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Sunday, March 31, 2019

इस बार का मोदी मंत्र

इस बार का मोदी मंत्र

जाति की प्रवृत्ति,राष्ट्रवाद,मिशन शक्ति जैसी उपलब्धियों और राजनीतिक करिश्मे   के प्रचार के शोर से अलग एक ऐसी दुनिया भी है जहां इन उलझाने वाले प्रश्नों के उत्तर तलाशे जा सकते हैं। उन प्रश्नों में यह भी एक प्रश्न है कि क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस समय 2014 के मुकाबले  बड़ी लहर की जरूरत है? आमतौर पर यह मान्यता है कि भारत में वोट जाति और भावनाओं के आधार पर दिए जाते हैं। लोकतंत्र में आमतौर पर अगर कोई नेता दोबारा वोट मांगने जाता है तो क्या पूछता है यही ना हमें आपने चुनकर भेजा और हमने अच्छा काम किया या नहीं? आप की हालत में सुधार हुआ या नहीं? लेकिन मोदी जी और उनके पार्टी अध्यक्ष अमित शाह जिस मनोवैज्ञानिक रणनिति का उपयोग कर रहे हैं उससे तो यह लगता है कि वह मतदाताओं से कहते हैं कि आपने मुझे चुन कर भेजा तो क्या आप पहले से ज्यादा सुरक्षित महसूस कर रहे हैं? इस बीच भावनाओं का ज्वार चलता है, राष्ट्रवाद की बहस चलती है, संसाधनों का विकास दिखाया जाता है और  लहर पैदा करने की कोशिश की जाती है ताकि वे फिर चुनकर आ जाएं। मोदी जी लोगों से यह बताना चाहते हैं 26 /11 वाले वक्त में मतदाता खुद को जितना सुरक्षित महसूस कर रहे थे आज क्या उसे ज्यादा सुरक्षित नहीं महसूस कर रहे हैं। कोई भी नेता अब से पहले कामकाज के लिए वोट मांगता था उसका वादा होता था हम यह करेंगे हम वह करेंगे जैसे हाल में राहुल गांधी ने वादा किया कि अगर सत्ता में आए तो न्यूनतम आय की गारंटी देंगे। लेकिन मोदी जी ने देश के मनोविज्ञान को समझा है और वह विरोधियों के कामकाज के आधार पर वोट मांग रहे हैं। बेशक कोई भी आंकड़ों की बारीक जांच -परख के आधार पर मोदी जी के कार्यकाल में गलतियां निकाल सकता है। लेकिन, यह सच है कि 2014 के बाद कश्मीर को छोड़कर बाकी पूरे देश में कोई बड़ा आतंकवादी हमला नहीं हुआ। बेशक गुरदासपुर और पठानकोट में हमले हुए लेकिन उन्हें नाकाम करने की कोशिश की गई। इसके अलावा देश में कहीं कुछ नहीं हुआ। यकीनन यूपीए सरकार के पहले दौर में भी सुरक्षा का माहौल बेहतर था। कश्मीर में भी शांति थी, लेकिन कांग्रेस इसका उपयोग नहीं कर पा रही है शायद व इसे भूल गई है । लेकिन मोदी जी राष्ट्रीय सुरक्षा में अपनी कामयाबी को ही प्रचार का मुद्दा बना रहे हैं । वे मनोवैज्ञानिक तौर पर लोगों के भीतर असुरक्षा की भावना को ज्यादा मजबूत कर रहे हैं। परोक्ष रूप से शायद वह कहना चाहते हैं कि अगर हमें नहीं चुना गया तो देश में जैश ए मोहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा और आई एस आई का बोलबाला हो जाएगा। 2014 में मोदी जी ने लोगों के भीतर उम्मीदें जगाई थी। 2019 में वे डर जगा रहे है परोक्ष रूप से यह कहना चाहते हैं कि जो उन्हें वोट नहीं देगा और कांग्रेस को वोट देगा वह पाकिस्तान से मिला हुआ है। इसलिए बार-बार कहते हैं कि आतंकवादी और पाकिस्तानी ही उनकी हार चाहते हैं इसीलिए सर्जिकल हमलों के भी सबूत मांग रहे हैं।
        मोदी और शाह की जोड़ी राजनीति को रात दिन का उद्यम, मनोरंजन और जुनून बनाने की कोशिश कर रही है। कोई अगर पिछले 5 साल के कार्यकाल आधार पर चुनाव लड़ता है तो वह खतरनाक काम करता है। क्योंकि,  तब लोग उसके कामकाज की जांच करने लगते हैं और आज की वास्तविकताओं के आधार पर परखने लगते हैं । लेकिन  उनके भीतर यदि डर जगा दिया जाए तो वे  कुछ नहीं बोल पाते । मोदी के भाषणों से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि वह पाकिस्तान, आतंकवाद, भ्रष्टाचार विपक्ष और अपने आलोचकों में राष्ट्रवादी भावना के   अभाव की बात कर रहे हैं। आप शायद  रोजगार, कृषि, संकट इत्यादि की बात उठाएंगे तो बहुत मुश्किलें आएंगी पर यदि आतंकवाद और पाकिस्तान को एक साथ जोड़ दें तो देश के एक समुदाय पर सीधा निशाना लगता है और इससे मुकम्मल डर पैदा हो जाता है। हिंदू बहुल देश में अल्पसंख्यक समुदाय के साथ एक वैचारिक खाई बन गई है।  मोदी चुनाव में उसे वे और भी चौड़ी करने की कोशिश कर रहे हैं ।यद्यपि वे स्पष्ट नहीं बोलते हैं लेकिन उनका संकेत समझिए । वे कहते हैं पाकिस्तानी और आतंकवादी उन्हें  पराजित देखना चाहते हैं और विपक्ष भी यही देखना चाहता है । चूंकि विपक्ष का सबसे मजबूत वोट बैंक अल्पसंख्यक समुदाय है इसलिए बार-बार उसकी तरफ इशारा करते हैं कि अगर वह पराजित हुए तो देश में आतंकवादियों पाकिस्तानी और अल्पसंख्यकों का बोलबाला हो जाएगा। मोदी अलीपुरदुआर आते हैं तो कहते हैं कि रिफ्यूजिओं  को खदेड़ देंगे । यह सब एक तरह का मनोवैज्ञानिक डर पैदा करने का तरीका है।  यह रणनीति  कारगर नहीं होगी अगर इसे सीधे भारतीय अल्पसंख्यकों से जोड़ा जाए इसलिए इसे बांग्लादेशियों ,कश्मीरियों इन सब से जोड़ा जा रहा है। इस तरह की रणनीति अपनाने वाले केवल मोदी ही नहीं हैं दुनिया के लगभग सभी लोकतंत्र में ऐसा हो रहा है ।  अपने समर्थकों को अन्य लोगों से डराया जाता है वह चाहे डोनाल्ड ट्रंप हों या एर्डोगन हों या नेतन्याहू या इनकी तरह अन्य नेता भी हैं जो ऐसा करते हैं। मोदी जी की रणनिति अगर कारगर हो गई तो उनका आधार एकजुट रहेगा और बाकी लोग टुकड़ों में बंट जाएंगे इसलिए उनकी जीत आसान हो जाएगी। मोदी जी को हाल के सर्जिकल स्ट्राइक और मिशन शक्ति से मजबूती मिली है। एक तरफ विभाजित विपक्ष है और दूसरी तरफ मुकाबला अपनी शर्तों पर। अंदाजा आप खुद लगा सकते हैं। इस बार के चुनाव का मोदी मंत्र यही है।

Friday, March 29, 2019

नहीं सुधरेगा पाकिस्तान

नहीं सुधरेगा पाकिस्तान

अभी हाल में भारतीय वायु सेना द्वारा बालाकोट में आतंकी शिविर नष्ट किए जाने के बावजूद पाकिस्तान यह नहीं स्वीकार कर रहा है कि वहां आतंकी शिविर हैं । भारत ने एक महीने पहले पाकिस्तान को एक डोजियर सौंपा था और उसमें बताया गया था कि पाकिस्तान के 22 स्थानों पर आतंकी शिविर चल रहे हैं लेकिन गुरुवार को पाकिस्तान ने स्पष्ट रूप से कहा कि उसने इन सभी जगहों की तहकीकात की और कोई शिविर नहीं पाया। उसने कहा है कि  यह 14  फरवरी को पुलवामा हमले से पाकिस्तान कहीं नहीं जुड़ा था। पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने कहा है कि वह उन 22 जगहों में जाकर देखने की अनुमति देने को तैयार है। यह पहला अवसर है कि पाकिस्तान में भारत द्वारा दिए गए किसी दस्तावेज की जांच करने के बाद सरकारी तौर पर घोषणा की है। यह दस्तावेज भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने भी भेजी है। भारत ने जैश ए मोहम्मद के प्रमुख मसूद अजहर को वैश्विक आतंकवादी घोषित किए जाने की कूटनीतिक कोशिशें शुरू कर दी है। इसके पहले भी भारत ने यह मसला संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में उठाया लेकिन चीन ने उस पर वीटो कर दिया और मामला दब तो गया लेकिन बात खत्म नहीं हुई । अमरीका ने कदम आगे बढ़ाया और मसूद अजहर पर पाबंदी लगाने और उसे काली सूची में डालने के लिए अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाना शुरू कर दिया और इसके अंतर्गत उसने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में मसौदा पेश किया है। अमरिका के प्रस्ताव को  फ्रांस और ब्रिटेन ने समर्थन भी किया है। फ्रांस ब्रिटेन और अमरीका ने विगत 27 फरवरी को ऐसा ही एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया था और और सुरक्षा परिषद के 16 में से 14 देशों ने इस कार्रवाई का समर्थन किया था लेकिन चीन के वीटो कर दिए जाने से कुछ नहीं हो सका। अब फिर अमरीका ने उस पर पाबंदी लगाने और उसकी संपत्ति को जप्त करने आदि के लिए बुधवार को सुरक्षा परिषद में एक मसौदा पेश किया है। पहला मौका है जब अमरीका, ब्रिटेन और फ्रांस ने अजहर का नाम काली सूची में डालने के लिए सुरक्षा परिषद में सीधा मसौदा भेजा। इस मसौदे पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए चीन ने कहा यह तो जबरदस्ती है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता गेग शुअंग ने कहा की अमरीका ऐसा करके  मुद्दों को जटिल बना रहा है। उन्होंने कहा कि यह वार्ता से किसी मसले के समाधान के अनुरूप नहीं है और ऐसा करके संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को एक आतंकवाद विरोधी इकाई के रूप में बदलना है और उसके अधिकार को कम करना है। यह स्पष्ट है कि चीन ने हमेशा से उसे बचाने की कोशिश की है। दरअसल चीन की भारी पूंजी चीन -पाक इकोनॉमिक कॉरिडोर में लगी हुई है ।उधर चीन के शिंजियांग प्रांत में विगर मुसलमानों की संख्या एक करोड़ के आसपास है । उस क्षेत्र में यह बहुसंख्यक हैं और चीन कोई कदम उठता है या मसूद अजहर पर पाबंदी लगाता है तो डर है कि  वे न भड़क जाएं।
          परोक्ष मामला चाहे जो हो और कोशिशें चाहे जो की जाती रहे लेकिन ऐसा नहीं लगता कि अमरीका इस मसौदे को पेश करके कुछ करवा सकेगा। क्योंकि सुरक्षा परिषद में इसे पारित करने के लिए 9 वोटों की जरूरत है और इन 9 वोटो चीन के वोट भी होने चाहिए और चीन ही मुख्य अवरोधक है। वैसे एक उम्मीद है कि चीन अब पिछले दरवाजे से आकर गुपचुप वीटो लगा कर शांत नहीं हो सकता बल्कि ऐसी स्थिति में उसे बताना होगा की पाबंदी के प्रस्ताव पर रोक लगाने के कारण क्या हैं।
         उधर पाकिस्तान द्वारा भारतीय डोजियर में उल्लिखित तथ्यों को गलत बताने से भारत र दुखी है विदेश मंत्रालय के सचिव रवीश कुमार ने बताया की पाकिस्तान की नकारात्मक भूमिका दुखद है। पाकिस्तान को मुंबई हमले के बाद भी इसी तरह का डोजियर सौंपा गया था लेकिन उसका भी उसने खंडन किया। यह दुनिया जानती है कि राष्ट्र संघ द्वारा अधिसूचित  आतंकी संगठन जैश ए मोहम्मद और उसका मुखिया मसूद अजहर पाकिस्तान में है और  उसके खिलाफ कार्रवाई के लिए  ढेर सारे  पुख्ता सबूत हैं लेकिन करवाई तो दूर पाकिस्तान इसे मानने को भी तैयार नहीं है। पाकिस्तान की इस हरकत से ऐसा लगता है की सरकार चाहे जो हो वह सुधर नहीं सकता है।

Thursday, March 28, 2019

भारत बना "अंतरिक्ष महाशक्ति"

भारत बना "अंतरिक्ष महाशक्ति"

भारत महा शक्तियों के कतार में बैठने के लायक तो  पहले ही उस समय हो गया था जब पोकरण में परमाणु परीक्षण किया लेकिन अब एक कदम और आगे बढ़ गया है। जल थल और नभ में सर्वशक्तिमान बनने के बाद अंतरिक्ष में भी हमारा देश शक्तिशाली बन गया। केवल 3 मिनट के मिशन शक्ति अभियान में अंतरिक्ष की "लो अर्थ" कक्षा में 300 किलोमीटर दूर एक सेटेलाइट को भारत में मार गिराया। यद्यपि यह परीक्षण था लेकिन इसी से हम महाशक्तियों की सूची में शामिल हो गये। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डीआरडीओ के वैज्ञानिकों को बधाई दी और देशवासियों के नाम एक संदेश देकर उन्हें गर्वित होने का मौका दिया।
          यहां यह बताना जरूरी है की लो अर्थ आर्बिट क्या है ? लो अर्थ आर्बिट को वैज्ञानिक शब्दावली में "लियो" कहते हैं। इस कक्षा में  स्थापित  सैटलाइट का उपयोग सैटेलाइट डेटा संचार के लिए किया जाता है। यानी, इसका उपयोग ई-मेल वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग और डाटा संचार के लिए होता है । यह सैटेलाइट पृथ्वी की सतह से ऊपर लगभग 650 से 1600 किलोमीटर रहता है। इसे अंतरिक्ष में स्थाई रूप से एक जगह नहीं रखा जा सकता। यह कक्षा में घूमता रहता है। सेटेलाइट या कहें उपग्रह 3 तरह के होते हैं। लो अर्थ आर्बिट सैटेलाइट, मीडियम अर्थ आर्बिट सैटेलाइट, और जियो सैटलाइट । लो अर्थ आर्बिट सैटेलाइट   छोटे होते हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि अभी भी संचार सेवा के लिए एक हजार से ज्यादा लो ऑर्बिट सेटेलाइट की जरूरत पड़ सकती है।
      इस अवसर पर डीआरडीओ के अध्यक्ष जी सतीश रेड्डी ने कहा कि यह  क्षमता हमारे देश के लिए दुश्मन की ताकतों के प्रति एक निवारक की भूमिका अदा करेगी। रेड्डी ने कहा कि परियोजना के लिए 2 साल पहले ही अनुमति मिली थी। यह भारत के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। इसरो के पूर्व अध्यक्ष के कस्तूरीरंगन ने कहा कि यह भारत के लिए गर्व की बात है कि इसने मिसाइल क्षमता को प्रदर्शित किया और अंतरिक्ष में एक महत्वपूर्ण कदम बढ़ाया।  डीआरडीओ के पूर्व वैज्ञानिक रवि गुप्ता ने कहा आज जब दुनिया अंतरिक्ष में अपनी ताकत बढ़ा रही है तो हमारे वैज्ञानिकों ने भी अपनी मेधा का प्रदर्शन किया। आज अगर आपको दुनिया के सामने यह बताना है कि वे किसी भी युद्ध के लिए तैयार हैं तो उसे सेटेलाइट युद्ध के लिए भी तैयार रहना पड़ेगा। इस तकनीक के बारे में डीआरडीओ के पूर्व प्रमुख और नीति आयोग के सदस्य वीके सारस्वत का कहना है कि भारत विश्व के उन ताकतों की सूची में  शामिल हुआ जो अंतरिक्ष का शस्त्रीकरण कर रहे हैं और इस तरह से भारत के पास वह शक्ति हो गई जिसके बल पर वह महाशक्ति बन सकता है।
        विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी कर इस उपलब्धि के बारे में कहा कि हमारा मकसद किसी देश पर प्रहार करना या किसी को धमकाना नहीं है बल्कि देश को सुरक्षित करना है।
        भारत की इस उपलब्धि से  जले भुने पाकिस्तान ने कहा कि यह भारत की  काल्पनिक युद्ध लड़ने की तैयारी की तरह है। पाकिस्तान ने कहा कि वह अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अनुरोध करेगा की वे भारत को लगाम लगाए। चीन ने  कहा कि उसे उम्मीद है भारत बाह्य अंतरिक्ष में शांति बनाए रखेगा।
      उधर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस अवसर पर देश को संबोधित करते हुए कहा कि भारत ने अंतरिक्ष में जो काम किया है उसका मूल उद्देश्य भारत की सुरक्षा भारत का आर्थिक विकास और भारत की तकनीकी प्रगति है। प्रधानमंत्री ने इसकी आवश्यकता को रेखांकित करते हुए कहा कि यदि दुश्मन सेटेलाइट के माध्यम से आपकी हर गतिविधि पर नजर रखता है तो उसे यह बताना होगा कि भारत इतना शक्तिशाली हो गया है कि दुश्मन देश के खोजी सैटलाइट को जब चाहे मार गिरा सकता है। हमें आने वाले दिनों में चुनौतियों का सामना करने और अपने नागरिकों के जीवन के स्तर में सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए आधुनिक तकनीकों को अपनाना ही होगा। अभियान की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह पूर्णतः स्वदेशी है और इसे अपने ही देश में बने एंटी सैटेलाइट मिसाइल के जरिए अंजाम दिया गया है।
           भारत के अलावा इजराइल भी  इस तरह के सेटेलाइट विकसित करने की प्रक्रिया में है ।आज यह सैटलाइट दुनिया के 3 देश अमरीका, रूस और चीन के पास है और उन्होंने आज तक इसका उपयोग किसी भी युद्ध में नहीं किया। इस उपलब्धि पर तरह-तरह की बातें की जा रही है। चुनाव आयोग को भी बीच में डाला जा रहा है और कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री ने इस अवसर पर देश को संबोधित कर चुनाव की आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन किया है। लेकिन विशेषज्ञों का मानना है की इससे ऐसा कुछ नहीं हुआ है। यद्यपि चुनाव आयोग ने 4 अधिकारियों के एक पैनल को इसे आदर्श आचार संहिता के आलोक में विश्लेषित करने का आदेश दिया है। इसमें यह तय किया जाएगा की क्या इस प्रक्रिया के तहत सरकारी तंत्र का उपयोग  किया गया है या नहीं । यद्यपि पहले से इसके लिए चुनाव आयोग की अनुमति नहीं ली गई थी ।  जो भी है वाद विवाद हो तर्क वितर्क हो या मत विमत हो सबसे बड़ी बात है कि भारत देश को एक ऐसा शस्त्र मिला है जिससे दुश्मन के पैर कांपने लगेंगे। देश हित में एक बड़ी उपलब्धि है और यही पर्याप्त है।

Wednesday, March 27, 2019

पुराने सिपाही जा रहे हैं नए चौकीदार आ रहे हैं

पुराने सिपाही जा रहे हैं नए चौकीदार आ रहे हैं

भारतीय जनता पार्टी ने लालकृष्ण आडवाणी के बाद अब मुरली मनोहर जोशी को भी टिकट नहीं दिया । कानपुर से उनकी जगह उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री सत्यदेव पचौरी को टिकट दिया गया है। 2014 में मुरली मनोहर जोशी ने नरेंद्र मोदी के लिए वाराणसी सीट खाली की थी और कानपुर से चुनाव लड़े थे। पचासी वर्षीय जोशी भाजपा के संस्थापक सदस्यों में से हैं। 6 बार लोकसभा और दो बार राज्यसभा के सांसद रह चुके हैं। भारतीय जनता पार्टी के इस कदम पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा है कि पार्टी वरिष्ठ नेताओं का सम्मान नहीं कर रही है।
      उधर  भारतीय जनता पार्टी के इस कदम से ऐसा लग रहा है कि यह एक सुविचारित बदलाव है और पार्टी नए चेहरों को सामने लाना चाहती है।  यह भी दिखाना चाहती है कि परिवारवाद काम नहीं करता। उच्च पदस्थ सूत्रों का मानना है कि पुराने सिपाहियों में से कुछ  को टिकट नहीं दिए जाने का मतलब है कि इसे नए नेताओं के व्यापक समूह में वितरित करना । यही नहीं, भारतीय जनता पार्टी यह भी जताना चाहती है  की वह नौजवानों पर भरोसा करती है और उन्हें कुछ जिम्मेदारियां सौंपना चाहती है । यही नहीं इससे यह भी संदेश दिया जा रहा है कि अन्य पार्टियों की तरह परिवार की इसमें कोई प्राथमिकता नहीं है।  भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों की सूची यह भी बताती है कि पुराने लोगों को आराम करने दिया जाए ।इसमें वयोवृद्ध नेता लालकृष्ण आडवाणी, कलराज मिश्र, भगत सिंह कोश्यारी और बीसी खंडूरी भी शामिल हैं, जो इस बार चुनाव नहीं लड़ेंगे।
        वयोवृद्ध नेताओं को  टिकट नहीं    दिए जाने का तर्क समझ में आया लेकिन यह बात समझ से परे है की पार्टी के चार चार मंत्रियों ने चुनाव न लड़ने का फैसला किया है। यह सामान्य बात नहीं है। अब देखें 13 बार लोकसभा चुनाव लड़कर और 8 बार विजयी रहने वाले और सबसे ज्यादा वोटों से जीतने का रिकॉर्ड कायम करने वाले रामविलास पासवान लोकसभा से नहीं राज्यसभा के सांसद बनना चाहते हैं। जबकि उनका एक भी विधायक नहीं है और भाजपा ने उनकी मांग को स्वीकार कर लिया है।  भाजपा ने आश्वासन भी दिया है कि उन्हें असम से राज्यसभा भेजा जाएगा। यही नहीं, पार्टी की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज लोकसभा और राज्यसभा में  जाती और आती रहीं हैं। वह तीन बार मध्य प्रदेश के विदिशा से चुनाव जीत चुकी हैं। उन्होंने भी चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया है। 6 बार की सांसद उमा भारती भी चुनाव नहीं लड़ रहीं हैं। आखिर ऐसा क्यों?
2014 में जब मनमोहन सिंह की सरकार की लोकप्रियता का ग्राफ बिल्कुल गिर गया था तो उन के तीन मंत्रियों ने चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया था। यह बात समझ में आती है। लेकिन अगर मोदी सरकार के मंत्री चुनाव नहीं लड़ रहे हैं तो थोड़ा अजीब लग रहा है। क्योंकि मोदी सरकार की लोकप्रियता कथित रूप से  शिखर पर है और ऐसे में कम से कम पांच मंत्रियों ने क्यों चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया और कई मंत्रियों ने चुनाव क्षेत्र बदलने का फैसला किया है । यही नहीं ,छत्तीसगढ़ में भी उलटफेर की आशंका है। दिल्ली में भी कई पुराने सिपहसालारों के टिकट काटे जायेंगे। बिहार की बात तो विचित्र लग रही है। पिछली बार भाजपा ने 30 सीटों पर चुनाव लड़ कर 22 सीटें  जीती थी। लेकिन इस चुनाव में  वह सिर्फ 17 सीटों पर लड़ रही है। 5 सांसद यहीं कम हो गए। आखिर क्या कारण है ? 
      नरेंद्र मोदी  के नेतृत्व में जिन सीटों पर भी चुनाव नहीं लड़ रही है अगर मनोवैज्ञानिक तौर पर इस सोच का विश्लेषण करें तो ऐसा लगता है कि पार्टी या तो अपने सहयोगी दलों के साथ बहुत सम्मानजनक व्यवहार कर रही है या फिर उसके मन में केवल जीतने की इच्छा है। इसलिए इस पर गंभीरतापूर्वक सोचना जरूरी है कि मोदी सरकार के कई मंत्री चुनाव नहीं लड़ना चाहते हैं। इसका मतलब यह तो नहीं कि भाजपा एनडीए के सांसदों को यह भरोसा है कि हवाई दावे चाहे जो हों चुनाव जीतने के समीकरण कुछ अलग होते हैं । पिछले चुनाव में नरेंद्र मोदी ने घोषणा की थी कि हम चौकीदार हैं आप हमें वोट दीजिए और हम चौकीदारी करेंगे ।  जब राफेल का मामला उछला और विपक्ष ने घोटाले के आरोप लगाने शुरू कर दिए तो एक नारा चल पड़ा "चौकीदार चोर है । " सरकार  सफाई दे नहीं  सकती थी क्योंकि इससे विवाद और बढ़ता तो इसने अपने सभी मंत्रियों को अपने टि्वटर अकाउंट में नाम के पहले चौकीदार जोड़ने को कह दिया।  इसे कुछ इस तरह पेश किया गया कि अब   सभी मंत्री काम छोड़कर चौकीदारी करने लगे हैं । लेकिन यह भाजपा की सोची समझी गई रणनीति थी । वह चाहती थी उससे कोई गंभीर सवाल ही न पूछा जाए और इसमें उसे सफलता मिल गई। यह तो तय है कि भाजपा  इस चुनाव में उस मनोदशा में नहीं है जिस मनोदशा में 2014 में हुआ करती थी।  चुनाव नहीं लड़ने का फैसला करने वाले मंत्री और सांसद इस बात को अच्छी तरह समझ रहे हैं। लेकिन, यह भी ध्यान रखें कि मोदी और शाह के लिए यह चुनाव केवल चुनाव नहीं है बल्कि उनके अस्तित्व का सवाल है। परिणाम के बारे में कुछ भी कहना अभी उचित नहीं है लेकिन यह तो स्पष्ट दिख रहा है कि इस चुनाव में भाजपा की मनोदशा बदली हुई है।

Tuesday, March 26, 2019

गरीबों की चिंता या कुर्सी की

गरीबों की चिंता या कुर्सी की

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने लोकसभा चुनाव अभियान के दौरान  सोमवार को  देश की जनता से वादा किया कि वो इस बार गरीबी मिटा कर रहेंगे । गरीबी मिटाने का उनका तरीका होगा कि हर गरीब परिवार को इतनी रकम देंगे कि उसकी मासिक आय 12 हजार रुपए महीने पर पहुंच जाए।  अगर किसी परिवार की न्यूनतम आय 6 हजार रुपया महीना  है तो उसे 6000 रुपये अलग से दिए जाएंगे ताकि उसकी आय 12रुपये हो जाए।
          इस वादे पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी लोगों से वादों कर एक प्रकार का झांसा दे रहे हैं । उन्होंने कहा , राहुल गांधी ने जो वादा किया है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले ही उससे ज्यादा गरीबों को दे रहे हैं। उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने देश को गरीबी में डाला और 50 साल तक गुमराह किया।
        कांग्रेस पार्टी का दावा है कि इस योजना से देश के 20% सबसे गरीब परिवार को लाभ मिलेगा। लेकिन इसका आधार क्या है? आंकड़े बताते हैं की देश में 2.5 करोड़ परिवार ऐसे हैं जिसकी मासिक आमदनी 5हजार रुपये या उससे भी कम है । साथ ही 5 करोड़ परिवारों की औसत आमदनी 10हजार के आस-पास पास है। अब कांग्रेस ने वादा किया है कि अगर वह सत्ता में आ गई तो इन 7.5 करोड़ परिवारों को सबसे ज्यादा फायदा मिलेगा । न्यूनतम आमदनी की गारंटी मिल जाएगी।  सचमुच यह लुभाने वाला वादा है। क्योंकि अगर यह योजना लागू कर दी जाती है तो देश में  करोड़ों परिवारों को इससे लाभ मिलेगा। इस नजरिए से अगर देखा जाए तो यह एक तरफ से एक लक्ष्य को हासिल करने की योजना है और इससे यकीनन देश के गरीबों को लाभ मिलेगा। देश में गरीबों की संख्या घटेगी।  गांव में जो गरीब रहते  हैं उनकी आमदनी बढ़ेगी। ठेके पर काम करने वाले लोगों को लाभ मिलेगा और देश की जनता में आत्मविश्वास बढ़ेगा।   देश में खुशहाली बढ़ेगी। लेकिन यहां अर्थशास्त्र का एक जुमला सामने आता है वह है " मौद्रिक गणित। " यदि सरकार का वित्तीय घाटा काबू में रहा और बैलेंस शीट ठीक-ठाक रही तो सब कुछ ठीक रहेगा। लेकिन इस के समक्ष कई चुनौतियां हैं । पहली तो इसे लागू करने का तौर तरीका । सबसे बड़ी बात है कि किसी परिवार की  आमदनी के हिसाब कैसे लगेगा? देश में एक संस्था है नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसओ), यह देश के परिवारों का सर्वेक्षण करता है और औसत आमदनी का हिसाब लगाता है। अब प्रश्न है कि क्या अंदाज के हिसाब से परिवारों को चुना जाएगा?  अगर नहीं तो  किसे लाभ दिया जाएगा ,इसका चयन कैसे होगा? अभी तक कोई जवाब नहीं सुनाई पड़ रहा है। दूसरी चुनौती है कि इस आमदनी योजना के तहत लोगों को आमदनी का अंतर दिया जाएगा। मिसाल के तौर पर अगर किसी परिवार की आमदनी 6 हजार रुपए महीने हैं तो उसे 6000 रुपये और दिए जाएंगे ताकि वह 12हजार रुपये पहुंच जाए और यदि किसी परिवार की आमदनी दस हजार रुपए हैं तो उसे दो हजार रुपए मिलेंगे । सवाल उठता है कि क्या हमारे देश के सिस्टम में  इतनी कार्यकुशलता है जो अलग-अलग इस की जानकारी हासिल करे और उसका वर्गीकरण करे लगता तो नहीं है। इन सब के अलावा एक तकनीकी कठिनाई भी है। मोटे तौर पर इस योजना को चालू रखने के लिए वार्षिक लगभग तीन लाख करोड़ रुपयों की जरूरत पड़ेगी। वे रुपए कहां से आएंगे ? कुछ लोगों का कहना है की कई जरूरी सब्सिडी को बंद कर दिया जाएगा और उससे बचे धन से यह योजना चलेगी। लेकिन यहां एक प्रश्न होता है सब्सिडी बंद करने के बाद एक नई सब्सिडी चालू करने का क्या तुक है और क्या परिणाम होगा इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।
       कांग्रेस का मानना है कि चुनाव के इस मौसम में इस घोषणा के साथ ही कांग्रेस के पक्ष में एक लहर पैदा होगी। लेकिन ऐसा सोचना जल्दी बाजी है। क्योंकि हमारे देश की जनता पिछले 5 वर्षों में 'अच्छे दिन और 15-15 लाख ' के वादों  से लेकर 6 हजार रुपये दिए जाने के वायदों के बीच कितनी बार ठगी गई है यह सब समझते हैं-
      आप कहते हैं सरापा गुलमोहर है जिंदगी 
     हम गरीबों की नजर में एक कहर है जिंदगी

Monday, March 25, 2019

आज की राजनीति के नए योद्धा

आज की राजनीति के नए योद्धा

राजनीति हमारे देश में आरंभ से युद्ध स्तर पर ही लड़ी जाती रही है। बेशक उस समय  उसका स्वरूप दूसरा होता था लेकिन आज वह स्वरूप बदल गया है। हम में से बहुतों को 1974 का वाह वक्त याद होगा जब धर्मवीर भारती ने लिखा था,
हर खासो-आम को आगह किया जाता है
कि खबरदार रहें
और अपने-अपने किवाड़ों को अन्दर से
कुंडी चढाकर बन्द कर लें
गिरा लें खिड़कियों के परदे
और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें
क्योंकि
एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी काँपती कमजोर आवाज में
सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है !
...और इसके बाद जयप्रकाश नारायण का "संपूर्ण क्रांति" का नारा गूंज उठा। देश के छात्र कवि और लेखक इससे जुड़ गए। इंदिरा गांधी की सरकार को गद्दी छोड़नी पड़ी। चुनाव में उसे भारी पराजय मिली। लेकिन, संपूर्ण क्रांति कभी नहीं आई। आज एक नया नारा गूंज रहा है वह है "चौकीदार" का। कोई यह नहीं सोचता कि हमारे देश की जेलों में ज्यादा अपराधी बंद हों। सब चौकीदार की बात कर रहे हैं और अपराधी खुला घूम रहे हैं। जयप्रकाश नारायण के जमाने में राजनीति की जंग मूलतः छात्रों ने लड़ी थी।  45 वर्षों के बाद आज 2019 में राजनीति की जंग का मोर्चा देश के प्रमुख बुद्धिजीवियों संभाल लिया है। ये बुद्धिजीवी किसी पार्टी के खिलाफ हैं तो किसी के पक्ष में। बेशक इससे महत्वपूर्ण विचारों पर विमर्श को बल मिलेगा लेकिन इससे इतना शोर होगा कि देश में चुनाव का वातावरण बुरी तरह गर्म हो जाएगा। चुनाव के मौसम आरंभ हो चुके हैं और धीरे धीरे यह  मौसम गर्म होता जा रहा है। बात चल रही है कि अपने 5 साल के कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने क्या किया और क्या नहीं। कुछ लोग समर्थन में बाहें चढ़ा रहे हैं तो कुछ लोग विरोध में ताल ठोक रहे हैं कि उसने कुछ नहीं किया। चुनाव का शोर  आरंभ हो चुका है कहा जा रहा है कि पिछले 5 वर्षों में हमारा देश राष्ट्रवाद के बैनर के नीचे एकजुट हो रहा है। तो कुछ लोग कह रहे हैं कि देश का धर्मनिरपेक्ष ताना-बाना छिन्न भिन्न होता जा रहा है और हमारा समाज विभाजित हो रहा है। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और उसे चुनौती देने वाली कांग्रेस दोनों मतदाताओं को लुभाने में लगी  हैं। इस बार का चुनाव विचारों और आदर्शों के नाम पर छापामार युद्ध की तरह लग रहा है। अब से पहले जब विचारों की बात आती थी और राज राजनीतिक विमर्श पर चर्चा होती थी तो वामपंथी दल या उस विचारों की ओर झुके हुए लोग भारी पड़ते थे क्योंकि उनके पक्ष में ज्यादा बुद्धिजीवी होते थे।  अब मामला उल्टा होता जा रहा है । दक्षिणपंथी दलों के पक्ष में तेजी से बुद्धिजीवी इकट्ठा हो रहे हैं। विगत 5 वर्षों में जो सबसे बड़ा बदलाव देखा गया है वह है मोदी जी का अभूतपूर्व जनादेश के साथ सत्ता में आना और दूसरा विचारों के आदान-प्रदान के लिए सोशल मीडिया का एक मजबूत तंत्र के रूप में उभरना। सोशल मीडिया के  कारण ही दक्षिणपंथी विचारों की तरफ झुके बुद्धिजीवी वर्ग को अपनी बात कहने का एक सशक्त माध्यम मिल गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनाव में अपनी योजनाओं को फिर से बता रहे हैं, खासकर, उज्जवला योजना, स्वच्छ भारत मिशन , प्रधानमंत्री जन धन योजना इत्यादि और साथ ही बता रहे हैं कि सरकार का मुख्य उद्देश्य राष्ट्र और राष्ट्र का विकास है। उधर उनके समर्थक  हर खास ओ आम  को यह समझाने में जुटे हैं कि मोदी सरकार आने वाले वर्षों में देश को कहां ले जाना चाहती है। इस उद्देश्य से एक नया ऑनलाइन प्लेटफॉर्म आरंभ किया गया है उसका नाम है "एकेडमिक्स फोर नमो।" इसमें शोधकर्ताओं, फैकल्टी सदस्यों, लेखकों स्तंभकारों और विचारकों को आमंत्रित किया जा रहा है कि वे  आगे आएं तथा नरेंद्र मोदी को अगले 5 वर्षों के लिए समर्थन दें। देश भर के 15 शहरों के लगभग 30 विश्वविद्यालयों के 300 बुद्धिजीवी- जिसमें जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, इंडियन इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलॉजी, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय इत्यादि के सदस्य शामिल हैं- मोदी के समर्थन में खड़े हो गए हैं। वे मोदी जी के बारे में आम जनता के भीतर जो गलत धारणा है और जो नकारात्मक विचार हैं उन्हें अपने लेखों इत्यादि के माध्यम से खत्म करने का प्रयास कर रहे हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के इंटरनेशनल स्टडीज के कई बुद्धिजीवी इसमें शामिल हुए हैं उनका मानना है कि मोदी जी ने विगत 5 वर्षों में जो कार्य किए हैं खासकर उज्जवला योजना, 6 महीने तक वेतन के साथ प्रसव की छुट्टी और सेना में महिलाओं को भर्ती किए जाने का आदेश इत्यादि इसमें प्रमुख हैं। ये ऐसे कदम हैं जिससे महिलाओं का उत्थान होगा। ऐसे प्रयासों से देश के विश्वविद्यालयों में माहौल गर्मा रहा है और  बहस का बाजार गर्म हो रहा है। हो सकता है आगे चलकर यह हिंसक हो जाए। इन बहसों में केवल छात्र ही शामिल नहीं है बल्कि प्रोफेसर भी शामिल पाए जाते हैं।
         इधर जब महागठबंधन का स्वरूप वैसा नहीं हो सका जैसी उम्मीद थी और ना ही मोदी जी के खिलाफ कोई सामान विचार ही सामने आया तो भाजपा ने उन लोगों से संपर्क करना शुरू किया जो लोगों के विचारों को प्रभावित कर सकते हैं । इससे चुनावी विमर्श में उसे काफी लाभ होगा। इस पहल से आरोप-प्रत्यारोप का माहौल व्यापक होता जा रहा है। जहां भाजपा के पक्ष में विचार बनाने की कोशिश हो रही है वहीं दूसरी तरफ उसके विरोध में भी लोग खड़े हो रहे हैं । कुछ लोगों का मानना है कि भाजपा ने देश को जातीय रूप में इतना विभाजित किया है जितना अब तक नहीं किया जा सका है। इसने राजनीतिक स्वतंत्रता से लेकर अर्थव्यवस्था, शिक्षा, संस्कृति सब का भगवाकरण करने की कोशिश की है।
        "एकेडमिक्स फॉर नमो" के लोग देश की जनता के बीच एक सकारात्मक दृष्टिकोण तैयार करने की कोशिश में लगे हुए हैं। आज की राजनीति  के इन नए योद्धाओं से चुनाव में  कितना लाभ और कितनी हानि होगी  यह तो  मतों की गिनती के बाद ही पता चलेगा।

चीन, नेहरू और इतिहास के पन्ने

चीन, नेहरू और इतिहास के पन्ने

हरिराम पाण्डेय
चुनाव की तारीखों की घोषणा से पहले ही हमारे नेताओं के विमर्श की शालीनता बुरी तरह घटती जा रही है।  उसमें एक नया अध्याय तब जुड़ जाता है जब  वे नेता ऐतिहासिक रूप में गलत बातें करने लगते हैं। कोई कहता है "चौकीदार चोर है"  तो दूसरा जवाब में चीन को राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में स्थाई सीट के मामले में उस नेता के बाप दादा को दोषी बताता है। अभी हाल में जब  राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में मसूद अजहर पर पाबंदी लगाने के भारत के प्रस्ताव को चीन ने रोक दिया तब से यह बात कही जाने लगी है कि चीन को सुरक्षा परिषद में स्थाई सीट दिलाने में जवाहरलाल नेहरू की खास भूमिका थी। सोशल मीडिया में यह बात बहुत बुरी तरह वायरल हो चुकी है।  जिसे देखो अपना मंतव्य दे रहा है । इन मंतव्यों का इतिहास से कुछ लेना देना नहीं है। लेकिन यह इतिहास के संदर्भ के रूप में  हमारे समाज के मानस के  भीतर पैठ रहा है और अपनी जगह बना रहा है। कुछ समय के बाद आप पाएंगे की यही इतिहास हो गया। लोकमानस ही इतिहास की धारा को तय करता है। इसका सबूत इस से मिलने लगा है कि कुछ लोग 2 अगस्त 1955 को मुख्य मंत्रियों द्वारा जवाहरलाल नेहरू को लिखे पत्र का  हवाला भी देने लगे हैं- मुख्यमंत्रियों ने लिखा था - "अनौपचारिक रूप से अमरीका ने कहा था कि चीन को संयुक्त राष्ट्र संघ में शामिल कर लिया जाये लेकिन सुरक्षा परिषद में नहीं और भारत को सुरक्षा परिषद में अपनी जगह ले लेनी चाहिए।"
    जवाहरलाल नेहरू ने 2 अगस्त 1955 को ही मुख्यमंत्रियों को लिखा कि " निश्चय ही हम इसे स्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि इससे चीन  अलग-थलग पड़ जाएगा और यह चीन के साथ अन्याय होगा कि उसे सुरक्षा परिषद में नहीं ले जाया गया। " यह दोनों कथन  संदर्भ हीन हैं  और कहीं भी  किसी भी दस्तावेज में इनका जिक्र नहीं मिलता। 
      अलबत्ता नेहरू ने 27 सितंबर 1955 को लोकसभा में डॉ जे एन पारीक के प्रश्न कि " क्या भारत ने राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में शामिल किए जाने के अनौपचारिक पेशकश को अस्वीकार कर दिया?" नेहरू ने इस प्रश्न के जवाब में कहा कि " औपचारिक और अनौपचारिक इसी तरह की कोई पेशकश नहीं हुई। कुछ अखबारों में  अस्पष्ट सा छपा था। जिसमें कुछ भी सच नहीं था। सुरक्षा परिषद का गठन राष्ट्र संघ चार्टर के आधार पर हुआ जिसमें कुछ खास देशों को ही स्थाई जगह मिली । इसमें तब तक कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता जब तक चार्टर में कोई संशोधन ना हो। इसलिए सीट का कोई प्रश्न ही नहीं उठता और ना भारत द्वारा अस्वीकार करने का।"
   तो सच क्या है
      अब प्रश्न उठता है सच्चाई क्या है? क्या अमरीका ने भारत को उस समय  राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में  एक स्थान के लिए औपचारिक या अनौपचारिक सुझाव दिया था। अगर दिया था तो नेहरू ने इसे क्यों नहीं स्वीकार किया? 
   हमारे देश की स्थिति  खास करके बंटवारे के बाद की जिओ पॉलिटिक्स और शीत युद्ध में उलझे इस दो ध्रुवीय विश्व में इस प्रश्न का उत्तर निहित है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इंग्लैंड ने अपनी क्षमता बनाए रखने के लिए अविभाजित भारत के संसाधनों खासकर आर्थिक और मानव संसाधन का जमकर शोषण किया। 1945 के सितंबर में दूसरा विश्व युद्ध समाप्त हो गया और ब्रिटेन की पूंजी भी खत्म हो गई । उस समय ब्रिटिश जनता इस बात के खिलाफ थी कि उपनिवेशों पर खर्च किया जाए । चर्चील की   पार्टी चुनाव में हार गई और भारत की आजादी का समर्थन करने वाली  लेबर पार्टी चुनाव जीत गई। क्योंकि भारत में सांप्रदायिक दंगे शुरू हो गए और इसलिए 15 अगस्त 1947 को भारत को आजाद करने का दिन तय किया गया। कोई भी भारतीय चाहे वह सिख हो या हिंदू या मुसलमान , भारत में अपनी जमीन और अपने घर मकान छोड़ना नहीं चाहता था। लेकिन सांप्रदायिक दंगे भड़क गए।  भारत और पाकिस्तान के बीच खून की लकीर से बंटवारा हुआ। बहुत से लोग इधर से उधर गए और उधर से इधर आए। लगभग 10 लाख लोग मारे गए और डेढ़ करोड़ लोग निर्वासित हुए। बंटवारे के बाद भारत एक विपन्न राष्ट्र हो गया। कोई उद्योग नहीं, कोई तकनीक नहीं, कमजोर अर्थव्यवस्था और पड़ोस में दुश्मन पाकिस्तान।
      लेकिन आजादी के बाद भी भारत को एकजुट करने का प्रयास जारी रहा। कुछ उपनिवेश और रियासत उस समय भी कायम थे। बंटवारे के बाद का भारत अमरीका के तहत नई गुलामी नहीं चाहता था। दूसरे विश्व युद्ध में ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और जापान की नौसेना को भी तहस-नहस कर दिया गया था और अमेरिका एक नई महा शक्ति के रूप में उभर चुका था। उसकी नौसेना में इतनी क्षमता थी कि वह पूरी दुनिया में घूम सकती थी। अगस्त 1948 से शीत युद्ध का संकर्षण आरंभ हो गया। अमरीका को यूरोप के बिखराव और उपनिवेशों , खासकर  पूरब,  दक्षिण,  पश्चिम एशिया और  तेल की दौलत से अमीर मध्य पूर्व एशिया से उपनिवेश के समाप्त होने से हुई कमी  उसे महसूस होने लगी। अमरीका की बहुत ही महत्वपूर्ण संचार लाइनें भारत के नीचे से गुजरती थीं। अमरीका ने लगातार इशारे शुरू कर दिए कि भारत अमरीकी नेतृत्व वाले शीत युद्ध समूह में शामिल हो जाए । बंटवारे के बाद का भारत बड़ी संख्या में छोटी छोटी रियासतों और छोटे छोटे प्रांतों  को एकजुट कर बनाया  गया भारत था । इसलिए तत्कालीन भारत की सरकार देश में एकता और एकजुटता कायम करने में ज्यादा दिलचस्पी रखती थी और वह अंग्रेजों को हटाकर अमरीकियों का गुलाम नहीं बनना चाहती थी। तत्कालीन सरकार कुर्बानियों के बाद हासिल इस राष्ट्र की संप्रभुता बनाए रखना चाहती थी। भारत को यह मालूम था कि शीत युद्ध  के कारण   दो समूहों में बंटे इस विश्व में भारत कभी भी आदर पूर्ण स्थान नहीं प्राप्त कर सकता है। इसलिए इसने निर्गुट का विकल्प तैयार किया और बाद में धीरे धीरे रूस की तरफ कदम बढ़ाने लगा।
          कुल मिलाकर अमरीका से दूरी बनाए रखना और सोवियत संघ की तरफ झुकना भारत की रणनीति थी।  सोवियत संघ से भारत की कोई सीमा नहीं लगती थी और ना ही उसकी नौसेना की पहुंच यहां तक थी। इसलिए सोवियत संघ भारत पर कुछ लाद नहीं सकता था। उल्टे भारत को आर्थिक और सैनिक सहायता दे सकता था । दूसरी तरफ, अमरीका भारत से अड्डे चाहता था और वह  भारत के साथ ऐसा  बर्ताव करता था कि वह राजा हो। जैसे-जैसे शीत युद्ध परवान चढ़ता गया अमरीका को लगने लगा कि निर्गुट  भारत का सोवियत संघ की तरफ झुकाव एक भारी खतरा है। उसे डर था कि भारत सोवियत संघ को नौसैनिक अड्डे के लिए जगह दे सकता है। उधर , भारत सोवियत संघ की मदद से अपनी नौसेना को मजबूत कर रहा था।  अमरीका को यह संदेह होने लगा कि कहीं बाद में भारत हिंद महासागर पर अपना वर्चस्व कायम न कर ले। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में शामिल किए जाने की पेशकश के इशारे के रूप में उसने भारत को रिश्वत देने की कोशिश की। यह याद रखना जरूरी होगा कि पेशकश का यह संकेत कोई परोपकारी नहीं बल्कि उसके साथ एक शर्त भी जुड़ी थी कि भारत को उस के खेमे में शामिल होना होगा। ऐसे इशारे खुल्लम खुल्ला रूप में पहले 1950 में मिले और उसके बाद 1955 में। इसी वर्ष यानी 1955 में ही भारत ने  सोवियत संघ से संबंध बढ़ाने के लिए कदम बढ़ाया।
         अब चूंकि  भारत अमरीका की साजिश में नहीं पड़ा तो  उसने इसे संतुलित करने के लिए पाकिस्तान की तरफ हाथ बढ़ाया । 1954 में पारस्परिक  सुरक्षा सहायता  समझौते पर   हस्ताक्षर  के बाद से अमरीका और पाकिस्तान का सहयोग आरंभ हुआ।  उसके बाद पाकिस्तान को दक्षिण पूर्व एशिया संधि संगठन (सीटो ) में शामिल कर लिया गया। बाद में इराक ने इसे 1958 में छोड़ दिया तो इसका नाम बदलकर मध्य संधि समझौता (सेंटो) कर दिया गया। 1959 में अमरीका ने पाकिस्तान से एक द्विपक्षीय समझौता किया और उसके बाद पाकिस्तान को एशिया में अमरीका का सबसे अच्छा दोस्त समझा जाने लगा। अमरीका ने पाकिस्तान को हथियार देने शुरू किए। इसके दो उद्देश्य थे। पहला कि भारत को भूमि और वायु क्षेत्रों से खतरा बना रहे  ताकि वह नौसैनिक सुविधाओं के निर्माण से अपना ध्यान हटा दे और केवल सैनिक और वायु सैनिक सुविधाओं को संपन्न करने में लग जाए  ताकि पाकिस्तान से मुकाबला किया जा सके।  पचास  वर्षों के भारत सरकार के बजट इसके गवाह हैं।
         अब सवाल उठता है कि क्या चीन को भारत की कीमत पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सदस्यता मिली। रिपब्लिक ऑफ चाइना दुनिया की उन चार महा शक्तियों में से एक था जिसने  1944 में  डमबर्टन  ओक्स कॉन्फ्रेंस में राष्ट्र संघ के ड्राफ्ट चार्टर पर काम किया था। पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना का गठन 1949 में हुआ था। इसके बाद जून 1950 से जुलाई 1953 तक कोरिया का युद्ध हुआ ताइवान का संकट आया और उसमें अमरीका ने चीन के खिलाफ परमाणु बम के इस्तेमाल की धमकी भी दी थी। 1960 तक इसके संबंध पूर्ववर्ती सोवियत संघ से खराब हो गए। पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना ने पहला परमाणु परीक्षण किया । राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में रिपब्लिक ऑफ चाइना को ही पांच स्थाई सदस्यों के साथ 1971 तक रखा गया। जब राष्ट्र संघ महासभा में प्रस्ताव संख्या 2758 पारित किया गया तो रिपब्लिक ऑफ चाइना का नाम बदलकर पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना किया गया। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि 1955 से 1971 तक अगर अमरीका सचमुच चाहता तो वह भारत को सुरक्षा परिषद में शामिल करा सकता था।
            बेशक यह सोचना बड़ा मोहक लगता है कि आज हम जो कुछ भी हैं वह कुछ विशिष्ट और अयोग्य नेताओं के कारण हैं। सच तो यह है कि  हमारी कुछ मजबूरियां थीं और कुछ जिओ पॉलिटिक्स का तकाजा था। कोई भी नेता देश के महत्वपूर्ण हित से समझौता नहीं कर सकता। यद्यपि बाद के नेता भी इन्हीं कठिनाइयों से दो-चार हुए हैं।  ये कठिनाइयां उन नेताओं क्या थीं। वे थीं भौगोलिक स्थितियां, जनसांख्यिकी ,संसाधन, अर्थव्यवस्था और पर्याप्त सैनिक  क्षमता जिस  के कारण उत्पन्न कमी को दूर वे नहीं कर सकते थे। हमारे कुछ नेता अभी भी कोशिश में हैं लेकिन जब वे नाकाम होते हैं तो दोष अपने पूर्ववर्ती नेताओं पर डाल देते हैं क्योंकि अपनी नाकामी छिपाने का यही सबसे आसान तरीका है।

Sunday, March 24, 2019

खुशी घट रही है हमारे देश में

खुशी घट रही है हमारे देश में

यद्यपि इसे सकारात्मक सोच कहा जा सकता है लेकिन इस तरह सोचना भी भविष्य के लिए समर नीति तैयार करने में मददगार हो सकता है। अभी हाल में अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा दो-तीन रिपोर्ट्स  प्रकाशित हुईं जिसमें भारत में स्थितियों की चर्चा है।  वह स्थितियां सचमुच सोचने के लिए बाध्य करती हैं। संयुक्त राष्ट्र विश्व खुशहाली रिपोर्ट में कहा गया है खुशहाली के मामले में भारत का स्थान 140 वां है जो पिछले साल के स्थान से 7 सीढ़ी नीचे है। बुधवार को जारी इस रिपोर्ट में बताया गया है कि फिनलैंड दुनिया का सबसे ज्यादा खुशहाल मुल्क है। हालांकि विगत कुछ वर्षों में दुनिया भर में खुशहाली घटी है लेकिन भारत में यह लगातार घट रही है। पिछले साल की रिपोर्ट में भारत 133 में स्थान पर था इस बार 7 सीढ़ी नीचे उतर कर वह  140 वें स्थान पर है। यहां तक कि पाकिस्तान बांग्लादेश और चीन की स्थिति इस मामले में हमसे अच्छी है। 
    6 कारकों के आधार पर तय की गई इस सूची में आय, स्वस्थ जीवन प्रत्याशा, सामाजिक सपोर्ट , आजादी, विश्वास और उदारता शामिल है। रिपोर्ट को तैयार करते समय यह भी देखा जाता है कि संबंधित देशों के निवासियों में चिंता उदासी क्रोध इत्यादि नकारात्मक भावनाओं में कितनी वृद्धि हुई है।
आंकड़ों के मुताबिक पाकिस्तान 67 वें स्थान पर है जबकि बांग्लादेश 125 वें और चीन 93वें स्थान पर है। दूसरी तरफ युद्ध में उलझे सूडान के लोग अपने जीवन से सबसे ज्यादा दुखी हैं या कहें  नाखुश हैं। इसके बाद मध्य अफ्रीकी गणराज्य 155वें, अफगानिस्तान 154वें, तंजानिया 153वें, रवांडा 152वें  पायदान पर हैं। हैरत की बात है कि दुनिया में सबसे ज्यादा अमीर  कहा जाने वाला देश अमरीका भी खुशहाली के मामले में 19वें स्थान पर है।
जहां तक खुश रहने का सवाल है तो  खुशहाली पर सबसे  बड़ा असर डालता है जीवन का उद्देश्य। किसी के जीवन का उद्देश्य   क्या है? उद्देश्य विहीन जीवन में कभी खुशी नहीं  आ सकती। विख्यात मनोशास्त्री विक्टर फ्रांकल के मुताबिक खुशी को कभी अपनाया नहीं जा सकता बल्कि इसका पीछा किया जा सकता है। हर आदमी के पास खुश रहने का कोई कारण होना चाहिए।  खुशी की लगातार तलाश एक समस्या है। हाल के एक अध्ययन से पता चला है कि जो लोग खुशी पर ज्यादा जोर देते हैं वह सबसे ज्यादा उदास लोग हैं। दरअसल खुशहाली एक ऐसा जुमला है जो हमेशा से ज्यादा प्रयोग में रहा है। खुशहाली और उद्देश्य में  बहुत बड़ा अंतर है। उद्देश्यहीनता सफल जीवन की ओर नहीं ले जा सकती। समाज में उसका स्रोत आवश्यक है। इसीलिए कहा जाता है खुशी ली जाती है और दी जाती है। जो लोग खुश हैं वह स्वस्थ हैं और वे ऐसी हैसियत के लोग हैं जो अपने जीवन के लिए उपयोगी वस्तुओं को खरीद सकते हैं। साथ ही उनके जीवन का कोई उद्देश्य नियत होना चाहिए। अब स्वयं लिप्त व्यक्ति बहुत दिन तक खुश नहीं रह सकता। हमारे जीवन खास करके भारतीय मध्य वर्ग का जीवन का उद्देश्य जरूरतें पूरी करना और परिवार को आगे बढ़ाना होता है। लेकिन इन दिनों जो आंकड़े आ रहे हैं खास करके आर्थिक आंकड़े वे निराशाजनक हैं। 2019 फरवरी में खुदरा महंगाई की दर2.57% हो गई जबकि औद्योगिक उत्पादन की दर 2019 जनवरी में घटकर 1.7  प्रतिशत हो गई। यह दोनों खबरें अर्थव्यवस्था के लिए अच्छी नहीं हैं। महंगाई पिछले साल थोड़ी कम थी इसकी सबसे बड़ी वजह थी मांग और उपभोग में कमी होना। यह कमी देश के ग्रामीण इलाकों में दर्ज की गई। पिछले कुछ महीनों  को देखें पता चलेगा कि महंगाई कम होने के बावजूद न खपत बढ़ी है न खर्च। जबकि सामान्य ज्ञान से कहा जा सकता  है कि महंगाई कम होने पर खर्च का बढ़ना उचित है। इसका सीधा संबंध देश के ग्रामीण क्षेत्रों की बदहाली से है। खाद्य पदार्थों की महंगाई बढ़ने के बजाय स्थिर रही है। शहरी मध्यवर्ग के लिए यह राहत की बात है। लेकिन किसानों के लिए दुखदाई है। क्योंकि उन्हें अपनी फसल की औसत कीमत भी नहीं मिल सकती है। अब अगर पिछले महीने में मंहगाई  बढ़ती है तो यह किसानों के लिए सुखदाई है यह राहत देने वाली है। लेकिन महंगाई के कारण पर गौर करें तो यह स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और आवास के बढ़ते मूल्यों के कारण हुआ है। इसके अलावा कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि के कारण भी महंगाई बढ़ी ।  कृषि और रोजगार के मौके अभी नहीं बढ़े और इसका सीधा असर हमारे समाज की खुशहाली पर पड़ता है। लोकसभा के चुनावी शोरगुल के बीच  खुशहाली की रिपोर्ट या अर्थव्यवस्था की रिपोर्ट पर कोई गौर नहीं करेगा क्योंकि इस पर राजनीति भारी है। लेकिन चुनाव के बाद जो भी सरकार आएगी उसके लिए मुश्किलें पहले से तैयार खड़ी मिलेंगी। ....और  खुशहाली का अभाव कायम रहेगा।

Friday, March 22, 2019

बिन पानी सब सून

बिन पानी सब सून

होली के दिन हमारे भारत में न जाने कितने गैलन पानी रंग लगाने और रंग छुड़ाने में व्यर्थ हो गया होगा। होली के ठीक दूसरे दिन यानी 22 मार्च को विश्व जल संरक्षण दिवस था और इस दिन जारी एक रिपोर्ट के आधार पर भारत को चेतावनी दी गई है कि उसकी एक अरब  आबादी जलाभाव के क्षेत्र में निवास करती है। वाटरएड की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के कुल भूमिगत पानी का 24% भारतीय उपयोग करते हैं। भारत में 1170 मिलीमीटर बारिश होती है और हम इसका केवल 6% ही सुरक्षित रख पाते हैं। चेतावनी दी गई है कि अगर भारत में पानी को बर्बाद करना नहीं रोका गया तो देश के एक तिहाई घरों में पानी का संकट पैदा हो जाएगा।  हमारे देश में भूमिगत जल का दो तरह से प्रयोग होता है एक तो प्रत्यक्ष  यानी जो पानी हम सीधे तौर पर  इस्तेमाल करते हैं  जैसे नहाने पीने इत्यादि के लिए और दूसरा है  आभासी जल। जिसका इस्तेमाल हम हर वह चीज उगाने में करते हैं जिसका उपयोग खाने पीने किस काम के लिए होता  है। कोई देश जल के मामले में कितना संपन्न है उसकी माप तौल इसी आभासी जल से भी किया जाता है। जिन देशों में इसी जल का उपयोग कर लोग संपन्न हो रहे हैं उन्हीं देशों में पीने के पानी का संकट पैदा होने का खतरा बढ़ता जा रहा है। एक अनुमान के मुताबिक 2050 तक भौतिक स्तर पर पानी की कमी वाले इलाकों के बाशिंदों की संख्या बढ़कर 5 अरब तक हो जाएगी। यानी जिस पानी का हम प्रत्यक्ष उपयोग नहीं करते वह पानी भी जल संकट पैदा करने के लिए काफी है। दूसरा पानी है जिसे हम प्रत्यक्ष उपयोग में लाते हैं। पीने खाना बनाने या कपड़ा धोने के लिए। आंकड़े बताते हैं की हर देश में हर 9 में से एक आदमी को अपने घर में पीने का साफ पानी उपलब्ध नहीं है और दुनिया की दो-तिहाई जनसंख्या लगभग 400 करोड़ लोग ऐसे इलाकों में रहते हैं जहां पानी की बेहद कमी है। किसी वैज्ञानिक ने लिखा था कि "अगला विश्व युद्ध अगर होगा तो पानी के लिए ही होगा।" इसके लक्षण साफ दिखाई पड़ने लगे हैं। संपन्न देश गरीब देशों के निर्यात को बढ़ावा देने का झुनझुना दिखाकर उसके यहां के जल स्रोतों को सोख रहे हैं। यह पानी के दोहन का जो खेल चल रहा है वह बहुत भयानक हो सकता है भविष्य में। जरा सोचिए कि सुबह जो हम एक कप चाय पीते हैं उस एक कप चाय को उगाने ,चाय के पौधों की सिंचाई, उसकी प्रोसेसिंग इत्यादि में जो पानी लगता है वह लगभग 120 लीटर होता है। यह आभासी जल है जो हम देख नहीं पाते। हम तो चाय का एक कप या मात्र 120 मिलीलीटर पीते हैं। सुनकर हैरत होती है भारत में 2000 से 2010 के बीच भूमिगत पानी का दोहन लगभग 23% बढ़ गया है। भारत भूमिगत जल का दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक है और हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि हमारे देश के 1 अरब लोग जल के अभाव वाले क्षेत्र में रहते हैं। जिनमें 60 करोड़ों लोग ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं जो पानी के अभाव  से बुरी तरह प्रभावित हैं। 75% घरों में पीने का साफ पानी पहुंचा ही नहीं है।
        एक जमाना था जब हमारे देश में मोटे अनाज खाने का चलन था उन अनाजों के उपजाने में पानी कम लगता था और वह अनाज कीड़े मकोड़ों से खुद अपनी रक्षा कर लेते थे और जमीन की उर्वरा शक्ति भी बढ़ती थी। फिर हरित क्रांति आई और हमें गेहूं और चावल की फसल उगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाने लगा । जिस समय देश आम आदमी मोटा अनाज खाता था और गेहूं चावल से बने भोजन तीज त्यौहार में खाए जाते थे तो उस समय जमीन उपजाऊ थी। जब हरित क्रांति के साथ साथ यह विमर्श ही फैलाया गया कि गेहूं चावल अमीरों के खाने की चीज है और लोग गेहूं चावल खाकर खुद को अमीर बताने लगे। देश से मोटा अनाज गायब हो गया और गेहूं चावल मुख्य फसल बन गया। धीरे धीरे खेतों को यूरिया की आदत पड़ गई। बारिश घटने लगी तो जमीन का पानी सोखा जाने लगा और हालात यह है कि आज हम इतिहास के सबसे बड़े जल संकट के चौराहे पर खड़े हैं । एक अनुमान के मुताबिक अब से कोई 21 वर्ष बाद यानी 2040 तक 33 देश  जल संकट का सामना करेंगे। इनमें 15 देश मध्यपूर्व में हैं । उत्तरी अफ़्रीका ,पाकिस्तान, तुर्की ,स्पेन और अफगानिस्तान के कुछ हिस्से भी इसमें शामिल हैं। भारत ,चीन ,अमरीका और ऑस्ट्रेलिया भी पानी के भयंकर संकट से जूझेंगे। जल के अभाव वाले इलाकों के बाशिंदों की संख्या बढ़कर पांच अरब पहुंचने का अनुमान है। कभी किसी ने कहा था कि "रुपया खुदा नहीं है लेकिन खुदा से कम भी नहीं है।" जरा सोचिए नोटों की थैली बगल में दबी होगी और सूखता हुआ गला क्या रंग लाएगा ? अभी वक्त है  संभालने का संभल जाएं तो अच्छा है। वरना, "बिन पानी सब सून।"

Wednesday, March 20, 2019

रंग ,रस ,शब्द और सुगंध की सूक्ष्म अभिव्यक्ति है होली

रंग ,रस ,शब्द और सुगंध की सूक्ष्म अभिव्यक्ति है होली

निशीथ काल के बाद की  कुछ घड़ियां  बीतते ही कोयल ने कुक भरी, पपीहे ने पुकारा" पी कहां" और निशा ने उषा को रवि की ओर धीमे से धकेला।  उषा का चेहरा सुर्ख हो गया। चेहरे की लाली आकाश मैं फैल गई।  रथ पर सवार सूरज ने अपने रथ पर रखे रंगो को धरती पर फैला दिया । संपूर्ण धरा रंगो से नहा गई। पीले फूलों से लदे सरसों की पतली कमर बलखाती हुई गाने लगी,
रहे बदलते करवटें हम तो पूरी रात
अब के जब हम मिलेंगे करनी क्या क्या बात
गढ़े कसीदे नेह के हम तो पूरी रात
अब जब  मिलेंगे हम करनी क्या क्या बात
उधर पलाश ,हरसिंगार, अमलतास और अशोक फूलों से लदी पूरी प्रकृति पुलकित हो गई । दूर क्षितिज पर धरती और आसमान एक दूसरे के आलिंगन में बंधे दिखने लगे। हेमंत के पियराये पत्ते झर गए और जीर्ण वसन विहाय प्रकृति ने नया परिधान धारण कर लिया। गांव की गलियों से कंकरीट के जंगलों- शहरों- तक होली का उमंग उमड़ता दिखाई पड़ने लगा। प्रकृति ने  सबकी आंखों में वसंत का अंजन आंज दिया। विजयादशमी के अगरु, धूप, चंदन से चर्चित दिन एक साथ फूलों से लदे दिवस में बदल गया। शायद ऐसे ही किसी दिन विदुर के घर कृष्ण आए थे और दरवाजे पर उनकी आवाज सुनकर विदुर पत्नी आनंद  विभोर होकर स्नानागार से निर्वस्त्र बाहर आ गई थी। लेकिन कृष्ण को प्रेम दिखा देह नहीं। ऐसी सूक्ष्म दृष्टि हम कहां से लाएं ? यह संवेदनशीलता हमारे भीतर अगर आ जाए तो हमारा हर पल होली में बदल जाए। संपूर्ण जीवन एक उत्सव बन जाए , एक समारोह बन जाए। विपरीत परिस्थितियों में भी जीवन की उत्सव धर्मिता को बंद नहीं होने देना ही वास्तविक पुरुषार्थ है। हमारी हंसी, हमारी खुशी परमात्मा द्वारा प्रदत्त है और जब हम हंसते हैं तो उसी परमात्मा के प्रति आभार व्यक्त करते हैं, कृतज्ञता जाहिर करते हैं।
       होली एक ऐसा त्यौहार है जो हमें बताता है कि हम यानी मानव समुदाय प्रकृति के प्रति कृतज्ञता जाहिर करना सीखें और कम से कम एक दिन उस कृतज्ञता के भाव में विभोर हो जाएं तो हमारे समुदाय की इकाई मनुष्य में ईमानदारी  और स्वाभिमान कायम रहेगा। हमारे पुराणों के रचयिता ऋषि बिंबो से लोक की कहानियां रचते थे। होलिका दहन की कहानी भी कुछ ऐसी है। होली के एक दिन पहले हम अपने भीतर से अभावों, लोकैषणा और वासना का होलिका दहन कर श्रद्धा और निष्ठा के प्रह्लाद को यदि बचा सकते हैं तो हमारा जीवन सुखमय रहेगा। हर पल उत्सव रहेगा । यही नहीं होली से जुड़ी एक कहानी और भी इसलिए होली को मदन उत्सव भी कहते हैं । शिव की समाधि को भंग करने जब कामदेव अपने पुष्प वाण ले कर गए और भगवान शिव ने अपने तीसरे नेत्र को खोलकर उसे भस्म कर दिया तो वहां मौजूद प्रकृति के नटखट पुत्र वसंत के लिए यह स्थिति वरदान हो गई । वह अनंग व्यापक होकर प्रकृति में समा गया।  यही कारण है कि वसंत में काम स्तवन की गुनगुनाहट सुनाई पड़ती है।
कुसुम लिपि में लिखे आमुख
मूल जिससे निसृत हर सुख
    कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी कहते हैं "अधोगत  काम विधाता और हमसे कई अनर्थ करवाता है। बलात्कार और हत्या करवाता है। लेकिन काम उन्नयन संस्कृति को राधा-कृष्ण, उमा - महेश ,कालिदास, टैगोर और गेटे जैसे वरदान देता है। होली के रंग में सराबोर ,अबीर गुलाल से रंगा मन जब उल्लास के पंखों पर उड़ता  है तो पोर पोर अनिर्वचनीय आनंद का आतिथेय हो जाता है। तब होली अपनी पूरी मादकता के साथ लहराती है।
इसीलिए तो होली का सौंदर्य और उसके धुन प्रकृति और नारी के बिंबो से आगे बढ़कर लोकगीतों की धुनों में में समा गए और लोकगीतों का यह आनंद सरस प्रदेश शब्दों में गुंथकर भदेस लोकगीतों में आ गया। होली शास्त्रीय मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाले आनंद की सहज अभिव्यक्ति है । यही कारण है कि आज बेशक जीवन के अर्थ बदल गए हैं महानगरीय जीवन में एक अभिजात्यता आ गई है और होली के रंग को भी औपचारिकता में डालने की कोशिश की जाती है लेकिन इससे यह फीका नहीं पड़ता। कृष्ण नृत्य और गायन के उपासक थे, ठिठोली उनकी प्रिय थी। इसलिए आज भी होली की खुशी राधा कृष्ण आख्यान के बिना पूरी नहीं होती। होली भारतीय दर्शन में प्रेम और आनंद की अभिव्यक्ति है और संदेश है कि प्रेम के बिना जीवन व्यर्थ है। प्रेम और आनंद केवल शरीर का सुख नहीं है यह आत्मा का भी श्रृंगार है। विषयों के बीच अलिप्त रह कर कर्म करना गीता का संदेश है और यही संदेश होली के लिए भी है कि मदन रस में डूब कर भी वासना से दूर रहना ही आनंद  विभोर हो जाने की अवस्था है। राधा और कृष्ण युगल होकर भी असंपृक्त हैं  और तब भी एकात्म हैं। यही कारण है कि आधुनिकता के इस युग में भी जीवन का सत्य कायम है ,होली की ठिठोली कायम है। होली का आनंद हमारे भीतर अब भी रोमांच पैदा करता है और और बसंत पूरी मादकता के साथ लहकता है।

Tuesday, March 19, 2019

नारों में उलझा हमारा लोकतंत्र

नारों में उलझा हमारा लोकतंत्र

भारत को आजाद हुए 72 वर्षों हुए और इस दौरान हमारे लोकतंत्र ने 16 आम चुनाव देखे हैं । इसके बावजूद एक प्रश्न है कि क्या हमारा लोकतंत्र सही दिशा में आगे बढ़ रहा है। 1951- 52 में पहला आम चुनाव हुआ था। उस समय भारत यह नहीं था जो आज है। पंडित जवाहरलाल नेहरू खुद को भारतीय लोकतंत्र का प्रमुख मानते थे और छोटे-छोटे राजाओं ,जमींदारों और रियासतों का बोलबाला था। आंकड़े बताते हैं कि उस चुनाव में केवल 17 करोड 30 लाख मतदाता थे जिसमें     44.87% मतदान हुआ था। उस दौर में 489 सीटों के लिए 53 राजनीतिक पार्टियों के 1874 उम्मीदवार जोर आजमा रहे थे। उस जमाने में भारत एक गरीब देश था और इसकी वार्षिक प्रति व्यक्ति आय ₹7651 थी।  साक्षरता की दर 18.33% थी। उपचुनाव में 489 सीटों में कांग्रेस को 364 सीटें मिलीं और सरकार का गठन हुआ। प्रधानमंत्री  जवाहरलाल नेहरू ने उसी साल जमीदारी प्रथा समाप्त कर दी। उस समय में सोचा गया कि भारतीय लोकतंत्र जल्दी सही स्वरूप हासिल कर लेगा।  भविष्य की सरकारें सही अर्थों में जनता द्वारा जनता के लिए चुनी जाएंगी। हमारे राजनीतिक नेताओं में शायद यह महसूस नहीं किया कि जमीदारी चली गई।  उन्होंने जल्दी ही नई राजशाही स्थापित कर ली। आज देश का कोई भाग ऐसा नहीं है जहां राजनीतिक परिवारों का प्रभाव ना हो।
     पहले इलेक्शन के बाद लंबा वक्त गुजर गया । भारत की आबादी के साथ-साथ जनता की आय भी बढ़ी। 2014 के चुनाव के आंकड़े बताते हैं कि उसमें 83 करोड़ 40 लाख मतदाता थे और 66.44 प्रतिशत मतदाताओं में अपने मताधिकार के प्रयोग किये। 543 सीटों के लिए 464 पार्टियों के 8251 उम्मीदवार मैदान में थे।  प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 1 लाख रुपये के आसपास थी। मोदी का चुनाव इस कीर्तिमान को भी भंग कर देगा और यही चिंता का विषय है। हम चुनाव के रिकॉर्ड तोड़ सकते हैं लेकिन जनता की समस्याओं का समाधान नहीं ढूंढ पाते। इस बार सात चरणों में चुनाव होंगे । सुनकर आश्चर्य होगा कि पहला चुनाव 68 चरणों में हुआ था और इसे पूरा होने में 4 महीने लगे थे। कांग्रेस ने 364 सीटें जीती थी 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 282 सीटें  हासिल हुई। 1957 से आज तक के  चुनाव पर नजर डालें कि क्या इनमें ज्यादातर बहुमत की सरकार बनी थी या गठबंधन की या यह चुनाव किसी एक व्यक्ति के व्यक्तित्व से प्रभावित थे । यह सभी चुनाव वास्तविकताओं पर नहीं नारो पर लड़े गए थे। जवाहरलाल नेहरू ने नारा दिया "आराम हराम है" उनके बाद शास्त्री जी ने 1965 की पाकिस्तान की लड़ाई के दौरान नारा बनाया "जय जवान जय किसान" और यह नारा चुनाव में भी चल गया । 1971 में इंदिरा गांधी का नारा था "गरीबी हटाओ।" 1977 में "इंदिरा हटाओ देश बचाओ" के नारे  हमारे देश में गूंज रहे थे । 31 अक्टूबर 1984 इंदिरा जी की हत्या के बाद के चुनाव में नारा बना "जब तक सूरज चांद रहेगा इंदिरा तेरा नाम रहेगा" और राजीव गांधी को 404 सीटें मिली। 1996 में भाजपा ने नारा दिया "सबको देखा बारी-बारी अबकी  बारी अटल बिहारी।" पिछले चुनाव का नारा था 'अच्छे दिन आएंगे" और इस बार नारे लगाए जा रहे हैं "मोदी है तो मुमकिन है।" यहां एक प्रश्न है इन नारों से देश का कितना कल्याण होता है।
         अगर  सभी हालात का विश्लेषण किया जाने लगा तो जगह कम पड़ जाएगी। सच तो यह है  कि इन नारों से नेताओं और गठबंधन ओ कुछ लाभ जरूर हुआ है लेकिन देश को नहीं। देश अभी भी आशा और निराशा के बीच झूल रहा है। अब हम जब  लोकसभा के लिए वोट डालने जाएंगे इस बात का ध्यान रखना जरूरी होगा कि देश में जहां 80% साक्षरता की दर है वह देश क्या आकर्षक नारों से प्रभावित होगा ,वह देश क्या विकास की मांग नहीं करेगा अपने नेताओं से? इस बार हमें यह सोचना है।