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Friday, January 31, 2020

आज केंद्रीय बजट

आज केंद्रीय बजट 

नागरिकता के कानूनों और अर्थव्यवस्था की सुस्ती के बीच आज हमारा केंद्रीय बजट पेश होगा। जब देश का पहला बजट पेश हुआ था तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने  कहा था कि बजट देश के विकास का दर्शन है। यह केवल लेखा-जोखा नहीं बल्कि वित्तीय क्षेत्र के नियमों और सुधारों की  टैक्स पॉलिसीज से जुड़े सुधार और पूंजी प्रवाह के संदर्भ में भारत के खुलेपन का इजहार भी है।
      आज जो बजट पेश होने वाला है उसकी सबसे बड़ी मुश्किल है कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के पास बहुत सीमित विकल्प हैं। वित्त मंत्री को अर्थव्यवस्था की हालत की चिंता करनी है और मुद्रास्फीति के विकास ,निवेश, रोजगार ,भुगतान संतुलन इत्यादि संकट का भी सामना करना है। इसके अलावा वित्त मंत्री को सार्वजनिक कर्ज के बोझ को अव्यावहारिक स्तर पर ले जाए बिना मांग बढ़ाने की मुश्किल को खत्म करने वाले राजकोषीय घाटा पहले से ही बढ़ा हुआ है। यदि विकास दर सरकार द्वारा लिए गए कर्ज  से नीचे चली जाती है तो सार्वजनिक खर्च की मात्रा ऐसी हो जाएगी जिसे ढूंढना मुश्किल है। वर्तमान में जीडीपी विकास दर 7.5% रहने की संभावना है। 10 वर्षीय बांड पर 6.6 प्रतिशत रिटर्न मिल सकता है इसलिए अभी  इतना है कि  उसे ढोया जा सकता है
        इन दिनों बजट से जुड़े बहस का एक मुख्य मसला है बजट का स्वरूप कैसा होना चाहिए। उसे विस्तार वादी होना चाहिए अथवा नहीं। अधिकांश लोग यह कहते पाए गए हैं कि सकल घरेलू उत्पाद के विकास में गिरावट हुई है और मौद्रिक नीति की अपनी सीमाएं हैं । पर उन्हें चिंता इस बात की है कि अधिक   सार्वजनिक कर्ज ऐसा हो जाएगा जिसका वहन करना मुश्किल है । इसके बाद कर्ज के मुकाबले जीडीपी का अनुपात विस्फोटक स्तर तक पहुंच सकता है। यह चिंता अथवा यह कथन बहुत अनुचित नहीं है। अगर राजकोषीय घाटा बढ़ता है तो ब्याज दरों के बढ़ने का खतरा हो जाता है। यदि ब्याज दर जीडीपी विकास की दर से  ऊपर जाता है तो सार्वजनिक कर्ज की स्थिति को दर्शाने वाला जीडीपी तथा सार्वजनिक खर्च के अनुपात का समीकरण  असंतुलित हो जाता है और बढ़ने लगता है।
          अब ऐसी स्थिति में केवल मांग को बढ़ाना ही एकमात्र विकल्प दिखता है। इसके लिए मौद्रिक नीतियां एकमात्र औजार हैं । बजट निर्माताओं के हाथ में। लेकिन वर्तमान स्थिति में यह कोई सरल नहीं है । हालांकि, अर्थशास्त्र का मानना है कि खाद्य पदार्थों और उसे भी खासकर सब्जियों की महंगाई के Fकारण बड़ी बनी जय मुद्रास्फीति स्थाई नहीं है लंबीअवधि के नहीं है बल्कि अल्पकालिक है। परंतु रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति   में ढिलाई बरतने के लिए साथ ही अधिक विस्तारवाद पर कोई चर्चा करने से पहले हमें मौद्रिक नीति का प्रभावी संचरण सुनिश्चित करने के उपाय करने होंगे । बैंकिंग और बॉन्ड मार्केट में सुधारों समेत इन सुधारों पर काफी समय से विचार किया जा रहा है लेकिन इस दिशा में कदम बढ़ाने के पहले वित्त मंत्री को इस कानून बदलने होंगे।
           जीडीपी विकास में धीमा पन ,कर संग्रह में कमी, विनिवेश में कमी और जीएसटी की समस्याओं के कारण राजकोषीय पहल कदमी के विकल्प बहुत कम हैं।  अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक निवेश पर सरकारी खर्च बढ़ाना उचित रहेगा लेकिन सीतारमण को ऐसा करने के लिए कुछ नए तरीके ढूंढने होंगे। ताकि राजकोषीय घाटे बहुत बढ़ ना  जाएं। इसके साथ ही बाजार का भरोसा फिर से हासिल करने के लिए उन्हें सरकारी घाटे और कर्ज को लेकर पारदर्शी होना होगा । अकाउंटेंट जनरल महालेखा परीक्षक के अनुसार पिछले वर्ष राजकोषीय उत्तरदायित्व तथा बजट प्रबंधन अधिनियम के  निर्धारित लक्ष्य से अधिक था, संभवत जीडीपी के 2 प्रतिशत अंक अधिक था। वैसे तो राजकोषीय विस्तार अर्थव्यवस्था में सुस्ती के द्वारा नहीं किया जाना चाहिए पर उन आंकड़ों के आधार पर चर्चा बेकार है जिन पर लोग यकीन ही नहीं  करते। इसलिए वित्त मंत्री के सामने पहली चुनौती है कि  बजट में  इन अंको को कम करना और लोगों को यकीन दिलाना कि उन्होंने राजकोषीय अनुशासन अपनाने के लिए यह सब किया है । क्योंकि वह इसके लिए प्रतिबद्ध हैं। अब सवाल उठता है कि क्या वित्त मंत्री राजकोषीय घाटे में बहुत ज्यादा विस्तार किए बिना मांग बढ़ाने के लिए कदम उठा सकते हैं । यह सबसे चुनौतीपूर्ण कार्य है। लेकिन, टैक्स और नियामक प्रक्रियाओं को आसान बना कर पहला कदम उठाया जा सकता है। जिससे कि निजी निवेश हतोत्साहित हुआ है निवेशकों में उत्साह को कम करने वाले टैक्स अधिकारियों की बढ़ी हुई ताकत में से कुछ पर पुनर्विचार किया जा सकता है । यह महत्वपूर्ण है कि टैक्स दरों में किसी तरह की वृद्धि का प्रस्ताव नहीं किया जाए। क्योंकि, इससे अनिश्चितता बढ़ती है। टैक्स आधार कम होता है। विकास दर नीचे जाता है। टैक्स की दरों को बढ़ाकर और टैक्स अधिकारियों को अधिक ताकत देकर राजस्व बढ़ाने की रणनीतियां सफल हो जाती हैं। इसके विपरीत की रणनीति से निवेशकों के विश्वास को आघात लगता है और जीडीपी घटती है। वास्तव में यह कम टैक्स दर और टैक्स अधिकारियों के अधिकारों में कटौती की वैकल्पिक रणनीति अपनाने का वक्त है।


Thursday, January 30, 2020

हम यातना गृह में रहने के लिए बाध्य होने वाले हैं

हम यातना गृह में रहने के लिए बाध्य होने वाले हैं 

एक नए अध्ययन से पता चला है कि हवा में तैरते पार्टिकुलेट मैटर (बारीक कण) के कारण बढ़ते हुए प्रदूषण से भारत में औसतन 3.2 वर्ष उम्र कम हो गयी  है। अध्ययन में बताया गया है की दिल्ली समेत कई शहरों में आम भारतीयों की उम्र घट रही और लगभग 66 करोड़ भारतीय यानी भारत की पूरी आबादी का आधा हिस्सा इससे प्रभावित है। हाल के अखबारों में तो यह भी लिखा गया था कि कोलकाता वासियों की उम्र 3.5 वर्ष तक घट गई है। अगर इनका हिसाब निकाला जाए तो हमारे देश में 2.1 अरब जीवन वर्ष कम हो गए। जिन लोगों की या बड़े शहरों में जिन इलाकों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है वहां प्रदूषण और ज्यादा है।  वहां उम्र और ज्यादा घट रही है। शिकागो विश्वविद्यालय के अध्ययन के मुताबिक भारत में वायु प्रदूषण की समस्या अमीरों द्वारा पैदा की गई है और सरकार इन पर कठोर कार्रवाई नहीं कर सकती। क्योंकि इससे कारोबार प्रभावित होंगे और मध्यवर्गीय लोगों के लिए दिक्कतें पैदा होने लगेंगी।  लेकिन जरा सोचिए अगर प्रदूषण कम होगा तो काम करने वाले लोग कम बीमार पड़ेंगे और इससे उनकी कार्य क्षमता बढ़ेगी। हवा में तैरते 2.5 माइक्रोन के पार्टिकुलेट मैटर फेफड़े में प्रवेश कर जाते हैं और फेफड़े की विभिन्न बीमारियों तथा सांस की दिक्कतें पैदा करते हैं। ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज की एक रिपोर्ट के मुताबिक सर्दियों के समय कोलकाता में हर तीन में से एक बच्चा प्रदूषण के कारण बीमार पड़ता है और उसके इलाज पर खर्च होता है। अध्ययन में बताया गया है की 54.5% भारतीय बारीक पार्टिकुलेट मैटर (पीएम 2.5) के आगोश में रहते हैं। इस अध्ययन से पता चलता है की प्रदूषण केवल शहरों की समस्या नहीं है ग्रामीण इलाकों में भी इसका प्रकोप है और उसका कारण है गांव में उपयोग की जाने वाली जलावन तथा जैव इंधन। शहरी इलाकों में प्रदूषण का मुख्य कारण है परिवहन तथा उद्योग धंधे।
        शिकागो विश्वविद्यालय द्वारा हाल में जारी किए गए एक अध्ययन "एयर क्वालिटी इंडेक्स" के मुताबिक 1998 से 2016 के बीच भारतीय क्षेत्र में प्रदूषण 72% बढ़ गया है और इससे आगे भारतीयों का जीवन प्रभावित हो रहा है। भारत में गंगा के मैदानी इलाके में सबसे ज्यादा प्रदूषण है। इसमें बिहार ,चंडीगढ़, दिल्ली ,हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल आते हैं। विश्लेषकों का मत है कि 1998 में जो लोग भारत के गंगा के मैदानी इलाके से बाहर रहते थे उनके जीवन में 1.2 साल कम हो गए थे 2016 में यह बढ़कर 2.6 वर्ष हो गए। अगर भारत प्रदूषण को नियंत्रित करने में कामयाब होता है और प्रदूषण  कम से कम एक चौथाई कम हो जाता है तो भारतीयों की औसत उम्र 1.3 साल बढ़ जाएगी। जो लोग गंगा के मैदानी इलाके में रहते हैं उनकी उम्र मोटे तौर पर 2 वर्ष बढ़ जाएगी।
        अध्ययन में दिखाया गया है कि प्रदूषण मानव समाज के लिए चुनौती बन गया है खास करके हमारे देश भारत में। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक आज मनुष्य ऐसे हालात में ऐसे वायुमंडल में रहने के लिए विवश है, जहां वायु की गुणवत्ता बहुत ही खराब है, कम से कम मानकों के नीचे है। भारत में स्थिति यह है कि 2016 में हमारे देश में लगभग एक लाख 10 हजार बच्चे प्रदूषण के कारण मौत की गोद में सो गए।  इससे भी अधिक विचारणीय है कि विषय है कि अब से कुछ साल पहले तक बीजिंग दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर था लेकिन अब वह नहीं है। अब भारत के एक नहीं 14 शहरों ने उसकी जगह ले  ली है जिसमें सर्दियों में दिल्ली और कोलकाता की हालत सबसे ज्यादा खराब हो जाती है। प्रदूषित शहरों के मामले में सर्दियों में जिस दिल्ली की सबसे ज्यादा चर्चा होती है वह छठे नंबर पर है ,एक नंबर पर कानपुर और उसके बाद क्रमशः फरीदाबाद वाराणसी गया पटना ,दिल्ली और लखनऊ है। यह सूची हमें चिंतित करती है। वहीं, दूसरी तरफ एक उम्मीद की किरण दिखाई देती है। अगर चीन इस पर नियंत्रण पा सकता था और पा सकता है तो हम क्यों नहीं। हमें देश हित में ठोस कदम उठाने चाहिए और इसके लिए केवल सरकार ही जिम्मेदार नहीं है। कई बार आम आदमी भी इस समस्या को बढ़ाने में योगदान करता है हम केवल समस्या को मानकर और सरकार पर दोष लगा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। हमने कभी नहीं सोचा कि हमें भी इसका ख्याल रखना चाहिए आखिर वाहन व्यक्तिगत रूप से इस्तेमाल  किए जाते हैं तो क्यों नहीं हम उससे होने वाले प्रदूषण को रोकें। क्यों चौराहे पर खड़ा सिपाही जब आपकी गाड़ी की पॉल्युशन रिपोर्ट मांगता है तो हम उसे मुट्ठी में कुछ पैसे देते हैं? बेशक इससे तात्कालिक लाभ तो होता है । हमें तात्कालिक उपायों के साथ- साथ दीर्घकालिक उपायों पर भी जोर देना होगा। लेकिन गांव में समस्या तो  है वहां लोगों को जागरूक बनाना होगा। अगर हम प्रदूषण को नहीं रोक सके तो हमारे देश खासकर हमारे शहर गैस चैंबर में बदल जाएंगे और हम उस गैस चेंबर में रहने के लिए मजबूर हो जाएंगे। पूरा शहर धीरे धीरे गैस चेंबर से भरे यातना गृह  में बदलता जा रहा है। हमें उस यातना गृह में रहने के लिए बाध्य होना पड़ेगा।


Wednesday, January 29, 2020

जरा गांधी को याद करें

जरा गांधी को याद करें 

इन दिनों नागरिकता को लेकर कई आंदोलन चल रहे हैं। उसमें छात्रों की भूमिका स्पष्ट दिखाई पड़ रही है। मंगलवार को कोलकाता विश्वविद्यालय में  राज्यपाल को नहीं प्रवेश करने दिया गया। उनका कार्यक्रम रोक दिया गया। यही हालत दिल्ली, बनारस, अलीगढ़ में भी सुनने को मिलती है। छात्रों के आंदोलन से हालात असंतुलित हो रहे हैं विभिन्न आंदोलनों में  छात्रों को  जोड़ना  और सरकार के खिलाफ उनके  उपयोग की घटनाएं कोई नई नहीं है। लगभग आधी सदी पहले 1970 में  गुजरात में  नवनिर्माण आंदोलन हुआ था। आज के प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी  उस समय  छात्र के तौर पर उस आंदोलन में शामिल हुए थे।  इसके बाद  1974 में  जयप्रकाश नारायण का आंदोलन हुआ।  जिसमें छात्र शक्ति ने  जमकर भाग लिया अब सीएए के विरोध में बात उठ गई ।  शुरू के दिनों को छोड़ दें तो यह आंदोलन लगभग शांतिपूर्ण है। लेकिन खतरे दिखाई पड़ रहे हैं कि इसे यानी इस आंदोलन को गैरकानूनी बना दिया जाए। इसके बरक्स गांधी शहीद दिवस के अवसर पर यह याद करना जरूरी है कि गांधी बेशक राष्ट्रपिता नहीं रहे हों या कहें इन दिनों उनको ऐसा मानने से इनकार किया जा रहा है , लेकिन गांधी कायम हैं। यकीनन, अहिंसक नागरिक आंदोलन के अगुआ तो वह  रहे ही हैं। आज जो लोग सीएए- एनआरसी का विरोध कर रहे हैं उन पर जिहादी ,राष्ट्र विरोधी, पाकिस्तान समर्थक इत्यादि का ठप्पा लग रहा है। शाहीन बाग से पार्क सर्कस तक के प्रदर्शनकारियों पर आरोप है कि उन्होंने यातायात को बाधा पहुंचाई और लोगों को आवागमन दिक्कतों से मुकाबिल होना पड़ा। यहां प्रदर्शनकारी राजनीतिज्ञों की आर्थिक मदद से मैदान में डटे हैं।
   अब से कुछ हफ्ते पहले तक जो लोग गांधी जी की बात करते थे और और बीते  2 अक्टूबर को गांधी जन्मदिन मना चुके थे वे अब गांधी के आलोचक बने हुए हैं ।  जितने भी लोग आलोचक हैं उनमें से कोई भी  पीछे लौटकर गांधी के काल में पहुंचकर उस समय की सामाजिक,  आर्थिक और राजनीतिक स्थिति का विश्लेषण नहीं करते। सब आज के दिन के आईने में गांधी को देखना चाहते हैं। लेकिन, यह तो सच है कि गांधी हमारे अवचेतन में कहीं न कहीं मौजूद हैं और वहां से वह लगातार दस्तक देते रहते हैं। नोबेल पुरस्कार विजेता लेखक के विचारक  गुंटर ग्रास के अनुसार "गांधी एक ऐसे व्यक्ति थे , बेशक दुनिया उनके अस्तित्व को खारिज कर दे   लेकिन उन्हें चिंतन से या दर्शन से बाहर नहीं निकाला जा सकता । " बेशक कुछ वर्षों से गांधी को खारिज करने का अभियान चला हुआ है। कभी उनके विरोध में हमसे अलग कर दूसरे बिंबों के साथ जोड़ दिया जाता है, मनोवैज्ञानिक तौर पर यह बिंब जुड़ी हुई यादों को संजो कर आते हैं और हम उन्हीं बिंबों के माध्यम से उस व्यक्ति को पहचानते हैं, जिससे वह जुड़ा हुआ है। आहिस्ता- आहिस्ता बिंबों को या तो नजरअंदाज किया जा रहा है अथवा खारिज। एक जमाने में बच्चों को "ग" से गणेश पढ़ाया जाता था और वह बच्चा गणेश के चित्र को देखते ही "ग" को याद कर लेता था। आहिस्ता - आहिस्ता सेकुलरवादियों ने " ग से गमला पढ़ाना शुरू किया और अब बच्चे ग से गमला पढ़ते हैं लेकिन गणेश के 'ग' को भूलना मुश्किल है। गणेश का अस्तित्व आज भी है। उसी तरह आप चाहे बिंबों को कितना भी खारिज कर दें जो बिम्ब दर्शन में समा गए, विचारों में समा गए उन्हें खारिज नहीं कर सकते।
    यही कारण है अब उनको छोड़ उनके व्यक्तित्व को एक दूसरे नजरिए से देखा जा रहा है। लेकिन यहां भी गांधी हैं। अब जरा मॉब लिंचिंग के दौर को देखें । 13 जनवरी 1897 की डरबन की घटना बहुतों की याद होगी। जब लगभग 600 मजबूत फौजियों के साथ अंग्रेजों ने गांधी पर हमला कर दिया। जमकर पीटा गया उन्होंने बड़ी मुश्किल से रुस्तम जी फारसी के घर में शरण ली। अंग्रेजों ने भीड़ को पुलिस की वर्दी पहना कर घर पर हमला करवा दिया। किसी तरह गांधी बच गए। 22 वर्षों के बाद 10 अप्रैल 1919 भारत में यह बात पता चली और गांधी को गिरफ्तार कर लिया गया। जब गिरफ्तारी हो रही थी अहमदाबाद शहर में दंगा भड़क गया और कई अंग्रेज घायल हुए। अगर इस घटना का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें तो निष्कर्ष निकलेगा की हिंसा का संबंध किसी जाति विशेष से नहीं होता। 8 सितंबर 1920 को गांधी ने यंग इंडिया में दिखाता लोकशाही बनाम भीड़शाही आज भारत में लगभग यही स्थिति है । हालात अभी भी नहीं बदले। भीड़ को प्रशिक्षित करना सबसे सरल काम है। क्योंकि ,कभी भीड़ विचारशील नहीं होती और वह आवेश के अतिरेक में कुछ भी कर बैठती है
        आज हमारी सबसे बड़ी दिक्कत है कि समाज में सामाजिक और राजनीतिक संवाद की प्रक्रिया धीमी हो गई है। राजनीतिक वर्ग चाहे वह सत्तारूढ़ हो अथवा विपक्ष  संवाद से अलग रहना चाहता है या तो उसके  संवाद योग्य कुछ है ही नहीं। यही कारण है  कि राजनीतिज्ञ अपनी बात मनवाने के लिए भीड़ का उपयोग करने लगे हैं। आज हम एक विचित्र असंवाद की स्थिति में रह रहे हैं। हमारे नेता चाहे वह सत्तारूढ़ दल के हों या विपक्ष के समझ नहीं पा रहे हैं की भीड़ को नियंत्रित करना केवल पुलिस का काम नहीं है। ऐसी स्थिति उत्पन्न ना होने देना समाजिक और राजनीतिक प्रबंधन का एक सामाजिक उपक्रम है और हम सब उस उपक्रम के पुर्जे हैं। कभी भीड़ की हिंसा की घटनाओं का अगर मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें तो प्राप्त होगा कि उसने शामिल लगभग हर आदमी किसी न किसी मानसिक सामाजिक, आर्थिक या पारिवारिक समस्या से ग्रस्त है और उसकी यह प्रवृत्ति  एक दिन में नहीं बनी है उसका विकास एक लंबी अवधि में हुआ है जिसमें हमारे मौजूदा राजनीतिक आर्थिक और सामाजिक वातावरण के साथ साथ कई और कारक शामिल हैं।  बोध से ग्रसित लोगों की जमात अपनी तमाम समस्याओं के लिए इसी अन्य को जिम्मेदार मानने की प्रवृत्ति से ग्रस्त है। वह भी अपनी भड़ास निकालने के लिए किसी एक तात्कालिक बहाने की खोज में रहती है। भीड़ को मालूम है कि उसका कोई अपना चेहरा नहीं है और किसी कायरता पूर्ण हिंसा को छिपाने के लिए इससे बेहतर कोई मौका नहीं है।
हिंदू महासभा द्वारा प्रकाशित स्वातंत्र्यवीर सावरकर खंड 6 इस 296 में लिखा गया है कि 1937 में हिंदू महासभा के खुले अधिवेशन में वीर सावरकर ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था कि  भारत को अब एक  समशील राष्ट्र नहीं कहा जा सकता । यहां दो राष्ट्र है हिंदू और मुसलमान । कहने का अर्थ है गांधी दोषी नहीं थे बंटवारे के।उन्हें इंकार करने की कोशिशें हो रही है

आज मानव समाज के तौर पर हम मनुष्यों में क्रोध बढ़ रहा है हालांकि इसके आंकड़े अभी उपलब्ध नहीं हैं लेकिन दार्शनिकों ने पाया है कि हिंसा चाहे भीड़ की या किसी चरमपंथी संगठन या फिर सेना की हो कहीं न कहीं एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक समस्या भी है।  इसके  निदान के लिए हमें गांधी और टैगोर जैसे लोगों को सुनने और पढ़ने और समझने की जरूरत है।


Tuesday, January 28, 2020

जरा अपने बच्चों के बारे में भी सोचें

जरा अपने बच्चों के बारे में भी सोचें 

भारत में सीएए और एनआरसी को लेकर प्रचंड बवाल है। पूरा भारत अशांत है। ऐसे में एक सवाल है कि जिस देश में इस तरह के मामूली हालात पर इतना उपद्रव हो सकता है बसें जलाई जा सकती हैं ,धरने दिए जा सकते हैं वहां कोई कैसे निवेश करेगा? लोग सरकार को दोषी बता रहे हैं कि निवेश नहीं हो रहा है। अर्थव्यवस्था बिगड़ती जा रही है। बेरोजगारी बढ़ रही है। जरा गौर करें की आखिर ऐसे मुल्क में कोई क्यों पूंजी लगाएगा जहां पूंजी की हिफाजत ना हो? जहां बात बात में बर्बादी हो जाए ,जहां किसी भी मामूली बात पर बंद- धरने - हड़ताल इत्यादि हो जाएं। जो लोग इस तरह के काम में शामिल हैं या जो इसका समर्थन कर रहे हैं वह जरा सोचें तो कि क्या भविष्य का भारत कटोरा थमा हुआ भारत होगा? लेकिन, उनकी कोशिश तो इसी दिशा में ले जाने की है। सरकार क्या कर सकती है। सरकार सिर्फ व्यवस्था बना सकती हैं लेकिन उस व्यवस्था को मानने और उस व्यवस्था के अनुरूप चलने में जनता की सबसे बड़ी भूमिका होती है।
      अब देखिए नागरिकता संशोधन कानून को लेकर सारे देश में विरोध चल रहा है। शाहीन बाग से कोलकाता के पार्क सर्कस तक किसने यह करंट लगाया है। इससे जहां अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंच रहा है वहीं डर का भी एक माहौल पैदा ले रहा है। कभी किसी ने सोचा है 2 मिनट शांत बैठ कर कि इस डर के माहौल का असर क्या होगा? शायद नहीं। अगर सोचा होता तो यह स्थिति पैदा ही नहीं लेती।
      कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि सरकार ही अर्थव्यवस्था में सुधार करने में नाकामयाब  रही और इस नाकामयाबी के कारण व्यवसायिक समाज में डर पैदा हो गया।  उससे नुकसान होने लगा। लेकिन यह तो रातोंरात  नहीं हुआ। सरकार ने सुधारने की कोशिश की या नहीं की इस प्रश्न पर विचार करने से पहले यह सोचना जरूरी है कि क्या यह समस्याएं पहले नहीं थीं? क्या कृषि क्षेत्र की समस्याएं पहले नहीं थीं? हां , सरकार के कुछ कदमों से कई समस्याओं का इजाफा हुआ है। जैसे, बैंक के एनपीए बढ़े हैं इसके लिए कुछ कदम तो उठाए गए हैं लेकिन भारतीय रिजर्व बैंक ने जिन उपायों को बताया है उसे पूरी तरह लागू नहीं किया जा सका। इसका भी एक कारण है। सरकार की जिम्मेदारी आर्थिक से ज्यादा सामाजिक है और जबकि रिजर्व बैंक का दृष्टिकोण सदा आर्थिक होता है। आर्थिक कदमों का सामाजिक प्रभाव की गणना किए बगैर सरकार अगर कदम उठाती है तो उसका असर उलटा भी पड़ सकता है। अब उदाहरण के लिए देखें, अपनी सीमित आय में किसी को कुछ पैसे बचाने हैं। जाहिर है उसे खर्च कम करने होंगे और बचाये जाने वाले खर्चों में खाने के खर्चे भी शामिल होंगे। खाने में उचित खुराक नहीं लेने से पोषण की समस्या बढ़ेगी  और उसके बाद बीमारियां बढ़ेंगी।  फिर, उपचार के लिए कर्ज लेने होंगे और इसका नतीजा होगा की भविष्य पर असर पड़ेगा। जब कुपोषण की समस्या बढ़ेगी और उसका विस्तार होगा तो सबसे ज्यादा आलोचना सरकार की होगी। क्योंकि सामाजिक खुशहाली की जिम्मेदारी सरकार की है। लेकिन रिजर्व बैंक के साथ यह संकट नहीं है। अब देखिए जो लोग कहते हैं कि बैंकों के एनपीए बढ़ेंगे अगर कंपनियां दिए हुए कर्ज़ों को लौटा नहीं सकेंगी तो उसका असर बैंक कर्मचारियों पर पड़ेगा। क्योंकि, कर्ज देने वाले बैंक  के खिलाफ रिजर्व बैंक और सीवीसी की जांच शुरू होगी और कहीं न कहीं दोष पाए जाने पर उस कर्मचारी की सेवाएं तक खत्म हो सकती हैं। बेकारी बढ़नी शुरू हो जाएगी। दूसरी तरफ, जिन लोगों ने कर्ज लिया है अब लौटा नहीं पा रहे हैं वह अपने कामकाज बंद करके दूसरे देश में जाकर बैठ जाते हैं और फिर उस काम में लगे लोगों के साथ समस्याएं उत्पन्न होने लगती हैं। कहां से पैसे आए? इसका एक बड़ा दिलचस्प उदाहरण है। सरकार पर दबाव पड़ रहा है कि वह टैक्स कम करे। सरकार टैक्स कम करती है तो खर्चों की आपूर्ति के लिए उसे बाहर से कर्ज लेना पड़ेगा और उस कर्ज को चुकाने के लिए फिर उसे सरकारी कंपनियों का विनिवेश करना होगा यानी  दोबारा संकट। पिछले साल के बजट पर गौर करें सरकार ने जो बजट प्रस्ताव दिए उन्हें थोड़े दिनों के बाद पूरी तरह बदल दिया गया। ऐसे में जिसके पास निवेश करने की क्षमता भी है वह यह सोचकर निवेश करने से झिझक रहा है । ऐसे में व्यापार और अर्थव्यवस्था की स्थिति ठीक नहीं है और सरकार ने जो कदम उठाया है उस समस्या का हल नहीं होता है। अब इन सभी समस्याओं का सामना करती अर्थव्यवस्था पर नागरिकता संशोधन कानून का असर क्या पड़ेगा। नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी का कहना है अधिनायकवाद और आर्थिक समृद्धि के बीच किसी तरह का रिश्ता नहीं है। लेकिन, सवाल है कि आखिर इस तरह का माहौल अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाता है या नहीं ।
        यह तो सर्वविदित है कि लंबे समय तक चलने वाले विरोध प्रदर्शन का उस देश और उस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। क्योंकि, इससे निवेश का माहौल खराब हो जाता है। भारत में अभी गनीमत है कि स्थिति इतनी नहीं बिगड़ी है लेकिन तब भी सामाजिक अशांति और हिंसा ग्रस्त माहौल का असर तो होता ही है। सीरिया, लेबनान, अल्जीरिया और अन्य अरब देशों की अर्थव्यवस्था को देखकर आसानी से इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। पाकिस्तान इसका एक उदाहरण है। वहां का जीडीपी लगातार घट रहा है। इसका कारण है कि विकास के मदों से धन की कटौती करके आंतरिक सुरक्षा और फौज पर ज्यादा खर्च करने पड़ते हैं को ज्यादा कर देना पड़ता है और कर्ज हर सरकार के वक्त तरक्की की राह में बाधक होता है। ऐसे में विदेशी तो क्या घरेलू निवेशक भी पूंजी नहीं लगाना चाहते।
     ऐसे में सबसे ज्यादा जरूरी है सरकार का प्रदर्शनकारियों से संवाद शुरू करना। लेकिन किससे किससे किया जाए। जैसी कि खबर मिल रही है इस प्रदर्शन की डोर कई गुप्त हाथ खींच रहे हैं और उन गुप्त हाथों की पड़ताल तथा उनकी कलाई पकड़ना संभव नहीं है।  जब तक इसका समाधान नहीं होता किसी का भला नहीं होगा। जो लोग इस प्रदर्शन में शामिल हैं वह यह नहीं समझ रहे कि हमारा भविष्य कैसा होगा और अपने बच्चों के लिए कौन सा भारत बना रहे हैं? जरा सोचिए।


Monday, January 27, 2020

सी ए ए उपद्रव के पीछे सीआईए का हाथ

सी ए ए उपद्रव के पीछे सीआईए का हाथ

कोलकाता: भारत को विश्व नेता के रूप में उभरते देखकर सीआईए ने इसे सबक सिखाने की ठानी और बड़ी चालाकी से उसने देश भर में सी ए ए  और उससे जुड़े  अन्य मामलों में  अपने  लोगों को भड़का कर अशांति फैला दी। हालांकि, इसका ठीकरा कई संगठनों के सिर पर  फूटा लेकिन  इन सारे उपद्रव के पीछे सीआईए  की भूमिका है। रॉ के एक उच्च पदस्थ सूत्र ने बताया कि भारत को असंगठित कर उसे संकट में डालने के लिए सीआईए ने यह सब किया है। भारत के बड़े शिक्षा संस्थानों में एक विशिष्ट विचारधारा के छात्र संगठन के मशहूर नेताओं को भारी रकम देकर पालने और  उनके माध्यम से  देश के नेताओं  की स्थिति  की पूरी रिपोर्ट हासिल करने में जुटी इस संस्था ने  बड़ी सफाई से भारत में उपद्रव करवा दिया। पहले छात्रों को भड़काया, छात्रों ने आंदोलन किए और उसके माध्यम से समाज के एक वर्ग को भड़का दिया। भारतीय विदेशी खुफिया विभाग रॉ की काउंटर इंटेलिजेंस विंग के बड़े अफसरों और कूटनीतिक हलकों के अनुसार देश की सभी बड़ी यूनिवर्सिटीज में सीआईए के गुर्गे  बैठे  हैं और जानबूझकर वहां से बाहर नहीं जाते हैं। क्योंकि उन्हें हर महीने मोटी रकम दी जाती है और इतना ही नहीं विदेश यात्राओं पर भी ले जाया जाता है। इनमें से कई छात्र नेताओं को सीआईएए से अपने संबंधों के बारे में जानकारी तक नहीं है। उनके तार किसी अन्य माध्यम से उनसे जुड़े हुए हैं। रॉ के अनुसार पिछले हफ़्तों में  जो फसाद  हुए उसमें सीआईए के एजेंटों की बहुत बड़ी भूमिका थी।
     कूटनीतिक सूत्रों के मुताबिक इस उपद्रव के लिए  लोगों के एक वर्ग को भड़काने  और उन्हें  हिंसा पर आमादा करने   के काम में  सीआईए ने बहुत बड़ी रकम खर्च की है। रॉ के काउंटर इंटेलिजेंस विंग के एक वरिष्ठ अनलिस्ट के मुताबिक   देश के  बड़े विश्वविद्यालयों में जो उपद्रव हुए उन का स्वरूप एक ही था और विरोध का रंग भी एक ही था। यही नहीं, अन्य स्थानों पर जो विरोध हुए उन विरोधियों में कश्मीर के पत्थरबाजों की गतिविधियों में भी समानता थी ऐसा लग रहा था कि उन्हें इसके पहले कहीं से कोई प्रशिक्षण मिला था। जैसे ही सरकार को यह खबर मिली उसने उपद्रवियों पर बल प्रयोग को रोक दिया और मामला धीरे-धीरे सीमित होता गया। लेकिन यह मसला अभी और भड़कने वाला है। भारतीय खुफिया सूत्रों के अनुसार 8 फरवरी के बाद इसकी  सुनगुन फिर शुरू होगी  और  यदि सरकार  बल प्रयोग करती है तो यह उपद्रव और बढ़ेंगे। लगभग 1500 हथियारबंद आतंकी बांग्लादेश सीमावर्ती क्षेत्रों में टुकड़े टुकड़े में फैले हुए हैं भारत में उपद्रव होते ही  वह प्रवेश कर जाएंगे। सबसे खतरनाक तथ्य तो यह है की इन सारी करतूतों में कुछ विशेष राजनीतिक संगठनों की महत्वपूर्ण भूमिका है लेकिन इसका दोष पूर्ववर्ती सिमी और उससे जुड़े संगठनों पर मढ़ा जा रहा है। सूत्रों के मुताबिक नेपाल और बांग्लादेश से हथियारों की कई बड़ी खेप भारत के विभिन्न शहरों में पहुंच चुकी है और इसका समय आने पर उपयोग किया जाएगा। यद्यपि हथियारों के भंडार पर खुफिया सूत्रों की नजर अभी तक नहीं है लेकिन लगभग उन क्षेत्रों को घेर लिया गया है जहां यह भड़क सकते हैं। हथियारों के भंडार की पड़ताल इसलिए नहीं हो पा रही है कि इसे टुकड़े-टुकड़े में कई जगहों पर पहुंचाया गया है इसमें कुछ भूमिका नक्सलियों की भी है। अभी 1 महीने पहले कोलकाता में एक वाणिज्य दूतावास में नक्सलियों के बड़े नेताओं और महावाणिज्य दूत के साथ लंबी बैठक भी हुई थी। उस बैठक में क्या चर्चा हुई यह तो पता नहीं चल पाया लेकिन अंदाजा लगाया जा रहा है कि नक्सलियों को धन तथा हथियार मुहैया कराने की तैयारी है। जहां तक  पता चला है नक्सली कथित रूप से देश को मध्य भाग से दक्षिण भाग तक एक कॉरीडोर के रूप में विभाजित करना चाहते हैं और अगर गौर करें तो दिल्ली से लेकर कर्नाटक तक उपद्रव का सबसे ज्यादा प्रभाव है। सरकार को यह खबर प्राप्त हो चुकी है तथा उन्हें कुचलने की तैयारी चल रही है। देश के विश्वविद्यालयों में खासकर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में इनकी मौजूदगी का स्पष्ट असर दिखाई पड़ रहा है। सरकार इसे शांतिपूर्वक मुकाबले के लिए तैयार है लेकिन कभी भी कुछ हो सकता है।


शांति हर सवाल का जवाब .

शांति हर सवाल का जवाब 

अभी दो दिन पहले गणतंत्र दिवस का समारोह पार हुआ है और इस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने " मन की बात" कार्यक्रम में कहा कि हम 21वीं सदी में हैं। यह सभी ज्ञान विज्ञान और लोकतंत्र का युग है। क्या आपने किसी ऐसे स्थान के बारे में सुना है जहां हिंसा से जीवन बेहतर हुआ है। प्रधानमंत्री ने कहा कि हिंसा से किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता है। शांति हर सवाल के जवाब का आधार होना चाहिए। उन्होंने लोगों से अपील की कि एकजुटता से हर समस्या का समाधान का प्रयास होना चाहिए। भाईचारे के जरिए विभाजन और बंटवारे की कोशिश को नाकाम करें।
       प्रधानमंत्री का इशारा यकीनन देश में चल रहे अलगाववाद और उपद्रव की ओर था उन्होंने शांति की अपील की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में लगभग सभी मंचों पर प्रशंसा है । "मूड ऑफ द नेशन" के एक सर्वे में मोदी जी देश के सर्वश्रेष्ठ शासनाध्यक्ष हैं। इनके बाद इंदिरा जी का नंबर है। मोदी जी को सर्वे में 34% भारतीयों का समर्थन मिला है जबकि इंदिरा जी को 16 प्रतिशत और अटल बिहारी वाजपेई को 13% भारतीयों ने बेहतरीन प्रधानमंत्री बताया है। यद्यपि मोदी जी के बारे में जो भारतीय जनता का समर्थन मिला है वह अगस्त में कहीं ज्यादा था अब 3% कम हो गया है। जबकि इंदिरा जी रेटिंग 2% बढ़ी है। इसका मुख्य कारण है अभी हाल में हुए सीए ए के आंदोलनों का सामाजिक प्रभाव। इस प्रभाव से मोदी जी के शांति दूत की छवि घटी है और इंदिरा जी की इसलिए बढ़ी है कि उन्होंने समान स्थितियों में बल प्रयोग करके आंदोलनों को दबा दिया। यानी हमारा देश स्पष्ट रूप से यह चाहता है यह जो आंदोलन चल रहे हैं इन को किसी भी तरह दबाया जाए। यही नहीं मोदी जी के बारे में जो नई राय बनी है उसके लिए आर्थिक विकास ,बेरोजगारी, किसानों की पीड़ा इत्यादि भी कारण है।
      मोदी के विरोध में बोलने वालों के पास एक मजबूत पॉइंट है कि इकोनॉमिस्ट  पत्रिका ने ताजा अंक  में लोकतंत्र सूचकांक में भारत का स्थान 10 सीढ़ियों नीचे गिरा दिया। लेकिन यह सूचकांक विशुद्ध नहीं है। इसमें कई त्रुटियां हैं। हालांकि यह समाचार कोई बहुत बड़ा नहीं है। इंटेलिजेंस यूनिट की का अध्ययन पांच बातों पर आधारित बताया जाता है पहला चुनावी प्रक्रिया और बहुलतावाद, सरकार का कामकाज ,राजनीतिक भागीदारी , राजनीतिक संस्कृति और नागरिक स्वतंत्रता। विख्यात पत्रिका  द कन्वर्सेशन  के ताजा अंक में इस बात का जिक्र करते हुए  रेखांकित किया गया है कि "आधुनिक अंतरराष्ट्रीय व्यवसाय रणनीति में    आजकल विभिन्न देशों की राजनीतिक निर्णय प्रक्रिया के विश्लेषण को बहुत महत्व दिया जाता है। क्योंकि, इसमें निवेश से जुड़े जोखिम के आकलन में मदद मिलती है।" दरअसल निवेश की वास्तविक दुनिया में लगाए गए धन पर मुनाफे को उतना महत्त्व नहीं दिया जाता जितना महत्व निवेश से जुड़े जोखिम की चिंता को दी जाती है। यही कारण है दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाएं भारत जैसी लोकतांत्रिक परंपरा और सामूहिक निर्णय संस्कृति वाले देश के बजाय उन देशों में भारी निवेश कर रही है जो कहीं ही कम लोकतांत्रिक हैं। पश्चिमी देशों के अमीरों को अविकसित देशों के तानाशाहों और स्वेच्छाचारी शासकों के साथ सौदा करने में आसानी होती है। विकसित देशों और उनकी सरपरस्ती में काम करने वाले संस्थानों में चीन को सबसे ज्यादा तरजीह दी जाती है लेकिन क्या कोई चीन को लोकतांत्रिक परंपराओं वाला श्रेष्ठ देश कह सकता है? शायद नहीं। अधिनायक वादी देशों को तरजीह दिए जाने के पीछे संभवत ये तर्क है कि उनकी व्यवस्थाएं ज्यादा जटिल नहीं होती या वहां निर्णय प्रक्रिया भारत जैसे लोकतांत्रिक देशों के मुकाबले बहुस्तरीय नहीं होती। इसलिए निवेशकों का शीर्ष नेतृत्व से तत्काल संपर्क हो जाता है। ऐसी पृष्ठभूमि व्यवसाय और निवेश के बड़े अवसरों के लिए लोकतंत्र के महत्व पर उपदेश दिया जाना बड़ा अजीब लगता है। भारत की अपनी एक लोकतांत्रिक व्यवस्था है और वह उसका पालन करता है साथ ही अंतरराष्ट्रीय व्यवसायों के लिए उसके अपने मजबूत संस्थागत ढांचे हैं इसका उल्लेख राष्ट्र संघ तक ने किया है।
        इनदिनों एक फैशन हो गया है यह कहना कि  बहुधर्मीय भारत को उग्र राष्ट्रवादी हिंदू राष्ट्र में बदलने के लिए  प्रयास चल रहा है। लेकिन अगर हकीकत देखें तो यह बात सही नहीं प्रमाणित होती है। भारत में ऐसा कोई प्रयास नहीं चल रहा है जो उसे राष्ट्रवादी हिंदू राष्ट्र में बदल दे। अगर इसका इशारा सीए ए और एनआरसी की तरफ है तो यह निहायत ना जानकारी है। सबसे पहली बात कि यह किसी की नागरिकता लेने के लिए नहीं कुछ लोगों को नागरिकता देने के उद्देश्य से बनाया गया है। दूसरी बात है कि, सी ए ए के  पर्दे में जो उपद्रव हो रहे हैं उसका उद्देश्य कुछ दूसरा है। उसका स्वरूप राजनीतिक है। ऐसे में सरकार को दोष दिया जाना  ना केवल बरगलाना  है बल्कि सच से अलग है।


Thursday, January 23, 2020

हम क्या थे क्या हो गए क्या होंगे अभी

हम क्या थे क्या हो गए क्या होंगे अभी 

भारत एक वर्ष में लोकतांत्रिक सीढ़ियों पर 10 सीढ़ियां नीचे खिसक आया। विखयात पत्रिका "द इकोनॉमिस्ट" के सर्वे के मुताबिक 2019 में भारत 41वें स्थान पर था आज  वह 51वें स्थान पर पहुंच गया है। "द इकोनॉमिस्ट" हर वर्ष अपने रिसर्च विभाग की मदद से "डेमोक्रेसी इंडेक्स" जारी करता है। बुधवार को इस यूनिट ने 165 देशों के बारे में अपनी ताजा रिपोर्ट जारी की। जिसमें हमारा देश भारत 10 सीढ़ी नीचे खिसक आया है। 2019 में भारत 41 वें पायदान पर था आज वह 51 वें पायदान पर खड़ा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के समग्र स्कोर में बड़ी गिरावट आई है। 0 से 10 के पैमाने पर भारत के स्कोर 2018 में 7.3 से गिरकर 2019 में 6.90 हो गया और इसकी प्राथमिक वजह देश में नागरिक स्वतंत्रता में कटौती करना है। इस रिपोर्ट में भारत की रैंकिंग के गिरने और स्कोर के घटने का कारण भी बताया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत प्रशासित कश्मीर से 370 हटाए जाने, असम में एनआरसी का काम शुरू होने और फिर  नागरिकता कानून सीएए की वजह से नागरिकों में बड़े असंतोष के कारण भारत का स्कोर गिर गया है । लेकिन ऐसी बात नहीं है कि भारत राजनीतिक सहभागिता के मामले में पीछे है। भारत को अच्छे अंक प्राप्त हुए हैं जबकि राजनीतिक संस्कृति की वजह से उसके कई नंबर कट गए हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि सभी देशों के स्कोर का आकलन उन देशों की चुनाव प्रक्रिया ,नागरिक स्वतंत्रता और सरकार के कामकाज के आधार पर किया जाता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 2019 लोकतंत्र के लिए सबसे खराब  रहा। वैश्विक गिरावट खासतौर से लैटिन अमेरिका, सब सहारा अफ्रीका और पश्चिम एशिया में देखी गई है। अधिकांश एशियाई देशों की रैंकिंग 2019 में गिरी है। इस रिपोर्ट में नार्वे सबसे ऊपर है । अमेरिका 25 वें ,जापान 24 वें, इसराइल 28 वें और ब्रिटेन 14वें पायदान पर है। भारत के पड़ोसी देशों में हालात और भी खराब हैं। चीन 153 वें पाकिस्तान 108वें, बांग्लादेश 80 , श्रीलंका 69 और नेपाल 92वें  स्थान पर है।
     क्या विडंबना है की एक तरफ जहां हम लोकतांत्रिक पायदान पर पिछड़ रहे हैं वहीं दूसरी तरफ हमारे परंपराओं और वर्षों से चले आ रहे हैं रिवाज में बदलाव की कोशिशें भी शुरू हो गई  हैं। हर वर्ष 29 जनवरी को हमारे देश में बीटिंग रिट्रीट का आयोजन होता है। इस पर जो संगीत बजता है उसकी रचना हेनरी फ्रांसिस नाईट ने की थी और उसकी धुन बनाई थी विलियम हेनरी मोंक ने। टेनिसन के मुताबिक यह एक बेहतरीन कविता है। यह भयानक क्षणों में मानव संघर्ष को प्रतिबिंबित करती है। दिलचस्प बात यह है जिन भयानक क्षणों  का मुकाबला एक फौजी करता है उतना आम आदमी नहीं कर पाता। इसीलिए इस धुन को फौज के बीटिंग रिट्रीट में बजाया जाता है। लेकिन इसकी पृष्ठभूमि औपनिवेशिक है।  अतः यह हमारे नवीन भारत को एक तरह से अपमानित करता है। इस धुन को या गीत को हटाया जाना एक मसला तो जरूर है लेकिन यह ईसाई मसला नहीं है। अगर किसी कारणवश ईसाई समुदाय इस क्रिया का विरोध करता है तो यह उसका पाखंड है। बेशक अभी तक उसे गाया जाता है लेकिन कोई इस बात पर ध्यान नहीं देता की धुनों का कैसा मखौल  उड़ाया जाता है या फिर उस गीत की पंक्तियों से क्या सलूक किया जाता है। कोई इस पर नहीं ध्यान देता उस गीत का अर्थ क्या है ? कोई इसके संगीत आध्यात्मिक और भावनात्मक मूल्यों का अर्थ नहीं समझता सो यह ईसाइयत की समस्या नहीं है। लेकिन यह समस्या है जो हमारे सपनों के भारत से जुड़ा है। सपनों का भारत अभी निर्मित हो रहा है और इसकी प्रमुख पहचान है सार्वभौमिक मित्रता। यह निर्मित फूल है ,भारत का बुनियादी धर्म है। यह एक धर्मनिरपेक्ष समाज का निर्माण नहीं यह एक बहुधर्मी समाज का निर्माण करता है। जिसमें वैमनस्यता द्वेष और घृणा का स्थान नहीं है। इसमें भयानक स्थितियों से संघर्ष का अनुमान है भारतीय संविधान की दृष्टि  द्वैत के प्रति स्वागत का भाव है। हेनरी एमरसन फासडिक ने कहा है  लोकतंत्र साधारण लोगों में असाधारण संभावनाओं का प्रतीक है।
       आज हमारी सरकार अगर लोकतांत्रिक व्यवस्था में बदलाव का यदि कोई कदम उठाती है तो उस पर  राजनीति करने वाले लोग नई नई बातें उठाते हैं और उन कदमों को निरस्त करने की कोशिश में रहते हैं। विरोध का ही मतलब यह नहीं  है कि सकारात्मक परिवर्तनों का विरोध किया जाए। बिना सोचे समझे परिवर्तन करने वाले कारकों को दोषी बताया जाए।
     आज लोकतांत्रिक पायदान पर हमारी गिरावट कुछ इन्हीं कोशिशों की देन है। इस में सरकार की भूमिका कहीं नहीं है। सरकार का काम सुव्यवस्थित शासन चलाना है कानून और व्यवस्था को सुदृढ़ बनाना है ना कि कानून और व्यवस्था को बिगड़ते देख कर मौन खड़ा रहना है। भारत की इस गिरावट के लिए अगर कोई सरकार को जिम्मेदार ठहराते है तो यह सही नहीं है । हम किसी तरफ हों कोई भी कदम उठाएं तो यह जान लें कि हमारा  इशारा घातक भी हो सकता है। बीटिंग रिट्रीट के साथ भी यही बात होगी, लेकिन "जन गण मन अधिनायक जय हे" गाने वाले स्वतंत्रत चेता देश   अगर औपनिवेशिक धुन पर लेफ्ट राइट करती है तो यकीनन इसमें कुछ बुरा नहीं है। लेकिन हमारा इतिहास हमेशा हमें कोसता रहेगा कि हमने औपनिवेशिक शासन के निशानों को अपनी फौज में जीवित रखा है।


हम क्या थे क्या हो गए क्या होंगे अभी

हम क्या थे क्या हो गए क्या होंगे अभी 

भारत एक वर्ष में लोकतांत्रिक सीढ़ियों पर 10 सीढ़ियां नीचे खिसक आया। विखयात पत्रिका "द इकोनॉमिस्ट" के सर्वे के मुताबिक 2019 में भारत 41वें स्थान पर था आज  वह 51वें स्थान पर पहुंच गया है। "द इकोनॉमिस्ट" हर वर्ष अपने रिसर्च विभाग की मदद से "डेमोक्रेसी इंडेक्स" जारी करता है। बुधवार को इस यूनिट ने 165 देशों के बारे में अपनी ताजा रिपोर्ट जारी की। जिसमें हमारा देश भारत 10 सीढ़ी नीचे खिसक आया है। 2019 में भारत 41 वें पायदान पर था आज वह 51 वें पायदान पर खड़ा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के समग्र स्कोर में बड़ी गिरावट आई है। 0 से 10 के पैमाने पर भारत के स्कोर 2018 में 7.3 से गिरकर 2019 में 6.90 हो गया और इसकी प्राथमिक वजह देश में नागरिक स्वतंत्रता में कटौती करना है। इस रिपोर्ट में भारत की रैंकिंग के गिरने और स्कोर के घटने का कारण भी बताया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत प्रशासित कश्मीर से 370 हटाए जाने, असम में एनआरसी का काम शुरू होने और फिर  नागरिकता कानून सीएए की वजह से नागरिकों में बड़े असंतोष के कारण भारत का स्कोर गिर गया है । लेकिन ऐसी बात नहीं है कि भारत राजनीतिक सहभागिता के मामले में पीछे है। भारत को अच्छे अंक प्राप्त हुए हैं जबकि राजनीतिक संस्कृति की वजह से उसके कई नंबर कट गए हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि सभी देशों के स्कोर का आकलन उन देशों की चुनाव प्रक्रिया ,नागरिक स्वतंत्रता और सरकार के कामकाज के आधार पर किया जाता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 2019 लोकतंत्र के लिए सबसे खराब  रहा। वैश्विक गिरावट खासतौर से लैटिन अमेरिका, सब सहारा अफ्रीका और पश्चिम एशिया में देखी गई है। अधिकांश एशियाई देशों की रैंकिंग 2019 में गिरी है। इस रिपोर्ट में नार्वे सबसे ऊपर है । अमेरिका 25 वें ,जापान 24 वें, इसराइल 28 वें और ब्रिटेन 14वें पायदान पर है। भारत के पड़ोसी देशों में हालात और भी खराब हैं। चीन 153 वें पाकिस्तान 108वें, बांग्लादेश 80 , श्रीलंका 69 और नेपाल 92वें  स्थान पर है।
     क्या विडंबना है की एक तरफ जहां हम लोकतांत्रिक पायदान पर पिछड़ रहे हैं वहीं दूसरी तरफ हमारे परंपराओं और वर्षों से चले आ रहे हैं रिवाज में बदलाव की कोशिशें भी शुरू हो गई  हैं। हर वर्ष 29 जनवरी को हमारे देश में बीटिंग रिट्रीट का आयोजन होता है। इस पर जो संगीत बजता है उसकी रचना हेनरी फ्रांसिस नाईट ने की थी और उसकी धुन बनाई थी विलियम हेनरी मोंक ने। टेनिसन के मुताबिक यह एक बेहतरीन कविता है। यह भयानक क्षणों में मानव संघर्ष को प्रतिबिंबित करती है। दिलचस्प बात यह है जिन भयानक क्षणों  का मुकाबला एक फौजी करता है उतना आम आदमी नहीं कर पाता। इसीलिए इस धुन को फौज के बीटिंग रिट्रीट में बजाया जाता है। लेकिन इसकी पृष्ठभूमि औपनिवेशिक है।  अतः यह हमारे नवीन भारत को एक तरह से अपमानित करता है। इस धुन को या गीत को हटाया जाना एक मसला तो जरूर है लेकिन यह ईसाई मसला नहीं है। अगर किसी कारणवश ईसाई समुदाय इस क्रिया का विरोध करता है तो यह उसका पाखंड है। बेशक अभी तक उसे गाया जाता है लेकिन कोई इस बात पर ध्यान नहीं देता की धुनों का कैसा मखौल  उड़ाया जाता है या फिर उस गीत की पंक्तियों से क्या सलूक किया जाता है। कोई इस पर नहीं ध्यान देता उस गीत का अर्थ क्या है ? कोई इसके संगीत आध्यात्मिक और भावनात्मक मूल्यों का अर्थ नहीं समझता सो यह ईसाइयत की समस्या नहीं है। लेकिन यह समस्या है जो हमारे सपनों के भारत से जुड़ा है। सपनों का भारत अभी निर्मित हो रहा है और इसकी प्रमुख पहचान है सार्वभौमिक मित्रता। यह निर्मित फूल है ,भारत का बुनियादी धर्म है। यह एक धर्मनिरपेक्ष समाज का निर्माण नहीं यह एक बहुधर्मी समाज का निर्माण करता है। जिसमें वैमनस्यता द्वेष और घृणा का स्थान नहीं है। इसमें भयानक स्थितियों से संघर्ष का अनुमान है भारतीय संविधान की दृष्टि  द्वैत के प्रति स्वागत का भाव है। हेनरी एमरसन फासडिक ने कहा है  लोकतंत्र साधारण लोगों में असाधारण संभावनाओं का प्रतीक है।
       आज हमारी सरकार अगर लोकतांत्रिक व्यवस्था में बदलाव का यदि कोई कदम उठाती है तो उस पर  राजनीति करने वाले लोग नई नई बातें उठाते हैं और उन कदमों को निरस्त करने की कोशिश में रहते हैं। विरोध का ही मतलब यह नहीं  है कि सकारात्मक परिवर्तनों का विरोध किया जाए। बिना सोचे समझे परिवर्तन करने वाले कारकों को दोषी बताया जाए।
     आज लोकतांत्रिक पायदान पर हमारी गिरावट कुछ इन्हीं कोशिशों की देन है। इस में सरकार की भूमिका कहीं नहीं है। सरकार का काम सुव्यवस्थित शासन चलाना है कानून और व्यवस्था को सुदृढ़ बनाना है ना कि कानून और व्यवस्था को बिगड़ते देख कर मौन खड़ा रहना है। भारत की इस गिरावट के लिए अगर कोई सरकार को जिम्मेदार ठहराते है तो यह सही नहीं है । हम किसी तरफ हों कोई भी कदम उठाएं तो यह जान लें कि हमारा  इशारा घातक भी हो सकता है। बीटिंग रिट्रीट के साथ भी यही बात होगी, लेकिन "जन गण मन अधिनायक जय हे" गाने वाले स्वतंत्रत चेता देश   अगर औपनिवेशिक धुन पर लेफ्ट राइट करती है तो यकीनन इसमें कुछ बुरा नहीं है। लेकिन हमारा इतिहास हमेशा हमें कोसता रहेगा कि हमने औपनिवेशिक शासन के निशानों को अपनी फौज में जीवित रखा है।


Wednesday, January 22, 2020

दविंदर सिंह का पकड़ा जाना

दविंदर सिंह का पकड़ा जाना 

जम्मू कश्मीर के  डी एस पी दविंदर सिंह की गिरफ्तारी साफ बताती है कि हमारे सुरक्षा कवच में कहीं न कहीं बहुत बड़ी दरार है। दविंदर सिंह की गिरफ्तारी के बाद जो बातें हो रही हैं वही बातें हैं हर बार किसी न किसी घर के भेदिए की गिरफ्तारी के बाद उठती है। हममें से बहुतों को याद होगा कि जब मुंबई ब्लास्ट के बाद एक कस्टम अधिकारी को गिरफ्तार किया गया तो इसी किस्म के सवाल उठ रहे थे कि क्या सरकार सो रही थी या हमारी खुफिया गिरी बेकार थी? ऐसे और भी कई बिंदु हैं जो हमें खोखले दिखाई पड़ रहे हैं। कई लोग ऐसे हैं जो धीरे-धीरे पूरे सिस्टम को घुन की तरह खाए जा रहे हैं। जब तक इस तरह का दूसरा कोई हादसा नहीं होता है तब तक इसी तरह के सवाल उठते रहेंगे और अखबारों में छपते रहेंगे।
    जरूरी है कि इन पर गंभीरता से सोचा जाए। ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे सिस्टम को यह प्रवृत्ति ठीक लगती है। इसीलिए यह चल रहा है। दविंदर सिंह का मामला शर्मिंदा करने वाला है। क्योंकि, उसे श्रीनगर एयरपोर्ट पर अपहरण विरोधी दस्ते में तैनात किया गया था । यह बहुत ही संवेदनशील है और इसके कार्य बहुत ही खतरनाक हैं। सबसे बड़ी बात है कि दविंदर सिंह का रिकॉर्ड कोई साफ सुथरा नहीं था फिर भी उसे वहां क्यों तैनात किया गया? संसद पर हमले के जुर्म में फांसी पर चढ़ा दिये गये अफजल गुरु ने दविंदर पर कई गंभीर आरोप लगाए थे। अफजल ने अपने वकील के माध्यम से दविंदर पर आरोप लगाया कि उसने उसे गैर कानूनी ढंग से गिरफ्तार किया और भयंकर प्रताड़ना दी। अफजल ने शिकायत की थी दविंदर सिंह ने उसे एक आतंकी को संसद तक ले जाने और   उसे छिपाए रखने के लिए मजबूर किया था। इसके पहले भी सिंह पर अधिकारों के दुरुपयोग और जबरन वसूली के आरोप थे।
क्या खुफियागिरी के साधारण सिद्धांत के अनुसार उसकी निगरानी होती थी? अगर होती थी फिर ऐसा क्यों हुआ? प्रति गुप्तचरी के लिये जिम्मेदार वह कौन लोग थे जो दविंदर सिंह पर नजर रखे हुए थे? क्योंकि खुफियागिरि का यह बहुत ही बुनियादी सिद्धांत है कि हर संवेदनशील पद पर तैनात अधिकारी की निगेहबानी हो।
     यहां ध्यान देने की बात है कि आतंकवाद और अलगाववाद से प्रभावित क्षेत्र का अपने एक विशेष चरित्र होता है। उनका लोकतंत्र बंदूकों से चलता है और वह लोग बंदूकों से ही खुश रहते हैं। सिंह तो उस लंबी श्रृंखला में एक छोटी सी कड़ी था। अगर इस बात का अध्ययन किया जाए कि जो लोग बंदूकों के बल पर भारत को तोड़ना चाहते हैं कमजोर करना चाहते हैं उनसे हमारे सुरक्षा सैनिक कैसे निपटते हैं? इसमें यह जानना सबसे महत्वपूर्ण है कि जंगे मैदान में जब हमारा दुश्मन हमारे खून का प्यासा है तो हमें कुछ सतर्क रहना ही चाहिए । तब भी हमारे जवानों को तथा अधिकारियों को जो बेशक गुप्तचर हैं उन्हें भी कुछ आजादी मिलनी चाहिए। जंगलों में, सीमावर्ती क्षेत्रों में लंबे-लंबे मोर्चे और उन मोर्चों पर खुफिया गिरी करना तथा वहां मुखबिर तैयार करना अपने आप में एक बहुत बड़ी बात है। क्योंकि मुखबिरी हमेशा जानलेवा होती है तब भी लोग इसमें शामिल होते हैं। पैदल चलकर मीलों की दूरी तय करनी होती है तब कहीं जाकर एक छोटी सी खबर मिलती है जो हमारी सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण होती है और अगर उस खबर पर भी धन से समझौता कर दिया जाए तो फिर कैसे होगी देश की रक्षा? जिन्होंने खुफिया गिरी में तैनात जांबाजों को बहुत करीब से देखा है और उन्हें समझा है। वह ऐसी जिंदगी जीते हैं जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। हम अक्सर अखबारों में पढ़ते हैं कि कोई ना कोई वजह से खुफिया विभाग का अफसर इन देश विरोधी तथा समाज विरोधी तत्वों से मिला होता है। इसकी शिना
ख्त करना और इस बात की पड़ताल करना कितना कठिन है कि उन्हीं के बीच उन्हीं का एक साथी लक्ष्य से भटक कर आतंकवादियों कट्टर अलगाववादियों या देश विरोधियों से जा मिला है, और ना केवल देश की सुरक्षा से समझौता कर रहा है बल्कि अपने साथियों की जिंदगी को भी दांव पर लगा रखा है। अगर कहीं सीमावर्ती क्षेत्र में किसी चौकी पर विस्फोट होता है या धुआंधार फायरिंग होती है तो मरने वालों में शामिल फौजियों की तो गिनती होती है किंतु यह खुफिया अधिकारी कहीं नहीं गिने जाते । सब कुछ शांत हो जाता है। इनमें से कई लोगों को गैर कानूनी ढंग से विदेशों  में भेजा जाता है और अगर उस अधिकारी पर लगा खुफिया लेबल उतर जाता है तो हमारी सरकार भी उसे अपना मानने से इनकार कर देती है। दवेंदर सिंह के ही मामले को देखें हमारे राजनीतिक नेता हिंदू -मुस्लिम ,हिंदुस्तान पाकिस्तान के जुमलों में जुटे हुए हैं वह इस आदमी के प्रति कहीं गंभीर नहीं दिखाई पड़ रहे हैं ।    खास करके ऐसा आदमी जिस पर कई तरह के संवेदनशील आरोप लगे हुए वे यह नहीं सोच पाते एक बहादुर सिपाही जब पथभ्रष्ट हो जाता है तो क्या होता है ? यह केवल एक आदमी की बात नहीं है बल्कि संपूर्ण तंत्र की बात है। हमारा प्रशासन जो ब्रिटिश अफसरशाही नींव पर खड़ा हुआ है वह इस बात को क्यों नहीं समझ पाता की संवेदनशील पदों पर तैनात अफसर की मजबूरियां उसका मानसिक झुकाव उसका मानव तंत्र और उसकी सामाजिक सोच क्या है। वह किन विचारों से निर्देशित तथा संचालित होता है। इसमें कुछ लोग धन तथा अन्य बातों को जोड़कर देखते हैं लेकिन ऐसा सदा नहीं होता । सबसे महत्वपूर्ण है प्रतिबद्धता और विचारों का झुकाव तथा विचारों के प्रति आस्था। हमारे प्रशासन में बैठे लोग जो इसके लिए जिम्मेदार हैं उन पर भी सवाल उठाया जाना जरूरी है कि आखिर उनका एक मातहत क्यों ऐसी गतिविधियों में जा फंसा और वह सोए रहे। ऐसी लापरवाही य देश के लिए न केवल महंगी पड़ सकती है बल्कि हमारे सामाजिक जीवन के लिए भी खतरनाक है। कोई जरूरी नहीं है पूरे तंत्र में एक ही दवेंदर हो कई हो सकते हैं। उनकी पड़ताल बहुत जरूरी है वरना हमारी सुरक्षा खतरे में है।


Tuesday, January 21, 2020

भारत की माली हालत को और खराब

भारत की माली हालत को और खराब 

  अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ)  ने वर्ष 2019 के लिए भारत के आर्थिक वृद्धि के अनुमान को 4.8% कर दिया है । यह अनुमान गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों में दबाव के साथ ग्राम भारत में आमदनी के घटने का हवाला देते हुए कम किया है । आईएमएफ ने दावोस में विश्व आर्थिक मंच के सदस्यों के सम्मेलन शुरू होने के पहले  आर्थिक व्यवस्था में क्या हालात चल रहे हैं उसकी जानकारी दी

आईएमएफ की शुरुआत 1971 में हुई थी इसका उद्देश्य दुनिया की स्थिति में सुधार करना है। इसका आयोजन हर वर्ष दावोस में होता  है । इस साल दुनिया भर के शीर्ष उद्योगपति, राजनेता और नामी-गिरामी लोग इस फोरम की सालाना बैठक में शामिल होने के लिए दावोस में  भारत की तरफ से केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व कर रहे हैं।
आईएमएफ का मानना है कि गत वर्ष भारत की आर्थिक वृद्धि की दर 4.8%, 2020 में 5.8% और 2021 में 6.5% रहने का अनुमान है। आईएमएफ की मुख्य अर्थशास्त्री गीता गोपीनाथ के मुताबिक भारत में मोटे तौर पर गैर बैंकिंग वित्तीय क्षेत्र में कमी और ग्रामीण क्षेत्रों की आय में बहुत मामूली वृद्धि के कारण भारत की आर्थिक वृद्धि दर का अनुमान घटाया गया है वहीं दूसरी ओर चीन की आर्थिक वृद्धि दर साल 2020 में 0.2 प्रतिशत बढ़कर 6% होने का अनुमान है । उसने कहा है कि भारत में घरेलू मांग उम्मीद के विपरीत कम हुई है। गीता नाथ  का  मानना है कि 2020 में वैश्विक वृद्धि में तेजी अभी सुनिश्चित नहीं है।
     विश्व आर्थिक मंच डब्ल्यू ई एफ की सलाना शिखर सम्मेलन की उद्घाटन के पूर्व आईएमएफ की प्रबंध निदेशक क्रिस्टीना जॉर्जीवा के अनुसार नीति निर्माताओं को बस यही सुझाव है कि वे वह सब करते रहें जो परिणाम दे सकें, जिसे व्यवहार में लाया जा सके । उन्होंने आगाह किया आर्थिक वृद्धि में फिर से नरमी आती है तो हर किसी को समन्वित तरीके से तत्काल कदम उठाने के लिए तैयार रहना चाहिए।  आईएमएफ  के अनुसार हम अभी बदलाव बिंदु पर नहीं पहुंचे हैं। यही वजह है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए वृद्धि परिदृश्य को मामूली कम किया जा रहा है। व्यापार प्रणाली में सुधार के बुनियादी मुद्दे अभी भी कायम हैं और पश्चिमी एशिया में कुछ घटनाक्रम ऐसे भी हुए हैं जिनसे यह प्रभावित हों, उदाहरण स्वरूप अमेरिका चीन के आर्थिक संबंधों को लेकर कई तरह के मसले बने हुए हैं और इन मसलों का अर्थव्यवस्था पर भी असर पड़ रहा है। इसके अलावा घरेलू वित्तीय नियामकीय प्रणाली को भी मजबूत करने आवश्यकता है।
       लेकिन हमारे देश की विडंबना है कि इस पर सरकार की प्रतिक्रिया बहुत गंभीर नहीं है। सरकार इसे बहुत हल्के में ले रही है। हो सकता है यह बहुत गंभीर बात नहीं हो लेकिन तब भी भारत जैसे मंदी से गुजर रहे देश को इसके प्रति सोचना जरूरी है। बेशक इस मंदी से लड़ने के लिए सरकार के पास कोई न कोई उपाय होगा ही लेकिन यह जरूरी नहीं है कि ऐसे उपाय हरदम कामयाब हो। अचानक असफलता बड़ी दुखदायी होती है। नोटबंदी इसका उदाहरण है ।
      1991 के अनुभव ने देश को बताया है कि उदारीकरण से ही व्यापार घाटे को पूरा किया जा सकट चारों तरफ छोलदारियान  खड़ी करके और निर्यात को बढ़ावा देकर हालांकि पिछले साल के आखिर में सरकार ने  में कहा था की भले ही भारत की अर्थव्यवस्था थोड़ी धीमी है लेकिन मंदी का खतरा नहीं है। साल गुजर गया और नया साल आ गया। ऐसे में यह देखना उचित होगा कि भारत के सामने जोल्प हमसे आर्थिक समस्याएं हैं शास्त्रों के अनुसार भारत का जैसा हाल है उससे सामाजिक और आर्थिक अस्थिरता बढ़ेगी भारत के लिए फिलहाल धीमी अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ती बेरोजगारी और बड़ा वित्तीय घाटा चिंता का विषय है। वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए यह वर्ष काफी चुनौती भरा है और इस का गहरा असर भारत की अर्थव्यवस्था पर दिख रहा है । अगर आईएमएफ के आंकड़ों को छोड़ भी दें तो भी भारत की अर्थव्यवस्था में चालू तिमाही में विकास दर साढे 4% तक गिर गई यह गिरावट बाजार की उम्मीदों के उलट है । भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 6 मार्च में सबसे निचले स्तर पर। यह  चिंता का विषय है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 20 दिसंबर को एसोचैम कॉन्फ्रेंस में कहा था इस सरकार ने भारतीय अर्थव्यवस्था पटरी पर लाने का काम किया है और 2025 तक देश को 5 खरब की मजबूत अर्थव्यवस्था बनाने का टारगेट पूरा करने की स्थिति में है।  लेकिन सवाल है कि भारत यह टारगेट पूरा कर सकेगा। हफ्ते भर के बाद बजट आने वाला है और सबसे ज्यादा इस बजट पर निर्भर होगा इस व्यवस्था का स्वरूप कैसा होगा ।

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ)  ने वर्ष 2019 के लिए भारत के आर्थिक वृद्धि के अनुमान को 4.8% कर दिया है । यह अनुमान गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों में दबाव के साथ ग्राम भारत में आमदनी के घटने का हवाला देते हुए कम किया है । आईएमएफ ने दावोस में विश्व आर्थिक मंच के सदस्यों के सम्मेलन शुरू होने के पहले  आर्थिक व्यवस्था में क्या हालात चल रहे हैं उसकी जानकारी दी
आईएमएफ की शुरुआत 1971 में हुई थी इसका उद्देश्य दुनिया की स्थिति में सुधार करना है। इसका आयोजन हर वर्ष दावोस में होता  है । इस साल दुनिया भर के शीर्ष उद्योगपति, राजनेता और नामी-गिरामी लोग इस फोरम की सालाना बैठक में शामिल होने के लिए दावोस में  भारत की तरफ से केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व कर रहे हैं।
आईएमएफ का मानना है कि गत वर्ष भारत की आर्थिक वृद्धि की दर 4.8%, 2020 में 5.8% और 2021 में 6.5% रहने का अनुमान है। आईएमएफ की मुख्य अर्थशास्त्री गीता गोपीनाथ के मुताबिक भारत में मोटे तौर पर गैर बैंकिंग वित्तीय क्षेत्र में कमी और ग्रामीण क्षेत्रों की आय में बहुत मामूली वृद्धि के कारण भारत की आर्थिक वृद्धि दर का अनुमान घटाया गया है वहीं दूसरी ओर चीन की आर्थिक वृद्धि दर साल 2020 में 0.2 प्रतिशत बढ़कर 6% होने का अनुमान है । उसने कहा है कि भारत में घरेलू मांग उम्मीद के विपरीत कम हुई है। गीता नाथ  का  मानना है कि 2020 में वैश्विक वृद्धि में तेजी अभी सुनिश्चित नहीं है।
     विश्व आर्थिक मंच डब्ल्यू ई एफ की सलाना शिखर सम्मेलन की उद्घाटन के पूर्व आईएमएफ की प्रबंध निदेशक क्रिस्टीना जॉर्जीवा के अनुसार नीति निर्माताओं को बस यही सुझाव है कि वे वह सब करते रहें जो परिणाम दे सकें, जिसे व्यवहार में लाया जा सके । उन्होंने आगाह किया आर्थिक वृद्धि में फिर से नरमी आती है तो हर किसी को समन्वित तरीके से तत्काल कदम उठाने के लिए तैयार रहना चाहिए।  आईएमएफ  के अनुसार हम अभी बदलाव बिंदु पर नहीं पहुंचे हैं। यही वजह है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए वृद्धि परिदृश्य को मामूली कम किया जा रहा है। व्यापार प्रणाली में सुधार के बुनियादी मुद्दे अभी भी कायम हैं और पश्चिमी एशिया में कुछ घटनाक्रम ऐसे भी हुए हैं जिनसे यह प्रभावित हों, उदाहरण स्वरूप अमेरिका चीन के आर्थिक संबंधों को लेकर कई तरह के मसले बने हुए हैं और इन मसलों का अर्थव्यवस्था पर भी असर पड़ रहा है। इसके अलावा घरेलू वित्तीय नियामकीय प्रणाली को भी मजबूत करने आवश्यकता है।
       लेकिन हमारे देश की विडंबना है कि इस पर सरकार की प्रतिक्रिया बहुत गंभीर नहीं है। सरकार इसे बहुत हल्के में ले रही है। हो सकता है यह बहुत गंभीर बात नहीं हो लेकिन तब भी भारत जैसे मंदी से गुजर रहे देश को इसके प्रति सोचना जरूरी है। बेशक इस मंदी से लड़ने के लिए सरकार के पास कोई न कोई उपाय होगा ही लेकिन यह जरूरी नहीं है कि ऐसे उपाय हरदम कामयाब हो। अचानक असफलता बड़ी दुखदायी होती है। नोटबंदी इसका उदाहरण है ।
      1991 के अनुभव ने देश को बताया है कि उदारीकरण से ही व्यापार घाटे को पूरा किया जा सकट चारों तरफ छोलदारियान  खड़ी करके और निर्यात को बढ़ावा देकर हालांकि पिछले साल के आखिर में सरकार ने  में कहा था की भले ही भारत की अर्थव्यवस्था थोड़ी धीमी है लेकिन मंदी का खतरा नहीं है। साल गुजर गया और नया साल आ गया। ऐसे में यह देखना उचित होगा कि भारत के सामने जोल्प हमसे आर्थिक समस्याएं हैं शास्त्रों के अनुसार भारत का जैसा हाल है उससे सामाजिक और आर्थिक अस्थिरता बढ़ेगी भारत के लिए फिलहाल धीमी अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ती बेरोजगारी और बड़ा वित्तीय घाटा चिंता का विषय है। वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए यह वर्ष काफी चुनौती भरा है और इस का गहरा असर भारत की अर्थव्यवस्था पर दिख रहा है । अगर आईएमएफ के आंकड़ों को छोड़ भी दें तो भी भारत की अर्थव्यवस्था में चालू तिमाही में विकास दर साढे 4% तक गिर गई यह गिरावट बाजार की उम्मीदों के उलट है । भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 6 मार्च में सबसे निचले स्तर पर। यह  चिंता का विषय है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 20 दिसंबर को एसोचैम कॉन्फ्रेंस में कहा था इस सरकार ने भारतीय अर्थव्यवस्था पटरी पर लाने का काम किया है और 2025 तक देश को 5 खरब की मजबूत अर्थव्यवस्था बनाने का टारगेट पूरा करने की स्थिति में है।  लेकिन सवाल है कि भारत यह टारगेट पूरा कर सकेगा। हफ्ते भर के बाद बजट आने वाला है और सबसे ज्यादा इस बजट पर निर्भर होगा इस व्यवस्था का स्वरूप कैसा होगा ।


Monday, January 20, 2020

बिहार की मानव श्रृंखला

बिहार की मानव श्रृंखला 

जल जमीन और हरियाली के लिए बिहार में एक लंबी मानव श्रृंखला का सृजन किया गया।अगर इसे आंकड़ों के हिसाब से देखें तो यह गिनीज बुक में दर्ज की जा सकती है। रविवार का दिन होने के बावजूद बिहार के सारे सरकारी कार्यालय खुले हुए थे।
जल जमीन और हरियादी के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस श्रृंखला को स्वरूप दिया था। सरकार का कहना है कि इस मानव श्रृंखला का 4.3 करोड़ लोगों का ध्यान गया और इसकी लंबाई 16443 किलोमीटर थी। यह एक तरह से एक मिशन पर लोगों का ध्यान केंद्रित कराने के लिए एक ऑडियो विजुअल प्रयोग था। महात्मा गांधी के सत्याग्रह और आडवाणी जी की रथ यात्रा के बाद यह एक ऐसा प्रयोग था जिससे समूचे देश ने बहुत दिलचस्पी के साथ देखा और उससे संभवत प्रभावित भी हुए। इस मेगा मिशन की देखरेख के लिए सरकार ने सुबह 11:30 बजे से आधे घंटे के लिए 12 हेलीकॉप्टर तैनात किए थे। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनके मंत्री पटना में गांधी मैदान में इस श्रृंखला के हिस्सा थे। अनुमानतः केवल पटना में इस श्रृंखला की लंबाई 708 किलोमीटर थी। यद्यपि अभी इसकी पुष्टि नहीं हो सकी है। मुख्यमंत्री इस कार्यक्रम के आयोजन में इतने व्यस्त थे कि पिछले 2 महीने से वे पूरे हफ्ते भर तक पटना में नहीं रहे। उन्होंने कहा  19 जनवरी के बाद विवादास्पद एनआरसी इत्यादि पर बोलेंगे। विगत 4 वर्षों में बिहार  में यह अपनी तरह का तीसरा आयोजन है। 2017 में राज्य में शराबबंदी के लिए मानव श्रृंखला  का आयोजन किया गया था। 2018 में बाल विवाह और दहेज के लिए लोगों ने आपस में हाथ मिलाए थे और यह तीसरा वाकया है । पहले दो आयोजन सामाजिक उद्देश्य के लिए थे और इसमें विपक्ष ने भी हिस्सा लिया था । 2017 में नीतीश का जदयू, राजद और कांग्रेस के साथ महागठबंधन था। तब विपक्ष में होने के बावजूद भाजपा ने इसका समर्थन किया था । उसमें भाजपा नेताओं ने राज्य इकाई के कार्यालय में खड़े होकर इसका समर्थन किया था।
      लेकिन इस बार यह प्रयास राजनीतिक ध्रुवीकरण का एक औजार बन गया। विपक्षी दल ने इसमें हिस्सा नहीं लिया। भाजपा के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने स्पष्ट कहा कि पर्यावरण दुनियाभर में चिंता का विषय है यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि विपक्ष ने इसमें शामिल होने से इनकार कर दिया। एक महत्वपूर्ण मसले में उसकी चिंता शून्य दिखाई पड़ी। सुशील कुमार मोदी ने कहा कि सरकार ने जनजीवन हरियाली मिशन के तहत ₹24500 करोड़ की योजनाएं शुरू की है। लेकिन विपक्ष इसके प्रति मुतमइन नहीं है। उधर, राजद के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी के अनुसार यह मानव श्रृंखला बिहार में नीतीश कुमार ने खुद को युगपुरुष के रूप में पेश करने के लिए  धोखाधड़ी की है। राज्य भर में सड़कों और अन्य सरकारी परियोजनाओं के लिए पेड़ काटे जाते हैं। उन्होंने कहा कि इस मिशन के तहत घोषित परियोजनाओं का उद्देश्य जदयू समर्थकों को ठेका देकर लाभान्वित करना है। उन्होंने यह भी आरोप लगाया की पिछली मानव श्रृंखला की घटनाएं भी विफल रहीं क्योंकि मद्य निषेध एक मजाक बन गया है । दहेज हत्या और बाल विवाह बिहार  में सबसे ज्यादा है। बिहार के पूर्व उप मुख्यमंत्री और राजद नेता तेजस्वी यादव ने इस मानव श्रृंखला योजना के बारे में और उसे गढ़ने के बारे में नीतीश कुमार आलोचना करते हुए कहा बिहार के बच्चों के शरीर पर कपड़ा नहीं है ,पैरों में चप्पल नहीं है, हाथ में कलम नहीं है, पेट में रोटी नहीं है नौजवानों की नौकरी नहीं है लेकिन मुख्यमंत्री जी  अपने चेहरे को चमकाने के लिए करोड़ों खर्च कर दिए ।मुख्य मंत्री का यह नाटक मानवीय मूल्यों के खिलाफ है। अगर कोई उनसे सवाल करता है तो सरकार उसे विज्ञापन देना बंद कर देती है ।उधर, जदयू के नेता विपक्ष के इस रूख से हैरान है। राज्यमंत्री नीरज कुमार ने कहा कि राजद संपत्ति ,भ्रष्टाचार और बलात्कार के आरोपी राजबल्लभ जादव तथा मोहम्मद शहाबुद्दीन के पक्ष में मानव श्रृंखला चाहती थी। पर्यावरण विश्वव्यापी मसला है हम विपक्ष की बुद्धि और प्रयासों के राजनीतिकरण के बारे में कुछ समझ नहीं पा रहे हैं । जदयू नेताओं का कहना है कि मानव श्रृंखला एक रैली क के राजनीतिक प्रभाव को लेकर स्पष्ट नहीं है। लेकिन इससे नीतीश कुमार को एक नेता का स्वरूप प्राप्त हुआ है।
      इस तरह की मानव श्रृंखला और रैलियां एक प्रकार से परिवर्तन की वाहक हैं। यह संस्थाओं कर्मचारियों और अन्य संगठनों पर नीतियों में बदलाव के माध्यम से प्रभाव डालते हैं अब इन रैलियों का बदलाव में कितना प्रभाव रहा यह मापना बड़ा जटिल कार्य है। क्योंकि इसमें विरोधी कार्यकर्ताओं की भूमिकाएं भी महत्वपूर्ण होती हैं। फिर भी, प्रभाव पड़ता है और इससे सामाजिक चेतना को जागृत होते  देखा गया है।


Sunday, January 19, 2020

केवल भारत में ही ऐसा नहीं है

केवल भारत में ही ऐसा नहीं है 

भारत में इन दिनों नागरिकता संशोधन कानून और उसी तरह की कई और बातों को लेकर देशभर के कई हिस्सों में व्यापक प्रदर्शन हो रहे हैं ,धरने दिए जा रहे हैं महिलाएं भी बड़ी संख्या में शामिल हैं । लेकिन यह केवल भारत की ही बात नहीं है। यह इस वर्ष एक फिनोमिना बन गया है जिस पर समाज वैज्ञानिक अध्ययन की भारी जरूरत है।
    जरा गौर करें , पिछले चंद महीनों में दुनिया के कई देश जैसे अल्जीरिया, कोलंबिया, चेक रिपब्लिक ,सूडान ,लेबनान, फ्रांस ,स्पेन, हांगकांग , इक्वाडोर , इराक, ईरान तथा कई अन्य देश हैं जहां लाखों की संख्या में जनता सड़कों पर उतरी और शासन को घुटने पर खड़ा कर दिया । कई देशों के शासनाध्यक्षों को पद त्यागना पड़ा। कुछ देशों में नए चुनावों की घोषणा हुई कहीं  नए संविधान तैयार करने के लिए जनमत संग्रह का ऐलान किया गया । कुल मिलाकर देखने में यह आया है कि कई बार या कई मामलों में सरकार को पीछे हटना पड़ा है और आंदोलनकारियों की मांगों को स्वीकार करना पड़ा है। लेकिन ऐसे विरोध प्रदर्शनों का जो कई महीनों से देशव्यापी स्तर पर चल रहे हैं उन्हें कई स्थानों पर सरकार ने कुचलने की भी कोशिश की। बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारी मारे गए ,घायल हो गए ,जेल चले गए लेकिन प्रदर्शन नहीं रुके। सरकार को प्रदर्शनकारियों की बात माननी पड़ी। ज्यादातर देशों में उनकी मांगे थी सच्चे अर्थों में लोकतांत्रिक और लोक जन कल्याण कारी राज्य की स्थापना । उनका दौर 2019 की शुरुआत में अल्जीरिया में तानाशाही खत्म करने की मांग के साथ शुरू हुई। अल्जीरिया में दो दशक से अब्देलअजीज बोतैफ़्लिका शासन पर काबिज थे और उन्होंने पांचवीं बार राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की इच्छा जाहिर की । बस अल्जीरिया में विरोध शुरू हो गया और यह विरोध सुलगता हुआ    देशभर में फैल गया।   इस  विरोध ने प्रचंड ज्वाला में बदल गया। लगभग तीन लाख लोग सड़कों पर उतर लियाआए या विरोध 3 महीने के अंत में अब्देलअजीज को इस्तीफ पड़ा। वहां अंतरिम सरकार की घोषणा हुई और उसी कथा चुनाव कराने की भी घोषणा हुई राष्ट्रपति के इस्तीफे से यह मांग शुरू हुई थी और धीरे-धीरे या बढ़ती गई आंदोलनकारियों का कहना है कि राष्ट्रपति का इस्तीफा तो महज एक छोटी सी मांग थी जिसमें जीत हासिल  हो गई यह अभी बहुत छोटी सी जीत थी ।अल्जीरिया के लोगों का कहना है कि अभी  शासन तंत्र को पूरी तरह लोकतांत्रिक बनाना होगा वे इसी पर डटे हुए हैं। अल्जीरिया में संघर्ष की शुरुआत एकाधिकारवादी शासन के खिलाफ थी वहीं अक्टूबर में  सेंटियागो में मेट्रो के किराया वृद्धि के खिलाफ आंदोलन शुरू हुआ और यह देखते देखते जीने के बुनियादी सामानों की कीमतों में वृद्धि , समानता और निजी करण के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन में बदल गया। अक्टूबर के अंत में लाखों लोग सड़क पर उतर आए। राष्ट्रपति के इस्तीफे की मांग शुरू हो गई। 26 अक्टूबर को सुरक्षा बलों की गोलियों से 19 आदमी भून दिए गए, लगभग  हजार लोग घायल हुए और लगभग इतने ही लोगों को गिरफ्तार किया गया। लोगों के विरोध को देखते हुए राष्ट्रपति किन्नेरा को अपने आठ एवं मंत्रियों को हटाना पड़ा और वहां की संसद को नए संविधान के निर्माण के लिए जनमत संग्रह की घोषणा करनी पड़ी । इस जनमत संग्रह के लिए इस वर्ष अप्रैल में तय किया गया है।
      वेनेजुएला और बोलीविया में भी आंदोलन शुरू हुए और राष्ट्रपति को पद त्यागना पड़ा। 21 नवंबर 2019 को कोलंबिया में राष्ट्रपति युवान को पद छोड़ना पड़ा। यह प्रदर्शन देशव्यापी था। पिछले साल इराक में भी  आंदोलन हुए और इसमें 300 लोग मारे गए। 1 अक्टूबर से 26 अक्टूबर के बीच एक भी ऐसा दिन नहीं रहा जब इराक के राष्ट्रपति  के खिलाफ प्रदर्शन नहीं हुए। प्रदर्शनकारियों ने अभाव और और बेरोजगारी जैसे मुद्दों के खिलाफ प्रदर्शन किया।
     लेबनान में एक नए किस्म  का जन आक्रोश दिखाई पड़ा। लंबे समय से धार्मिक तथा अन्य आधारों पर जनता के बीच बनी खाई को पाटते हुए हजारों की संख्या में लोग सड़कों पर उतर आए। इसकी शुरुआत इंटरनेट वॉइस कॉल की फीस में वृद्धि को लेकर हुई थी।  देखते ही देखते देशव्यापी आंदोलन बन गया । अंत में प्रधानमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा। इक्वाडोर में भी ईंधन सब्सिडी और अन्य जन कल्याणकारी योजनाओं में कटौती के खिलाफ प्रदर्शन हुए और अंत में सब्सिडी में कटौती वापस लेनी पड़ी। 2018 में येलो वेस्ट आंदोलन आरंभ हुआ। फ्रांस को बड़े आंदोलनों और प्रदर्शनों का सामना करना पड़ा आंदोलन कई दिनों तक जारी रहा और अंत में राष्ट्रपति मैक्रोन को आंदोलनकारियों की बात माननी पड़ी। इस बीच प्रदर्शनकारियों और सुरक्षाबलों में टकराव की कई घटनाएं हुई। बुनियादी लोकतांत्रिक मौलिक अधिकारों को लेकर हांगकांग में शुरू हुए। विरोध थम नहीं रहे हैं । 16 जून को यहां आंदोलन शुरू हुआ था। करीब दो लाख लोग सड़कों पर उतर गए थे। विश्वविद्यालय और अन्य शिक्षा संस्थान संघर्षों के केंद्र बन गए । सड़कों पर सुरक्षाबलों और प्रदर्शनकारियों के बीच टकराव आम बात हो गई। 2019 के जलवायु परिवर्तन के खिलाफ व्यापक आंदोलन चलता रहा। फ्रांस से लेकर स्पेन तक और यूरोप के अधिकांश देशों में वैश्विक तापमान में वृद्धि को रोकने के प्रति सरकारों की अनिच्छा के प्रति व्यापक गुस्सा देखा गया।
         साल खत्म होते-होते भारत में भी बड़े पैमाने पर जनता सीएए, आर सी के खिलाफ सड़कों पर उतर आई। 10 साल पहले अरब स्प्रिंग के नाम से जो आंदोलन शुरू हुआ था वह 2019 के विरोध प्रदर्शन तक चालू रहा। इसकी सबसे बड़ी खूबी यह थी की इसका कोई नेतृत्व नहीं कर रहा था। स्पष्ट रूप से कोई स्थापित राजनीतिक दल या नेता इसका नेतृत्व नहीं कर रहा था, बल्कि इनके प्रति एक व्यापक मोहभंग दिखाई पड़ रहा था। जनता की सामूहिक पहल  मुख्य थी।  आज भी परंपरागत स्थापित विपक्षी राजनीतिक दल या नेता इसमें नेतृत्व नहीं कर रहा है। इन विरोध प्रदर्शनों में देशव्यापी स्तर पर प्रदर्शनकारियों को जोड़ने वाली योजना बनाने का सबसे बड़ा उपकरण ऑनलाइन और ऑफलाइन सोशल मीडिया रहा है। भारत में भी जो प्रदर्शन चल रहे हैं उन्हें भी यह प्रवृत्तियां देखी जा सकती हैं।


Friday, January 17, 2020

मन में कोई चोर छुपा है क्या?

मन में कोई चोर छुपा है क्या?

इन दिनों एक कविता बहुत वायरल हो रही है उसका शीर्षक है "हम कागज नहीं दिखाएंगे।" दरअसल इस कविता को नागरिकता संशोधन अधिनियम (सी ए ए) का विरोध करने वाले लोगों "पंचलाइन" बन गई है। इसमें यह दिखाने के प्रयास है कि भारत अविभाजित है, सी ए ए को लागू करने वाले इसे बांटना चाहते हैं। " जहां राम प्रसाद बिस्मिल है उस माटी को कैसे बांटोगे।" लेकिन इसी के उलट एक और कविता वायरल हो रही है फेसबुक और अन्य सोशल मीडिया पर कि " क्या मन में कोई चोर छुपा है, इसलिए कागज नहीं दिखाओगे ।" खैर, सीएएए के संदर्भ में यह देखने दिखाने की बात अलग है। अब तो भारत की राजनीतिक पार्टियां और नरेंद्र मोदी की सरकार खुद सूचना साझा करने कि अपनी कानूनी तथा नैतिक प्रतिबद्धताओं से पिछड़ती जा रही है। भारत में चुनाव के दौरान खर्च एक बड़ी समस्या है ,क्योंकि उस खर्च के लिए पैसे कहां से आए , उनका स्रोत कहां है, यह पूरी तरह पारदर्शी नहीं है। विख्यात पत्रकार पौल क्रूगमैन न्यूयॉर्क टाइम्स में  लिखा था कि "भारतीय चुनाव पूरी तरह से काले धन पर ही निर्भर है। राजनीतिक दल चाहे वह कोई भी हो इससे बचने या पूरी सूचना नहीं मुहैया कराने का कहीं न कहीं से उपाय खोजे ले रहे हैं और नए-नए उपाय खुलते जा रहे हैं। " 2017 में  राजनीतिक दलों को धन कहां से मिला इस बारे में आम नागरिक को या तो बिल्कुल जानकारी नहीं थी या थी बहुत मामूली थी। हमारे देश का जो जनप्रतिनिधि कानून है उसके मुताबिक किसी भी राजनीतिक दल को ₹20,000 से अधिक मिले चंदे के स्रोत के बारे में जानकारी देना जरूरी है। बहुत से दल ऐसे हैं जो जरूरी कानून को नजरअंदाज कर जाते हैं । उन्होंने इसके लिए एक शॉर्टकट तलाश लिया है कि जो धन मिला वह 20,000 से कम था। उदाहरण के लिए बसपा के उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक पार्टी ने 13 वर्षों में ₹20,000 से ज्यादा का चंदा ही नहीं लिया। यद्यपि अन्य बड़े दल की जानकारी मिल जाती है और इसी कारण पता चला कि 2017- 18 में दो प्रमुख दलों को सर्वाधिक चंदा "प्रूडेंट इलेक्टरल ट्रस्ट " ने दिया था। इस ट्रस्ट में भारती इंटरप्राइजेज सहित कई कंपनियां शामिल हैं। याद होगा कि  2017 का बजट स्वर्गीय अरुण जेटली ने पेश किया था और इसी बजट से चुनावी बांड की शुरुआत हुई थी। चुनावी बांड के बाद मोदी सरकार ने राजनीतिक दलों पर वित्तीय जवाबदेही के भार को काफी कम कर दिया। एसबीआई की 29 शाखाओं में से किसी से यह बांड खरीदे जा सकते हैं और इन्हें पूरी तरह गोपनीय रखा जाता है। जनता इनके बारे में केवल यही जानती है कि किस पार्टी को कितनी राशि प्राप्त हुई । जनता को यह जानने का कोई अधिकार नहीं है कि राजनीतिक दलों को इतने रुपए कौन दे रहा है। साथ ही साथ चुनावी बांड के जरिए राजनीतिक दलों को मिल रहे धन की मात्रा रोज बढ़ती जा रही है। पार्टियों को मिलने इस धन का अनुपात 2017 -18 और 2018 -19 के मध्य भाजपा को बांड से प्राप्त राशि तीन गुनी हो गई। कांग्रेसी भी  पीछे नहीं रही । इसे प्राप्त चंदे का स्रोत 2.5 प्रतिशत से बढ़कर 40% हो गया। राजनीतिक दल अपनी आमदनी बढ़ाते जा रहे हैं और छानबीन या जांच के दायरे से बाहर निकलते जा रहे हैं। उन्हें यह सुविधा प्राप्त है कि वे प्राप्त धन का कागज नहीं दिखाएंगे।
       सूचना के अधिकार के तहत जब एक करोड़ से अधिक की राशि के चुनावी बांड खरीदने वालों के नाम मांगे गए तो एसबीआई की चिन्हित 23 शाखाओं से जवाब हासिल हुए कि यह सूचना सार्वजनिक नहीं की जा सकती, क्योंकि यह परस्पर विश्वास से जुड़ी है और सूचना के अधिकार से जुड़े कानूनों में इस का कोई प्रावधान नहीं है। यानी, एक तरह से यह सूचना हासिल करने के जनता के अधिकार का उल्लंघन है। सरकार या अधिकारियों में इस विषय के सार्वजनिक व्यापक हितों पर ध्यान नहीं दिया है । अब जिन व्यवसायिक कंपनियों ने अपने व्यवसाय के हितों के लिए राजनीतिक दलों को एक तरह से खरीदा है या तकनीकी तौर पर कहें  अनुगृहीत किया है अब उनके बारे में जनता को कोई जानकारी नहीं मिलेगी । अब  जनता के लिए सरल नहीं रह गया कि निर्वाचित प्रतिनिधियों के लिए किसका हित सर्वोपरि है, आम जनता का या उन व्यवसायिक घरानों का जिन्होंने उन्हें भारी चंदे दिए । इस स्थिति से एक गंभीर कन्फ्यूजन पैदा होगा।  टकराहट शुरू होगी समाज में विवाद बढ़ेगा। राज्यसभा के सदस्यों के लिए भी कुछ कानून है कि वह अपने धन के स्रोत की जानकारी दें। लेकिन, ऐसा नहीं होता। सांसदों के लिए बनाई गई है व्यवस्था आदर्श नहीं है इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कि भगोड़े शराब व्यापारी   किंगफिशर एयरलाइंस का मालिक विजय माल्या नागरिक उड्डयन से जुड़ी संसदीय समिति का सदस्य स्वयं इसका गवाह है। इससे सरकार के प्रति आम जनता में एक खास किस्म का दुराव होता जा रहा है। गौर करें, यह केवल भाजपा सरकार से नहीं है किसी भी सरकार से है। राजनीतिज्ञों को आम जनता धन के मामले में ईमानदार नहीं समझती है। उन्हें जनसेवक की सुविधाएं प्राप्त हैं लेकिन जनसेवा के मामले में उन पर भरोसा करना मुश्किल है क्योंकि एक कहावत है हमारे देश में जो राजनीति करते हैं इससे ज्यादा दौलत कमाते हैं। उन्हें अपने आय के स्रोत को छिपाने की सुविधाएं हासिल हैं । उन्हें अपनी आमदनी के  कागज नहीं  दिखाने पड़ते हैं और न पड़ेंगे। वे कागज नहीं दिखाएंगे और जब कागज नहीं दिखाएंगे तो यहां वही बात आती है:
    मन में कोई चोर छुपा है,
   क्यों कागज नहीं दिखाओगे


Thursday, January 16, 2020

गिरती अर्थव्यवस्था और आम आदमी

 गिरती अर्थव्यवस्था और आम आदमी

देश में तमाम तरह के आंदोलन चल रहे हैं। कश्मीर से कन्याकुमारी तक शाहीन बाग से कैसरबाग किसी न किसी कारण आंदोलित है। लेकिन जो सबसे मूल मुद्दा है वह है आम आदमी की जेब में थोड़े से पैसे और पेट में थोड़े से अनाज का a से होता अभाव। जो लोग आंदोलन कर रहे हैं शायद उनके पास खाने के लिए कुछ है लेकिन जो गुस्सा एक बड़ी आबादी के मन में सुलग रहा है वह गुस्सा धारा 370 ,सी ए ए ,एनआरसी, एनपीआर, टुकड़े टुकड़े गैंग और शाहीन बाग के नारों से अलग है। यह गुस्सा कब फटेगा यह तो मालूम नहीं लेकिन इसका असर पड़ना शुरू हो गया है। रोजगार खत्म हो रहे हैं बच्चों की पढ़ाई बंद होती जा रही है:
     भूख चेहरे पर लिए चांद से प्यारे बच्चे
       बेचते फिरते हैं गलियों में गुब्बारे बच्चे

एसबीआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक कर्मचारी भविष्य निधि आंकड़े बताते हैं की कम वेतन वाली नौकरियों में भी छटनी शुरू हो गई है।   2019-20 के ट्रेंड को देखते हुए कहा जा सकता है कि नौकरियों में भारी कमी आएगी। देश में आर्थिक विकास को लेकर लंबे समय से चिंता प्रगट की जा रही थी। सरकार ने इससे निकलने के लिए बीच-बीच में कई आर्थिक सुधार किए, कई घोषणाएं की ताकि लोगों की उम्मीद बनी रहे। फिर भी, हालात में कोई खास बदलाव नहीं है। ऐसे में नौकरियों में कटौती ,बढ़ती महंगाई और देश की आर्थिक वृद्धि दर में कमी इन तीनों मोर्चों पर निराशा मिलने का लोगों की आर्थिक स्थिति पर क्या असर होगा और आने वाले वक्त में इसके मायने क्या होंगे:
    दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
      तुझसे भी दिल फरेब है गम रोजगार के
कुछ विशेषज्ञों का कहना है, फिलहाल लोगों के लिए मुश्किलें हैं लेकिन आने वाले दिनों में राहत होगी। सब्जियों की कीमतें गिरेगी क्योंकि बाज़ार में नई फसल आ जाएगी। लोगों पर बढ़ती सब्जियों की कीमतों का बोझ कम होगा। इससे थोड़ी राहत मिलेगी महंगाई की मार से। लेकिन जहां तक नौकरियों का सवाल है अगर नौकरियां कम हो जाएंगी तो अनुमान लगाया जा सकता है जिनके पास नौकरियां हैं उनकी वेतन वृद्धि भी घटेगी या वेतन में कटौती होगी और जो नौजवान  नौकरी ढूंढ रहे हैं उनके लिए यह बड़ा दर्दनाक होगा:
   
कॉलेज के सब बच्चे चुप हैं कागज की नाव लिए
चारों तरफ दरिया की सूरत फैली हुई बेकारी है
   
आर्थिक वृद्धि को देखें तो उससे साफ जाहिर है मंदी चल रही है। बाजार में नकदी की कमी है जिसका असर लोगों के खर्च करने की क्षमता पर पड़ रहा है। आरबीआई हर दो महीने में होने वाली बैठक में ब्याज दर में कटौती करता है और फरवरी की बैठक हो सकता है ब्याज दर बढ़ा दे। लेकिन अगर ब्याज दर बढ़ाई जाती है तो उसका असर बड़ा खराब होगा। जिन्होंने बैंक से कर्ज लिया हुआ है वह परेशानी में पड़ जाएंगे । इसलिए संभावना है ब्याज दर ना बढ़ाई है। लेकिन, सरकार के अपने खर्चे हैं। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले 2 वर्षों से तीन बार आर्थिक सुधारों की घोषणा की लेकिन उससे कुछ नहीं हुआ। इसके पीछे कई कारण हैं। जैसे जीएसटी लागू हुआ उसका असर कई क्षेत्रों पर हुआ। लोगों को इसे समझने में समय लगा। तब तक इसकी भयंकर आलोचना होती रही और लोग उसे मंदी के लिए दोषी बताते रहे लेकिन जब बात समझ में  आई तो लगा  यह एक अच्छा कदम है। इससे आगे चलकर फायदा होगा। वैसे विपक्षी दलों को अपने फायदे के लिए या कहें राजनीतिक फायदे के लिए लोगों को गुमराह करना जरूरी है। लोग उनकी बातों में आ जाते हैं और फिर चाहे 370 विरोधी आंदोलन हो या आर्थिक मंदी के सब कुछ सरकार विरोधी नजर आने लगता है। सरकार का रुख देखकर यह कहा जा सकता है कि आने वाले समय में सुधार की कोशिशें शुरू होंगी। वैसे निजी क्षेत्र निवेश से कतरा रहा है सरकार को बुनियादी ढांचे जैसे कोयला स्टील बिजली में निवेश करना होगा ताकि नौकरियां पैदा की जाए । अगर सरकार दो से ढाई लाख करोड़ सड़क ,रेलवे या शहरी विकास में खर्च करती है इससे जुड़े उद्योग से सीमेंट, स्टील ,मशीनरी में लाभ होगा और उससे विकास होगा नौकरियां बढ़ेंगी
        अर्थव्यवस्था में समय-समय पर ऐसा होता है। हां ,भारत में 1991- 92 के  बाद ऐसी स्थिति देखने को नहीं मिली है। लेकिन इससे एक खास किस्म का भय तो जरूर व्याप गया है । परंतु यह तय है कि सरकार जिस तरह से काम कर रही है उसमें साल दो साल में सकारात्मक नतीजे जरूर आएंगे। 2019 में बनी सरकार का पहला बजट पेश होने में एक पखवाड़े से भी कम समय रह गया है।   इस बजट में भी आर्थिक मोर्चे पर लड़ाई दिखेगी। सरकार की कोशिश होगी कि आम आदमी को थोड़ी राहत मिले उसके पास पैसे आ सकें। मंदी की वजह से लोग पैसा खर्च नहीं कर पा रहे हैं:
    अपने बच्चों को मैं बातों में लगा लेता हूं
    जब भी आवाज लगाता है खिलौने वाला

सरकार की कोशिश होगी कि ग्रामीण रोजगार का सृजन हो ताकि ग्रामीण क्षेत्रों में निवेश हो सके और वहां से पैसा आए। अर्थव्यवस्था में जितनी मांग होनी चाहिए वह भी कम है। निर्यात घटा है और निजी क्षेत्र से निवेश  कम हुआ है । जिसकी वजह से आर्थिक वृद्धि दर घट रही है । रोजगार सीधे आर्थिक विकास पर निर्भर है । अगर हमारी जीडीपी 6 से 7% हो जाएगी तो रोजगार अपने आप बढ़ जाएगा। पिछले 3 साल में यही हुआ कि नोटबंदी और जीएसटी से छोटे उद्योगों को दिक्कत आई और रोजगार में कमी हो गई । लेकिन सरकार की मंशा रोजगार बढ़ाने की है । यह स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है वरना इतने आंदोलनों को दबाकर बहुत कुछ किया जा सकता था। आपात स्थिति का उदहारण हमारे सामने  है। इन आंदोलनों से सरकार का सख्ती से पेश नहीं आना इस बात का सबूत है कि सरकार आर्थिक स्थिति के विकास की कुछ न कुछ विचार कर रही है:
     आने वाले जाने वाले हर जमाने के लिए
       आदमी मजबूर है राहें बनाने के लिए


Wednesday, January 15, 2020

8 करोड़ अदृश्य बच्चे! ओ माय गॉड!!

8 करोड़ अदृश्य बच्चे! ओ माय गॉड!!

एन पी आर, सीएएए और कई तरह के प्रदर्शनों के बीच यह खबर चौंकाने वाली है कि हमारे देश में कुल 8 करोड़ से ज्यादा बच्चे ऐसे हैं जिनका कोई रिकॉर्ड नहीं है। सरकार एक तरफ जनसंख्या का रिकार्ड बनाना चाहती है तो दूसरी तरफ बिना रिकार्ड और जन्म प्रमाण पत्र के बच्चों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है ।
     जन्म और मृत्यु पंजीकरण कानून 1969 के तहत जन्म और मृत्यु का पंजीकरण 21 दिन के भीतर करवाना अनिवार्य है लेकिन हाल में रजिस्ट्रार जनरल आफ इंडिया के सिविल रजिस्ट्रेशन सिस्टम की ओर से दिए गए आंकड़ों से पता चलता है 2017 में जन्म के 84.9% और मृत्यु के 79.6% का ही पंजीकरण हुआ था बाकी ना बच्चे पैदा हुए और ना लोग मरे। कैसी विडंबना है ,एक ऐसे देश में जहां जनसंख्या  के आंकड़े तैयार किए जा रहे हैं और उसे लेकर पूरे देश में बवाल मचा हुआ है। जिन बच्चों के जन्म का पंजीकरण नहीं हुआ है, यूनिसेफ के मुताबिक उनके बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती यह भारत के लिए ही केवल  विचित्र नहीं है बल्कि  कई देशों में ऐसा होता है। आंकड़ों के मुताबिक दुनिया में 16.6 करोड़ बच्चे ऐसे हैं जिनका जन्म पंजीकरण नहीं हुआ है। इन  16.6 करोड़ बच्चों में आधे से ज्यादा यानी फ़र्ज़ करें लगभग 8 करोड़ से अधिक ऐसे बच्चे हैं जो भारत में रहते हैं। यूनिसेफ की 2019 की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में पिछले 5 साल से 5 साल से कम उम्र के लगभग 2.6 करोड़ ऐसे बच्चे हैं  जिनके जन्म का रजिस्ट्रेशन नहीं हुआ। जन्म का पंजीकरण एक बच्चे को ऐसी कानूनी मान्यता देता है जो उसकी पहचान बनता है। यही एकमात्र सबूत होता है कि बच्चा किस देश में जन्म लिया है और कब उसका जन्म हुआ है।  बच्चे का जब पंजीकरण नहीं होता तो बाद में गणना भी नहीं हो सकती । जनगणना तभी होगी जब बच्चे जीवित बच जाएंगे। आई एस आई के मुताबिक भारत में शिशु मृत्यु दर खासकर 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर  ज्यादा है इस कारण बहुत से बच्चों की शायद कभी गिनती नहीं हो पाती। जन्म पंजीकरण में तेजी 2000 के दशक में शुरू हुई जब अस्पतालों और स्वास्थ्य केंद्रों में बच्चों की जन्म दर बढ़ने लगी। इससे पहले बच्चे घरों में पैदा लेते थे जिनका कोई रिकॉर्ड नहीं था। 2000 से पहले जन्मे बच्चों में बहुत के पास प्रमाण पत्र या फिर स्कूल लिविंग सर्टिफिकेट नहीं होंगे या उनके पास एक से अधिक दस्तावेज होंगे। कई दस्तावेज  ऐसे हो सकते हैं जिसमें अलग-अलग जन्मतिथि लिखी हुई है । इसमें कोई इरादा गलत नहीं है लेकिन मां-बाप के पास कोई सही तारीख नहीं होने के कारण तारीखें अलग अलग  हो जातीं हैं।
         सिविल रजिस्ट्रेशन सिस्टम आंकड़ों के मुताबिक भारत में 2017 में पैदा हुए बच्चों में से 84.9% बच्चों का जन्म प्रमाण पत्र बना। जबकि 2008 में  यह अनुपात 76.4 प्रतिशत से अधिक था। सन 2000 में यह अनुपात 56.2% था। इसका अर्थ हुआ इस वर्ष जन्मे बच्चों में से लगभग आधे या उससे कुछ ज्यादा बच्चों का जन्म पंजीकरण नहीं हो सका। ऐसे बच्चे सरकार के रिकॉर्ड में कहीं नहीं हैं और उनके कल्याण के लिए सरकार कुछ नहीं कर सकती है। बात यहीं तक हो तो गनीमत है हमारे देश में 9 राज्य और केंद्र शासित प्रदेश है ऐसे हैं जिनमें जन्म के पंजीकरण की दर राष्ट्रीय दर से कम है। इनमें से चार बड़े राज्य हैं उत्तर प्रदेश 61.5 % ,बिहार 73.7% ,मध्य प्रदेश 74.6% और तत्कालीन जम्मू और कश्मीर 78.8 प्रतिशत है । 2017 में सीआर एस की रिपोर्ट में केवल 20 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में जन्म और मृत्यु प्रमाण पत्रों के बारे में जानकारी है। जिन राज्यों में इसके बारे में जानकारी नहीं दी उन्होंने इसके पीछे कर्मचारियों की कमी ,सॉफ्टवेयर और नेटवर्क की समस्याएं जैसी बात है बनाई हैं।
         किसी भी आंदोलन का सबसे पहला शिकार या सबसे पहला निशाना गरीब और कमजोर तबके के लोग ही होते हैं । क्योंकि उन्हें उनके अस्तित्व के संघर्ष के नाम पर निहित स्वार्थी नेताओं द्वारा आंदोलनों में झोंक दिया जाता है। लेकिन विडंबना है कि भारत में शहरी क्षेत्रों में रहने वाले 5 साल से कम उम्र के सभी बच्चों में से 77% का जन्म पंजीकरण हुआ है बाकी 23% बच्चे अदृश्य हैं। यह अदृश्य बच्चे कहां के हैं, कैसे हैं कहां रहते हैं और उनकी आजीविका क्या है या फिर भविष्य में उनकी आजीविका का कैसे बंदोबस्त हो इस बारे में सरकार को अंधेरे में रखा गया है। यही नहीं ग्रामीण क्षेत्रों में भी हालत अच्छी नहीं है  एन एफ एच एस -4 के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्र में हालत और खराब है। इन क्षेत्रों में  56.4% ही पंजीकरण हुआ है। परिवार की संपत्ति के मुताबिक भी इस आंकड़े में बड़ा अंतर है। यानी सबसे धनी समूह के 5 साल में से कम उम्र के 82.3% बच्चों के जन्म का रजिस्ट्रेशन हुआ था और उनके पास जन्म प्रमाण पत्र था जबकि सबसे गरीब समूह में यह आंकड़ा केवल 40.7% का था। इसके अलावा सबसे गरीब वर्ग से  संबंधित प्रत्येक चौथे बच्चे यानी 23% के जन्म का पंजीकरण होने के बावजूद उनके पास जन्म प्रमाण पत्र नहीं था। अब ऐसे में योजनाओं का क्या स्वरूप होगा और खास करके कल्याणकारी योजनाओं का क्या हाल होगा, इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है ।  सरकार अंतिम व्यक्ति तक मदद नहीं पहुंचा पाती या कल्याणकारी योजनाओं का लाभ नहीं होता  तो इसका क्या हश्र होगा आसानी से समझा जा सकता है। सरकार के खिलाफ विपक्ष अगर इसका उपयोग करता है तो बहुत गलत नहीं होगा।


Tuesday, January 14, 2020

महंगाई के बेहद बुरे दिन

महंगाई के बेहद बुरे दिन 

सी ए ए और एनआरसी की सुलगती आंच के बीच सहसा खबर आई कि महंगाई की दर 7. 35% बढ़ गई। यह विगत 5 वर्षों में सबसे ज्यादा थी। हालांकि रिजर्व बैंक का अनुमान था कि महंगाई की दर 4% बढ़ेगी पर प्याज की आसमान छूती कीमतों से दिसंबर 2019 में खुदरा महंगाई की दर साढे 5 साल के उच्चतम  पर पहुंची। जबकि खाद्य पदार्थों की खुदरा महंगाई की दर 6 साल में सबसे ज्यादा उच्चतम स्तर पर 14.12% रही। कुल महंगाई की दर लगभग पांचवे महीने बढ़ी है। खाद्य खुदरा महंगाई की दर लगातार दसवें महीने बढ़ी। जबकि फरवरी 2019 में यह ऋणात्मक  थी। रिजर्व बैंक ने मुद्रास्फीति को 4% के दायरे में रखने का लक्ष्य किया था। अब बैंक के लक्ष्य से कहीं अधिक बढ़ गई महंगाई। मोदी सरकार के कार्यकाल में पहली बार खाने पीने की चीजों के दाम इतनी ज्यादा बढ़े हैं। केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक दिसंबर 2019 में सब्जियों की महंगाई की दर 60.50% पर रही। इसका मतलब है कि दिसंबर 2018 की तुलना में पहले महीने सब्जियों के दाम  60.50% बढ़े। दालों एवं उससे बने उत्पादों की महंगाई दर 15. 44% रही। यह लगातार दूसरा महीना है जब खाद्य पदार्थों की महंगाई दर दहाई अंक में रही। नवंबर 2019 में खाद्य खुदरा महंगाई दर 10.01 प्रतिशत थी 1 साल पहले दिसंबर 2018 में 2. 65% ऋणात्मक रही।
           कई साल पहले एक फिल्मी गीत बड़ा मशहूर हुआ था। "महंगाई डायन खाए जात है" यानी घर की जरूरी चीजों को महंगाई के कारण खरीदा जाना बंद हो गया है। डायन हमारे धर्म में एक मुहावरा है जिसका सीधा अर्थ होता है शांतिप्रिय लोगों के घर की सुख शांति छीनने वाली। यह डायन खुद कुछ नहीं करती जो कुछ भी करती है अपने मालिक के आदेश से करती है। इसलिए केवल महंगाई को कोसने से काम नहीं चलेगा। महंगाई के माध्यम से जनता का शोषण होता है और जब तक उस शोषण करने वाले तंत्र पर वार नहीं किया जाता तब तक यह कम नहीं  होगी। महंगाई का प्रभाव पूरे समाज पर समान रूप से पड़ता है ,यह सत्य नहीं है। समाज में दो तरह के लोग होते हैं। एक वे जिनकी  आय का स्रोत मजदूरी है। चाहे वह मजदूरी शारीरिक हो या मानसिक। दूसरी तरफ वे लोग हैं जिनकी आय का स्रोत संपत्ति होती है। यानी ये लोग अपनी दौलत से दौलत कमाते हैं। समाज में भी जो पहले तरह के लोग हैं उनकी भी दो किस्में होती हैं।  एक असंगठित क्षेत्र में काम करनेवाले लोग और दूसरी सरकारी कर्मचारी जैसे लोग , जो असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। पहले किस्म के लोगों की आय पूरी तरह जड़ता से जुड़ी होती है और जो सरकारी कर्मचारी है उनकी थोड़ी बहुत आय बढ़ जाती है। महंगाई सदा संपत्ति धारी वर्ग के पक्ष में होती है। क्योंकि ,महंगाई के दौर में संपत्ति की कीमतें बढ़ती जाती हैं फलस्वरूप उनका लाभ बढ़ता जाता है। अगर महंगाई थोड़ी कम हुई तो सबसे ज्यादा हाय तौबा मचाने वाले यही लोग होते हैं।
        अर्थशास्त्र के सिद्धांत के अनुसार महंगाई बढ़ने से आर्थिक विकास  रुकेगा और आर्थिक मंदी आएगी। इसका सबसे ज्यादा असर रोजगार पर पड़ेगा। अर्थव्यवस्था में सुस्ती से चालू वित्त वर्ष में नौकरियों के अवसर पिछले वर्ष के मुकाबले कम हुए हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार चालू वित्त वर्ष में 16 लाख से कम नौकरियों के सृजन का अनुमान है। पिछले वित्त वर्ष में यानी 2018 -19 में 89.7 लाख रोजगार के अवसर पैदा हुए थे।  रिपोर्ट के अनुसार असम ,बिहार ,राजस्थान ,उत्तर प्रदेश और उड़ीसा जैसे राज्यों में मजदूरी के लिए बाहर गए व्यक्तियों की ओर से घर भेजे जाने वाले धन में कमी हुई है यानी एक तरफ महंगाई बढ़ी है और दूसरी तरफ छटनी के कारण ठेका श्रमिकों की संख्या कम हुई है। बंगाल ,पंजाब ,गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में रोजगार के लिए आए मजदूरों द्वारा अपने घर पैसा भेजा जाता है । जो वहां की अर्थव्यवस्था को संभाले रखता है। खासकर कृषि अर्थव्यवस्था को।  ईपीएफओ के आंकड़ों के अनुसार 2018 -19 में 89.7 लाख नए रोजगार के अवसर उत्पन्न हुए थे। चालू वित्त वर्ष में यह घटकर उसके 15.8% हो जाने का अनुमान है। अब हमारे अर्थशास्त्री कहते हैं इस मंदी का कारण लोगों की क्रय शक्ति का बढ़ना  है । लेकिन हैरत होती है कि  यह क्रय शक्ति बढ़ती कैसे है? रोजगार है नहीं ,महंगाई के कारण खरीदने की ताकत कम हो गई और लोग खरीद नहीं पाते हैं । इसलिए महंगाई बढ़ने के पीछे आम लोगों की क्रय शक्ति का बढ़ना एक तरह से दूर की कौड़ी खोज कर लाना है। आम आदमी के खाने की थाली में पोषक तत्व धीरे-धीरे गायब हो गए। फलतः बीमारियां बढ़ी और इलाज में पैसा जाने लगा। आहिस्ता आहिस्ता लोगों की खरीदने की ताकत कम  हो जाती है और आर्थिक मंदी बढ़ने लग जाती है।
      दूसरी तरफ हमारे देशी खाद्यान्न धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे हैं और उसकी जगह ज्यादा उत्पादन वाले चुनिंदा खाद्यान्न की उपज बढ़ाने पर जोर दिया जा रहा है। इसका नतीजा यह होता है कि कृषि महंगी पड़ने लगती है और इसके कारण किसान धीरे-धीरे मजदूर बन् जाता  है । खेती छूट जाती है और अनाज घट जाता है । लिहाजा खाने की थाली में अन्न नहीं होता। जिनके पास आय हैं वह तो गुजर कर लेते हैं लेकिन जिनके पास कुछ नहीं है सिवा कहने को थोड़े से खेत या फिर बिल्कुल कुछ नहीं वह लोग महंगाई का शिकार बन जाते हैं। महंगाई धीरे-धीरे बढ़ने लगती है और इससे बढ़ने लगती है समाज में अव्यवस्था। अगर समाज को व्यवस्थित ढंग से चलाना है तो सबसे पहली चीज है के लोगों की बुनियादी जरूरतें पूरी हों वरना सारी योजनाएं केवल कागजों पर ही रह जाएंगी।
       


Monday, January 13, 2020

पाकिस्तान को देना होगा उत्तर

पाकिस्तान को देना होगा उत्तर

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार को विश्व प्रसिद्ध बेलूर मठ में अपने एक संबोधन के दौरान कहा कि नागरिकता संशोधन विधेयक ( सी ए ए) को लेकर विपक्षी दल नौजवानों को भड़का रहे हैं ,उन्हें गुमराह कर रहे हैं । मंत्री ने कहा यह कानून लोगों से नागरिकता लेने के लिए नहीं नागरिकता देने के लिए है। हावड़ा में बेलूर मठ में एकत्र  जन समुदाय को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि "आज राष्ट्रीय युवा दिवस पर मैं फिर से देश के नौजवानों से, पश्चिम बंगाल के नौजवानों से , उत्तर - पूर्व के नौजवानों से ,जरूर कुछ कहना चाहता हूं। उन्होंने कहा कि, ऐसा नहीं है कि देश की नागरिकता देने के लिए रातों-रात कानून बनाया गया है। हम सबको पता होना चाहिए कि दूसरे देश से किसी भी धर्म के किसी भी व्यक्ति को जो भारत में आस्था रखता है, भारत के संविधान को मानता है ,भारत की नागरिकता ले सकता है। कोई दुविधा नहीं है।" इसमें प्रधानमंत्री ने कहा कि "मैं फिर कहूंगा कि सीएए नागरिकता छीन लेने के लिए नहीं है यह नागरिकता देने के लिए है। इस कानून में भारत की नागरिकता देने के लिए सहूलियत और बढ़ा दी गई है। यह सहूलियत किसके लिए बढ़ी है? यह उन लोगों के लिए बढ़ाई गयी है जिन पर बंटवारे के बाद बने पाकिस्तान में उनकी धर्म - आस्था की वजह से अत्याचार हो रहा है।" प्रधानमंत्री ने कहा हमने वही किया है जो महात्मा गांधी ने दशकों पहले कहा था। क्या हम इन शरणार्थियों को मरने के लिए वापस भेज दें? क्या यह हमारी जिम्मेदारी नहीं है? क्या उन्हें भारत का नागरिक बनाया जाना चाहिए या नहीं? प्रधानमंत्री ने कहा की सीएए को लेकर जो विवाद उठा है उससे दुनिया ने देखा है कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के साथ कितना अत्याचार हो रहा है। अब हमारी इस पहल से पाकिस्तान को दुनिया के सामने जवाब देना होगा कि उसके देश में अल्पसंख्यकों के साथ क्या हो रहा है?
       अब से 22 दिन पहले 22 दिसंबर 2019 को रामलीला मैदान में सीएए का विरोध करने वालों पर प्रधानमंत्री ने कहा इसे लेकर विपक्ष अफवाहें फैला रहा है। यह किसी  की नागरिकता  छीनने के लिए नहीं है बल्कि देने के लिए है । यह पहला वाकया था जब प्रधानमंत्री ने इन विरोध प्रदर्शनों पर चुप्पी तोड़ी थी और इस वाकए के ठीक 22 दिन के बाद प्रधानमंत्री ने सीएए का बचाव लगभग इसी सुर में किया। उन्होंने इस बार भी विपक्ष पर हमने बोले। लेकिन बड़ी अजीब बात है कि प्रधानमंत्री ने जब पाकिस्तान पर निशाना साधा तो वह बांग्लादेश और अफगानिस्तान पर चुप्पी साध गए। उनका कोई जिक्र नहीं किया।
    इतनी अपील और बयानों के बाद भी विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला जारी है। सरकार जनता को संतुष्ट क्यों नहीं कर पा रही है? विरोध , रूसो के मुताबिक, लोकतंत्र की खूबसूरती है। आप जिस विचार को मानते हैं उस पर शत प्रतिशत लोग सहमत हो जाएं ऐसा लोकतंत्र में संभव नहीं है। यह  लोकतंत्र की खूबसूरती है उसमें असहमतियों को जगह दी जाती है। प्रधानमंत्री की चिंता हिंसक घटनाओं को लेकर है। विपक्ष को भी जनता ने ही चुनकर भेजा है। उसका काम है कि देश के खिलाफ अगर सरकार कुछ करती है तो उसका विरोध करें। प्रधानमंत्री के रुख से कितने लोग सहमत या असहमत हैं इसका एक छोटा सा उदाहरण विश्वविद्यालयों से समझा जा सकता है। देश में सरकारी और डीम्ड विश्वविद्यालयों की कुल संख्या 900 है। लेकिन यह विरोध सिर्फ पांच या छः विश्वविद्यालयों में हो रहा है उसमें भी बड़ी संख्या में छात्र ऐसे हैं जो उनके साथ नहीं हैं। इन विरोध प्रदर्शनों में प्रधानमंत्री मोदी के राजनीतिक विरोधी भी हैं। शनिवार को कांग्रेस कार्यकारिणी का एक संकल्प पत्र भी आया था जिसमें स्पष्ट कहा गया था कि वह इसका विरोध करेगी। वामपंथी दल पहले से ही विरोध कर रहे हैं। लेकिन, जामिया मिलिया और जेएनयू में जो विरोध हुआ जिस तरह की हिंसक घटनाएं हुई उसने विरोध प्रदर्शनों को और हवा दे दी और मामला सीएएए से आगे बढ़ गया है। इसमें सबसे जरूरी है कि प्रधानमंत्री छात्रों से बातें करें ।सरकार छात्रों से बातें करे। प्रधानमंत्री इस मामले पर केवल पाकिस्तान पर उंगली उठाते हैं। उन्होंने कभी नहीं कहा कि जामिया की लाइब्रेरी में घुसकर लड़कियों को क्यों पीटा गया? जेएनयू में एक लड़की का सिर क्यों फोड़ा गया? जरा गौर करें, क्या दिल्ली के शाहीन बाग से लेकर कर्नाटक, बंगलुरु ,लंदन और न्यूयॉर्क में होने वाले  विरोध प्रदर्शन राजनीतिक पार्टियों से प्रेरित हैं, शायद नहीं। जो लोग विरोध कर रहे हैं ऐसा नहीं कि वह सत्तारूढ़ पार्टी और उसकी विचारधारा की भी समर्थक हों, लेकिन विपक्षी दलों के प्रदर्शनकारियों की बात बनेगी नहीं। अगर आज यह पार्टियां कह दें कि वे सरकार का समर्थन करती हैं तो कल से प्रदर्शन समाप्त हो जाएंगे ऐसा नहीं है। विरोध प्रदर्शन कर रहे लोगों को भरोसा है कि यह विपक्षी पार्टियां उनका साथ देंगी ,लेकिन वह कितना लड़ेंगे यह स्पष्ट नहीं है। यहां एक बात और है कि राजनीतिक पार्टियों की उतनी भागीदारी नहीं है जितनी प्रधानमंत्री जी और उनके मंत्री बढ़ा चढ़ाकर बोल रहे हैं । प्रधानमंत्री जी ने अपने कोलकाता दौरे में सिर्फ सीएए पर बोला। उन्होंने छात्रों पर कुछ नहीं बोला, जेएनयू के बारे में कुछ नहीं बोला। वह सिर्फ राजनीतिक पार्टियों पर उंगली उठा रहे हैं। सीएए और जेएनयू को लेकर फिल्मी हस्तियां भी विरोध कर रही हैं। यह विरोध प्रदर्शन उदार, आधुनिक चेतना वाले लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। इससे मोदी सरकार को डर हो गया है तभी टुकड़े-टुकड़े गैंग और अर्बन नक्सल जैसे शब्द लेकर आते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रामलीला मैदान में कहा था एनआरसी पर अभी तक मंत्रिमंडल में कोई बातचीत नहीं हुई है। गृह मंत्री अमित शाह ने भी कहा था कि फिलहाल एनआरसी नहीं लाया जा रहा है। लेकिन वे लगातार कहते आए हैं कि पहले सीएए आएगा फिर एनआरसी । प्रधानमंत्री या सरकार यह स्पष्ट भी कर देती है कि एनआरसी नहीं लाया जाएगा  तो क्या यह प्रदर्शन समाप्त हो जाएंगे। क्योंकि यहां बात कुछ लाने की नहीं है बल्कि नीयत की हो रही है अगर वह घोषणा कर भी देते हैं कि एनआरसी नहीं लाया जाएगा तो प्रदर्शनकारी कहेंगे हमें इस पर विश्वास नहीं है सरकार झूठ भी बोल सकती है। पिछले छह-सात महीने के घटनाक्रम को देखें। तीन तलाक कानून , धारा 370, सुप्रीम कोर्ट का अयोध्या पर फैसला कहीं किसी ने विरोध नहीं किया। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि सब उसका समर्थन कर रहे हैं। इस पर एक उलझन पैदा हो गई है। यह कानून भारतीय मुसलमानों के खिलाफ है। अब इंतजार किया जाना चाहिए कि सरकार अगर एनआरसी लाती है उसका तरीका क्या होगा? इसके बाद अगर कोई आपत्ति हो तो विरोध प्रदर्शन करना चाहिए। शायद ऐसा नहीं है। क्योंकि, सरकार यदि इस मसले पर विचार साफ भी कर दे शायद प्रदर्शन  नहीं रुकेगा। क्योंकि इन प्रदर्शनों को पीछे से महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दे हवा दे रहे हैं। भारत जैसे संस्कृति उन्मुख देश में यह कोई नई बात नहीं है। यहां जब भी आंदोलन हुए हैं तो संस्कृति और जातियों को आगे रखा गया है, और सारी बातें उनकी आड़ में हुई है । चाहे वह नानक का सिख आंदोलन हो या  शिवाजी का मराठा आंदोलन हो या गांधी का नमक सत्याग्रह अथवा सत्ता की दौड़ में लक्ष्य तक पहुंचने की हड़बड़ी में भारत का विभाजन हर आंदोलन में कुछ ना कुछ अवांतर तथ्य होता है जो किसी दूसरे मसले की पृष्ठभूमि में खड़ा होता है। यहां भी सीएए के विरोध में कई अन्य सामाजिक आर्थिक कारण हैं। सरकार को उसके प्रति जनता को विश्वास में लेना चाहिए।


Sunday, January 12, 2020

पहले वार्ता फिर धरना

पहले वार्ता फिर धरना 

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने शनिवार को राजभवन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की और उनसे कहा कि वे सी ए ए वापस ले लें साथ ही उन्होंने केंद्र से मिलने वाले रुपयों का भी तकाजा कर दिया।  प्रधानमंत्री ने इस संबंध में   क्या कहा इस बाबत जानकारी नहीं है।  इस मुलाकात के बाद मुख्यमंत्री धरने में शामिल हो गयीं।  तृणमूल छात्र संगठन ने सी ए ए  एनपीआर तथा एनआरसी  के विरुद्ध इस धरने का आयोजन किया था।
    वैसे बंगाल के मानस को संतुष्ट करने के लिए ओल्ड करेंसी बिल्डिंग में आयोजित अपनी सभा में प्रधानमंत्री ने कहा की बंगाल अतुल्य है। पूरे विश्व में एक ही चंद्र है, जबकि बंगाल में कई चंद्र हैं  जैसे सुभाष चंद्रइस धरने का आयोजन जगदीश चंद्र शरतचंद्र वगैरह । मुख्यमंत्री ने जब पुराने पैसे देने को कहा प्रधानमंत्री ने बड़ी शांति से यह कहा कि वे इस पर दिल्ली आकर बात करें। ओल्ड करेंसी बिल्डिंग  प्रधानमंत्री ने कोलकाता की पुरानी बिल्डिंग्स के नवीनीकृत स्वरूप का लोकार्पण किया यहां मुख्यमंत्री भी उनके साथ थीं।
इस बीच वामपंथी कार्यकर्ताओं ने उत्तर 24 परगना जिले के विभिन्न स्थानों पर प्रदर्शन किए उनके हाथ में भक्ति अच्छे जिस पर लिखा था मोदी वापस जाओ उन्होंने दमदम हवाई अड्डे से रैली भी निकाली उनका दावा है कि जब तक यह कानून वापस नहीं दे दिया जाता तब तक हम अपना विरोध जारी रखेंगे इस बीच कांग्रेस ने आरोप लगाया है की मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से गुप्त समझौता कर लिया है।
वैसे नागरिकता संशोधन कानून लागू हो गया है ,फिर भी देशभर में इस पर बहस छिड़ी हुई है । कई शहरों में हिंसा हुई लेकिन सरकार झुकने को तैयार नहीं है और विपक्षी दल अड़े हुए हैं कि सरकार इस कानून को वापस ले ले। अब क्योंकि यह कानून बन गया है ऐसे में इस कानून को लेकर जागरूकता बेहद जरूरी है। सोशल मीडिया में इसे लेकर अफवाह फैलाई जा रही हैं । इन अफवाहों से बचना सबसे ज्यादा जरूरी है। सी ए ए के खिलाफ याचिकाएं दायर की गई है । जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से जवाब मांगा  है । उन याचिकाओं में इस विधेयक को मुसलमानों के खिलाफ भेदभाव पूर्ण बताया गया है और संविधान में सन्निहित समानता के अधिकार का उल्लंघन कहा गया है। यह कानून उन लोगों पर लागू होता है जो धर्म के आधार पर उत्पीड़न के कारण भारत में शरण लेने के लिए मजबूर हैं या मजबूर थे इसका उद्देश्य ऐसे लोगों के अवैध प्रवास की कानूनी कार्रवाई से बचना है। कटऑफ की तारीख 31 दिसंबर 2014 रखी गई  है।
       यह कानून पाकिस्तान अफगानिस्तान बांग्लादेश की हिंदू सिख पारसी बौद्ध और ईसाई के अवैध प्रवासियों की परिभाषा को परिष्कृत करने के लिए निर्धारित किया गया है। जो बिना किसी दस्तावेज के भारत में रहते हैं इस कानून के पीछे केंद्र सरकार का तर्क यह है कि जो अल्पसंख्यक समूह मुस्लिम बहुल बहुसंख्यक देशों में उत्पीड़न से बचने के लिए आए हैं वह हमारी जिम्मेदारी हैं। यद्यपि यह तर्क खुद में ही विवाद से भरा हुआ है।  यह विधायक सभी धार्मिक अल्पसंख्यकों की रक्षा नहीं करता है और ना ही इसमें सभी पड़ोसी देशों के उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों को शामिल किया गया है। अहमदिया मुस्लिम संप्रदाय और शियाओं को पाकिस्तान में भेदभाव का सामना करना पड़ता है। पड़ोसी बर्मा में हिंदुओं को उत्पीड़ित किया जाता है और इसमें या कहें कि इस श्रेणी में लंका की में ईसाइ तमिल भी शामिल हैं। गृह मंत्री अमित शाह का कहना है कि कांग्रेसी यदि धर्म के आधार पर देश के विभाजन के लिए सहमत नहीं होती तो बिल जरूरी नहीं होता। किसी भी तरह देश के सभी संस्थापक एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के लिए प्रतिबद्ध थे जहां सभी नागरिक नागरिकता का आनंद लेते थे चाहे वह किसी भी धर्म के हों। पूरे भारत में नागरिकता संशोधन विधेयक के खिलाफ विरोध किया है जिसमें आम जन भीषण, क्रूर तथा विभिन्न विचारधाराओं के  से जूझ रहा है।
      यद्यपि इंटरनेट प्रतिबंध वह विभिन्न शहरों में भाई और अशांति को कानून और व्यवस्था की कमजोरी के रूप में नहीं लिया जा सकता है। लेकिन ,पूरी तरह से पुलिस और सरकार को दोष देने से कुछ नहीं होता है। सीएए के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोगों पर पुलिस कार्रवाई में उत्तर प्रदेश में 20 लोग कथित तौर पर मारे गए । उत्तर प्रदेश में एक वीडियो वायरल हो रहा है जिसमें एक पुलिस वाले को यह कहते दिखाया जा रहा है कि " विरोध करने वालों को पाकिस्तान चला जाना चाहिए।" ऐसी उम्मीद पुलिस से नहीं थी। देश के विभिन्न हिस्सों में सीएए के समर्थन में रैलियां हुई हैं। उनमें भीड़ भी जुटी है बीजेपी ने रैलियों के माध्यम से इस से जुड़े भ्रम दूर करने का प्रयास कर रही है तो वहीं कांग्रेस - सपा हिंसा में मारे गए युवकों घर जाकर उनके परिजनों के जख्म पर मरहम लगाने क्या काम कर रही थी। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि हर पार्टी अपने राजनीतिक फायदे और नुकसान के हिसाब से इस मुद्दे का इस्तेमाल कर रही है । एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का नागरिक होने के कारण यह हमारा दायित्व है कि आधारहीन भय ना फैलाएं। सभी संपत्तियों को जलाने पुलिसकर्मियों को मारने और एक नकारात्मक प्रभाव का हिस्सा बनने से बचें।


Friday, January 10, 2020

अभाव के कारण भड़कते दंगे

अभाव के कारण भड़कते दंगे

ईमान फिर किसी का नंगा हुआ
सुना है फिर शहर में दंगा हुआ
हाल में जारी नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो  की रिपोर्ट में दंगों के बदलते कारणों के बारे में बताया गया है। कुल मामलों की संख्या घटी है खास करके सांप्रदायिक और राजनीतिक मसलों पर होने वाले दंगों की संख्या में गिरावट आई है दूसरी तरफ औद्योगिक और जल संबंधी कारणों से होने वाले दंगों की संख्या बढ़ी है। देशभर में नागरिकता संशोधन कानून (सी ए ए) तथा  एनआरसी को लेकर विरोध जारी है। इसी के बीच सरकार द्वारा जारी अपराध के आंकड़ों में बताया गया है कि 2017 के मुकाबले 2018 में जो दंगे हुए हैं उनका मुख्य कारण आर्थिक था राजनीतिक नहीं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक 2017 की तुलना में 2018 में जो दंगे फसाद हुए उनके पीछे औद्योगिक और जल संबंधी कारण थे ना कि 2017 की तरह सांप्रदायिक राजनीतिक, कृषि तथा छात्रों से संबंधित मामले थे। आंकड़े बताते हैं 2018 में इससे पहले वाले साल की तुलना में औद्योगिक विवाद ढाई गुना बढ़ा है लगभग इतना ही जल संबंधी कारणों से हिंसा की संख्या में वृद्धि हुई है । 2018 में सार्वजनिक शांति को भंग करने के  76, 851 मामले हुए जबकि 2017 में 78,051 मामले दर्ज किए गए। इनमें से 90% मामले दंगे फसाद के थे और बाकी धारा 144 को भंग करने या कह सकते हैं गैर कानूनी ढंग से इकट्ठे होने इत्यादि के थे।
         यह आंकड़े आर्थिक मंदी और ग्रामीण क्षेत्रों में लगातार हो रहे जल संकट के बीच आए हैं और इन आंकड़ों का विश्लेषण विभिन्न क्षेत्रों के सामाजिक आर्थिक  आंकड़ों के बरक्स ही किया जा सकता है। इन आंकड़ों को यदि सामाजिक -आर्थिक आंकड़ों के  त्रिपाश्व में देखें तो पता चलेगा जिन क्षेत्रों में ज्यादा आर्थिक तनाव रहे है उन क्षेत्रों में दंगे ज्यादा होते हैं । 2016 में भयंकर किसान आंदोलन हुए थे। उनकी पृष्ठभूमि में कृषि संकट था। एनसीआरबी के आंकड़े के मुताबिक 2017 में औद्योगिक फसादों की संख्या 178 थी जबकि 2018 में यह बढ़कर 440 हो गई। जल संबंधी कारणों से होने वाली हिंसक घटनाएं 2017 में 432 जो 2018 में 838 हो गई। यदि इनकी तुलना अन्य कारणों से होने वाले दंगों या हिंसक घटनाओं से की जाए जैसे सांप्रदायिक छात्र आंदोलन राजनीति या किसान संबंधी कारणों से की जाए तो आंकड़े बताते हैं कि 2018 में 2017 के मुकाबले इन घटनाओं में एक चौथाई कमी आई है। सांप्रदायिक दंगे तो लगभग 30% कम हो गए जातीय विवाद लगभग 20% कम हो गए। जबकि किसान आंदोलनों में 35% की गिरावट हुई है यहां तक कि जमीन संबंधी झगड़ों के बाद होने वाली हिंसक घटनाओं में 2017 के मुकाबले 2018 में 4% की कमी हुई है।
        एक तरफ सांप्रदायिक दंगे कम हुए हैं दूसरी तरफ लोगों की भावनाओं को भड़काने तथा घृणा फैलाने के मामले बढ़े हैं। आंकड़े बताते हैं की विद्वेष फैलाने के मामलों में लगातार वृद्धि होती गयी है और 2016 से 2018 के बीच यह दुगनी हो गई। देशभर में पुलिस ने 2016 में ऐसे 478 मामलों को दर्ज किया जबकि 2017 में या बढ़कर 958 हो गया और 2018 में इसकी संख्या 1114 हो गई । उग्र समूहों द्वारा दंगे भड़काने के कई मामले भी इन आंकड़ों में दर्ज हुए हैं । ऐसा पहली बार हुआ है लेकिन आंकड़ों के चरित्र को देखकर लगता है कि इन्हें अनिच्छा से  दर्ज किया गया है या फिर राज्य क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने इनकी कोटि अलग बता दी है। उग्र समूह द्वारा इन दंगों की संख्या आलोच्य अवधि में केवल दो थी जोकि 2018 में बढ़कर 4 हो गई । यहां यह बताना जरूरी है कि एनसीआरबी के आंकड़े पुलिस की एफ आई आर पर आधारिक होते हैं और एफ आईआर अत्यंत घातक अपराधों के फलस्वरूप ही दर्ज की जाती है। मसलन अगर कोई उग्र समूह मारपीट करता है और उसने किसी की मौत हो जाती है तो उस घटना को हत्या की श्रेणी में दर्ज किया जाएगा ना कि दंगा माना जाएगा। दंगे से जुड़ा एक अन्य पहलू भी है वह है सार्वजनिक संपत्ति को बर्बाद करने से रोकथाम करने वाला कानून हाल में सीए ए और एनआरसी पर बहुत बातें हुई खास करके उत्तर प्रदेश में सरकार ने सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुंचाने वालों से पैसे वसूलने के लिए नोटिस अभी भेजी है। 2017 में इस कानून के तहत 7910 मामले दर्ज किए जबकि 2018 में मामले में 7127 मामले ही दर्ज की जा सके।
          अगर राज्यवार आंकड़ों का विश्लेषण करें तो पता चलेगा कि उत्तर प्रदेश में पहली बार दंगाइयों पर बल का प्रयोग नहीं हुआ है 2018 में उत्तर प्रदेश में दंगाइयों पर बल प्रयोग की 2388 घटनाएं हुई थी जबकि तमिलनाडु में 2230 और हरियाणा में 415 घटनाएं 2017 में भी उत्तर प्रदेश बहुत पीछे नहीं  था। 2017 में इस राज्य में 1933 बल प्रयोग की घटनाएं इस अवधि में हरियाणा में 2562 और तमिलनाडु में 1790 घटनाएं  हुई इन कारणों को देखते हुए यह स्पष्ट होता है की हमारे देश में जब-जब  आर्थिक अभाव बढ़ा है तब तब सरकार के खिलाफ जनता में गुस्सा भड़का है।