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Saturday, December 6, 2014

हम हंसना भूलते जा रहे हैं

आजादी के 67 वर्षों बाद भी हमारा समाज धर्म, क्षेत्रीयता और जातीयता  के आधार पर बंटा हुआ है। यह एक सामूहिक विफलता है और इसके लिए केवल वे लोग नहीं जिम्मेदार हैं जो धर्म की राजनीति करते हैं बल्कि वे लोग भी हैं जो सेकुलरिटी की आंच पर अपनी रोटी सेंक रहे हैं। ये खोटे सिक्के के दो पहलू हैं। हमारा देश चाहे जितनी तरक्की कर जाये लेकिन वह तरक्की बेमानी होगी। राजनीतिज्ञ बांटने की राजनीति कर रहे हैं और हम उसे लेकर लगातार बंटते जा रहे हैं। यही नहीं इसके लिए हमारा मीडिया भी दोषी है। एक अशालीन बात ममता जी ने एक जनसभा में कह दी और उसे अंग्रेजी मीडिया ने उछालना शुरू कर दिया। उन्होंने यह बात बंगला में कही थी और उसे अंग्रेजी या हिंदी में समझाने की कोशिश की जा रही है। जब अटल बिहारी वाजपेयी 13 दिनों के लिये प्रधानमंत्री बनने के बाद कोलकाता आये थे तब उन्होंने स्थानीय प्रेस क्लब में 'मीट द प्रेसÓ कार्यक्रम में एक जुमला कहा था, 'घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाये क्या।Ó अंग्रेजी और बंगला में इसका अनुवाद हुआ और पूरे मुहावरे का मजा खराब हो गया। उन्होंने अपनी मूढ़ता पर परदा डालने के लिए बात का बतंगड़ बना दिया। क्या यही निष्पक्षता है मीडिया की। हम तो इतने सैडेस्टिक हो गये हैं कि बात का मजा भी नहीं ले पाते। जहां तक ममता जी की 'बांसÓ वाली बात है वह एक स्थानीय जुमला है। लोकभाषा में इसका इस्तेमाल बहुत गलत नहीं माना जाता है। अलबत्ता इसमें कुलीनता का अभाव है और भदेसपना है। लेकिन यह भाषा का सौंदर्य भी है। गुरुवार को एक बड़े अंग्रेजी अखबार ने इसी बात की हंसी उड़ाने के लिए इसे मुख्य खबर बनायी है। हमारा मीडिया 'ठस्स पनÓ का शिकार होता जा रहा है। इसका कारण है मीडिया का अपना कामकाजी वातावरण। आज राजनीति की खबर बनाने का वातावरण स्वस्थ नहीं है। जाहिर है कि पत्रकार अपनी बोर परिस्थतियों के शिकार हो रहे हैं , हंसी के सहज प्रसंगों पर हंसने की क्षमता तक खोते जा रहे हैं। वे ममता बनर्जी की व्यंग्यात्मक गुगली को नहीं समझ सके।  इस व्यंग्य में जबर्दस्त ताकत है। पत्रकारों के ऐसे ठस्स पन के कई कारण कहे जा सकते हैं। पहला कारण शायद यही है कि पत्रकार जिस माहौल में काम करते हैं उसमें हंसी-मजाक की जगह शायद बची नहीं है। हर आदमी तनाव में रहता है। शायद काम की बदहवासी उसे हंसने का अवकाश नहीं देती। उनके काम करने की जगह में हंसना शायद मना है। उनकी ट्रेनिंग में तो हंसना होता ही नहीं है। उन्हें अपने कामकाज में हंसने की फुर्सत नहीं मिलती है। कामकाज की जगह में अतिरिक्त तनाव है, कंपटीशन से ज्यादा बदलाखोरी, एकदूसरे की टांग खिचाई है। ऐसे में जब हंसने की बात होगी तो हंसा न जा सकेगा। एक मजाक, एक मुहावरा, एक कटाक्ष लंबे-उबाऊ भाषण से कहीं अधिक संवाद पैदा करता है क्योंकि उसका चुटीलापन सबके आनंद का विषय बनता है। कटाक्षभरी आलोचना घोर विपक्षी के लिए भी सहने की जगह बनाती है। सहनशीलता में दीक्षित करती है। इससे संवाद और बढ़ता है। यह अंग्रेजी में उस तरह से संभव नहीं, लेकिन उसे देसी भाषा  में तो होना चाहिए। क्योंकि वह लोकजीवन  से उद्भूत भाषा है। लोकभाषा  का अपना मिजाज है, जहां हंस कर, उपहास कर, तंजकर, व्यंग्य करके अपनी बात कही जाती है। राजनीतिक विमर्श में ऐसी मजेदार भाषा का इस्तेमाल सबसे पहले लोहिया ने शुरू किया था। इसी जमीन पर अटल जी बोला करते थे और इसी जमीन पर लालू ने राजनीति की टीआरपी इतने दिन बटोरी। इसी राजनीतिक देसी स्कूल के शरद यादव हैं और वे जब बोलते हैं तब बेलौस और दोटूक बातें करने के आदी हैं और जरूरत पडऩे पर व्यंग्य कर बात को इस कदर चुटीली बनाकर पेश करते हैं कि आप हंसते-हंसते लोटपोट हो जाएं। 'पाकिस्तान रंडुआ है और हम रंडुए के चाचाÓ जरा इस मुहावरे पर गौर तो करिए कि शरद यादव कह क्या रहे थे? और इसे सुनकर राम गोपाल यादव जैसे सांसद हंसी से लोटपोट क्यों हुए होंगे? इस मार को वही समझ सकता है जो मुहावरे जानता है, देसी भाषा की कीमियागीरी जानता है। इस पदावली को सुनकर स्त्रीत्ववादी आरोप लगा सकते हैं कि शरद का उक्त कथन 'मर्दवादीÓ पदावली है और इसमें 'रिवर्स सेक्सिज्मÓ की बू आती है!  हंसी की भाषा अलग होती है। वह पत्रकारिता में नहीं सिखाई जाती। जिसके पास हंसी की भाषा ही नहीं वह उसे पहचाने कैसे! अंग्रेजी की हंसी हमारी लोकभाषा की हंसी से अलग होती है, इसलिए लोकभाषा में या हिंदी में कहे वाक्य का हास्य अंग्रेजी में समझा भी कैसे जा सकता है। हंसी की कमी का एक कारण शायद हमारे राजनीतिक विमर्श की बदलाखोर भाषा है जो हल्के- फुल्के क्षणों को बनने ही नहीं देती। हमारी भाषा सपाट, कड़वी और कटखनी बन चली है। ममता जी ने जो कहा ऐसे सबाल्टर्न कटाक्ष भरे मुहावरे अनंत अर्थो की तरंगें देर तक पैदा किया करते हैं। अंग्रेजी वाले लाख अनुवाद करके भी इस मुहावरे का मजा नहीं ले सकते। अफसोस यही हाल हमारे हिंदी वाले रिपोर्टरों का भी है। इसी के कारण चारों तरफ बड़ी गलत फहमियां पैदा हो रहीं हैं। समाज को स्वस्थ सूचना देना पत्रकारिता का धर्म है पर शुष्क सूचना देकर समाज को मानसिक तौर पर बीमार करना कलम का धर्म नहीं है। 

बांस तो शाश्वत है भाई

लस्टम पस्टम
इन दिनों बांस चर्चा में है। बांस पहले भी चर्चा में हुआ करता था पर आज जैसी उसकी शोहरत नहीं थी। वरना हमारे एक मित्र हैं
 अक्सर मंचों पर कविता पढ़ते समय एक खास कविता सुनाते हैं:'बांस के व्यापारी हईं, बांस देहब जी...Ó। यही नहीं , वकीली महकमे में एक मसल तो बेहद मशहूर है कि 'एक बार एक वकील एक केस की बहस कर रहा था। जज साहेब अंग्रेज थे। वकील ने कहा, मी लॉर्ड, देयर वाज ए खूंटा। अब जज साहेब खूंटा पर अटक गये। पूछा , वॉट इज खंटा? वकील ने कहा, मी लार्ड, इट इज ए पीस ऑफ बंबू , हाफ भीतर हाफ बाहर।Ó या फिर आपने सुना होगा कि 'उल्टे बांस बरेली को।Ó या, फिर बंगला की वह मशहूर कविता- 'बांस तुमी केनो झाड़े...Ó। यानी बांस हमारे लोकजीवन में अरसे से है पर आज कल इस पर ज्यादा दबाव है। अरे भाई, हमारे एक कवि मित्र ने हाल के बांस विमर्श पर टिप्पणी की कि बांस उतनी बुरी चीज नहीं है अगर बुरी होती तो कोलकाता के एक आयकर कार्यालय का नाम 'बम्बू विलाÓ क्यों होता। अपने बांस से परेशान एक दूसरे दोस्त ने फरमाया, भाई वहां उस विला में केवल बम्बू है , छोटे बड़े सब वेराइटी के और उसे आयकर विभाग वाले यत्र तत्र डालते हैं। अब कौन उस विला की हेठी करे।
  प्रश्न है कि ,  बांस किसे कहते हैं? भाई मेरे , जिसे देख कर भूत भागते हैं, जिसके इशारे पर शेर नाचते हैं। जिससे बंद सीवर खोले जाते हैं। छोटा दीखता है, कुछ चिकना होता है, किंतु मारक होता है। वार कहीं करता है, घाव कहीं होता है। बांस ना हो तो बांसुरी ना बजे और बजे तो बेसुरी बजे। ... और मजे की बात है कि बांस यदि बॉस के हाथ में हो तो कितना कुछ होता है यह तो बॉसत्व के मारे लोग अच्छी तरह जानते होंगे। कहते भी हैं कि बांस नहीं तो बॉस नहीं। सच बात है। बांस रखना और बांसुरी बजाना बॉस का धर्म है। घनिष्ठ इस संबंध के अतिरिक्त बॉस और बांस के मध्य कुछ समानता भी हैं। मसलन, बॉस और बांस दोनों गांठ -गठीले होते है। प्रत्येक गांठ कुछ शंका, कुछ आशंकाओं, कुछ प्रश्न और कुछ रहस्यों से भरी होती हैं। एक गांठ का रहस्य सुलझाने का प्रयास करोगे, दूसरी गांठ पहली से ज्यादा मजबूत नजर आएगी। गांठें कच्चे धागे की गांठ के समान होती हैं, जो कभी खुलती ही नहीं हैं, प्रयास करने पर उलझती ही चली जाती हैं।
बॉस का और बांस का मुसकराना यदा-कदा ही होता है। सदियों में जाकर कभी बांस पर फूल खिलते हैं और जब खिलते हैं, तो अकाल साथ लेकर आते हैं। बॉस कभी मुस्कराते नहीं है और जब कभी मुस्कराते हैं तो किसी के लिए संकट के बादल लेकर आते हैं। ऐसी ही कुछ समानताओं के कारण बॉस और बांस कभी-कभी एक दूसरे के पर्यायवाची से लगते हैं। अंग्रेज बॉस और बांस के पारस्परिक संबंधों से भीलीभांति परिचित थे, इसलिए वे और उनके अधिकारी हाथ में सदैव बांस रखते थे। उनके लिए बांस बॉसिज्म का प्रतीक था, जिसे वे रूल कहते थे। उस रूल के ही सहारे रूलिंग चलती थी। रूल के सामने शेष सभी 'रूलÓ व्यर्थ थे। बांस के सहारे ही वे 150 वर्ष तक भारत के शानदार बॉस बने रहे। बांस रूपी रूल का ही कमाल था कि उनके राज्य में कभी सूरज डूबा ही नहीं। बांस कमजोर हुआ तो सूरज ऐसा डूबा की अब ब्रिटेन में भी उगने का नाम भी नहीं ले रहा है।
विश्व की समूची राजनीति के दो ही आधार हैं, बॉसिज्म और बांसिज्म। नटनी के समान विश्व राजनीति भी बांस के सहारे ही तो पतली रस्सी पर चल कर अपना सफर पूरा करती है। हो भी क्यों ना राजनीति और नटनी सगी बहने ही तो हैं। ऊंट किस करवट बैठेगा, प्रयास करने पर पता किया जा सकता है, मगर राजनीति और नटनी कब किस करवट लुढ़क जाएं किसे पता है। 'उसका बांस मेरे बांस से लंबा क्यों?Ó बांसिज्म के इसी दर्शन पर विश्व की राजनीति टिकी है। समस्या बंगाल की हो या  कश्मीर की हो या अफगान की अथवा इराक की, जड़ में सभी के बांस है। अमरीका आज अमरीका न होता यदि उसके हाथ में बांस न होता। आई एस आई एस इसलिये इतना कत्ले आम कर रहा है कि उसका बांस दूसरे से लम्बा हो जाय। झगड़ा बांस का ही है भाई। मेरे बांस से उसका बांस लंबा क्यों? आज बंगाल की समस्या भी यही है कि दिल्ली का बांस कोलकाता के  बांस से लम्बा क्यों है? हमारा मानना है कि तृतीय विश्वयुद्ध यदि कभी होगा भी तो, न तेल के लिए होगा और न ही पानी के लिए। होगा तो केवल बांस के लिए होगा, क्योंकि युद्ध जब कभी भी हुए हैं, बॉसिज्म और बांसिज्म को लेकर ही हुए हैं। मजबूत बांस वाला ही युद्ध में विजयी होगा और वही विश्व-बॉस कहलाएगा।

जनता 'परिवारÓ का अब भार मुलायम पर


आपने सुना है न कि नयी बोतल में पुरानी शराब। या नयी पैकिंग में पुराना माल। वही हाल हमारे देश की राजनीति का है। चाहे वह भगवा पार्टी हो या तिरंगा या कोई और सभी दल बार-बार खुद को नये ढंग से लांच करते हैं। हमारे देश  की राजनीति में नरेंद्र मोदी एक नई विभाजक रेखा के रूप में उभरे हैं। जो भी हो रहा है या तो इनके साथ आने के लिए हो रहा है या फिर इनके विरुद्ध खड़े होने के लिए। अगर मोदी न होते तो मुलायम सिंह यादव के घर छह राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि जमा नहीं होते। समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव, जनता दल युनाइटेड के नीतीश कुमार, शरद यादव, जनता दल सेकुलर से एचडी देवगौड़ा, आरजेडी से लालू प्रसाद यादव, इंडियन नेशनल लोकदल के दुष्यंत चौटाला , समाजवादी जनता पार्टी के कमल मोरारका ने अपनी संख्या को सहेजने का प्रयास किया। जिस वर्तमान परिस्थिति के कारण ये कभी अलग हुए होते हैं उसी वर्तमान परिस्थिति के नाम पर एक भी हो जाते हैं। बदली हुई परिस्थिति राजनीति की वो स्थिति है जो कभी भी किसी को भी बदलने की सहज अनुमति देती है। जेडीयू के नेता नीतीश कुमार ने कहा कि जो पुराने जनता परिवार के घटक हैं वो संसद में और बाहर भी विभिन्न मुद्दों पर मिलकर खड़े होंगे। इसके लिए 'जनता परिवारÓ  22 दिसंबर को दिल्ली में धरना प्रदर्शन का एक साझा कार्यक्रम करेगा। जिसमे यह सवाल उठेगा कि बीजेपी ने किसानों से वादा किया था कि पचास फीसदी मुनाफे की गारंटी के साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाएगा। उसका क्या हुआ? इन छह नेताओं ने मुलायम सिंह यादव को जिम्मेदारी दी है कि वे इन सबको मिलाकर एक दल बनने की प्रक्रिया की देखरेख करें। नीतीश कुमार ने भी कहा है कि कंफ्यूजऩ न हो इसके लिए जरूरी है कि एक पार्टी बने। यहां यह बात गौर करने वाली है कि जनता परिवार चाहे जितनी बार बिखरा हो या अप्रासंगिक हो गया हो, लेकिन भारतीय राजनीति में कांग्रेस के वर्चस्व को तोडऩे में इनकी भूमिका बीजेपी से कम  नहीं है बल्कि बीजेपी को भी सहारा इसी परिवार से मिला है। आज यह परिवार बीजेपी के  वर्चस्व से मुकाबले  के लिए एकजुट हो रहा है तो स्थितियां वैसी नहीं हैं जैसी सत्तर के दशक में थीं।  आज जो हालात हैं उसमें क्या लोग लालू-नीतीश-मुलायम के नेतृत्व पर भरोसा कर सकेंगे। हमारी राजनीति में क्षेत्रीय दलों की भूमिका का ठीक से मूल्यांकन नहीं हुआ। जबकि कई बार ये दल काम के आधार पर दोबारा भी चुन कर आते रहे फिर भी इनकी छवि 'बैड ब्वायÓ की ही है। बिहार में नीतीश कुमार और लालू यादव साथ आने पर आज भी मजबूत ताकत हैं, यह जाहिर हो चुका है। किंतु नई पार्टी के गठन से उत्तरप्रदेश, हरियाणा और कर्नाटक में सामाजिक समीकरण का क्या लाभ होगा, कहना फिलहाल मुश्किल है। बहरहाल, ये छोटे मुद्दे हैं। असली सवाल है कि नई पार्टी जनता के सामने वास्तव में क्या नया विकल्प पेश करेगी? इन पार्टियों ने संसद में समन्वय के जो मुद्दे चुने, उन पर (भूमि अधिग्रहण कानून, मनरेगा, बीमा विधेयक आदि से संबंधित सरकारी कदमों का) विरोध करना था। ऐसे में यह सोचना निराधार नहीं है कि 'जनता परिवारÓ नकारात्मक एजेंडे पर एकजुट हो रहा है। यही इस राजनीतिक घटनाक्रम का सबसे बड़ा पेंच है। अक्तूबर 2013 और फरवरी 2014 में चार वाम दलों और एआईडीएमके, जेडीयू, सपा, एजीपी, जेडीएस और बीजेडी की बैठक हुई थी। लेकिन चुनाव आते आते तीसरे मोर्चा की चर्चा भी समाप्त हो गई। तब अरुण जेटली ने कहा था कि तीसरे मोर्चे को लेकर बीच-बीच में जो प्रयोग होते रहते हैं वो कभी सफल नहीं हुए हैं। थोड़े दिनों के बाद यह मोर्चा समाप्त हो जाता है। कई हारे हुए दलों के साथ गठबंधन बनाने का फार्मूला सफल नहीं हो सकता। लेकिन चुनाव के तुरंत बाद बिहार में जब उप-चुनाव हुए तो जेडीयू, आर जे डी ने कांग्रेस से मिलकर बीजेपी से थोड़ी बढ़त बना ली। समाजवादी पार्टी ने भी यू पी में सीटें जीत लीं। इसके बावजूद आप इस प्रयोग को फिलहाल गेम चेंजर नहीं कह सकते।

Thursday, December 4, 2014

रामलला के बहाने


सिर्फ दो दिन बाद अयोध्या विवादास्पद ढांचा को ढहाये जाने की बरसी है। मुस्लिम समुदाय के सियासतदां इसे बाबरी मस्जिद ढाहने का काल दिवस कहते हैं और हिंदू राजनीतिक नेता इसे राममंदिर निर्माण की दिशा में उठाया गया कदम बताते हैं। दो दशक पहले अयोध्या के बहाने पूरे देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण किया गया था। लेकिन उस हवा में बहने से तब भी अयोध्या ने इनकार किया था। देश के अनेक हिस्सों में टकराव हुए, खूनखराबे तक की नौबत आई, पर अयोध्या का माहौल नहीं बिगड़ा। मंदिरों की घंटियां पहले की तरह ही बजती रहीं, मस्जिदों में अजान होती रही। रोजी-रोजगार और सारा कारोबार उसी तरह चलता रहा। सुख-दु:ख में एक-दूसरे का हाथ लोग उसी तरह थामे रहे, जिस तरह सदियों से थामते आए थे। इंसानियत की ऊष्मा थोड़ी भी कम नहीं हुई। सदियों से चले आ रहे भाइचारे में रत्ती भर फर्क नहीं पड़ा। लेकिन अब भी जोशीले भाषणों से वहां का और उसकी आड़ में देश भर का माहौल गरमाने का प्रयास चल रहा है। राम मंदिर बनेगा या नहीं पर इस दिशा में दोनों समुदाय के कुछ अगुआ सकारात्मक कदम उठा रहे हैं तथा प्रयास कर रहे हैं कि मामला सुसंगत तौर पर सुलझ जाय। बाबरी मस्जिद मुकदमे के पैरोकार और मुद्दई हाशिम अंसारी ने  बुधवार को घोषणा कर सबको चौंका दिया  कि वे अब केस की पैरवी नहीं करेंगे। उन्होंने मंगलवार को यह कहते हुए सबको चौंका दिया कि  वे  रामलला को आजाद देखना चाहते हैं। हाशिम ने यह भी साफ कर दिया कि वह छह दिसंबर को मुस्लिम संगठनों द्वारा आयोजित यौमे गम (शोक दिवस) में भी शामिल नहीं होंगे। वह छह दिसंबर को दरवाजा बंद कर घर में रहेंगे। कुछ ही दिन पहले कोलकाता में अयोध्या की हनुमान गढ़ी के महंत ज्ञानदास से मुलाकात हुई थी। उन्होंने बताया कि उन्होंने हाशिम अंसारी  को लेकर पूरी कोशिश की थी कि  हिंदुओं और मुस्लिमों को इक_ा करके मामले को सुलझाया जाय। पर उस समय हिंदू समुदाय का संगठन सुप्रीम कोर्ट चला गया। नवम्बर के आखिरी हफ्ते में गोरखनाथ पीठ के महंत योगी आदित्य नाथ ने भी कोलकाता में एक खास मुलाकात में बताया था कि एक वर्ष के भीतर राम मंदिर निर्माण की रूपरेखा तैयार हो जायेगी और यह तैयारी संविधान के दायरे में होगी। राममंदिर को लेकर सुसंगत ढंग से सोचने वाले इन तीन रहनुमाओं की बातों से लगता है कि एक बड़ी आबादी देश की एकता, अखंडता और सामाजिक सौहार्द की समर्थक है। हाशिम अंसारी ने तो साफ कहा कि 'बाबरी मस्जिद पर हो रही सियासत से वे दु:खी हैं।  रामलला तिरपाल में रह रहे हैं और उनके नाम की राजनीति करने वाले महलों में। लोग लड्डू खाएं और रामलला इलायची दाना ,यह नहीं हो सकता...।Ó हाशिम ने कहा, 'बाबरी मस्जिद ऐक्शन कमिटी बनी थी मुकदमे की पैरवी के लिए। आजम खां तब साथ थे, अब वे सियासी फायदा उठाने के लिए मुलायम के साथ चल रहे हैं। मुकदमा हम लड़ें और फायदा आजम उठाएं!Ó यही नहीं, चौरासी कोसी परिक्रमा के पहले उस पर सवाल उठाया था और कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने ट्विट किया था कि 'अयोध्या का मैच फिक्स है।Ó इस पर हिंदू महासभा और बाबरी मस्जिद एक्शन कमिटि ने काफी बवाल मचाया था। हालांकि उस परिक्रमा पर शास्त्रज्ञों और पंडितों ने भी सवाल उठाये थे। पंडितों ने तो तमाम धर्मशास्त्रीय स्रोतों के आधार पर इसे गलत ठहराया। उन्होंने दलील दी कि चातुर्मास यानी वर्षा ऋतु के चार महीनों में हिंदू शास्त्रों के मुताबिक कोई शुभ काम नहीं होता, क्योंकि मान्यता है कि इस समय देवता सोने चले जाते हैं। रामायण में प्रसंग है कि भगवान राम ने भी इस काल में अपनी यात्रा स्थगित कर दी थी। ऐसे में यह यात्रा ही सनातन परंपरा के विरुद्ध है। कई आचार्यों ने यह भी कहा कि अयोध्या के चौरासी कोस की परिक्रमा की परंपरा न तो प्राचीन है, न ही शास्त्रसम्मत। अंसारी से मुस्लिम पक्ष को सीख लेनी चाहिए। अंसारी का बयान तब आया है जब बाबरी ऐक्शन कमिटी छह दिसंबर को काला दिवस मनाने जा रही है। अंसारी के इस कार्य का यह संदेश पूरे देश को समझना चाहिए। पूरे देश के लोगों को धर्म और धर्म की राजनीति के बीच अपनी समझ साफ रखनी चहिए।

Wednesday, December 3, 2014

11 कुख्यात आतंकी छिपे हैं कोलकाता और आसपास के इलाकों में

20.11.2014
बंगाल, बिहार और झारखंड के प्रमुख धर्मस्थलों को उड़ाने की योजना
 हरि राम पाण्डेय
कोलकाता : बर्दवान कांड का कुख्यात सरगना शेख रहमतुल्ला साजिद दरअसल बंगलादेश के नारायणगंज का एक मामूली गुंडा है और उसका असली नाम मासूम मियां है। मासूम चोरी एवं लूट की साधारण घटनाओं में सन् 2005 और सन् 2012 में गिरफ्तार भी हो चुका है और उसका छोटा भाई अभी भी जेल में है। बंगलादेश के उच्च पदस्थ खुफिया सूत्रों ने 'सन्मार्गÓ को बताया कि  'बंगाल में जमायत-उल-मुजाहिदीन का सरगना सलाहुद्दीन सालेहीन उर्फ सनी और बम तथा अन्य विस्फोटक बनाने की ट्रेनिंग का प्रमुख जहिदुल इस्लाम उर्फ बोमा मिजान है।Ó ये दोनों मैमन सिंह के त्रिशला घटना के प्रमुख अभियुक्त हैं और बंगलादेश से भागकर पश्चिम बंगाल पहुंच गये हैं। बंगलादेशी सूत्रों के मुताबिक ढाका से नेशनल सिक्योरिटी इंटेलिजेंस के अफसरों का एक दल इनकी पड़ताल में जल्दी ही कोलकाता आने वाला है।
सूत्रों के मुताबिक बर्दवान कांड की जांच कर रही नेशनल इंवेस्टिगेटिंग एजेंसी के प्रमुख शरद कुमार ने मंगलवार को ढाका के मेट्रोपोलिटन पुलिस के खुफिया प्रमुख मोनिरुल इस्लाम से लंबी वार्ता की और बताया जाता है कि मोनिरुल इस्लाम ने उन्हें 11 ऐसे आतंकियों की सूची सौंपी है, जो जमायत- उल-मुजाहिदीन के आतंकी हैं तथा कोलकाता और आसपास के इलाकों में छिपे हुए हैं। उस सूची में जिनके नाम हैं, उनमें शामिल हैं; सोहैल इस्लाम, अनवारिल इस्लाम फारूक उर्फ जमाई फारूक, जहिदुल इस्लाम उर्फ बोमा मिजान, सलाहुद्दीन सालेहीन उर्फ सनी, शरीकुल इस्लाम, मौलाना ताज और मौलाना याह्यïा। बंगलादेश में गिरफ्तार जमायत के कुछ सदस्यों की दी गयी सूचनाओं के हवाले से सूत्रों ने बताया कि भारत में घुसे इन आतंकियों की योजना पश्चिम बंगाल, बिहार और झारखंड में प्रमुख हिंदू धार्मिक स्थलों को उड़ा देने की है ताकि देश का सांप्रदायिक माहौल खराब हो जाय और अंतरराष्टï्रीय स्तर पर मुस्लिम एकजुटता का दबाव बढ़े। इस दबाव के कारण बंगलादेश में आतंकी संगठनों के प्रति सरकार थोड़ी ढीली हो सकती है। सूत्रों ने भारतीय मीडिया में आयी उस खबर का पूरी तरह खंडन किया, जिसमें कहा गया था कि 'बर्दवान में तैयार किये जाने वाले विस्फोटकों और टें्रड किये जा रहे लोगों का उपयोग बंगलादेश में किया जाना था।Ó सूत्रों ने इस तथ्य को स्पष्टï तौर पर मनगढं़त बताया, जिसमें यह दावा किया गया था कि बंगाल के एक चिट फंड का रुपया जमायत ए इस्लामी और इस्लामी बैंकों के माध्यम से जमायत- उल- मुजाहिदीन को मिला था। बंगाल में उन आतंकियों को एक राजनीतिक दल की मदद के सवाल पर सूत्रों ने कहा कि उनकी जांच में ऐसा अब तक साफ तौर पर मालूम नहीं हो सका है। सूत्रों के मुताबिक बंगाल के सीमावर्ती गांवों में बंगलादेशी कट्टïरपंथी तत्वों का उस समय से अड्डïा है, जबसे ढाका पाकिस्तान के अधीन था। बंगलादेश उप उच्चायोग के अत्यंत उच्च पदस्थ सूत्रों ने बुधवार को 'सन्मार्गÓ को बताया कि ढाका पुलिस ने भारतीय एनआईए के प्रमुख शरद कुमार को 41 कुख्यात गुंडों के नामों की एक सूची भी दी है, जिनके बंगाल में छिपे होने की आशंका है। सूत्रों ने कहा कि हो सकता है, उन्होंने अपने हिंदू नाम रख लिये हों और इससे उनकी शिनाख्त गुम हो गयी हो। सूत्रों के अनुसार ये उन आतंकियों से ज्यादा खतरनाक लोग हैं, जो बंगलादेश से भागकर बंगाल में छिपे हैं। 

एक अच्छा फैसला

3.12.2014
पुरानी कहानी है कि भारत की 111 पट्टिïयां करीब 17160 एकड़ जमीन बंगलादेश के कब्जे में हैं और 51 बंगलादेशी पट्टिïयां लगभग 7110 एकड़ जमीन  भारतीय कब्जे में हैं। जमीन के ये टुकड़े कूच बिहार के राजा और रंगपुर के फौजदार में चौसर की बाजी में लिये- दिये गये। पहले जुआ या चौसर में जमीनों का लेनदेन हुआ करता था ऐसे सबूत हैं। इधर, आधुनिक इतिहासकारों का मानना है कि यह अग्रेजों की देन है। यह तब हुआ था जब भारत और पाकिस्तान  का ताबड़तोड़ बंटवारा हुआ। कुछ घिरे - सकपकाये लोगों को ऐसी जगह डाल दिया गया जो दूसरे देश के कब्जे में चला गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन क्षेत्रों की अदला बदली का जो प्रस्ताव रखा है वह परिपक्व राजनीतिक सोच का सबूत है। हालांकि ऐसा किया जाना  भारतीय जनता पार्टी के पूर्ववर्ती रुख के विलोम है , लेकिन वह सोच नक्शे के आधार पर तैयार किया गया था न कि राजनीतिक सामाजिक अनिवार्यताओं और आवश्यकताओं के आधार पर। इस अदला- बदली के लिये 2011 में यू पी ए सरकार और बंगलादेश  में समझौता हुआ था। इससे पहले 1971 में इंदिरा - मुजीब भूमि समझौते में कुछ ऐसा ही हुआ था। पर कुछ काम नहीं हो सका क्योंकि इसकी अभिपुष्टिï नहीं की जा सकी थी क्योंकि इसके लिये संसद से मंजूरी लेनी पड़ती है। लेकिन अब इसके लिये राह खुल चुकी है। 31 सदस्यीय संसदीय समिति ने मंजूरी दे दी है। इस समिति के अध्यक्ष कांग्रेस के नेता शशि थरूर हैं और उनका मानना है कि ऐसा किया जाना देश हित के लिये जरूरी है। क्योंकि इससे भारत - बंगलादेश सीमा समस्या स्थाई तौर पर सुलझ जायेगी। पूर्व विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर की अगुवाई वाली समिति ने दोनों देशों के बीच सीमा तय करने के लिए 119वें संविधान संशोधन विधेयक को अपनी कुछ सिफारिशों के साथ मंजूरी दे दी है। समिति ने केंद्र और राज्य सरकारों को इसके क्रियान्वयन में मानवीय पक्ष का ध्यान रखने तथा पुनर्वास पैकेज को लागू करने की प्रक्रिया पर भी स्पष्टता बनाने को कहा है। समिति ने सीमा निर्धारण पर अमल से पहले राज्यों व केंद्र के बीच बेहतर तालमेल व उच्च राजनीतिक स्तर पर मशविरे पर जोर दिया। पूर्व विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर की अगुवाई वाली समिति ने दोनों देशों के बीच सीमा तय करने के लिए 119वें संविधान संशोधन विधेयक को अपनी कुछ सिफारिशों के साथ मंजूरी दे दी है। समिति ने केंद्र और राज्य सरकारों को इसके क्रियान्वयन में मानवीय पक्ष का ध्यान रखने तथा पुनर्वास पैकेज को लागू करने की प्रक्रिया पर भी स्पष्टता बनाने को कहा है। समिति ने सीमा निर्धारण पर अमल से पहले राज्यों व केंद्र के बीच बेहतर तालमेल व उच्च राजनीतिक स्तर पर मशविरे पर जोर दिया। मोदी ने यहां भाजपा कार्यकर्ताओं की रैली को संबोधित करते हुए कहा, मैं इस तरह के बंदोबस्त करूंगा, जिसके बाद रोज-रोज असम आने वाले और उसे तबाह करने वाले बंगलादेशियों के लिए सभी रास्तों को बंद कर दिया जाएगा। मेरी बात का भरोसा कीजिए कि असम की इस समस्या के स्थाई समाधान के लिए भूमि हस्तांतरण समझौता किया जाएगा। यह समझौता दोनों देशों के बीच भूमि सीमा सहमति के तहत सीमा के निर्धारण से संबंधित है। मोदी ने यह आश्वासन ऐसे समय में दिया है जब भाजपा की प्रदेश इकाई और असम गण परिषद ने इस आधार पर समझौते का विरोध किया है कि जमीनों की अदला-बदली में असम को बंगलादेश की तुलना में अधिक क्षेत्र गंवाना पड़ेगा। प्रधानमंत्री ने कहा कि केवल असम की जनता और सीमा की सुरक्षा के लिए जमीन का  हस्तांतरण किया जाएगा और राज्य को किसी तरह के नुकसान के लिए यह कदम नहीं उठाया जाएगा। उन्होंने कहा, मैं पूरी जिम्मेदारी के साथ यह बात कह रहा हूं। मोदी ने कहा कि भूमि के आदान-प्रदान से जुड़े समझौते के संबंध में वह राज्य की जनता की भावनाओं को समझते हैं और असम की सुरक्षा के साथ कोई समझौता नहीं करेंगे। यही नहीं इस अदला बदली में भारत को कानूनी तौर पर 2777 एकड़ जमीन प्राप्त होगी। यह जमीन दरअसल भारत की है पर शासन बंगलादेश का चलता है, यही नहीं इसी तरह बंगलादेश की 2267 एकड़ जमीन बंगलादेश को प्राप्त होगी। यह एक परिपक्व समझौता है जो दो मित्र राष्टï्रों के बीच सीमा के अनबन को खत्म कर देगा। भारत एक बड़ा लोकतांत्रिक देश है और अपनी गरिमा को देखते हुए इस अदलाबदली को शालीनता से स्वीकार कर लेना चाहिये। 2013 में असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने सार्वजनिक तौर पर ऐसी अदलाबदली की वकालत की थी और कहा था कि इससे असम को प्रत्यक्ष लाभ होगा। अतीत में तृणमूल कांग्रेस ने इसका विरोध किया था पर वर्तमान में इसके एक नेता सौगत बोस 31 सदस्यीय कमिटी में हैं और उन्होंने इस समझौते को मंजूरी दी है। इससे भारत को चीन से सीमा वार्ता करने में सहूलियत मिलेगी। 

Monday, December 1, 2014

अब अगले छ: महीने और


1.12.2014
नरेंद्र मोदी ने अपने शासन काल के छह महीने पूरे कर लिये। हालांकि उन्होंने कई काम करने के लिए 100 दिनों का वादा किया था पर क्या वे वायदे पूरे हुए। उन्होंने  जिन अच्छे दिनों का वायदा किया था, क्या वे आए हैं, या वे बस आने ही वाले हैं? या इन वायदों के पूरे होने की कोई उम्मीद  नहीं है। क्या मोदी भी उन नेताओं की तरह हैं, जो चुनावों से पहले तो वायदे करते हैं, लेकिन बाद में कुछ नहीं करतेे? इन छह महीनों में मोदी ने भारत को कितना बदला है? इस छ: महीने के काल को प्रशासन के लिहाज से अगर देखें तो कुछ भी नहीं बदला है। दूर दूर तक नीतिगत बदलाव नजर नहीं आ रहे हैं। हां अगर दलीलों की मानें तो सरकार को कुशलता से चलाने की कोशिश की गयी है। वह कोशिश कितनी कारगर हुई यह तो भगवान ही जानते हैं।
वैचारिक रूप से, भारतीय राष्टï्रवाद की परिभाषा बदली है और राष्ट्रवाद को क्षेत्रीय आधार पर परिभाषित करने के बजाय अब हम सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को सरकारी स्तर पर बढ़ावा देते देख रहे हैं। भाजपा नेताओं ने  हिंदू संस्कृति को बढ़ावा देने का प्रयास करते हुए यह समझाना चाहा है कि इस संस्कृति में  तमाम चीजों की व्याख्या निहित है। कुछ सप्ताह पहले नरेंद्र मोदी ने यह दावा किया था कि आधुनिक विज्ञान और पुनर्जागरण से बहुत पहले प्राचीन भारत में जेनेटिक इंजीनियरिंग और प्लास्टिक सर्जरी का चलन था। पिछले पखवाड़े राजनाथ सिंह ने यह दावा कर श्रोताओं को चौंका दिया कि वॉर्नर हेजेनवर्ग का 'अनिश्चितता का सिद्धांतÓ वेदों पर आधारित था। यह अतीत का पुनराविष्कार है। किसी संस्कृति के लिये यह अच्छी चीज है पर विश्व को देखने का यह तरीका विवेकपूर्ण नहीं है जिसमें कहा जाता हो कि  आधुनिकता का हर पहलू हिंदू अतीत से जुड़ा है। इससे वैश्विक पटल पर हम भारतीय हंसी के पात्र बन रहे हैं। मोदी के कार्यकाल के छह महीने का यही सबसे बड़ा असर है। भारत के हिंदू अतीत को लगातार सामने रखना दरअसल अपनी  मिली-जुली संस्कृति को खारिज करना  है। यह विचार एक समुदाय को दूसरे समुदाय के खिलाफ खतरनाक ढंग से खड़ा कर देगा। संघ परिवार के नेता या तो बारह सौ वर्ष की गुलामी की बात कर रहे हैं या इस पर अभिमान कि आठ सौ वर्ष बाद देश की सत्ता में एक हिंदू सरकार आई है। नरेंद्र मोदी बनारस की गंगा-जमनी तहजीब की बात तो करते हैं, लेकिन इस बहुलतावादी संस्कृति को आगे बढ़ाने में अभी तक उन्होंने कुछ खास नहीं किया है। उन्हें बनारस की मिली-जुली संस्कृति और वहां पैदा हुईं दोनों समुदायों की अनेक महान विभूतियों के बारे में सोचना चाहिये जिन्होंने बनारस के रस को तैयार कर इसे  विशिष्ट पहचान दी। मोदी सरकार को एक ऐसी सामाजिक नीति लेकर आना होगा, जिसमें समाज के सभी वर्गों की बेहतरी का आश्वासन हो।  आप गौर करेंगे तो पता चलेगा कि  धार्मिक विवाद और सामाजिक अलगाव के हर अवसर पर प्रधानमंत्री और उनके मंत्रियों ने चुप्पी साधी है। ओबामा की 26 जनवरी की यात्रा को काफी बड़ा करके भुनाने की कोशिश की जा रही है जबकि यह तो कूटनीति और राजनय का हिस्सा है। मोदी सरकार का संसद में बहुमत है, लिहाजा अमरीका अपने कारोबारी हितों के लिए इस सरकार से बेहतर रिश्ता बनाए रखना चाहेगा ही। सरकार ने अगले छह महीने में कई और मोर्चे पर बेहतर काम करने का वायदा किया है, जिन्हें पूरा करना होगा। अगर इसमें सुस्ती दिखी, तो आगे का रास्ता उतना आसान नहीं भी हो सकता है।

पुलिस 'स्मार्ट बने , पर कैसे


30.11.2014
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पुलिस को 'स्मार्टÓ बनने की सलाह दी है। रविवार को गुवाहाटी में सभी प्रांतों के पुलिस महानिदेशकों और अन्य केंद्रीय पुलिस एजेंसियों के प्रमुखों की एक बैठक को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा कि पुलिस को सही अर्थों में 'स्मार्टÓ होना चाहिये। उन्होंने 'स्मार्ट यानी एस एम ए आर टीÓ की व्याख्या की और बताया कि एस से तात्पर्य है स्ट्रिक्ट कठोर लेकिन संवेदनशील, 'एमÓ से तात्पर्य मॉडर्न यानी आधुनिक एवं सचल, 'एÓ से तात्पर्य अलर्ट यानी सतर्क और जवाबदेह, 'आरÓ से तात्पर्य रिलायबल यानी विश्वसनीय एवं प्रतिक्रियावादी तथा 'टीÓ से तात्पर्य टैक्नो सेवी यानी प्रौद्योगिकी का जानकार और दक्ष है।Ó उन्होंने कहा कि पुलिस को अपने कर्मचारियों को बेहतर माहौल देने, अपनी छवि सुधारने और अच्छी सुरक्षा व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए इन मूल्यों को अपनाना चाहिए। इसके अलावा उन्होंने आजाद भारत में शहीद हुए 33000 पुलिसकर्मियों को सम्मान देने के लिए भी अनूठे तरीके बताए। प्रधानमंत्री मोदी ने स्वतंत्रता के बाद अब तक देश के लिए शहीद हुए करीब 33000 पुलिस कर्मचारियों को सम्मान दिलाने के लिए जोर दिया। इसके लिए उन्होंने राज्यों के पुलिस अधिकारियों से कहा कि वो इन शहीद हुए पुलिस कर्मियों का ब्यौरा तैयार करें कि कौन-किस परिस्थिति में शहीद हुआ और देश के लिए उसका योगदान क्या है। उन्होंने कहा कि देश के लिए शहीद हुए सभी पुलिसकर्मियों का एक-एक फोटोग्राफ और उनके बलिदान से जुड़ी जानकारियां जुटाई जाएं। इन जानकारियों को एकत्र करके एक पुस्तक तैयार की जाए जिससे कि आने वाले नई पीढ़ी को जवानों की शहादत और शौर्य के बारे में जानकारी मिल सके। प्रधानमंत्री मोदी ने आगे कहा कि यह भी सुनिश्चित किया जाए कि शहीदों पर बनने वाली किताब राष्ट्रीय भाषा के साथ क्षेत्रीय भाषा में भी होनी चाहिए। इतना ही नहीं, उन्होंने इस आइडिया को कामयाब बनाने  के लिए सुझाव दिया कि पुलिस में भर्ती होने वाले जवानों को इस तैयार होने वाली किताब पर एक परीक्षा भी आयोजित की जाए जिससे ज्यादा से ज्यादा लोग इस किताब को पढ़ सकें। उन्होंने कहा कि एक कारगर खुफिया नेटवर्क वाले देश को सरकार चलाने के लिए किसी हथियार और गोला-बारूद की जरूरत नहीं है। मोदी ने कहा कि हथियारों पर बहुत ज्यादा निर्भर हुए बिना एक प्रभावी खुफिया नेटवर्क के माध्यम से देश चलाया जा सकता है।
प्रधानमंत्री ने कहा, 'जिस देश में उच्च श्रेणी का खुफिया नेटवर्क हो, उसे किसी हथियार और गोलाबारूद की जरूरत नहीं होती। इसलिए बहुत ही उच्च श्रेणी का खुफिया नेटवर्क होना जरूरी है।Ó मोदी ने कहा कि देश में हालांकि बहुत सारी अच्छी चीजें हो रही हैं ऐसे में सकारात्मक खबरों का समुचित तरीके से प्रकाशन होना चाहिए ताकि लोगों को इसके बारे में पता चल सके। प्रधानमंत्री ने कहा कि पुलिस कल्याण एक और मुद्दा है जिसे महत्व दिए जाने की जरूरत है। उन्होंने कहा, 'एक अधिकारी भले ही बहुत अच्छा हो, पर यह महत्वपूर्ण है कि उसके परिवार को अच्छे से रखा जाए।Ó
यह सब आदर्श की बातें हैं और बातों से कुछ होता नहीं है। पुलिस में जो सुधार जरूरी है वह जबतक नहीं होगा तबतक कुछ नहीं हो सकता है।  भारत में समाज से बड़ा संकट अपनी व्यवस्था और पुलिस का है। दुनिया के सभ्य समाजों में पुलिस सभ्य है जबकि अपने यहां पुलिस बीमार है। ध्यान रहे समाज व्यवस्था से नहीं बनता मगर व्यवस्था से पुलिस बनती है। इसलिए पुलिस को सुधार नहीं सकना, उसे सभ्य नहीं बना सकना भारत राष्ट्र-राज्य की सबसे बड़ी असफलता है। तभी आंदोलन इस बात पर होना चाहिए कि पुलिस को सुधारो। जिस तरह की बातें मोदी जी ने की हैं वैसे आदर्श अक्सर सुनने में आते हैं नेताओं के मुंह से। लेकिन कभी किसी ने सुधार की पहल की है। कैसे करेंगे ये लोग सुधार जब खुद ही इसका गलत इस्तेमाल करते हैं। लंबे अरसे से पुलिस को बेहतर प्रशिक्षण देने, उन्हें संवेदनशील बनाने, शिक्षा का स्तर बढ़ाने, नैतिकता की शिक्षा देने, पुलिसकर्मियों की संख्या बढ़ाने जैसे अनगिनत सुझावों की चर्चा होती है, लेकिन इनमें से किसी पर अमल नहीं होता है। आम आदमी के लिए व्यवस्था की पहली कड़ी पुलिस है और यही सबसे कमजोर कड़ी है।  पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए इसमें सुधार सबसे पहली जरूरत है। लेकिन इस भाषण के बाद शायद ही कुछ हो पायेगा। अगर अगले लोकसभा चुनाव तक भी इसमें कुछ हो जाय तो शुक्र है।


सरल नहीं है सुधार


29.11.2014
इन दिनों आर्थिक सुधारों की दूसरी पीढ़ी की चर्चा चल रही है। इस पर आगे बातें करने से बेहतर है कि हम इसके बारे में थोड़ी जानकारी दे दें ताकि समझने में ज्यादा ऊर्जा न लगे। सबसे खास बात है कि हमें यह नहीं मालूम कि हमें करना क्या है। लम्बी अवधि के बाद हमारे देश को राजनीतिक स्थायित्व मिला तो क्या हमारा पहला उद्देश्य होगा कि उस स्थायित्व को बनाये रखें। दूसरी समस्या है महंगाई। अभी हम इससे लगातार जूझ रहे हैं और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया भी  इसी कश्मकश में लगा है। तीसरी समस्या है तेजी से बदल रहीं अंतरराष्टï्रीय परिस्थितियां। बात यहीं खत्म नहीं हो जाती है। इससे ढेर सारी स्थितियां परिस्थितियां जुड़ी हैं और हम सिर्फ ऊपर ही ऊपर तैर रहे हैं बुनियादी सवालों को समझने और उनके उत्तर खोजने की कोशिश ही नहीं की। सोचिये कि भूमि संबंधी अड़चनों के कारण थम रहे निवेश, खनन क्षेत्र और प्राकृतिक सम्पद जैसे क्षेत्रों में लाल फीतों से जकड़े कायदे - कानून। इस बारे में कभी सोचा गया। इससे विकास को कितना अवरोध पहुंचता है। पहली पीढ़ी के सुधारों में भी इस पर निगाह नहीं डाली गयी। बेशक अर्थ व्यवस्था में थोड़ा बहुत विवाद होता है और उसे नहीं मिटाया जा सकता। लेकिन अपने देश में सबसे बुनियादी समस्या है मूल्य नीति। एक देश में एक साथ सरकार नियंत्रित मूल्य नीति है और साथ ही बाजार नियंत्रित नीति भी है। दिलचस्प बात है कि दोनों नीतियां भरोसेमंद नहीं हैं। दूसरी पीढ़ी की चर्चा है लेकिन ये समस्याएं नजरों की ओट हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आस्ट्रेलिया में सही कहा था कि 'किसी तथ्य को छिपा कर सुधार नहीं किया जा सकता है। इससे बात नहीं बनेगी। ... और अगर बात बिगड़ेगी तो कोयला घोटाले की तरह का नतीजा सामने आयेगा।Ó अपने देश में कानूनों में सुधार का नतीजा उसमें कुछ नये छद्मों के लिए जगह बनाने के रूप में सामने आता है। अब जैसे कोयला घोटाले की ही बात करें। इस सम्बंध में मसला यह नहीं है कि किसने इसे जारी किया बल्कि इसका प्रभाव फेडरल प्रणाली पर सवाल उठाता है और दूसरा सवाल है कि इसे जारी कौन कर सकता है। हम इस तथ्य से आंखें मूंदे हैं। यही बात स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में भी है। शिक्षा के क्षेत्र में सुधार के नाम पर शिक्षा का अधिकार दिया गया लेकिन इसमें सबसे बड़ी चूक हो गयी कि निजी और सरकारी शिक्षण संस्थाओं में भेद नहीं किया गया। अब जैसे-जैसे इसे सुधारने की कोशिश होती है वैसे- वैसे इसमें जटिलता बढ़ती जाती है। वही हाल स्वास्थ्य क्षेत्र का भी है। इसमें एक तरफ खुली बाजार व्यवस्था है तो दूसरी तरफ अधकचरे नियम- कायदे। इसमें बढ़ती कीमतों को रोकने की कोई व्यवस्था नहीं है और इससे पूरा देश प्रभावित हो रहा है।  यही नहीं उत्पादनों की मूल्य नीति और बैंकिंग प्रणाली जैसी बातों पर भी ध्यान देना होगा। सुधार के लिए सबसे महत्वपूर्ण है 'चलेगा या चलता हैÓ जैसी प्रवृति के विरुद्ध जंग। सरकार जिस तथ्य को बहुत कम कर के आंक रही है वह है अफसरशाही। एक आई ए एस अधिकारी सरकार को अदालत के पचड़े से बचाने में भारी सहायक होता है लेकिन आज आई एस अधिकारी का अधिकार इतना संकुचित और अचिन्हित हो गया है कि वह अपना काम नहीं कर पाता। दूसरी बात है कि जो भी मामले उभरते हैं पहले तो सरकार उसे समझ नहीं पाती और यह बताती है कि उसने समझा है इसे पूरी तरह और मामले को सुलझाने का प्रयास कर रही है। यही नहीं , सरकार टैक्स हटाने की बात कर रही है लेकिन वित्त मंत्री कठोर वित्तीय अनुशासन की बात कर रहे हैं। दूसरी तरफ, ढांचागत सुधार और ढांचा निर्माण के प्रधानमंत्री के सपनों का क्या होगा।  अगर निवेश नहीं होगा तो विकास कैसे होगा और निवेश होगा कैसे। सुधार के लिए समस्या को जानना जरूरी है। ऐसी व्यवस्था में सुधार बड़ा कठिन है जिसमें आपने कुछ किया तब भी आलोचना और नहीं किया तब भी निंदा। इसलिये सुधारों पर सरकार खुलकर कुछ ईमानदारी से कह नहीं पा रही है। हम संभवत: दूसरी पीढ़ी के सुधारों की बात करें बल्कि पहली पीढ़ी से भी पहले की बात करें तो बेहतर है।

Wednesday, November 5, 2014

An article published in Amar Ujala on 31st Oct.2014


Monday, March 31, 2014

Article published in Hindustan editorial page 0n 28 March 2014 in All editions

Friday, February 21, 2014

This Post was published in Amar Ujala

This Post was published in Amar Ujala

Friday, February 7, 2014

ब्लागर हरिराम पांडेय द्वारा लिखी गयी संपादकीय टिपण्णियों के संग्रह..कही अनकही... का लोकार्पण करते पश्चिम बंगाल के राज्यपाल एम के नारायणन

ब्लागर हरिराम पांडेय द्वारा सन् 2013 के दौरान सन्मार्ग समाचार पत्र के लिए लिखी गयी संपादकीय टिपण्णियों के संग्रह..कही अनकही... का कोलकाता बुक फेयर 2014 में लोकार्पण करते पश्चिम बंगाल के राज्यपाल एम के नारायणन तथा उक्त अवसर की कुछ तस्वीरें