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Thursday, February 28, 2019

भारत को सावधान रहना होगा 

भारत को सावधान रहना होगा 

पाकिस्तान का सुर बदल गया है इमरान खान अब ताल ठोकने की  बजाय मिमिया रहे हैं और कह रहे हैं की जंग से कोई लाभ नहीं होगा।  उन्होंने कहा कि बातचीत से हमें मामले सुलझाने चाहिए। लेकिन ,इस पर भरोसा नहीं करना चाहिए। क्योंकि पाकिस्तान एक ऐसा मुल्क है जो कभी भी साथ नहीं देगा ।ऐसे मौके पर रहीम की एक पंक्ति याद आती है "कह रहीम कैसे निभे केर बेर को संग, एक डोलत रस आपनो एक के फाटत  अंग।" पुलवामा हमले के बाद देशभर में भयानक गुस्सा फैल गया था और इस गुस्से को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र से वादा किया था कि वे एक-एक आंसू का हिसाब लेंगे। उन्होंने इसके बाद फौज को फैसला करने की खुली छूट दे दी। वादे का नतीजा बेहतरीन निकला । फौज ने इस छूट का उपयोग कर लिया। 12 मिराज विमानों ने नियंत्रण रेखा पार कर पाकिस्तानी क्षेत्र में जैश ए मोहम्मद के ट्रेनिंग कैंप बालाकोट में आतंकी शिविरों पर हमला कर उन्हें नेस्तनाबूद कर दिया। इस क्रम में 300 से ज्यादा आतंकी मारे गए । इसके बाद सोशल मीडिया पर एक उल्लास भरी खबर चल रही थी, "हाउ इज जैश! फिनिश्ड सर!!" 
    बदला लेने के लिए भारतीय वायु सेना का उपयोग बहुत महत्वपूर्ण है। यह महत्वपूर्ण इसलिए भी है कि 2016 के सर्जिकल हमले के विपरीत भारतीय वायु सेना का इसमें उपयोग किया गया। वायु सेना के विमान बहुत भीतर तक जाकर आतंकी शिविरों को नेस्तनाबूद करने में कामयाब रहे । यह कामयाबी ऐसी है जिससे पाकिस्तान  इनकार नहीं कर सकता। बेशक वह हमले का असर कम करके बता सकता है। इससे भी बड़ी बात है इस हवाई हमले की कि भारतीय वायु सेना ने पाकिस्तान  के सैनिक ठिकानों ,वहां के इंफ्रास्ट्रक्चर और आम नागरिकों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। यह समूची दुनिया के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण संदेश है । इस से भारत के प्रशंसकों की संख्या बढ़ सकती है। यही नहीं इस हमले के लिए रात का वक्त चुनना भी एक सही फैसला था और वह खुफिया खबर भी प्रशंसनीय है जिसमें  बालाकोट की पक्की जानकारी दी गई थी। भारत के सभी विमान अपने टारगेट को नष्ट कर सही सलामत वापस आ गए । यह इसलिए भी बड़ी उपलब्धि है कि जब यह हमला हुआ तो पाकिस्तान में हाई अलर्ट था।
          अब अगर इस हमले का समरनीतिक आकलन किया जाए तो यह भी ध्यान में रखना जरूरी है कि टारगेट और उसके अनुपातिक पहलू क्या थे । सबका ध्यान बहावलपुर पर था। क्योंकि वहां  जैशे ए मोहम्मद का सबसे बड़ा कैंप है और भारतीय वायु सेना ने इसी का फायदा उठाया। उसने कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना वाली कहावत चरितार्थ कर दी। पाकिस्तान की  आई एस आई बहावलपुर की हिफाजत में लगी थी और इधर बालाकोट को ठोक दिया गया। अब एक आतंकी कैंपर हमले से अंतरराष्ट्रीय समुदाय में भारत के कूटनीतिक प्रयासों को काफी बल मिलेगा। यह हमला भारत के लिए काफी सकारात्मक रहा। भारत ने अगर सही लक्ष्य नहीं तय किया होता तो शायद लोग उसकी आलोचना करते और भारत को इधर उधर झांकना पड़ता। लेकिन भारत के इस कदम ने इसके कूटनीतिक अभियान को भी बल दिया है। पाकिस्तान ने भारतीय हमले को बेअसर बताया लेकिन इसका कोई महत्त्व नहीं है । कूटनीतिक क्षेत्रों में इस बात पर कोई भरोसा नहीं कर रहा है। वास्तविक परिणाम क्या हुआ यह तो आज नहीं कल जनता के सामने आएगा ही।
      पाकिस्तान ने  दिखाने के लिए मंगलवार को भारतीय हमले का जवाबी हमला किया। इस हमले में जो सबसे बड़ी कमी थी वह था इमरान खान की कैबिनेट का समर्थन। इससे साफ साबित होता है कि पाकिस्तान की राजनीति पर उसकी सेना का जवाब बढ़ रहा है। हो सकता है इमरान खान का तख्ता पलट जाए और वहां  फिर से फौजी शासन लग जाए। दुनिया भर में यह भारत की नैतिक जीत होगी । इस हमले को रोकने के क्रम में भारतीय वायु सेना का  एक विमान क्रैश हो गया और उसका घायल पायलट पाकिस्तान के  कब्जे में आ गया। भारत ने नई दिल्ली में  पाकिस्तानी दूत सैयद हैदर शाह को बुलाकर स्पष्ट शब्दों में कहा कि पाकिस्तान की हिरासत में भारतीय वायु सेना के घायल पायलट अभिनंदन वर्थमान सुरक्षा सुनिश्चित करें और  उसे बिना नुकसान पहुंचाए जल्दी से जल्दी वापस करें। अगर पाकिस्तान फौजी हमला करता है तो सबसे बड़ी दिक्कत यह है उसके सामने कि टारगेट क्या होगा और किस आधार पर वह सैनिक कार्रवाई करेगा? क्या आतंकियों पर हमले को सामने रखकर ऐसा किया जाएगा? अगर वह ऐसा करता है तो साफ जाहिर हो जाएगा कि पाकिस्तान आतंकियों के साथ है और यह उसके लिए बेहद हानिकारक होगा। अगर अपनी इज्जत बचाने के लिए पाकिस्तान कुछ कर बैठता है तो सारी दुनिया उसके खिलाफ हो जाएगी। अभी हाल में चीन ने भी बहुत दबी ढंकी   प्रतिक्रिया दी है । भारत के इस हमले से कश्मीर में पाकिस्तान की मंशा भी बेलगाम हो रही है और दुनिया देख रही है कि वहां जो कुछ भी हो रहा है उसमें पाकिस्तान की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। अब अगर जरा भी कूटनीतिक समझ पाकिस्तान में होगी तो वह भारत पर  तरफ फौजी हमले के बारे में सोचेगा भी नहीं। लेकिन वह आत्मघातियों से भरा मुल्क है इस लिए सावधानी जरूरी है। बाकी आतंकी हमलों के लिए भारत को तैयार रहना होगा और वह तैयार है। इस बार अगर ऐसा दुस्साहस किया गया तो उसे बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी।

Wednesday, February 27, 2019

पाक के मन में भारत का डर जरूरी है

पाक के मन में भारत का डर जरूरी है

जब से पुलवामा हमला हुआ है और उसमें पाकिस्तान की शह की खबर मिली है  तबसे  लगातार विमर्श हो रहा है। कोई कहता है पाकिस्तान के दांत खट्टे कर देने चाहिए, कोई कहता है उसकी कमर तोड़ देनी चाहिए। जितने मुंह उतनी बातें। यहां तक कि जब इमरान खान ने कहा एक मौका दीजिए तो उसे इस तरह प्रचारित किया गया इमरान खान गिड़गिड़ा  रहे हैं भारत के सामने। 
मंगलवार को भारतीय वायुसेना के विमानों ने नियंत्रण रेखा पार कर जैश ए मोहम्मद के आतंकी शिविरों पर हमला किया तो भारत में खुशी की लहर दौड़ गयी। उधर इस्लामाबाद में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के समक्ष "शेम शेम" के नारे लग रहे हैं। वहां से तरह तरह की खबरें आ रहीं हैं। लेकिन यह तो साफ पता चल रहा है कि पाकिस्तान की टांगें कांप रहीं हैं।
कुछ लोग जो सामरिक विशेषज्ञ हैं उनका मानना है कि हमला तब किया जाए जब मामला ठंडा हो जाए ,मजा तभी आता है। भारत ने कुछ ऐसा ही किया है। यह अफगानियों  की रणनीति है । 18 वीं सदी में फ्रांसीसियों  ने भी इसका इस्तेमाल किया था । लेकिन अफगानियों के लिए इसे ज्यादा मुफीद माना जा सकता है। क्योंकि बदला लेना उनके जीवन का अंग है। वे बदले के लिए कई पीढ़ियों तक लड़ते रहते हैं।  1971 में पराजय का बदला लेने के लिए पाकिस्तान ने कई पीढ़ियों से युद्ध किया मगर उसे क्या मिला ? उसकी अर्थव्यवस्था ,उस की राजव्यवस्था और उसका पूरा समाज बर्बाद हो गया। क्योंकि वह बदले के साथ प्रतिकार करना नहीं सीख सका है। मंगलवार का हमला उसी बदले के साथ प्रतिकार का उदाहरण है।
       प्रतिकार एक प्रबुद्ध दिमाग उपज होती है।  प्रधान मंत्री लगातार वायदे कर रहे हैं, आंसुओं की एक एक बूंद का हिसाब लिया जाएगा। सब लोग सहमत हैं कि कुछ किया जाना चाहिए । लेकिन कब थोड़ा रुक कर इसी लिए उन्होंने यह जिम्मा सेना को सौंप दिया।
      कौटिल्य या कहें चाणक्य यह कथा याद आती है । एक बार एक कटीली झाड़ियों से फंस कर उनकी धोती फट गई उन्होंने कुछ नहीं किया। उलझी धोती को निकाल दिया और थोड़ी देर के बाद मट्ठा लेकर आए और झाड़ियों में डालने लगे । लोगों ने पूछा की जिन झाड़ियों ने ने आपकी धोती फाड़ी है उसे आप मट्ठा दे रहे हैं । चाणक्य ने कहा अगर मैं इसे काट देता तो दोबारा झाड़ी पनप जाती मट्ठे  के लोभ में सैकड़ों चीटियां आएंगी और झाड़ी को खा जाएंगी। वह फिर कभी नहीं पनपेंगीं।
       अपने इतिहास को देखें । 1962 में चीन ने भारत पर हमला किया था। उसका मकसद क्या था ? भारत की जमीन पर कब्जा करना नहीं बल्कि भारत के मन में खौफ पैदा करना था। इसके बाद चीन ने पाकिस्तान को अपना कारिंदा बना लिया। विगत 50 वर्षों से चीन भारत के खिलाफ एक छोटे से देश पाकिस्तान का इस्तेमाल कर रहा है। वह कम लागत पर डर पैदा कर रहा है।
      1971 की मिसाल है। पश्चिम से पाकिस्तान ने हमला बोला । उस समय भी इसी तरह जनमत था लेकिन वह शांति 9 महीने तक इंतजार कीं। उन्होंने सेना को तैयार किया अमरी का और चीन को रोकने के लिए रूस से संधि की। पाकिस्तान के खिलाफ दुनिया भर में माहौल बनाया। चारों तरफ से इतना शिकंजा कसा गया कि याहिया खान छटपटाना लगे और तब दिसंबर में युद्ध शुरू हुआ और पाकिस्तान को धूल चाटनी पड़ी। इसके बाद पाकिस्तान ने भारत को अस्थिर करने के लिए फौज के इस्तेमाल करने के बारे में कभी नहीं सोचा। उल्टे उसने आतंकवाद और आत्मघाती भाड़े के तत्वों को तैयार किया और छोटे-छोटे युद्ध शुरू करने लगा। भारत चाहे तो इन भाड़े के तत्वों को मार डाले पाकिस्तान को क्या फर्क पड़ता ।  आज हालात यह हैं कि हम अपनी सुरक्षा के लिए पूरी तरह सक्षम हैं। यहां वहां इसमें कुछ बदला भी लेते रहे हैं। लेकिन पाकिस्तान को रोक नहीं पा रहे हैं।  आगे क्या होगा? एक मात्र विकल्प यह  है कि हम पाकिस्तान को   उसे चुनौती दें कि वह हमारा मुकाबला करे और इस तरह खुद को भीखमंगा बना ले । मंगलवार को नियंत्रण रेखा के पार जाकर आतंकी शिविरों को नेस्तनाबूद कर  प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यही नीति अपनाई। यही नहीं  पाकिस्तान इस चुनौती के जाल में फंस गया है।वह भारतीय नियंत्रण रेखा लांघने की कोशिश में अमरीका से भीख में मिला  अपना एक विमान गवां बैठा। उसकी बर्बादी अब शुरू हो चुकी है।
कुल मिलाकर दुश्मन में डर पैदा करना जरूरी है।

Tuesday, February 26, 2019

पुलवामा हमले का मुंहतोड़ जवाब

पुलवामा हमले का मुंहतोड़ जवाब

क्षमाशील हो रिपु समक्ष
तुम हुए विनीत जितना ही
दुष्ट कौरवों ( पाक) ने समझा
तुमको कायर उतना ही 
भारत ने नियंत्रण रेखा के उस पार बालाकोट में जैश ए मोहम्मद के आतंकी शिविर सहित दो अन्य ठिकानों  पर मंगलवार के  तड़के हवाई हमला कर उसे नेस्तनाबूद कर दिया। बालाकोट  मुजफ्फराबाद  से  24 किलोमीटर  उत्तर-पश्चिम है। यह  पाकिस्तान के  खैबर पख्तूनख्वा  प्रांत  में स्थित है। यह वही जगह है जहां भारतीय  सीमा पर  या फिर  अफगानिस्तान में अमरीकी सेना पर  हमले की योजना बनाई जाती  है । विदेश सचिव विजय गोखले ने इस हमले की जानकारी देते हुए बताया कि हमले में जैश ए मोहम्मद के आतंकी, उसके ट्रेनर ,उसके सीनियर कमांडेंट और कई जिहादियों को खत्म कर दिया गया। मिराज 2000 के 12 विमानों ने तड़के लगभग 3.30 बजे नियंत्रण रेखा के उस पार अचानक हमला बोल दिया और आतंकी शिविरों पर 1000 किलोग्राम बम गिराए। इस घटना की समीक्षा लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में उच्चस्तरीय बैठक बुलाई है। उधर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल भारतीय सेना के प्रमुख विपिन रावत तथा भारतीय सेना के प्रमुख बीएस धनोआ के साथ सुरक्षा स्थितियों की समीक्षा कर रहे हैं। विदेश सचिव ने कहा कि भारत आतंकवाद से मुकाबले के लिए सभी तरह के कदम उठाने को तैयार है। मंगलवार को जो हमला हुआ वह आतंकी शिविरों निशाना बनाकर किया गया। गोखले के अनुसार सरकार के पास इस बात की सूचना थी कि जैश ए मोहम्मद  के आतंकी भारत में दोबारा हमला करना चाहते हैं। विदेश राज्य मंत्री वीके सिंह ने सख्त लहजे में कहा की जब जब पाकिस्तान ऐसा करेगा उसे मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा।
         देश के सभी राजनीतिक दलों ने इस कदम की सराहना की है। भाजपा नेता राम माधव ने कहा है कि पुलवामा हमले से दुखी सभी भारतीय इस हमले से बड़ा राहत महसूस कर रहे हैं। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा है कि हम भारतीय वायु सेना को सलाम करते हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तो आईए एफ का नया नाम रखा "इंडियन अमेजिंग फोर्स।" केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने भारतीय सेना की प्रशंसा करते हुए कहा है कि "यह मोदी का हिंदुस्तान है घर में घुसेगा भी और मारेगा भी। एक एक कतरा खून का हिसाब होगा यह तो शुरुआत है।" सरकारी सूत्रों ने बताया है इस हमले में बहुत लोग मारे गए हैं । मृतकों की संख्या 200 से 300 हो सकती है।
       केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर में कहा कि नियंत्रण रेखा के पार जाकर हमला करना जरूरी था भारतीय सुरक्षा के लिए। उन्होंने कहा कि पूरा देश हमारी फौज के पीछे खड़ा है। पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने इस स्थिति पर आपात बैठक बुलाई है। उधर पता चला है कि भारतीय हमले के पहले जैश ए मोहम्मद के नेताओं को शिविर से अलग कर दिया गया था। मौलाना मसूद अजहर के भाई अब्दुल रऊफ असगर को पंजाब भेज दिया गया था। हमले के बाद इंटर सर्विसेज के डायरेक्टर जनरल मेजर आसिफ गफूर ने कहा , भारतीय वायु सेना ने नियंत्रण रेखा को पार  किया है और जैसे ही उसने पार किया पाकिस्तानी वायुसेना ने उसे जवाबी हमले के लिए ललकारा और भारतीय भारतीय वायु सेना विमान लौटते समय हड़बड़ी में बालाकोट के समीप चिकोटी पर बम गिरा गए।
       विशेषज्ञों का मानना है की भारतीय वायुसेना ने आतंकी शिविरों पर हमला किया है। पाकिस्तान इस तरह नहीं कर सकता क्योंकि भारत के पास ऐसे कोई शिविर नहीं हैं। पाकिस्तान बेशक कह सकता है कि इन हमलों में कोई नहीं मरा और इस हमले को वह खारिज भी कर सकता है। लेकिन भारत सरकार इस हमले के सेटेलाइट चित्र जारी कर सकती है । या यह भी हो सकता है कि भविष्य में पाकिस्तान यह कहे इस हमले में बहुत नागरिक मारे गए।
      हमले के बाद कश्मीर में भारी तनाव व्याप्त हो गया है और सब लोग डरे हुए हैं कि आगे क्या होगा। बात चल रही है कि यह सब यहीं खत्म हो जाए तो अच्छा है। दुश्मनी और नहीं बढ़ेगी । क्योंकि अगर युद्ध होता है तो दोनों तरफ से निर्दोष लोग मारे जाएंगे । उमर अब्दुल्ला ने सोशल मीडिया पर कहा कि कहीं दोनों परमाणु ताकतों के बीच युद्ध प्रारंभ न हो जाए। इस घटना के बाद कश्मीर घाटी में सैनिक बलों की एक सौ अतिरिक्त कंपनियां तैनात कर दी गई हैं।
      हमले के बाद रुपए का भाव गिर गया है। खबरों के अनुसार 3 दिन में पहली बार इस तनाव के बाद रुपए का भाव 0.4 गिरकर प्रति डॉलर 71.2475 हो गया है, जबकि निफ़्टी 0.7% गिर गया।
        इस हमले से पाकिस्तान सकते में है और वहां की सेना हैरत में है। क्या सचमुच भारत ऐसा कर सकता है। जैसा अमरीका ने पाकिस्तानी वायु सीमा में प्रवेश के लिए किया था । कुल मिलाकर पाकिस्तान में डर पैदा करने के लिए यह कदम उठाना बहुत जरूरी था और मोदी सरकार ने ऐसा करके यह बता दिया कि भारत हमले का जवाब दे सकता है।
सच पूछो ,तो शर में ही 
बसती है दीप्ति विनय की ,
संधि वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की

Monday, February 25, 2019

नापाक विचारों को पराजित करना होगा

नापाक  विचारों को पराजित करना होगा

कश्मीर में तनाव बढ़ता जा रहा है। 23 फरवरी को सरकार ने अलगाववादियों की धरपकड़ के दौरान 150 लोगों को हिरासत में लिया। जिसमें अधिकांश जमाते इस्लामी जम्मू और कश्मीर के सदस्य थे। इसके अलावा कई और प्रशासनिक कदम उठाए गए हैं, जिसे लेकर कश्मीर में भारी आशंका व्याप्त हो गई है और लोग खाने पीने के सामान भंडार करने लगे हैं। शक है कि कहीं जंग ना हो जाए। हालांकि, पुलिस ने इसे रूटीन कार्रवाई बताया है। इधर पूरे देश में पुलवामा हमले को लेकर भारी गुस्सा व्याप्त है और देशवासी तरह-तरह की बातें कर रहे हैं। अधिकांश लोग तो कह रहे पाकिस्तान के साथ युद्ध होना ही चाहिए। इसकी पृष्ठभूमि की घटनाएं और ज्यादा डर पैदा कर रही हैं। अगर भीड़ के गुस्से का समाज वैज्ञानिक विश्लेषण करें तो लगता है कि यह भारत के अभिमान पर आघात से उपजा गुस्सा ज्यादा है और पुलवामा में मारे गए जवानों की शहादत का शोक कम है। यही नहीं , इसमें सबसे चिंताजनक बात यह है कि हमारे राजनीतिक नेता जनता को यह संदेश देना चाहते हैं कि इस हमले के बाद से पाकिस्तान भारी पड़ रहा  है और उसकी 'मरम्मत' होनी चाहिए। पाकिस्तान के विरुद्ध गुस्सा जायज है। लेकिन फिलहाल जो लोगों में दिख रहा है अपनी 'हीनता ' से   उत्पन्न आवेग ज्यादा है और सही गुस्सा कम है।  एक ऐसी स्थिति बनती जा रही है जिसमें आम जनता किसी समाधान पर नहीं सोच रही है बल्कि किस पर आरोप लगाया जाए और उस आरोप के आधार पर उसे कैसे दंडित किया जाए यह सोच रही है । पुलवामा हमले का सबसे दुखद पक्ष यह नहीं है कि हमारे जवान मारे गए बल्कि उससे भी दुखद पक्ष है कि हम समझते हैं पाकिस्तान ने हमें चोट पहुंचाई है और वह हम पर भारी पड़ रहा है। पाकिस्तान भारी पड़ सकता है क्योंकि वह ऐसे काम करता रहता है। उस पर कोई अंतरराष्ट्रीय दबाव नहीं पड़ता, कोई कूटनीतिक जवाबदेही नहीं है और सर्जिकल स्ट्राइक जैसे हमले उसे सबक सिखाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। आत्म घात पर आमादा मुल्क का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। अफगानिस्तान में अमरीका की नाकाम कोशिशें इस बात की सबूत हैं। इस समस्या का कोई आनन-फानन में हल नहीं हो सकता। पाकिस्तान इसलिए नहीं भारी पड़ जाता है कि हम में क्षमता नहीं है। हम उस पर हमला कर कुचल सकते है  और अपने लोगों की इच्छा पूरी कर सकते हैं। लेकिन कटु सत्य यह है कि हमने परंपरागत युद्ध जैसे हालात से निपटने के लिए खुफियागिरी ,गोपनीय कार्रवाई और तकनीकी क्षमता का विकास नहीं किया है। यह क्षमताएं रातोंरात नहीं विकसित होतीं। बहुत लंबा समय लग सकता है। यह कहना मुनासिब नहीं होगा कि भारतीय उदारवादी समुदाय के पास सुरक्षा समरनीति नहीं है।  इसके लिए बहुत भारी सोच और समझ की जरूरत पड़ती है । हमारी सरकार की सबसे बड़ी मजबूरी है कि वह जहां बहुत जरूरत होती है वहां हर बार रुपया नहीं लगाती । पाकिस्तान इसलिए भी यह कर पा रहा है कि कश्मीर में कट्टरवाद है और वहां अलगाववाद व्याप्त है। हम भले ही इस खुशफहमी में रहें कि कायर पाकिस्तानी सैनिक अधिकारी जो यह सब करवा रहे हैं हम से युद्ध में नहीं जीत सकते। लेकिन यह भी सच है की भुजाएं फड़काने वाले हमारे राजनीतिज्ञ कभी भी शांति नहीं कायम कर सकते हैं। दूसरे पर गुस्सा उतारना आसान है लेकिन यह स्वीकार करना बड़ा कठिन है कि विगत 5 वर्षों में कश्मीर की हालत बहुत खराब हुई है।
        मनमोहन सिंह का शासन काल एक भ्रम पूर्ण बहादुरी में खत्म हो गया। पाकिस्तान हम पर इसलिए भी यह सब कर पा रहा है कि  हमें मोटे तौर पर पाकिस्तान की तरह ही जवाब  देने पड़ रहे हैं। देश की राजनीति में बहुत दिनों से तनाव कायम था और वह अभी कायम है। राजनीतिक रुख या नागरिकता को धर्म के चश्मे से देखना तो पाकिस्तान की पुरानी आदत है लेकिन आज हमारे देश में भी कई राजनीतिज्ञ ऐसा ही कर रहे हैं । वे धार्मिक आधार पर समाज को विभाजित करने की कोशिश में लगे हैं। हम एक ऐसी संस्कृति को जन्म दे रहे हैं जो धर्म और जाति के ताने बाने से बुनी जा रही है । यहां तक कि फौज में भी जात - पांत की बात होने लगी है । पाकिस्तान ने जब  जन्म लिया तभी से वह अपनी पहचान से आहत है । वह इसलिए भी यह सब कर पा   रहा है कि हम अकेले हैं। यकीनन हमें उन देशों का इस्तेमाल करना चाहिए जो हमारी बात सुनते हैं और यह भी सही है कि पाकिस्तान के दोस्तों को हम अपने से ज्यादा करीब रखें दुश्मनों के मुकाबले । लेकिन कटु सत्य तो यह है कि हम जिओपॉलिटिक्स पर ध्यान नहीं देते। भारत और पाकिस्तान में विभेद  दुनिया की अपनी नीति है और दुनिया के देश इस बात को समझते हैं। हमें इन मनोवैज्ञानिक जटिलताओं को समझना होगा।  पाकिस्तान ऐसा देश है जिसकी जन संस्कृति भविष्य की   अवास्तविकताओं की डोर से बंधी है। यह देश दूसरे पर बेवजह थूकने के प्रयास में अपनी ही  नाक काट लेता है। भारत में भी कुछ ऐसा ही चल रहा है। पुलवामा हमले के बाद जब से बहस शुरू हुई है उसमें संतुलन और अनुपात कहीं नहीं दिख रहा है ।इस समय भारत में जो गुस्सा है व विनाशक है और खुद को ज्यादा हानि पहुंचा सकता है। दक्षिणपंथी गिरोह कश्मीर पर बहस कर रहे हैं और जो इसके विरोध में है वह राष्ट्र विरोधी है।  यह लोग अपने ही विचारों और हस्तक्षेप को पराजित होता हुआ नहीं बर्दाश्त कर सकते हैं। सच तो यह है कि पाकिस्तान को पराजित करने का विचार पाकिस्तानी शासन को पराजित करने जैसा  नहीं है। बल्कि होना तो यह चाहिए की जो पाकिस्तानी विचार है जो सोच है उसको पराजित किया जाए। चिंताजनक की बात है कि पुलवामा के बाद जो पाकिस्तानी सोच है वह भारत को भी प्रभावित करने लगा है । भारत को इन विचारों से अछूता रखना नरेंद्र मोदी की वास्तविकताओं को सबसे बड़ी चुनौती है । उन्हें इस चुनौती को फतह करनी ही पड़ेगी । यह बताने के लिए कि नेहरू  से उनके पूर्व तक  सभी शासक  कश्मीर में नाकाम रहे हैं। उम्मीद है नरेंद्र मोदी यह करेंगे।

Sunday, February 24, 2019

2019 में क्या होगा

2019 में क्या होगा

एक अजीब सवाल है सत्ता के गलियारों से लेकर कर फुटपाथ तक ,संसद से सड़क तक। सब जगह यह सवाल पूछा जा रहा है कि 2019 में क्या होगा? लोग अपने-अपने तरह से इसका उत्तर दे रहे हैं। 2019 के चुनावों की अगर इतिहास से  तुलना करें तो दो मॉडल सामने  दिख रहे हैं। पहला 1971 का मॉडल। जब इंदिरा जी ने विपक्षियों को धूल चटा दी थी। या, फिर 2004 का मॉडल जब अजेय अटल बिहारी बाजपेई फिसड्डी पार्टियों के गठबंधन से हार गए थे। यह दोनों चुनाव इसलिए भी 2019 से मिलते हैं कि दोनों स्थितियों में विपक्षियों ने एकजुट होकर दिग्गज सत्ताधीशों से जोर आजमाया था। उस समय के आंकड़े बताते हैं की ज्यादातर लोकसभा सीटों पर मुकाबले सीधे थे लेकिन दोनों के नतीजों में जमीन आसमान का फर्क आया। अब मोदी जी का क्या होगा ? इसका अनुमान लगाने के लिए पहले 2004 और  1971 के चुनावों के डायनामिक्स को समझते हैं। पहले देखते हैं 1971 की पृष्ठभूमि । 1971 के पहले 5 सालों में भारत ने दो प्रत्यक्ष युद्ध लड़े। पहला 1962 में चीन से और दूसरा 1965 में पाकिस्तान से। इसी अवधि में हमारे देश को दो अत्यंत लोकप्रिय प्रधानमंत्रियों को खोना भी पड़ा। पहले 1964 में जवाहरलाल नेहरू और दूसरे 1966 में लाल बहादुर शास्त्री। इस दौरान अमरीकी शासन भारत के प्रतिकूल था और भारत में सूखा पड़ा था। इतना भयानक सूखा कि कई स्थानों पर लोगों ने पेड़ के पत्ते खाकर गुजारा किया। ऐसे में इंदिरा जी ने सत्ता की बागडोर संभाली। उस समय कांग्रेस में सिंडिकेट बड़ा ही ताकतवर था और उसे यह गुमान था कि वह इंदिरा जी को काबू में रखेगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। 1969 में कांग्रेस विभाजित हो गई । कांग्रेस दो हिस्से में बंटी। एक कांग्रेस (ओ) और दूसरा कांग्रेस (आर)। कम्युनिस्टों के समर्थन से इंदिरा जी प्रधानमंत्री बनी रहीं। लेकिन जब कम्युनिस्टों  का दबाव असह्य हो गया तो इंदिरा जी ने चौथी लोकसभा को अवधि पूरी होने के पहले ही भंग कर दिया और भारत का पहले  मध्यावधि चुनाव का बिगुल बजा। मोर्चे बन गए। कांग्रेस (ओ), जनसंघ ,स्वतंत्र पार्टी और एसएसपी का गठबंधन हुआ।  जिसका नाम नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट (एनडीएफ )  रखा गया। इस गठबंधन ने " इंदिरा हटाओ लोकतंत्र बचाओ" का नारा दिया।  दूसरी तरफ इंदिरा जी ने बड़ी चालाकी से "गरीबी हटाओ" का नारा दिया। इंदिरा गांधी भारी मतों से चुनाव जीत गईं और 5 वीं लोकसभा में एन डी एफ के महज 49 सदस्य ही आ पाए। इंदिरा जी ने अथक मेहनत की। उन्होंने सैकड़ों सभाओं को संबोधित किया।  1971 के आईने में देखें तो 2019 की स्थितियों में  रहस्यमय समानता है।
      अब जरा 2004 में आते हैं । वाजपेई जी को भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। पहले 1996 में 13 दिनों की सरकार बनी, फिर 1998 में 13 महीनों की सरकार बनी इसके बाद 1999 में 5 साल तक वे सत्ता पर कायम रहे । बाजपेई जी की चमक का अंदाजा इसी बात से लगता है कि वह बिल क्लिंटन की मेजबानी करने वाले प्रधानमंत्री थे। 1978 में कार्टर के बाद क्लिंटन भारत आने वाले पहले अमरीकी राष्ट्रपति थे । वाजपेई जी शांति बस लेकर लाहौर गए, पोखरण में परमाणु परीक्षण किया और कारगिल की जंग लड़े। 2004 के चुनाव में उनका जीतना लगभग निश्चित था। लेकिन ऐसा हुआ नहीं । जबकि उस दौरान जितने ओपिनियन पोल हुए सब में वाजपेई जी को जितना निश्चित बताया गया। वाजपेई जी की लोकप्रियता भाजपा से ज्यादा थी। इंडिया शाइनिंग का नारा विश्वास का आईना था। लेकिन हवा का रुख बदलने लगा और कांग्रेस ने कई पार्टियों के साथ गठबंधन की।  सारी खूबियों के बावजूद बाजपेई जी की सरकार नहीं बन सकी और सोनिया गांधी की कांग्रेस जीत गई। कई और समानताएं हैं । 2004 के चुनाव से। जैसे सहयोगियों का चुनाव तथा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में पुराने वादों की स्थिति इत्यादि । 
  अब सवाल उठता है मोदी जी जैसे ताकतवर नेता के लिए क्या 1971 जैसा नतीजा होगा या 2004 जैसा । यहां थोड़ा सा फर्क है। 1971 में इंदिरा गांधी के जीतने की उम्मीद बहुत कम थी जबकि 2004 में वाजपेई जी के हारने की उम्मीद बहुत कम थी। अब मोदी जी के लिए 2019 के लोकसभा चुनाव में  देश क्या फैसला करता है यह तो भविष्य बताएगा।

Friday, February 22, 2019

आखिर देश में कश्मीरियों पर हमले क्यों

आखिर देश में कश्मीरियों पर हमले क्यों

देश के कई हिस्सों में कश्मीरी छात्रों, कश्मीरी शॉल वालों और अन्य कश्मीरी लोगों पर हमलों की खबरें आ रहे हैं । यह खबरें दहशत पैदा करती हैं कि आखिर यह हो क्या रहा है? महाराष्ट्र से लेकर पश्चिम बंगाल तक कई जगहों से कश्मीरियों  पर  हमले की खबरें आ रहे हैं और इस हालात को लेकर विभिन्न नेताओं में गंभीर चिंता जताई है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा है कि यह देश की एकता के लिए खतरनाक है यह एक विभाजन कारी राजनीति है। राष्ट्र प्रेम के नाम पर राष्ट्र के ही निवासियों को हमले का शिकार बनाना सच में कहां तक उचित है? अगर किसी नौजवान कश्मीरी से यह कहा जाता है कि इस देश के अन्य भाग में चल रहे कॉलेजों या बाजारों में उस लिए  जगह नहीं है तो यह उनमें भारी गुस्सा पैदा करेगी और संपूर्ण स्थिति जिहाद को ही हवा देगी।  पुलवामा हमले के बाद बदले हालात के अंतर्गत कश्मीरी नौजवानों पर देश के कई भागों में हमलों की  घटनायें एक तरह से लश्कर ,जैश ए मोहम्मद और आईएसआई के मंसूबों को पूरा करने का मौका दे रही हैं। पश्चिम बंगाल जैसे बहुलतावादी और प्रवासियों के लिए उदार समाज मे भी कश्मीरियों पर हमले आश्चर्यजनक हैं। पूरे देश में यह क्या हो रहा है पता नहीं चल रहा है । कश्मीरी नौजवान वापस लौटने के लिए मजबूर हो रहे हैं। कई कॉलेजों से खबर मिली है कि वहां के शासी निकायों ने भविष्य में कश्मीरी छात्रों का नामांकन नहीं करने का फैसला किया है। देहरादून में कश्मीरी मूल के एक कॉलेज शिक्षक को बर्खास्त कर दिया गया है। राष्ट्रवाद के नाम पर यह सब दक्षिणपंथी राजनीतिक  समर्थक अंजाम दे रहे हैं। यह स्पष्ट हो गया कि पुलवामा में जो हमला किया गया था वह पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठन जैश ए मोहम्मद  की करतूत थी। अब किसी दूसरे के द्वारा किए गए अपराध सजा अपने देश के नौजवानों को  क्यों दी जाए? खासकर उन्हें जो अपने राज्य से बाहर शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं या फिर तिजारत में लगे हैं। यह बात समझ में आने वाली नहीं है। इन पर हमले आखिर कैसे आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में  सहयोगी  होंगे या पाकिस्तान पर दबाव बनाएंगे? दक्षिणपंथी युवा संगठनों के नेता कभी भी तार्किक ढंग से किसी चीज पर सोचते हुए नहीं पाएं गए हैं। वे यह बात भी समझ ही नहीं सकते कि जो नौजवान अपना राज्य छोड़ कर दूसरे राज्यों में शिक्षा हासिल कर रहे हैं या व्यापार करके रोजी रोटी कमा रहे हैं वह इस्लामी आतंकवाद के खिलाफ भारत के प्रयास की सबसे अच्छी उम्मीदों में से एक है । अगर यह कश्मीरी देश के  विभिन्न भागों के कॉलेजों में या बाजारों में सम्मान पूर्वक रह सकते हैं काम कर सकते हैं तो यकीनन जिहादी मानसिकता से दूर होते जाएंगे और अपने राज्य में दूसरे नौजवानों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करेंगे।  यह भी सोचेंगे कि भारत एक ऐसा देश है जिसने उसके लिए बेहतर भविष्य का बंदोबस्त किया जो पाकिस्तान किसी कीमत पर नहीं कर सकता है। दक्षिणपंथी युवा संगठन शायद ऐसा नहीं सोचते। लेकिन कम से कम पार्टी के बड़े नेता जिनके अंतर्गत ये संगठन काम करते हैं वह तो सोच सकते हैं । अभी भाजपा के बड़े नेता अत्यंत मेधावी और सुलझे हुए विचारों के हैं । बेशक वे फिलहाल चुनाव को लेकर उलझे हुए हैं और संभवत इसीलिए संप्रदायिकता को हवा दे रहे हैं । अभी हाल में गुवाहाटी में एक जनसभा को संबोधित करते हुए भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने खुलकर कहा था वह असम को दूसरा कश्मीर नहीं बनने देंगे। इसका मतलब स्पष्ट है कि वे मुसलमानों को असम में रहने देने के पक्ष में नहीं हैं। भाजपा इसी सांप्रदायिकता चश्में से कश्मीरियों को भी देख रही है।
          देश के सभी राजनीतिज्ञ और राजनीतिक संगठन यह बात एक स्वर से बोल रहे हैं कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है । अतएव कश्मीर घाटी में इस्लामी आतंकवाद को हवा देने वाले तत्वों की पहचान कर उन्हें अलग करने के बजाय देश के अन्य भागों में इस कश्मीरियों  पर हमले कर अलगाववादी शक्तियों को ताकतवर बनाया जा रहा है। ये हमले देश को यह संदेश दे रहे हैं कश्मीरी गद्दार हैं और देश का मानस यह मान ले । पुलवामा हमले को लेकर देशभर में चल रही राजनीति पाकिस्तान को शर्मिंदा नहीं करेगी वरना आतंकवादियों को बढ़ावा देगी। कश्मीर आजादी के बाद से अब तक हिंसा शिकार होता रहा है। पुलवामा हमला उनसे थोड़ा अलग है। वह कि कश्मीरी नौजवान इस हमले में शामिल थे । यही नहीं कश्मीर में कुछ ऐसा लग रहा है जैसे हवा में जहर घुली हुई है। सेना या पुलिस की  गोलियों से शिकार लोगों की अंत्येष्टि से लेकर कलाश्निकोव उठाए 'आजादी आजादी' का नारा लगाने वाले नौजवान भारत विरोधी बन रहे हैं। यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। यह पूरी तरह हमारी समस्या है । अगर कश्मीर हमारा है फिर ऐसा क्यों हो रहा है? हमें इसका उत्तर खोजना ही होगा ।  यह उत्तर देश के बाकी हिस्सों में कश्मीर के प्रति विचारों में ही निहित है।
        

Thursday, February 21, 2019

मोदी की विदेश नीति को सबसे बड़ी चुनौती

मोदी की विदेश नीति को सबसे बड़ी चुनौती

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश नीति को इस समय सबसे बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। एक तरफ भारत और पाकिस्तान कुलभूषण जाधव के मामले  को लेकर  हेग में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में उलझे हुए हैं, दूसरी तरफ पैरिस में फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स के साथ रस्साकशी चल रही है। अब दोनों अपने-अपने मित्रों के बल पर  जैश ए मोहम्मद के प्रमुख  मसूद अजहर पर पाबंदी लगाने के लिए राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में उलझेंगे । यहां घर में कश्मीर में वर्चस्व के लिए संघर्ष 1947 से चल रहा है लेकिन उन संघर्षों की कोई भी घटना भारत के स्मृति में उतनी ताजा नहीं है जितनी मसूद अजहर को रिहा किये जाने के फैसले की है। अटल बिहारी बाजपेई सरकार ने 1999 में अपहृत विमान के 180 यात्रियों की जान के बदले तीन आतंकियों को रिहा करने का फैसला किया था। ये तीन आतंकी  मसूद अजहर उमर शेख और मुस्ताक जरगर थे। 31 दिसंबर 1999 को आज के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल, जो उस समय भारतीय खुफिया ब्यूरो के अफसर थे, भारतीय विदेश मंत्रालय में पाकिस्तानी मामलों के सचिव विवेक काटजू के साथ विदेश मंत्री जसवंत सिंह के विमान के उतरने का इंतजार कर रहे थे ताकि वे इन तीनों आतंकियों को विमान अपहर्ताओं को सौंप सकें । मसूद अजहर के लिए भारत नया नहीं है। वह 1994 में एक पुर्तगाली पत्रकार के जाली पासपोर्ट पर भारत आया था। उसे गिरफ्तार कर लिया गया और उसने कबूल किया कि वह हरकत उल मुजाहिदीन और हरकत उल जिहाद अल इस्लामी को हरकत उल अंसार  के अंतर्गत शामिल  करने के मिशन पर आया था। उस समय  मसूद अजहर हरकत उल अंसार का सेक्रेट्री था।
         आज फिर अजीत डोभाल पाकिस्तान पर आरोप की तख्ती थामे सबके सामने खड़े हैं। कुलभूषण जाधव मामले के अलावा वह इस समय पुलवामा हमले को लेकर भारत के व्यापक जवाब की रणनीति तैयार करने में जुटे हैं। इन 20 वर्षों में तब के भारत  और आज के भारत  में जो सबसे ज्यादा अंतर आया वह है भारतीय राजनीति में विखंडन । 1999 के अप्रैल में बाजपेई सरकार 1 वोट से हार गई थी लेकिन जब 1 महीने के बाद कारगिल का हमला हुआ तो वे देश के कार्यवाहक प्रधानमंत्री थे और उन्होंने पाकिस्तान को नियंत्रण रेखा से लौटने के लिए मजबूर कर दिया था । उस समय कांग्रेस और बाकी सभी विपक्षी दलों ने बाजपेई जी का समर्थन किया था । जब विमान अपहरण हुआ था और वाजपेई जी ने आतंकियों को लौटाने का फैसला किया था तो कांग्रेस चुप थी।राजनीतिक हमले बहुत बाद में होने शुरू हुए।
         आज पुलवामा हमले के बाद कांग्रेस पार्टी और विपक्षी दल सरकार के समर्थन में हैं लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह देशभर में घूमते फिर रहे हैं, विकास योजनाओं का उद्घाटन कर रहे हैं, लेकिन हर कदम पर पाकिस्तान को करारा जवाब देने की प्रतिज्ञा भी कर रहे हैं। इस बीच पंजाब विधानसभा में भाजपा के सहयोगी दल अकाली दल ने कांग्रेस से मांग की है कि वह नवजोत सिंह सिद्धू को पार्टी से निकाल दे। क्योंकि सिद्धू ने पुलवामा हमले पर देश विरोधी बयान दिया था। जहां तक पाकिस्तान का सवाल है वहां के लोग सऊदी अरब के युवराज मोहम्मद बिन सलाम के इस बयान को लेकर काफी उत्साहित हैं , जिसमें युवराज ने कहा है कि "पाकिस्तान उन्हें अरब विश्व में अपना राजदूत माने।" यकीनन भारत इसलिए अपनी पीठ थपथपा सकता है कि उसने भी मोहम्मद बिन सलाम को भारत बुला लिया। यही नहीं आतंकवाद के मामले में उन्होंने भारत का साथ भी दिया। उन्होंने आतंकवाद की निंदा की है पर  पाकिस्तान की भूमिका पर चुप रहे। उधर अमरीका को लेकर पाकिस्तान आश्वस्त है । क्योंकि वह जानता है कि तालिबान से वार्ता में सफलता के लिए उसे पाकिस्तान की जरूरत पड़ेगी। यही कारण है अभी तक कहीं भी यह बात नहीं आई है कि पुलवामा हमले पर मोदी के समर्थन में अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कोई ट्वीट किया हो। अमरीकी राष्ट्रपति ने यह बोझ अपने सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन पर डाल दिया है कि  जो कहना वह  कहें । इधर रूस भी एक सर दर्द बना हुआ है। अभी जनवरी में ही रूसी बिजली कंपनी आर ए ओ इंजीनियरिंग ने कहा था कि वह पाकिस्तान में बिजली क्षेत्र में 2 अरब डालर का निवेश करना चाहती है। इसी महीने रशिया की  गजप्रोम कंपनी ने पाकिस्तान के इंटर स्टेट गैस सिस्टम के साथ एक समझौता हस्ताक्षर किया है। इसके अलावा चीन पाकिस्तान का पुराना दोस्त है ही।
      पुलवामा कांड जहां नरेंद्र मोदी के लिए घरेलू चुनौती है वहीं उनकी विदेश नीति के लिए भी चुनौती है । कश्मीर में राजनीतिक शून्य  बढ़ता जा रहा है और जनता बेचैन है। जहां तक पाकिस्तान का सवाल है उसके संबंध में  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह जरूर सोच रहे होंगे कि वे अपने पश्चिमी  पड़ोसी पाकिस्तान  पर विदेशों में अपने मित्रों और भारत के प्रभाव का उपयोग कर दबाव बना सकते हैं । अब यह तो समय बताएगा कि क्या ऐसा हो सकता है। परंतु फिलहाल यह स्थिति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विदेश नीति के लिए सबसे बड़ी चुनौती के रूप में सामने खड़ी है।

Wednesday, February 20, 2019

आई एस आई क्यों मदद करता है आतंकियों की

आई एस आई क्यों मदद करता है आतंकियों की

पुलवामा हमले के बाद भारत-पाकिस्तान सीमा पर हालात तेजी से बदलते जा रहे हैं। एक तरफ जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सेना को खुली छूट दे दी है वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा है कि वह इस हमले की जांच करवाने के लिए तैयार हैं, लेकिन इसके पक्के सबूत मिलने पर कि यह हमला पाकिस्तान  करवाया है।उन्होंने इस बात से इंकार किया है इस मामले में पाकिस्तान की कोई भूमिका थी।
बीते दिसंबर में इस्लामाबाद में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने बलोच छात्रों को संबोधित करते हुए कहा था कि भारत में मुसलमानों के साथ जिस तरह बर्ताव होता है उससे यह यकीन होता है कि पाकिस्तान क्यों बना । पुलवामा में फिदायीन हमले के पूर्व जारी वीडियो की भाषा को देखें तो उसमें पता चलेगा कि वह कश्मीरियों के लिए नहीं बल्कि भारत के मुसलमानों के लिए एक संदेश था। ऐसे में अगर इमरान खान की बात के परिप्रेक्ष्य में इस संदेश को देखिए तो सबूत  की कोई जरूरत नहीं रह जाती है  कि  पाकिस्तान ने इस हमले के लिए  उकसाया था। यहां यह काबिले गौर है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री 71 वर्ष पहले की घटना को आज उचित साबित करना चाहते हैं। इससे साफ जाहिर होता है कि पाकिस्तान के पास पहचान का संकट है और इस संकट को खत्म करने के लिए वह किसी दुश्मन पर दोष थोपना   चाहता है ।  यह दोषारोपण स्थाई रूप से आतंकवाद को समर्थन देने के रूप में सामने आता है । किसी जमाने में पाकिस्तानी नेता जुल्फिकार अली भुट्टो ने भी भारत के साथ हजार साला जंग की बात कही थी। हर पाकिस्तानी को भारत विरोध उसके जन्म के साथ घुट्टी में  दी जाती है। इमरान खान की बात नई  नहीं है। शुरू से ऐसा होता रहा है।  इस तरह के जितने भी हमले होते हैं उसमें पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई सक्रिय भूमिका होती है। सबकुछ पोशीदा तौर पर होता है। अब  कुछ लोग जरूरत से ज्यादा खुद को ज्ञानी समझते हैं, वह सवाल पूछ रहे हैं और यह सवाल  अंतरराष्ट्रीय हल्के में भी घूम रहा है कि  भारत पर आतंकी हमले से पाकिस्तान को क्या मिलता है। स्पष्ट उत्तर  है कि उसे रणनीतिक लाभ मिलते हैं। लेकिन  किसलिए? भारत के खिलाफ पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद का उपयोग यह सुनिश्चित करता है कि दोनों देशों  में शांति नहीं रहेगी। जब भी दोनों देश बातचीत के लिए शुरुआत करने को होते हैं या करीब आते रहते हैं तो एक खास किस्म का आतंकवादी हमला हो जाता है। 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अचानक पाकिस्तान पहुंच गए और उनके लौटने के ठीक 1 सप्ताह के बाद जैश ए  मोहम्मद ने पठानकोट पर हमला कर दिया। 2008 के 26 नवंबर को मुंबई पर हमला जब हुआ था तो पाकिस्तान के विदेश मंत्री दिल्ली में थे और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी एक बयान देने वाले थे की परमाणु शास्त्रों का पहले उपयोग नहीं करेंगे  जैसा कि भारत ने किया है।  1999 में जब दोनों देशों के बीच बहुत उम्मीद के साथ लाहौर समझौता हुआ  था उसी समय कारगिल हमला हो गया। इससे साफ जाहिर होता है कि पाकिस्तान की खुफिया एजेंसियां  दोनों देशों के बीच संबंध सुधारने के पक्ष में नहीं हैं। उसे यह मालूम है कि अगर आतंकी हमला होता है तो आंतरिक दबाव के चलते भारत द्विपक्षीय समझौते पर बातचीत नहीं कर सकता है। वहां की सरकार यह जानते हुए भी खुफिया एजेंसियों का ही समर्थन करती है।
        पाकिस्तान एक ऐसा देश है जहां फौज का भी शासन चलता है। इतिहास गवाह है कि पाकिस्तान ने ब्रिटिश सेना का एक तिहाई भाग हासिल कर लिया लेकिन उसके संसाधन महज 17% थे और इसके चलते वहां फौज का वर्चस्व कायम हो गया।  वहां की राष्ट्रीयता की परिभाषा फौज  ही गढ़ती है। कई बार वहां नागरिक या असैनिक शासकों ने भी अपना वर्चस्व कायम करना चाहै है और  उन्हें नीचा दिखाने के लिए पाकिस्तानी सेना अपनी प्रासंगिकता प्रदर्शित करती रही है। ऐसा होने के लिए भारत को हमेशा पाकिस्तान से दुश्मनी का दिखावा करना होगा। लेकिन ,भारत ऐसा नहीं कर सकता और पाकिस्तान भी खुलकर ऐसा नहीं करता । वह पारंपरिक युद्ध में नहीं उतरता बल्कि यह उद्देश्य आतंकवाद के माध्यम से पूरा करता है। अब सोचिए पाकिस्तानी सेना व्यावसाय भी करती है। यह दुनिया की पहली सेना है जो सीमेंट ,कपड़े इंश्योरेंस इत्यादि बेचती है। प्राइम स्टेट उसका वास्तविक धंधा है। अगर किसी असैनिक के पास सेना से ज्यादा संसाधन हो जाते हैं तो वह संकट में पड़ जाता है। अपने 72 साल के वजूद में पाकिस्तान पर 33 सैनिक शासकों ने शासन किया। वह चाहते हैं कि पाकिस्तान में शासन जिसका भी हो वह सेना के हाथ की कठपुतली बनी रहे।
       पाकिस्तान में शायद ही कोई ऐसा आदमी मिलेगा जो बांग्ला देश को आजाद कराने  में भारत की भूमिका को लेकर नाराज हो। सभी पाकिस्तानियों के दिमाग में है कि पूर्वी पाकिस्तान से सत्ता में भागीदारी नहीं करने के कारण यह घटना घटी या सेना अपनी साजातिक राष्ट्रभक्ति थी जो यह घटना घटी भारत तो केवल उस घटना को गति देने वाला था।  दूसरी तरफ पाकिस्तानी सेना इसे अपना अपमान मानती है । कोई माने या ना माने, 1971 की घटना ने पाकिस्तानी सेना की साइकी और भारत के बारे में उसके विचार को प्रभावित किया था और यही कारण है कि कश्मीर में पाकिस्तानी सेना 1971 के अपमान का बदला लेना चाहती है।
        पिछले हफ्ते तीन मुल्कों ने पाकिस्तान पर आरोप लगाया था कि वह उन पर आतंकी हमले करता है। ये तीन मुल्क थे भारत, ईरान और अफगानिस्तान। पाकिस्तान का आतंकवादी ढांचा वैश्विक है। यह सोवियत संघ को  पराजित करने के लिए अमरीका के इशारे पर मुजाहिदीन को प्रशिक्षित करने से आरंभ होता है और वहां से चलता हुआ कश्मीर तक आता है। इतिहास दोहरा रहा है।  अमरीका अभी भी अफगानिस्तान में जमा हुआ है और नतीजतन कश्मीर में आतंकवाद बढ़ता जा रहा है।
        कश्मीर को आजाद कराना पाकिस्तान के राष्ट्रवाद का प्रमुख अंग है । कश्मीर को मुक्त कराने का पाकिस्तानी सैनिक  प्रयास 1965 में और कारगिल में 1999 में असफल हो गया। अब उसके पास आतंकवाद ही एकमात्र उपाय है । आज पाकिस्तान के पास कश्मीर ही भारत विरोध का एक बहाना है। पाकिस्तान  एक ऐसा देश है जहां ओसामा बिन लादेन बड़े आराम से रह रहा था और पाकिस्तान बराबर इंकार करता रहा था। आज भी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इंकार कर रहे हैं। हर भारतीय उसकी हकीकत समझ सकता है।
             
     

Tuesday, February 19, 2019

पाक को सबक सिखाना जरूरी 

पाक को सबक सिखाना जरूरी 

पिछले हफ्ते पुलवामा में सीआरपीएफ हुआ हमला कश्मीर में सीआरपीएफ पर सबसे घातक हमला था। इसके पहले 2010 में छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने सीआरपीएफ पर घात लगाकर हमला किया था जिसमें 75 जवान शहीद हो गए थे।  कश्मीर और छत्तीसगढ़ में बहुत फर्क है। कश्मीर में हमले अक्सर होते रहते हैं । सरकारी आंकड़े बताते हैं कि कश्मीर में 2014 के मुकाबले 2018 में सुरक्षाबलों पर हमले 94% से ज्यादा बढ़ गए हैं। लोकसभा में गृह राज्य मंत्री हंसराज गंगाराम अहीर द्वारा पेश किए गए आंकड़ों के मुताबिक 2014 में जहां  सुरक्षाबलों पर 47 हमले हुए थे वही 2018 में 91 हमले हुए जिसमें 339 सुरक्षाकर्मी मारे गए। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 2018 तक 4 साल में कश्मीर में आतंकवादी घटनाओं की संख्या 222 से बढ़कर 614 हो गई जिसमें 838 आतंकी मारे गए । 2018 में सबसे ज्यादा आतंकवादी घटनाएं घटीं। 2017 से पीछे विगत 28 वर्षों में कश्मीर में 70000 आतंकवादी घटनाओं में 22143 आतंकवादी 13976 नागरिक और 5123 सैनिक मारे गए हैं। 
      इन आंकड़ों को देखते हुए ऐसा लग रहा है कि अब पाकिस्तान से संबंध सुधारने की कोई गुंजाइश नहीं रही ।  आतंकी दुनिया भर में यही तकनीक अपनाते चल रहे हैं जो पुलवामा में उन्होंने अपनाया  था । चाहे वह वर्ल्ड ट्रेड  सेंटर  पर 11 सितंबर का हमला हो या फिर ब्रसेल्स हवाई अड्डे पर हमला हो या पैरिस के एक म्यूजिक कंसर्ट पर हमला। सब में एक ही तकनीक अपनाई गई । अब सवाल उठता है कि भारत के पास क्या विकल्प है । भारत ने सोमवार को सभी मित्र देशों के पाकिस्तान स्थित दूतावासों को खाली करने की सलाह दी है। आखिर ऐसा क्यों? भारत में  या अन्य जगह यह कहकर प्रचारित किया जा रहा है कि भारत  जल्दी ही पाकिस्तान पर हमला करने वाला है ।   वास्तविकता यह नहीं लगती। ऐसा  कदम इसलिए उठाया गया है  कि पाकिस्तान एक सामान्य मुल्क नहीं है । यद्यपि पाकिस्तान में एक नागरिक सरकार है जिसका लोकतांत्रिक तरीकों से चुनाव भी होता है। इसके अलावा वहां एक सैनिक सत्ता भी है जो पाकिस्तान में स्थायित्व का मेरुदंड है और यह तब से है जब से पाकिस्तान लोकतांत्रिक नहीं था इसके बाद जब से अफगानिस्तान में सोवियत संघ का कब्जा हुआ और अमरीकी धन तथा मिलिट्री से वहां मुस्लिम आतंकियों को बढ़ावा दिया गया तब से पाकिस्तान में सत्ता का एक तीसरा स्तंभ भी तैयार हो गया। जिसे   इस्लामी आतंकवादियों की फौज कह सकते हैं।
       आतंकवाद का मुकाबला करना और उसे समाप्त करना बहुत कठिन है।  यह न केवल भारत की समस्या है बल्कि यह पूरे विश्व की समस्या बन गई है, विशेषकर जो देश विकासशील हैं वह देश आतंकवादियों को सदा के लिए खत्म करने में सफल नहीं हो पा रहे हैं।  अफगानिस्तान में अमरीका इनसे व्यर्थ युद्ध में लगा हुआ है।  अब आखिर में पराजित होकर वापस आ रहा है। हालांकि उसने अपनी पराजय खुलकर स्वीकार नहीं की है। मुस्लिम  देशों और गैर मुस्लिम देशों में भी आतंकवाद कायम है। उदाहरण के लिए देखें अल्जीरिया, बांग्लादेश, मलेशिया इत्यादि देशों में भी आतंकवाद कायम है। बोको हरम नाइजीरिया को वर्षों से आतंकित किए हुए है  और अब सूडान में फैल रहा है। अगर इतिहास देखें तो बोल्शेविक क्रांति या फिर अराजकतावाद ही दुनिया में उतना नहीं फैला है जितना इस्लामी आतंकवाद फैला है । लेकिन अन्य वैश्विक आंदोलनों अलग यह  साइबर साइंस और आधुनिक हथियारों के बल पर अत्यंत घातक हो गया है । आतंकवाद से लड़ने वाले देशों में भारत अग्रिम मोर्चे पर है।  दुनिया विभिन्न देशों द्वारा भारत के हितों का ध्यान नहीं रखा जाता। संयुक्त राष्ट्र संघ वीटो के आगे घुटने टेक देता है। चीन अपने मुल्क के अलावा कहीं भी आतंकवाद से युद्ध में दिलचस्पी नहीं रखता। रूस खुद सीरिया में आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा है। इसलिए इन दोनों देशों द्वारा समर्थन का आश्वासन बेकार है । भारत इनके आश्वासनों पर भरोसा भी नहीं करता। अब ऐसी स्थिति में क्या किया जाए? उरी जैसे सर्जिकल हमले की तरह यह मसला नहीं रह गया ।  वह दो सेनाओं के बीच का मसला था। आतंकवादी आंदोलन इससे अलग है। भारत अगर सीमा पार करता है और छापामार हमले करता है तो यह अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन होगा। अधिकांश भारतीय इस तरह के उल्लंघन को  गलत नहीं कहेंगे, उल्टे पूरा भारत इस तरह के युद्ध के समर्थन में खड़ा हो जाएगा। लेकिन अगर ऐसा होता है तो भारत को खुली और मुकम्मल जंग के लिए तैयार रहना पड़ेगा। पाकिस्तान और भारत के बीच अबतक चार युद्ध हुए जिनमें 3 में भारत विजयी रहा है।  पहला युद्ध जो अभी तक पूरा नहीं हुआ है वह था 1948 का युद्ध । वह अभी तक कायम है । लेकिन तब से अब तक बहुत बड़ा अंतर आ गया है। दोनों के पास परमाणु हथियार हैं और व्यापक युद्ध की स्थिति में हो सकता है उन हथियारों का प्रयोग हो तो हमारे यहां असैनिक क्षेत्रों में भी इसका कहर टूटेगा। इसलिए अगर भविष्य में कोई युद्ध होता है तो यह अत्यंत सीमित होगा और बहुत चालाकी से इसका संचालन करना होगा। यह आनन फानन में नहीं हो सकता। देशभर के लोगों का खून उबल रहा है । पाकिस्तान के विरुद्ध भयानक क्रोध है और इस क्रोध को शांत करने का एक ही तरीका है कि पाकिस्तान पर भीषण आघात पहुंचाया जाए ।   अचानक युद्ध ठान देने से ऐसा नहीं हो सकता। हमें इस की रणनीति बहुत सोच-समझकर बनानी होगी। हालात बहुत तेजी से बदल रहे हैं। भारत का गुस्सा कब फूटेगा इसका अंदाजा बड़ा मुश्किल  है पर मोदी जी चुप नहीं बैठेंगे यह भी तय है।

Monday, February 18, 2019

मोदी डरते नहीं हैं पाकिस्तान जान ले

मोदी डरते नहीं हैं पाकिस्तान जान ले

पाकिस्तान एक अजीब मुल्क है। वह कमोबेश आत्मघाती है। उसके बारे में एक कहावत मशहूर है कि वह ग्रेनेड के सेफ्टी कैच के लूप को पकड़कर सामने वाले से बात करता है और हमेशा यह कहता रहता है कि अगर उसकी बात नहीं मानी जाएगी तो खुद को उड़ा  लेगा। अब प्रश्न है क्या पुलवामा में पाकिस्तान ने ग्रेनेड का सेफ्टी कैच खींच लिया। लगता है कि उसने ऐसा ही किया है।
      अभी तक मीडिया में सब जगह प्रचारित किया जा रहा है कि यह एक स्थानीय आतंकी कार्रवाई थी। लेकिन अपराध शास्त्र की दृष्टि से ऐसा नहीं था। आत्मघाती हमलावर जरूर कश्मीरी था और भारतीय था।  यह मानना बड़ा कठिन है कि इसकी साजिश भारत में रची गई होगी। सबसे पहली बात जैश ए मोहम्मद ने इसकी जिम्मेदारी स्वीकार की है। यह पाकिस्तानी गिरोह है और आईएसआई इसकी आका है। दूसरी बात कि  कट्टरपंथ का उकसावा जरूर स्थानीय सूत्रों से मिला होगा लेकिन अभी तक इस बात का कोई सबूत नहीं मिला है कि इतनी बड़ी मात्रा में आरडीएक्स स्थानीय सूत्रों को कहां से उपलब्ध हुआ। यही नहीं विस्फोट के पहले जो वीडियो रिकॉर्ड किया गया वह अगर किसी ने ध्यान से देखा हो तो साफ पता चलेगा की वह आतंकवादी किसी बोर्ड पर लिखा कुछ पढ़ रहा है। उसकी भाषा में कश्मीरी असंतोष है या प्रतिशोध नहीं था या उतना ज्यादा नहीं था जितना भारत के मुसलमानों को उकसाने की कोशिश थी। सोचिए कि बाबरी मस्जिद और गुजरात का जिक्र कश्मीर में क्यों ?  यह जो सोच है वह जैश ए मोहम्मद का ही है। 
     अब इसका मॉडस ऑपरेंडी देखें । चलिए शुरू करते हैं 2001 से। 2001 में कश्मीर विधानसभा पर हमला हुआ। यह हमला आत्मघाती था। वह हमला जैश ए मोहम्मद  द्वारा करवाया गया था। उसी साल भारतीय संसद पर भी हमला हुआ। वह भी इसी की करतूत थी। इसके बाद पठानकोट- गुरदासपुर में भी हमले हुए । सबका मकसद एक ही था और वह था आतंक का कश्मीर से आगे विस्तार करना। बेशक लश्कर-ए-तैयबा के मुकाबले जैसे मोहम्मद एक छोटा संगठन है लेकिन वह अत्यंत साधन संपन्न है और आई एस आई उसे ट्रेंड कर इस लायक बना रहा है कि वह बहुत सोच-समझकर प्रभावी हमला करे। उसके साधनों का अंदाजा इसी बात से लगता है कि वह भारतीय विमान का अपहरण कर काठमांडू ले जाने में सफल हुआ और सौदा कर के मसूद अजहर को छुड़ा लिया।  विमान लौटने तक हर चरण पर आई एस आई की नजर थी। आई एस आई के लिए जैश ए मोहम्मद और अजहर मसूद किसी भी आतंकवादी गिरोह से ज्यादा ताकतवर हैं। यही कारण है कि चीन लगातार उसका पक्ष लेता रहा है और बेशर्मी से उसका साथ देता रहा है। घटनाक्रम को देखते हुए जरा सोचें की सारे हमलों में कश्मीरियों की प्रमुख भागीदारी रही है पर  यह सोचना भूल है कि इस के मूल में कश्मीरी हैं।   यह बहाना लेकर पाकिस्तान को इस मामले का खंडन करने का मौका नहीं दें।
      अब मूल बात पर आएं। कह सकते हैं कि पाकिस्तान ने अपने पैर पर कुल्हाड़ी क्यों मारी ? अबतक जैश ए मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा के हमलों का खुला जवाब नहीं दिया गया।  हालांकि अतीत में कई सर्जिकल स्ट्राइक हुए हैं जो गोपनीय थे। अटल बिहारी बाजपेई और मनमोहन सिंह के शासनकाल में भी भारत ने पाकिस्तान पर अंतरराष्ट्रीय दबाव और उसकी रणनीतिक मानसिकता का सहारा लिया था। यह उपाय शांति वादी था। अब मोदी जी के भाषण पर जरा गौर करें।  उनकी बॉडी लैंग्वेज बताती है कि वह इस किस्म के शांति वादी सिद्धांतों पर विश्वास नहीं करते हैं। उसे शायद यह पता नहीं है कि मोदी सरकार संयम नहीं रख सकेगी। पाकिस्तान पर गाज गिरनी  है । कब गिरेगी यह कहना मुश्किल है । लेकिन ज्यादा समय नहीं लगेगा। जवाबी कार्रवाई जल्दी हो सकती है और पूरी दुनिया इसे देखेगी। मोदी पुलवामा के दाग को लेकर वोट मांगने नहीं जाएंगे। 
      अब पाकिस्तान को यह तय करना है कि वह यही ठीक से रहता है या घरेलू मजबूरियों के दबाव में दूसरा कदम उठाता है। इसका फौजी नतीजा चाहे जो हो यह स्थिति इमरान खान के कार्यकाल पर विराम लगा सकती है। इतिहास देखें तो पता चलेगा पाकिस्तान का कोई भी शासक भारत से जंग के बाद सत्ता पर कायम नहीं रह सका है। चाहे वह 1965 में अयूब खान हों या 1971 में याहिया खान या 1999 के कारगिल युद्ध के बाद नवाज शरीफ हों। कोई  सत्ता पर कायम नहीं रह सका।  अब जो होगा उसका फैसला करना इमरान खान के बस में नहीं होगा । 1990 के बाद पाकिस्तान परमाणु अस्त्रों का खौफ दिखाकर भारत के खिलाफ आतंकवादी हरकतें करवाता रहा है।  अब उसे एक भयानक हकीकत से सामना करना होगा। भारत का मौजूदा शासन इस बात पर यकीन करता है कि  परमाणु अस्त्र दोनों के पास है। अगर पाकिस्तान इसका डर दिखाने की कोशिश करता है तो यह भारी पड़ेगा। भारत में चुनाव को देखते हुए इसकी संभावना बहुत प्रबल है कि मुश्किलों का सामना करना पड़े। नरेंद्र मोदी को पाकिस्तान के परमाणु बमों का खौफ नहीं है।

Sunday, February 17, 2019

पुलवामा  हमला : पाकिस्तान की नई रणनीति

पुलवामा  हमला : पाकिस्तान की नई रणनीति

पुलवामा हमले में समीप के ही एक गांव का निवासी आदिल अहमद दर को फिदायीन हमलावर के रूप में इस्तेमाल किया गया। वह बारूद से भरी एक मोटर गाड़ी लेकर सीआरपीएफ के काफिले में घुस गया और उसके विस्फोट से 40 जवान मारे गए। कहा जाता है कि कश्मीर और भारत के अन्य इलाकों में  पाकिस्तान ऐसे हमले करवा रहा है, ताकि यह प्रदर्शित हो की पाकिस्तान को दबाव में नहीं लिया जा सकता ।  इस हमले के माध्यम से पाकिस्तान के इस कृत्य के विशिष्ट पहलुओं को  समझा जा सकता है। इस हिंसा से एक विचित्र लेखा-जोखा प्राप्त होता है। सामरिक नजरिए से अगर देखें तो पाकिस्तान हमले को तीन तरीकों से और बढ़ा सकता है तथा  चुप्पी साधे रह सकता है। पहला तो उस क्षेत्र का भूगोल है। कश्मीर में यह सबसे कम उत्तेजना वाला क्षेत्र है। कश्मीर में अत्यंत उत्तेजना वाले लोकेशंस भी हैं जैसे दिल्ली और मुंबई में हैं। मध्य स्तरीय उत्तेजना के भी  कुछ क्षेत्र हैं   जो कश्मीर से बाहर हैं जैसे गुरदासपुर। दूसरी जो बात है वह है आतंकियों का टारगेट । सुरक्षाबलों पर हमले से ज्यादा राजनीतिक खुंदक निकाली जा सकती है। यदि नागरिक क्षेत्रों पर हमले किए जाएं तो सरकार पर बदला लेने के लिए दबाव पड़ने लगता है। तीसरा है हमले का आकार प्रकार। आत्मघाती हमले या फिदाई हमले जैसे जैश ए मोहम्मद द्वारा किए गए या लश्कर-ए-तैयबा की जो खास पसंद है। फिदायीन हमले  खास तौर पर तोड़फोड़ या फौजी काफिले पर विस्फोटकों के इस्तेमाल के रूप में किये जाते हैं।
यह भी कहा जा सकता है कि पुलवामा का यह हमला एक तरह से चुनाव की पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इच्छाशक्ति को मापने के लिए किया गया था। जैश ए मोहम्मद द्वारा पिछले 18-19 वर्षों से कार बम का इस्तेमाल किया जाता रहा है और खास तौर पर उसके आत्मघाती हमलावर पंजाबी मूल के पाकिस्तानी होते हैं। लेकिन पुलवामा मामले में हमलावर आदिल अहमद दर दक्षिणी कश्मीर का था इससे यह भी पता चलता है कि जैश ए मोहम्मद एक कश्मीरी संगठन है। यह हकीकत उस वीडियो से भी जुड़ी है जिसे हमले के पहले तैयार किया गया था। फिलिस्तीन में आत्मघाती हमले के वीडियो यह सुनिश्चित करने के लिए एक तंत्र थे कि हमला होगा ही, क्योंकि अगर हमला नहीं होता है या नाकाम हो जाता है तो हमला करवाने वाले संगठन इस वीडियो को जारी कर देते थे जिससे सुरक्षा एजेंसियां हमलावर को पकड़ लेती थीं या हमला करवाने वाले संगठन उसे मार डालते थे। पहले जो भी हो जाए।  कश्मीर में यह पहला अवसर है कि इस तरह का वीडियो जारी हुआ हो। संभवत इसलिए भी किया गया हो कि आदिल दर पर संदेह हो कि वह हमला नहीं करेगा। अब जब हमला हो गया तो इस वीडियो का महत्व और बढ़ गया।  इसके माध्यम से भारी प्रचार होगा ,धन वसूले जाएंगे और नए आतंकियों की भर्ती की जाएगी।
        कुछ वर्षों से इस्लामिक स्टेट और अलकायदा  कश्मीर तथा भारत के अन्य क्षेत्रों के  मुसलमानों पर तंज करते आ रहे थे। यह दोनों संगठन कश्मीरी मुसलमानों को यह भी कहते थे वे कश्मीर की जंग में अपना ध्यान लगाएं । ये संगठन कश्मीर को सभ्यता के एक विशाल युद्ध के रूप में चित्रित करते थे और यह समझाते थे कि भारत या अन्य देश मुसलमानों के साथ लड़ रहे हैं। उनका उद्देश्य जिहाद के माध्यम से खिलाफत की स्थापना करना है। ऐसी स्थिति में आत्मघाती हमला वह भी कश्मीरी हमलावर के माध्यम से और हमला पूर्व वीडियो जारी करना एक तरह से पाकिस्तान द्वारा यह बताने की कोशिश थी कि कश्मीर पर उसका हक है । 
        लश्कर-ए-तैयबा आईएसआईएस के खिलाफ पाकिस्तान के  अंदरूनी जंग से जुड़ा है। जबकि जैश ए मोहम्मद संभवत पाकिस्तानी संगठन है जो फिलहाल भारत में सक्रिय है। इसका कारण रणनीतिक है। जब  पाकिस्तानी तालिबान के खिलाफ पाकिस्तान जंग शुरू करेगा तो आई एस आई और वहां की सेना पाकिस्तानी तालिबान के पुनर्वास के लिए दो रास्ते खोल सकते हैं। पहला कि वे अफ़गानिस्तान लौट जाएं और दूसरा जैश ए मोहम्मद से जुड़ जाएं और भारत में लड़ने के लिए घुस जाएं। जो  इंकार करेंगे वे मारे जाएंगे। दोनों मंच आज पाकिस्तान के लिए महत्वपूर्ण हैं। क्योंकि अमरीका अफगानिस्तान से फौज हटा रहा है और उसे इस्लामाबाद के सहारे छोड़ रहा है। पाकिस्तान के  देवबंदी आतंकियों को अफ़गानिस्तान लौटने में ज्यादा दिलचस्पी होगी।  वह तालिबान को मदद कर ज्यादा लाभ में रह सकते हैं। साथ ही साथ जैश ए  मोहम्मद बहुत ताकतवर संगठन है और वह भारत पर दबाव बना सकता है।
     ऐसी स्थिति में भारत को पाकिस्तान के आतंकियों के खिलाफ कदम उठाने के लिए तैयार होना पड़ेगा। इस  तैयारी के तहत सैनिक प्रयोग और कूटनीतिक कोशिश  दोनों शामिल है। भारत पाकिस्तान से अपने कूटनीतिक संबंधों को कम करने के बारे में भी सोच सकता है।  इस कदम के अंतर्गत भारत पाकिस्तान के सुरक्षा अटाशे को यहां से वापस भेज सकता है क्योंकि यह सर्वविदित तथ्य है कि वह अक्सर यहां  आई एस आई का नेटवर्क संचालित करता है और आतंकवाद के लिए सुविधाएं प्रदान करता है। भारत को चाहिए कि वह पाकिस्तान को आतंकवाद को बढ़ावा देने वाला राष्ट्र घोषित करे। इस मामले में वाशिंगटन से किसी तरह की उम्मीद व्यर्थ है। अमरीका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने पाकिस्तान को कड़ी डांट पिलाई थी और यहां तक की आर्थिक मदद भी बंद कर दी थी लेकिन उसे अफ़गानिस्तान इनाम के रूप में मिल गया। यह सोचना कि अमरीका पाकिस्तान को आतंकवाद को बढ़ावा देने वाला राष्ट्र घोषित करेगा और उस पर प्रतिबंध लगाएगा या चीन जैश ए मोहम्मद के प्रमुख मसूद अजहर पर पाबंदी लगाएगा, एक भोलापन है । 
हमारी सीमा पर इस दानव का सृजन करने वाला अमरीका ही है। अगर वह अफगानिस्तान में पाकिस्तान की भूमिका को प्रतिबंधित कर देता और पहले की तरह उस पर दबाव बनाए रखता तो पाकिस्तान भारत में इस तरह के संगठनों को मदद कभी नहीं करता । भारत को परेशान रखने में चीन की अपनी राजनीतिक भलाई है। वह मसूद अजहर जैसे आतंकियों को भारत में क्यों प्रतिबंधित करेगा। भारत को अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी।
  

Friday, February 15, 2019

देश के भीतर आतंकी  कर सकते हैं ड्रोन से हमले , सुरक्षा को भारी खतरा  

देश के भीतर आतंकी  कर सकते हैं ड्रोन से हमले , सुरक्षा को भारी खतरा  

हरिराम पाण्डेय 
कोलकाता: कश्मीर में सी आर पी एफ जवानों का  खून अभी सूखा नहीं कि दहलाने वाली एक खबर और मिली है। खुफिया सूत्रों के अनुसार कोलकाता में  चीनी वाणिज्य दूतावास यहां कुछ नेपाली संगठनों के सहयोग से  फिर से वामपंथी आतंकवाद(रेड कॉरिडोर) को संगठित कर रहा है और उनके कुछ लोगों को विस्फोटकों से भरे छोटे - छोटे ड्रोन से हमले के  लिए ट्रेंड कर रहा है । यहां रॉ के सूत्रों के अनुसार यह एक भयानक खतरा है जिसे सीमा पार से संचालित किया जा सकता है। सूत्रों के मुताबिक एक ड्रोन में लगभग 20 से 25 किलोग्राम विस्फोटक भरे जा सकते हैं जो किसी भी जनसंकुल इलाके पर हमले के लिए पर्याप्त होगा। 
    सूत्रों के अनुसार अभी इस तैयारी का पहला चरण चल रहा है। इसके अंतर्गत पुराने नक्सली इलाकों में लोगों को  फिर से आंदोलन के लिए तैयार किया जा रहा है। कोलकाता में चीनी वाणिज्य दूतावास द्वारा शहर के कई नेपाली संगठनों को इसके लिए धन दिया जा रहा है। नेपाल चीन के प्रोत्साहन से ही भारत से विमुख हो गया है और वहां वामपंथी शासन चल रहा है। ये वामपंथी गुट बिहार , बंगाल और उत्तरप्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्रों में लोगों के साथ घुलमिल कर रह रहे हैं और जब ज़रूरत होती है वे कोलकता या समीपवर्ती इलाकों में आसानी से चले आते हैं।
   सूत्रों के अनुसार केवल बंगाल में पिछले 6 महीनों लगभग 30 ड्रोन्स को उड़ते देखा गया है और उनमें से दो एक को गिरा भी लिया गया है। उनमें केवल रिमोट सेंसिंग कैमरे पाए गए हैं। शक है कि ये ट्रेनिंग के हिस्से हैं। सुरक्षा एजेंसियों को संदेह है कि आतंकी  अपने हमलों के तौर तरीके बदलने की तैयारी में  हैं। सूत्रों के मुताबिक अगर आतंकी ऐसा करते हैं तो भारी खतरा उत्पन्न हो जाएगा।    

घिनौना हमला

घिनौना हमला

पुलवामा में गुरुवार को आतंकियों ने सीआरपीएफ जवानों से भरी एक बस पर कार बम से हमला कर 40 जवानों को मौत के घाट उतार दिया। पाकिस्तान के आतंकी समूह जैश ए मोहम्मद ने इस हमले की जिम्मेदारी ली है। भारत ने इस हमले की तीव्र निंदा करते हुए पाकिस्तान पर आरोप लगाया है और कहा है कि "वह आतंकवाद से जुड़े   लोगों तथा गिरोहों को समर्थन करना बंद करे।  अपनी जमीन से इन गिरोहों  को खत्म करे।" सरकार के साथ भारत के सभी राजनीतिक दलों और अंतरराष्ट्रीय समुदाय  ने भी हमले की तीव्र निंदा की है। साथ ही देश भर में इस घटना पर आक्रोश है। शुक्रवार की सुबह कैबिनेट की बैठक हुई और घटना की समीक्षा की गयी। कैबिनेट में हुए फैसले और तदनुसार निर्देशों को के साथ घटना के बाद स्थिति का जायजा लेने गृह मंत्री कश्मीर पहुंच चुके हैं। इधर कैबिनेट की बैठक के बाद अरुण जेटली ने मीडिया को बताया कि पाकिस्तान को प्रदत " मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा वापस ले लिया गया है। राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने कहा है कि इस मामले में गुप्तचरी असफल रही है। सरकार ने इस मामले में कूटनीतिक रास्ता अपनाने का निर्णय किया है। नेशनल इन्वेस्टिगेटिंग एजेंसी ने भी जांच शुरू कर दी है। भारत ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अपील की है कि वह भारत द्वारा बनाई गई आतंकियों की सूची का अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा परिषद में समर्थन करें। भारत ने यह भी कहा है कि दुनिया पाकिस्तान पर दबाव डाले कि वह अपनी धरती से आतंकियों को काम करने से रोके।
       अपराध शास्त्र के नजरिए से देखें तो आज के हमले की तैयारी गत 17 जनवरी को उस समय शुरू हो गई थी  जब कश्मीर के राजबाग क्षेत्र में आतंकियों ने ग्रेनेड फेंका था और इसमें कई पुलिस वाले घायल हो गए थे। जिम्मेदारी भी जैश ए मोहम्मद ने ही ली थी। इस घटना के बाद श्रीनगर में दो और हमले हुए।  10 फरवरी को श्रीनगर के लाल चौक पर सीआरपीएफ के जवानों पर ग्रेनेड फेंके गए।  इस घटना के चार दिन बाद पुलवामा वाली घटना हुई । यह कश्मीरियों द्वारा किया गया हमला नहीं था। कश्मीरी नौजवानों के हमले की विधि तथा उसके तरीके अलग होते हैं। ऐसे हमलों के लिए कई बार अभ्यास करने होते हैं। अफगानिस्तान में जैसे जैसे हालात बदल रहे हैं पाकिस्तान पागल आतंकियों को कश्मीर में झोंक रहा है। आने वाले दिनों में ऐसे और हमले हो सकते हैं । इसलिए अब समय आ गया  है जब हमें अपनी फौज की पूरी ताकत और सर्वोत्तम संसाधनों के साथ सक्रिय हो जाना चाहिए। वरना पुलवामा की तरह और घटनाएं हो सकती हैं।
        ऐसे में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास दो ही विकल्प हैं। पहला कि यह सर्जिकल स्ट्राइक के नाम से मशहूर 2016 की तरह अधिकृत कश्मीर पर हमला करे या कूटनीति की राह अपनाए। सरकार ने कूटनीतिक राह अपनाने की बात की है। लेकिन इससे होगा क्या ?  भारत पाकिस्तान की रिश्ते को देखते हुए यह स्पष्ट है कि भारत पाकिस्तान पर ज्यादा दबाव नहीं डाल सकता। ज्यादा से ज्यादा भारत इस मामले को अमरीकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के सामने उठा सकता है। ट्रंप ने भी 2017 में आतंकियों को शरण देने के कारण पाकिस्तान को डांटा था और इसके बाद अमरीका ने पाकिस्तान को सैनिक सहायता देनी बंद कर दी थी।  पाकिस्तान को अमरीका ने पुनः मदद देनी शुरू कर दी है। अब हमारे पास सिर्फ चीन एक ऐसा मुल्क है जो पाकिस्तान को यह सब करने से रोक सकता है । लेकिन चीन ऐसा नहीं करेगा। यह याद होगा कि भारत ने राष्ट्र संघ में जैश ए मोहम्मद पर प्रतिबंध लगाने की बात उठाई थी और चीन ने उसका विरोध किया था। यहां तक की अप्रैल 2018 में मोदी और चीन के राष्ट्रपति की बैठक के बाद भी चीन ने अजहर मसूद के संगठन जैश ए मोहम्मद पर प्रतिबंध का विरोध किया था। अब नई दिल्ली अजहर मसूद पर प्रतिबंध की अपील कर सकती है । चीन को वीटो का अधिकार है और वह चेतावनी दे चुका है कि अगर अजहर मसूद पर प्रतिबंध के लिए राष्ट्र संघ में बात उठेगी तो वह वीटो भी तो लगा सकता है।  2018  के सितंबर में चीन के विदेश मंत्री वांग ई ने भारत के प्रयास का विरोध किया था जबकि अमेरिका फ्रांस और इंग्लैंड ने भारत का समर्थन किया था। वास्तविकता तो यह है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में चीन को छोड़कर सभी देश अजहर को प्रतिबंधित करने के पक्ष में है । ऐसे में उम्मीद नहीं है कि चीन आगे भी कुछ सहयोग कर सकता है।  पूरी आशंका है कि पाकिस्तान जैश ए मोहम्मद को बढ़ावा देगा और भारत पर भविष्य में और हमले हो सकते हैं। चीन के मंत्री ने का सबूत मांगा था और कहा था अगर पक्के सबूत मिलें तो  इस्लामाबाद जरूर प्रतिबंध लगाएगा।  चीन के विदेश मंत्री ने राष्ट्र संघ में घोषणा की थी कि "उनका देश सभी तरह के आतंकवाद के विरुद्ध है। पाकिस्तान ने भी अफगानिस्तान में अलकायदा की मदद करने की काफी कीमत चुकाई है।"
       अब भारत के पास जो दूसरा विकल्प  है वह है सर्जिकल स्ट्राइक की तरह एक दूसरा हमला। लेकिन यह बड़ा कठिन है सीमा पार होने वाले हमले बहुत ही कठिन होते हैं सर्जिकल स्ट्राइक्स को बड़ी सावधानी से अंजाम दिया जाता है ।  अगर इसमें बड़ी संख्या में आतंकी मारे जाते भी जाते हैं तो इसका आतंकवाद के शमन पर असर नहीं  पड़ता है। क्योंकि पाकिस्तान यह कहता है इस तरह कोई हमला हुआ ही नहीं । इसके पहले भी जो सर्जिकल स्ट्राइक किया गया था उसका क्या लाभ हुआ। क्या पाकिस्तान को रोका जा सका? इस बार भी सरकार यदि वही फार्मूला अपनाती है तो प्रश्न उठता है कि क्या यह कारगर होगा ? क्या ऐसे कदमों से इस तरह से हमलों  को रोका जा सकता है?

Thursday, February 14, 2019

राफेल सौदा: सच शायद ही पता चले

राफेल सौदा: सच शायद ही पता चले

जैसे-जैसे  चुनाव के दिन  नजदीक आ रहे हैं राफेल युद्धक विमानों के सौदे को लेकर माहौल गर्म होता जा रहा है। इसी बीच बुधवार को राज्यसभा में लेखा महापरीक्षक एवं नियंत्रक की रिपोर्ट पेश की गई। रिपोर्ट में कहा गया है कि एनडीए सरकार ने पूर्ववर्ती यूपीए सरकार द्वारा किए गए सौदे से 2.86 प्रतिशत कम कीमत पर सौदा तय किया है । साथ ही इसमें  जरूरत के अनुसार  कई नए फीचर जोड़े गए हैं।  रिपोर्ट में कहा गया है कि फीचर जोड़े जाने के बावजूद पूरा सौदा    सस्ता पड़ा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि पहले 126 विमानों के लिए सौदा किया गया था। इसके बाद भारतीय जरूरतों के अनुसार कुछ परिवर्तन परिवर्तन के करवा कर 36 विमानों का सौदा किया गया इसके बावजूद बड़ी रकम बचाई गई । रिपोर्ट में कहा गया है कि विमान चलाने के लिए जो सहायता उपकरण दिए गए हैं उस मानदंड पर भी एन डी ए का सौदा सस्ता है । यही नहीं हथियारों की पैकेज भी इस सौदे  में सस्ती है। वैसे अगर गंभीरता से देखें तो यह रिपोर्ट भी पूरी तरह विवाद मुक्त नहीं है।  इसमें कीमतों को तय करने को लेकर कई विवाद बिंदुओं को शामिल ही नहीं किया गया है और इसे रक्षा मंत्रालय की गोपनीयता के परदे में छुपा दिया गया है। दूसरी बात है कि लेखा महापरीक्षा राजीव महर्षि 2016 में केंद्रीय वित्त सचिव थे। उसी समय राफेल विमानों के संशोधित सौदे पर हस्ताक्षर हुए थे।  इन्हीं आधारों पर विपक्ष ने इस रिपोर्ट को खारिज कर दिया है ।  इस पर विवाद पहले से जारी है और कह सकते हैं इस रिपोर्ट को लेकर विवादों का एक नया दौर आरंभ हो गया है।
कुछ जानकार लोगों का कहना है की मोदी सरकार का सौदा यूपीए के दौरान हुए   सौदे से बेहतर शर्त पर नहीं था। कहा जा रहा है कि मोदी सरकार के नए सौदे में 36 राफेल विमानों के पहले फेज में 18 विमानों की डिलीवरी करने की तारीख भी यूपीए सरकार के दौरान मिले प्रस्ताव से विलंब से थी। जितने मुंह उतनी बातें और उन बातों के बीच यह समझ पाना बड़ा कठिन है कि सच क्या है? सब के पास अपने अपने तर्क हैं ।भारत में हथियारों के सौदे हमेशा विवादास्पद होते हैं। अब से पहले वह बोफोर्स तोपों की खरीद का सौदा  सुर्खियों में रहा था । उस समय भी कीमतों को लेकर बहुत बात बढ़ी थी।  स्थिति तब और खराब हो गई थी जब स्वीडन के  प्रधानमंत्री ओलाफ़ पामे की 1986 में हत्या हो गई। प्रधानमंत्री पामे इस सौदे का समर्थन कर रहे थे । हत्यारा पकड़ा नहीं जा सका है। बोफोर्स की क्षमता को लेकर भारी विवाद हुआ था। बाद में कारगिल युद्ध के समय वही तोपें काम आईं।  इस  बार सुप्रीम कोर्ट पर उंगली उठी है। सीबीआई ने अभी तक   कोई जांच शुरू नहीं की है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि सारा मामला बहस का मसला बना हुआ है । मीडिया में संसद की बहसों का हवाला दिया जाता है।  बहसों में अखबारों का हवाला दिया जाता है भाजपा के प्रवक्ता का हवाला दिया जाता है और इस पर बहस चलती रहती है।  प्रक्रिया गत तकनीकी शब्दों और विमान की तकनीकों की लंबी फेहरिस्त बहस को और उलझा देती है। मामला इतना कन्फ्यूजिंग हो गया है हर समय, हर बहस पर एक नई बात उभर आती है और उस पर विवाद खड़ा हो जाता है। शुरु में रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने सारे तथ्य सार्वजनिक करने का वादा किया था बाद में फ्रांस के साथ गोपनीयता समझौता का हवाला देकर वह अपनी बात से मुकर गयीं। इसमें और भी चिंताजनक तथ्य यह है कि हवा उड़ रही है कि  राफेल सौदे को कमजोर करने के प्रयास किए जा रहे हैं । कथित तौर पर सरकार  36 राफेल अनुबंध को भी घटाने की कोशिश में है लेकिन अभी तक यह प्रमाणित नहीं हो सका है।   जब तक मुकम्मल तौर पर यह पता नहीं चल जाता कि इससे  होने वाला लाभ किसको मिला है  या किसको मिल रहा है या मिलेगा तबतक  जितने भी आरोप लगाए जा रहे हैं वह सही नहीं कहे जा सकते। लाभार्थी की पक्की पहचान जब तक नहीं होगी तब तक घोटाले को प्रमाणित करना बहुत कठिन है।  बात बहुत बढ़ गई है और इसमें हकीकत को समझना बड़ा कठिन हो गया है। सब के पास अपने अपने तथ्य हैं लेकिन कहीं पक्के सबूत नहीं हैं। यह बहस में शामिल पक्षों की अयोग्यता कही जाएगी । भारत में हथियारों को लेकर अक्सर ऐसा होता रहा है शायद राफेल सौदे में भी कुछ ऐसा ही हो।

Wednesday, February 13, 2019

आना प्रियंका गांधी का

आना प्रियंका गांधी का

सोमवार को लखनऊ में प्रियंका गांधी का पहला रोड हुआ। एक तरह से यह उनकी औपचारिक राजनीतिक शुरुआत थी।औपचारिक इसलिए कि उत्तर प्रदेश का, खासकर पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभार सौंपे जाने के बाद वह पहली जनसभा थी। उसी दिन सवेरे उन्होंने टि्वटर भी ज्वाइन किया और शाम को उनके समर्थकों की गिनती लाख पहुंच गई । जबकि उन्होंने कुछ भी ट्वीट नहीं किया। सड़क पर और साइबरस्पेस में उनका आना लगभग एक साथ हुआ। सड़क पर जो प्रदर्शन हुए उसके आयोजकों और सोशल मीडिया में उनके प्रबंधकों में लगता बहुत अच्छी तालमेल है। खबरों को अगर मानें तो लखनऊ में दृश्य बड़ा ही खुशनुमा था ।  हवाई अड्डे से लेकर शहर तक लोगों की कतार लगी थी। इसके पहले विधानसभा चुनाव के दौरान राहुल गांधी या अखिलेश यादव के रोड शो की इससे  तुलना करना उचित नहीं होगा। दोनों के समय और संदर्भ में फर्क है। प्रश्न पूछा जा सकता है कि क्या 2014 में यह ज्यादा था जब मोदी की लहर चल रही थी या 2017 में प्रियंका गांधी ने बेशक उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के प्रचार का नेतृत्व किया था तब इन अभियानों में जो हुजूम या जितने लोग एकत्र हुए थे उनकी संख्या से ज्यादा थी। इन सब की तुलना व्यर्थ है।  भीड़ हमेशा वोट में नहीं बदलती और जब तक वोट के परिणाम ना आ जाएं कोई भी तुलना उचित नहीं होगी । यह सही है कि डूबती हुई कांग्रेस में प्रियंका गांधी के प्रवेश ने नया जोश भर दिया। कांग्रेस समर्थक मीडिया में भारी उल्लास और उन्माद देखा गया। इनमें से कुछ लोग गुलाबी लिबास में "प्रियंका सेना" के सदस्यों से ज्यादा उत्साह में दिख रहे थे । यहां सवाल है कि इस तरह की उत्साह पूर्ण खबरें प्रियंका गांधी को या कांग्रेस को कितनी मदद कर सकती हैं । खास करके अभी जो स्थिति है उसमें इसका विश्लेषण दिलचस्प होगा।
       हालांकि राहुल गांधी मोदी जी के खिलाफ राफेल के गोले दाग रहे हैं । प्रियंका गांधी को फिलहाल इस मामले में  आरक्षित कुमुक की तरह रखा गया है।  उनका इस्तेमाल परमाणु बटन दबाने जैसा हो सकता है । यह तभी होगा जब परिवार की प्रधान सेनापति सोनिया गांधी आशीर्वाद का हाथ उठाएं। परंतु ऐसी स्थिति में सिर्फ पूर्वी उत्तर प्रदेश तक सीमित होना मुश्किल हो जाएगा। इसका असर अन्य क्षेत्रों के राजनीतिक मैदान पर भी पड़ेगा।   प्रियंका गांधी को उतारना एक तरह से किसी भी गठबंधन में कांग्रेस का प्रथम स्थान के दावे का संकेत है। यह कांग्रेस का स्पष्ट संकेत है कि हमारी अपील सभी विपक्षी दलों के मुकाबले सबसे ज्यादा है और इसका अर्थ है कि मोदी के खिलाफ कोई भी वोट कांग्रेस के पक्ष में होगा ।  विपक्षी दलों की तरफ से इसका क्या उत्तर मिलेगा या अभी कहना मुश्किल है। अभी जो हालात हैं उससे कांग्रेस को अपनी स्थिति और ताकत  बताने के लिए या अपनी स्थिति का दावा करने के लिए एकमात्र तरीका है कि लोकसभा चुनाव में उसे कितने वोट मिलेंगे या कितनी सीटें मिलेंगी।  उत्तर प्रदेश में खास करके उसे अपनी सीटें बढ़ानी होंगी। यह सब सपा और बसपा की कीमत पर होगा। कुछ लोग कह सकते हैं प्रियंका गांधी भाजपा के सवर्णों के वोट काट सकती हैं । सपा और बसपा के वोटो का कुछ नहीं बिगड़ेगा। ऐसी स्थिति में कहा जा सकता है कि कोई जादुई ताकत ही प्रियंका गांधी को मायावती और अखिलेश पर भारी पड़ने देगी। चुनाव तो आते जाते रहते हैं लेकिन क्षेत्रीय नेताओं की रोजी-रोटी तो उनका राज्य ही है और वह अपनी थाली प्रियंका के आगे नहीं परोस देंगे। कांग्रेस एक और विकल्प अपना रही है वह है प्रियंका का अन्य राज्यों में भी उपयोग किया जाए।  इससे उत्तर प्रदेश पर जो उनका फोकस है वह कम हो जाएगा और फिर उनका प्रभाव भी घट जाएगा । क्योंकि वह चुनाव के पहले बहुत कम उत्तर प्रदेश में दिखाई पड़ेगी। दूसरी तरफ चंद्रबाबू नायडू और स्टालिन उनको शायद प्रभावशाली  नहीं होने देंगे यही हाल बंगाल में भी हो सकता है। इसमें सबसे बड़ा जोखिम  है कि इस दौड़ में कहीं राहुल गांधी न पिछड़ जाएं। लखनऊ की भीड़ देखकर संभवत प्रियंका गांधी वाराणसी भी जा सकती हैं। हो सकता है फिलहाल वे लहर का अंदाजा लगा रही हों क्योंकि उत्तर प्रदेश में जो संगठन है उसे देखते हुए या मोदी जैसे लोकप्रिय नेता के खिलाफ जनसमर्थन जुटाने के लिए पहले  तैयारी  जरूरी होती है। इसमें कोई शक नहीं है कि बनारस का रोड शो लखनऊ के मुकाबले ज्यादा कठिन होगा और बड़ा भी होना चाहिए। यद्यपि राजनीतिक पंडितों का कहना है कि बनारस में मोदी जी की लोकप्रियता थोड़ी घटी है, लेकिन 2014 और 17 दोनों के परिणाम बताते हैं कि ऐसा बहुत ज्यादा नहीं हुआ है अथवा यह कह सकते हैं कि हुआ ही नहीं है। ऐसे में अगर प्रियंका गांधी के मैंनेजरों की टीम कांग्रेस को स्थापित करना चाहती है तो कुछ करिश्मा जरूरी है। यह विश्लेषण और अंकगणित से नहीं हो सकता। देखना यह है कि आने वाले दिनों में उनका प्रचार क्या रंग लाता है। अगर वह अपनी दादी इंदिरा गांधी की भांति सारे डायनामिक्स को नियंत्रित करना जानती हैं या कर सकेंगी तो कुछ चमत्कार हो सकता है। ऐसा करने के लिए पार्टी के भीतर और पार्टी के बाहर दोनों जगह  संतुलन बनाए रखने की जरूरत है। 2019 का चुनाव प्रियंका गांधी के जीवन के लिए सबसे महत्वपूर्ण होगा। लोग प्रियंका को देखकर संभवतः इंदिरा जी को याद कर सकते हैं।  जहां तक हकीकत का प्रश्न है प्रियंका से ज्यादा सोनिया जी ने इंदिरा जी से सीखा है कि कैसे राजनीति में वापस आया जा सकता है। मौजूदा समय कुछ गूढ़  संकेत दे रहा है । मोदी जी को कांग्रेस मुक्त भारत का   अपना विचार अभी थोड़े दिन के लिए स्थगित करना पड़ेगा।

Tuesday, February 12, 2019

उत्तर प्रदेश और कांग्रेस

उत्तर प्रदेश और कांग्रेस

देश में प्रधानमंत्री बनाने की सबसे बड़ी हैसियत रखने वाले प्रांत उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की बड़ी अजीब सियासत दिख रही है । एक तरफ तो वहां लखनऊ में प्रियंका गांधी की जनसभा में नारे लग रहे हैं "बदलाव की आंधी है प्रियंका गांधी है।" बताया जाता है कि वहां भारी भीड़ एकत्र हुई थी।  सब की नजर प्रियंका गांधी पर थी और सब की आंखों में प्रियंका गांधी ही थी । ऐसा लग रहा था कि सचमुच एक आंधी आ गई है ।लोकप्रियता का ज्वार लहरा रहा है। वहीं दूसरी तरफ राज्य में कांग्रेस का वोट बैंक सिकुड़ा हुआ है।  सबसे बड़ी बात है कि लखनऊ पूर्वी उत्तर प्रदेश नहीं पूरे उत्तर प्रदेश की राजधानी है और लखनऊ की रैली का  असर कहां तक पड़ेगा इसका आकलन अभी नहीं किया जाना  है । आंकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में  कांग्रेस का वोट बैंक एकदम सिकुड़ गया है और संगठन भी बहुत मजबूत नहीं है ।फिर भी, कांग्रेस उत्तर प्रदेश में बदलते हालात को देख कर बहुत आशान्वित है। यहां तक कि कई बार तो यह कहा जा रहा है कि प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश खासकर पूर्वी उत्तर प्रदेश की कमान सौंपे  जाने के बाद मोदी भी भीतर से आतंकित हैं। कई लोग तो यह भी कहते सुने गए हैं कि प्रियंका वाराणसी से खड़ी होकर मोदी को चुनौती दे सकती हैं। यह सब फिलहाल हवाई किले की तरह है।  उत्तर प्रदेश में क्या सचमुच कांग्रेस की ऐसी स्थिति बनी हुई है। जरा उत्तर प्रदेश के नए राजनीतिक आचरण को ध्यान से देखें। विगत एक दशक से उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए हालात बहुत तेजी से बिगड़े हैं। 2009 में कांग्रेस ने वहां 78 लोकसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे जिनमें केवल 21 सीटें ही  हासिल हुईं और उसे 18.2%  वोट मिल पाए थे । 2012 में विधानसभा चुनाव में 355 सीटों पर जोर आजमाने के बाद कहीं 28 सीटें मिली और केवल 11.6 प्रतिशत वोट ही मिले। 2014 में भी यही हालात थे । 67 सीटों पर लड़ने के बाद केवल 2 सीटें हासिल हुईं और वोट केवल 7.5%  प्रतिशत मिले। 2017 में उसे सपा से हाथ मिलाने पड़े और इस  साल हुए विधानसभा में चुनाव में उस के 114 उम्मीदवार मैदान में थे लेकिन उसे केवल 7 सीटें मिलीं और 6.25% वोट ही मिल पाए। सपा की साइकिल पर सवारी कोई लाभ नहीं दिला सकी। आंकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का वोट आधार समय के साथ सिकुड़ता गया है और आधार का यह संकुचन उसे बसपा तथा सपा के साथ गठबंधन के लिए बहुत भारी बाधा खड़ी कर रहा है। क्योंकि इसी आधार पर उसे सीट देने की बात कही गई थी। 2014 का ही आंकड़ा देखें।  उसे सपा और बसपा के क्रमशः 22.70 तथा 19. 60 प्रतिशत वोटों के मुकाबले केवल 7.5 प्रतिशत वोट मिले थे । यह अनुपात बताता है कि कांग्रेस के पास इतना बड़ा आधार नहीं है कि वह सपा और बसपा से गठबंधन के बाद ज्यादा सीटों पर दावा कर सके। इतना ही नहीं मायावती की महत्वाकांक्षा भी इस रास्ते में बाधक बनती है । अब जब  उसे गठबंधन में नहीं शामिल किया गया तो कांग्रेस ने अपने दम पर उत्तर प्रदेश की  सभी 80 सीटों पर  चुनाव लड़ने  की घोषणा कर दी।  यहां एक महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि कांग्रेस के पास प्रियंका गांधी को सामने रखने के अलावा क्या तैयारी है? जरा पीछे लौटें। प्रियंका गांधी की घोषणा यानी उन्हें उत्तर प्रदेश की कमान सौंपी जाने की घोषणा जिस ढंग से हुई वह कोई मंच नहीं था केवल एक प्रेस नोट के जरिए सबको बता दिया गया प्रियंका गांधी को उत्तर प्रदेश की कमान सौंपी गई है। ना कोई मंच बना था और ना ही उस मंच से घोषणा के समय   राहुल गांधी  और प्रियंका गांधी मौजूद थे।  जब यह घोषणा हुई  प्रियंका विदेश गई हुई थीं और राहुल अमेठी में थे । अगर उस मंच पर ये दोनों होते तो इस घोषणा का संदेश ही  दूसरा होता । अब जरा सोचिए केवल एक प्रेस नोट के जरिए रियासत में इतना बड़ा दांव खेला जा सकता है।
         अगर समाज के राजनीतिक आचरण का विश्लेषण करें तो यह पता चलेगा कि  वोट के  आधार और संगठन में सीधा संबंध है। संगठन बढ़ेगा , व्यापक होगा तो आधार भी बढ़ेगा अगर यह घटेगा तो आधार भी घटेगा। विगत दो  वर्षों से उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का संगठन बिल्कुल कृषकाय  हो गया है। संगठन की ओर देखने की फुर्सत किसी को नहीं है।  जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं तरह-तरह की अटकलों का बाजार गर्म हो रहा है। जैसे उत्तर प्रदेश में दो महासचिव बनाए जाएंगे या प्रदेश को चार हिस्सों में विभाजित कर चार प्रभारी अध्यक्ष बनाए जाएंगे। कार्यकर्ता हतोत्साहित हैं और संगठन का पुनर्निर्माण नहीं हो रहा है, जिसके कारण कार्यकर्ताओं का उत्साह दिनों दिन घटता जा रहा है, उम्मीदें भी तेजी से समाप्त हो रही हैं।
         इन सब के बावजूद अभी भी कुछ उम्मीदें बाकी हैं। अब जैसे 2009 के चुनाव को ही देखें। उसमें कांग्रेस को 21 सीटें मिली थीं लेकिन इन 21 सीटों में 18 सीटें नई थीं।  पुरानी 9 सीटों में वह हार गई थी। इसका मतलब है कि नई सीटों पर कांग्रेस के लिए अभी भी संभावनाएं कायम हैं। इस बार चुनाव में कांग्रेस 60 -65 सीटों पर युवाओं को उतारना चाहती है । यानी उन सीटों पर जो पुराने कांग्रेसी थे और जिन से जनता ऊब चुकी थी उन्हें शायद टिकट ना मिले और ताजा हवा के रूप में ऐसे नौजवान उन सीटों पर खड़े हों जिनकी तरफ मतदाता उम्मीद से देख सकें। यह नए बने वोटरों को आकर्षित करने का एक तरीका तो हो ही सकता है इतना ही नहीं जो मतदाता वर्ग कांग्रेस से  छिटक गया है उसे भी पार्टी अपनी ओर लाने की कोशिश में है । 2009 की ही बात लें। इसमें पार्टी को 21 में से 17 सीटें ऐसे इलाकों से हासिल हुई थी जो ग्रामीण बहुल हैं और इसलिए इस बार कांग्रेस ग्रामीण बहुल सीटों पर ज्यादा जोर दे रही है। किसानों को लेकर राहुल गांधी की घोषणाएं इस तरह की उम्मीदें भी जगा रही हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश ग्रामीण क्षेत्र है और वहां  प्रियंका को भेजा जाना इसी रणनीति का एक अंग है। ऐसा करके कांग्रेस यह मान रही है कि  ग्रामीण इलाकों में कांग्रेस की वापसी हो सकती है। यही नहीं जिस चुनाव पर निशाना है वह लोकसभा चुनाव है और जो गैर भाजपा मतदाता है उनके सामने सपा - बसपा के क्षेत्रीय गठबंधन के मुकाबले राष्ट्रीय स्तर की कांग्रेस एक बेहतर विकल्प के रूप में नजर आ रही है।  उम्मीद की जाती है कि मुस्लिम, ब्राम्हण तथा यादवों को छोड़ कर अन्य पिछड़े वर्ग के मतदाता कांग्रेस की तरफ मुड़ सकते हैं। 2009 में कांग्रेस के ऐसे उम्मीदवारों को विजय मिली थी जिनका  जाति आधार बहुत व्यापक नहीं था और इस बार कांग्रेस खुद को एक राष्ट्रीय विकल्प के रूप में पेश कर रही है । यह उसकी सबसे बड़ी समर नीति है । लेकिन यहां भी एक गड़बड़ है । पिछले डेढ़- दो दशक से उत्तर प्रदेश से ही कांग्रेस का अध्यक्ष आता रहा है लेकिन इस प्रदेश में संगठन को मजबूत करने के लिए कोई भी गंभीर प्रयास नहीं हुआ। शीर्ष नेतृत्व हसीन सपने देखता रहा। उत्तर प्रदेश का पार्टी संगठन अपनी बदहाली पर रोता रहा। इन सब के बावजूद कांग्रेस अगर कमर कस ले और संपूर्ण समर्पण के साथ चुनाव अभियान में जुट जाए तो कुछ  भी हो सकता है। जैसा  लखनऊ रैली से  महसूस हो रहा है । लेकिन, इसके बावजूद यह रास्ता सड़क और मैदान की राजनीति का है। इसके लिए कांग्रेस को अपना एजेंडा साफ करना होगा।  स्थिति को मजबूत बनाने के लिए हर संभव प्रयास करने पड़ेंगे।  लखनऊ रैली को इस प्रयास का श्री गणेश कह सकते हैं।

Monday, February 11, 2019

सरकार को स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए

सरकार को स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए

राफेल सौदे को लेकर देश में हालात कुछ ऐसे बन रहे हैं कि सब को लगने लगा है कि कहीं ना कहीं कुछ छुपाया जा रहा है।  मुल्क को इस मामले में संतोषजनक स्पष्टीकरण की जरूरत है। बदकिस्मती से टुकड़े टुकड़े में सूचनाएं आ रही हैं। कुछ टुकड़े सीधे फ्रांस से आ रहे हैं, कुछ मीडिया के माध्यम से और कुछ सरकार पर लगे आरोपों के बारे में  दिए गए  जवाबों के जरिए। नतीजा यह हो रहा है कि पूरी स्पष्ट तस्वीर नहीं बन रही है।  स्पष्टता के अभाव में संदेह बढ़ता जा रहा है। अभी हाल में मीडिया में एक खबर आयी कि प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा राफेल सौदे पर समानांतर बातचीत किये जाने के कारण रक्षा मंत्रालय और  सौदेबाजी के लिए गठित भारतीय दल की तोलमोल करने की ताकत कम हो गई। तत्कालीन रक्षा सचिव मोहन कुमार ने एक नोट में कहा है कि "रक्षा मंत्री कृपया इसको देखिए। यह वांछित है। क्योंकि इस तरह की वार्ता प्रधानमंत्री कार्यालय को नहीं करनी चाहिए इससे हम लोगों की सौदेबाजी की स्थिति बिगड़ जाती है।" यह  नोट 1 दिसंबर 2015 को लिखा गया था। इसके जवाब में रक्षा मंत्रालय ने कहा की सुरक्षा सचिव इस बात को प्रधानमंत्री के मुख्य सचिव के साथ परामर्श कर के हल करें। इसका जवाब 11 जनवरी 2016 को आया। सुरक्षा सचिव द्वारा भेजी गई टिप्पणी के लगभग 1 महीने के बाद। उस समय मनोहर परिकर रक्षा मंत्री थे।  इस विलंब से यह साबित होता है कि उन्हें इस मामले में कोई जल्दी बाजी नहीं थी। मीडिया के एक भाग में यह भी कहा गया है कि जो बातचीत चल रही थी वह गारंटी के बारे में नहीं मूल्य के बारे में  थी। यहां भी  कुछ गड़बड़ है। पहली गड़बड़ तो यह है कि बात कि बात कीमतों की है।  जहां तक गारंटी का प्रश्न है सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में खुद कहा है कि राफेल की उत्पादकों की ओर से उसे कुछ नहीं मिला है । महान्यायवादी ने सुप्रीम कोर्ट को यह बताया कि फ्रांस की सरकार ने भारत को आश्वस्त किया है कि राफेल बनाने वाली कंपनी अपने वादे को पूरा करेगी।
        यहां एक महत्वपूर्ण प्रश्न है की इस बातचीत में रक्षा मंत्रालय को क्यों डाला गया? ऐसा कोई कारण नहीं लगता है कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने बातचीत करने वाले दल के लोगों को इस प्रक्रिया में क्यों नहीं शामिल किया। उतना ही महत्वपूर्ण यह भी है कि बातचीत करने वाले दल क्यों नहीं गारंटी पर बात कर सकते हैं । क्योंकि गारंटी आम  तौर पर दी नहीं जाती है। यह मूल्य की सौदेबाजी का हिस्सा होता है। अब यहां कीमतों की बात भी आती है। पहले की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय वार्ताकार दल के सात में से तीन सदस्यों ने  कीमत ,डिजाइन  और  विकास संबंधी मुद्दों पर आपत्ति जताई थी। अब यह मानने के कई कारण हो सकते हैं कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को गुमराह किया है। क्योंकि, इसने कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत अपनी टिप्पणी में दावा किया है कि भारतीय वार्ताकार दल इस प्रक्रिया में शामिल था। इसमें प्रधानमंत्री कार्यालय की भूमिका के बारे में कोई खास बात नहीं कही है। ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री कार्यालय कोई गोपनीय खेल खेल रहा है। मार्च 2016 में अवकाश प्राप्त करने से पहले सुरक्षा सेवा के वित्तीय सलाहकार सुधांशु मुखर्जी ने बताया था कि वर्तमान खरीदारी प्रक्रिया राफेल ठेके को  तय करने में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की कोई भूमिका नहीं थी। प्रधानमंत्री कार्यालय के मामले में यह सही था क्योंकि आपूर्ति वार्ताकार दल में प्रधान मंत्री कार्यालय का कोई भी सदस्य नामजद नहीं था। रक्षा खरीदारी प्रक्रिया 2013 के नियमों में वार्ताकार दल को कैसे गठित किया जाए यह पूरी तरह विहित है।  उसमें कोई भी परिवर्तन महानिदेशक (अधिग्रहण) की अनुमति के बाद ही हो सकता है।
       इससे जो बात निकलती है उसे लगता है कि इस मामले में कोई पक्का सबूत नहीं है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कोई सबूत ही नहीं है। कुछ तो सबूत है। अब सरकार कहती है कि सुरक्षा कारणों से इस सौदे के बारे में महत्वपूर्ण सूचनाएं नहीं दी जा सकती। कीमतों के बारे में बताना कोई गोपनीय तथ्य नहीं है बल्कि यह देश के करदाताओं का अधिकार है। इन जेट विमानों में जो गोपनीय है वह कीमत नहीं है, उनका आकार प्रकार नहीं है बल्कि उनकी ताकत है। खास करके, गोपनीय वह साजो सामान  हैं जो उसमें लगे हैं।   इसके बारे में तो सरकार से कोई पूछ नहीं रहा है। जनता तो यह जानना चाहती है कि शर्तें क्या हैं और  सरकार ने पहले तय की गई कीमतों से ऊंची कीमतों पर क्यों सौदा तय किया? जनता यह जानना चाहती है कि क्या इस प्रक्रिया में नियम कानून को सही ढंग से पालन किया गया है ?  जो सबूत हैं उससे तो लगता है कि ऐसा नहीं हुआ है।  अगर ऐसा नहीं हुआ है तो सरकार को इसका स्पष्टीकरण देना चाहिए। वह क्यों नहीं दे रही है यह बहुत ही बुनियादी प्रश्न है।

Sunday, February 10, 2019

सवर्णों को आर्थिक आधार पर आरक्षण और सियासत

सवर्णों को आर्थिक आधार पर आरक्षण और सियासत

अभी हाल में मोदी जी की सरकार ने सवर्णों को आरक्षण दिया। मजे की बात है कि लोकसभा और राज्यसभा में मामूली बहस के बाद इसे पारित कर दिया गया। लेकिन सदन से बाहर इसे लेकर कई मंचों पर तीव्र विरोध दर्ज कराए गए। आरक्षण हासिल करने की दो कैटेगरी है पहला कि जिस व्यक्ति की घरेलू आय 8 लाख रुपए और उसके पास खेती  की जमीन 5 एकड़ हो। चुनाव के मद्देनजर इसे गेम चेंजर माना जा रहा है या कहें चुनावी ब्रह्मास्त्र माना जा रहा है। लेकिन सच तो यह है इसमें कई भारी गड़बड़ियां हैं जो आगे चल कर हिंसा को बढ़ावा दे सकती हैं।
     सबसे बड़ी गड़बड़ी आंकड़ों का अभाव है। सबसे बड़ा अभाव जातिगत और आर्थिक जनगणना का है। इस स्थिति को देखते हुए सरकार की मंशा स्पष्ट हो जाती है । भारत में कितनी जातियां हैं उनमें सवर्ण में कितने हैं शायद किसी को मालूम नहीं। हमारे देश में जनगणना एक पुरानी कसरत है। इसमें एक नियत समय पर सरकारी स्कूल के शिक्षक घर-घर  जाते हैं और हर आदमी को गिनते हैं। उनके बारे में जानकारियां एकत्र कर लेते हैं। यह 1881 से चल रहा है। लेकिन 2011 में एक अलग तरह की गणना शुरू हुई। वो थी सोशियो इकोनामिक एंड कास्ट सेंसस। यह जनगणना 2011 के जून में आरंभ हुई और इसे दिसंबर में पूरा होना था। सरकार के मुताबिक समग्र विकास के लिए इसका बहुत महत्व है। इसका उपयोग 12वीं पंचवर्षीय योजना में किया जाना था। लेकिन यह जनगणना मार्च 2016 में खत्म हुई इस पर 4893 करोड़ रुपये  खर्च हुए । इसका लक्ष्य देश में जातिगत आंकड़े एकत्र करना था। लेकिन, 12वी पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल खत्म हो गया और अब देश 13वीं पंचवर्षीय योजना में प्रवेश कर रहा है।  आंकड़ों का कहीं कोई विवरण नहीं है। एक बार जुलाई 2015 में नीति आयोग के तत्कालीन उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया के नेतृत्व में एक एक्सपर्ट कमेटी बनी थी और उस जातिगत गणना फील्ड सर्वे रिपोर्ट  की एक झलक प्रकाशित हुई थी । उसके अनुसार देश में 46 लाख जातियां, उपजातियां और गोत्र हैं। अब न अरविंद पनगढ़िया हैं और ना ही उस एक्सपर्ट कमेटी के किसी सदस्य का नाम सामने है। सरकार ने 9 अगस्त 2018 को राज्यसभा में एक सवाल के तहत स्वीकार किया था इस एक्सपर्ट ग्रुप का कभी गठन नहीं  हुआ इसलिए आगे की कार्रवाई यह रिपोर्ट आने का कोई सवाल ही नहीं है।  देश का 5000 करोड़ रुपया खर्च कर कुछ नहीं मिला सरकार को। यह मालूम नहीं है कि देश में विभिन्न जातियों के लोग कितने हैं उनमें सवर्ण कितने हैं और पिछड़े कितने हैं। उनकी आर्थिक स्थिति कैसी है। हमारे देश में जाति संबंधित नीतियां बनती हैं, विभाग बनते हैं लेकिन यह सब बिना किसी आंकड़े के काम करते हैं । सबसे बड़ी बात है जिसे लेकर सबसे बड़ा बवाल है वह कि हमारे देश में कौन सी जाति पिछड़ी है इसका कोई प्रमाणिक आंकड़ा नहीं है। जो कुछ है वह 1931 के आंकड़ों के आधार पर है या तो फिर मनमाने तरीके से तय कर दिया जाता है । यही  कारण है कि विभिन्न जातियां लगातार दबाव डालती हैं कि उन्हें ओबीसी में शामिल कर लिया जाए।
      ऐसे में सरकार सवर्णों को आरक्षण देने की बात कर रही है। सबसे बड़ी बाधा तो कौन सवर्ण है और इस आरक्षण के काबिल है यह कैसे साबित होगा। ऐसे बहुत से लोग मिल जाएंगे जो बीपीएल कार्ड के लायक नहीं हैं फिर भी बी पी एल कार्डधारक हैं।  उनकी अच्छी आय है। अगर गरीबी का यही या ऐसा ही पैमाना है और उनके आधार पर आरक्षण देने की बात होगी तो कैसे-कैसे लोग आरक्षण पायेंगे और कैसे लोग वंचित रह जाएंगे इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है । यही नहीं जातियों के भीतर और जातियों के बीच में आर्थिक आधार पर भेदभाव आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन सीमा रेखा को धुंधला कर देगा।
         जनगणना के जो आंकड़े 2012 में तैयार हुए थे उनके आधार पर ही एक बार इस ताजा स्थिति का विश्लेषण करें । उन आंकड़ों में आय का विवरण भी था। देश की ग्रामीण आबादी का लगभग 98. 91% और शहरी आबादी का 96.7% भाग 8लाख से कम आमदनी वाला है । यह आंकड़ा 2012 का है। आय के 4 सोपान तय किए गए हैं । पहला दो लाख से नीचे वाले, दूसरा 2 से 5 लाख रुपए आय वाले ,तीसरा 5 से 8लाख रुपये वाले और चौथा 8 लाख से ऊपर आय वाले। ग्रामीण आबादी में 86% ऐसे परिवार हैं जिनकी आय 2 लाख रुपए से कम है। लगभग 11% परिवार की आय 2 से 5 लाख की है और 1.8% परिवार की आय 5 से 8 लाख रुपए की है। अब बचे हुए 1% कुछ ज्यादा परिवार ऐसे हैं जिनकी आय 8लाख रुपये से ऊपर है । शहरी आबादी में और चौंकाने वाले तथ्य हैं। वहां 64% ऐसे परिवार है जिनकी आय 2लाख रुपये से नीचे है। कहा जा सकता है देश की ग्रामीण आबादी में तीन चौथाई से ज्यादा परिवार ऐसे हैं जिनकी आय 2लाख रुपए से कम है । अब हा दो स्थितियां उभर कर आती हैं पहली अगर कम आय आरक्षण का आधार है तो ज्यादा ग्रामीण  आरक्षण के काबिल हैं शहरी आबादी के मुकाबले।
         यही नहीं, जातियों को लेकर भी बड़ा अंतर है। उपरोक्त आंकड़ों के अनुसार शहरों में जो ब्राह्मण परिवार हैं उनमें 46% ऐसे हैं जिनकी 2लाख रुपयों से कम आय है और 36% ऐसे हैं जिनकी आमदनी दो लाख से 5लाख है। अन्य सवर्णों में यह थोड़ी ज्यादा है । अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और जनजाति में हालत और खराब  हैं ।इनमें 2 लाख रुपयों से कम आय वाला वर्ग 69% है और उससे ज्यादा तथा पांच लाख से कम आय वाला वर्ग 25% है । इससे साफ जाहिर होता है की आर्थिक और सामाजिक पिछड़ापन एक दूसरे से संबंधित हैं ऐसे में यह कैसे कहा जा सकता है की आरक्षण के लिए आर्थिक पिछड़ापन एक दर्जा हो सकता है।  सरकारी नौकरियों के अभाव में इस तरह का आरक्षण एक तरह का भ्रम पैदा करेगा और इसका नतीजा हिंसा में दिखाई पड़ने लगेगा। गलत या काल्पनिक अंतर केवल खराब राजनीति ही नहीं अर्थव्यवस्था के लिए भी हानिकारक है।

Friday, February 8, 2019

सरकार सुरक्षा को लेकर उदासीन क्यों?

सरकार सुरक्षा को लेकर उदासीन क्यों?

2019 के अंतरिम बजट में सुरक्षा पर 3.05 लाख करोड़ का प्रावधान है। साधारण अंकगणित के नजरिये से देखा जाए तो यह पिछले साल के 2. 95 लाख करोड़ से सिर्फ 3.38 प्रतिशत ज्यादा है। अगर सही मायने में देखा जाए तो सुरक्षा बजट में कमी कर दी गई है । पिछले साल के मुकाबले इस वर्ष 4.74% मुद्रास्फीति हुई है इससे रुपए की कीमत पर गिर गई है। अब हमारे अधिकांश सुरक्षा संयंत्र और हथियार विदेशों से आयात होते हैं। रुपए की कीमत डॉलर के मुकाबले कम होने से जो राशि दिख रही है वह खरीदारी में कहां पहुंचेगी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है । पिछले साल जनवरी में डॉलर की कीमत 64 रुपए थी इस वर्ष यह 71.25 रुपए हो गई है। इस आधार पर अगर देखें तो पिछले साल से इस साल 11% कम आवंटन हुआ है। इसका अर्थ है कि पिछले वर्ष से कम इस बार आयात होगा। इस वर्ष 1.03 लाख करोड़ रुपयों का ज्यादा आवंटन बहुत कम है। खास करके ऐसे समय में जब वस्तुएं  बहुत महंगी होती जा रही हैं। इसका मतलब है कि इस बार जब रक्षा जरूरतों की खरीदारी होगी उसमें बहुत किफायत बरतनी होगी और यह राष्ट्रीय सुरक्षा के संदर्भ में सही नहीं होगा। 
      वित्तीय वर्ष 2018- 19 में कुल बजट का 12. 10 प्रतिशत सुरक्षा बजट था। इस वर्ष रक्षा बजट कुल बजट का 10. 96% है । अब प्रश्न है कि सरकार सच में चाहती क्या है?  भाजपा या अन्य दक्षिणपंथी दलों के लिए कभी भी सुरक्षा प्राथमिक नहीं रही। हालांकि, वह सुरक्षा का राजनीतिक इस्तेमाल बखूबी करती है। रक्षा के  मामले को हमेशा भुनाने वाली सरकार ने पिछले 5 वर्षों में लगातार सुरक्षा बजट को कम किया है। बार-बार कहा गया है की सेना में फौजी ज्यादा होते हैं और बजट में कमी से राष्ट्रीय सुरक्षा  पर आंच आने का खतरा रहता है। फौज में दो तरह के बड़े खर्चे हैं ।पहला सैनिकों पर और दूसरा साजो सामान पर । साजो सामान पर ज्यादा ही खर्च होता है। अब देश में जो सामान पर होने वाला खर्च है वह और सैनिकों पर होने वाला खर्च लगभग बराबर होते जा रहा है और इससे ऐसा लगता है की सैनिकों की कमी हो रही है।  साजो सामान खास करके तकनीक पर खर्च बढ़ता जा रहा है। भारत में लगभग 10 लाख  सैनिक हैं।  सैनिकों तथा साजो सामान में खर्च का अनुपात 40 और 60 का है लेकिन यह धीरे धीरे कम होता जा रहा है ।   अंतरिम बजट में यह राशि लगभग 1 लाख 33हजार 80 करोड़ है जो कुल सुरक्षा बजट के 34% से थोड़ा कम है। हालांकि यह पिछले साल के रक्षा बजट में सैनिकों पर होने होने वाले खर्च से थोड़ा ज्यादा है । उस वर्ष सैनिकों पर 33% खर्चे का प्रावधान था। पिछले साल सैनिक साजो सामान पर जो आवंटित किया गया था वह पूरा नहीं खर्च हो सकता था लेकिन इस बार लगता है कि वह पूरा खर्च किया जा सकेगा। लेकिन इससे क्या होता है ? तीनों सेनाओं के लिए जो अलग-अलग  खर्च आवंटित किए गए हैं वह चिंताजनक हैं। थल सेना को अभी भी आधुनिक हथियार जैसे राइफल इत्यादि और तोपें नहीं मिली हैं। वायु सेना युद्धक विमानों और हेलीकॉप्टरों के लिए तरस रही है। यही हाल नौसेना का भी है। वहां युद्धपोत ,पनडुब्बियों और माइनस्वीपर का भारी अभाव है। भारत में अभी भी उच्चस्तरीय सैनिक साजो सामान नहीं बनते हैं और उसे आयात पर निर्भर रहना पड़ता है।  आयात का खर्च लगातार बढ़ता जा रहा है।
      सुरक्षा मंत्री ने जब संसद में यह बताया कि भारतीय सुरक्षा पर 3 लाख करोड़ के ऊपर आवंटित किया गया है तो वहां लोगों ने हर्ष ध्वनि   की लेकिन इससे क्या होता है? इसके सही प्रभाव की गणना जरूरी है। रिटायर्ड सैनिकों की पेंशन पर 1,12 हजार 79 करोड़ खर्च होंगे । यह राशि साजो सामान के लिए आवंटित राशि से कहीं ज्यादा है और भविष्य में रिटायर्ड सैनिकों को पेंशन का खर्च बढ़ता जाएगा। यह कहा जा सकता है कि भारतीय सेना का भविष्य पैसों के लिए कारण तनावपूर्ण है और यह निकट भविष्य में खत्म होने वाला नहीं है।

Thursday, February 7, 2019

बाल अपराध को रोकना जरूरी 

बाल अपराध को रोकना जरूरी 

केंद्र एक बार फिर अपराध का केंद्र बन गया। दिल्ली पुलिस की रिपोर्ट के मुताबिक इस वर्ष 11 खून और 22 बलात्कार सहित 92 घृणित अपराध हुए । 2011 से अब तक दिल्ली में 15,536 बलात्कार की घटनाएं हुईं। 2015 से लगातार इन घटनाओं में वृद्धि हो रही है। यहां तक कि निर्भया कांड के बाद भी दिल्ली में 2018 तक 12,258 बलात्कार की घटनाएं हुईं। हालांकि अपराधिक घटनाओं की लगातार गणना के बाद यह पता चलता है कि 2018 में 2017 के मुकाबले कम बलात्कार हुए हैं या कहें महिलाओं के प्रति कम अपराध हुए हैं। राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो (एन सी ई आर बी) के आंकड़े बताते हैं के देश के 19 महानगरों में दिल्ली महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक शहर है। 20 लाख से ज्यादा आबादी वाले नगरों में आलोच्य अवधि में महिलाओं के प्रति कुल 4,935 अपराध हुए। जिनमें सबसे ज्यादा 1996 बलात्कार की घटनाएं दिल्ली में हुईं। 712 बलात्कार की घटनाएं मुंबई में  और पुणे में 354 घटनाएं हुईं। 
     इसके कई कारण हैं। जिनमें बाहर से आकर बसने वालों की बढ़ती संख्या ,पड़ोसी राज्यों से अपराधियों की उन तक पहुंच इत्यादि कुछ कारण है जिन से अपराध बढ़ रहे हैं। लेकिन एक ऐसा अपराध भी  भी है जिस पर सोचा जाना जरूरी है। वह है बाल अपराध में वृद्धि खासकर बलात्कार जैसे अपराधों में किशोरों का जुड़ा होना। एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि 19 महानगरों में 6,645 ऐसे अपराध हुए जिसमें किशोर शामिल हैं। इन अपराधों में दिल्ली सर्वोच्च है,जहां 2016 में 2,368 बलात्कार की घटनाएं हुयीं। 2014 में सूरत में सबसे ज्यादा यह घटनाएं हुई लेकिन बाद में इसमें बहुत तेजी से कमी आई लेकिन दिल्ली में 2014 से 16 के बीच घटनाएं बढ़ती रहीं। दिल्ली में 2016 में 2,368 मामलों में 3,610 किशोरों को गिरफ्तार किया गया । 19 महानगरों में बलात्कार की 281 घटनाएं हुई जिनमें 324 किशोरों को गिरफ्तार किया गया। यह संख्या अन्य बड़े अपराधों की तुलना में ज्यादा है। इनमें 2% अपराधी 16 से 18 वर्ष की उम्र के हैं। एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली में जिन किशोरों गिरफ्तार किया गया उनमें 41% बच्चे प्राइमरी तक शिक्षा पाए थे और अपने मां बाप के साथ रहते थे।
       हमारे  समाज में पुरानी विचारधारा है कि जो लोग या कहे जो बच्चे मां बाप के साथ नहीं रहते हैं और गरीब  पृष्ठभूमि के हैं वे आपराधिक घटनाओं से जल्दी जुड़ जाते हैं। लेकिन जो आंकड़े बताते हैं वह बहुत कटु सत्य की ओर इशारा करते हैं। जो बच्चे पकड़े गए उनमें 93.7% ऐसे थे जो अपने मां बाप या अभिभावकों के साथ रहते थे जबकि बेघर बार के बच्चे महज 6.3% थे । अब सवाल उठता है कि आखिर वह कौन से कारण हैं जिन्होंने इन बच्चों को अपराधी बनाया। इनमें सबसे महत्वपूर्ण कारण था कि बच्चों को संचार तकनीक ,मीडिया ,इंटरनेट और दूसरों से ऑनलाइन बातचीत की सुविधाएं उपलब्ध हैं। कई मामलों में पाया गया है कि ऐसे बच्चों के मां-बाप दोनों अच्छे जीवन यापन  के लिए कमर तोड़ मेहनत करते हैं और  बच्चे अकेले रहते हैं । कोई उन पर ध्यान देने वाला नहीं रहता है ना ही उन्हें सही दिशा बताने वाला रहता है यह अकेलापन उन बच्चों को घृणित अपराधों की ओर आकर्षित करता है। शुरू शुरू में यह तो  थ्रिल या रोमांच की तरह लगता है । इसके अलावा सोशल मीडिया की अबाध पहुंच और बच्चों की जरूरतों के प्रति अभिभावकों की लापरवाही इन बच्चों के अपराधी बनाने के प्रमुख कारणों में से एक है। ऐसे में हमारे समाज और बुनियादी संस्थाओं को महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए। यह तो सत्य है अब हमारे देश की बहुत ही प्रतियोगिता पूर्ण हो गई है और बच्चों को नैतिक मूल्यों तथा नैतिकता के बारे में शिक्षा देने की ओर कम ही ध्यान दिया जाता है।  यही कारण है कि बच्चों में जीवन के प्रति चिंता और दया की भावना नहीं बन पाती। बच्चों में सामाजिकता कम होती जाती है। दोस्तों और परिवार का दबाव घटता जाता है तथा इन बच्चों के लिए व्यक्तिगत जोखिम नाम की कोई चीज नहीं होती है। इस इस कारण बच्चों में अपराध प्रवृति बढ़ती जाती है। परिवारों को जीवन और समाज के प्रति सकारात्मक नजरिया रखना चाहिए बच्चों के मां-बाप और उनके बड़े  भाई-बहनों को बच्चों को सकारात्मक मूल्यों, नियमों और मानदंडों की ओर प्रवृत्त करना चाहिए।  बच्चे के लिए  परिवार  रोल मॉडल और  आचरण का  मॉडल होता है । सरकार को चाहिए, जो गरीब परिवार हैं उन्हें मदद करे ताकि वे अपने आर्थिक हालात को सुधार सकें। अभिभावकों को भी चाहिए वह बच्चों को कानून की इज्जत करना सिखाए और यह बताएं कि सार्वजनिक सुरक्षा के लिए जो कानून बनाए गए हैं उनको भंग करने से क्या क्या हो सकता है। दूसरी तरफ जो लोग बच्चों को देखभाल में लगे हैं या कहिए उनके माता-पिता उनमें प्रगतिशील विचारों का अभाव रहता है। वे  लड़कियों को निर्भीक जैसे कार्यक्रमों शामिल नहीं करते। इन कार्यक्रमों में लड़कियों को व्यक्तिगत हमले से बचाव करना इत्यादि सिखाया जाता है। वक्त आ गया है कि समाज को यह जिम्मेदारी उठानी पड़ेगी और इस बात पर कड़ी नजर रखनी पड़ेगी कि हमारे समाज के बच्चे अपराधी ना बनें।  माता-पिताओं को भी इस बात के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए कि वे अपने बच्चों में महिलाओं के प्रति सम्मान की भावना पैदा करें।  बच्चों को स्कूल स्तर पर महिलाओं के प्रति सम्मान की बात सिखाई जानी चाहिए।

Wednesday, February 6, 2019

गरीबों को ही क्यों मोहरा बनाते हैं यह राजनीतिज्ञ

गरीबों को ही क्यों मोहरा बनाते हैं यह राजनीतिज्ञ

सभी राजनीतिक दलों द्वारा तरह-तरह की आर्थिक घोषणाओं से यह स्पष्ट हो गया कि कोई भी जीते या हारे अर्थव्यवस्था खस्ताहाल होने वाली है। इसका मतलब यह नहीं है कि अर्थव्यवस्था डूब जाएगी और आशा रहित हो जाएगी। राजनीतिज्ञों की अर्थव्यवस्था को दिवालिया करने की लाख कोशिशों के बावजूद संभवत ऐसा नहीं होगा।  राजनीतिक वर्ग और सरकारी मशीनरी ऐसा नहीं होने देगी। लेकिन अर्थव्यवस्था  एक ऐसे मुकाम पर पहुंच चुकी है जहां चलते रहने का इसका स्वभाविक आवेश धीमा हो गया है। कोई भी जो ऐसा सपना देखता है कि भारत बहुत तेजी से विकसित होगा उसका सपना साकार नहीं हो सकता। नरेंद्र मोदी 2014 में जब लोकसभा चुनाव के लिए उम्मीदवार थे तो उन्होंने वादा किया था कि वह लोगों की उत्पादन क्षमता को बढ़ाकर , कई तरह के विकास और सुधार लाकर भारत की जनता को जड़ता से मुक्त कराएंगे । लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे पूरा नहीं किया और वे भगवा समाजवाद में लग गए। यह नहीं कहा जा सकता है कि मोदी जी ने कोई बहुत बड़ा कदम नहीं उठाया। उन्होंने कई बड़े सुधार किए जैसे जीएसटी, दिवालिया कानून इत्यादि कई महत्वपूर्ण सुधार थे। कुछ श्रमिक और अन्य सुधार भी किए गए। सरकार संस्थानिक उलझन में उलझी रही और उसमें इतना उलझ गई कि विकास रुक गया।  महत्वाकांक्षी "मेक इन इंडिया" कार्यक्रम बहुत बड़ा विचार था। लेकिन कोई क्यों "मेक इन इंडिया" चाहेगा जब यहां इतनी बड़ी दिक्कत है। अगर किसी को मुश्किलात का सामना करना हो तो वह कारखाना लगाए। भारत में बनाने से ज्यादा सरल और सस्ता चीन से आयात कर लेना है। उस व्यापारी से पूछिए जो सरकारी वसूली का शिकार हो चुका है वह बताएगा कुछ नहीं बदला। अभी भी उन्हें धमकाया जा रहा है और उन्हें "देना" पड़ रहा है चाहे वह जितना भी कानून का पालन करे। व्यापार के जो कानून बने हैं वह तो इतने जटिल हैं कि उनका पालन करना  एक तरह से असंभव है। अगर किसी तरह से हो  जाता है तब भी मुक्ति नहीं मिलती। व्यापारियों के साथ अपराधियों की तरह बर्ताव किया जाता है। हर राजनीतिज्ञ ,हर अफसर यहां तक इंस्पेक्टर भी कुछ निचोड़ लेना चाहता है । लेकिन कोई भी उनके साथ जुड़ना या उनके साथ खड़ा होना नहीं चाहता।
        भारत में अगर किसी को भारत रत्न दिया जाना चाहिए तो वह हमारे उद्यमी हैं क्योंकि वे हर कठिनाइयों के बीच अड़े हैं । मोदी सरकार ऐसा कुछ नहीं कर पाई जिससे व्यापारी या समाज का उत्पादक वर्ग कुछ प्राप्त करे सके। सरकार के लिए रुपया बनाने वाले और रोजगार देने वाले यह लोग एक तरह से सोने के अंडे देने वाली मुर्गियां है या अगर उसे हिंदुत्व का बाना पहनाना है तो कामधेनु है जो जब चाहो दूध दे देती है। एक छोटा सा सच जो यह सारे राजनीतिज्ञ अनदेखा कर देते हैं वह है की रोजगार के अवसर पैदा करने के उनके वादे को अगर कोई पूरा कर सकता है तो वह देश का व्यावसाई वर्ग है उसे कुछ सुविधाएं दी जाएं। अब अगर सरकार उन पर अंकुश लगाए गी या उनको नहीं छोड़ेगी तो मतदाताओं को रिझाने के जो तरीके बचते हैं उनमें आरक्षण और मनरेगा जैसे उपाय हैं। सच तो यह है कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम  को बेकार बना देने के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसे ही कांग्रेस के आर्थिक ढांचे का  प्रतीक मानते हैं।
         मोदी सरकार की आर्थिक विफलता की एक और निशानी है कि वह अब रोजगार के अवसर उत्पन्न करने और किसानों तथा मजदूरों की  समृद्धि के बल पर नहीं बल्कि जाति तथा सांप्रदायिक मसलों पर मतदाताओं को एकजुट कर रही है। पार्टी समग्र विकास की बात करती है  आर्थिक विकास 7% से ज्यादा होने की बात करती है लेकिन शायद ही कोई है जो इस पर यकीन करता हो। इस अवधि में सबसे ज्यादा किसानों को तकलीफ हुई है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था चरमरा गई है। रोजगार के अवसर लगभग शून्य हो गए हैं। स्पष्ट है कि वह पुराना जुमला नहीं चलेगा। अबतक जितनी सरकारें आई हैं वह लगभग बार-बार एक ही बात करती आई है और बदलने की उम्मीद दिलाती आई हैं। लेकिन, सोचिए  ऐसा करने के लिए वायदे नहीं काम करने पड़ेंगे । किसानों से वादा किया जाता है कि उनके कर्ज माफ कर दिए जाएंगे । उन्हें रोजगार दिए जाएंगे या आमदनी की गारंटी दी जाएगी, लेकिन  अवसर पैदा करने के विचार तो उन्होंने नहीं बताया।  दुख तो यह है कि केवल एनडीए सरकार ने नहीं यूपीए भी यही करती आई है । आज देश "भक्तों" के शिकंजे में है और यह एक नेता को सही ठहराने के लिए तरह-तरह की दिमागी मशक्कत करते आ रहे हैं। इसलिए अगले चुनाव में चाहे जो जीते भारत उसी अनुत्तरदायित्व पूर्ण आर्थिक नीतियों के फंदे में फंसा रहेगा।
        यह  एक ऐसे मुल्क में होगा जो सभ्यता के नजरिए से या संस्कृति के दृष्टिकोण से महान था और यहां धन को लक्ष्मी कह कर पूजा जाता था । उस देश में यह सब चल रहा है । गरीबों के नाम पर जो नीतियां बन रही हैं वह गरीबी को और बढ़ा रही हैं । नरेंद्र मोदी ने 2014 में चुनाव इसलिए जीता कि उन्होंने देश के लोगों की उत्पादन क्षमता को बेलगाम कर देने का वादा किया। 5 साल के बाद वह ऐसा कुछ नहीं कर सकेंगे और बस वही करेंगे जो कांग्रेस ने अब तक किया । अब उनके प्रतिद्वंदी चांद ला देने का वादा कर रहे हैं लेकिन इसके लिए रुपए कहां से आएंगे? इसके लिए एक ही तरीका बचा है कि सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को मार दिया जाए या कामधेनु को ही समाप्त कर दिया जाए। अब जून में चाहे जो होगा लेकिन जनता को आर्थिक फंदे में फंसने के लिए तैयार हो जाना चाहिए।

Tuesday, February 5, 2019

मोदी जी के खिलाफ  प्रियंका के खड़े होने की अटकलें

मोदी जी के खिलाफ  प्रियंका के खड़े होने की अटकलें

प्रियंका गांधी को पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभार दिया गया है और इसके बाद से ही अटकलों का बाजार गर्म है कि वह मोदी के खिलाफ वाराणसी से चुनाव लड़ेंगी। वाराणसी शुरू से ही पूर्वांचल की राजनीति का केंद्र रहा है। यहां की राजनीति का असर न केवल पूर्वी उत्तर प्रदेश बल्कि बिहार के भी कई लोकसभा सीटों पर पड़ता है। इसी वजह से 2014 में मोदी जी ने अपनी राजनीति का केंद्र बनारस को बनाया और वहीं से चुनाव लड़ने का फैसला किया।   पूर्वी उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 40 सीटें हैं और 2014 में अधिकांश सीटों पर भाजपा का कब्जा हो गया था। क्योंकि, उस समय नरेंद्र मोदी की लहर चल रही थी और उस लहर में बनारस से उठा नारा "हर-हर मोदी घर-घर  मोदी" का असर उस क्षेत्र में सभी सीटों पर पड़ा। भाजपा ने इसीलिए मोदी को वहां से खड़ा  करने का फैसला किया था।
      अब इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए अटकलें लगाई जा रही हैं कि कांग्रेस प्रियंका को बनारस से खड़ा करेगी। कहा जाता है कि बनारस में कांग्रेस के पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं ने प्रियंका गांधी से इसी सीट से चुनाव लड़ने का अनुरोध किया है । बात तो यह भी चल रही है कि बनारस के कुछ प्रबुद्ध मुस्लिम नेता और बुद्धिजीवी भी इसी अनुरोध को लेकर प्रियंका गांधी से जल्दी ही मिलने वाले हैं।  यद्यपि कांग्रेस हाईकमान ने ऐसा कोई बयान जारी नहीं किया है और ना ही इस बारे में कुछ कहा है कि प्रियंका गांधी कहां से लड़ेंगी।  कांग्रेस के गलियारों में जो फुसफुसाहट है उससे यही लगता है कि इसकी तैयारी जोर शोर से चल रही है और प्रियंका गांधी को खड़ा किया जा सकता है। अब सवाल उठता है कि अगर प्रियंका गांधी सचमुच वाराणसी से चुनाव लड़ती हैं तो इसका राजनीतिक अर्थ क्या होगा? इसका समूचे चुनावी परिदृश्य पर क्या असर पड़ेगा? कार्यकर्ताओं का कहना है कि इससे कांग्रेसी कार्यकर्ताओं पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और उनका मनोबल बढ़ेगा। इससे पार्टी को अच्छा फायदा मिलेगा। यूपी और बिहार दोनों प्रांतों में 2014 के बाद से कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की संख्या तेजी से घट रही है। नतीजा यह हुआ है कि पार्टी का ढांचा ही चरमरा गया है। जो लोग पार्टी में हैं वह भी अनमने से हैं ।   वे कार्यकर्ता तो अब जीतने की उम्मीद ही खो बैठे हैं।  ऐसी स्थिति में  अगर पार्टी चुनाव जीत जाती है तो उनका मनोबल बढ़ेगा।   प्रियंका गांधी का मोदी के खिलाफ खड़े होने की खबर से ही कार्यकर्ताओं में जोश भर जाएगा। इसका दूसरा असर यह होगा कि देशभर में  नरेंद्र मोदी बनाम प्रियंका गांधी  की नैरेटिव बनेगी और यह देश भर में चर्चा का विषय बन जाएगा।  इससे वह विमर्श दब जाएगा जो राहुल गांधी बनाम नरेंद्र मोदी का चल रहा है ।  जनता में यह संदेश जाएगा कि नरेंद्र मोदी के सामने कांग्रेस के लिए राहुल गांधी ही नहीं प्रियंका भी एक मजबूत विकल्प है। यह भी हो सकता है कि प्रियंका गांधी के वाराणसी से खड़े होने पर सपा और बसपा गठबंधन यहां से अपना उम्मीदवार ना खड़ा करें । क्योंकि इस गठबंधन ने राहुल गांधी के खिलाफ अमेठी से और रायबरेली से सोनिया गांधी के विरुद्ध उम्मीदवार नहीं उतारने का ऐलान कर दिया है। अगर वाराणसी से यह गठबंधन अपना उम्मीदवार नहीं उतारता है और प्रियंका खड़ी होती है तो नरेंद्र मोदी के लिए रास्ता बहुत सरल नहीं रहेगा। यह एक तरह से मनोवैज्ञानिक मुकाबला भी होगा। नरेंद्र मोदी ने कहीं यदि कोई ऐसा वैसा बयान प्रियंका के खिलाफ दे दिया तो यह एक मसला बन जाएगा। चुनाव अभियान के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ऐसे बयान देते हैं जिसमें कुछ न कुछ गलती की गुंजाइश रहती है।  उसके आधार पर प्रियंका गांधी एक नया ईशु खड़ा कर सकती हैं।
     कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि यह मुकाबला दिलचस्प होगा और इसका प्रभाव समग्र राष्ट्रीय राजनीति पर पड़ेगा।

Monday, February 4, 2019

मोदी और राहुल मुकद्दर किसके हाथ में

मोदी और राहुल मुकद्दर किसके हाथ में

चुनाव के मोर्चे लगभग बंध गए हैं लेकिन क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके विरोधियों के बीच कोई मध्य स्थल है और है तो किस जगह है? आज क्या यह संभव है कि बिना अपमानित हुए कोई भाजपा को वोट दे या बिना राष्ट्र विरोधी का तमगा पाए कोई कांग्रेस को मतदान करे। जैसे-जैसे चुनाव करीब आते जा रहे हैं देश में ध्रुवीकरण बढ़ता जा रहा है। नौजवानों में एक प्रश्न तेजी से घूम रहा है कि क्या भारतीय राजनीति   दूसरी तरफ घूम गई है जिधर उदारवादी और परंपरावादी समुदाय रहता है । ऐसा सोचकर हम एक बहुत बड़े परिप्रेक्ष्य को नजरअंदाज कर रहे हैं। आज के नौजवान खुद को मध्यमार्गी मानते हैं । इनमें वो लोग भी शामिल हैं जो 2014 में भाजपा को एक मौका देना चाहते थे। लेकिन जब ऐसा हुआ यानी मौका दे दिया गया तो एक समुदाय या कहें कि दूसरे छोर पर जो लोग थे उन्हें संप्रदायवादी, संघी या भक्त करार दे दिया गया। यद्यपि, उन्होंने तो समस्याओं के समाधान की उम्मीद में ऐसा किया था। नौजवानों का यह समुदाय पूर्ण रूप  अधिनायकवादी  विमर्श से नियंत्रित नहीं हो सकता, ना उसे दक्षिणपंथी अराजकता पसंद है और ना ही आजादी के  नकाब में वामपंथी शोर शराबा।  दक्षिणपंथी विचारधारा व्यक्तिगत आजादी पर अंकुश लगा देती है जबकि वामपंथी विचारधारा इतना प्रोत्साहित करती है कि इससे कुछ हो ही नहीं सकता। नौजवान समुदाय मध्य मार्गी या मध्य पंथी विचारधारा का हिमायती बनता जा रहा है। यानी थोड़ा थोड़ा दोनों तरफ की विचारधाराएं ।
      वैचारिक समूहों से मोहभंग भी एक कारण है जो नौजवानों को दोनों तरफ से विमुख कर रहा है और वे मध्यपंथ को वामपंथी और दक्षिणपंथी धारा के बीच एक प्रभावशाली विंदु मानते हैं । राजनीति विज्ञानी  डेविड एडलर के अनुसार शहरी नौजवान दयावश मध्य मार्ग में आ रहे हैं। अब तक पढ़े लिखे शहरी नौजवानों का भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है यह थोड़ा आश्चर्यजनक होगा यही पढ़े लिखे नौजवान खुद को देश पर होने वाले आधातों को रोकने के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। यह मध्य मार्ग उन  नौजवानों को बहुत ज्यादा प्रभावित कर रहा है। खास करके ऐसे लड़के जो ताजातरीन मतदाता बने हैं और इंटरनेट के संपर्क में हैं। क्योंकि इस माध्यम से ज्यादा नौजवान एक दूसरे से या एक बहुत बड़े समुदाय से संपर्क में रहते हैं। ऐसे कई हैं जिनके यूट्यूब पर लाखों दर्शक हैं। किसी खास आदर्श के प्रति सब एकमत नहीं हो सकते और इसीलिए सबको वामपंथी और दक्षिणपंथी में वर्गीकृत भी नहीं किया जा सकता।  आर्थिक तौर पर देखें तो भाजपा और कांग्रेस दोनों समान हैं। दोनों बड़े व्यवसायियों के पक्षधर हैं नेहरू ने समाजवाद को बढ़ावा दिया और यह इंदिरा गांधी के जमाने में खूब फला फूला। भाजपा के कुछ बड़े नेता शुरू में इंदिरा की प्रशंसा करते थे और वे राव की भी प्रशंसा करते थे कि उन्होंने मुक्त बाजार भारत में राह दी। जबकि इन दिनों भाजपा इन नेताओं की तीव्र विरोधी हैं । आज दोनों दल दरबारी पूंजीवाद के समर्थक दिखाई पड़ रहे हैं।
       2014 के लोकसभा चुनाव के बाद एक सर्वे में पाया गया 30 करोड़ रजिस्टर्ड मतदाताओं के लगभग एक तिहाई मतदाताओं , जिनकी उम्र 18 से 35 वर्ष के बीच थी, ने भाजपा को वोट डाला। आज मोदी जी या के भाजपा का बहुसंख्यक वाद लोगों पर बहुत प्रभाव नहीं डाल पा रहा है। सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज- लोकनीति द्वारा जनवरी 2018 में  किए गए एक सर्वे में पाया गया है कि भाजपा की लोकप्रियता नौजवानों में घटी है। 5 साल पहले जब नौजवानों में एकमात्र आवाज थी भाजपा। अब 2019 में यह नौजवान भ्रमित हैं। वे खासतौर पर विचारधारा को लेकर भ्रमित हैं। कुछ ऐसे भी लोग हैं जो मानते हैं कि भाजपा दोबारा सत्ता में आएगी लेकिन शायद उन की सीटें कम हो जाएंगी।
      नौजवानों में ऐसा नहीं कि सभी मामलों में विरोध है लेकिन कुछ मामलों में वह एकमत हैं।  उनका मानना है कि नोटबंदी बहुत असफल रही लेकिन जीएसटी एक महत्वपूर्ण कदम है, शुरू में थोड़ी दिक्कत हो रही है। सब कुछ देखते हुए ऐसा लग रहा है कि जो लोग मोदी के समर्थक हैं वह मध्य पंथी या मध्य वादी हो जाएंगे, वामपंथियों के साथ भी कुछ ऐसा ही होगा, क्योंकि वामपंथ से भी नौजवानों का मोहभंग हो रहा है। कुल मिलाकर या देखा जा सकता है कि इस बार मध्य पंथी जमात ही सरकार का मुकद्दर तय करेगी।