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Wednesday, February 28, 2018

होली आनंद रस का सूक्ष्म बोध है

होली आनंद रस का सूक्ष्म बोध है

होली वसंत वसंत के आगमन का प्रतीक है। वह निरंतर प्रवहमान काल के उल्लास की व्यंजना है । वनों में कोयल का स्वर गूंजता है। शब्द- गंध - रस और वर्ण की छवि सब  जगह दिखाई पड़ती है। यह देश का सौंदर्य है काल का सौंदर्य है। उल्लास सदा शीत विरोधी होता है सूरज की किरणें पृथ्वी और आकाश का हर्ष भी प्रकट करती है। काल विश्व के सघन तारतम्य में देश से संबद्ध है जैसे आकाश पृथ्वी से। यदि पृथ्वी आनंद से पुलकित है तो आकाश   केवल शून्य नहीं रह जाता  है। चुंबन का स्पर्श सुख देती हुई वसंत समीर धरती के अलावा आकाश को भी आनंद से चंचल कर देती है। जंगल प्रकृति की रचना शक्ति सिद्ध करते हैं।  वृक्षों के भीतर की लाली पुष्पों के रूप में फूटकर बाहर निकल आती है। पग पग रंग जाते हैं और जगमगाने  लगते हैं। रूप - रस- शब्द-गंध -स्पर्श बोध की एक विशेषता है रूप और गंध परिवर्तित होकर शब्द बन जाते हैं। उल्लास की अधिकता मानव रूप और सौंदर्य की सीमाएं मिटाकर उन्हें अन्य सूक्ष्म स्तर पर पुनर्गठित करती है। यह स्तर सूक्ष्म है किंतु  अतिइंद्रिय नहीं। सूक्ष्मता है रूप या रस के बोध में शब्द या गंध की छाया पहचानने में। धरती और आकाश देश और काल यदि परस्पर सम्बद्ध हैं तो मनुष्य के विभिन्न इंद्रियबोध भी परस्पर क्यों न सम्बद्ध हों। वसंत ऋतु पत्तों नरम की हरियाली केवल दिखाई नहीं देती उसके सूक्ष्म स्वर को सुना भी जा सकता है। इसी सौंदर्य से अभिभूत होकर महाकवि निराला कहते हैं

अमरण भर वरण -गान

वन वन उपवन -उपवन 

जागी छवि खुले प्राण

इसी खुले प्राण के उत्सव का चरमोत्कर्ष है होली। होली का दर्शन रस और सूक्ष्म बोध से भरा हुआ है यह समझ में नहीं आता इस उत्सव पर कहां धरती का सौंदर्य, कहां प्रकृति का और कहां नारी का है। यही कारण है कि होली का सौंदर्य और उसके धुन प्रकृति और नारी के श्रृंगार चित्र से आगे बढ़कर लोक गीत की धुन में भी व्याप गये। वसंत और  उसका उल्लास सरस प्रदेश शब्दों में गुंथ कर भदेस लोकगीतों में भी आ गया। इसी लिये यह लोकोत्सव शास्त्रीय मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाला आनंद की सहज अभिव्यक्ति है।

यही कारण है कि आज भी आधुनिकता के नाम पर बेशक जीवन के अर्थ बदल गये हैं पर गांव-कस्बों तक होली का वही आनंद बिखरा दिखता है। महानगरीय जीवन की अभिजात्यता जरूर उसे कुछ औपचारिकता में ढाल देती है पर समय के बदलाव से होली के रंग फीके नहीं हुये। कृष्ण नृत्य और गायन के उपासक थे इसलिए राधा-कृष्ण की ठिठोली के बिना होली का आख्यान पूरा नहीं होता है। होली के अवसर पर गाये जानेवाले कितने ही फाग राधा-कृष्ण के रंग में सराबोर हैं। इस प्रेम रंग के बिना होली की संकल्पना ही अधूरी जान पड़ती है। होली वस्तुत: भारतीय दर्शन की ही अभिव्यक्ति है कि प्रेम और आनंद के बिना जीवन निरर्थक है। प्रेम और आनंद शरीर मात्र का सुख नहीं है, यह तो आत्मा का शृंगार हैं।  श्रीकृष्ण ने गीता में सब विषय- योगों के बीच या अलिप्त रह कर या कर्तव्य करते हुए भी फल की कामना न करते हुए अपरिग्रह भाव से जीने का रास्ता बताया है। वही प्रेम और आनंद का मार्ग है। राधा और कृष्ण युगल होकर भी असंपृक्त हैं और असंपृक्त होकर भी एकात्म हैं। भारतीय चिंतन और दर्शन की वही विशेषता है जो  हमें होकर भी नहीं होने का हुनर सिखाती  है और न होते हुए भी होने की स्थिति में ला खड़ा करती है। 

हजारों वर्ष बाद भी भारत में उल्लास के साथ होली के रूप में यह परंपरा जीवित है तो इसका अर्थ है कि हम आधुनिकता के इस भौतिक दौर में भी जीवन के सत्य को याद रखे हुए हैं।  होली की ठिठोली में जीवन के इस मर्म को समझ लिया, तो समझिये मुक्ति मिल गयी।

 

Tuesday, February 27, 2018

आज विज्ञान दिवस

आज विज्ञान दिवस
आज विज्ञान दिवस है। अन्य सभी दिवसों के विपरीत यह दिवस अनुसंधान और खोज के उपलक्ष में मनाया जाता है। आज ही के दिन1928 में सर सी वी रमन किरणों के बिखरने की प्रक्रिया का अध्ययन किया था जो रमन प्रभाव के नाम से विख्यात है।  इस खोज के लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार दिया गया था। रमन प्रभाव में एकल तरंग- दैध्र्य प्रकाश (मोनोक्रोमेटिक) किरणें, जब किसी पारदर्शक माध्यम ठोस, द्रव या गैस से गुजरती है तब इसकी छितराई किरणों का अध्ययन करने पर पता चला कि मूल प्रकाश की किरणों के अलावा स्थिर अंतर पर बहुत कमजोर तीव्रता की किरणें भी उपस्थित होती हैं। इन्हीं किरणों को रमन-किरण भी कहते हैं। यह किरणें माध्यम के कणों के कंपन एवं घूर्णन की वजह से मूल प्रकाश की किरणों में ऊर्जा में लाभ या हानि के होने से उत्पन्न होती हैं। इतना ही नहीं इसका अनुसंधान की अन्य शाखाओं, औषधि विज्ञान, जीव विज्ञान, भौतिक विज्ञान, खगोल विज्ञान तथा दूरसंचार के क्षेत्र में भी बहुत महत्व है।  हमारे देश में धीरे धीरे विज्ञान दिवस एक रिवाज में बदलता गया। बस कुछ तख्तियां- झंडे लटका दिए जाते हैँ, सर सी वी रमन  की तस्वीर पर माला चढ़ा दिया जाता है। लेकिन कभी भी इस पर कोई गंभीर विमर्श नहीं हुआ और ना ही इस संदर्भ में देश में विज्ञान की स्थिति पर। हमारे समाज का कर्तव्य है और उसकी भूमिका भी कि युवा इस पर विचार करें कि हमारे नौजवान वैज्ञानिकों को किन मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। यह समय हमें पुनरावलोकन के लिए प्रेरित करता है। विज्ञान दिवस का उद्देश्य है विद्यार्थियों को विज्ञान के प्रति आकर्षित करना तथा विज्ञान और वैज्ञानिक उपलब्धियों के  प्रति उन्हें सजग और सचेत बनाना।  विज्ञान दिवस देश में विज्ञान की  निरंतर उन्नति का आह्वान करता है। इसका उद्देश्य है  परमाणु ऊर्जा को लेकर लोगों के मन में कायम भ्रातियों को दूर करना। इसके विकास के द्वारा ही हम समाज के लोगों का जीवन स्तर अधिक से अधिक खुशहाल बना सकते हैं।

    विज्ञान और तकनीक में भारत की भूमिका प्रशंसनीय है। भारत ने अनुसंधान और खोज के बेहतरीन ढांचे तैयार किए हैं। इसके लिए शिक्षा का भी महत्वपूर्ण प्रबंध हुआ है।  साथ ही शिक्षण के उद्देश्य से ढांचे भी तैयार किए गये हैं। इनमें से कुछ पहल जैसे आई आई टी  की तरह संस्थाएं हैं। अनुसंधान के लिए धन का बंदोबस्त भी हुआ है। अनुसंधानों के लिए संस्थानों का विकास भी किया गया है।  कम समय में उनके नतीजे भी सामने आए हैं।

     भारत ने बड़ी- बड़ी वैज्ञानिक परियोजनाओं में भाग भी लिया है,  मसलन  लार्ज हार्डन  कोलाइडर एंड ग्रेविटेशनल ऑब्जर्वेटरी।  इसमें शिरकत से भारत ने  दुनिया को  यह बता दिया कि  विज्ञान और तकनीक के मामले में वह  किसी से पीछे नहीं है। लेकिन जहां  प्रति लाख प्रतिभाओं पर  विज्ञान में निवेश की बात आती है, खासकर अनुसंधान परियोजनाओं में निवेश पर बात आती है तो भारत खुद को पिछड़ा हुआ पाता है। अन्य विकसित मुल्कों के मुकाबले हमारे देश में अनुसंधान और विकास के लिए सकल घरेलू उत्पाद के 0.69 प्रतिशत निवेश किया जाता है। यह बहुत बड़ी रकम नहीं है। खास करके तब जबकि हम दुनिया के 5 बड़े वैज्ञानिक देशों की बराबरी में खड़ा होना चाहते हैं चीन अपने सकल घरेलू उत्पाद के 2.05 प्रतिशत , ब्राजील 1.2 4% और रशिया  1.19 प्रतिशत निवेश करता है। निवेश के अभाव में हमारे देश से प्रतिभाएं  बहुत तेजी से पलायन कर रही हैं। अब सरकार ने इन प्रतिभाओं को रोके रखने के लिए एक नई  फेलोशिप योजना आरंभ की है ताकि नौजवान वैज्ञानिक अपने  अनुसंधान और  डॉक्टरेट की पढ़ाई पूरी कर सकें। पर   यह सभी योजनाएं अस्थाई हैं।  हमें एक ऐसे वातावरण को तैयार करने की जरूरत है जो प्रतिभाओं को ना केवल आकर्षित करें बल्कि उन्हें यहां रहने भी दें। देश में शिक्षा और अनुसंधान की संस्कृति का विकास करना होगा।  ऐसा विकास आई आई टी  जैसे इलीट संस्थान के अलावा भी करना होगा। 1960  में अमरीकी संस्थान एमआईटी की मदद से आई आई टी  कानपुर की स्थापना की गई। 10 वर्षों के बाद जब इसकी समीक्षा की गयी  तो समीक्षा समिति ने कहा कि  वह चाहते थे एक भारतीय एम आई टी न कि भारत में एम आई टी। टिप्पणी आज भी सही है। क्योंकि हम अपने मुताबिक अपना ढांचा नहीं तैयार कर सके।

 

Monday, February 26, 2018

अगला प्रधानमंत्री कौन?

अगला प्रधानमंत्री कौन?
2019 धीरे-धीरे नजदीक आ रहा है और आम चुनाव की हवा गर्म होती जा रही है। यह सवाल भी पूछा जाने लगा है कि अगला प्रधानमंत्री कौन होगा ? आप में से बहुतों ने एक फिल्म देखी होगी " थ्री ईडियट्स।" इस फिल्म में एक इंजीनियरिंग कॉलेज के निदेशक ने छात्रों से कहता है कि" जिंदगी में नंबर दो को कोई याद नहीं करता। जो कुछ मिलता है नंबर 1 को ही मिलता है।" आज जब राजनीति पर बात चल रही है तो यह जुमला बड़ी तेजी से जेहन में आ रहा है। क्योंकि राजनीति में भी नंबर दो का कोई महत्व नहीं है, सिवा अगला 5 साल का इंतजार और मजाक के। खासकर ऐसी स्थिति में जब आप सत्ता में हो और चुनाव के बाद सत्ता से बाहर आ गए हों।  बड़ा निराशाजनक समां होता है। इसलिए चुनाव भी अव्वल आने की एक जंग है। अव्वल आने के लिए हर नेता हर तरह की चाल ,कुछ रणनीति और कुछ कूटनीति   अपनाता है, बनाता है। इस बार के चुनाव में लगता है कुछ नया होने वाला है। क्योंकि इसके भीतर कई जटिल समीकरण नजर आ रहे हैं। इन्हीं को सामने रख कर  कूटनीतिओं पर काम चल रहा है,  रणनीतियां बनाई जा रही हैं।
पहले संख्या पर बात करते हैं। लोकसभा की 543 सीटों को कांग्रेस और भाजपा जीत सकती है बाकी की सीटें उन क्षेत्रीय पार्टियों के खाते में आ जातीं हैं जो राष्ट्रीय पार्टियों के साथ गठबंधन में है या नहीं हैं। नरेंद्र मोदी को भारत का प्रधानमंत्री बने रहने के लिए यह सुनिश्चित करना होगा कि उनकी 282 सीटों की संख्या 230 से कम ना हो। यानी, कांग्रेस को सौ से कम सीटें मिलें। इधर राहुल गांधी को देश का अगला प्रधानमंत्री बनने के लिए यह सुनिश्चित करना होगा कि कांग्रेस अपनी वर्तमान की 44 सीटों से आगे बढ़कर 130 पहुंच जाए। इसका मतलब होता है भाजपा को 200 से कम सीटें मिलें। इस तरह भाजपा और कांग्रेस को मिलाकर 330 सीटें हुई यहां भाजपा का लक्ष्य 230 से अधिक सीटें जीतना होगा जबकि कांग्रेस चाहेगी 130 से अधिक सीटें हासिल करना।
    यह तो सब जानते हैं सीटें वोटों से मिलती हैं और वोट मतदाता देते हैं।  देश में 10 करोड़ अपंजीकृत मतदाता है इनमें 7.5 करोड़ 18-24 वर्ष के युवक हैं।  बाकी का ढाई करोड़   ऐसे पुराने मतदाता हैं जिन्होंने विभिन्न कारणों से वोट देने के लिए खुद को पंजीकृत नहीं कराया। भारत में 18-24 वर्ष के नौजवानों में से आधे के नाम मतदाता सूची में पंजीकृत नहीं है। यानी 7.5 करोड़ युवा मतदाता सूची में नहीं है। देश में लगभग 10 करोड़ लापता मतदाता हैं। यह उन 33 करोड़ मतदाताओं का हिस्सा हैं जो किसी कारणों से वोट नहीं डालते इनके अलावा 34 करोड़ मतदाता अनिश्चित हैं जिनका वोट किसी भी मुख्य पार्टी को जाना मुश्किल है। कुल मिलाकर इनकी संख्या 67 करोड़ है। 67 करोड़ की संख्या कुल मतदाताओं का दो तिहाई भाग है जिन्हें कोई भी सरकार लपक सकती है। जो पार्टी ऐसा कर सकती है वही सरकार बनाएगी। यह संख्या भाजपा के कुल समर्थकों के 4 गुना और कांग्रेस के कुल समर्थकों के 8 गुना है।
देश के 2 बड़े राज्य उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र जिसमें कुल सीटों की संख्या क्रमशः 80 और 48 है यानी इन दो राज्यों से 128 सांसद चुन कर आते हैं। इनमें भाजपा के 94 और उसके सहयोगी पार्टियों की 20 है मतलब भाजपा को इन दो राज्यों में कुल 128 में से 114 सीटों पर विजय मिली है। भाजपा के खिलाफ कितने उम्मीदवार खड़े होते हैं अगले चुनाव में उनकी सफलता पर का निर्धारण करेगी। जितने ज्यादा उम्मीदवार किसी मुख्य पार्टी के होंगे उतने ही उनके जीतने की संभावना होगी इसलिए अगला चुनाव विपक्षी एकता के स्तर पर निर्भर करता है।

     2014 की तरह चुनावी लहर किसी भी राष्ट्रीय जनादेश के लिए जरूरी है। अगर इस तरह की लहर नहीं होगी तो सदन में मजबूत जनादेश नहीं होगा। भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में केवल 3 बार चुनावी लहर देखने को मिली है। पहली बार 1977 में आपातकाल के बाद ,दूसरी बार 1984 में इंदिरा जी की हत्या के बाद और तीसरी बार 2014 में । चुनावी लहर मतदाताओं को जमा करती है और उन्हें मतदान केंद्रों तक जाने के लिए प्रोत्साहित करती है। अब अगले चुनाव में चुनावी लहर देखने को मिलेगी या नहीं इसका फैसला विभिन्न राज्यों के नतीजों पर निर्भर होगा। यह तो समय बताएगा
  किसी भी पार्टी द्वारा चुनावी लहर पैदा करने के लिए 2-1 विचार जरूरी हैं। वास्तव में घोषणा पत्रों को न कोई पढ़ता है ना कोई इस पर ध्यान देता है । अब अगले चुनाव में कौन से बड़े विचार हैं यह तो समय बताएगा । सामने है कांग्रेस के 7 साल का रिकॉर्ड और आम जनता को 'अच्छे दिन"  देने वाली भाजपा का रिकॉर्ड । भ्रष्टाचार, शासन व्यवस्था और खुद नरेंद्र मोदी।         किसी बड़े विचार को बाजार में डालने के लिए सियासी दल किसी समूह विशेष के मतदाताओं पर ध्यान केंद्रित करती है जिससे उसे वोट मिलने की उम्मीद होती है। इसलिए यह देश के सभी मतदाताओं के लिए नहीं बल्कि मतदाताओं के खास समूह के लिए होता है। 2014 में भाजपा के समक्ष देश का मध्य वर्ग था एक विशेष समूह। लेकिन अब एक भयानक परिवर्तन के बाद चार वर्ष में वह मध्यवर्ग गरीब मजदूर वर्ग में बदल गया है। इसलिए वह जादू शायद काम ना करें

देश में लगभग 10 लाख मतदान केंद्र हैं जिनमें  प्रत्येक में औसतन एक हजार मतदाता वोट डाले जाते हैं, जो औसतन क्षेत्र के 250 परिवारों से आते हैं। मतदान के दिन उन विशेष मतदाताओं को पहचान कर उन्हें मतदान केंद्रों पर आने के लिए प्रोत्साहित करना किसी पार्टी के अंतिम विजय को निर्धारित करता है। ऐसा करने के लिए पार्टियों को कुछ ऐसे कर कार्यकर्ता तैयार करने होते हैं जो बूथ स्तर तक नए मतदाताओं के वोट सुनिश्चित करें और उन्हें वोट डालने के लिए घर से बाहर निकलने के लिए प्रोत्साहित करें।
2014 के बाद देश में स्मार्टफोन और डाटा कनेक्टिविटी का अद्भुत विकास हुआ है । नतीजतन सोशल मीडिया पर बहुत तेजी से विचार साझा हो रहे हैं। कुल मतदाताओं में से आधे से ज्यादा लोगों के पास स्मार्टफोन हैं और वे इंटरनेट का प्रयोग करते हैं । विचार सोशल मीडिया के माध्यम से घर - घर पहुंचेंगे और पार्टियों के बारे में बताएंगे।
आने वाले चुनाव में जो कुछ भी होगा वह हमारे व्यक्तिगत और सामूहिक भविष्य को निर्धारित करेगा। जिसका अतीत के नतीजों से कहीं ज्यादा असर होगा । यह चुनाव एक नया बदलाव ला सकता है। इसलिए जरूरी है कि हम राजनेताओं के और उनके दलों के खेल के बारे में सचेत रहें ।  अपनी सूझबूझ से देश को प्रधानमंत्री प्रदान करें।

Sunday, February 25, 2018

मोदी जी चुप क्यों हैं

मोदी जी चुप क्यों हैं

हीरों के शानदार व्यापारी और बड़े शहरों में ऊंचे तबके के साथ हंसते - मुस्कुराते देखे जाने वाले नीरव मोदी हाल में खबर बन गए। जब से पंजाब नेशनल बैंक  की धोखाधड़ी का मसला उभरा है नीरव मोदी "घर-घर मोदी" की तर्ज पर घर - घर में छा गए। ठीक मैगी और नूडल्स की तरह। शुरु - शुरु में जब पता चला तो वह 11,400 करोड़ के घोटाले का मामला था, जिसे नीरव मोदी ने दिनदहाड़े मार लिया। शानदार कारोबारी के साथ बाद में उसके मामा मेहुल चौकसी और रोटोमैक कलम बनाने वाली कम्पनी के मालिक विक्रम कोठारी का नाम भी जुड़ गया। जो नए आंकड़े सामने आए हैं वह लगभग30,000 करोड़ के और यह राशि दिनों दिन बढ़ती जा रही है। यह एक भयंकर आर्थिक आपदा है इसे ' ग्रेट इंडियन बैंक रॉबरी' कहा जाय तो गलत नहीं  है। एक बैंक खरीदने से बढ़िया है एक बैंक को लूट लेना।
  प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी किसी भी बात पर टिप्पणी करने से चूकते नहीं है। लेकिन इस पर चुप क्यों है ? यह सवाल पूरा देश उनसे पूछ रहा है। हम देखते हैं रोजाना पी एन बी के मामूली अफसरों से पूछताछ हो रही है और मोदी जी के भगत कीर्तन गा -गा कर यह बता रहे हैं इस सरकार ने इस विशाल धोखाधड़ी की जांच शुरू कर दी है और कार्रवाई शुरू हो चुकी है । इसे सिस्टम की गलती यह संज्ञा दी जा रही है। यह एक शातिर चाल है। किसी बड़े भ्रष्टाचार से नजर हटाने की। यह सही नहीं है यह जानबूझकर ऐसा कर रहे हैं। देश का हर आदमी जानता है कि भारतीय बैंकिंग प्रणाली बहुत मजबूत और अचूक है । इसमें सुरक्षा के कई चरण है। अंत में भीतरी और बाहरी ऑडिट भी है । इसके अलावा भारतीय रिजर्व बैंक इन पर नजर रखे रहता है । हमारे देश की बैंकिंग प्रणाली कितनी अचूक है इसका उदाहरण 2008 में अमरीकी बैंकों के फेल होने के बाद के समय से दिया जा सकता है। कई अमरीका  बैंक फैल गया थे लेकिन भारतीय बैंक यथावत रहे। उनके सिस्टम में कहीं छेद नहीं हो सका। पंजाब नेशनल बैंक की मौजूदा धोखाधड़ी इसलिए नहीं हुई उसमें इसे रोकने के उपाय कम थे। यह घटना इंसानी लालच का करिश्मा है। बैंकों की तिजोरियों से रुपया खुद-ब-खुद नहीं उड़ जाता बल्कि लचीली नैतिकता के लोग इस दौलत को उड़ाते हैं। विजय माल्या आराम से निकल गया। मोदी अपने परिवार को लेकर जनवरी के पहले हफ्ते में भारतीय इमीग्रेशन काउंटर से बाहर निकला उसका कुछ नहीं हुआ । 
    2014 से ही बैंकों का एन पी ए बढ़ता जा रहा था । 2018 में 2.36 लाख करोड़ से बढ़कर यह 9.5 लाख करोड़ हो गया, यानी 4 वर्षों में बैंकों का एनपीए 400% बढ़ गया।   सरकार की ओर से बैंक में पूंजी डाली गई, लेकिन वह बहुत देर गई और बहुत कम थी। नीरव मोदी  के बारे में आगे चर्चा करने से पहले एक बार चुनाव बांड योजना पर विचार कर लेना जरूरी है। इससे बात समझने में आसानी होगी। इस योजना के मुताबिक कारपोरेट क्षेत्र से राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदे का सार्वजनिक उल्लेख नहीं किया जाएगा। बाकी सबका किया जाएगा। राजनीतिक पार्टियों के प्रचार में पारदर्शिता की बात का यहखुल्लम-खुल्ला मखौल है।  मुंह पर हथेली रखकर धीरे-धीरे बोलने वाली नरेंद्र मोदी सरकार की एक खतरनाक अदा है। सुनकर हैरत होगी कुछ वर्षों में राजनीतिक पार्टियों को जो.चंदे मिले हैं उनका 80% केवल भाजपा को मिला है। सरकार के दरबारी पूंजीपति भारी लाभ उठा रहे हैं। उन्हें सरकार से लाभ मिलता रहा है और वह चुनावी चंदे के रुप में सरकार को उसका थोड़ा भाग देते रहे हैं। इसलिए घपलेबाजों को पकड़े जाने के आसार बहुत कम दिखाई पड़ रहे हैं।  उन्हें राजनीतिक छत्रछाया हासिल है। वे मज़े से विदेशों में रह रहे हैं और मस्ती कर रहे हैं। कभी यह.भी सोचें कि एक आम आदमी अगर अपने घर के कर्जे की माहवारी किस्त नहीं दे पाता है तो उसके पास बैंक से पहले लगातार फोन आते हैं और बोलने वाले का स्वर लगातार बिगड़ता जाता है। उसके बाद घर पर आकर गाली गलौज शुरू हो जाती है। लेकिन यह धन्ना सेठ कैसे देश का माल समेट कर विदेश भाग जाते हैं। सरकार की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। क्यों?

Friday, February 23, 2018

भाजपा को राज्यसभा में बहुमत शायद ही मिले

भाजपा को राज्यसभा में बहुमत शायद ही मिले
राज्यसभा में 245 सदस्य हैं जिसमें भाजपा के पास 58 और कांग्रेस के पास 54 सदस्य हैं। अप्रैल में चुनाव के बाद यह समीकरण बदल जाएगा। भाजपा को कुछ और सीटें प्राप्त होंगी और कांग्रेस शायद घाटा लगे। इसके बावजूद यह नहीं लगता है कि भाजपा को इस सदन में बहुमत प्राप्त हो जाएगा ऐसा भी नहीं लगता कि भाजपा अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर बहुमत के जादुई आंकड़े को पार कर जाए या वहां पहुंच जाए 2014 में चुनाव के बाद जब भाजपा भारी बहुमत के साथ सत्ता में आई थी तो राजनीतिक पंडितों ने भविष्यवाणी की थी कि 5 वर्ष गुजरते-गुजरते भाजपा का राज्यसभा में बहुमत हो जाएगा लेकिन नहीं हो सका। यह भी कहा गया था किस सरकार अपना एजेंडा लागू करने के लिए संसद का संयुक्त सत्र ही बुला सकती है पर ऐसा भी नहीं हुआ। अब राज्यसभा में बड़ी संख्या होने के कारण कांग्रेस ने जीएसटी को छोड़कर सरकार से कई प्रस्तावों पर उसके दांत खट्टे कर दिए। अब अप्रैल में 55 सीटों पर चुनाव होने वाला जिनमें 18 सीटों पर भाजपा का कब्जा है और 14 सीटों पर कांग्रेस का बाकी सीटों पर अन्य दलों का कब्जा है चुनाव के बाद यह समीकरण बदलेगा जहां यूपी से नए सदस्य भेजे जाएंगे वह कुछ और प्रांतों से भी आएंगे। भारी बहुमत के साथ यूपी की सत्ता में आई भाजपा वहां से 6-7 सीटें मिलने की उम्मीद है बाकी और प्रांतों से मिलेंगी। कुल मिलाकर आशा है भाजपा को 9 सीटें मिलें। ऐसा होने से भाजपा को यहां 27 सीटों का लाभ मिल सकता है और अगर 27 सीटें मिली तो 55 सीटों में कुछ सदस्यों को अवकाश प्राप्त करने के बाद भाजपा को 67 सीटें हासिल हो जाएंगी। पिछले 4 सालों में कई राज्यों में चुनाव जीतने के बावजूद राज्यसभा में भाजपा के पास महज 24% सीटें हैं और अगर इंडिया की सीटें मिला दी जाए तभी वह बहुमत के करीब नहीं पहुंचती है। फिलहाल राज्यसभा में एनडीए के पास 83 सीटें हैं जिम में भाजपा के पास 58 जदयू के पास 7,तेदेपा के पास 6, शिवसेना के पास तीन, शिरोमणि अकाली दल के पास तीन, पीडीपी के पास दो और अन्य सहयोगी दलों के  4 सदस्य हैं। अप्रैल में चुनाव के बाद भाजपा के पास 27% सीटें हो जाएंगे और सहयोगी दलों का मिला दिया जाए तो यह आंकड़ा 35% तक पहुंच जाएगा फिर भी बहुमत से दूर है। अब अगर कोई विधेयक सरकार लाती है तो उसे पास कराना और नाकों चने चबाना बराबर होगा । लोकसभा से पारित होने के बावजूद राज्यसभा में उसे पारित करवाने में कांग्रेस या अन्य सहयोगी दलों की जरूरत पड़ेगी ही। यही कारण है कि तीन तलाक का मामला लटक गया सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद पारित नहीं हो सकता यही नहीं पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने का सरकार का प्रस्ताव अटका पड़ा है। इसके अलावा कई और भी अटके पड़े  हैं। सरकार के पास महज एक साल बचा है और अगर उसे अपने इस कार्यकाल  के लंबित विधेयक पारित करवाने हैं तो उसे विपक्ष की ओर देखना ही पड़ेगा। उधर विपक्ष है कि मोदी जी को रगड़ने तैयारी कर चुका है । खासकर ,आने वाले चुनाव के  संदर्भ में विपक्षी दल मोदी को एक कमजोर इंसान के रूप में  दिखाना चाहते हैं । मोदी जी की बॉडी लैंग्वेज और उनकी बातचीत से झलकते उनके मनोविज्ञान से ऐसा लगता है कि मोदी जी यह महसूस कर रहे हैं कि " कोई समझने की कोशिश नहीं कर रहा है वह इतना कुछ करते हैं , इतना कुछ करना चाहते हैं लेकिन कोई समझना ही नहीं चाहता।" दरअसल बहुमत प्राप्त नेता के साथ यह एक तरह का सिंड्रोम है जो हर काल में हर नेता के साथ होता है और इससे हासिल निराशा को दूर करने के लिए वह नेता अपने चमचों से राय लेने लगता है । वे नेता को वही राय देते हैं जो नेता को सुनने में अच्छा लगे । नेहरू ने भी कुछ ऐसा ही किया था ,नतीजन 1962 का चीन युद्ध हो गया । इमरजेंसी के काल में इंदिरा जी ने भी ऐसा ही किया ।हालात इतने बिगड़े कांग्रेस बुरी तरह से पराजित हो गई।राज्यसभा के विपरीत समीकरण और सिर पर चुनाव को देखते हुए मोदी जी को बहुत सोच समझकर ऊपरी सदन में कोई विधेयक रखना होगा।