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Wednesday, September 30, 2015

सपने कैसे पूरे होंगे


30सितम्बर
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत लौट आये हैं। पांच दिनों की विदेश यात्रा पर भारतीय जनता पार्टी या यूं कहें मोदी सरकार की दो ही प्राथमिकताएं हैं पहली प्रधानमंत्री विदेश यात्रा और उस पर शान- ओ - शौकत वाले तफसिरे और दूसरी विरोधी दलों को नीचा दिखाने की कोशिश। लेकिन दोनों में उनका खोखलापन और उनकी आशंकाएं साफ दिखती हैं। पहले मोदी जी की ताजा विदेश यात्रा की बातें करें। नरेंद्र मोदी ने अपनी अमरीका यात्रा के दौरान भाषण और उनके संचरण प्रभाव की सभी कलाओं का उपयोग किया और वहां के लोगों को यह समझाने की भरपूर कोशिश की कि उनके प्रधानमंत्रित्व काल में भारत तेजी से बदल रहा है। यह बदलाव न केवल सकारात्मक है बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मनानुकूल है। लेकिन जब वे भारत को करीब से देखेंगे तो प्रसन्न होने के बजाय चिंतित हो उठेंगे। मोदी जब प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने और उनकी पार्टी ने भारत की जनता में न केवल बहुत उम्मीदें जगायीं बल्कि ढेर सारे सुनहरे वादे भी किये, खास कर आर्थिक सुधार के क्षेत्र में। लेकिन , अगर आप अमरीकी उद्योगपतियों की बैठक के परिणाम की समीक्षा करेंगे तो पाएंगे कि लोगों को मोदी की आर्थिक सुधार की क्षमता पर भरोसा नहीं है। योजना आयोग को नीति आयोग में बदल डालने से भरोसा हासिल नहीं किया जा सकता है। किस देश में व्यवसाय की कितनी सुविधा है इस मामले में विश्व बैंक ने 189 दशों की एक सूची बनायी है। इसमें हैरत की बात नहीं है कि उस सूची में ऊपर से भारत का स्थान 142 वां है। ढांचागत सुधार और बाजार को रास आने वाले सुधार ही अर्थव्यवस्था को सकारात्मक गति दे सकते हैं। लेकिन मोदी जी सरकार ने इस दिशा में बहुत कम कदम आगे बढ़ाया है। उद्योगों को भूमि चाहिये और उसके लिए भूमि अधिग्रहण विधेयक संसद में अवरोध के कारण लटक गया। यही हाल जी एस टी विधेयक का भी हुआ। मोदी जी इंस्पेक्टर राज को पूरी तरह समाप्त करने की बात करते हैं पर आज भी यह उतना ही है जितना पहले था। अलबत्ता मीडिया के घनघोर प्रचार के कारण यह कमी ढंक जाती है। यही हाल विपक्ष को नीचा दिखाने और उसके बारे में नकारात्मक भ्रम पैदा करने का भी होता है। अब तक तो मोदी जी की विदेश यात्रा पर विमर्श किया गया। अब जरा विपक्षियों के सम्बंध में उसकी नीति देखें। अपने देश में कांग्रेस के एक नेता हैं राहुल गांधी। राहुल जी की सबसे बड़ी बाधा है उनका गांधी परिवार का होना। जब से भाजपा की सरकार आयी तबसे प्रचार के बल पर कांग्रेस को, खास कर गांधी परिवार को बिल्कुल नकारा साबित कर दिया। लेकिन मजे की बात है कि जब आत्मप्रचार की इच्छा से परिपूर्ण मोदी इस बार विदेश यात्रा पर रवाना हुये लगभग उसी समय राहुल गांधी भी अचानक अज्ञातवास में चले गये। अब यहां मजा देखिये, राहुल गांधी के अज्ञातवास को लेकर इतना बवाल क्यों? मीडिया और भाजपा के नेता क्यों इस पर अपना समय और श्रम बर्बाद कर रहे हैं। जबकि उन्होंने ही फतवा दिया है कि राहुल एक नकारा और देश की राजनीति के लिए बिल्कुल अयोग्य आदमी हैं। तब इतना शोर क्यों? इतनी तफतीश क्यों कि राहुल कहां हैं, क्या कर रहे हैं? क्या भाजपा और उसके सहयोग के लिए सन्नद्ध मीडिया का एक वर्ग भीतर ही भीतर कहीं यह तो नहीं कबूल कर रहा है कि राहुल भारतीय राजनीति के भविष्य हैं। इसीलिये हमेशा उनकी आलोचना कर उन्हें मुख्यधारा से बाहर रखने की कोशिश में रहते हैं। राहुल गांधी के लिए तथा उनके परिवार के लिए जिन शब्दों का उपयोग होता है उनके लिए मां का जिक्र आने पर जनता के सामने फफक पड़ने वाले नरेंद्र मोदी कैसे अनुमति देते हैं। देश अपनी उम्मीदों को पूरा होते देखने को व्याकुल है। देश का युवा वर्ग अपने भविष्य को संवारना चाहता है और इसके लिए अधीर है, वहीं बुजुर्ग ये देख रहे हैं कि यह युग उनके समय से कैसे अलग है। विरोधी दलों की निकृष्ट आलोचना और आत्म प्रचार, कैसे इसमें लगी ऊर्जा उपलब्धियों के प्रकाश में बदलेगी?


29 सितम्बर
आज हिंदी पखवाड़ा खत्म हो जायेगा। इस दौरान हिंदी की सियासत करने वाले और हिंदी को बाजार में बेच कर मलाई उड़ाने वाले लोगों ने बहुतों को चायपानी पिलाया। अंग्रेजी शैली में ‘हिंडी’ बोलने वाले और ‘हिंडलिश’ में जीवन का लुत्फ उठाने वालों की इसबीच चांदी रही। इस पर्व को पन्द्रह दिनों तक मनाने के लिए सरकार प्रचुर धनराशि खर्च करती है। इसलिए पैसे की स्वीकृति पूर्व में ही करा ली जाती है। फिर क्या हर कार्यालय के प्रमुख ,हिंदी अधिकारी व कर्मचारी कार्यों से विरत हो नित एक नया कार्यक्रम आयोजित करते हैं और स्मृतिचिन्ह ,पुरस्कार व जलपान में पैसे समायोजित करते हुए हिंदी को भरपूर उपकृत करते हैं। स्वाधीन भारत में हिंदी के प्रयोग को बढ़ाने एवं इसके प्रचार प्रसार के लिए दशकों से हर वर्ष यह सरकारी पर्व मनाया जा रहा है परन्तु हिंदी देश की राजनीतिक देहरी पर, अपने हक के लिए, सात दशकों से खड़ी है। हमारे नेता इसे राष्ट्र संघ की भाषा बनाने की बात करते हैं परन्तु राष्ट्र भाषा बनाने की चर्चा से कन्नी काट जाते हैं। जनहित की सोचने वाले जनहित का मरम जानने में विफल हैं। अब वे तर्क बेमानी लगते हैं कि हिंदी में तकनीकी शब्दावली क़ी कमी है या विज्ञान, अभियांत्रिकी ,अंतरिक्ष ,कानून जैसे विषय हिंदी में ब्यक्त नहीं हो पाते। भाषाओं की दूरियां मिट रही हैं। अंग्रेजी का ऑक्सफोर्ड शब्दकोष हर संस्करण में हिंदी के अनेक शब्द आत्मसात कर रहा है। वैसे ही हिंदी में अन्य भाषाओं के अनेकानेक शब्द घुल- मिल रहे हैं। यहां जो सबसे बड़ी गड़बड़ी है वह है हिंदी की सियासत करने वालों के स्वार्थ। अगर आप बारीकी से देखें तो हिंदी जहां खुद को तेज कंपटीटिव और नए संचार के लिए नाकाफी पाती है, वहां अंग्रेजी भी असली यथार्थ के संचार में अपने को कमजोर पाती है। लेकिन दोनों में फर्क यह है कि अंग्रेजी में हिंदी के आने को अंग्रेजी वाले अपने लिए विवाद का विषय नहीं बनाते, जबकि हिंदी के विद्वान अब भी अंग्रेजी के शब्दों के आने पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं। अंग्रेजी की ताकत यह है कि मिलावट से परेशान नहीं होती, जबकि हिंदी वाले इस तरह की मिलावट से अब तक परेशान दिखते हैं। लगता है कि कभी-कभी अंग्रेजी का ऊंट पहाड़ के नीचे भी आने को मजबूर होता है। जिस अंग्रेजी का इतना बोलबाला है और जहां अंग्रेजी में गिटपिट करने वाले भी ‘‘चिंतक’ होने का गुमान पालते हैं और देश को दिशा देने का वहम पालते हैं, वे जब अपने को ‘‘तर्क में फंसा’ महसूस करते हैं तो अचानक हिंदी में बोलने लगते हैं, बात करने लगते हैं। कथित विद्वतजनों द्वारा अपनी भाषा (अंग्रेजी) छोड़ दूसरी ताकत की भाषा (हिंदी) में स्विच ओवर करने का मतलब ही यही है कि वह नए ताकत समूह में शामिल होना चाहता है। लेकिन इससे यह भी सिद्ध होता है कि अरसे से अंग्रेजी और हिंदी के बीच जो तेज लेन-देन चल रहा था, जो उदारीकरण के दौर में बने और बढ़े माध्यमों से हो रहा था वह अब इकतरफा नहीं रह पा रहा। पहले हिंदी वाले अंग्रेजी का छौंक लगाते थे, अब अंग्रेजी वाले हिंदी का तड़का लगाते हैं। हिंदी को श्रेष्ठता की धार देने वाले निःस्वार्थ साधक रहे हैं जिन्होंने हिंदी की सेवा स्वान्तःसुखाय की है या कर रहे हैं। यह वही परम्परा है जिसका श्रीगणेश गोस्वामी तुलसीदास ने यह कह कर किया कि

भाषाबद्ध करब हम सोई ,

मोरे मन भरोस जेहि होई।

कीरति ,भनति ,भूति भल सोई,

सुरसरि सम सबकर हित होई।

अतः हिंदी के निःस्वार्थ सेवक कामिल बुल्के सरीखे विदेशी विद्वान भूरि -भूरि प्रशस्ति के पात्र हैं।

आपने गौर किया होगा कि इन दिनों अंग्रेजी लेखक हिंदी में अनूदित होकर आने लगे हैं और हिंदी के अपने कालमकार कम होने लगे हैं। हिंदी के कालम तो अंग्रेजी में नहीं गए, अंग्रेजी के हिंदी में घुस आये हैं। यह हिंदी मीडिया की एक नई समस्या है जिस पर किसी का ध्यान नहीं गया है। दरअसल यह अंग्रेजी का दंभ चूर होने की प्रक्रिया है। अगर समाज में तेज बदलाव की आकांक्षाए हैं और अंदरूनी संक्रमण है तो कोई भी कम ताकतवर भाषा अपने से ज्यादा ताकतवर भाषा से दोस्ती करेगी ही ताकि वह उसके हमले को रोक सके। चाहे इस चक्कर में वह कुछ भ्रष्ट हो जाए। भ्रष्ट होना खत्म होने की अपेक्षा बेहतर है क्योंकि भाषा का स्वभाव ही भ्रष्ट होते रहना है, मिलावट वाली होते रहना है। अंग्रेजी इसी बात का उदाहरण है और इस बात का भी कि वह प्लान करके दूसरी भाषा के शब्दों को हर साल अपने शब्दकोश में जगह देती है। अंग्रेजी इस तरह बदलने की नीति पर दृढ़ रहती है और अधिक व्यापक होती जाती है। हिंदी भी बदले और योजनाबद्ध रूप में बदले और उसके मठाधीश इस तरह बदलाव पर रोना बंद करें!


डिजिटल डिवाइड के दौर में मोदी का सपना









 28 सितम्बर



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कैलिफोर्निया में डिजिटल इंडिया कार्यक्रम में भाग लिया। उन्होंने सूचना प्रौद्योगिकी की बड़ी कंपनियों के प्रमुख कार्यकारी अधिकारियों से कहा कि उनके लिए भारत में काफ़ी संभावनाएं हैं और वे इसका पूरा फ़ायदा उठा सकते हैं। डिजिटल डिवाइड के इस दौर में मोदी जी ने इसके अगुवा अमरीका में इस तरह की गुहार की जो अपने आप में काफी बड़ी बात है। माेदी जी ने डिजिटल इंडिया का जो सपना देखा है उसकी प्रमुख बातें हैं कि डिजिटल तकनीक लोगों को बेहतर मौके दे सकती है और सोशल मीडिया लोगों को मानवीय मूल्यों के आधार पर जोड़ता है। मादी जी का मानना है कि यह तकनीक लोकतंत्र को मजबूत करती है और जनता का काम करने के लिए सरकारों को मजबूर करती है। उन्होंने कहा कि ऐसा होने पर सरकार मोबाइल गवर्नेंस को पूरी तरह लागू करेगी। डिजिटल इंडिया की मूल धारणा यह है कि सरकारी दफ्तरों में कागज का इस्तेमाल खत्म कर दिया जाए। इसके तहत देश के सभी कॉलेजों को इससे जोड़ा जाएगा। सरकार जल्द ही सार्वजनिक वाई फ़ाई व्यवस्था शुरू करेगी। 500 रेलवे स्टेशनों में वाई फ़ाई शुरू किया जाएगा। स्मार्ट सिटी बनाई जाएंगी और इससे किसानों को भी जोड़ा जाएगा ताकि उन्हें अपने उत्पादों की अच्छी क़ीमत मिल सके। बेशक इस क्षेत्र में अमरीकी तकनीकी कंपनियों के लिए अपार संभावनाएं हैं। डिजिटल इंडिया के दौर में देशवासियों को इंटरनेट, मोबाइल और बैंकिंग सुविधाएं मुहैया कराई जाएंगी। आईटी का इस्तेमाल गवर्नेंस में पूरी तरह से होगा। सभी सरकारी सेवाएं ऑनलाइन की जाएंगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का डिजिटल इंडिया प्रोजेक्ट मोबाइल फोन के जरिए लागू होगा। मसलन बैंकिंग, शिक्षा, स्वास्थ्य, एग्री सेवाएं सब मोबाइल फोन से दी जाएंगी। सरकार को उम्मीद है कि जल्द सबके पास स्मार्टफोन होंगे और फोन सस्ते होंगे, इसके लिए देश में मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा दिया जा रहा है। डिजिटल इंडिया प्रोग्राम का फायदा सभी तक पहुंचाने के लिए मोबाइल सिग्नल से दूर करीब 42,000 गांवों को मोबाइल सर्विस से जोड़ा जाएगा।

डिजिटल इंडिया में सरकार की सब्सिडी स्कीम समेत दूसरी सभी स्कीमों का फायदा लोगों तक पहुंचाने के लिए मोबाइल फोन ही बैकबोन होगा। मोबाइल के जरिए हर तरह की फाइनेंशियल सर्विस पहुंचाने की कोशिश होगी। सरकार की जन-धन योजना के मुताबिक हर घर में बैंक अकाउंट होगा और लोग मोबाइल बैंकिंग के जरिए बैंकिंग ट्रांजेक्शन कर सकेंगे। साथ ही डेबिट कार्ड भी दिया जाएगा। लेकिन जानकारों का कहना है कि मोबाइल बैंकिंग के साथ डेबिट कार्ड की जरूरत नहीं है। संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने भी इस पहलू पर विचार करने की जरूरत महसूस की है। मालूम हो कि सरकार डिजिटल इंडिया प्रोजेक्ट पर 1.13 लाख करोड़ रुपये खर्च करेगी। इससे अगले पांच सालों में आईटी से जुड़ी एक करोड़ से ज्यादा नौकरियां मिलने की उम्मीद की जा रही है। इस प्रोजेक्ट के तहत पूरे देश को टेक्नोलॉजी और इंटरनेट से जोड़ा जाएगा। सभी ऑफिसों के कागजात ऑनलाइन होंगे और सभी सरकारी सेवाएं ऑनलाइन मिल सकेंगी। लोगों तक हर सर्विस पहुंचाने के लिए सरकार ने अगले तीन साल में सभी 2.5 लाख पंचायतों को ब्रॉडबैंड से जोड़ने का लक्ष्य रखा है। पीसीओ के तर्ज पर 2.5 लाख नए कॉमन सर्विस सेंटर खोले जाएंगे। सभी पंचायतों में सरकारी सेवाएं इन सेंटर के जरिए दी जाएंगी। उम्मीद है कि इन प्रयासों के बाद गांवों में ई-कॉमर्स को भी बढ़ावा मिलेगा। लेकिन ये सारे सपने तब पूरे होगे जब तीसरी दुनिया को डिजिटल अछूत ना माना जाय। इस ख्वाब को हकीकत में बदलने के लिए एकदम मिशन मोड में काम करना होगा। गांव-गांव, कस्बे-कस्बे नेट पहुंचाने के लिए व्यापक स्तर पर आधारभूत ढांचे का निर्माण करना होगा। इसमें भारी खर्च की आवश्यकता है। इस समय डिजीटल फाइबर केबल ही पूरे देश में नहीं है। पूरे देश में केबल बिछाना होगा। पहाड़ों, नदियों, जंगलों से होकर दूरस्थ गांवों तक केबल ले जाना कितना कठिन काम है इसका अनुमान स्वयं लगाइए। इसी तरह इसके अन्य उपादान हैं। जगह-जगह एक्सचेंज की आवश्यकता होगी। अनुमान है कि इस क्षेत्र में निजी क्षेत्र काफी निवेश करेंगे। निजी क्षेत्र की कम्पनियां अगर आएंगी तो फिर सेवा भी वैसी सस्ती नहीं हो सकती जितनी आम आदमी को इस सेवा के उपयोग के लिए चाहिए। यही नहीं जितनी स्पीड बताते हैं उसकी आधी भी नहीं देते। यह स्थिति कोलकाता , दिल्ली, मुंबई जैसे मेट्रों शहरों की हैं। गांवों तक उनकी स्पीड की क्या दशा होगी? कैसे स्पीड बढ़ाई जाएगी? आप अगर सेवा दे भी दें तो उसका उपयोग करने का ज्ञान भी तो लोगों को चाहिए। यह कैसे होगा। अगर हम इसे नई सोच के तहत करना चाहते हैं तो इसके लिए हमें पूरी तरह से नया रवैया अपनाना पड़ेगा। गांव में डिजिटल तकनीक को लेकर काम करने वाले विशेषज्ञों का मानना है यदि डिजिटल डिवाइड खत्म हो जाय(जो एक दिवास्वप्न लगता है) और अगर सब-कुछ सटीक उस तरह हो जाए जैसा कागजों पर दिखता है तब भारतीय परिस्थितियों में इन लक्ष्यों को पूरा होने में कम से कम दस साल लगेंगे।

Saturday, September 26, 2015

बिहार: मेरी बेबसी को समझो





मेरे दिल पे हाथ रक्खो, मेरी बेबसी को समझो

मैं इधर से बन रहा हूँ, मैं इधर से ढह रहा हूँ।

बिहार सदा से क्रांति प्रदेश रहा है। वह क्रांति चाहे बोध गया से शुरू हुई हो या नालंदा से या चंपारण से या गांधी मैदान से। दूर इतिहास में देखने की जरूरत नहीं है, नजदीकी तवारिखों के गलियारों में झांक कर देखेंगे तो अंग्रजों के खिलाफ निलहे आंदोलन की गूंज अभी भी चम्पारण की गलियों में कायम है। इस गूंज ने दिल्ली की हुकूमत को थरथरा दिया था और उसी ज्योति ने भारत में अंग्रेजी शासन के खिलाफ एक नवीन क्रांति को जन्म दिया। यही नहीं 70 के दशक में दिनकर की इन पंक्तियों ने क्रांति की पहली तीली जलाई

समर शेष है नही पाप का भागी केवल व्याध

जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध

और वहां की सड़कों पर गूंज उठा ,

क्योंकि एक बहत्तर बरस का

बूढ़ा अपनी कांपती कमजोर

आवाज में

सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल

पड़ा है..............

वो मंजर आज 40 साल पुराना हो चुका है। पर, यादें उस समय के लोगों के जहन में आज भी बसी हैं। जीवंत वो गाथा, भारत के इतिहास में, आजादी के बाद, अमर हो चुकी है। इमरजेंसी- यही वह 1975 का वक्त था जब इस शब्द को परिभाषित होते लोगों ने देखा। शायद कहीं न कहीं इंदिरा गांधी को इस घटना के लिए हमेशा याद किया जाता रहेगा। इमरजेंसी इंदिरा गांधी की पहचान बन गयी। सत्ता दिल्ली की हो या बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश अथवा कर्नाटक की हिलती है फिर परिवर्तित होती है। सत्ताधारी जब निश्चिंत हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि अब उनकी मुखालफत करने वाला कोई नहीं तो मंगल पांडे का जन्म कहीं न कहीं हो ही जाता है। बिहार की मिट्टी में एक क्रांति करने की पहल समायी हुई है। इसीलिए अन्ना हजारे हों या प्रधानमंत्री मोदी सभी ने अलख यहीं से जगायी। अब जब बिहार में चुनाव सिर पर मंडरा रहे हैं तो, हर बड़ी पार्टी इस मिट्टी पर अपना भाग्य आजमाना चाहती है। इस बार क्रांति की लहर ऐतिहासिक होने जा रही है। ओवैसी जो हैदराबाद से एमपी हैं और एआई एम आई एम के कर्ताधर्ता, बिहार में भाग्य आजमाना चाह रहे हैं। उधर, अपने राज्य से बिहारियों पर अंग्रेजों की मानिंद जुल्म करने वाली महाराष्ट्र की शिवसेना अपनी ऊंचाई मापना चाहती है। मुलायम अपने समधियाने में अकेले ही सबकुछ समेटने पर आमादा हैं। ये सभी पार्टियां चुनावी दंगल में बिहार की धरती पर अपना परचम लहराने को बेताब हैं। इस बार बिहार चुनाव की खासियत है पार्टी के कुछ नेताओं का अचानक बागी हो जाना। पिछले कई साल से पार्टी के सिद्धांतों को सबसे ज्यादा समझने का दावा करने वाले टिकट नहीं मिलने पर अचानक सुर बदल लेते हैं। चंद मिनटों में पार्टी बदल जाती है और वफादारी भी। बिहार में भी इस बार पार्टियों की सबसे बड़ी चिंता अपने बागियों को काबू में रखना है। चाहे महागठबंधन हो या फिर एनडीए, हर जगह बागी ताल ठोंककर खड़े हैं। अपनी जीत का दावा हो या न हो, लेकिन बागी कल तक जिस पार्टी में थे उसे हराने की गारंटी देते दिखते हैं। लेकिन क्या बागी वाकई इतनी ताकत रखते हैं कि वे किसी भी दल के समीकरण को बना-बिगाड़ सकते हैं? इस पर अभी कुछ कहना जल्दबाजी है, लेकिन बगावत जारी है। चुनाव सर पर है और लोकतंत्र सबको अपनी बात कहने का मौका देता है। अब पार्टी ने टिकट नहीं दिया तो चुनाव नहीं लड़ सकते, ऐसा थोड़े ही है। सो जहां से मिलेगा टिकट, वहां से लड़ेंगे बागी, और अगर नहीं मिला तो फिर आजाद उम्मीदवार बनकर अपनी बात रखेंगे। राजनीति में दाग अच्छे हैं। अच्छे, इसलिए कि 2010 के विधानसभा चुनाव में एडीआर (एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म्स) की रिपोर्ट में जिन 141 विधायकों पर आपराधिक मामले थे उनमें अधिकांश चेहरों पर पार्टियों ने इस बार भी भरोसा जताया है। इनमें से 38 जदयू से, 47 भाजपा से, 6 राजद से, 1 लोजपा से, 3 हम से, 3 कांग्रेस से और 1 निर्दलीय फिर मैदान में हैं। सूची में शामिल तीन नाम दिवंगत हो चुके हैं। इन दागी विधायकों में 46 पर तो हत्या, अपहरण, हत्या का प्रयास, रंगदारी जैसे संगीन मामले के आरोप थे। पांच साल की अवधि में इनमें कई चेहरे अदालत से बेदाग भी हुए होंगे। इस बार 29 बेटिकट भी हुए हैं। दागी माने गए चेहरों में पांच सांसद चुन लिए गए हैं, चार भाजपा से और एक जदयू से। इस जमात में पाला बदलने वालों की संख्या भी काफी है। दो विधायक भाजपा छोड़ जदयू के पाले में आए हैं और चुनाव भी लड़ रहे। ज्यादा आमद भाजपा और उसके सहयोगी दलों को हुई है। सम्राट चौधरी, राणा गंगेश्वर सिंह, अवनीश सिंह, सोनेलाल हेम्ब्रम, जाकिर हुसैन जैसे कुछ नाम इस बार अब तक मैदान में नहीं हैं। सम्राट, परबत्ता से राजद विधायक थे। बागी बने। जदयू से एमएलसी बने, मंत्री बने। यहां भी बगावत कर दी। गिनती हम के साथ होती है। राणा गंगेश्वर सिंह मोहिउद्दीननगर से भाजपा विधायक थे। पार्टी छोड़ जदयू में आ गए। फिलहाल एमएलसी हैं। अवनीश सिंह ने भाजपा छोड़ दिया। मोतिहारी से जदयू के टिकट पर एमपी का चुनाव लड़े, हार गए। बिहार में जातिगत वोटों की परंपरा आज भी विद्यमान है। कुर्मी, यादव और भूमिहार बाकी जातियों के अलावा इनकी पैठ मानी जाती है। केंद्र की सत्ता ने एक बार फिर परिस्थिति अपने हाथ में होने का आभास कराया है। दिल्ली यूनिवर्सिटी में 4 में से 4 सीटें एबीवीपी ने जीती हैं जिससे हौसला बुलंद है। पर, बिहार क्या लोकसभा की कहानी दोहराने की हिम्मत दिखा पायेगा।

खरगोश बन के दौड़ रहे हैं तमाम ख्वाब,

फिरता है चांदनी में कोई सच डरा-डरा

Friday, September 25, 2015

इरादा क्या था यह तो बताएं

सरकार ने इन्क्रिप्शन नीति को वापस ले लिया है। इसमें जो सबसे प्रशंसनीय तथ्य है वह है इस नीति को वापस लिये जाने में दिखायी जाने वाली तेजी। इस नीति का उद्देश्य इंटरनेट सुरक्षा था। लेकिन इसमें जो प्रावधान थे वे इस उद्देश्य के प्रतिगामी थे। दरअसल इन्क्रिप्शन का अर्थ है साइबर की दुनिया में अपने द्वारा ​लिखे गये संदेशों को वही देख सकता है जिसके लिये यह लिखा गया है। इसमें सोशल मीडिया एक बड़े आधार वाला है जिसे वे सब देखते हैं या पढ़ते हैं जो साइबर विश्व में लिखने वाले से जुड़े हैं। लेकिन बात यहां तक ही नहीं है इसके आगे भी है। इसी दुनिया में आतंकी, अपराधी और अन्य शरारती तत्व हैं जो इरादतन आपके साइबर माध्यम में चोरी से घुस आते हैं और गलत तथा भ्रामक सूचनाएं छोड़ जाते हैं जिसे देखने या पढ़ने वाला समझता है कि वह अधिकृत प्रेषक द्वारा भेजी गयी हैं। ऐसे ही तत्वों को रोकना इस नीति का उद्देश्य था। इस नीति का अधिकार क्षेत्र केवल काॅरपोरेट कम्पनियों और सरकारी महकमों तक ही सीमित नहीं था बल्कि इसकी जद में आम आदमी भी आ रहे थे। विकीलिक्स के बाद लगभग सभी मोबाइल फोन उपयोग कर्ताओं को व्यक्तिगत गोपनीयता का थोड़ा बहुत ज्ञान हो ही गया है। यह नीति वाट्सएप, फेसबुक , वाइबर , ट्वीटर और इस तरह के अन्यान्य माध्यमों में लिखे गये संदेशों और ई मेल को तीन महीने तक मिटाने से रोकती थी तथा यह सहूलियत देती थी कि सरकार इस पर नजर रख सके। यह एक तरह से ​निजता के अधिकार पर पाबंदी का प्रयास था। इसीलिये इस नीति का तीव्र विरोध हुआ और विरोध के परिणाम तथा उसकी तीव्रता को देखते हुए सरकार ने फौरन उसे वापस ले लिया। आशा है कि इस पर उठे विरोध से सरकार ने उचित सबक लिया होगा, जिसकी झलक नए प्रारूप में देखने को मिलेगी। संदेश यह है कि आज के दौर में आम लोग, खासकर इंटरनेट का ज्यादा उपयोग करने वाली युवा पीढ़ी गैरजरूरी निगरानी व नियंत्रण को पसंद नहीं करती। रविशंकर प्रसाद ने कहा कि ई-कॉमर्स और ई-शासन के बढ़ते चलन के साथ अनेक देशों में इन्क्रिप्शन नीति की जरूरत महसूस की गई है। साइबर संपर्क व संवाद बढ़ रहा है। इसके मद्देनजर ऑनलाइन सुरक्षा से संबंधित नई दिक्कतें सामने आ रही हैं। इसे देखते हुए भारत में भी मजबूत इन्क्रिप्शन नीति की जरूरत समझी गई है। नई ऊंचाइयों की तरफ जाने के बजाय सरकार के कारिंदे अपने ही लोगों की निगरानी पर तुले हैं। डि​जिटल मीडिया के लिए प्रस्तावित इस नई नीति में कुछ ऐसी ही हरकत नजर आती है। सरकारी व्यवस्थाओं में नई खोजों, नए उपकरणों और नई चुनौतियों के लिए खुद को तैयार करने की प्रवृत्ति कम है और रवैया है रोक का, डर का, और कानूनी दांवपेंच में चीजों को उलझाने का। आम लोगों के डिजिटल व्यवहार और वर्चुअल दुनिया की बढ़ती लोकप्रियता से सरकारें घबरा गई हैं। भारत सरकार भी क्या मान बैठी है कि वर्चुअल दुनिया में अगर वाकई लोकशाही आ गई तो उसकी नीतियों, नारों और दावों, वादों की सुध कौन लेगा। लगता तो यही है कि अपने राजनीतिक और वैचारिक एजेंडे की खातिर सरकार डिजिटल अभिव्यक्ति को दबाना चाह रही है। और इसके दायरे में जाहिर है सबसे पहले वही लोग आएंगे जो अपने उसूलों, विचारों, नागरिक जवाबदेहियों और राजनैतिक चिंतनों और चिंताओं की वजह से सरकार की हां में हां नहीं मिलाते हैं और सत्ता व्यवस्था के हमलों के खिलाफ एक प्रतिरोध बनाए रखते हैं। इस प्रतिरोध की एक धारा इधर नए मीडिया में फूटी है तो डंडा लेकर सरकार वहां भी पहुंच गई है। पहले सेक्शन 66 ए को लेकर विवाद थमा भी नहीं कि अब ये सेक्शन 84 ए और उसकी ये इन्क्रिप्शन नीति। अभी तो सोशल मीडिया को इस नीति से अलग रखा गया है। जबकि वहां तो एक पूरी की पूरी अदृश्य हिंदूवादी सेना है जो हर विरोधी विचार पर अपनी नफरत का जाल फेंक देती है, और नए विचारों को तहस-नहस कर अट्टहास करती रहती है। काश, इस तरह की नीतियों में उन ‘डिजिटल शूरवीरों’ के लिए भी कोई नियम कायदे और कानून बनते। सरकार का ध्यान उन पर भी जाता, उसका इरादा तो उन लोगों पर नजर रखने का लगता है जिनका डिजीटल आचरण उसकी निगाह में ‘पवित्र’ या ‘शुद्ध’ नहीं। दरअसल भारत सरकार इन्क्रिप्‍टेड यानी कूटबद्ध संदेशों और डेटा पर अपनी पहुंच मजबूत करना चाहती है। इसलिए सिर्फ देश में पंजीकृत मैसेज सेवाओं के इस्‍तेमाल की अनुमति देने जैसे सुझाव दिए जा रहे हैं। साइबर मामलों के एक विशेषज्ञ का कहना है कि एक तरफ सरकार डिजिटल इंडिया की बात कर रही है और दूसरी तरफ इस प्रकार का इंस्‍पेक्‍टर राज लाने की तैयारी की जा रही है। क्‍योंकि ड्राफ्ट के मुताबिक, इन्क्रिप्‍टेड संदेशों का इस्‍तेमाल करने वाली सेवाओं को भारत में पंजीकृत होना आवश्‍यक होगा जबकि वाट्स एप जैसे तमाम मैसेज एप्‍लीकेशन देश के बाहर से संचालित होते हैं। ऐसे में या तो वाट्स एप का इस्‍तेमाल करना गैर-कानूनी हो जाएगा वरना वाट्स एप जैसी सेवाओं को भारत में पंजीकृत होकर सरकारी नियमों का पालन करना होगा। सरकार के इस कदम की चौंतरफा आलोचना हुई और इसे डिजिटल इमरजेंसी तक करार दिया गया। वाट्स एप जैसी सेवाओं के भविष्‍य पर भी सवाल खड़े होने लगे थे।

Thursday, September 24, 2015

आरक्षण का निहितार्थ


संघ प्रमुख मोहन भागवत द्वारा आरक्षण को लेकर दिए गए बयान से इस संवेदनशील मुद्दे पर देश में नए सिरे से चर्चा शुरू हो गयी है। भागवत ने यह सच कहा है कि बीते वर्षों में आरक्षण पर राजनीति की गयी और उसका दुरूपयोग किया गया है। कभी सामाजिक-आर्थिक कल्याण के उद्देश्य से शुरू यह व्यवस्था अब पूरी तरह राजनीतिक मसला बन गयी है। यह भी एक कारण है कि संघ की इच्छा के समक्ष अकसर दंडवत नजर आने वाली भाजपा के नेतृत्व केंद्र सरकार ने भी भागवत के विचारों से खुद को अलग दिखाने में देर नहीं लगायी। संभव है, इसके जरिये भाजपा और मोदी सरकार, हालिया समन्वय बैठक के बाद आयी संघ द्वारा क्लास सरीखी टिप्पणियों पर भी सफाई देना चाहती हो, लेकिन असल मंशा चुनावी खामियाजे से बचने की ही है। बिहार की राजनीति को उत्तर प्रदेश से भी ज्यादा जातीय शिकंजे में जकड़ी माना जाता है। बिहार में ताल ठोक रहे लालू प्रसाद भी हैरान रह गए होंगे। समझने में कोई कमी न रह जाए इसलिए अगले दिन केंद्र सरकार की तरफ से भी दो टूक शब्दों में दोहरा दिया गया कि दलित और पिछड़ों के लिए मौजूद वर्तमान आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था पर किसी सोच-विचार का सवाल ही नहीं उठता। भाजपा और केंद्र की तरफ से ऐसी त्वरित प्रतिक्रिया अपेक्षित थी क्योंकि इस एक मुद्दे पर बिहार चुनाव को फतह करने की भाजपा की तमाम रणनीति ताश के महल की तरह बिखर जाती। इस जंग के लिए भाजपा ने बिहार में जो विजय रथ तैयार किया है, उसके सारथी भले विकास की हुंकार भर रहे हों लेकिन इसके घोड़े और पहिए वहां के दुर्नाम जाति समीकरण के आंकड़ों के गुणा भाग से बने हैं। बिहार में सत्ता के लिए उसे सीधे मंडल के उत्तराधिकारियों से टकराना है और लोहे को तो लोहा ही काटता है। हैरत की बात है कि भागवत ने आरक्षण पर कोई नई बात नहीं कही थी बल्कि संघ का घोषित पक्ष ही दोहराया था। उन्होंने आरक्षण खत्म करने की बात ही नहीं कही थी बल्कि इसे असल जरूरतमंदों तक पहुंचाने की जरूरत बतायी थी। आरक्षण का जैसे ही नाम आता है लगभग सभी राजनीतिक दलो की बोलती बंद हो जाती है, और यदि बात आरक्षण को हटाने की हो तो इनकी सांसे ऊपर नीचे होने लगती है,क्योंकि बात आखिर वोट बैंक की है।कोई भी खुल कर बोलने की हिम्मत नही करता,राय जाहिर नहीं कर पाता, जैसे आरक्षण कोई भूत है। राजनीति अपनी जगह है लेकिन,देशहित का क्या? आज किस तरह से जल रहा है देश आरक्षण की आग में। कहते है कि आरक्षण दबे कुचले,कमजोर,पिछडे लोगो के लिए है,लेकिन क्या वास्तव में इसका फायदा उचित व्यक्तियों को मिल रहा है? आरक्षण को लेकर इस देश में सदैव वोट बैंक की राजनीति की गयी है। कभी एक जाति तो कभी दूसरी जाति को आरक्षण के नाम पर लुभाने का प्रयास किया गया है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि समाज में यह प्रवृत्ति बढती गयी और अनेक जातियां अपने को अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े वर्गों में शामिल करने की मांग को लेकर आन्दोलन के लिए सड़कों पर उतर आयी। इससे समाज में एक खाई पैदा हो गयी है। इस भेदभाव को मिटाने और कमजोर वर्ग को समाज के अन्य वर्गों कि बराबरी में लाने के लिए हमें जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था को समाप्त करना ही होगा। हमें यह तय करना होगा कि कोई व्यक्ति आरक्षण का एक बार लाभ लेकर अन्य वर्ग के बराबरी में कोई पंहुच गया है तो उसे सामान्य श्रेणी का मान लिया जाये और उसके परिवार को आगे आरक्षण का लाभ न मिले। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति सामान्य वर्ग का है और गरीब है तो उसे बराबरी में लाने के लिए आरक्षण का लाभ दिया जाए और जैसे ही वह बराबरी हासिल करले, उसे आरक्षण का लाभ बंद कर दिया जाए। इसके लिए समाज के सभी वर्गों के प्रतिनिधित्व वाली समिति बनायी जाए, जिसमे संविधान विशेषज्ञ और समाजसेवी लोग शामिल हों। राजनीतिक लोगों को भी इसमें शामिल किया जा सकता है लेकिन उसमे ऐसे लोग न हो जो जातिवाद की राजनीति पर ही अपना अस्तित्व कायम रखते आ रहे हों। यह सामजिक न्याय का मुद्दा है और न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिए, होते हुए दिखना भी चाहिए।

Wednesday, September 23, 2015

भारत को समझदारी से काम लेना होगा











22 सितम्बर 2015

जैसा कि तय था नेपाल में नया संविधान 20 सितम्बर को लागू हो गया। नेपाल सरकार ने इस अवसर पर दो दिनों - 20 और 21 सितम्बर - को छुट्टी की घोषणा की थी और राजधानी काठमांडू सहित देश के अधिकांश भागों में और देश के बाहर नेपाली नागरिकों ने खुशियां मनायीं। यहां कोलकाता में नेपाल कौंसुलेट में कौंसुल जनरल श्री चंद्र कुमार घिमिरे ने समारोह का आयोजन किया जिसमें कोलकाता के निवासी नेपालियों ने बड़ी संख्या में भाग लिया। कहने का आशय है कि नेपालियों ने सर्वत्र इस नये संविधान का स्वागत किया है। लेकिन दक्षिणी नेपाल के तराई क्षेत्र के निवासी मधेशियों और कई अन्य जनजातियों ने इसका विरोध किया है। संविधान लागू होने के ठीक दो दिन पहले भारत के गृह सचिव एस जयशंकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का व्यक्तिगत संदेश लेकर नेपाल गए। वहां पर उन्होंने ना सिर्फ अलग-अलग पार्टियों के नेताओं से मुलाकात की बल्कि प्रधानमंत्री सुशील कोइराला से भी मुलाकात की। जयशंकर ने कहा कि भारत नए संविधान के हक में है और उम्मीद करता है कि नेपाल के नेता इस मामले में इतना लचीलापन और परिपक्‍वता दिखाएंगे कि संविधान सबको साथ लेकर चलने वाला और सबको मान्य होगा। ये भी कहा कि भारत चाहता है कि नया संविधान लागू होने का मौका खुशी और संतोष का हो ना कि विरोध और हिंसा का। लेकिन हुआ वही जिसकी आशंका थी। जहां अधिकतर नेपाल में जश्न का माहौल रहा, तराई के हिस्सों में कर्फ्यू लागू करना पड़ा, सेना लगानी पड़ी। भारत इससे काफी चिंतित है। भारतीय समय के मुताबिक शाम करीब पांच बजे एक समारोह में राष्ट्रपति रामबरन यादव ने नए संविधान के लागू किये जाने का ऐलान किया। उसके कुछ ही देर बाद, 6 बजकर 10 मिनट पर हालात पर लागातार नजर रखे भारतीय विदेश मंत्रालय का बयान आया कि हमने देखा है कि नया संविधान लागू हो गया है लेकिन देश के कई हिस्सों में हिंसा से हम चिंतित हैं। उम्मीद करते हैं कि हिंसा और दबाव मुक्त माहौल में बातचीत से समस्या सुलझेगी और शांति और विकास की नींव पड़ेगी। तराई में लोगों को उम्मीद थी कि भारत इन हालात में हस्तक्षेप करेगा लेकिन इतना साफ है कि बदले हुए वक्त में भारत सीधे तौर पर इस मामले में शायद ना पड़े। संविधान के लागू होने के लगभग एक सप्ताह पहले नेपाल के राष्ट्रपति के प्रेस सलाहकार ने रिपब्लिका पत्रिका में एक लम्बा लेख लिखा था जिसमें उन्होंने साफ कहा था कि ‘नेपाल को अपने संविधान और अपने नेताओं पर गर्व है और वह बेकार के विचारों से गुमराह नहीं हो सकता है।’ बेशक इशारा भारत की ओर ही था। यह लेख नेपाल के प्रधानमंत्री की इजाजत के बिना नहीं भेजा गया होगा। वैसे इसमें कोई शक नहीं कि भारत की जिस तरह की नीति अब तक नेपाल में रही है उसकी छवि बिग ब्रदर वाली बनी जिससे वो काफी अलोकप्रिय हो चुका है। मोदी सरकार के आने के बाद अब ये छवि सुधारने की कोशिश की जा रही है। प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी दो-दो बार नेपाल का दौरा कर चुके हैं। राजनीतिक अस्थिरता और माओवादी हिंसा ने उसे विकास की पटरी से ही नहीं उतार दिया, बल्कि अर्थव्यवस्था भी पूरी तरह चरमरा गयी है। नये संविधान के तहत नयी बननेवाली सरकार को सही मायने में नेपाल का पुनर्निर्माण ही करना होगा। यह आसान काम नहीं है, जिसे अपने ही देशवासियों का असंतोष और भी दुष्कर बना देगा। इसलिए आंतरिक असंतोष से देश को बचाने की जिम्मेदारी सभी को समझनी चाहिए। संविधान सभा में अधिक संख्या वाले दलों की यह जिम्मेदारी अधिक बनती है कि देश के किसी भी समूह को उपेक्षा या अलगाव का अहसास न हो, क्योंकि उससे उपजा असंतोष नये नेपाल के निर्माण की राह में रोड़े ही अटकायेगा। वैसे अच्छी बात यह है कि नये संविधान के मुताबिक नेपाल में संसद के दो सदन तो होंगे ही, समानुपातिक प्रतिनिधित्व के लिए कुछ सीटें भी आरक्षित रखी जाएंगी, ताकि चुनावी जंग में पिछड़ जानेवाले समूहों को भी प्रतिनिधित्व दिया जा सके। इसलिए जरूरत इस बात की है कि मधेशियों समेत जिन भी समूहों की जो भी आशंकाएं हैं, सरकार और राजनीतिक दल उनका तर्कसम्मत निराकरण करें, क्योंकि फिलहाल जनमत से हार गये राजशाही और हिंदू राष्ट्र के पैरोकार उनका अनुचित लाभ उठा कर अपनी मुहिम फिर शुरू कर सकते हैं। इसमें भारत अपनी सकारात्मक भूमिका निभा सकता है। यही नहीं नेपाल की भौगोलिक और समरनीतिक स्थिति को देखते हुए भारत को फूंक फूंक कर कदम उठाने होंगे। इसकी ,एक वजह ये भी है कि नेपाल चीन के काफी करीब आ गया है। चीन ना सिर्फ नेपाल में निवेश कर रहा है बल्कि वहां से सीधे काठमांडू तक रेल लाइन बिछाने की प्रक्रिया भी चल रही है। भारत नहीं चाहता कि एक और सरहद उसके लिए सिरदर्द बन जाए। इसलिए इस पूरे मामले में भारत काफी सोच-समझ कर कदम रखेगा ताकि नेपाल से बेहतर होते रिश्तों पर भी आंच ना आए और मधेशियों की समस्या सुलझाने की तरफ भी नेपाल सरकार कदम उठाए।



केंद्र पर दबाव बढ़ा



20 सितम्बर







पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एक साहसिक कदम उठाया है। ममता बनर्जी ने नेताजी के अंतिम दिनों से जुड़ी 64 फाइलों को सार्वजनिक कर दिया है। उनके अंतिम दिनों में क्या हुआ इसे लेकर रहस्य बना हुआ है। नेताजी से जुड़ीं 64 फाइल्स के शुक्रवार को सर्वजनिक किए जाने के बाद मिले दस्तावेज से खुलासा हुआ है कि 1947 में आजादी मिलने के बाद महान क्रांतिकारी नेताजी सुभाष चंद्र बोस के भतीजे अमियनाथ बोस को सीक्रेट रेडियो मैसेज मिलते रहे थे। इससे नेताजी के 1945 में प्लेन क्रैश में जान जाने की अटकलें और कमजोर होती नजर आती हैं। इन फाइल्स में एक पत्र भी है, जो अमिय नाथ बोस ने 18 नवंबर 1949 को अपने भाई शिशिर कुमार बोस को लिखा था। शिशिर उस वक्त लंदन में डाक्टरी की पढ़ाई कर रहे थे। अमिय कोलकाता में रहते थे। इसमें अमिय ने कहा था, ''बीते एक महीने से रेडियो पर एक चौंकाने वाला ब्रॉडकास्ट सुनने को मिल रहा है। हमें यह ब्रॉडकास्ट शॉर्ट वेव पर 16 एमएम फ्रीक्वेंसी पर सुनाई देता है। इसमें कहा जाता है, ''नेताजी सुभाष चंद्र बोस ट्रांसमीटर ए कौथा बोलते चाय।'' यह वाक्य घंटों तक दोहराया जाता रहा था। हमें नहीं पता कि यह ब्रॉडकास्ट कहां से हो रहा था।'' बाद में यह चिट्ठी कोलकाता पुलिस की स्पेशल ब्रांच को मिली।

ममता जी की फाइल्स को सार्वजनिक किये जाने के पीछे राजनीति हो सकती है लेकिन यह सवाल तो कब से उठ रहा है कि नेताजी के साथ दरअसल हुआ क्या था? इन फाइलों से पता चलता है कि नेताजी 1964 के साल तक जिंदा थे। 1960 के दशक की शुरुआत में अमरीकी खुफिया रिपोर्ट में इस बात का इशारा किया गया था कि नेताजी फरवरी 1964 में भारत आए होंगे। उनकी मौत के 19 साल के बाद। यहीं से सवाल उठा कि जब उनकी मौत 1945 में ताइवान में विमान दुर्घटना में हो गई थी तो 1964 में कैसे आ गए। 12,744 पन्नों की इस फाइल को पढ़ना दिलचस्प होगा। इसे लेकर नेहरू और कांग्रेस पर संदेह किया जाता रहा है कि उन्होंने जानबूझ कर इसे रहस्य बनाया। ममता जी के इस कदम के बाद अब केंद्र सरकार पर भी दबाव है कि उसके पास नेताजी से संबंधित जो क्लासिफाइड फाइलें हैं उसे सार्वजनिक करे। विपक्ष में रहते हुए बीजेपी इसकी मांग करती रही है। 18 अगस्त 1945 की जिस विमान दुर्घटना में मौत हुई थी, उसमें नेता जी की मौत हुई थी या नहीं, अगर हुई थी तो 1968 तक के अलग अलग पत्रों या दस्तावेजों में नेता जी के जीवित होने का ज़िक्र क्यों मिलता है। एक सवाल और है, इन दस्तावेज़ों से पता चलता है कि नेताजी के परिवार की बीस साल तक जासूसी कराई गई। कांग्रेस पार्टी ने अपने समय में दस्तावेजों को सार्वजनिक तो नहीं किया लेकिन ममता जी के कदम का स्वागत करते हुए कांग्रेस नेता पी सी चाको ने कहा कि ‘आजादी के बाद उस समय के प्रधानमंत्री नेहरू के लिए नेता जी की सुरक्षा बेहद महत्वपूर्ण मामला था। हो सकता है इस वजह से जासूसी कराई गई होगी।’ अब सवाल है कि अगर बीस साल जासूसी हुई तो नेहरू तो 17 साल तक ही प्रधानमंत्री थे। उनके बाद 1964 से 1966 तक शास्त्री जी थे। क्या शास्त्री जी के समय भी जासूसी हुई। क्या 1966 के बाद भी जासूसी जारी रही। 12,744 पन्नों के दस्तावेज अभी किसी ने नहीं पढ़े हैं। हालांकि , बंगाल सरकार के अधीन फाइलों में ज्यादा कुछ जानकारी सामने आने की गुंजाइश नहीं है। हां, यह खबर जरूर चौंकाती है जिसमें अमरीकी खुफिया एजेंसियां नेताजी के 1964 तक जिंदा होने की ओर इशारा करती हैं। ऐसे में उन नेताओं के नाम सार्वजनिक करने का दबाव बढ़ेगा जो नेताजी को भारत में नहीं आने देना चाहते थे और उनके परिवार की जासूसी करवा रहे थे। यहां बात केवल नेताजी की ही नहीं है बात उनके पास तब मौजूद रहे खजाने को लेकर भी है। इस मामले में एक सस्पेंस बरकरार है। पीएमओ और विदेश मंत्रालय के पास मौजूद कुछ गोपनीय फाइलें बताती हैं कि नेताजी के पास 1945 में 2 करोड़ रुपए कैश और 80 किलोग्राम सोना था। इसकी कीमत मौजूदा बाजार के हिसाब से 700 करोड़ रुपए थी। 20वीं शताब्दी में आजादी के लिए लड़ रहे किसी भारतीय नेता के पास यह सबसे बड़ा खजाना था। लेकिन आरोप है कि प्लेन क्रैश में नेताजी की संदिग्ध मौत के बाद इस खजाने को कुछ लोगों ने गायब कर दिया। इस राज से आज तक पर्दा नहीं उठ पाया है।

इसलिए बहस यह नहीं है कि उन फाइलों में क्या है, इस बात को लेकर है कि क्या अब केंद्र को भी अपनी फाइलें जारी कर देनी चाहिए। ममता जी के इस कदम से केंद्र खास कर भाजपा पर सियासी दबाव बढ़ गया है। चूंकि लोकसभा चुनाव और बाद में नेताजी के परिवार के समक्ष गोपनीय फाइलों को खोलने का वादा खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कर चुके हैं, ऐसे में ममता जी के इस सियासी दांव ने सरकार को चिंता में डाल दिया है। भाजपा हालांकि केंद्र से जुड़ी फाइलों को सार्वजनिक करने संबंधी सवाल से बच रही है, मगर इसी पार्टी के सुब्रमण्यम स्वामी ने इसके लिए अदालत का दरवाजा खटखटाने की चेतावनी देकर सरकार की उलझन बढ़ा दी है। हालांकि इस मुद्दे पर पीएम मोदी के वादे के बाद भी सरकार का रुख स्पष्ट नहीं रहा है। बीते अगस्त महीने में ही प्रधानमंत्री कार्यालय ने केंद्रीय सूचना आयोग को यह कह कर नेताजी से जुड़ी फाइलों को सार्वजनिक करने से इनकार कर दिया था कि इससे भारत के दूसरे देशों से द्विपक्षीय संबंधों पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। पश्चिम बंगाल में अपना आधार बढ़ाने के लिए हाथ पांव- मार रही भाजपा के लिए मुश्किल यह है कि ममता जी द्वारा नेताजी से संबंधित फाइलें सार्वजनिक करने के बाद वह क्या करे। नेताजी का मसला अब राज्य में भावनात्मक मुद्दा बन चुका है।

Saturday, September 19, 2015

सामाजिक बदलाव के दौर से मिलते खतरनाक संकेत


देश में इस समय एक व्यापक सामाजिक बदलाव का दौर चल रहा है। दिल्ली में फैली डेंगू की महामारी , कोलकाता और अन्य शहरों में उसका आतंक यह बताता है कि बदलाव के इस दौर की भयावहता कैसी होगी। आबादी के ताजा आंकड़ों से साफ है कि देश के ग्रामीण क्षेत्र की आबादी का प्रतिशत 68.84 रहा, जबकि नगरीय आबादी का प्रतिशत बढ़कर 31.16 हो गया है। नगरीय आबादी का हिस्सा पिछले एक दशक में 27.81 प्रतिशत से बढ़कर 31.16 प्रतिशत तक पहुंच गया है, वहीं ग्रामीण आबादी का प्रतिशत 72.19 से घटकर 68.84 प्रतिशत रह गया है। पिछले एक दशक में रोजगार के अवसरों की तलाश में गांवों से शहरों की ओर लोगों के पलायन करने की रफ्तार तेज हुई है। यहां इस सच्चाई से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि देश के 58.4 प्रतिशत से भी अधिक लोगों की आजीविका का मुख्य साधन आज भी खेती ही है। सकल घरेलू उत्पाद में भी कृषि का योगदान पांचवें हिस्से के बराबर है। साथ ही खेती कुल निर्यात का 10 प्रतिशत हिस्सा होने के साथ-साथ अनेक उद्योगों के लिए कच्चा माल भी उपलब्ध कराती है। खेती से जुड़े अनेक विरोधाभासी आंकड़े भी गवाह हैं कि गांवों में खेती अब घाटे का धंधा रह गई है। देश के 40 प्रतिशत किसानों ने तो खेती करना छोड़ ही दिया है। पिछले दिनों फेडरेशन ऑफ इंडियन फार्मर्स आर्गनाइजेशन (फिफो) की रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि विभिन्न प्रकार के भूमि अधिग्रहणों के कारण देश में अब तक 12 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि कम हो चुकी है। मुआवजे के नाम पर किसानों को छोटी-मोटी रकम देकर शांत कर दिया जाता है। इस सच से तो इनकार किया ही नहीं जा सकता कि पिछले दशकों में गांवों में जीवनयापन मुश्किल हुआ है। 1991 के बाद वैश्वीकरण की तीव्रता ने विगत दशकों में जिस प्रकार शहरों की चकाचौंध को बढ़ाया है उससे लगता है कि शायद इनका भौतिक विकास ही राष्ट्रीय विकास का आधार बन गया है। निश्चित ही शहरों के रूपांतरण, लंबे-लंबे राजमार्ग, एक्सप्रेस-वे और मॉल जैसे भौतिक ढांचे के निर्माण ने लोगों को सुखवादी संस्कृति का अहसास कराया है। दूसरी ओर, देश में शहरीकरण से जुड़े जो नए शोध आ रहे हैं वे सभी भारत के शहरीकरण का भयावह चित्र प्रस्तुत करते हैं। राष्ट्रीय विकास की नियंत्रण संकल्पना बताती है कि देश साफ तौर पर भारत और इंडिया में विभाजित हो रहा है। ठीक उसी प्रकार देश के नगरीय विकास के नए व स्मार्ट सिटी के मॉडल से शहर भी स्पष्ट रूप में दो भागों में बंटते जा रहे हैं। शहरों का एक भाग आधुनिक भौतिक सुख-सुविधाओं से लैस होता जा रहा है, जबकि दूसरा हिस्सा झुग्गी-झोपड़ियों में बदल रहा है। भारत के शहरीकरण की ओर तेजी से बढ़ते कदमों को देखते हुए ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि आने वाले दो दशकों में लगभग आधी आबादी शहरों में निवास करेगी। परिणामत: नगरों में शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार से जुड़ीं अनेक समस्याओं का सामना भी उसी अनुपात में करना होगा। सरकारें जिस प्रकार एक्सप्रेस-वे, हाईवे व महानगरीय विस्तार के लिए बिल्डर्स को बढ़ावा दे रही हैं उसमें परोक्ष रूप से ही सही यह किसानों को खेती छोड़ने का स्पष्ट संकेत ही है। बारहवी पंचवर्षीय योजना के प्रारूप में भी 2017 तक लगभग एक करोड़ से भी अधिक लोगों को खेती-किसानी से अलग करके उन्हें दूसरे अन्य काम-धंधों की ओर उन्मुख करना परिलक्षित होता है। भविष्य में खेती से जुड़े जो लक्षण दिखायी पड़ रहे हैं उनसे लगता है कि बढ़ती आबादी में लोगों की बुनियादी जरूरत पूरी करने के लिए खेती की उत्पादकता बढ़ाना मजबूरी होगी। इसलिए खेती में हाईब्रिड बीज व तीव्र यंत्रीकरण करने से कृषि कार्य और कृषि मजदूरी करने के अवसर स्वत: ही कम हो जाएंगे। इन हालात में खेतिहर मजदूर व छोटे किसानों का शहर की ओर पलायन मजबूरी बन जाएगा। इतिहास साक्षी है कि अंग्रेजों ने भारत की सामाजिक व आध्यात्मिक सत्ता को चुनौती देने के लिए ही शहरीकरण की प्रक्रिया को तेज किया था। निश्चय ही उससे सामाजिक संरचना में क्रांतिकारी परिवर्तन भी हुआ। परंतु उनकी इस चतुराई से विकास नगरों तक ही सीमित होकर रह गया। उनकी षड्यंत्रकारी रणनीति के कारण गांवों व शहरों के बीच विषमताओं की खाई और चौड़ी होती गई। सड़कों का निर्माण, यातायात के साधनों की विभिन्नता, विदेशी शिक्षा के विस्तार इत्यादि के प्रभाव ने नगरों की तो कायापलट कर दी, परंतु गांव लगातार पिछड़ते गए। यही कारण रहा कि गांव गंदगी और पिछड़ेपन तथा नगर सभ्यता और प्रगतिशीलता के प्रतीक बन गए। गांवों का समाजशास्त्र बताता है कि गांव आत्मनिर्भरता, सामूहिकता, एकता, दुख-दर्द के साझेदार व पारिवारिक संयुक्तता के प्रतीक हैं। दूसरी ओर नगर मात्र व्यक्ति के निजी हित व सुखों के चारों ओर घूमने वाले पत्थरों के मकान हैं, जहां व्यक्ति के सामने उसका विशुद्ध अकेलापन, तकलीफें, पहचान गुम होती जा रही है। इस संदर्भ में अगर सोचें तो भारत के गांव आज भी एक संभावना हैं। संपूर्ण यूरोप आज भौतिक विकास के उच्च शिखर पर पहुंचने के बाद ग्रामीण संस्कृति में वापस लौटने को तड़प रहा है। हम हैं कि अपना संपूर्ण सुख नगरों में खोजने को लालायित है। गांवों से जुड़ी आबादी के ताजा आंकड़ों ने सिद्ध कर दिया है कि भारत के मूल विकास की संकल्पना को खोजने के लिए गांवों की ओर लौटने की जरूरत है। धार्मिक जनगणना और उस पर विमर्श विखंड़ित राजनीति का पर्याय है। ऐसे में हमें तय करना है कि विमर्श राजनीति के विखंडन पर हो या देश के विकास पर और उसके समाजशास्त्र पर।

आत्ममुग्ध सत्ता पक्ष और बेअसर विपक्ष

 इन दिनों भारत की मुख्यधारा की सियासत में दो शब्दों का जलवा है। एक है हवाबाजी और दूसरा हवालाबाजी। दोनों शब्द हिंदी के हैं और यह संभवत:पहला अवसर है जब भारत और विदेशों के अंग्रेजी अखबारों ने भी इन शब्दों के प्रयोग से गुरेज नहीं किया। मजे की बात है कि इन दोनों शब्दों का प्रयोग भारत के दो बड़े राजनीतिज्ञों ने किया। वे दोनों ही हिंदीभाषी नहीं हैं। एक इतालवी हैं और दूसरे गुजराती। इतालवी महिला को दाद देनी पड़ेगी कि उन्होंने भारत में आने के बाद हिंदी बोलना, लिखना और पढ़ना सीखा और गुजराती नेता की पीठ ठोकनी पड़ेगी कि प्रधानमंत्री बनते ही उन पर अंग्रेजी का जो नशा सवार हो गया था, वह अब उतार पर है। सोनिया ने कहा, आप हवाबाजी कर रहे हैं तो मोदी ने कह दिया कि आप तो हवालाबाजी करती रही हैं। जुबानी जमा−खर्च करने में मोदी का कोई जवाब नहीं है। जाहिर है, बयानों की यह जंग बराबरी की थी। विपक्ष की ओर से तीखा हमला हुआ, तो सत्ता ने उसी तल्खी में जवाब भी दिया। शब्दों के स्तर पर भी अनुप्रास अलंकार को ध्यान में रखा गया।

सोनिया ने हवा का नाम लिया, तो जवाब में मोदी ने हवाला का उल्लेख किया। कुछ भी हो 'हवाबाज' और 'हवालाबाज' मात्र शब्द नहीं हैं। इन दोनों के गहरे निहितार्थ हैं। पहले सोनिया गांधी के हवाबाज शब्द पर विचार कीजिए। इस शब्द के माध्यम से वह कहना चाहती हैं कि प्रधानमंत्री मोदी ने हवाई वादे किए हैं, उनकी सरकार उन वादों को पूरा करने में विफल है। यह भी संयोग है कि जिस समय सोनिया सरकार पर हमला बोल रही थीं, लगभग उसी समय राहुल गांधी ओडिशा में लगभग ऐसी ही बातें कर रहे थे। वह पूछ रहे थे- कहां हैं अच्छे दिन, सरकार ने किसानों के लिए क्या किया, कोई वादा पूरा नहीं हुआ.. वगैरह। यही नहीं विख्यात पत्रिका इकोनॉमिस्ट ने अपने एक लेख में भी लगभग यही आरोप लगाया है कि मोदी बातें बहुत करते हैं लेकिन जब उन बातों को अमल में लाना होता है तो उन्हें ताक पर रख देते हैं। क्या सोनिया और राहुल की बातों से ऐसा नहीं लगता कि वह निष्कर्ष निकालने में बहुत जल्दीबाजी कर रहे हैं? क्या साठ महीने के लिए बनी सरकार के बारे में अंतिम निष्कर्ष केवल पंद्रह महीने में निकाला जा सकता है? क्या संप्रग की पहली और दूसरी सरकार बनने के प्रारंभिक पंद्रह महीने में राहुल गांधी आज की तरह किसानों की दशा देखने निकलते थे। क्या उस अवधि में संप्रग की तत्कालीन प्रमुख सोनिया गांधी वादों के क्रियान्वयन की समीक्षा करती थीं ? यह ठीक है कि वह आज विपक्ष में हैं, लेकिन सरकार का रिपोर्ट कार्ड बनाकर उसे जीरो अंक देना भी हास्यास्पद है। जहां तक मोदी के हवालेबाज शब्द की बात है तो ध्यान दें कि कांग्रेस पार्टी तो नेहरू और इंदिरा के हवाले से ही जिंदा है। यदि इंदिराजी का हवाला होता तो क्या सोनिया गांधी की कोई कीमत होती? बेचारे राहुलजी अभी पता नहीं कहां होते? राजीवजी भी प्रधानमंत्री बने, शहीद इंदिरा गांधी को मिले वोटों से। इस हवालाबाजी ने कांग्रेस को हवाबाजी बना दिया है। नेतृत्व विहीन कर दिया है। नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस को हवालेबाज कहा, और यह जोड़ा कि ये लोग अड़ंगेबाजी कर रहे हैं। इन दोनों शब्दों के भी व्यापक अर्थ हैं। यहां हवाला भ्रष्टाचार और घोटालों से संबंधित है। देश यह बात भूल नहीं सकता कि संप्रग सरकार रिकार्ड घोटालों के कारण बदनाम हुई थी। शीर्ष नेतृत्व इस जवाबदेही से बच नहीं सकता। दूसरा शब्द बाधा या अड़ंगेबाजी है। यह भी गलत नहीं लगता। देश ने नरेंद्र मोदी को भारी जनादेश दिया, लेकिन यह सरकार अपने ढंग से काम नहीं कर पा रही है, क्योंकि राज्यसभा में विपक्ष का बहुमत है। अनेक महत्वपूर्ण विधेयक, जिनमें आर्थिक सुधार के विधेयक भी शामिल हैं, लंबित हैं। नरेंद्र मोदी के प्रयासों से मेकइन इंडिया आगे बढ़ा, वैश्विक रेटिंग एजेंसियों में भारत का दर्जा बढ़ा, लेकिन विपक्ष का असहयोग बाधक बन रहा है। ऐसे में हवाला और अड़ंगा दोनों आरोपों का आधार तो बनता ही है। भारतीय लोकतंत्र के लिए यह बड़ा खतरा है। भारत में नरेंद्र मोदी जैसा आदमी प्रधानमंत्री बन जाए और विपक्ष प्रभावहीन रहे तो यह देश के लिए या यों कहें कि लोकतंत्र के लिये चिंता का विषय है। आज सत्तारूढ़ नेता अनुभवहीन व आत्ममुग्ध हैं और विपक्ष प्रभावहीन। मीडिया और न्यायपालिका अपना कर्तव्य छोड़ कर कुछ ऐसे कामों में लगे हैं कि पता नहीं चलता वे लोग करना या कहना क्या चाहते हैं। देश भर में गंभीर विभ्रम की ​स्थिति है और करोड़ों लोग इस विभ्रम में फंसे हैं।

Wednesday, September 16, 2015

बदल रहा है बिहार, बदल रही है सियासत



बिहार विधानसभा चुनाव लड़ रहे दोनों बड़े अलायंस ने अपने-अपने साथियों के साथ सीटों का बंटवारा कर लिया है। राजद और महागठबंधन के घटक दलों में सीटों की संख्या पहले ही तय हो गई थी। सोमवार को यह काम राजग के घटक दलों-भाजपा, लोजपा, रालोसपा और हम ने भी कर लिया। कौन सी सीट किस दल को मिलेगी, अभी तय नहीं है। पर सभी पार्टियों ने अपनी-अपनी सीट तय कर ली है। बिहार विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा ने अपने राजग के घटक दलों के कोटे की सीटों का सोमवार को एलान कर दिया। भाजपा 160 ,लोजपा 40 ,जीतन राम मांझी की ‘हम’ को 20 और उपेन्द्र कुशवाहा की आरएलएसपी को 23 सीटें मिली हैं। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने राम विलास पासवान, उपेन्द्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी के साथ बैठकर सीटों का वंटवारा किया। शाह ने राजग की एकजुटता का दावा करते हुए कहा कि मांझी नीत हिन्दुस्तान आवाम मोर्चा और लोजपा के बीच मनमुटाव अब पीछे छूट चुका है और सभी मतभेदों को दूर कर लिया गया है। पासवान एवं मांझी की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि कोई विवाद नहीं है। कोई तनाव नहीं है। आप सभी के मुस्कुराते चेहरे देख रहे हैं। शाह ने कहा कि मांझी की पार्टी के कुछ नेता भाजपा के चुनाव चिह्न पर चुनाव लड़ेंगे। मांझी पिछले कुछ दिनों से सीटों के बंटवारे को लेकर काफी मोलतोल कर रहे थे ,जब समझा जाता है कि भाजपा ने उनकी पार्टी को 13 से 15 सीटें देने की पेशकश की थी। मांझी लगातार पासवान पर निशाना साध रहे थे और दावा कर रहे थे कि दलित मतदाताओं के बीच उनकी पैठ ज्यादा है। लेकिन जो बिहार को जानते हैं उन्हें मालूम है कि बिहार बदल रहा है। एक जमाने में यहां बूथ पर कब्जा करके वोट डाले जाते थे और लोग उस वोट के बल पर गीनेज बुक में शमिल हो जाते थे। बाहुबल के सहारे कई बाहुबली विधान सभाओं और संसद में पहुंच जाते थे। बाहुबलियों का सहारा लेकर उन बूथों पर कब्जा जमा लिया जाता था, जहां पक्ष में मतदान की उम्मीद नहीं होता थी। बुलेट का भय दिखाकर स्वयं की बैलेट में मुहर लगाकर बॉक्स में डाल लिए जाते थे। तब यह कहा जाता था कि बिहार में जनता वोट कहां देती है। बिहार चुनाव की आहट आते ही अखबारों में बैलेट बनाम बुलेट बहस का प्रमुख विषय होता था। मतदाताओं की मर्जी से मतदान बिहार में सपना होता था। बाद में कई प्रशासनिक परिवर्तन हुए और शासन की दृढ़ता के कारण बिहार में चुनाव के कई मिथक टूटे। तब बिना बुलेट मतदान सपना था, आज बूथ लूटकर सत्ता पाना सपना हो गया है। जब बिहार की लोकतांत्रिक प्रकिया में बुलेट का प्रभाव कम हुआ तब जात-पांत की राजनीति ने जोर पकड़ लिया। ऐसी बात नहीं है कि पहले बिहार में जाति की सियासत नहीं होती थी। लेकिन बाद के हर चुनाव ने दबे- कुचले और पिछड़े तबकों को निडर मानसिकता का बना दिया। सियासत की बिसात पर जाति के मोहरे खड़े किए जाने लगे। लेकिन इन दिनों चुनाव के हालात बदले-बदले से नजर आ रहे हैं। जातीय और धार्मिक ध्रुवीकरण की आंधी सुस्त पड़ती दिख रही है। हर बार जात पांत और विकास के नाम पर लड़े जाने वाले बिहार चुनावों में इस बार राजनीतिक दलों के बीच नई जंग होती दिख रही है। विकास असली मुद्दा बन गया है। पैकेज के बाद पैकेज का प्रहार भले ही राजनीतिक लगे, फिर भी यदि इसका क्रियान्वयन हो तो विकास बिहार का ही होगा, जनता का ही भला होगा। ऐसा लग रहा है कि जाति की बेड़ियों में जकड़ा बिहार अब बदहाली के गर्त से निकलने के लिए छटपटाने लगा है। इसका संकेत वर्तमान के माहौल से मिलने लगा है। यह बिहार के सकारात्मक भविष्य का संकेत है।
सियासत के बदलते चुनावी जुमले का एक उदाहरण देखें। चुनाव के लिए भाजपा और जेडीयू ने तो दो नए गीत लांच कर दिए हैं। भाजपा सांसद और भोजपुरी फिल्मों के सुपरस्टार मनोज तिवारी का गाना-
इस बार बीजेपी, एक बार बीजेपी,
जात पांत से ऊपर की सरकार चाहिए
बिजली पानी हर द्वार चाहिए।।
सबका विकास सबका प्यार चाहिए,
वापस गौरवशाली बिहार चाहिए…
यह गाना क्या संकेत देता है। जदयू भी इसी राह पर चलते हुए मनोज तिवारी की काट के लिए बॉलीवुड गायिका स्नेहा खनवलकर से यह गाना रिकार्ड करवाया है-
फिर से एक बार हो, बिहार में बहार हो।।
फिर से एक बार हो, नीतीशे एक बार हो।।
फिलहाल भाजपा और जदयू दोनों के ये गीत अब गांव -गांव पहुंचने लगे हैं। बहुत ज्यादा दिन नहीं हुए जब दिल्ली समेत देश के दूसरे हिस्सों में चुनाव के दौरान बिजली, पानी और सड़क का मुद्दा चर्चा का प्रमुख विषय होता था, तब बिहार के चुनावों में इस मुद्दों पर किसी का ध्यान नहीं रहता है। बदलते हालात और सत्ता की सियासत में जोर अाजमाइश से क्या कुछ नया नहीं हो रहा है। हालात बदल रहे हैं। अब सरकार चाहे किसी की भी बनेगी, लेकिन विकास करना सबकी मजबूरी होगी। जनता जागने लगी है, होशियार हो चुकी है। वह जान गई है कि वह जनता है। सत्ता के दंभ में कोई कितना भी चूर क्यों न हो, जनता पांच साल बाद जनता होने का अहसास करा ही देती है। जनता को उसकी ताकत का अहसास अब बिहार के सियासी सूरमाओं को डराने लगा है।

Monday, September 14, 2015

हिंदी है तो हिंदुस्तान है


आज हिन्दी दिवस है। इस अवसर पर जरा कल्पना करें एक चुटकुले की, जिसमें कहा जाय कि 'अड़सठ साल से एक आजाद देश जिसकी कथित तौर पर राष्ट्रभाषा हिन्दी है, उस देश में बड़ा अफसर बनने के लिए सबसे बड़ी योग्यता अंग्रेजी ज्ञान है।’ यह हिंदी दिवस सरकारी तौर पर हिंदी को राजभाषा (राष्ट्रभाषा नहीं) के रूप में स्वीकार करने की सांविधानिक तिथि है। अक्सर यह पूछा जाता है कि हिंदी अगर राजभाषा है तो राष्ट्रभाषा क्या है ?
यह प्रश्न मूलभूत रूप में दार्शनिक है पर उस पर सियासत का पानी चढ़ा हुआ है। अतएव इसके आनुषंगिक विश्लेषण से पूर्व इसके छोटे से समन्वित सांस्कृतिक,ऐतिहासिक और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण पर गौर करें। कैसी हास्यास्पद स्थिति है, आप सोच सकते हैं। जिस दिन लार्ड मैकाले का सपना पूरा होगा और गांधी जी का सपना ध्वस्त हो जाएगा, उस दिन देश सम्पूर्ण तौर पर केवल 'इंडिया’ रह जाएगा। हो सकता है, समय ज्यादा लग जाए, लेकिन अगर भारतवर्ष को एक स्वाधीन राष्ट्र बनना है, तो इन दो सपनों के बीच कभी न कभी टक्कर का होना निश्चित है। अब आप सवाल पूछ सकते हैं कि इस सपने का निहितार्थ क्या है? इसकी चर्चा क्यों? यह एक संस्कृति का स्वप्न है। इस स्वप्न का निर्धारण बहुत हद तक उसकी स्मृतियां करती हैं। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि किसी शब्द में यदि संस्कृति का संकेत है तो स्मृति में उसकी छाया भी। इसलिये कोई भी भाषा, जब तक वह है, कभी मरती नहीं है। यदि हमारे अतीत का सब कुछ मर- मिट जाय तब भी भाषा बची रहती है। जिसके द्वारा एक समाज के सदस्य आपस में संवाद कर पाते हैं। वर्तमान में रहते हुए भी अवचेतन रूप में वे अतीत से जुड़े रहते हैं। इस अर्थ में भाषा का दोहरा चरित्र होता है। वह सम्प्रेषण का माध्यम होने के साथ- साथ संस्कृति का वाहक भी होती है।
भारत के संदर्भ में इस सत्य को केवल दो दार्शनिक - भाषाविदों ने समझा, वे थे हीगल और मैक्समूलर। हीगल ने जहां एक तरफ भारतीय सभ्यता के स्वर्ण युग को दबे खंडहर की संज्ञा देकर वर्तमान को खारिज कर दिया था, वहीं मैक्समूलर ने भारत को सांस्कृतिक रूप से जोड़ने वाली भाषा संस्कृत को समाप्त करने की साजिश की। मैक्समूलर की कोशिशें कारगर हो जातीं लेकिन 19वीं सदी के ही आखिरी दौर में लुप्त होती सांस्कृतिक अस्मिता ने राष्ट्रीय चेतना को प्रस्फुटित कर दिया। उन्होंने संस्कृत से उद्भूत हिंदी को संवाद का माध्यम के रूप में गढ़ दिया और हिंदुस्तान को जागृत कर दिया। संस्कृत के भीतर जातीय स्मृतियों की एक ऐसी विपुल सम्पदा सुरक्षित थी, जो एक संजीवनी शक्ति की धारा की तरह अतीत से बहकर वर्तमान की चेतना को आप्लावित करती थी। राष्ट्रीयता के बीज इसी चेतना में निहित थे। मैकॉले ने भी इसकी चेतावनी दी थी। जिस वैचारिक स्वराज की बात के सी भट्टाचार्य ने उठायी थी, उसका गहरा सम्बंध एक जाति की भाषाई अस्मिता से था। जिसे हम संस्कृति का सत्य कहते हैं, वह कुछ नहीं, शब्दों में अंतर्निहित अर्थों की संयोजित व्यवस्था है। जिसे हम यथार्थ कहते हैं, वह इन्हीं अर्थों की खिड़की, देखा गया बाह्य जगत है। भाषा के सवाल को लेकर मैकाले भी स्वप्नदर्शी थे, लेकिन उद्देश्य था, अंग्रेजी भाषा के माध्यम से गुलाम बनाना। गांधी जी स्वप्नद्रष्टा थे स्वाधीनता के और इसीलिए उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया। पूरे विश्व में एक भी ऐसा राष्ट्र नहीं है, जहां विदेशी भाषा को शासन की भाषा बताया गया हो, सिवाय भारतवर्ष के। हजारों वर्षों की सांस्कृतिक भाषिक परंपरावाला भारतवर्ष आज भी भाषा में गुलाम है और आगे इससे भी बड़े पैमाने पर गुलाम बनना है। यह कोई सामान्य परिदृष्टि नहीं है। अंग्रेजी का सबसे अधिक वर्चस्व देश के हिंदी भाषी प्रदेशों में है।
भाषा में गुलामी के कारण पूरे देश में कोई राष्ट्रीय तेजस्विता नहीं है और देश के सारे चिंतक और विचारक विदेशी भाषा में शासन के प्रति मौन हैं। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा के सवालों को जैसे एक गहरे कोहरे में ढंक दिया गया है और हिंदी के लगभग सारे मूर्धन्य विद्वान और विचारक सन्नाटा बढ़ाने में लगे हुए हैं। राष्ट्रभाषा के सवाल पर राष्ट्रव्यापी बहस के कपाट जैसे सदा-सदा के लिए बंद कर दिए गये हैं। कहीं से भी कोई आशा की किरण फूटती दिखायी नहीं पड़ती।
इतने के बावजूद भारतीय अंग्रेजी का कद्र क्या है। प्रेमचंद और तुलसी को छोड़िये हिन्दी के दूसरे दर्जे के लेखकों की श्रेणी में भारतीय अंग्रेजी लेखकों को खड़ा कर सकते हैं तो नाम गिनाएं। कैसी विडम्बना है कि बचपन से 6 वर्षों तक ‘सी ए टी कैट’ और ‘आर ए टी रैट रटता’ हुआ बच्चा अपने जीवन के 26-27 साल अंग्रेजी के ग्रामर, स्पेलिंग और प्रोननसिएशन सीखने में लगा देता है और तब भी अशुद्ध उच्चारण और शब्द प्रयोग करता है। भारत के जितने अंग्रेजीदां हैं उनमें से एक प्रतिशत भी ऐसे नहीं हैं जो उसी भाषा में सोचते हों और सीना ठोंक कर कह सकें कि वे उसी स्तर की अंग्रेजी जानते हैं जिस स्तर की हिन्दी एक अच्छी हिन्दी पढ़ा भारतीय जानता है। भारतीय राष्ट्रीय चेतना यदि आरंभ से ही आत्मकेंद्रित संकीर्णता से मुक्त रही तो इसका कारण यह था कि वह आरोपित नहीं की गयी थी। इसके संस्कार पहले से ही सांस्कृतिक परम्परा में मौजूद थे। भारत की विभिन्न बोलियों और भाषाओं में भिन्नता होने के बावजूद एकसूत्रता के तत्व मौजूद थे, जिसके रहते भारत के राष्ट्रीय एकीकरण में कभी भी बाधा नहीं उपस्थित हुई। उनका घर एक ही था, खिड़कियां कई थीं। हिंदी में इन खिड़कियों के अंतर्संबंधों को परखने तथा कायम रखने की क्षमता है। इसीलिये हिंदी हिंदुस्तान की अस्मिता है। हिंदी है तो हिंदुस्तान रहेगा। इसके बगैर एक विखंडित संस्कृति के सिवा कुछ नहीं बचेगा।

Saturday, September 12, 2015

वादे और हकीकत

वादे और हकीकत
इसी हफ्ते प्रधानमंत्री जी ने देश के शीर्ष उद्योगपतियों और बैंकरों की एक मीटिंग बुलाई थी। मंच कुछ ऐसा सजा था मानों बहुत गंभीर वातावरण है। गांभीर्य कुछ इतना गुरु था कि उससे नाटकीयता का गुमान हो रहा था। लेकिन नाटक और अर्थ शास्त्र दोनों अलग अलग होते हैं और स्वभावत: प्रतिगामी होते हैं। नाटक में दिखावा, बनावट कुछ ऐसे होते हैं कि उनसे स्वाभाविकता का बोध होता है। जबकि अर्थ शास्त्र अपनी तासीर में हकीकी फितरत का होता है। हां तो प्रधानमंत्री जी ने मंगलवार को जो बैठक बलाई उसमें उन्होंने अपना तयशुदा भाषण दिया , जो लोकसभा चुनाव वाले हृदयहारी और सम्मोहक भाषण की तरह था। जवाब में भारत के शीर्ष उद्योगपतियों ने भी अच्छी- अच्छी बातें कहीं। वातावरण बेहद खुशगवार था और चेहरे खिले हुये थे , ऐसा महसूस हो रहा था कि भारतीय अर्थव्यवस्था एकदम चुस्त और खुशहाल है। थोड़ा- बहुत यहां- वहां झोल- झाल है उसे सुधार लिया जायेगा। सबलोग आत्ममुग्ध और आत्मतुष्ट थे। अब यह कैसे बताया जाय कि आत्मतुष्टता अर्थव्यवस्था का दुश्मन होती है। क्योंकि इसके चलते कठोर फैसले नहीं लिये जा सकते। नरेंद्र मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान अपने तिलिस्मी भाषण में देश की जनता को यह विश्वास दिलाया था कि वे देश की अर्थव्यवस्था की बुनावट और बनावट को सही कर देंगे। उन्होंने कई सुनहरे वादे किये थे। लेकिन सत्ता में आने के 15 महीनों के भीतर सारे वादे सत्ता की ताप से भाप बन कर उड़ गये। जितना कहा था कुछ नहीं हुआ। अब श्री नरेंद्र मोदी उद्योगपतियों और बड़े व्यवसाइयों के ‘दुलरुआ’ नहीं रहे। शायद इसी ‘पहली सी मुहब्बत’ के लिए इस बैठक का आयोजन किया गया था। अर्थ व्यवस्था की सूरत को संवारने के लिए बेहद कठोर फैसले करने होते हैं। इन्हीं कठोर फैसलों में से एक है स​ब्सिडी को घटाया जाना। देश में आर्थिक उदारीकरण की शुरआत से उद्योगपति इसका सुझाव दे रहे हैं। स​ब्सिडी से मौद्रिक घाटा बढ़ता है और उससे महंगाई को हवा लगती है। जबसे मोदी जी सत्ता में आये तब से उन्होंने इस दिशा में नग्ण्य कार्य किया है। अब ऐसी स्थिति में अगर वे कहते हैं कि स​ब्सिडी घटाई गयी है तो यह आत्म प्रवंचना ही होगी। जो कुछ घटा है वह तेल की दर में वै​श्विक गिरावट के फलस्वरूप हुआ है। दूसरे क्षेत्र में स​ब्सिडी न घटायी गयी है और ना खत्म की गयी है। स​ब्सिडी राज अभी भी कायम है। दूसरे सुधार लागू नहीं किये जा सके क्योंकि संसद चल ही नहीं पायी। संसद के नहीं चल पाने का कारण था एक मंत्री द्वारा पद के दुरुपयोग और भ्रष्टाचार के मामले में प्रधानमंत्री द्वारा कार्रवाई नहीं की जाने के कारण पैदा हुए हालात। भ्रष्टाचार के खिलाफ मोदी की दुंदुभी अब तूती की हास्यास्पद आवाज में बदल गयी है। मोदी जी से अपेक्षा यह थी कि उनकी सरकार चाल , चरित्र और उम्मीदों को पूरा किये जाने के मामले में पूर्ववर्ती यू पी ए सरकार से बेहतर होगी। लेकिन मोदी जी की सरकार यू पी ए सरकार का तीसरा अवतार है और इस अवतार की खूबी है कि यह बोलने में औऱ शब्दों के चयन में उससे बेहतर है। अब उद्योगपतियों के साथ विचार ​​विमर्श के दौरान मोदी ने अपने चिर- परिचित अंदाज में उनसे कहा कि जोखम उठाने की अपनी क्षमता का विकास करें और निवेश को बढ़ाएं। अब देखिये कि मोदी जी ने यह कहीं नहीं कहा कि निवेश को बढ़ाने के क्रम में आने वाली बाधाओं को दूर करने का वह आश्वासन देते हैं। अगर कोई उद्योगपति पूंजी लगाने का जोखिम उठाता है तो यकीनन वह उम्मीद करेगा कि सर्विस टैक्स में छूट मिले, ढांचे की सुविधाएं हासिल हों, लाइसेंस वगैरह की सहूलियत हो , परंतु प्रधानमंत्री जी ने इस बारे में कुछ नहीं कहा। मोदी हैरत जाहिर करते हैं कि एक तरफ विदेशी निवेश बढ़ रहा है तो दूसरी ओर भारतीय उद्योग जगत पूंजी निवेश में अनमना सा लग रहा है। इस ​​स्थिति से ऐसा लगता है कि भारतीय उद्योग जगत और मोदीजी के बीच कहीं ना कहीं संवाद हीनता की ​स्थिति है। दर असल मोदी जी को छोटे तथा मझोले उद्योगों से बात करनी चाहिये क्योंकि वे ही ज्यादातर निर्यातक और रोजगार परक हैं। परंतु वे ऐसा नहीं कर रहे हैं, इससे उनकी मंशा पर संदेह का होना लाजिमी है।

Friday, September 11, 2015

बिहार : सरल नहीं चुनावी गणित


10 सितम्बर 2015
आस्कर वाइल्ड ने कहा है कि‘सफलता एक विज्ञान है और यदि परिस्थितियां हैं तो परिणाम मिलेगा।’ देश की बदली- बदली सियासी फिजां में बिहार के चुनाव की तारिखें घोषित कर दी गयी हैं। पांच चरण के इस चुनाव में सब कुछ वही होगा जो अक्सर होता आया है। वैसे लम्ब चुनावी दौर हमेशा सम्पन्न दलों को लाभ पहुंचाता है। तारीखों की घोषणा के वक्त चुनाव आयोग ने खुद ईद, मोहर्रम, विजयादशमी, दिवाली और छठ पर्वों की चर्चा की और आश्वस्त किया कि सब कुछ ठीक गुजरेगा। राज्य की 243 सीटों के चुनाव को करीब तीन हफ्तों तक खींचने के पीछे आयोग का खास मकसद है। इस बार प्रत्येक पोलिंग स्टेशन पर केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती रहेगी। वोटरों को स्थानीय अराजक तत्वों की दहशत से मुक्त रखने की खास तैयारी है क्योंकि ऐसे मौकों पर लोकल प्रशासन या पुलिस अक्सर बेबस नजर आती है। बिहार के सर्वाधिक चर्चित महागठबंधन, जिसकी अगुवाई नीतीश व लालू कर रहे हैं। इस चुनाव में नीतीश और उनके साथी खुद को 100 और कांग्रेस को 40 सीटें दे रहे हैं। वे ऐसा क्यों कर रहे हैं यह समझ से परे है, जबकि 2010 के चुनाव में लालू फकत 22 सीट ही जीत सके थे उनका वोट भी 18% ही था, साथ ही, कांग्रेस भी सिर्फ 8% वोट के साथ 4सीट ही जीत पायी थी। इन 5 वर्षों मे दोनो ही पार्टियां हाशिये पर ही रही हैं और दोनों पार्टियों के पास कोई चमत्कारिक व्यक्तित्व का नेता भी नहीं है। उधर , मुस्लिम वोटर तीनों ही पार्टियों में बंटेंगे। जितना ज्यादा दलित वोट माझी के साथ शिफ्ट होगा उतना ज्यादा महागठबंधन को ही नुकसान होगा। 2010 में नीतीश और भाजपा साथ मिलकर चुनाव लड़े थे इसलिये अगड़ों का वोट भी नीतीश के साथ था मगर अलग होने के बाद नीतीश के साथ कितने हैं , यह देखना दिलचस्प रहेगा। त्योहारों के मौसम का विशेष फायदा यह मिलेगा कि देश के दूर-दराज इलाके में बसे करोड़ों बिहारी इस मौके पर अपने गांव घरों में मौजूद होंगे और वे उल्लास से अपने लोकतांत्रिक अधिकार का प्रयोग भी करना चाहेंगे। प्रवासी बिहारियों की मौजूदगी इस चुनाव के नतीजों में ठीक-ठाक उलटफेर की संभावना बनाएगी क्योंकि बाहर रोजी-रोटी कमाने की नियति इन्हें ऐसे अनुभवों से समृद्ध भी करती है जो परंपरावादी सोच को सफल चुनौती दे सके। बिहार को लेकर देश की सामान्य सोच हमेशा विरोधाभासों में दिखती है। बुद्धिमान लोगों का प्रांत कह कर इसकी तारीफ की जाती है तो छूटते ही ऐसी जगह भी बता दी जाती है जहां जात-पांत बिना कुछ नहीं चलता। यह चुनाव क्या इस विरोधाभास को मिटा पाएगा! मोदी जी ने बिहार के डी एन ए में दोष की बात कह कर जात पांत या बिहार की पुरानी मनोवृत्ति के कायम रहने का संकेत दिया है। जिन लोगों ने बायलॉजी पढ़ी है वे जानते हैं कि डी एन ए यानी ‘डीऑक्सीरीबो न्यूक्लिक एसिड’ , यह अनुवांशिक अच्छाइयां या बुराइयां आगे बढ़ाता है। यानी आसान है, चुनाव का भी डी एन ए होता होगा और उससे चुनाव की मोटे तौर पर रूप रेखा तय होती होगी। लेकिन मोटे तौर पर अगर किसी चुनाव का यही डी एन ए होता है तो बिहार के चुनाव का डी एन ए तो पूरा गड़बड़ा गया लगता है। अब देखिये ना, जो विपक्ष (लालू यादव) पिछले दस साल से सत्ता से बाहर है और उसे सबसे ज्यादा सत्ता की कमियां गिनानी चाहिए, वह मन मारकर सत्ता पक्ष की तारीफ़ कर रहा है। कैसी विडम्बना है कि राजद के हर नेता ने मन में नीतीश कुमार की सरकार की बखिया उधेड़ने के लिए न जाने कितने अलंकारों से सुसज्जित बयान तैयार रखे होंगे, लेकिन सब धरे के धरे रह गए। सियासत की मजबूरी है कि पार्टी प्रमुख लालू यादव ने चुनाव से ठीक पहले नीतीश कुमार से हाथ मिला लिया। अब कार्यकर्ता से लेकर प्रवक्ता तक सब चाहें न चाहें, नीतीश जी की तारीफ में जुटे हैं। अब बिहार चुनाव के डी एन ए का एक दूसरा गड़बड़ाया पहलू भी देखिए। दस में से लगभग नौ साल मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहे नीतीश कुमार यानी सत्ता पक्ष, अपना काम गिनाने की बजाए ये गिनाने में जुटा है कि प्रधानमंत्री जी ने देश की जनता को कैसे ठगा है और अब बिहार को कैसे ठगने की योजना बना रहे हैं। पर उनकी भी मजबूरी है। नीतीश जी के इन दस सालों की सत्ता में से लगभग आठ साल ऐसे थे जब बीजेपी उनकी सरकार का हिस्सा रही। ये पहला चुनाव है जहां विकास मुद्दा नहीं, क्‍योंकि विकास के पैमाने पर नीतीश और नरेंद्र मोदी दोनों खरे उतरते हैं। दोनों के राजनीतिक करियर में यही एक समानता है कि जब भी इन्हें मौका मिला, इन्होंने अपने नेतृत्व से विकास की एक ऐसी लकीर खींची, जिसके इनके विरोधी भी कायल रहे। तब सवाल है कि आखिर वह कौन सा मुद्दा है जिसने बिहार के चुनावी इतिहास में ऐसा व्‍यक्तिगत और हाई प्रोफाइल, हाई टेक प्रचार अभियान नहीं देखा। आखिर ये कौन सा ऐसा मुद्दा है कि नीतीश कुमार, लालू यादव और कांग्रेसी नेताओं के घर जाते हैं और अपने समर्थकों के तमाम विरोध के बावजूद उन्हें मनमानी सीट भी देते हैं। इसीलिए राजनीतिक रूप से जागरूक माने जाने वाले बिहार के वोटर को समझना होगा कि तकरीबन 61 प्रतिशत की साक्षरता वाले बिहार में, जहां 40 प्रतिशत आबादी तो सीधे-सीधे ये नहीं समझती कि डी एन ए होता क्या है और जो बाकी की 61 प्रतिशत आबादी है उसमें से भी डी एन ए के बारे में जानकारी रखने वालों का भी आंकड़ा बहुत बड़ा नहीं होगा, वहां डी एन ए चुनाव का मुद्दा क्यों बन रहा है या बनाया जा रहा है। चुनाव का डी एन ए भले गड़बड़ा रहा हो लेकिन अगर वोटिंग का डी एन ए नहीं गड़बड़ाए और विकास और सिर्फ़ विकास को देखकर हीं वोट पड़ें तो सब खुद ब खुद सुलझ जाएगा।


भारत-पाक: मामूली गलती भी ले डूबेगी


9 सितम्बर 2015
भारत और पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बैठक का हाल ही में रद्द होना, दोनों देशों के बीच ' सांप - सीढ़ी की चाल ' का ही ताजा उदाहरण था। यह एटमी हथियारों से संपन्न दो पड़ोसी मुल्कों के बीच कूटनीतिक खींचतान को भी दिखाता है। हालांकि यह उन लोगों के लिए निराशाजनक हो सकता है जिन्हें इस बैठक से कोई उम्मीद थी, लेकिन आखिरी वक्त पर ऐसा होना आश्चर्यजनक भी नहीं था। बैठक का कार्यक्रम नई दिल्ली में तय करना थोड़ी अलग घटना थी और यह भारत के साथ संबंधों को सामान्य बनाने की प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की इच्छा का संकेत था। लेकिन इस बैठक का रद्द होना यह भी दिखाता है कि शरीफ पाकिस्तान के अकेले सर्वेसर्वा नहीं हैं। इस बैठक में कश्मीर के मुद्दे को शामिल करने के पाकिस्तान के अड़ियल रुख से साफ था कि जब भारत से जुड़ी कोई बात होती है तो हमेशा की तरह पाकिस्तानी सेना ही वहां फैसला लेती है। पाकिस्तान में यह आम धारणा है कि भाजपा के शासन में भारत खतरनाक़ रूप से आक्रामक हुआ है। बॉर्डर पर हर रोज़ होने वाली गोलाबारी को भी भारत द्वारा उकसावे की कार्रवाई के रूप में देखा जाता है। कई पाकिस्तानी तो यह भी मानते हैं कि भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ उनके सबसे बड़े प्रांत बलूचिस्तान में राष्ट्रवादी विद्रोह को बढ़ावा दे रही है। वहीं भारतीय नजरिए की बात करें तो यहां लोगों को लगता है कि 1993 में मुंबई में हुए बम विस्फोट के लिए जिम्मेदार दाउद इब्राहिम को पाकिस्तान ने पनाह दे रखी है। वहीं 2008 में मुंबई में हुए आतंकी हमले में सुनवाई भी बहुत धीमे चल रही है। इसके लिए जिम्मेदार कहा जाने वाला संगठन लश्कर-ए-तयबा के प्रमुख जकीउर रहमान लख़वी को जमानत पर छोड़ दिया गया है। इस तरह के आरोप-प्रत्यारोपों से भारत और पाकिस्तान के बीच दुश्मनी का माहौल और गहराता जा रहा है। जैसे-जैसे गुस्सा बढ़ता जाएगा वैसे-वैसे शांति की उम्मीद कम होती जाएगी। भारत सरकार में शीर्ष पदों पर मौजूद लोगों के बयानों से लग रहा है कि भारत आक्रामक मूड में है। हमारे सेना-प्रमुख दलबीरसिंह सुहाग ने पिछले हफ्ते आशंका व्यक्त की थी कि पाकिस्तान के आतंकवादियों के कारण कोई छोटा-मोटा या बड़ा युद्ध कभी भी हो सकता है। उधर , पाकिस्तान के सेना-प्रमुख राहील शरीफ ने जवाबी गोला दाग दिया है। हालांकि राहील शरीफ ने भारत का नाम नहीं लिया लेकिन उनका इशारा बिल्कुल साफ-साफ था। इसमें शक नहीं कि उन्होंने जो कहा, वह बिल्कुल सच है। उन्होंने कहा कि यदि दोनों देशों के बीच युद्ध होगा तो पाकिस्तान भारत का भयंकर नुकसान कर देगा। भारत किसी गलतफहमी में न रहे। पाकिस्तान उसके मुकाबले के लिए तैयार है। लेकिन राहील शरीफ को क्या पता नहीं है कि पाकिस्तान का भी उतना ही बल्कि भारत से कहीं ज्यादा नुकसान होगा। क्या युद्ध की स्थिति में भारत हाथ पर हाथ धरे बैठा रहेगा। नुकसान तो दोनों का ही होगा। पिछले कुछ समय से ऐसा लग रहा है कि भारत कोई भी रियायत देने को तैयार नहीं है क्योंकि उसे लगता है कि पाकिस्तान समस्याओं से घिरा है जल्दी ही हार मान लेगा। दोनों ही तरफ से इस तरह के रवैये से लगता नहीं है कि वे आने वाले समय में दोस्ती नहीं तो सद्भाव से भी रहने को तैयार होंगे। दोनों देशों में ऐसे ताकतवर लोग हैं जो 'युद्ध नहीं, शांति नहीं' की मौजूदा स्थिति को बनाए रखना चाहते हैं। दोनों सरकारों की अपनी - अपनी मजबूरियां हैं। दोनों को अपनी-अपनी मूंछे अपनी जनता के सामने ऊंची रखनी हैं। इसीलिए, इस तरह के भड़काऊ बयान आते रहते हैं लेकिन दोनों देशों के प्रधानमंत्री क्या कर रहे हैं? कितनी बड़ी विडम्बना है, हम एक ‘फ्लाइंग किस’ भेजते हैं। बदले में वे मुस्कुराते हैं। सब ओर खुशियां छा जाती हैं। फिर वे डंक मारते हैं, अक्सर बहुत बुरी तरह से। वे आतंकवादी भेजते हैं, हमारे लोगों को मारते हैं और कश्मीर में उपद्रव खड़े कर देते हैं। हम नाराज हो जाते हैं। बातचीत बंद कर देते हैं। एक नया भारतीय नेता परिदृश्य पर आता है। इतिहास में पाकिस्तान को राह पर लाने वाले व्यक्ति के रूप में दर्ज होने का संकल्प लेकर। हमने फिर ‘फ्लाइंग किस’ भेजा। वे मुस्कराए। डंक मारा। फिर वही दोहराव।दोनों तरफ से बातों के वाण चलने लगते हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि दोनों ही देशों का अहं, इतिहास और अंधराष्ट्रवाद उन्हें एक-दूसरे से बातचीत करने से रोकता है। अगर परिपक्वता और सौहार्द नहीं बन पाया तो डर है कि पाकिस्तान और भारत हमेशा ही दुश्मन रहेंगे। दोनों ही देशों के पास परमाणु हथियारों का जखीरा भी मौजूद है जिसके चलते अगर कोई गलतफहमी और गलत अनुमान लगा तो दोनों को ही नुकसान उठाना पड़ेगा।

अब कठिन दिन आने वाले हैं


8 सितम्बर 2015
कहते हैं कि लोहे में जब जंग लग जाती है तो वह कमजोर हो जाता है, उसका लौहपना खत्म हो जाता है। आज यही हालत इस जमाने के भारत के लाैह पुरुष नरेंद्र मोदी का हो गया है। इसके कई सबूत हैं पर अभी हाल के ओ आर पी ओ के बारे में सरकार का फैसला सबसे ताजा उदाहरण है। इसमें शक नहीं कि 42 साल पुराना यह मामला इसीलिए अधर में लटका हुआ था कि एक तो अरबों रुपये का बोझ सरकारी खजाने पर बढ़ जाता और फिर फौज से छोटी उम्र में सेवा-निवृत्त होनेवाले लोग किसी न किसी काम पर लग जाते हैं। अब इस प्रश्न पर भी विचार होना चाहिए कि जवानों को 30-35 साल की उम्र में सेवा-निवृत्त क्यों किया जाए? क्या सेवा—निवृत्ति के बाद भी उनसे कोई काम लिया जा सकता है? इसके अलावा सरकार ने यह जो घोषणा की है, यह भी जल्दबाजी में की है, जैसे कि नगा-समझौते की हो गई थी। इससे यह भी संकेत मिलता है कि इस सरकार में सोच की तंगी है। विचार का टोटा है। या तो यह हड़बड़ी में कुछ भी घोषणा कर देती है या फिर यह प्रचार की इतनी भूखी है कि इसे किसी भी घोषणा की गहराई में जाने का धैर्य ही नहीं है। यह भी कहा जा सकता है कि वे किसी भारी दबाव को झेल नहीं सकते। यही कारण है कि आज मेरा भारत सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। आम जनता के लिए सुशासन का अर्थ है नागरिक सुविधाआें की उपलब्धता। लेकिन किसी को मालूम नहीं कि भारत के गांवों में बिजली कब कट जायेगी और डाक्टर बेवजह कितने टेस्ट लिख देगा। रेलवे टिकट लेने जाओ एक घंटा लाइन मे खड़े रहो फिर भी टिकट नहीं हम चुप हैं। रास्ते खराब हैं हम किसी तरह अपनी कार या बाइक निकाल कर चले जाते हैं, हम चुप है। आये दिन किसी न किसी उत्सव में शोर मचाया जाता है हम चुप हैं। स्कूलों में कितनी भी फीस हम भर रहे हैं लेकिन मास्टर से सवाल पूछने की हिम्मत नहीं की क्लास्सेज जरूरी है क्या। आज के बीस साल पहले क्लासेस का इतना जोर नहीं था कैसे अब्दुल कलाम जैसे लोग इतना महान बने, लेकिन हम चुप हैं। किसी भी ऑफिस में जाओ कोई सुनने वाला नहीं है। किसी की शिकायत करके कुछ नहीं होता है फिर भी हम चुप हैं। क्या हमने सब खुशी हासिल कर ली है .. क्या हमारे अच्छे दिन आ गये। लाखों लोग बिना पानी के किस तरह जी रहे हैं। आज समाचर पढ़ा गरीबी से तंग आकर पांच बच्चों की मा ने आत्महत्या कर ली फिर भी हम चुप हैं। ग्रामीण इलाकों में परिवार नियोजन अब क्यों नहीं समझाया जाता है.. गरीबी खत्म नहीं हो सकती लेकिन कम से कम खाने भर की इनकम तो होनी चाहिये। लेकिन हालात तो कुछ दूसरे दिखायी पड़ने लगे हैं। भारी आर्थिक समस्या का भय व्याप गया है। उस भय को दूर करने के लिये सरकार ने मंगलवार को देश के शीर्ष उद्योगपतियों के साथ विचार विमर्श किया। उधर कहा जा रहा है कि चीनी अर्थव्यवस्था की तंगहाली के बरक्स अमरीका अपने फेडरल रिजर्व के रेट में संशोधन करने वाला है। अगर ऐसा होता है तो दुनिया भर के आर्थिक क्षेत्र में हाहाकार मच जाने की भरपूर आशंका है। उधर , हाल में चीनी संकट का असर भारत पर नहीं होने का दावा रिजर्व बैंक के गवर्नर कर रहे हैं। उनका यह दावा कुछ हद तक सही है क्योंकि भारत से चीन का व्यापार उतना बड़ा नहीं है कि उसका बाजार भारतीय बाजारों को प्रभावित करे। अभी तक यह साफ नहीं है कि आंकड़े क्या कह रहे हैं क्योंकि इनका सामने आना अभी बाकी है। लेकिन चीन एक बड़ा देश है जो विश्व की अर्थव्यवस्था में काफी महत्वपूर्ण बन गया है। आज दुनिया के किसी भी हिस्से में कोई गड़बड़ होती है तो पूरी दुनिया पर उसका कुछ न कुछ असर पड़ता है। यह असर पहले वित्त बाजार पर पड़ता है और उसके बाद व्यापार पर। इसलिए इसे लेकर सबको चिंतित होना चाहिए। जो भी हो रहा है उसे चीन से जोड़ने को लेकर सावधानी बरतनी चाहिए। विश्व अर्थव्यवस्था में बहुत सी ऐसी चीजें हैं जिनके बारे में चिंता की जानी चाहिए। इनमें यह भी शामिल है कि दरें कब सामान्य होती हैं - फेडरल रिजर्व यह करने वाला पहला बड़ा संस्थान हो सकता है। तो सवाल यह भी है कि ऐसा कब होगा। अभी इस सवाल का उत्तर मिला ही नहीं कि खबर आयी है कि फेडरल रिजर्व संशोधन करेगा। अमरीका में बेरोजगारी दर अप्रैल 2008 के बाद सबसे निचले स्तर पर है। फेडरल रिजर्व ने जुलाई 2006 के बाद से ब्याज दरों में बढ़ोतरी नहीं की है। जुलाई 2006 में इसमें एक चौथाई प्रतिशत की वृद्धि की गई थी और यह 5.25% थी। अमरीका में ब्याज दरें बढ़ने का मतलब है विदेशी संस्थागत निवेशकों का भारत और दूसरे उभरते देशों से पैसा निकालकर अपने देश ले जाना। लोकसभा चुनावों के दौरान अपने चुनाव प्रचार में मोदी ने कहा था कि रुपया तो ‘सीनियर सिटिजन’ हो गया है। लेकिन मोदी के अब तक कार्यकाल में डॉलर के मुकाबले रुपया लगभग 12 प्रतिशत टूट गया है और सुपर सीनियर सिटिजन बनने की ओर अग्रसर है। लेकिन जमीन अधिग्रहण बिल और गुड्स और सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) बिल जिस तरह से अधर में लटके हुए हैं, उससे निवेशकों के भरोसे को धक्का लगा है। ऐसे आम जनता में कुंठा का होना लाजिमी है और यही कुंठा राजनीतिक हेरफेर के लिए डायनामिक्स का काम करती है।

बिहार में वोटरों का विवेक कसौटी पर


7 सितम्बर 2015
बिहार की सियासत की एक भारी ट्रेजेडी है कि वहां से उठी कोई भी राजनीतिक धारा आगे बढ़ कर किसी राजनीतिक समुद्र में समाहित होने के बजाय पहले विभिन्न धाराओं में बंट जाती है और उनसे बने पठार अलग - अलग शक्ति केंद्रों में बदल कर प्रतिद्वंद्वीता बन जाते हैं। लोकनायक जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति के उद्घोष के बाद कांग्रेस के खिलाफ बनी जनता पार्टी कुछ ही दिनों में खंड - खंड हो गयी। उसके बाद कई तरह के समुच्चय बने पर चल नहीं पाये। इस बार फिर एक महागठबंधन बना। भाजपा या नरेंद्र मोदी को बिहार में धूल चटाने की गरज से तैयार महागठबंधन ‘टेक ऑफ’ करने के पहले ही फुस्स हो गया। इस राजनीतिक घटना से किसी को आश्चर्य नहीं है। इनके पूर्व के राजनीतिक चरित्र के कारण ही इस महागठबंधन के गठन के साथ ही इसके राजनीतिक जीवनकाल को लेकर अटकलें भी लगनी शुरू हो गई थीं, क्योंकि ये सभी दल अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए एकजुट हुए थे। ऐसे में बिहार चुनाव में धर्मनिरपेक्ष मतों में बिखराव रोकने की कोशिश अब नाकाम होती दिख रही है। हर कोई जानता है कि बिहार में सपा और एनसीपी का कोई आधार नहीं है। उनके अलग होने से जदयू, राजद और कांग्रेस गठबंधन को बड़ी क्षति नहीं होने वाली है। किंतु इस बदली राजनीतिक स्थिति के बाद तय हो गया है कि ये दल धर्मनिरपेक्ष मतों में सेंधमारी जरूर करेंगे। भाजपा की कोशिश थी कि किसी तरह वह धर्मनिरपेक्ष मतों को बांट दे, उनमें बंटवारा कर दे और इस नये घटनाक्रम से वह अपने काम में सफल हो गयी। महा गठबंधन से निकले दलों का इरादा बिहार में चुनाव जीतने का नहीं है, बल्कि महागठबंधन को कमजोर करने का है। अब इन दोनों दलों के अलग से चुनाव लड़ने की स्थिति में यादव और मुस्लिम मतों के बंटने की पूरी संभावना है। अगर आप इसके पूर्व के राजनीतिक घटनाक्रमों को याद करें तो देखेंगे कि मुलायम सिंह यादव ने सांसद बर्खास्तगी के मसले पर विरोधी दलों का साथ देने के बजाय उनके विरोध में यह कहते हुए खड़े हो गये कि लोकतंत्र के लिए संसद चलना जरूरी है। उस समय उनके इस राजनीतिक ‘‘चरखा दांव’ को भाजपा के साथ उनकी बढ़ती निकटता के तौर पर देखा गया था। उसके पीछे छिपे राजनीतिक कारण कुछ भी हों। कांग्रेस ने शरद पवार पर भाजपा से सौदेबाजी का आरोप लगाया था। आज महागठबंधन से सपा के अलग होकर चुनाव लड़ने की कहानी के पीछे भी कुछ ऐसा ही कारण माना जा रहा है। इस घटना के पीछे सीबीआई का भय माना जा रहा है। चर्चा यहां तक है कि मुलायम और शरद पवार के पांव अपनों के चलते फंसे हैं कि उन्हें वैसा ही करना पड़ रहा है जो वे कभी चाहते भी नहीं। उनका रिमोट कहीं और है। अपमान और सीटों का मामला तो महज जनता को भरमाने का बहाना है। लालू यादव से समधियाने के रिश्ते से मुंह फेरना यूं ही नहीं है। यह जनता भी समझ रही है। कुछ भी हो पर ये दोनों नेता अपनी राजनीतिक विश्वसनीयता की जमीन जरूर खोते जा रहे हैं। मुलायम सिंह के लिए यह पहला मौका नहीं है जब उन्होंने अपने फायदे के लिए अपनी राजनीतिक दोस्ती को ताक पर रख दिया है। 2002 के राष्ट्रपति चुनाव में वामदलों से बात किये बिना मुलायम ​सिंह ने अचानक अब्दुल कलाम का नाम प्रस्तावित कर दिया था। इसके बाद 2008 में परमाणु करार को लेकर मुलायम सिंह वामदलों का साथ छोड़कर कांग्रेस के साथ खड़े हो गए थे। इसी तरह 2012 में राष्ट्रपति चुनाव से ठीक पहले वे ममता बनर्जी के प्रणव विरोधी रुख को देखते हुए पलट गए थे। इससे ममता पूरी तरह अलग-थलग पड़ गयी थीं। ताजा राजनीतिक घटनाक्रम तो और भी दिलचस्प है। भाजपा को यह मालूम है कि लालू, नीतीश और कांग्रेस के वोटबैंक को विभाजित किये बगैर बिहार में चुनावी फतह आसान नहीं है। इसीलिए उसने नीतीश के वोटबैंक को विभाजित करने के लिए जीतनराम मांझी को अपने साथ लिया, यादव वोटरों को तोड़ने के लिए पप्पू यादव को लालू से अलग किया। राजद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रघुनाथ झा सपा में शामिल हो गए हैं। अब सपा लालू से अलग हुए पप्पू यादव और एनसीपी के साथ मिलकर नया मोर्चा बनाकर चुनाव में उतरने वाली है। यह नयी चुनावी रणनीति कितनी सफल होगी यह तो चुनाव के बाद ही पता चलेगा। किंतु अभी से ही बिहार में इसे ‘‘वोटकटवा’ के रूप में देखा जाने लगा है। ऐसे में बिहार के मतदाताओं का विवेक एक बार फिर कसौटी पर है।



ओआरओपी भ्रम भी कम नहीं है


6 सितम्बर 2015
वन रैंक, वन पेंशन (ओआरओपी) के लिए बीते करीब चार दशकों से जोर दे रहे पूर्व सैन्यकर्मियों ने शनिवार को उस वक्त आंशिक विजय हासिल की जब सरकार ने ऐलान किया कि वह इस योजना का कार्यान्वयन करेगी। दूसरी तरफ, पूर्व सैन्यकर्मियों ने इस फैसले को खारिज कर दिया और कहा कि उनका 84 दिनों से चला आ रहा आंदोलन जारी रहेगा। सरकार ने ओआरओपी के क्रियान्वयन का फैसला किया है जिसके तहत हर पांच साल पर पेंशन में संशोधन किया जायेगा, लेकिन इसके दायरे में वे सैन्यकर्मी नहीं आएंगे जिन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति (वीआरएस) ले रखी है। पूर्व सैन्यकर्मी दो साल के अंतराल पर पेंशन की समीक्षा की मांग कर रहे हैं। सरकार ओआरओपी के क्रियान्वयन के विवरण पर काम करने के लिए एक सदस्यीय न्यायिक समिति का गठन कर रही है जो इस ‘जटिल मुद्दे’ के कई पहलुओं की पड़ताल करने के बाद छह महीने में रिपोर्ट देगी। सरकार द्वारा विस्तृत ब्योरा दिये बगैर पूर्व सैनिकों की लंबित मांग को पूरा करने के लिए केवल 500 करोड़ रुपये के आवंटन पर पिछली सरकार पर निशाना साधने के बाद पूर्व रक्षा मंत्री एके एंटनी ने ओआरओपी से जुड़ी जानकारियों पर सरकार पर कटाक्ष किये। एंटनी और एक अन्य वरिष्ठ कांग्रेसी नेता कपिल सिब्बल का कहना है कि , ‘ओआरओपी घोषणा बहुत बड़ी निराशा है क्योंकि पूर्व सैनिकों के लाभ के प्रावधानों को बहुत हल्का कर दिया गया है। यह उनके हितों के साथ धोखा है।’ विपक्ष पर वार करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना है कि , "जिन्होंने 40-42 साल तक काम नहीं किया, उन्हें बोलने का क्या हक है?फैशन चल पड़ा है कि जब सरकार कोई भी बड़ा काम करती है तो कुछ लोग उसका विरोध करते हैं। जिन्हें जनता ने रिजेक्ट कर दिया, वो लोग देश को आगे बढ़ने नहीं देना चाहते।’’ हालांकि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के नेतृत्व में पार्टी नेताओं ने ‘ऐतिहासिक’ फैसले का श्रेय लिया और कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों के प्रचार के दौरान पूर्व सैनिकों से किया वादा पूरा किया। इसके तहत समान रैंक पर रिटायर हुए सभी सैनिकों और सैन्य अधिकारियों को समान पेंशन मिलेगी। उदाहरण के तौर पर 1996 में रिटायर हुए सैन्य अधिकारी को 2006 में उसी रैंक पर रिटायर हुए अधिकारी के बराबर पेंशन मिलेगी। सरकार का फ़ैसला जो मुख्य है वह है ओआरओपी का फायदा एक जुलाई 2014 से लागू किया जाएगा। ओ आरओपी साल 2013 के आधार पर निर्धारित की जाएगी। रक्षा मंत्री के मुताबिक वन रैंक वन पेंशन यानी ओआरओपी लागू करने से 9000-10,000 करोड़ रुपए ख़र्च होंगे। यह ख़र्च भविष्य में और भी बढ़ेगा।
पेंशन हर पांच साल में निर्धारित की जाएगी। पूर्व सैनिकों का कहना है कि वन रैंक वन पेंशन उनका अधिकार है। जो सैनिक स्वेच्छा से रिटायरमेंट (वीआरएस) लेते हैं उन्हें ओआरओपी नहीं मिलेगा। इनमें युद्ध में घायल होने के कारण रिटायर होने वाले सैनिक शामिल नहीं।
लेकिन रविवार को प्रधानमंत्री ने हरियाणा के फरीदाबाद में दिए एक भाषण में कहा कि वन रैंक वन पेंशन लागू करने में वीआरएस कोई मुद्दा नहीं है, पेंशन सभी को मिलेगी। इससे पहले पूर्व सैनिकों के नेता मेजर जनरल (रिटायर) सतबीर सिंह का कहना है, "सरकार ने एक ही मांग मानी है और छह मांगे नकार दी हैं। प्रदर्शन जारी रखने के सिवा और कोई विकल्प नहीं है।" बढ़ी हुई पेंशन चार अर्धवार्षिक किस्तों में अदा की जाएगी। सैनिकों की विधवाओं को बढ़ी हुई पेंशन एक किस्त में ही दी जाएगी। सरकार के मुताबिक सिर्फ एरियर देने पर ही 10-12 हजार करोड़ खर्च होंगे। रिटायर होने वाले कर्मचारियों के हितों का ध्यान रखने के लिए एक सदस्य न्यायिक आयोग गठित किया जाएगा। ओआरओपी लागू होने से करीब 25 लाख पूर्व सैनिकों और सैनिकों की छह लाख विधवाओं को फायदा होगा। लेकिन इस फैसले को लेकर काफी विभ्रम है। हालांकि सरकार के पास अब इसके अलावा कोई विकल्प नहीं था कि वह इसे किसी नतीजे पर पहुंचाए। वे सरकार में हैं। उन्हें तय करना चाहिए कि क्या सबसे अच्छा है और अपने नागरिकों को क्या देना देश के लिए मुमकिन है। फैसले से कई लोग नाखुश हैं पर हर वेतन आयोग की सिफारिशों पर भी बहुत से लोग नाखुश होते हैं। इसके बाद सरकार को मीडिया के माध्यम से जल्द से जल्द सैन्य समुदाय को पेंशन के नए नियमों के ब्योरे समझाने चाहिए। साफगोई से बातें न रखना सबसे खतरनाक तरीका है। और याद रखें, देश ने नरेंद्र मोदी को जबर्दस्त समर्थन इसलिए दिया, क्योंकि उन्होंने निर्णायक सरकार का वादा किया था।

Friday, September 4, 2015

बिहार चुनाव: जायज होती है हर बात सियासत में


 3 सितम्बर 2015
इन दिनों बिहार में चुनाव का माहौल इतना सरगर्म है कि बाहर से वहां पहुंचने वाला हर आदमी एकदम से ‘कन्फूजिया’ जा रहा है। जिससे मिलिये वह या तो मोदी भक्त निकलता है या नीतीश का पिछलग्गू। मोदी वाले कहते हैं कि ‘दे दे कर निहाल किये जा रहे हैं’, नीतीश के भक्त कहते हैं ‘देते कुछ नहीं , बस बोल बोल कर बेहाल किये जा रहे हैं।’समझ में नहीं आ रहा है वहां हो क्या रहा है। सीरियस कन्फ्यूजन है।
और ही होते हैं हालात सियासत में
जायज होती है हर बात सियासत में
मोदी दो दिन पहले बिहार के भागलपुर आये थे। उन्होने अपने भाषण में कहा कि बिहार के लोगों से ज्यादा समझदार कोई नहीं। दो दिन पहले वही कह कर आये थे कि वहां जंगल राज आने का खतरा है अगर नीतीश तख्त पर आ गये तो जंगल राज आयेगा ही। उधर नीतीश ने पटना में रैली में कहा, यह अब तक की सबसे बड़ी रैली है। अब कौन बड़ा है यह तो जानने का कोई तंत्र नहीं है। जो आंकड़े दोनों नेता पेश कर रहे हैं अगर उनका विश्लेषण करें तो वोट देने नहीं आई आई टी में पढ़ने चले जाइएगा।
जो बदल सकती है इस पुलिया के मौसम का मिजाज़
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये
भागलपुर में प्रधानमंत्री ने कहा कि गया में एक लाख 25 हजार करोड़ का पैकेज घोषित किया, 40 हजार करोड़ मिलाकर एक लाख 65 हजार का पैकेज दिया। वैसे प्रधानमंत्री ने ये ऐलान गया में नहीं आरा में किया था। रैली में कुछ का कुछ बोला जाता है।
बेबसी का इक समंदर दूर तक फैला हुआ
और कश्ती कागजी पतवार के साये में है
14वें वित्त आयोग ने बिहार को पांच साल में तीन लाख 76 हजार करोड़ देना तय किया है। मेरा (मोदी का ) एक लाख 65 हजार करोड़ का पैकेज अलग है। नीतीश कुमार का कहना है कि 2 लाख 76 हजार करोड़ का पैकेज तो कुछ नहीं है। दिल्ली से जो मिलेगा उसमें से भी कम दे रहे हैं। बाकी पैसा कहां जाएगा। एक लाख 8 हजार करोड़ कहां जाएगा। प्रधानमंत्री जी दनादन आंकड़े दे रहे हैं , अभी पैसे नहीं दिये पर जो नहीं दिये उसे भी गिन रहे हैं। वे मान रहे हैं कि दे दिये और उस रकम से नीतीश कुमार ने 1 लाख 8 हजार करोड़ उड़ा लिये। गड़बड़ या कन्फ्यूजन तब होता है जब मोदी पॉलिटिकल होते हैं तो नीतीश टेक्निकल हो जाते हैं। नीतीश का कहना है कि संघीय व्यवस्था में जो बिहार का हिस्सा तय है वो तो मिलेगा ही। तो वैसी परिस्थिति में इस बात का उल्लेख करना कि 5 साल में पौने चार लाख करोड़ हम देंगे और उसी में मोदी जी ने जोड़ लिया कि 2 लाख 70 हजार करोड़ तो दे दिया। अब बचे 1 लाख 8 हजार करोड़, वो कहां से आयेगा। यही नहीं, पिछले पखवाड़े खबर आयी कि बिहार के 21 जिले पिछड़े हैं और उनके लिए टैक्स में छूट की अधिसूचना जारी कर दी गयी है। उस सूची में पटना भी है। पटना के अलावा वैशाली, समस्तीपुर, मधुबनी, दरभंगा, पूर्णिया, कटिहार, मुजफ्फरपुर, अररिया, जहानाबाद, नालंदा और गया का भी नाम है। जिन 21 जिलों के नाम जारी हुए हैं उनमें से कई जिले पिछले सत्रह-अठारह साल से बैकवर्ड जिलों में ही हैं।
जो उलझ कर रह गयी है फाइलों के जाल में
गाँव तक वह रौशनी आएगी कितने साल में
यही नाम 1997 में जारी हुए 123 वैकवर्ड जिलों की सूची में भी हैं। गुजरात के कई जिले आज भी पिछड़े जिलों में आते हैं जो 1997 की सूची में थे। जैसे बनासकांठा और साबरकांठा। वैसे 26 जिलों के विकसित गुजरात के 11 जिले पिछड़े जिले में आते हैं। 1997 से ही टैक्स छूट के जरिये इन जिलों में राष्ट्रीय सम विकास योजना के तहत उद्योगों को प्रोत्साहित किया जा रहा है। लेकिन यह खबर ऐसे दी गयी कि लगा कि कोई नया फैसला हुआ है।
खुद को जख्मी कर रहे हैं गैर के धोखे में लोग
इस शहर को रोशनी के बांकपन तक ले चलो
बिहार ही क्यों भारत सरकार के लघु एवं उद्योग मंत्रालय की साइट पर जाइये और देखिये वहां कई राज्यों के पिछड़े जिलों की सूची मिल जायेगी। उसमें आप पाएंगे कि आंध्र प्रदेश के 14 जिले, बिहार के 18 जिले , गुजरात के 11 जिले , कर्नाटक के 11, मध्यप्रदेश के 36 जिले औद्योगिक रूप से पिछड़े जिलों की सूची में शामिल हैं। तो फिर बिहार के लिए ऐसी घोषणा करने का मतलब क्या है ? अगर इन आंकड़ों पर चुनाव हुए तो जिस बिहारी को सबसे समझदार आदमी कह रहे हैं मोदी वह मतदाता के रूप में क्या साबित होगा यह आप समझ सकते हैं।
आँख पर पट्टी रहे और अक्ल पर ताला रहे
अपने शाहे-वक्त का यूं मर्तबा आला रहे

एक हाई प्रोफाइल मर्डर मिस्ट्री


2 सितम्बर 2015
इन दिनों एक मर्डर मिस्ट्री सुर्खियों में है। इलेक्ट्रानिक और अंग्रेजी मीडया तो लगता है कि इसके प्रति दीवाना हो गया है। अटकलबाजियों का ऐसा दौर चल रहा है जिसे कहा जा सकता है कि ‘लव, वार और ब्रकिंग न्यूज में हर बात जायज है।’ पिछले एक हफ्ते से देश के हर मीडिया के लिये यह प्रमुखतम खबर बन गयी है। अपनी ही बेटी के कत्ल के इल्जाम में फंसी इंद्राणी की गुत्थी अब भी बेहद उलझी हुई है। सारे तार लंदन के पैसे की दुनिया से जुड़े हुए हैं। पीटर ब्रितानी पासपोर्ट वाले हैं। इंद्राणी और उसके पूर्व पति संजीव खन्ना से पैदा हुई विधि लंदन में ही रहती है और लंदन ही वह शहर है जहां पीटर और इंद्राणी उस दौर में वक्त काट रहे थे जब उनकी कंपनी की जांच चल रही थी। लंदन से एक बड़ा पैसा रूट होकर इंद्राणी की कंपनी में लगा और इसके बाद वह धीरे-धीरे गायब होता रहा। निवेशकों ने बड़े धोखे की बात कही थी। अब यह आपराधिक मामला अदालत में जाएगा, मुकदमा चलेगा और कौन जानता है कि कोर्ट के फैसले के तुरंत बाद एक और किताब आ जाएगी कि फैसले में क्या खराबी है और कैसे जज ने गलती की है। क्योंकि अविरूक सेन की किताब ‘आरूषि’ ने यही चलन स्थापित कर दिया है। इसलिए अब बहस के बिंदु अपराध क्षेत्र में नहीं हैं। इनका संबंध हम से है। एक समाज, लोकतंत्र, वित्तीय दिग्गजों के कामकाज और हमारे समाचार माध्यमों की दशा से है। इससे एक परिवार में हुई त्रासदी, फिर वह चाहे कितनी ही जटिल और चकराने वाली क्यों न हो, लतीफे की तरह नज़र आने लगी और वह पारिवारिक मनोरंजन का विषय बन गई। यह मामला हमारे समाज के बारे में क्या बताता है? हम अपने टीवी पर ऐसी सस्ती चीजें देखना पसंद करते हैं, लेकिन इस पर नाक-भौं भी सिकोड़ते हैं और जो पत्रकार हमारे लिए ये लाते हैं उनका मजाक उड़ाते हैं। ‘ऑनर किलिंग’ भी हमें विचलित नहीं करते, क्योंकि यह तो गरीब, ज़ाहिल, गांव वाले अपने बच्चों के साथ करते हैं। लेकिन हमारे जैसे लोग? नहीं, नहीं। यही वजह है कि आरूषि के पालकों ने कभी अपनी बच्ची को नहीं मारा होगा, फिर अदालत चाहे जो कहे। केवल हरियाणा व पश्चिमी उत्तरप्रदेश के जाट ‘सम्मान’ के लिए अपनी बेटियों की हत्या करते हैं। और इंद्राणी ने ऐसा किया है तो शायद इसलिए कि वे आकर्षक, लालची, सत्ता की भूखी, छोटे शहर की ऐसी लड़की है, जिसकी महत्वाकांक्षाएं बहुत ज्यादा हैं। बेशक कुछ हकीकतें होतीं हैं और कुछ कहानियां थोड़े से रहस्य। वे रहस्य और कहानियां इतनी बार दोहरायी जातीं हैं कि हम उन्हें सच समझने की धारणा पाल लेते हैं। यही सच इंद्राणी मामले में है कि यह एक हाई सोसाइटी मर्डर केस है। इंद्राणी के इंद्रजाल में से हर पल नई कहानियां नुमाया हो रही हैं। हर कहानी रस में डूबी, हमारी हर ‘इंद्रिय’ को मदहोश कर देने वाली, दिल से दिमाग़ तक न जाने कितने तारों को झनझना देने वाली। और हमारी हर मांग की पूर्ति को अपना परम कर्तव्य समझने वाली टीवी की ख़बरिया दुनिया हमें बता रही है कि अब इंद्राणी ने सैंडविच खाया, अब उसने कुल्ला किया, क़त्ल के वक़्त शीना गर्भवती थी: सूत्र और उसके कुछ घंटे बाद- देखा, हमारी बात सही निकली, वह वाक़ई गर्भवती थी। बस यह नहीं बता रही कि सैंडविच ग्रिल्ड था या चिकन। बार-बार घूम फिरकर कत्ल का राज पैसे के लेन-देन पर ही आकर अटक रहा है। इंद्राणी ने सबसे पहले पैसे का लालच अपने पूर्व पति संजीव खन्ना को दिया। संजीव को इंद्राणी ने बीते कुछ वक्त में मोटा पैसा दिया था। इस लेन-देन के सबूत पुलिस के पास हैं। इंद्राणी ने पैसे से ही अपने ड्राइवर की वफादारी खरीदी। एक बड़ा सवाल उठ रहा है कि वह चौथा शख्स कौन था, जिसे हत्या की पूरी हकीकत मालूम थी ? जाहिर सी बात है ड्राइवर और संजीव खन्ना तो हो नहीं सकते क्योंकि दोनों शामिल थे और दोनों को लगातार पैसा मिल रहा था। इंद्राणी का सवाल ही नहीं उठता। राहुल मुखर्जी तो अपनी जिंदगी में शीना की फाइल ही बंद कर चुका था। इस बात के भी पर्याप्त सबूत हैं कि उसने यह जानना बंद कर दिया था कि शीना कहां और कैसे गायब हो गई। तो फिर चौथा आदमी कौन था ? यह वही शख्स है जिसने पुलिस को पहली सूचना दी। कहीं लिव इन रिलेशनशिप वाला एस दास तो नहीं।पुलिस जिस केस की जांच अभी-अभी दिखा रही है दरअसल उस पर पिछले तीन महीने से काम हो रहा था। बहुत सारे सबूत गिरफ्तारियों से पहले ही जुटा लिए गए हैं। ऐसे में सवाल यह भी है कि उस चौथे आदमी का क्या फायदा हो सकता था इस राज को खोलने से ? क्या पूरा केस इसलिए खुला क्योंकि कहीं पैसे के लेन-देन का कोई एक बड़ा पेंच अटक गया था ? क्या इंद्राणी कुछ पैसा देने से इंकार कर रही थी जिसके चलते यह पूरी फाइल खोल दी गई ? पुलिस की कहानियां कहती हैं कि उसे किसी अंजान शख्स ने यह सारी जानकारी दी और वह केस को फॉलो करती चली गई। जब भी ऐसे मामले होते हैं तो मीडिया तथा हमारा समाज लगातार यही कहता है कि हाई सोसाइटी में ऐसा कैसे हुआ, ऐसा नहीं होना चाहिये। इस दशा में हमें यह समझना होगा कि जब किसी कमजोर क्षण में व्यक्ति अपराध करता है तो हर ऐसा व्यक्ति(अपराधी) समान होता है : डरा हुआ, लालची, कमजोर, मूर्ख, घटिया, जातिहीन और दोषी। अपराध की गंभीरता कम करने वाले कोई तथ्य नहीं होते।एच जी वेल्स ने लिखा है कि हर अपराध अंत में समाज के प्रति अपराध होता है।

Wednesday, September 2, 2015

हड़ताल की प्रासंगिकता



2 सितम्बर 2015

आज वामपंथी यूनियनों सहित देश की अन्य ट्रेड यूनियनों की राष्ट्रव्यापी हड़ताल है। हालांकि , भारतीय मजदूर संघ ने इस हड़ताल से खुद को अलग कर लिया है। बीएमएस ने हड़ताल में शामिल नहीं होने की घोषणा करते हुए अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को भी इससे अलग रहने की अपील की है। आल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) के महासचिव गुरुदास दाससगुप्ता ने कहा कि विनिवेश और श्रम कानूनों में बदलाव का विरोध करेंगी यूनियनें। दासगुप्ता ने कहा कि ‘इस मुद्दे पर सभी यूनियनें एकमत हैं और वे एकजुट बनी रहेंगी।’ उन्होंने कहा कि यूनियनें विनिवेश कार्यक्रम और श्रम कानूनों में बदलाव का विरोध करेंगी, क्योंकि इससे श्रमिकों के हित प्रभावित होंगे। सीटू के महासचिव तपन सेन ने भी इसी तरह की राय जाहिर की। उन्होंने कहा कि श्रम कानूनों में सुधार ‘श्रमिकों पर गुलामी’ थोपने जैसा होगा। इसके पूर्व सरकार के साथ हुई बैठक में आल इंडिया यूनाइटेड ट्रेड यूनियन सेंटर, आल इंडिया सेंट्रल काउंसिल आफ ट्रेड यूनियन्स, भारतीय मजदूर संघ, हिंद मजदूर सभा, हिंद मजदूर संघ, इंटक, लेबर प्रोग्रेसिव फेडरेशन, नेशनल फ्रंट आफ इंडियन ट्रेड यूनियन्स, सेल्फ इंप्लायड वुमेन्स एसोसिएशन, ट्रेड यूनियन कोर्डिनेशन सेंटर और यूनाइटेड ट्रेड यूनियन कांग्रेस के प्रतिनिधि भी शामिल थे। ट्रेड यूनियनों की ओर से सरकार को 12 सूत्रीय मांग पेश की गई जिसमें बढ़ती कीमत से बचाव, श्रम कानून प्रवर्तन, ठेका श्रम, न्यूनतम वेतन तथा सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी मांगें शामिल हैं। ट्रेड यूनियन नियमित कर्मचारियों के लिए उपलब्ध वेतन और सेवा शर्तों के समान अनुबंध पर काम कर रहे कर्मचारियों के लिए वेतन और सेवा शर्त की मांग कर रहे हैं, लेकिन सरकार उनकी इस मांग को स्वीकार करने के पक्ष में नहीं है, ट्रेड यूनियनों की मांग है कि न्यूनतम वेतन को देश भर में 15,000 रु महीना किया जाए, जो फिलहाल अभी विभिन्न राज्यों में 5,000 से लेकर 9,000 रु तक है। पेट्रोलियम मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने कहा कि प्रधानमंत्री ने श्रम मुद्दों को सुलझाने के लिए जेटली की अध्यक्षता में अंतर-मंत्रालयी समिति गठित की है। ‘केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के साथ औपचारिक और अनौपचारिक बैठकें हुई हैं। उन्होंने 12 सूत्रीय मांग पत्र सौंपा।’

इस ट्रेड यूनियन हड़ताल में , जैसा कि सभी ट्रेड यूनियन हड़तालों में हुआ करता है , वामपंथी ट्रेड यूनियनों का वर्चस्व है। वर्तमान हालात और अर्थव्यवस्था में हड़ताल का रुख कुछ अजीब सा लगता है लेकिन इस व्यावहारिकता से वाम पंथ का कभी वास्ता नहीं रहा। बंगाल के उद्योगों का खात्मा का भी यही कारण था। वामपंथी विचार इन दिनों अव्यावहारिक हो चुके हैं या फिर उन्हें दूसरे दलों ने अपना लिया है। कम्पीटेटिव रेडिकलिज्म जैसा जुमला अब केवल वामपंथी नहीं रहा, दूसरे दल भी उसकी वकालत करने लगे हैं। नरेंद्र मोदी द्वारा इस्पात संयंत्रों को चलाये रखने के लिए उनमें निवेश का निर्णय तो वामपंथी विचार के अनुरूप है। एफ डी आई का वामपंथियों द्वारा विरोध किया जाना एक तरह से विदेशनीति है और इससे स्वदेशी जागरण मंच की नीतियों की महक आती है। वामपंथ इन दिनों अजीब संकट में है। इसके नेता एेसे बेवजह के आंदोलनों में जुड़े दिखते हैं जिनकी कोई व्यावहारिकता नहीं है। पिछले हफ्ते वामपंथी दलों की रैली इसी का उदाहरण थी। रैली में शामिल लोगों को और कुछ ना दिखा तो बेचारे पुलिस वालों पर लगे पत्थर फेंकने। वे इसकी व्यर्थता समझ नहीं पाये। वामपंथी दलों के बुढ़ाते नेता और जंग लगे अप्रयोजनीय संगठन ,जो इसके मंद पड़ने का मुख्य कारण है, आज भी उसी अवस्था में हैं। ये लोग आधुनिक समाज की अपेक्षाओं तथा अर्थव्यवस्था के दबावों के बारे में कुछ भी जानने की कोशिश ही नहीं कर रहे हैं। कहने को तो वामपंथी दलों तथा विचारधाराओं की ग्लोबल अपील है पर बमुश्किल यह आज की वैश्विक अर्थव्यवस्था के अनुरूप हो पा रही है। नतीजतन भारत में वामपंथी राजनीति पुरानी और बाधक बन गयी है। अमरीका या पूंजीवाद इनकी नजर में दुनिया की सभी समस्याओं की जड़ हैं पर चीन चाहे जो करे वह इनकी निगाह में सही है। इससे पता चलता है कि भारतीय वामपंथ कैसे अतीत के शिकंजों में जकड़ा हुआ है। बहुत कम उम्मीद है कि भारतीय वामपंथी दल देश के तकनीकी तरक्की करने की उम्मीद से भरे नौजवान वर्ग को आकर्षित करे। वामपंथी दलों को फिलहाल चाहिये कि वे किसी के साथ , मसलन कांग्रेस के साथ ही, जुड़ कर सियासत के व्यूह को भेदने का प्रयास करें। लेकिन वे अकेले ही लड़ने की जिद में हैं। इस हड़ताल से क्या नुकसान होगा इसका तो आकलन बाद में होगा पर यह समय भारत को जगाने का है और भारत बंद जैसे प्रयास अर्थव्यवस्था के लिए हानिकारक हैं।

Tuesday, September 1, 2015

धर्म आधारित आंकड़े डरावने नहीं



27 अगस्त 2015

जनगणना के धर्म आधारित ताजा आंकड़ों के अनुसार 2001 से 2011 के बीच 10 साल की अवधि में मुस्लिम समुदाय की आबादी में 0.8 प्रतिशत का इजाफा हुआ है और यह 13.8 करोड़ से 17.22 करोड़ हो गयी, वहीं हिंदू जनसंख्या में 0.7 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी और इस अवधि में यह 96.63 करोड़ हो गयी। जनगणना के आंकड़े एकत्रित करने के चार साल से अधिक समय बाद मंगलवार को धर्म आधारित आंकड़े जारी किये गये वहीं जाति आधारित जनगणना के आंकड़े अभी सार्वजनिक नहीं किये गये हैं। राजद, जदयू, सपा और द्रमुक तथा अन्य कुछ दल सरकार से जाति आधारित जनगणना जारी करने की मांग कर रहे हैं। जनसंख्या के सामाजिक आर्थिक स्तर पर आंकड़े तीन जुलाई को जारी किये गये थे। लेकिन अगर आंकड़ों को बारीकी से देखें तो दोनों सम्प्रदायों के जन्मदर या आबादी के बढ़ने की दर में गिरावट के लक्षण हैं। भारत में पिछले 10 सालों में हिंदुओं और मुसलमानों की आबादी बढ़ने की रफ़्तार में गिरावट आई है। ऐसा भारत में जनसंख्या में बढ़ोतरी की दर में आई कमी की वजह से हुआ है। हिंदू, मुस्लिम ही नहीं, ईसाई, सिख, बौद्ध और जैन, इन सभी समुदायों की जनसंख्या वृद्धि की दर में गिरावट आई है। भारत में जनगणना हर दस साल में होती है। साल 2011 में हुई जनगणना के मुताबिक हिंदुओं की जनसंख्या वृद्धि दर 16.76प्रतिशत रही जबकि 10 साल पहले हुई जनगणना में ये दर 19.92प्रतिशत पाई गई थी। जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक़ देश में हिंदुओं की आबादी 96.63 करोड़ है, जो कि कुल जनसंख्या का 79.8 प्रतिशत है। वहीं मुसलमानों की आबादी 17.22 करोड़ है, जो कि जनसंख्या का 14.23 प्रतिशत होता है। ईसाइयों की आबादी 2.78 करोड़ है, जो कि कुल जनसंख्या का 2.3प्रतिशत और सिखों की आबादी 2.08 करोड़ (2.16 प्रतिशत) और बौद्धों की आबादी 0.84 करोड़ (0.7 प्रतिशत) है। वहीं 29 लाख लोगों ने जनगणना में अपने धर्म का जिक्र नहीं किया। पिछले एक दशक में जनसंख्या 17.7 प्रतिशत की दर से बढ़ी है। यानी, देश की कुल आबादी में जुड़ने वाले हिंदुओं की तादाद में 3.16 प्रतिशत की कमी आई है। मुसलमानों की जनसंख्या में वृद्धि की बात की जाए तो उसमें ज़्यादा बड़ी गिरावट देखी गई है। पिछली जनगणना के मुताबिक़ भारत में मुसलमानों की आबादी 29.5 प्रतिशत की दर से बढ़ रही थी जो अब गिरकर 24.6 प्रतिशत हो गई है। फिलहाल सरकार ने जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी नहीं किए हैं। राजद, जदयू और डीएमके सरकार पर लगातार दबाव बना रहे हैं कि वह जातिगत जनगणना के आंकड़े भी सार्वजनिक करे। जनसंख्या के सामाजिक आर्थिक स्तर आधारित आंकड़े इस साल तीन जुलाई को जारी किए गए थे। आंकड़ों के मुताबिक़ 2011 में भारत की जनसंख्या 121.09 करोड़ थी। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने आंकड़ों पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि ये नियमित जनगणना का आंकड़ा है। ऐसे आंकड़े तो समय-समय पर आते ही रहते हैं। इसमें कोई नई बात नहीं है, ऐसा तो होता ही रहता है। वहीं एनसीपी नेता तारिक अनवर इन आंकड़ों के जारी होने को बीजेपी की चाल करार देते हैं। अनवर ने कहा कि इसमें जरूर बीजेपी की कोई चाल होगी क्योंकि जातिगत जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक करने की मांग की गई थी। लेकिन केंद्र सरकार ने धर्म के आंकड़े जारी कर दिए। अब ये तो सबको मालूम है कि किस धर्म की कितनी संख्या है, लेकिन जब तक जातीय जनगणना के आंकड़े नहीं बताए जाएंगे तो इसका उद्देश्य पूरा नहीं होगा। संघ विचारक राकेश सिन्हा ने आंकड़ों पर एक के बाद एक कई ट्वीट करते हुए कहा कि मुस्लिम समुदाय जनसंख्या बढ़ाओ की सोची समझी रणनीति से चल रहे हैं। क्या हिंदू अल्पसंख्यक हो जाएंगे? क्या सचमुच ऐसा संभव है? अगर समाज वैज्ञानिक सिद्धातों को मानें तो कहा जा सकता है शिक्षा और सम्पन्नता का जनसंख्या वृद्धि से व्युत्क्रम आनुपातिक सम्बंध है। एन एफ एच एस के आंकड़े देखें तो पता चलेगा कि शिक्षा का स्तर बढ़ते ही प्रजनन दर काफी गिर जाती और यह रिप्लेसमेंट लेवल 2.1 से भी नीचे चला गया। रिप्लेसमेंट लेवल क्या है? एक महिला और एक पुरुष मिला कर दो हुए। इसलिए यदि वे दो बच्चे पैदा करते हैं तो उनकी मृत्यु के बाद बच्चे उनको आबादी में रिप्लेस कर देंगे। यानी अगर हर दंपति दो बच्चे ही पैदा करता है तो आबादी स्थिर रहेगी। लेकिन चूंकि प्राकृतिक रूप से जन्म दर में लड़कियों की संख्या लड़कों से कुछ कम होती है, इसलिए रिप्लेसमेंट लेवल के लिए प्रजनन दर 2.1 लिया जाता है। तो जब तक जनन दर 2.1 है, तब तक आबादी स्थिर रहेगी। इससे कम जनन दर होने पर आबादी घटने लगती है। यानी शिक्षा के बढ़ने के साथ जनन दर घटती जाती है। मुसलमानों में अशिक्षा और गरीबी की क्या स्थिति है, यह सच्चर कमिटी की रिपोर्ट से साफ हो जाता है। ऐसे में अगर मुसलमानों के पिछड़ेपन के कारणों को दूर करने की तरफ ध्यान दिया जाए तो यकीनन उनकी प्रजनन दर में उल्लेखनीय कमी लाई जा सकती है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सरकार विकास की रोशनी को पिछड़े गलियारों तक जल्दी से जल्दी ले जाए, शिक्षा की सुविधा को बढ़ाए, परिवार नियोजन कार्यक्रमों के लिए जोरदार मुहिम छेड़े, घर-घर पहुंचे, लोगों को समझे और समझाए तो तस्वीर क्यों नहीं बदलेगी? आखिर पोलियो के खिलाफ अभियान सफल हुआ या नहीं! अतएव इन आंकड़ों से भय की आवश्यकता नहीं है।