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Saturday, January 23, 2010

गणतंत्र या परतंत्र

भारतीय गणतंत्र के 60 वर्ष पूरे हो चुके हैं। विश्व का सबसे बड़ा गणतंत्र राष्ट्र कहलाने वाले हमारे इस देश की स्वतंत्रता व गणतंत्र, स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले महानायकों का स्वप्न था, जिसे उन्होंने हमारे लिए यथार्थ में परिवर्तित कर दिया। स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले महानायकों में से एक नायक सुभाषचंद्र बोस ने कभी कहा था,...तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा।.. खून भी बहा और आजादी भी मिली। आज हम आजाद हैं, एक पूर्ण गणतांत्रिक ढांचे में स्वतंत्रता की साँस ले रहे हैं।
चाहे वैधानिक स्वतंत्रता हो या फिर वैचारिक स्वतंत्रता, या फिर हो सामाजिक और धार्मिक स्वतंत्रता, आज हम हर तरह से स्वतंत्र हैं। पर क्या सचमुच हम स्वतंत्र हैं, क्या हमारा लोकतंत्र, हमें गणतंत्र राष्ट्र का स्वतंत्र नागरिक कहलाने के लिए काफी है, ये सवाल कई बार मेरे जेहन में आता है। मेरे क्या, मेरे जैसे हर शख्स के जेहन में एक बार तो यह सवाल गूंजता ही होगा। कभी-कभी लगता है कि हम आज भी गुलाम हैं। बस पराधीनता का स्वरूप बदल गया है। हजारों साल पुरानी हमारी इस सभ्यता को कई बार गुलाम बनाया गया और कई वंशों और सभ्यताओं ने हम पर शासन किया। पर कभी-कभी ऐसा लगता है कि आज भी कोई हम पर शासन कर रहा है। शायद हमारी अपनी ही बनाई व्यवस्था के अधीन कभी-कभी हम अपने आप को जकड़ा हुआ महसूस करते हैं।
देश को परिपूर्ण गणतंत्र राष्ट्र के रूप में अब 58 वर्ष पूरे हो गए हैं। हम भी निरंतर विकास की ओर ही अग्रसर हो रहे हैं। होना भी चाहिए। फिर भी ऐसी बहुत-सी बातें हैं, जो हमारे विकास के मार्ग में गड्ढे की तरह दिखाई पड़ती हैं। कई बार हम इन गड्ढों में गिर पड़ते हैं और कई बार इन्हें पार करके आगे निकल जाते हैं।
विकास के पथ पर हम आज बहुत आगे निकल चुके हैं। एशियाई महाद्वीप की दूसरी उभरती शक्ति के रूप में उभरकर आने वाले देश में जहां दिनोदिन आईटी, व्यापार, अंतरराष्ट्रीय संबंध और विज्ञान जैसे क्षेत्रों में हमने सफलता के नए आयाम छुए हैं, वहीं आज भी हम पलटकर देखें तो कई क्षेत्रों में हमारी स्थिति चिंतनीय है।
2005 में.. ट्रांसपेरेंसी इंटरनेश्नल.. द्वारा करवाए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में करीब आधी से अधिक जनसंख्या जो सार्वजनिक सेवाओं में कार्यरत है, घूस या सिफारिश से नौकरी पाती है। जहां हम दिन-रात विकास की मुख्यधारा से जुडऩे के लिए प्रयासरत हैं और अपने समाज को अपेक्षाकृत अधिक अच्छी जीवनशैली देने के लिए जुटे हुए हैं, वहीं कहीं न कहीं हमारे नैतिक मूल्य और आदर्श प्रतियोगिता की इस चक्की में पिसते जा रहे हैं। कितनी अजीब बात है कि 80.5 प्रतिशत हिंदू 13.4 प्रतिशत मुस्लिम, 2.3 प्रतिशत ईसाई, 1.9 प्रतिशत सिक्ख, 1.8 प्रतिशत अन्य धर्म के अनुयायियों वाले इस देश में, जो अपने आप को भाईचारे और सद्भावना का दूत मानता है, आज भी गोधरा और बाबरी मस्जिद जैसी घटनाएँ होती हैं।
सबसे अधिक युवाशक्ति वाला हमारा यह देश आज भी आरक्षण के ताने-बाने में उलझा रहता है और युवाओं को अभी तक वह परिवेश नहीं मिल सका है, जिसकी इस देश को वास्तविक रूप से आवश्यकता है। यहाँ तक कि रोजगार की संभावनाओं का केवल 16.59 फीसदी हिस्सा ही अभी तक महिलाओं को मिल सका है।
जहाँ हमारे देश के दक्षिण भाग ने सूचना प्रौद्योगिकी व आर्थिक विकास की नई रूपरेखा बनाई है, वहीं हमारे देश का पूर्वोत्तर हिस्सा आज भी जीवन-यापन की मूलभूत समस्याओं से जूझते हुए उद्योगीकरण से अछूता है। बात करें विकास की, तो आईटी राजधानी माना जाने वाले बेंगलूर में करीब 200 से भी अधिक आईटी कंपनियाँ पाँव पसार चुकी हैं, परंतु वहीं दूसरी ओर इन पूर्वोत्तर राज्यों के कई ऐसे राज्य हैं, जहाँ रेल परिवहन को तो छोड़िए, सड़कों का भी अता-पता नहीं है।
ये राज्य हमारी केंद्रीय व्यवस्था के पटल से इतने अलग-थलग हो चुके हैं, कि आज यहाँ पर लोग खुद को राष्ट्र का हिस्सा भी नहीं मानना चाहते हैं। अशिक्षा, बेरोजगारी, अव्यवस्था, असुरक्षा, क्षेत्रीय पक्षपात जैसी कितनी ही बीमारियों से ग्रसित कई पिछड़े राज्यों जैसे कि बिहार, मध्यप्रदेश, झारखंड व प. बंगाल में अशिक्षित और बेरोजगार युवा वर्ग नक्सलवादी विचारधारा की ओर विमुख हो चुका है।
हम गणतांत्रिक देश के निवासी हैं। लोकतांत्रिक चुनावी प्रक्रिया ही हमारे देश का भविष्य लिखती है। पर कभी हमने सोचा है कि इस चुनावी प्रक्रिया की नींव क्या है? अखंड माने जाने वाले इस लोकतांत्रिक राज्य की मूल राजनीति तो क्षेत्रवादी कीड़े से ग्रसित है। राजनीति तो राजनीति,आम जीवन में ही इस कीड़े ने हमारे शरीर पर इतने घाव बना दिए हैं कि हमारा स्वरूप वीभत्स दिखने लगा है।
ऐसा नहीं है कि हम आगे नहीं बढ़ रहे हैं, हम विकास की ओर अग्रसर हैं, पर विकास की गति क्या है, इस पर भी गौर करना पड़ेगा। कहीं हम खरगोश की चाल से दौड़ रहे हैं और कुछ क्षेत्रों में हमारी चाल कछुए से भी मंथर नजर आती है...
हम नारी उत्थान की बात करते हैं और जब संसद में महिला आरक्षण विधेयक प्रस्तुत करते हैं, तो हर जगह इस विषय को लेकर सन्नाटा छा जाता है। हम विकास की बात करते हैं और आज भी अपने देश में दहेज प्रथा, बाल श्रम, कुपोषण, गरीबी, आतंकवाद, अशिक्षा, भ्रष्टाचार जैसे कई विषयों पर मूकदर्शक बने बैठे रहते हैं।
ऐसा नहीं है कि हम आगे नहीं बढ़ रहे हैं, हम विकास की ओर अग्रसर हैं, पर विकास की गति क्या है, इस पर भी गौर करना पड़ेगा। क्या यही है बापू के सपनों का गणतंत्र ? आज भारत में गणतंत्र जरूर है, पर क्या यह भारतवासियों के लिए उनके लिए वास्तविक रूप से लोकतंत्र है, यह प्रश्न हमें स्वयं से ही करना चाहिए।

भारतीय गुप्तचरी की संस्कृति में परिवर्तन

पिछले हफ्ते उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने रॉ के मुख्यालय में आर एन काव मेमोरियल लेक्चर में एक बड़ी महत्वपूर्ण बात उठायी। उन्होंने खुफिया एजेंसियों को जिम्मेदारी और संसदीय नियंत्रण में लाने का मसला उठाया। भारतीय खुफिया एजेंसियां अभी इससे मुक्त हैं। खुफिया एजेंसियां अक्सर अपने ऑपरेशंस के मामले में गोपनीयता बरतती हैं, लेकिन विडम्बना है कि वे इस अधिकार का उपयोग अपनी कमियों, अयोग्यताओं और अनियमितताओं को छिपाने में भी करती हैं। हालांकि दुनिया के कई देशों में खुफिया एजेंसियां संसद की निगरानी में काम करती हैं, लेकिन कहीं भी यह बात नहीं उठी कि इससे दिक्कतें आतीं हैं और इस पर दुबारा विचार किया जाय। भारत में भी इसकी कई बार जरूरतें महसूस की गयीं। कई बार इस दिशा में काम भी हुए। आपातकाल के दौरान इंदिराजी ने इस दिशा में पहली बार कदम उठाये, लेकिन बाद में सब कुछ रुक गया। इस रुकने का न जाने क्या कारण था। हो सकता है खुफिया एजेंसियों ने ही विरोध किया हो अथवा राजनीतिक समुदाय ने इसके लिये अनमयस्कता दिखायी हो, क्योंकि संसदीय जवाबदेही के बाद खुफिया संगठनों का राजनीतिक दुरुपयोग जरा मुश्किल हो जायेगा।
जवाबदेही के लिये सबसे जरूरी है कि एजेंसियों के काम काज स्पष्ट तौर पर उल्लिखित हों और उनका कानूनी आधार हो। 1968 के सितम्बर में इंदिराजी के एक शासकीय आदेश के बाद..'रॉ (रिसर्च एण्ड अनैलिसिस विंग).. का गठन हुआ था। आज 42 साल के बाद भी देश की सबसे ताकतवर खुफिया एजेंसी को कानूनी मान्यता नहीं मिल पायी है। यही नहीं इंटेलिजेंस ब्यूरो को अंग्रेजों ने बनाया और यह देश में 1947 से सक्रिय है। सीबीआई का गठन 1947 के बाद हुआ पर उन्हें अब तक संसदीय सूची में शामिल नहीं किया जा सका है।
यह माना जाता है कि गुप्तचर एजेंसियों की कार्य पद्धति पूरी तरह गोपनीय होनी चाहिए और ये एजेंसियाँ जो कुछ करती हैं, उसकी जानकारी केंद्र के स्तर पर प्रधानमंत्री और संबद्ध मंत्रियों तक को ही उपलब्ध होनी चाहिए, जो कि जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि होते हैं। सीधे संसद का किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। इन एजेंसियों की कार्यप्रणाली का कोई भी हिस्सा ऐसा नहीं होना चाहिए जिस पर सार्वजनिक निगरानी की जरूरत हो। लेकिन उपराष्ट्रपति इससे सहमत नहीं हैं। वे मानते हैं कि कोई गुप्तचर एजेंसी कोई खास ऑपरेशन किस तरह करने जा रही है या उसके पास इस संबंध में क्या-क्या बुनियादी जानकारियाँ हैं, आदि तो गोपनीयता का विषय हो सकते हैं लेकिन जो संसद गुप्तचर कार्यों के लिए धन का आवंटन करती है, उसका यह हक बनता है कि वह पूछे कि उस धन का उपयोग कैसे किया जा रहा है और नतीजे क्या दिए जा रहे हैं।
इसके अलावा उपराष्ट्रपति की राय में गुप्तचर एजेंसियों पर जनप्रतिनिधियों की निगहबानी इसलिए भी जरूरी है कि कहीं ये एजेंसियाँ षड्यंत्र के अड्डे न बन जाएँ या नागरिकों के जनतांत्रिक अधिकारों में हस्तक्षेप न करने लगें। इसलिए अगर ये एजेंसियाँ संसद की स्थायी समिति के प्रति जवाबदेह होंगी तो इनके दुरुपयोग का खतरा कम से कम होगा। उपराष्ट्रपति यह भी मानते हैं कि जनप्रतिनिधियों को इतना गैरजिम्मदार नहीं माना जाना चाहिए कि वे समिति के सामने आने वाली संवेदनशील सूचनाओं को बाहर जाने देंगे। इसके अलावा गुप्तचर एजेंसियों के साथ जब व्यापक विचार-विमर्श होगा तो उनके अधिकारियों की समझ का दायरा भी बढ़ेगा, जो अभी तक राजनीतिक-सैन्य तथा आर्थिक गुप्तचरी तक अपने को सीमित रखे हुए हैं। अभी तक हमारी गुप्तचर एजेंसियों की कार्यप्रणाली सिर्फ ऊपरी ढाँचे को छूती है, नीचे तक नहीं जाती यानी उन्हें सामाजिक वास्तविकताओं का कोई संज्ञान नहीं है।
ऐसा नहीं है कि उपराष्ट्रपति यह बात किसी कल्पनाशील सूझबूझ से कह रहे हैं, वरन अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा समेत कोई एक दर्जन देशों में गुप्तचर एजेंसियों को विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी बनाया गया है जिसके कारण ही उनकी कमियों का विश्लेषण किया जा सका है और आगे सुधारात्मक कदम उठाये जा सके हैं। इसलिए समय की आवश्यकता है कि गुप्तचर एजेंसियों को खुदा या ईश्वर का दर्जा न दिया जाए, जिन पर कोई टिप्पणी करना गुनाह हो। एक आधुनिक, लोकतांत्रिक देश में हर स्तर पर खुलापन जरूरी है। यह खुलापन गुप्तचर एजेंसियों के संदर्भ में कितना हो और किस तरह का हो, इस पर बहस जरूर हो सकती है और होनी भी चाहिए। वैसे जब तक राजनीतिक वर्ग से लगातार दबाव नहीं बनेगा तब चाहे कितने अंसारी आयें या जाएं गुप्तचर एजेंसियों की दशा में सुधार नहीं होगा।

अगर वह विमान दुर्घटना न होती तो ..





फिलिप्स रॉथ का एक उपन्यास है.. द प्लॉट अगेंस्ट अमरीका..। यह एक अद्भुत उपन्यास है। इसकी परिकल्पना है कि 1940 में अमरीकी राष्ट्रपति के चुनाव में अगर फ्रेंकलिन रूजवेल्ट के खिलाफ मशहूर विमान चालक चार्ल्स लिडेनबर्ग चुनाव लड़ते तो क्या होता? और अगर वे जीत जाते तो क्या होता? लेखक ने अपनी किताब में इस बात का चित्रण किया है कि लिडेनबर्ग के राष्ट्रपति काल में अमरीका कैसा होता?
कहानी न्यू जर्सी के यहूदी परिवार से ही शुरू होती है, जो एक परिवार से शुरू होकर पूरे देश की जिंदगी पर पहुंच जाती है। इस काल्पनिक इतिहास में लिडेनबर्ग हिटलर से समझौता कर लेते हैं, अमरीका को युद्ध से बचा लेते हैं और पूर्वी तट पर रहने वाले यहूदियों में उन्माद जगा देते हैं। रॉथ की कहानी पढ़कर भारत के बारे में सोचने पर मजबूर होना पड़ता है। कई काल्पनिक स्थितियां बनती हैं।
ऐसी ही एक कल्पना है कि अगर सुभाष चंद्र बोस दूसरे विश्वयुद्ध के बाद भारत लौटते तो क्या होता?
यह माना जाता है कि बोस का निधन फारमोसा (उस समय ताईवान का यही नाम था) से उड़ान भरते समय 18 अगस्त 1945 में वायुयान दुर्घटना में हो गया था। अगर यह दुर्घटना न हुई होती। उसी महीने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराया गया था। अगर बोस विमान पर बैठे ही न होते या फिर विमान सुरक्षित उतर गया होता तो क्या होता? जाहिर है कि वे देश वापस आते और ब्रिटिश शासकों से भारत को आजाद कराने की लड़ाई जारी रखते। यह भी हो सकता है कि वे सीधे भारत न लौटते, कुछ समय के लिए रूस या चीन कहीं शरण ले लेते। लेकिन कुछ समय में ही वे भारत का रुख करते।
उस साल का अंत आते-आते ब्रिटिश सरकार ने भारत में ज्यादा दिन टिकने का इरादा छोड़ दिया था। युद्ध ने उन्हें थका भी दिया था और कंगाल भी बना दिया था। विंस्टन चर्चिल की साम्राज्यवाद समर्थक सरकार की जगह लेबर पार्टी की सरकार सत्ता में आ चुकी थी और भारत को आजादी देने को प्रतिबद्ध थी। वायॅसराय लार्ड वेवेल कांग्रेस और मुस्लिम लीग के साथ विभाजन की औपचारिकताएं तय करने के लिए शिमला में बैठक कर रहे थे। सबके दिमाग में एक ही सवाल था कि जब ये लोग भारत से जाएंगे तो पीछे एक देश छोड़कर जाएंगे या दो देश।
जापान में हार के बाद आजाद हिंद फौज के बहुत सारे सदस्य भारत लौट आये। आम सैनिकों को तो अपने गांव जाने दिया गया, लेकिन इसके आला अधिकारियों को रोक लिया गया। उन पर आरोप था कि उन्होंने ब्रिटिश इंडियन आर्मी से बगावत करके दुश्मन का साथ दिया। मुकदमा लाल किले में चला, जिस पर पूरे देश का ध्यान था। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जवाहरलाल नेहरू ने उनकी तरफ से पैरवी की।
क्या होता अगर सुभाष चंद्र बोस खुद 1945 या 1946 में आ गये होते? ब्रिटिश सरकार उन पर बगावत का आरोप नहीं लगा सकती थी, क्योंकि वे तो कभी उसकी सेना में थे ही नहीं। क्या उन पर..देशद्रोह.. का मुकदमा चलाया जाता? कुछ वैसे ही जैसे आरोप वरिष्ठ ब्रिटिश राजनेता जॉन एंब्रे पर लगाये गये थे और आखिर में उन्हें फांसी दे दी गयी थी। क्या ऐसा ही कुछ सुभाष चंद्र बोस के साथ भी होता? यह भी आसान नहीं था, क्योंकि बोस ब्रिटिश नहीं थे, हालांकि वे भारतीय भी नहीं थे, क्योंकि उस समय भारत नाम का राष्ट्र था ही नहीं।
युद्ध की समाप्ति पर बोस अगर भारत लौटते तो ब्रिटिश सरकार के लिए भी परेशानी खड़ी होती। वह आजाद हिंद फौज के सभी अफसरों को कड़ी सजा देकर एक उदाहरण कायम करना चाहती, लेकिन भारतीय जनसमुदाय उसे इस कदम से रोकता। आखिर में उसे सबको रिहा करना पड़ता, पर ब्रिटिश सरकार नेहरू व अन्य राष्ट्रवादियों को इस बात के लिए राजी कर लेती कि आजाद हिंद फौज के सैनिकों को भारतीय सेना में शामिल न किया जाए।
क्या ब्रिटिश सरकार बोस पर मुकदमा चलाती? बहुत मुश्किल था, क्योंकि बोस के साथ भारी जनसमर्थन था। मुकदमा तो उन्हें और लोकप्रिय बना देता। शायद उन्हें राजनीति में फिर से सक्रिय होने दिया जाता। क्या वे अपनी पुरानी पार्टी कांग्रेस में लौटते? या वे खुद की नयी पार्टी बनाते- फारवर्ड ब्लॉक। इसका फैसला वे निजी समीकरण और राजनैतिक जोड़-घटाव से करते। यह भी हो सकता था कि महात्मा गांधी उन्हें मना लेते।
वे बोस को नेहरू और सरदार पटेल के साथ मिलकर अंग्रेजों और मुस्लिम लीग से निपटने के लिए तैयार कर लेते। दूसरी तरफ बोस के लिए 1939 के उस घाव को भुलाना आसान नहीं होता, जब उन्हें कांग्रेस की अध्यक्षता छोडऩी पड़ी थी और उनके पास कांग्रेस छोडऩे के अलावा कोई चारा नहीं बचा था। हालांकि बोस की वापसी का सत्ता के हस्तांतरण पर कोई असर नहीं पड़ता। 1947 में भारत आजाद भी होता और उसका विभाजन भी होता। लेकिन असली सवाल इसी के बाद आता है कि आजाद भारत में सुभाष चंद्र बोस की राजनीति और कार्यक्रम क्या होते?
अगर वे भारत वापसी के बाद कांग्रेस में शामिल भी हो जाते तो आजादी के बाद उनका उसमें बना रहना शायद मुमकिन न होता। वे इतने आत्मसम्मान वाले और स्वतंत्र चेता थे कि जवाहरलाल नेहरू को आला नेता के रूप में स्वीकार न कर पाते। इसके बाद वे क्या करते? या तो वे अपनी पार्टी बनाते या फिर पूर्व कांग्रेसियों के साथ वाममार्ग का रुख करते। यही रास्ता आचार्य कृपलानी, जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया ने अपनाया था, वे सब नेहरू की कांग्रेस के मुकाबले ज्यादा समतावादी थे और सोवियत परस्त कम्युनिस्ट पार्टी के मुकाबले ज्यादा देशभक्त।
इतिहास में तो समाजवादी कांग्रेस का बाल-बांका नहीं कर सके। हो सकता है कि बोस की अगुवाई में समाजवादी नेहरू के लिए बड़ी चुनौती बनते। स्वतंत्रता संग्राम की विरासत के चलते कांग्रेस पहला आम चुनाव तो खैर जीत ही लेती, और शायद दूसरा व तीसरा भी। इसके बाद जनता विकल्प ढूंढ़ती। निश्चित तौर पर बोस की अपील बाकी समाजवादी नेताओं के मुकाबले ज्यादा बड़ी होती। और 1957 नहीं तो 1962 के चुनाव में वे कांग्रेस को कड़ी टक्कर देते। बोस की उम्र नेहरू के मुकाबले आठ बरस कम थी, यह भी उन्हें फायदा ही पहुंचाता। बोस नेहरू से बेहतर प्रधानमंत्री साबित होते या नहीं, यह हम नहीं कह सकते। हम बस इतना कह सकते हैं कि अगर 1945 में विमान दुर्घटना न हुई होती तो इतिहास बदल गया होता।

Sunday, January 17, 2010

बस, आंसुओं से भरा मेरा सलाम लेते जाइए...

यहां हमारा इरादा 'जो आता है उसको जाना हैÓ टाइप का शाश्वत ज्ञान देने का नहीं है। मुझे पता है कि एक बार कम्प्लीट लाइफ सपोर्ट सिस्टम (जिसमें दिल, फेफड़े और शरीर के बाकी अंगों को मशीन के सहारे जिंदा रखा जाता है) पर जाने के बाद कम ही लोग वापस लौटते हैं। ज्योति बाबू कई दिनों से लाइफ सपोर्ट पर ही थे। पहली जनवरी से रोज दफ्तर में न्यूजवायर पर बार-बार ज्योति बसु की हालत से जुड़े अपडेट देखता रहा था। लोग फोन भी करते और सही जानकारी चाहते। एक बार एक सहयोगी ने ाोषणा बी कर दी कि वे चले गये। मैनेजमेंट के लोगों ने सम्पादक की तवज्जो चाही ओर मैंने इनकार कर दिया तो वे कुछ निराश से हो गये। पता नहीं मेरे अनाड़ीपन पर या मेरे सहयोगी के ज्ञान पर। वैसे समझ में तो आ गया था कि अब पर्दा कभी भी गिरने वाला है। सुबह नफ्तर में आते ही फोन आया कि 'वे नहीं रहे।Ó टीवी पर ज्योति बाबू के जाने की खबर आ रही थी...
े ज्योति बाबू को देखने -समझने के कई अवसर आये हैं। दो एक बार मुलाकात भी हुई है। मीडिया से बातों! के दौरान सवालों- जुमलों! का लेना देना भी हुआ है। बंगाल के लिए उन्होंने जो किया या नहीं किया उसके बारे में पूरी जानकारी है पर कभी उनसे वह आस्था नहीं रही। लेकिन उनके निधन की खबर ने भावुक कर दिया। मुझे कम्युनिस्टों से न प्रेम है, न घृणा। मैंने कम्युनिस्ट साहित्य ज्यादा नहीं पढ़ा, खुद कम्युनिस्ट विचारधारा का नहीं रहा, कॉलेज में भी नहीं। उल्टे मुझे तो चिढ़ रही है उनके अत्यधिक बौद्धिकपन से। लेकिन एक मामले में मैं कम्युनिस्टों का कायल हूं और वह है सादगी, साधारण तरीके से रहने और जीने की विलक्षण क्षमता। बंगाल के मुख्यमंत्री बु्द्धदेव भट्टाचार्य अभी भी छोटे से फ्लैट में रहते हैं। कई बार दिल्ली में कम्युनिस्ट सांसदों के निवास में भी जाने का मौका मिला। वे अधिकतर छोटे सरकारी फ्लैट में रहना पसंद करते हैं। यहां अलीमुद्दीन स्ट्रीट में सीपीआईएम के मुख्यालय में! भी अकसर जाना होता है। अकसर वर्तमान मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टïाचार्य को बिना दूदावाली चाय पीते या पार्टी सचिव बिमान बोस को आलू और चावल खाते देखा। एक दिन अखबार में छपी तस्वीर देखी, सोमनाथ चटर्जी किसी गांव में घूम रहे थे। एक पार्टी कार्यकर्ता की मोटरसाइकिल पर पीछे बैठकर। इस उम्र में तमाम दूसरे नेता जेनुइन लेदर की मुलायम गद्दी वाली शानदार कार में घूमते हों, यह अचंभा ही तो है!
ज्योति बसु भी ऐसे ही थे भद्रलोक। आज के दौर में जहां गाडिय़ों के काफिले से आपके प्रभाव की पहचान होती है, ऐसे नेता न के बराबर हैं। दो दशक से ज्यादा किसी राज्य का मुख्यमंत्री बने रहना और प्रधानमंत्री बनते-बनते रह जाना, किसी भी नेता का दिमाग खराब करने के लिए काफी है। लेकिन ज्योति बाबू के बारे में ऐसा कभी सुनने में नहीं आया। पोलित ब्यूरो का ज्योति बसु को प्रधानमंत्री न बनाने का फैसला भले ही 'ऐतिहासिक भूलÓ हो, ज्योति बाबू का उसको बिना प्रतिवाद किए मान लेना अनुशासन की मिसाल है। किसी और पार्टी के बड़े नेता के साथ ऐसा हो तो उन्हें नई पार्टी बनानें में मिनटों का वक्त भी नहीं लगेगा।
ज्योति बाबू का जाना इसलिए और भी खलता है क्योंकि उनके जैसे नेता अब हिंदुस्तान में इक्का-दुक्का ही हैं। जाते-जाते भी ज्योति बाबू अपने शरीर का दान कर गए मेडिकल रिसर्च के लिए। ऐसी महान आत्मा की विदाई के लिए शब्द नहीं हैं मेरे पास। बस, आंसुओं से भरा मेरा सलाम लेते जाइए...