्व का सबसे बड़ा गणतंत्र राष्ट्र है।  इस देश की स्वतंत्र कराना और यहां एक मजबूत गणतंत्र की स्थापना करना  स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले महानायकों का स्वप्न था। उनहोंने अपने सपने को  लिए यथार्थ में परिवर्तित कर दिया। स्वतंत्रता संग्राम एक महानायक सुभाषचंद्र बोस ने नारा दिया  था ",...तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा।.."  बेशक खून भी बहा और आजादी भी मिली। आज हम आजाद हैं, एक पूर्ण गणतांत्रिक ढांचे में स्वतंत्रता की साँस ले रहे हैं। आज हम हर तरह से स्वतंत्र हैं। पर क्या सचमुच एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के नागरिक कहलाने के लिए जो र्शें हैं वे सब हम पूरी करते हैं।  यह सवाल कई बार अक्सर  जेहन में आता है।कभी-कभी लगता है कि हम आज भी गुलाम हैं। बस गुलामी का चेहरा बदल गया है। समाजवैज्ञानिक तौर पर यह सोचना सही भी है। क्योंकि हजारों साल पुरानी हमारी इस सभ्यता को कई बार गुलाम बनाया गया।  कई सभ्यताओं ने हम पर शासन किया। हर बार हम हम उस व्यवस्था से लड़ते रहे। एक आदत सी पड़ गयी है गुलाम रहने की और आजाद हुये तो उसके मायने गलत समझने की। इसी मनो​िस्थति में हम जकड़े होते हैं।  

देश को सम्पूर्ण गणतंत्र राष्ट्र के रूप में अब 68 वर्ष पूरे हो गए हैं। हम निरंतर विकास की ओर ही अग्रसर हो रहे हैं। होना भी चाहिए। फिर भी ऐसी बहुत-सी बातें हैं, जो हमारे विकास के मार्ग में गड्ढे की तरह दिखाई पड़ती हैं। कई बार हम इन गड्ढों में गिर पड़ते हैं और कई बार इन्हें पार करके आगे निकल जाते हैं। 

विकास के पथ पर हम आज बहुत आगे निकल चुके हैं। विश्व में एक उभरती शक्ति के रूप में उभरकर दुनिया के सामने आ रहे हैं। दिनोदिन आईटी, व्यापार, अंतरराष्ट्रीय संबंध और विज्ञान जैसे क्षेत्रों में हमने सफलता के नए आयाम छुए हैं। इस कामयाबी के सोपान से जब हम नीचे देखते हैं तो कई हालात ऐसे दिखते जो चिंतनीय हैं।  

ट्रांसपेरेंसी इंटरनेश्नल.. द्वारा करवाए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में करीब आधी से अधिक जनसंख्या जो सार्वजनिक सेवाओं में कार्यरत है, उनमें से अधिकांश घूस या सिफारिश से नौकरी पाते हैं। जहां हम दिन-रात विकास की मुख्यधारा से जुडऩे के लिए प्रयासरत हैं और अपने समाज को अपेक्षाकृत अधिक अच्छी जीवनशैली देने के लिए जुटे हुए हैं, वहीं कहीं न कहीं हमारे नैतिक मूल्य और आदर्श प्रतियोगिता की इस चक्की में पिसते जा रहे हैं। कितनी अजीब बात है कि 80.5 प्रतिशत हिंदू 13.4 प्रतिशत मुस्लिम, 2.3 प्रतिशत ईसाई, 1.9 प्रतिशत सिक्ख, 1.8 प्रतिशत अन्य धर्म के अनुयायियों वाले इस देश में, जो अपने आप को भाईचारे और सद्भावना का दूत मानता है, आज भी लोगों को खान पान या रहन सहन के कारण मारा जा रहा है। लड़किया बलात्कार का शिकार हो जाती हैं। काले धन और जाति सम्प्रदाय इत्यादि की भावनाएं उभार कर चुनाव जीते जा रहे हैं। 

जहाँ हमारे देश के एक भाग आर्थिक विकास की नई रूपरेखा बनाई जा रही है, वहीं उसी क्षेत्र में भाषा को लेकर तनाव बड़ते जा रहे हैं। दूसरी तरफ देश का दूसरा भाग आज भी जीवन-यापन की मूलभूत समस्याओं से जूझ रहा है। इसी देश में कहीं 4जी का फर्राटा है तो कहीं 24 घंटे बिजली नहीं है।जहाँ रेल परिवहन को तो छोड़िए, सड़कों का भी अता-पता नहीं है। जहां रेलें चल रहीं थी वहां से ट्रेनों की संख्या घटायी जा रही है। 

देश के कई भाग इतने अलग-थलग हो चुके हैं, कि आज यहां पर लोग खुद को राष्ट्र का हिस्सा भी नहीं मानना चाहते हैं। अशिक्षा, बेरोजगारी, अव्यवस्था, असुरक्षा, क्षेत्रीय पक्षपात जैसी कितनी ही बीमारियों से ग्रसित कई पिछड़े राज्यों जैसे कि बिहार, मध्यप्रदेश और झारखंड में अशिक्षित और बेरोजगार नौजवान नक्सलवाद या अन्य आतंकवाद की ओर देख रहे हैं। 

हम गणतांत्रिक देश के निवासी हैं। लोकतांत्रिक चुनावी प्रक्रिया ही हमारे देश का भविष्य लिखती है। लेकिन चुनाव कालेधन और जातिवाद तथ सम्प्रदायवाद के बल पर जीते जाते हैं। राजनीति के इस कीड़े ने हमारे शरीर पर इतने घाव बना दिए हैं कि हमारा स्वरूप ही खराब  दिखने लगा है। 

ऐसा नहीं है कि हम आगे नहीं बढ़ रहे हैं, हम विकास की ओर अग्रसर हैं, पर विकास की गति क्या है, इस पर भी गौर करना पड़ेगा। क्या यही है हमारे पूर्वजों के सपनों का गणतंत्र ? हमें खुद से सवाल पूछना चाहिये कि यह वास्तविक गणतंत्र है और क्या हम अपनी आने वाली पीढ़ी को यह गणतंत्र सौंप कर संतुष्ट हो सकेंगे।  

गजब ये है कि अपनी मौत की आहट सुनते नहीं

सब के सब परीशां हैं कि वहां पर क्या हुआ होगा