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Friday, April 29, 2016

नयी समाज व्यवस्था के संकेत

इन दिनों जैसे कि संकेत मिल रहे हैं उससे कयास लगाया जा सकता है कि  अगले लोकसभा चुनाव तक या बुत हुआ तो 2019 तक हमारा देश ‘मंडल’ की धुरी पर एक नवीन समाज व्यवस्था की ओर बढ़ रहा है। 90 के दशक में जब सियासत के जोर पर समाज का मंडलीकरण किया गया था तब अदालत ने 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था दी थी। उस समय यह अनुमान लगाया गया था कि अगर समाज में अन्य पिछड़ा वर्ग की आबादी बढ़ेगी तो यह इसी 50 प्रतिशत में शामिल कर ली जायेगी और उनकी आबदी बहुत कम बढ़ेगी या धीरे- धीरे बढ़ेगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं आबादी बहुत तेज रफ्तार से बढ़ी। इतना ही नहीं, आर्थिक ौर पर यह सोचा गया था कि इस बीच निजी क्षेत्र में तेज विकास होगा और उसमें अच्छी नौकरियां पनपेंगी जिससे ज्यादातर लोग वहां चले चले जायेंगे। ऐसा भी नहीं हुऔर सारा बोझ सार्वजनिक क्षेत्र पर आ गया। अब जो लक्षण दिख रहे हैं उससे साफ लगता है कि ‘सामाजिक न्याय’ का एक नया मोर्चा खोले जाने का सियासी प्रयास आरंभ होगा। अगर नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव की कोई महात्वाकांक्षा है तो यह उसे पूरा करने का एक ताकतवर जरिया होगा। बिहार में शराब बंदी इस ओर उठाये जाने वाले कदम का संकेत ही नहीं है बल्कि उनकी सियासत को राज्यकी सीमा से बाहर ले जाने का एक तरीका भी है। आप देखेंगे कि बहुत जल्दी तीन सूत्री मांग को हवा दी जायेगी। वे हैं पहली, जनगणना के जाति आधारित आंकड़े सार्वजनिक किये जाएं। यह यह आरक्षण के लिये माहौल तैयार करने की भूमिका होगी। दूसरी मांग होगी कि, आरक्षण की 50 प्रतिशत की सीमा को बढ़ाया जाय या राज्यों को अधिकार दिया जाय कि वे इसमें संशोधन कर लें। तीसरी मांग होगी कि कानूनी आधार पर निजी क्षेत्र को आरक्षण लागू करने के लिये बाध्य किया जाय। बिहार से लेकर तमिलनाडु में विभिन्न राज्यों में राजनीतिक गोष्ठियों में और चुनाव घोषणापत्रों में मंडलीकरण में संशोधन की बातें चल रहीं हैं, यह बत दूसरी है कि अभी खुल कर कुछ नही कहा जा रहा है। मंडल संतुलन पर तो सवाल भी उठने लगे हैं। हरियाणा में जाटों का आंदोलन और गुजरात में पटेलों का बवाल इसी प्रश्न का संकेत है। इन ताकतवर जाति समूहों को अगर आरक्षण मिलता है तो यह मान कर चलें कि और कई समूह उभरेंगे तथा मंडल के संतुलन की सीमा बढ़ानी होगी। इससे इससे कई नये समूहों को लाभ मिलेगा और हो सकता है कई लाभ पाने वाले समूह इससे वंचित हो जाएं। सामाजिक न्याय की एक विचित्र कीमियाकीमियागीरी है कि इसमें पिछड़ेपन का आकलन नहीं होता बल्कि जातियों और वर्गों पर विचार होता है। 
महात्मा गांधी ने ‘हरिजन’ के 12 दिसंबर 1936 के संस्करण में लिखा कि धर्म के आधार पर दलित समाज को आरक्षण देना अनुचित होगा। आरक्षण का धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है और सरकारी मदद केवल उसी को मिलनी चाहिए कि जो सामाजिक स्तर पर पिछड़ा हुआ हो। इसी तरह 26 मई 1949 को जब पंडित 
जवाहर लाल नेहरू  कांस्टिट्वेंट असेंबली में भाषण दे रहे थे तो उन्होंने जोर देकर कहा था कि यदि हम किसी अल्पसंख्यक वर्ग को आरक्षण देंगे तो उससे समाज का संतुलन बिगड़ेगा। ऐसा आरक्षण देने से भाई-भाई के बीच दरार पैदा हो जाएगी। आरक्षण के मुद्दे पर बनी कमिटी की रिपोर्ट के आधार पर। 22 दिसंबर, 1949 को जब धारा 292 और 294 के तहत
मतदान कराया गया था तो उस वक्त सात में से पांच वोट आरक्षण के खिलाफ पड़े थे। मौलाना आजाद, मौलाना हिफ्ज-उर-रहमान, बेगम एजाज रसूल, तजम्मुल हुसैन और हुसैनभाई लालजी ने आरक्षण के विरोध में वोट डाला था।

भारतीय संविधान ने जो आरक्षण की व्यव्यस्था उत्पत्ति काल में दी थी उसका एक मात्र उद्देश्य कमजोर और दबे कुचले लोगों के जीवन स्तर की ऊपर उठाना था। लेकिन देश के राजनेताओं की सोच अंग्रेजों की सोच से भी ज्यादा गन्दी निकली।

आरक्षण का समय समाप्त होने के बाद भी अपनी व्यक्तिगत कुंठा को तृप्त करने के लिए वी.पी. सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशें न सिर्फ अपनी मर्जी से करवाई बल्कि उन्हें लागू भी किया। उस समय सारे सवर्ण छात्रों ने विधान-सभा और संसद के सामने आत्मदाह किये थे। नैनी जेल में न जाने कितने ही छात्रों को कैद करके यातनाएं दी गई थी। कितनों का कोई अता-पता ही नहीं चला। तब से लेकर आज तक एक ऐसी व्यवस्था कायम कर दी गई कि ऊंची जातियों के कमजोर हों या मेधावी सभी विद्यार्थी और नवयुवक इसे ढोने के लिए विवश हैं।

1953 में तो कालेलकर आयोग की रिपोर्ट में एक नया वर्ग उभरकर सामने आया यानी अो बी सी। इसने भी कोढ़ में खाज का काम किया। बिना परिश्रम किये सफलता पाने के सपनों में कुछ और लोग भी जुड़ गये। साल 2006 में तो शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण इस कदर बढा कि वह 95% के नजदीक ही पहुंच गया था। 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी वित्तपोषित संस्थानों में 27% ओबीसी कोटा शुरू करने के लिए सरकारी कदम को सही ठहराया पर सम्पन्न तबके को इससे बहर रखने को कहा ।

आज संविधान को लागू हुए 65 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं और दलितों का आरक्षण भी 10 वर्षों से बढ़कर 65 वर्ष पूर्ण कर चुका है किन्तु क्या दलित समाज स्वावलंबी बन पाया?

मुश्किल यह है कि हमारा समाज बहुत ज्यादा बदल चुका है और उस बदलाव को आंकने के लिये कुछ जरूरी आंकड़ों की जरूरत है। हमारे राजनीतिज्ञों ने तो यह फैलाया है कि आंकड़े केवल पारदर्शी प्रशासन के लिये ही होते हैं। यह एक तरह का धोखा है। सारी बहस सतही है , सर्वसत्य नहीं है। सबसे पहली बात कि पिछड़ापन है क्या? क्या हम जो मीजान दलितों के लिये इस्तेमाल करते हैं वही पैमाना अन्य पिछड़ी जातियों के लिये करेंगे। क्या यह सही है कि सारी पिछड़ी जातियां गरीब हैं और सारी अगड़ी जातियां अमीर। फिर ऐसा विनिर्माण क्यों? इसके लिये आर्थिक और रोजगार के आंकड़े जरूरी हैं। लेकिन क्या यह नये सियासी समीकरणों को हवा नहीं देगा। वैसे कई राजनीतिक हलकों में यह भी कहते सुना जा रहा है कि 50 प्रतिशत की सीमा नहीं बढ़ायी जानी चाहिये। यही नहीं अगर आप अपने आस पास के समाज का विश्लेषण करें तो पायेंगे कि समाज से और राजनीति में जातियां निस्तेज होती जा रहीं हैं। लेकिन यदि पार्टियों की बनावट और संगठन के बनावट का विश्लेषण करें तो यह स्पष्ट दिखता है कि विभिन्न जातियों की उसमें पैठ है और आनुपातिक संरचना है। ये राजनीतिक नेता कभी नहीं चाहेंगे कि सामाजिक न्याय का नया पैराडाइम तैयार हो और पूरी व्यवस्था पुराने पैराडाइम से नये में शिफ्ट कर जाय।  राजनीति हमेशा समूह आधारित होती है और अगर आर्थिक विकास होता है तो सैद्धांतिक तौर पर आरक्षण के सोच में बदलाव हो सकता है, पर क्या ये नेता ऐसा करने देंगे। अभी जो संकेत मिल रहे हैं उनसे लगता है एक बार फिर मंडलीकरण की हवा उठेगी और यह हवा भारतीय राजनीति की महत्वपूर्ण धुरी होगी। 

बड़े धोखे हैं इस राह में

इन दिनों सोशल मीडिया बड़ी तेजी बढ़ रहा माध्यम हैग्लोबल कंसल्टेंसी ग्रुप केपीएमजी का अनुमान है कि 2017 तक भारत का मीडिया व मनोरंजन उद्योग 1,661 अरब रुपये का हो जाएगा। बीते साल टीवी सेक्टर में 12.5 फीसदी, प्रिंट में 7.3 फीसदी और फिल्म उद्योग में 21 फीसदी की तेजी देखी गई। विकास के लिहाज से सिनेमा सबसे बड़ा उद्योग बना हुआ है। दूसरे नंबर पर टीवी सेक्टर और तीसरे पर प्रिंट है।

आए दिन खुल रहे स्थानीय चैनलों की वजह से भी टीवी क्षेत्र में तेजी आई है। 2008 की विश्वव्यापी मंदी ने भारत में टीवी चैनलों पर असर डाला था। विज्ञापन कम होने की वजह से उन्हें आर्थिक मुश्किलों का सामना करना पड़ा, लेकिन इसके बावजूद तेजी में ठहराव नहीं आया। केपीएमजी की रिपोर्ट कहती है, 2012 में आर्थिक सुस्ती ने उद्योग पर कड़ी मार की, खास तौर पर विज्ञापन से होने वाली आय के मामले में। लेकिन सकारात्मक बदलावों के कई संकेत इस साल दिखने लगे हैं। यही नहीं , बीते तीन-चार साल से सोशल नेटवर्किंग साइट्स भी पारंपरिक मीडिया को चुनौती दे रही हैं।  मीडिया जिन मुद्दों तक नहीं जा पा रहा है या जिन विषयों से बचता है उन पर सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर चर्चा हो रही है। ऐसी चर्चाएं एक तरफ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की ओर इशारा करती हैं तो दूसरी तरफ यह चेतावनी भी देती है कि पारंपरिक स्रोत से विश्वसनीय जानकारी न मिलने पर टूटी फूटी सूचनाएं किस ढंग से बाहर आतीहैं। मुमकिन है कि कई बार मुख्य धारा का मीडिया यानी जिम्मेदार टीवी चैनल या वेबसाइट या अखबार इत्यादि आपको पूरा सच नहीं बता पाएं, या देर से बताएं, या पहले कुछ बताया हो और बाद में कुछ और बताने लगें। लेकिन फिर भी ये बेहतर होगा कि आप जिम्मेदार मीडिया पर ही यकीन करें। क्योंकि सोशल मीडिया पर यकीन करके आप न सिर्फ अफवाहों के चंगुल में फंसते हैं, उसे हवा देते हैं और समाज को अराजकता के दलदल में ढकेलने का माध्यम बनते हैं। अभी चुनाव के इस दौर में लड्डू खिलाने का एक फोटो या किसी शेख के सामने झुकने का मोदी का फोटो नकली बनाकर पाले सोशल मीडिया में ही चला, बाद में वह मुख्य धारा की मीडिया में आ गया। इससे जो कानूनी लड़ाई शुरू हुई वह तो हुई ही उसको लेकर एक भावात्मक आहवेग भ​ जन्म ले लिया। यही नहीं इसके पहले म्यांमार की तस्वीर पूर्वोत्तर भारत के नाम से दिखा कर गंभी साम्प्रदायिक तनाव पैदा करन का प्रयास किया गया था।  सोशल मीडिया ने आज विश्वसनीयता का अपूर्व संकट खड़ा किया है। इसकी ज्यादातर खबरें गलत और दुर्भावनापूर्ण होती हैं। सोशल मीडिया पर मुट्ठीभर गैरजिम्मेदार लोग सक्रिय हैं। लेकिन ये लोग पलक झपकते ही करोड़ों लोगों को अपना हथियार बना लेते हैं। मौजूदा दौर में सोशल मीडिया ने आम आदमी को परमाणु या रासायनिक हथियारों से भी कहीं ज्यादा विध्वंसक अस्त्र थमा दिया है। अगर नकारात्मक रर्वये से सोंचें तो यह कहना सही होगा,

‘खेंचो ना कमान और ना तलवार निकालो

जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकलो।’

ये इंसान के ज्ञात इतिहास में अपूर्व है। संचार क्रान्ति का ये अद्भुत लेकिन भयावह रूप है। भारत में ये बीमारी तो दो-चार साल ही पुरानी है। विकसित देश तो इसका दंश दशक भर से भुगत रहे हैं। सोशल मीडिया ने अभिव्यक्ति की आज़ादी को ‘अभिव्यक्ति की अराजकता’ में बदल दिया है। ये अराजकता आज जिसकी ताजपोशी करेगी, कल उसी का तख्ता पलट भी करेगी। सोशल मीडिया हमें अराजकता की प्रतिस्पर्धा में ढकेल चुका है। अब जो ज्यादा अराजक होगा, वही सरताज बनेगा। ये अराजकता किसी कानून से काबू में नहीं आएगी। ये समाज को और मूल्य विहीन करेगी। सनकी प्रवृत्तियों को बढ़ाएगी। अनुशासन और शर्म-ओ-हया को किताबी बना देगी। इंसान के लिए ये बारूद से भी कहीं ज्यादा विध्वंसक होगा।

 

 

 

  

 

 

 

 

 

Thursday, April 28, 2016

इंसाफ में देरी नाइंसाफी है

एक बहुत पुरानी कहावत है ‘जस्टिस डिलेड , जस्टिस डिनायड’ यानी न्याय में विलम्ब का अर्थ होता है न्याय से इंकारअथवा इंसाफ में देरी नाइंसाफी है। इस विलम्ब पर रविवार को देश के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस ठाकुर बात कहते कहते रो पड़े थे। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि न्याय और विकास में अन्योन्याश्रय सम्बंध है। लेकिन , बड़े आदर के साथ यहां कहा जा रह है कि न्यायमूर्ति ठाकुर ने अदालतों में जजों की कमी का जो करण बताया है वही एक मात्र कारण नहीं है इस विलम्ब का। इसके अलावा भी कई कारण हैं। दरअसल, हमारी समाज व्यवस्था जो है उसके अनुरूप हम लोकतंत्र का विकास नहीं कर पाये। हमें जो 1947 के बाद मिला वह ब्रिटिश उपनिवेशवाद का जूठन था। सबसे महत्वपूर्ण विंदु तो यह है कि आम आदमी जो फरियाद लेकर अदालत में जाता है वह अदालत के तिकड़म और उसकी भाषा नहीं समझता है। अपने हक , अपनी रोजी रोटी को गवां देने वाला एक मजदूर या जमीन छिन जाने के बाद बिलखता हुआ दर दर की ठोकरें खाने वाला एक किसान आई पी सी और सी आर पी सी के दांव पेंच संे वाकिफ नहीं होता, वकीलों की बहस समझ नहीं सकता। न्यायमूर्ति ठाकुर ने जजों की संख्या बढ़ाने की बात की लेकिन उससे क्या बुनियादी समस्या दूर हो सकेगी। न्याय तो पीड़ित जन की भाषा में मिलता नहीं है और जिस भाषा में वह उसके हाथ में आता है उसके पेचोखम और नुक्तों मुहावरों के मायने उसकी समझ में नहीं आते।आज की और पिछली सभी सरकारों को कठघरे में खड़ा करते हुए जस्टिस ठाकुर ने कहा है कि 1987 में लॉ कमीशन ने जजों की संख्या बढ़ाने की बात कही थी, लेकिन आजतक ऐसा नहीं हो पाया है। आज भी देश में 10 लाख लोगों पर सिर्फ 15 जज हैं। जस्टिस ठाकुर का कहना बिल्कुल सही है। आपको जानकर हैरत होगी कि 1950 में सुप्रीम कोर्ट की शुरूआत 8 जजों से हुई थी। तब मात्र 1215 केस थे। हमने एक जज पर 100 मुकदमों से अपनी शुरुआत की थी। एक दशक के भीतर जजों की संख्या 14 हुई और केस हो गए 3247। 1986 में सुप्रीम कोर्ट में 26 जज हो गए और केस की संख्या हो गई 27,881। इस वक्त हमारी क्षमता 31 है और मुकदमों की संख्या 77,151 2014 तक 31 जजों के ऊपर लंबित मुकदमों की संख्या 81,583 थी जिसे हमने कम करके 60,260 पर ला दिया है। अमरीका के सुप्रीम कोर्ट में 9 जज हैं। सबको मिलाकर एक साल में 81 केसों में फैसला देना होता है। भारत में एक जज औसत 2600 मुकदमों को सुनता है, फैसला देता है। चीफ जस्टिस ने कहा कि जब बाहर से जज आते हैं तो हमें देखकर हैरान होते हैं। एक गैर सरकारी अध्ययन के अनुसार हाई कोर्ट के जज के पास एक मुकदमे के लिए बस पांच या छह मिनट ही होते हैं। पहली बार ऐसा अध्ययन हुआ है। जो सबसे व्यस्त जज हैं यानी जिसके पास बहुत केस हैं उसके पास एक केस को सुनने के लिए सिर्फ ढाई मिनट हैं। जो सबसे कम व्यस्त है उसके पास मात्र 15 से 16 मिनट हैं। पांच से छह मिनट में उन्हें फैसला देना होता है। मिसाल के तौर पर कोलकाता हाई कोर्ट में हर दिन एक जज के पास 163 मुकदमे सुनवाई के लिए आते हैं। एक केस के लिए दो मिनट जितना ही समय होता है। पटना, हैदराबाद, झारखंड, राजस्थान के जजों के पास हर दिन एक केस के लिए दो से तीन मिनट मिलता है। क्या एक अरब 25 करोड़ की आबादी के लिए उच्च और उच्चतम न्यालयों के 619 जज पर्याप्त है। । न्यायपालिका की दुनिया का एक जुमला घिसते घिसते इतना घिस गया है कि इसका कोई मतलब नहीं रह गया। आप जानते भी हैं। जस्टिस डिलेड जस्टिस डिनाइड। इंसाफ में देरी नाइंसाफी है। अब बतायें उस नाइंसाफी की सजा किसे मिले। इंसाफ मांगने वाले को या इंसाफ देने वाले को।

यही नहीं कुछ दिन पहले इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की एक रिपोर्ट आयी थी जिसमें कहा गया था कि भारत में क्रिटिकल केयर के लिए 50,000 डॉक्टर चाहिए, ताकि जान जाने की स्थिति में कम से कम डॉक्टरों की कमी का सामना न करना पड़े, लेकिन भारत में सिर्फ 8350 डॉक्टर हैं। क्या 50,000 डॉक्टरों की कमी ये 8350 डॉक्टर पूरी कर सकते हैं। यही कारण है कि आप कई साल से सुनते आ रहे हैं कि फलां सरकारी अस्तपाल में ऑपरेशन की डेट छह माह से एक साल बाद मिलती है। सितंबर 2015 में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने नेशनल हेल्थ प्रोफाइल जारी की थी जिसके अनुसार हर सरकारी अस्पताल कम से कम 61,000 मरीजों का इलाज करता है। 1833 लोगों पर एक बेड है और हरेक सरकारी डॉक्टर 11,000 लोगों का उपचार करता है। जो नर्सिग होम में इलाज नहीं करा सकते उनकी जान भगवान के हाथ में। यानी ना समय से इलाज और ना समय से इंसाफ और तब भी मेरा देश महान।

 

युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये

युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये

प्रधानमंत्री जी लगातार मन की बात कह रहे हैं और देश की हालत तेजी से बिगड़ती जा रही है। पूंजी निवेश का बंदोबस्त किया जा रहा है और उस निवेश के बाद होने वाले विवाद को निपटाने के लिये अदालतों के पास समय नहीं है। रविवार को सुप्रम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति ठाकुर एक सभा में अदालतों और न्याय करने की उनकी क्षमता का जिक्र करते हुये रो पड़े। जिस देश की अदालत इतनी लाचार हो क्या उस देश में कभी पूंजी युक्त व्यापार हो सकता है या किसी किस्म के व्यापार के फलने फूलने की उम्मीद है। देश का पैसा विदेशों में जा रहा है। विजय माल्या तो दिख गये तो बवंडर खड़ा हो गया। अगर से ठीक से जांच की जाए तो इसमें भी एक बड़ा घोटाला सामने आ सकता है कि बहुत सारी कंपनियों ने होटल और रिजॉर्ट खरीदने के लिए पैसे भेजे, लेकिन पैसा किसी और जगह पर लगा दिया। यही किस्सा बैंकों से हजारों-लाखों करोड़ रुपये लोन लेने वाली कंपनियों ने भी किया है। भारतीय बैंकों में जो लोन घोटाला हुआ है, उसकी भी पड़ताल की जाए तो यह पता लगाया जा सकता है कि हर भारी-भरकम लोन लेने वाले समूहों ने विदेशों में अपना अच्छा-बड़ा आसियाना बना रखा है, जिसका उनके उद्योगों से कोई खास लेना-देना नहीं है। सरकार करे तो क्या करे। अदालत का पचड़ा है वह सुलझता ही नहीं। एक छोटा मामला वर्षों झूलता रहता है। दूसरी ओर विकास ना होने से बेरोजगारी तेजी से बढ़ रही है।

जो डलहौजी न कर पाया वह ये हुक्काम कर देंगे

कमीशन दो तो हिंदुस्तान नीलाम कर देंगे

 लेबर ब्यूरो के जारी ताजा आंकड़ों से पता चलता है कि 2015 की जुलाई-सितंबर तिमाही के दौरान देश भर में महज 1.34 लाख लोगों को नई नौकरियां मिली। 2009 के बाद किसी एक तिमाही का यह सबसे कमजोर प्रदर्शन है। इससे भी बुरी बात यह है कि पिछले साल के पहले नौ महीनो में ‘लेबर इंटेंसिव इंडस्ट्री’ (वे उद्योग जहां ज्यादा मजदूरों की जरूरत होती है) ने गत छह साल का सबसे कमजोर प्रदर्शन किया। उक्त अवधि में महज 1.55 लाख नई नौकरियां आईं, जबकि 2013 और 2014 में इसी समय के दौरान तीन-तीन लाख लोगों को रोजगार मिला था। अप्रैल 2015 से जनवरी 2016 के बीच औद्योगिक उत्पादन सूचकांक केवल 2.7 प्रतिशत बढ़ा, जबकि सर्विस सेक्टर में 9.2 प्रतिशत की गति से इजाफा हुआ। आईआईपी में कोयला, तेल, गैस, इस्पात जैसे आठ प्रमुख क्षेत्रों का योगदान 38 प्रतिशत है और इस दौरान उनकी विकास दर महज दो प्रतिशत दर्ज की गई। मंदी के दौर में तो पुरानी नौकरियों पर भी छंटनी का हथौड़ा चलता है। नौकरियों पर लगे ग्रहण का दूसरा बड़ा कारण देश में लगातार दो साल से पड़ रहा सूखा है।

ये बंदेमातरम का गीत गाते हैं सुबह उठकर

मगर बाजार में चीजों का दाम दुगना कर देंगे

डिपार्टमेंट ऑफ इंडस्ट्रियल पालिसी एंड प्रोमोशन द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2014 में मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में एफडीआई में 19 प्रतिशत की गिरावट आयी थी, जबकि 2015 में छह फीसद की वृद्धि दर्ज की गई। वर्ष 2015 में इन्फ्रास्ट्रक्चर में तो एक साल पहले की अपेक्षा कमी ही दर्ज हुई है। मोदी सरकार के प्रथम बीस माह के दौरान एफडीआई की रकम 85 अरब डालर रही, जो मनमोहन सिंह के शासन से 26 अरब डालर अधिक है। अच्छी बात यह है कि विदेश जाने वाली पूंजी में 37 फीसदी गिरावट दर्ज हुई है। आज शिक्षित बेरोजगारों के अलावा बड़ी संख्या में किसान-मजदूर भी खेती छोड़कर अन्य क्षेत्रों में काम खोज रहे हैं। मैन्युफैक्चरिंग में खेतिहर मजदूरों को खपाया जा सकता है। आज जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग की हिस्सेदारी महज 15 प्रतिशत है। 25 बरस पहले भी अर्थव्यवस्था में मैन्युफैक्चरिंग का योगदान इतना ही था। भले ही भारत की गिनती दुनिया की सबसे तेज अर्थव्यस्थाओं में की जाती है, किन्तु हमारे यहां विकास दर में प्रति अंक वृद्धि पर सबसे कम नौकरियां मिलती हैं। खेती चौपट हो गयी, नौकरियां मिल नहीं रहीं हैं , बड़े लोग बैंक से कर्ज लोकर पैसा विदेश ले जा रहे हैं लिहाजा बैंक छोटे लोगों को धन देने में ना नुकुर कर रहे हैं। यही नहीं महंगाई रोजाना बढ़ रही है और उसी तेजी से सरकार के वायदे झूठे साबित हो रहे हैं।

रोटी कितनी महंगी है ये वो औरत बतायेगी

जिसने जिस्म गिरवी रख के ये कीमत चुकाई है

अमीर जो इस 130 करोड़ की आबादी में मुट्ठी भर भी नहीं हैं वे तेजी से अमीर हो रहे हैं और गरीब उससे भी ज्यादा तेजी से गरीबी होते जा रहे हैं। किसानों और गरीब तबके में खुदकुशी की घटनाएं बढ़ रहीं हैं।

जो बदल सकती है इस पुलिया के मौसम का मिजाज

उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये 

 

Wednesday, April 27, 2016

युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये


प्रधानमंत्री जी लगातार मन की बात कह रहे हैं और देश की हालत तेजी से बिगड़ती जा रही है। पूंजी निवेश का बंदोबस्त किया जा रहा है और उस निवेश के बाद होने वाले विवाद को निपटाने के लिये अदालतों के पास समय नहीं है। रविवार को सुप्रम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति ठाकुर एक सभा में अदालतों और न्याय करने की उनकी क्षमता का जिक्र करते हुये रो पड़े। जिस देश की अदालत इतनी लाचार हो क्या उस देश में कभी पूंजी युक्त व्यापार हो सकता है या किसी किस्म के व्यापार के फलने फूलने की उम्मीद है। देश का पैसा विदेशों में जा रहा है। विजय माल्या तो दिख गये तो बवंडर खड़ा हो गया। अगर से ठीक से जांच की जाए तो इसमें भी एक बड़ा घोटाला सामने आ सकता है कि बहुत सारी कंपनियों ने होटल और रिजॉर्ट खरीदने के लिए पैसे भेजे, लेकिन पैसा किसी और जगह पर लगा दिया। यही किस्सा बैंकों से हजारों-लाखों करोड़ रुपये लोन लेने वाली कंपनियों ने भी किया है। भारतीय बैंकों में जो लोन घोटाला हुआ है, उसकी भी पड़ताल की जाए तो यह पता लगाया जा सकता है कि हर भारी-भरकम लोन लेने वाले समूहों ने विदेशों में अपना अच्छा-बड़ा आसियाना बना रखा है, जिसका उनके उद्योगों से कोई खास लेना-देना नहीं है। सरकार करे तो क्या करे। अदालत का पचड़ा है वह सुलझता ही नहीं। एक छोटा मामला वर्षों झूलता रहता है। दूसरी ओर विकास ना होने से बेरोजगारी तेजी से बढ़ रही है।
जो डलहौजी न कर पाया वह ये हुक्काम कर देंगे
कमीशन दो तो हिंदुस्तान नीलाम कर देंगे
 लेबर ब्यूरो के जारी ताजा आंकड़ों से पता चलता है कि 2015 की जुलाई-सितंबर तिमाही के दौरान देश भर में महज 1.34 लाख लोगों को नई नौकरियां मिली। 2009 के बाद किसी एक तिमाही का यह सबसे कमजोर प्रदर्शन है। इससे भी बुरी बात यह है कि पिछले साल के पहले नौ महीनो में ‘लेबर इंटेंसिव इंडस्ट्री’ (वे उद्योग जहां ज्यादा मजदूरों की जरूरत होती है) ने गत छह साल का सबसे कमजोर प्रदर्शन किया। उक्त अवधि में महज 1.55 लाख नई नौकरियां आईं, जबकि 2013 और 2014 में इसी समय के दौरान तीन-तीन लाख लोगों को रोजगार मिला था। अप्रैल 2015 से जनवरी 2016 के बीच औद्योगिक उत्पादन सूचकांक केवल 2.7 प्रतिशत बढ़ा, जबकि सर्विस सेक्टर में 9.2 प्रतिशत की गति से इजाफा हुआ। आईआईपी में कोयला, तेल, गैस, इस्पात जैसे आठ प्रमुख क्षेत्रों का योगदान 38 प्रतिशत है और इस दौरान उनकी विकास दर महज दो प्रतिशत दर्ज की गई। मंदी के दौर में तो पुरानी नौकरियों पर भी छंटनी का हथौड़ा चलता है। नौकरियों पर लगे ग्रहण का दूसरा बड़ा कारण देश में लगातार दो साल से पड़ रहा सूखा है।
ये बंदेमातरम का गीत गाते हैं सुबह उठकर
मगर बाजार में चीजों का दाम दुगना कर देंगे
डिपार्टमेंट ऑफ इंडस्ट्रियल पालिसी एंड प्रोमोशन द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2014 में मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में एफडीआई में 19 प्रतिशत की गिरावट आयी थी, जबकि 2015 में छह फीसद की वृद्धि दर्ज की गई। वर्ष 2015 में इन्फ्रास्ट्रक्चर में तो एक साल पहले की अपेक्षा कमी ही दर्ज हुई है। मोदी सरकार के प्रथम बीस माह के दौरान एफडीआई की रकम 85 अरब डालर रही, जो मनमोहन सिंह के शासन से 26 अरब डालर अधिक है। अच्छी बात यह है कि विदेश जाने वाली पूंजी में 37 फीसदी गिरावट दर्ज हुई है। आज शिक्षित बेरोजगारों के अलावा बड़ी संख्या में किसान-मजदूर भी खेती छोड़कर अन्य क्षेत्रों में काम खोज रहे हैं। मैन्युफैक्चरिंग में खेतिहर मजदूरों को खपाया जा सकता है। आज जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग की हिस्सेदारी महज 15 प्रतिशत है। 25 बरस पहले भी अर्थव्यवस्था में मैन्युफैक्चरिंग का योगदान इतना ही था। भले ही भारत की गिनती दुनिया की सबसे तेज अर्थव्यस्थाओं में की जाती है, किन्तु हमारे यहां विकास दर में प्रति अंक वृद्धि पर सबसे कम नौकरियां मिलती हैं। खेती चौपट हो गयी, नौकरियां मिल नहीं रहीं हैं , बड़े लोग बैंक से कर्ज लोकर पैसा विदेश ले जा रहे हैं लिहाजा बैंक छोटे लोगों को धन देने में ना नुकुर कर रहे हैं। यही नहीं महंगाई रोजाना बढ़ रही है और उसी तेजी से सरकार के वायदे झूठे साबित हो रहे हैं।
रोटी कितनी महंगी है ये वो औरत बतायेगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये कीमत चुकाई है
अमीर जो इस 130 करोड़ की आबादी में मुट्ठी भर भी नहीं हैं वे तेजी से अमीर हो रहे हैं और गरीब उससे भी ज्यादा तेजी से गरीबी होते जा रहे हैं। किसानों और गरीब तबके में खुदकुशी की घटनाएं बढ़ रहीं हैं।
जो बदल सकती है इस पुलिया के मौसम का मिजाज
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये 

Tuesday, April 26, 2016

‘इंडिया दैट इज कॉल्ड भारत’

हमारे इस देश में यानी ‘इंडिया दैट इज कॉल्ड भारत’ में दरअसल दो देश हैं।  एक तो वह जो आई पी एल के चौके छक्के पर सीटियां बजाता है या सोने चांदी की दुकानों में घूमता है, वह दरअसल इंडिया है। …और एक दूसरा और देश है जिसे हम सकुचाते हुये भारत कहते हैं। क्रिकेट की जो टीम खेलती है वह टीम इंडिया है और सूख्गे से आत्म हत्या करने वाला एक किसान भारतीय है। उनकी ख    बर अखबार टीवी में नहीं आती क्योंकि किसानाहे की किसानो की खुदकुशी भी कोई खबर है। उसमें तो इतना भी साहस नही​ है जो बकौल इकबाल

जिस खेत से दहकां को रोजी ना हो मयस्सर  

उस खेत के हर खोसा ए गंदुम को जला डालो

दिक्कत तो यह है कि इंडिया के लोग भारत को नहीं जानते। इसे देखना तो दूर उन्होंने इसे महसूस तक नहीं कियाह है। सरकार इस भारत के लिये योजनाएं बनाती है। इस साल का बजट भी इसी भारत के विकास के लिये तैयार किया गया। पर हुआ क्या? इसके पहले भी सरकारें योजनाएं बनातीं रहीं है। कई कार्यक्रम बने और चलाये गये पर हुआ क्या?

तुम्हारी फाइलों में गांवों का मौसम गुलाबी है

पर ये आंकड़े झूठे और दावे किताबी हैं

सचमुच ये आंकड़े झूठे हैं। आप भारत का दौरा करें, जी हां इंडिया का दौरा नहीं भारत का दौरा करें। यहां एक सरकारी योजना या कहें चंद प्रमुख सरकारी योजनाओं को देखें। पहली योजना है मुफ्त शिक्षा की। बेशक यह बेहतरीन है। इससे किसी को इंकार नहीं है। पर सच क्या है? कोई भी गरीब आदमी वहां अपने बच्चों को क्यों नहीं भेजता? उससे पूछें तो जवाब मिलेगा सरकारी स्कूलों में जवाबदेही का अभाव है। पाठ्यक्रम तो ठीक है पर उसे पूरा करना या उसे बच्चों को पूरी तर वाकिफ कराने की जिम्मेदारी किसी पर नहीं है, किसी को उसके प्रति जवाब देह नहीं बनाया जा सकता है। बच्चों के मां बाप से पूछें तो वे बतायेंगे कि बच्चे अगर पढ़ने जायेंगे तो खर्च कहां से आयेगा। कभी सरकार ने देश की उस आबादी में इसकी जरूरत पैदा की है जैसे नोकिया या सैमसंग ने मोबाइल फोन की जरूरत पैदा की है। कभी सोचा है आपने कि ये मोबाइल फोन हर जेब तक कैसे पहुंच गये? शहर के किसी भी स्लम में जाइये, वहां बच्चे काम करते दिखेंगे, बच्चे बारूद और बन बनाने वालों के चंगुल में दिखेंगे, बच्चे जघन्य अपराध करते मिल जायेंगे पर पढ़ते हुये नहीं मिलेंगे। गरीबतम घर में टीवी है उसमें 100 रुपये महीने का डी टी एच कनेक्शन है पर 80 रुपये माहवार फीस देकर स्कूल भेजने के लिये मां बाप तैयार नहीं हैं। कारण क्या है? कारण है कि सरकार ने लोगों में मुफ्त मनोरंजन की आदत नहीं डाली है पर मुफ्त शिक्षा की आदत डाल दी है। यह ‘भारत को अनपढ़ बनाये रखने की साजिश है।’ दरअसल लोकतांत्रिक सरकार हमारे देश में एक नवीन अवधारणा है। हम अरसे से या कहें प्राचीन काल से एक सामुदायिक जीवन जीने के आदी रहे हैं। हमने दुख सुख , हंसी खुशी बांटना सीखा है। सरकार बनी तो यह कहा गया कि वह जनता की हिफाजत करेगी और झगड़े मिटायेगी। पर जैसे जैसे उसकी ताकत बढ़ती गयी हमारी आजादी तथा स्वनिर्भरता घटती गयी। जब सब कुछ उसे हाथ में आ गया तो वह लोक कल्याण की जगह वोट पाने और सत्ता में जगह पाने के बारे में सोचने लगी। बकौल केदार नाथ सिंह

तुम कभी देखना इसे सुलगते क्षण में

यह अलग अलग दिखता है हर दर्पण में

पिछले कुछ वर्षों से गरीबी के प्रति जागरुकता बढ़ी है और सभी देश गरीबी मिटाने के लिये कुछ ना कुछ करने लगे हैं। हमारंे देश में भी ऐसी हवा चली है। सरकार तथा एन जी   ओ ने कदम उठाया है। पर हुआ क्या? हम ये नहीं कहेंगे कि इनमें सबका इरादा गलत थ या है। लेकिन अगर आप कोई काम खास कर समाज सेवा का काम करते हैं तो उसके दूरगामी नतीजों पर भी सोचना होगा। समाज और उसकी मनोदशा पर भही सोचना होगा वरना सब नाकाम हो जायेगा। ‘भारत ’ का हर आदमी पहले कमाना चाहता है। चाहे वह छोटी दुकान हो या ई रिक्शा हो टैक्सी चालन। हर आदमी ये महसूस करता है कि जब में दो पैसे हों तो वह अपने परिवार को ठीक से चला पायेगा और उसके बच्चे गुंडों तथा अपराधियों से महफूज रहेंगे। देश में गरीबी तभी दूर हो सकती है जब विकास में गरीबों का सक्रिय योगदान हो। सरकार को ऐसी योजनाएं बनानी चाहिये जिससे गरीबों में आर्थिक सक्रियता बढ़े ना कि बड़े बड़े उद्यम लगा कर इंडिया वालों को और अमीर बनाते जाएं। गरीब लाचार आहैर बेरोजगार केवल भाषण सुनता रहे नेताओं के।

साथियों, रात आयी अब मैं जाता हूं

जब आंख लगे तो सुनना धीरे धीरे

किस तरह रात भर बजती हैं जंजीरें।

अग्हर सरकार योजनाएं नहीं बनाती जिससे गरीबों को आर्थिक विकास में सक्रिय भागीदारी का मौका ना मिले तो सारी की सारी योजनाएं और अच्छे इरादे नरक पंथ की​ ओर बढ़ते दिखेंगे। योजनाओं की जो हरियाली दिखायी जा रही है वह सब एक झांसा है।

वह क्या है हरा हरा सा ​जिसके आगे

उलझ गये हैं जीने के सारे धागे

ये शहर जिसमें रहतीं हैं इच्छाएं

कुत्ते, भुनगे आदमी ,गिलहरी ,गाएं।