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Friday, May 31, 2019

विश्वास का चुनाव

विश्वास का चुनाव

मोदी जी ने चुनाव के समय एक नारा दिया था वह था चौकीदार । चौकीदार यानी सुरक्षा का भरोसा । हमारे देश की सबसे बड़ी ट्रेजेडी  यह है कि हमारे यहां भरोसे की मानसिकता नहीं है और यही कारण है हमारे देश के कानून वगैरह इतने जटिल हैं कि उनका पालन करना मुश्किल हो जाता है और उन्हें बदलना  और भी जटिल। इस कारणवश देश का अधिकांश नागरिक कानून तोड़ने वाला बन जाता है।  वह कभी न कभी किसी न किसी मोड़ पर कानून को तोड़ता हुआ नजर आता है। यही नियम और कानून को तोड़ने की मानसिकता एक दूसरे पर अविश्वास पैदा करती है। 2019 के चुनाव के नतीजों को देश के कई विशेषज्ञों ने अपनी- अपनी तरफ से व्याख्यायित करने का प्रयास किया कोई से "टीना" या " देयर इज नो   अल्टरनेटिव" यानी कोई "विकल्प नहीं है"  तो कोई इसे उम्मीद  के कारण हुई विजय बताया। लेकिन अगर समाज विज्ञान खासतौर पर अपराध शास्त्र की कसौटी पर इस विजय को परखें तो यह कुछ दूसरी ही बात  कहती नजर  आएगी। 2014 के चुनाव परिणाम को अगर समन्वित रूप में देखें तो लगता है कि इसके पीछे  एक उम्मीद  है, एक आशा  है खास करके अच्छे दिन आएंगे वाले जुमले के आधार पर ऐसा कहा जा सकता है । 2019 के चुनाव में जो सबसे बड़ा तत्व था वह था "मैं  चौकीदार" वाला नारा। प्रधानमंत्री ने अलग से कुछ नहीं कहा उन्होंने "मैं  चौकीदार" वाला नारा लगाकर लोगों को आश्वस्त किया कि सब देशवासी देश की रक्षा और उसके भले के लिए सजग रहें तो सबका विकास हो सकता है। मोदी जी ने  कोई महत्वपूर्ण नया वादा नहीं किया बल्कि उन्होंने जो किया उसके जरिये उन्होंने  देशवासियों को याद दिलाया कि वह सब मिलकर देश के लिए कुछ अच्छा करें । देशवासियों के लिए अच्छा करें। एक अलग तरीके से, लोगों के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले एक अच्छे आदमी की वही कहानी ओडिशा में भी सफल रही। ओडिशा में नवीन पटनायक  दो-तिहाई बहुमत से लगातार पांचवीं बार चुने गए ।             
       हमारे देश में पहले जाति और धर्म  नेताओं पर भरोसा करने और उनके लिए मतदान करने के आधार हुआ करते थे। अब विश्वास  आधार बन गया, जो एक व्यक्ति की अदूषणीयता , निस्वार्थता और लोगों की बेहतरी के लिए प्रतिबद्धता में बदल गया है। मोदी और पटनायक जैसे नेता  भारत में हैं  जिन पर भरोसा किया जा सकता है।  भारतीयों ने पूरे विश्वास के साथ उनके प्रति अपने भरोसे को इस चुनाव में दोहराया है। यदि यह प्रवृत्ति एक-दो चुनावी चक्रों के लिए बनी रह सकती है और लोगों का विश्वास लोगों में विश्वास का पूरक हो सकता है, तो अगले दो दशकों में करोड़ों भारतीयों के जीवन में उल्लेखनीय सुधार हो सकता है।
यहां समझना जरूरी है कि "लोगों में विश्वास" से तात्पर्य क्या  है?  डॉ बी बी मिश्र ने अपनी विख्यात  पुस्तक  "ब्यूरोक्रेसी इन इंडिया" में लिखा है कि "भारतीय प्रशासन को  बहुत अर्से से लोगों में विश्वास की कमी रही है और यही प्रशासन  की विशेषता समझी जाती है।  हमारे कानूनों और नियमों  को मोटे तौर पर एक प्रतिशत नियम-तोड़ने वालों को देखने के लिए तैयार किया गया है।" हालांकि, इस गैर-भरोसेमंद मानसिकता के कारण, हमारे कानून और नियम इतने जटिल हो गए हैं कि उनका पालन करना मुश्किल है। मजबूरन हर भारतीय नियम-तोड़ने वाला बन जाता है।  यह मनोदशा हमें एक-दूसरे के प्रति और सरकार के प्रति अविश्वास  करना सिखाती है।
राष्ट्र की प्रगति के लिए, हमें "ब्रिटिश राज" की नियंत्रण मानसिकता से दूर होना होगा। वे हमपर शासन करते थे और कानून उसी इरादे से बनाये गए ताकि   भारतीय सब कुछ करने के पहले अनुमति लें।   अमरीका, ऑस्ट्रेलिया या कई और राष्ट्र हैं , जहां नागरिकों पर भरोसा किया जाता है। उनकी आकांक्षाओं और सपनों को पूरा करने में मदद  के लिए कानून बनाए जाते हैं "प्रतिबंधित वस्तुओं" की एक छोटी सूची को छोड़कर हर नागरिक जो चाहता है करने के लिए स्वतंत्र होता है, प्रशासन कोई   हस्तक्षेप नहीं करता।
हमारे राष्ट्र को निम्न-आय से मध्य-आय वाले देश में स्थानांतरित करने और सामाजिक सामंजस्य और सद्भाव बढ़ाने के लिए कुछ उपाय करने जरूरी हैं।  जरा प्रशासनिक तंत्र पर गौर करें 1947-2014 के मध्य सरकार  ने एक नियंत्रण और कमान अर्थव्यवस्था की कोशिश की है। हर काम के लिए अनुमति की जरूरत और लाल फीतों से बंधी अफसरशाही की भूलभुलैया।  हम प्रयोग के तौर पर 10 वर्षों तक एक अलग दृष्टिकोण की कोशिश क्यों नहीं करते हैं । लोगों को वह करने दें जो वे करना चाहते हैं। देश के  लोगों पर भरोसा करें और बाजारों पर भरोसा करें। लोगों पर शासन न करें  लेकिन उन्हें सशक्त बनाएं और उन्हें सक्षम करें । ऐसा करने का एक बड़ा उदाहरण  है कि एलपीजी पर मिलने वाली सब्सिडी छोड़ने वाली बात। सरकार ने लोगों से अपील करने का तरीका अपनाया और लगभग 1करोड़ 20लाख  से अधिक लोगों ने सब्सिडी त्याग दी।
प्रत्येक भारतीय को खुश रहने का अधिकार है और   अगर खुशी आर्थिक रूप से सफल होने से आती है, तो हमें राष्ट्रीय कर्तव्य के रूप में धन का सृजन करने में सक्षम होना चाहिए। धन अच्छा है। नौकरी करने वाले हमारे समाज के सबसे महत्वपूर्ण सदस्य हैं। 23 मई को अपने विजय भाषण में पीएम ने बहुत ही सहजता से कहा था  कि "भारत में अब केवल दो जातियां होंगी एक वे जो गरीब हैं और दूसरे वे जो उन्हें गरीबी से बाहर लाने का प्रयास कर रहे हैं"। भारत का एक राष्ट्रीय कर्तव्य है कि हम यह सुनिश्चित करें कि हम प्रत्येक भारतीय के लिए उनकी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त धन का सृजन करें और यह केवल पीएम के कथन को आगे बढ़ाते हुए कहा जा सकता है कि हर कोई जो नौकरी करने वाला है उसे मदद और समर्थन करने की आवश्यकता है।
ऐसे समय तक जब तक हम बेहतर शिक्षा, बेहतर बुनियादी ढांचे, पूंजी की कम लागत और सामाजिक सुरक्षा  की नींव पर  अधिक उत्पादक अर्थव्यवस्था में बदल देते हैं तो बहुत बड़ा बदलाव आ सकता है खास कर उनके लिए जो सबसे गरीब हैं। बेशक इसमें   कम से कम 10-15 साल लगेंगे। हमें इस दिशा  में कुछ करने की आवश्यकता है। भारत में सबसे गरीब कृषि क्षेत्र है। कृषि को हमारी आबादी का केवल 5 प्रतिशत हिस्सा चाहिए लेकिन हमारी आबादी का 40 प्रतिशत से अधिक कृषि में शामिल है। जब तक हम उनके लिए अन्य क्षेत्रों में अच्छी नौकरियों का सृजन नहीं करते तो विकास का 
हमें ग्रामीण भारत के लिए बुनियादी आय  प्रणाली आरम्भ करने की जरूरत है। जैसी कि अमरीका की सामाजिक सुरक्षा है । इसे एन डी ए सरकार ने 2019 के अंतरिम बजट में 6,000 रुपये प्रतिवर्ष के साथ किसानों के लिए शुरू किया है। यह छोटी जोत के किसानों के लिए हैं।  इसे सुनिश्चित कर औऱ  विस्तार किया जा सकता है कि कोई भी भारतीय परिवार गरीबी में न रहे । 
भारत में वास्तविक ब्याज दरें दुनिया में सबसे अधिक हैं। हर नौकरी करने वाले, हर कर्जदार पर यह बहुत बड़ा टैक्स है। "मेक इन इंडिया" कैसे सफल हो सकता है, हम कैसे प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं यदि चीनी और अमरीकी निर्माता 3-4 प्रतिशत पर उधार ले सकते हैं और हमारे नौकरी करने वालों को 12-14 प्रतिशत व्याज पर उधार लेना होता है। पिछले पांच वर्षों के नीतिगत उपायों के कारण, भारत ने मुद्रास्फीति पर एक महत्वपूर्ण जीत हासिल की है भारतीय मुद्रास्फीति  अब अमरीका और ब्रिटेन के  स्तर के आसपास है। हमने अभी तक भारतीयों को मुद्रास्फीति के खिलाफ युद्ध में जीत का लाभ नहीं दिया है। हमने महंगाई को सिर्फ इसलिए नहीं छोड़ा क्योंकि हम इसे नापसंद करते हैं, बल्कि इसलिए कि यह भारत को कम लागत के साथ उपभोग और निवेश को सक्षम करके अधिक समृद्ध बनने में सक्षम बना सकता है। हमें अगले 12 महीनों में ब्याज दरों में  कम से कम 2 प्रतिशत  की कटौती की आवश्यकता है और  वास्तविक ब्याज दरों पर लगभग 1.5प्रतिशत कटौती जरूरी है। 
केंद्र सरकार का कर्ज लगभग 1.2 खराब डॉलर है। इसके बाद राज्य सरकारों और पीएसयू के ऋण पर विचार करना है। इन उधारों पर ब्याज की लागत में कमी से सरकार के लिए लगभग  50 अरब डॉलर  की वार्षिक बचत हो सकती है। इस संदर्भ में, भारत का राजकोषीय घाटा (केंद्र सरकार)  80 अरब डॉलर  से अधिक है। इस  50 बिलियन डॉलर को महत्वपूर्ण सामाजिक क्षेत्र के खर्च और बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए उपयोग किया जा सकता है। भारतीय बैंक एनपीए से अपने घाटे के एक महत्वपूर्ण हिस्से को एक बार में सरकारी बॉन्ड की होल्डिंग से राजकोषीय लाभ के माध्यम से प्राप्त करने में सक्षम होंगे।  यह बैंकिंग प्रणाली को फिर से कार्यात्मक बनाने और हर उत्पादक उद्यमी को ऋण देने के अपने वास्तविक लक्ष्य को पूरा करने में सक्षम होगा। जैसा कि वरिष्ठ नागरिकों एवं अन्य विशेष श्रेणी के सेवा क्षेत्र के लोगों के लिए ब्याज दरें कम की जाती हैं, सरकार 3-5 वर्षों के लिए चरणबद्ध सब्सिडी प्रदान कर सकती है, जिसकी लागत सरकार द्वारा बचाए गए  50 अरब से भी कम होगी।
इससे सरकार पर देशवासियों का और देशवासियों का सरकार पर भरोसा बढ़ेगा और भरोसा राष्ट्र की प्रगति के उत्प्रेरक का कार्य करेगा। यही कारण है कि मोदी जी ने कहा"सबका साथ,सबका विकास और सबका भरोसा।" चौकीदार और भरोसा क्रियात्मक तौर पर और  बिंबविधान के आधार पर अन्योन्याश्रित रूप से जुड़े हैं, सम्बद्ध हैं।


Thursday, May 30, 2019

प्रधानमंत्री जी के सामने अगले पांच वर्ष 

प्रधानमंत्री जी के सामने अगले पांच वर्ष 

नरेंद्र मोदी सांविधानिक तौर पर देश के प्रधान मंत्री हो गए और अब उनके समक्ष अगले पांच साल की चुनौतियां हैं। कुछ दोषदर्शी लोग बेशक उनके विगत पांच वर्षों के कार्यकाल की नुक्ताचीनी में लगे हैं और उम्मीद है लगे भी रहेंगे, लेकिन इससे असंतोष भले ही कुछ हल्का हो जाय पर उपलब्धि क्या होगी? इस लिए अच्छा हो आगे की बात करें। नरेंद्र मोदी ने अपने दूसरे कार्यकाल के लिए दो लक्ष्य तय किये हैं पहला 2022 जो देश की स्वतंत्रता की 75 वीं वर्षगांठ है। पिछले कार्यकाल में गरीबों के लिए शुरू किए गए कई कल्याणकारी कार्यक्रमों को उस समय तक पूरा किया जाना है। उनमें खास हैं ग्रामीण विद्युतीकरण, स्वास्थ्य बीमा , स्वच्छता, डिजिटाइजेशन, ढांचागत निर्माण और आवास। इनमें से कई तो अभी चल रहे हैं । मोदी जी के नये कार्यकाल के तीन वर्ष 15 अगस्त 2022  तक पूरे होंगे और तब उनसे कई कठिन सवाल पूछे जाएंगे। मसलन अभी भी खुले में शौच किया जाना बंद नहीं हुआ है जबकि 4 जनवरी 2019 को जारी बिहार, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश में किये गए सर्वे की रपट में कहा गया है कि 98  प्रतिशत घरों में शौचालय का निर्माण किया जा चुका है फिर भी 44 प्रतिशत लोग खुले में शौच करते हैं। उल्लेखनीय है कि देश की आबादी का एक बहुत बड़ा भाग इन्हीं प्रान्तों में निवास करता है। उत्तर है धर्म और संस्कृति। कुछ गाओं में शौचालयों को भंडार घर बना दिया गया है क्योंकि वहां सफाई और जल निकासी की व्यवस्था नहीं है और है भी पर्याप्त नहीं है ।  जहां तक ग्रामीण विद्युतीकरण का सवाल है तो अंतिम घर तक बिजली पहुंचाना अभी भी समस्या है। गैस सिलिंडर मुफ्त दिए जाने के बावजूद उन्है दुबारा भरवाना अभी भी गरीबों के लिए कठिन है। स्वास्थ्य बीमा के साथ मुश्किल है कि कई बड़े अस्पताल इसके साथ जुड़ना नहीं चाहते। उनका कहना है कि कई ऑपरेशन की दरें बीमा में बहुत कम हैं। यहां इसे बताने का तात्पर्य यह है कि मोदी जी का प्रयास कैसा है। बेशक उन्हें अभी इसमें पूरी कामयाबी नहीं मिली है। मोदी जी की कल्याण कारी योजनाओं ने 1971 से गरीबी हटाओ का नारा लगाने वाली कांग्रेस को सोचने पर मजबूर कर दिया। मोदी जी ने 2014 से गरीबों के लिए जितने कल्याणकारी कार्यक्रम शुरू किए हैं यदि कांग्रेस ने अपने शासन में किया होता देश की तस्वीर ही बदल गयी होती।
     मोदी सरकार को 2014 में ढुलमुल अर्थव्यवस्था एक देश की जिम्मेदारी मिली, जिसमें मुद्रास्फीति बढ़ी हुई थी, मौद्रिक घाटा बहुत ज्यादा था और प्रति व्यक्ति आय बहुत कम थी। मोदी जी ने 2014 में माइक्रो सुधार पर ध्यान दिया खास कर कल्याणकारी योजनाओं पर बनिस्पत मैक्रो आर्थिक  सुधारों पर। यहां लक्ष्य बहुत ही कष्टदायक है।आर्थिक विकास धीमा हो गया है, निजी निवेश कम है बैंक एन पी  ए खत्म करने के लिए फूंक फूक कर कदम उठा रहे हैं। स्पष्ट  है कि अर्थ व्यवस्था को थोड़ा प्रोत्साहन दिया जाना जरूरी है। ऐसे में सरकार द्वारा जब देश में नगदी बढ़ाने की बात होती है तो अर्थ शास्त्री भयभीत हो जाते हैं। लेकिन जब खाद्य मुद्रा स्फीति एक प्रतिशत और थोक मुद्रा स्फीति 3 प्रतिशत हो तो ऐसे भय और बढ़ जाते हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था को ममग और आपूर्ति दोनों तरफ एक - एक बूस्टर का एक इंजेक्शन लगाना जरूरी है। इसका अर्थ कि निगमों को पूंजी देने के लिए बैंकों में पूंजी निवेश जरूरी है  तथा माल और सेवा की आपूर्ति में वृद्धि आवश्यक है। इसमें कुछ सकारात्मक संकेत भी मिल रहे हैं , जैसे सीमेंट की कलहपत 2018-19 में 13 प्रतिशत बढ़ गयी इसका मतलब है ढांचागत निर्वाण और आवास निर्माण में तेजी आई है। प्रधानमंत्री के एजेंडे में अगला नंबर भूमि सुधार का है। भूमि अधिग्रहण विधेयक अटका पड़ा है। इसबार संसद में भारी बहुमत के कारण भूमि और श्रम के मामले में बड़े कदम उठा सकती है। सरकारी क्षेत्र के 80 लिस्टेड उद्यमों  की मार्किट वैल्यू लगभग 18 लाख करोड़ है अगर इनमें से हर साल 1.5 लाख करोड़ की राशि घाटे में चल रहे सरकारी पुक्रमों में लगाया जाए तो उनकी दशा में यकीनन सुधार आएगा। देश का वर्तमान सकल घरेलू उत्पाद 2.9 खरब डॉलर है सरकार को इसमें हर साल 7.5 प्रतिशत वृद्धि का लक्ष्य अपनाना चाहिए। इस कदम के फलस्वरूप ड्सह का जी डी पी काफी बढ़ जाए सकता है।
       नई मोदी सरकार को विदेश नीति के अपने एजेंडे पर भी ध्यान देना चाहिए। यदि अर्थव्यवस्था की स्थिति सुधार जाएगी तो अमरीका, चीन , पाकिस्तान के समक्ष ज्यादा  ताकतवर ढंग से खड़ा हो सकता है। चीन की ताकत ने यह बड़ा दिया कि भू राजनैतिक ताकत का उत्स आर्थिक क्षमता है। कम नियम कानून और कम अफसरशाही दूसरा लक्ष्य हासिल करने में मदद करेगी। इस चुनाव के नतीजे साफ हो जाएगा कि भ ज पा का वोट प्रतिशत 1984 के 7.6% से बढ़कर 2019 में 37.7% हो गया। जबकि, कांग्रेस का वोट प्रतिशत 48.1% से घट कर 20 प्रतिशत हो गया। ऐसे में अगर मजबूत अर्थ व्यवस्था हो और कल्याणकारी कार्यक्रम समय पर पूरे हो जाएं तो  मोदी जी के लिए 2024 एक नई दिशा के द्वार खोलेगा। 

Wednesday, May 29, 2019

भारतीय वोट कैसे देते हैं

भारतीय वोट कैसे देते हैं

जम्हूरियत वह तर्जे हुकूमत है जिसमें
बंदे तौले नहीं जाते गिने जाते हैं
19 वां लोकसभा का चुनाव खत्म हो गया।  कल देश के सदर को अपने पद और गोपनीयता की शपथ दिलाई जाएगी। शपथ के बाद से वह अगले पांच वर्ष तक भारत का मुकद्दर लिखने की ताकत हासिल कर लेगा। इस वर्ष भी यह ताकत हमारे देश की जनता के माध्यम से संविधान ने  नरेंद्र मोदी को सौंपी है। उनके पिछले कार्य काल में क्या क्या विकासमूलक कार्यों की योजनाएं बनीं कितनी अमल में लायीं गयीं  , उनमें  कामयाबी और नाकामयाबी का अनुपात क्या रहा, नाकामियों पर लंबे- लंबे लेख लिखे गए। भविष्यवाणियां की गईं कि इसबार नरेंद्र मोदी जी को पिछले चुनाव से कम सीटें हासिल होंगी। इन भविष्यवाणियों के आधार पर चर्चा होने लगी कि अगला प्रधानमंत्री कौन होगा ? लेकिन सब  गलत। इन बार भी मोदी जी ही प्रधानमंत्री हुए और पहले  से ज्यादा सीटें  हासिल कर।  यहां सवाल है कि जनता ने उन्हें कैसे और क्यों वोट  दिया? इतना बड़ा जनादेश क्यों मिला? हाल में एक अध्ययन के मुताबिक भारतीय मतदाताओं ने 2019 के चुनाव में  नीतियों और विकास के आधार पर वोट नहीं डाला। बेरोजगारी और कृषि पीड़ा जैसी आर्थिक परेशानियों के बावजूद भारतीय जनता पार्टी ने 50% सीटें जीत लीं। ऑक्सफ़ोर्ड की एक प्रोफेसर तनुश्री गोयल ने देश की 90 प्रतिशत आबादी के  मतदाताओं से भरे 14 राज्यों  का अध्ययन किया। उन्होंने 1998 से 2017 के मध्य  प्रधानमंत्रियों की योजनाओं के तहत किये गए कार्यों और विधानसभाओं तथा लोकसभा चुनाव के नतीजों से  उनके  संबंधों की व्याख्या की गई। गौर करें सन 2000 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के कार्यकाल में एक अत्यंत महत्वाकांक्षी योजना आरम्भ हुई थी - " प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना।" 2018 तक इस योजना के तहत  280 लाख करोड़ रुपये  खर्च कर देश में समग्र रूप से  5,50,000 कि मी लंबी ग्रामीण सड़कें बनीं। गांवों में इस कार्यक्रम के सफलता पूर्वक लागू किये जाने के बावजूद  मतदाताओं ने उसी सरकार को वोट नहीं दिए। उदाहरण के लिए , 1998 से 2003 के बीच राजस्थान सरकार ने राज्यभर में 13,634.43 किलोमीटर सड़कों का निर्माण किया लेकिन 2003 में कांग्रेस को औसतन 9.6 प्रतिशत मतों का नुकसान हुआ। भाजपा वहां सत्ता में आ गयी।1999 से 2004 के बीच संयुक्त आंध्र प्रदेश में सत्तारूढ़ तेलुगु देशम पार्टी 8167.6 की मी सड़कें बनायीं और 2004 के चुनाव में तेलुगु देशम पार्टी7.3 प्रतिशत मतों से हार गई, कांग्रेस सत्ता में आ गयी। 
      अध्ययन में पाया गया कि दुनिया के सबसे बड़े ग्रामीण सड़क कार्यक्रम  का चुनावी लाभ शून्य रहा। गोयल के अनुसार बहुत कम ऐसा हुआ है कि चुनाव खासतौर पर सकारात्मक या  नकारात्मक हों जिसका परिणाम पर संसार पड़ा हो जिससे महसूस हो कि विकास का लाभ मिला है ,वे  अक्सर बहुत अशक्त या असंगत होते देखे गए हैं। सबने गौर किया होगा कि 2019 के चुनाव प्रचार में प्रधान मंत्री के भाषणों में ढांचागत परियोजनाओं पर बातें बहुत कम हुईं। प्रचार के दौरान नीतियों के सिवा सब पर बातें हुईं। देश में इस स्थिति का लोकतंत्र पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है।  एक अन्य मतदान और विकास परियोजनाओं के साक्षरता और लापरवाही के कारण संबंध नहीं रह पाता है। देश के एक से दो प्रतिशत मतदाता ही विभिन्न दलों के चुनाव घोषणा पत्रों को पढ़ते हैं और समझते हैं। यदि उच्च शिक्षा और सही सूचनाएं प्राप्त हों तो मतदाता उम्मीदवारों की जवाबदेही तय कर सकते हैं। सरकारी योजनाओं के प्रति चेतना यहां तक कि ठोस सबूत के बावजूद  राष्ट्रीय और प्रांतीय स्तर पर  मत दाताओं को प्रभावित नहीं कर सकती। जनता नीतियों के आधार वोट देने निर्णय नहीं करती। 
       2019 का चुनाव भी नीतियों के आधार पर नहीं लड़ा गया। ध्यान दें , भाजपा का सुर इस वर्ष बदला हुआ था वह विकास और हिंदुत्व पर बातें नहीं करती थी इसबार वह पहचान और जाति पर केंद्रित थी। अब सवाल है कि अगर विकास  का निर्वाचकीय लाभ नहीं प्राप्त होता है तो आखिर कोई सरकार इसमें धन और समय क्यों बर्बाद करती है। तक्षशिला के आर्थिक शोधकर्ता अनुपम मानुर के अनुसार " सड़कें बनाने का बेशक चुनावी लाभ ना मिले लेकिन बनाने का भारी घटा जरूर मिलेगा।" दरअसल लोकतांत्रिक जंग अनुभूति का युद्ध है। 2014 में मोदी ने जनता में एक खास प्रकार की अनुभूति पैदा कर दी और सत्ता में आ गए। गोयल के अनुसार भारत के सामाजिक और राजनीतिक जीवन में जाति मुख्य भूमिका निभाती है। लेकिन विकासशील नीतियों पर इसका बुरा प्रभाव होता है। इसका सीधा अर्थ है कि मतदाता अन्य बातों पर ध्यान देते हैं। इन दिनों जाति मौलिक पहचान नहीं है। आजकल आधुनिक राजनीतिक पहचान का भी प्रभाव होता है। एक ही जाति के दो मतदाता दो पार्टियों को वोट देते देखे जा सकते हैं। मतदाताओं की भनाओं के अलावा उनकी जरूरतों पर आधारित होती हैं। विकास को वे अपनी ही जरूरत की वस्तु नहीं मानते। वह तो सबके लिए है। जनता यह देखती है कि इसमें उसके लिए क्या है। इसीलिए राजनीतिक दल मतदातों को लुभाने के लिए तरह- तरह की चीजें भेंट करते हैं के वह लैपटॉप हो या साइकिल हो या और कुछ।

Tuesday, May 28, 2019

मोदी लहर क्या है 

मोदी लहर क्या है 

नरेंद्र मोदी कल देश के प्रधान मंत्री पद की शपथ लेंगे। 2019 को लोक सभा चुनाव में सभी कयासों को धता बताते हुए मोदी जी ने भारी बहुमत हासिल किया।  भीतर ही भीतर एक लहर चल रही थी और इस लहर का परिणाम यह हुआ कि उन राज्यों में भी वोट प्रतिशत बहुत ज्यादा बढ़ गया जिन राज्यों उम्मीद नहीं थी। राजनीति और समाज विज्ञानियों के लिए इस लहर के कारणों को जानना एक चुनौती बन गयी। यहां सवाल था कि क्या मतदाताओं ने स्वान्तःसुखाय वोट दिए अथवा भाजपा की विचारधारा से प्रभावित होकर उन्होंने मतदान किया या फिर कोई कारण था। यदि चुनाव के परिणाम कुछ कहते हैं  तो शायद उनका संकेत यह है कि भाजपा और नरेंद्र मोदी के संदेश इतने प्रगल्भ थे कि आर्थिक संकट का शोर उसमें दब गया। इन संकेतों ने यह भी स्पष्ट किया कि 2014 में चली मोदी लहर अब और मजबूत हो गयी है।
      अब यहां राजनीति विज्ञानियों के लिए एक बड़ा सवाल यह है कि वे यह जिज्ञासुओं को बताएं कि मोदी लहर क्या है और उसके डाइमेंशन्स क्या-क्या हैं? मोदी की बहुत लोग प्रशंसा करते हैं लहर क्या वह है या फिर जाति को ध्यान में रख कर लोग वोट डालते है,वही लहर है अथवा वे उन स्थानीय नेताओं का समर्थन करते हैं जो मोदी जी के झंडाबरदार हैं अथवा वे लोग हिंदुत्व से नहीं घबराते तो क्या उन्होंने इसलिए वोट दिया कि वे हिंदुत्व के एजेंडे का समर्थन करते हैं या फिर वे मोदी से आकर्षित थे या भाजपा की विचारधारा से या कोई और कारण था?
        अब सवाल है कि मोदी प्रभाव का मूल्यांकन कैसे किया जाय? 2014 की भाजपा की सफलता दरअसल एक दशक से बनाई गई हवा का परिणाम थी।लोकनीति सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज़ के अनुसार उस चुनाव में आर्थिक पक्ष महत्वपूर्ण था।लेकिन 23 मई के नतीजे का भारतीय राजनीतिक आचरण के संदर्भ में व्याख्या जरूरी है।क्योंकि 2014 में एक राजनीतिज्ञ के रूप में मोदी को देखने समझने वाला पक्ष मजबूत था। राजनीति विज्ञानी ऐडम जिगफील्ड के मुताबिक "यह जानना बेहद दिलचस्प होगा कि 2019 के चुनाव में मतदाताओं का आचरण क्या था।" सामाजिक मनोविज्ञानियों के मुताबिक मतदाता के तौर पर लोगों की मंशा अजीब होती है। अधिकतर मतदाता यह स्पष्ट नहीं कर सकते कि उन्होंने किसी को वोट क्यों दिया। सेंटर फॉर पॉलसी रिसर्च के नीलांजन सरकार के मुताबिक बहुत से लोग पहले किसी खास व्यक्ति से जुड़ते हैं और उसके बाद पार्टी से। राहुल गांधी का " चौकिदार चोर है" वाला जुमला इसलिए नहीं चल सका कि वह वह मुद्दा आधारित था और लोग व्यक्ति से जुड़े थे। लोग मोदी को पसंद करते हैं। उनके हावभाव ,बातों को रंग देने की उनकी कुशलता से लोग प्रभावित हैं- भरे भुवन में करात है नैनन ही सौं बात।
यहां एक और महत्वपूर्ण प्रश्न है कि भाजपा के मतदाताओं को प्रेरित करने में विचारधारा की भूमिका ज्यादा थी या जातीय पहचान की? इस प्रश्न का विश्लेषण भी ज़रूरी है। अभी तक का विश्लेषण यह बताता है कि भाजपा के मतदाताओं में जातीय पहचान ज्यादा थी। जिन्होंने वोट दिया उनमें से अधिकांश लोग उच्च वर्गीय थे और हिंदुत्व के समर्थक थे। यह बात इसबार दलितों और आदिवासियों के संबंध में नहीं थी। जबकि 2014 में ऐसा नहीं था।अब यहां यह देखना आवश्यक है कि इनमें कोई अंतःसंबंध है अथवा नहीं। बेशक वे बड़े राजनीतिज्ञ हैं और जहरबुझे जुमले यों बोलते हैं जैसे ललकार रहे हों। यहां इसकी आलोचना करना विषय नहीं है बल्कि विषय यह है कि क्या इससे मतदाता एकजुट होते हैं या ऐसी बात लोगों के मन इस तरह उतर जाती है वे उनके लिए समर्पित हो जाते हैं। निलांजन सरकार का मानना है कि बहुत से समुदायों में अव्यक्त हिन्दू राष्ट्रीयता है लेकिन इससे तथ्य परिभाषित नहीं होता इससे बेहतर तो यह कहना होगा कि लोगों इससे मुंह नहीं मोड़ा है। मतदाताओं पर हिंदुत्व और अन्य अव्यक्त स्थितियों का कितना असर पड़ा है यह भी आकलन का एक पहलू हो सकता है। बेशक धार्मिक ध्रुवीकरण ने प्रभाव डाला है लेकिन यह कितना टिकाऊ होगा यह कहना मुश्किल है। 2014 के बाद उन क्षेत्रों पर ध्यान दिया गया था जहां भाजपा को ज्यादा मत हासिल हुए थे बनिस्पत उन क्षेत्रों के जहां इसे पहले ज्यादा वोट मिले थे। यह देखा गया कि जहां 1991 और 1996 में ज्यादा वोट मिले थे वहां 2014 में विस्तृत क्षेत्रों में ज्यादा वोट नहीं मिले । इसका साफ अर्थ है कि ध्रुवीकरण ज्यादा टिकाऊ नहीं हुआ। प्रश्न है कि क्या 2019 की स्थिति ज्यादा टिकाऊ होगी?

Monday, May 27, 2019

नए राजनीतिक दृष्टिकोण का युग

नए राजनीतिक दृष्टिकोण का युग

लोकसभा चुनाव का परिणाम चमत्कारिक रूप से परिवर्तनकारी है। नेहरू की मृत्यु के  पूरे साढे पांच दशक के बाद देश में 23 मई 2019 को नेहरू गांधी का युग समाप्त हो गया। 1971 में इंदिरा जी की विजय के बाद यह पहला अवसर है जब किसी एक दल को दूसरी बार बहुमत मिला है। कई राज्यों में भाजपा के वोट का हिस्सा 50% तक हो गया। 2014 के चुनाव में कांग्रेस पार्टी को फकत 44 सीटें मिली थी और 5 वर्षों तक वह राजनीतिक रूप से एक हारी हुई पार्टी की तरह दिखती रही और अब फिर लंबे समय तक एक मामूली हैसियत के रूप में कायम रह सकती है। कांग्रेस को इस बात की समीक्षा करनी चाहिए कि दूसरी बार भी वह इतनी बुरी तरह क्यों हारी ? भाजपा बालाकोट के कारण नहीं जीती और ना ही आतंकवाद का भय दिखाकर विजयी हुई। गौ हत्या के नाम पर हमले, घर वापसी, अखलाक की हत्या इत्यादि बेशक समस्याएं थी लेकिन इनके लिए जनता ने भाजपा को दंडित नहीं किया।  कांग्रेस को इस बात की समीक्षा करनी चाहिए कि उपरोक्त स्थितियों का भाजपा के वोट हिस्से पर असर क्यों नहीं पड़ा? यही नहीं, कृषि पीड़ा, बेरोजगारी ,जीएसटी, नोटबंदी या रफाल जैसे मसलों का मोदी तथा भाजपा के चुनाव पर प्रभाव क्यों नहीं पड़ा ? मतदाता बेवकूफ नहीं हैं। अपनी जरूरतों को समझते हैं और यह भी जानते हैं कि उन्हें हानि कहां से हो रही है। ग्रामीण भारत में बिजली दौड़ गई, शौचालय बन गए और खुले में शौच करने से मुक्ति मिल गई । मतदाताओं के पास बैंक खाते हैं। अगर वह गरीबी रेखा से नीचे हैं तो आयुष्मान भारत की सुरक्षा उनके लिए है। गरीब किसानों को 6हजार रुपयों  की मदद है, जो बेशक राहुल गांधी के नजरों में बहुत मामूली रकम है लेकिन इस रकम को हासिल करने वालों के लिए यह मामूली नहीं है। मतदाता अनाड़ी भी नहीं हैं। राहुल गांधी का एक हिंदू के रूप में, ब्राह्मण ना कहें ,चोला धारण करना ,मंदिरों में जाना और फोटो खिंचवाना मतदाताओं को मूर्ख नहीं बना सके। कांग्रेस यह सोचती थी कि वह ब्राह्मण का चोला पहन रहे हैं तो वोट भी जीत जाएंगे। लेकिन यह गलत साबित हुआ। मुस्लिम समुदाय से दूर होना उनके लिए लाभकारी नहीं हुआ।
         अब कांग्रेस को क्या करना है? पहले तो वह जिस पर भी जिस भी सिद्धांत या विचार  पर विश्वास करती है उसकी जांच करे। कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता को त्याग दिया और मृदु हिंदू वाद को अपना लिया। अगर वह अब भी समाजवाद पर भरोसा करती है तो उसे यह स्पष्ट करना होगा कि इसका मतलब उसके लिए क्या है। उसे अपने कार्यकर्ताओं का पूरा काडर तैयार करना होगा। एक समय में देशभर में फैले अपने संगठन को फिर से गढ़ना होगा। अगर पार्टी की अध्यक्षता परिवार के लिए ही आरक्षित है तब भी पार्टी के अन्य पदों पर इसे लोकतंत्र को लागू करना पड़ेगा। तभी अन्य परिवार आधारित पार्टियों के लिए एक मिसाल कायम होगी। भारत बदल रहा है । चुनाव ने यह स्पष्ट कर दिया कि जाति का कोई प्रभाव नहीं है और ना ही गठबंधन का । वैसा प्रभाव तो बिल्कुल नहीं  है जो 1989 से 2000 के बीच था। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश में गठबंधन बहुत ज्यादा सफल नहीं हो सका। राहुल गांधी अमेठी गवां बैठे । ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने पारिवारिक गढ़ से पराजित हो गए । प्रियंका को लाना बहुत ज्यादा लाभदायक नहीं हुआ। स्मृति ईरानी ने यह प्रमाणित कर दिया की चुनाव क्षेत्र में कठोर परिश्रम ज्यादा लाभदायक होता है।
         एक और बड़ा बदलाव हुआ कि वामपंथ नकारा हो गया । 1952 में अविभाजित सीपीआई एक अगुआ राजनीतिक संगठन थी। 1996 से 98 के बीच वामपंथी दल सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल थे। ज्योति बसु को प्रधानमंत्री पद के लिए न्योता दिया गया था लेकिन उनकी पार्टी सीपीआई(एम)  ने उसे स्वीकार करने से रोक दिया। पिछले 70 वर्षों में सीपीआई(एम) ने अलग-अलग समय में केरल, पश्चिम बंगाल ,त्रिपुरा इत्यादि राज्यों में शासन किया। अब यह सिकुड़ कर महज 5 सीटों तक सीमित हो गई। इसके बुद्धिजीवी प्रभाव इसकी राजनीतिक मौजूदगी को नहीं बचा सके। जनसंघ और भाजपा को 1998 में सत्ता में आने में 50 वर्ष लगे थे। अब तो ऐसा लगता है कि मतदाताओं के समर्थन से सत्ता में कायम रहेगी।
           भाजपा की इस विजय का महत्व इसलिए नहीं है कि उसने बहुत ज्यादा सीटें हासिल की। 2014 में भी उसे बहुमत हासिल था। इसका महत्व केवल इसलिए है कि इसने कांग्रेस के राजनीतिक मैदान में खुद को स्थापित कर लिया । अल्पसंख्यकों को एकजुट भारत में सुरक्षित होने का एहसास जो नेहरू जी के दृष्टिकोण ने पैदा किया था उसे भाजपा में अपनी राजनीतिक ताकत को एकत्र कर और हिंदू पहचान को बढ़ावा देकर बहुलता वादी शासन को स्थापित किया। भाजपा ने घोषणा कर रखी है कि वह सत्ता में आने के बाद धारा 370 को समाप्त कर देगी। अयोध्या में मंदिर उसके एजेंडा में है और उचित समय पर इसका निर्माण शुरू होगा। अगर अदालत इसके पक्ष में निर्णय नहीं देती है तो नए कानून बनाने की राह अपनाई जाएगी। मोदी ने  एक ताकतवर नेता की छवि भी तैयार की। नए मोदी युग में नरेंद्र मोदी को अपरिमित शक्ति प्राप्त हुई है । ऐसी शक्ति तब मिलती है जब विपक्ष में कोई दम न हो और विपक्ष का नैतिक बल समाप्त हो गया हो।

Sunday, May 26, 2019

नई तरह की राजनीति की जरूरत

नई तरह की राजनीति की जरूरत

भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने नरेंद्र दामोदरदास मोदी को भारत का प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया है।  नरेंद्र मोदी ने  एक नया नारा दिया  कि  "सबका साथ,  सबका विकास  और सब का विश्वास।"  उन्होंने यह भी कहा कि "अल्पसंख्यकों के साथ  छल हुआ है  और हम  उनका भरोसा जीतेंगे।" इसी के साथ भारत में  राजनीति का एक नया युग आरंभ हुआ। यहां बात  नेहरू गांधी खानदान का राजनीति में पतन की नहीं है और ना नरेंद्र मोदी का भारत की राजनीति में उभार की ही है। पिछले 3 दिनों में यानी जब चुनाव के नतीजे आए तब से यह तय हो गया है कि भारत में एक गंभीर राजनीतिक परिवर्तन हुआ है।  इस राजनीतिक परिवर्तन को समझने के लिए खानदान के पतन या किसी नेता के उभार जैसे नजरिए बेहद संकीर्ण होंगे। चुनाव परिणाम के नतीजों से यह स्पष्ट हो गया कि भारत में मंदिर या मंडल का युग खत्म हो गया और एक नया युग  आरंभ हुआ है। इस युग को सुविधा के लिए मोदी युग कह सकते हैं। 1984 का चुनाव याद होगा प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भाजपा को 2 सीटों पर लपेट दिया था। लेकिन इससे केवल 5 वर्षों के भीतर और राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल के अंतिम दिनों में भाजपा धीरे धीरे उभरने लगी थी। उसकी वापसी की संभावनाएं दिखने लगी थीं। राजीव गांधी के बेहद करीबी समझे जाने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बगावत का झंडा बुलंद किया और राजीव गांधी का विकल्प बनने के लिए एक गठजोड़ के नेता के रूप में सामने आए। भाजपा ने उनकी इस बुलंदी के लिए संख्या बल मुहैया कराया। भाजपा के लौहपुरूष कहे जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी उस समय सत्ता में भागीदारी के लिए तैयार नहीं थे। उनका मानना था कि भाजपा अपने दम पर सत्ता हासिल करे। किसी के पास कोई मुद्दा नहीं था। भ्रष्टाचार का मुद्दा पुराना हो गया था। लालकृष्ण आडवाणी ने हिंदुत्व राष्ट्रवाद को हवा देना शुरू किया।  इसके लिए उन्होंने अयोध्या में राम मंदिर को इस नवीन राष्ट्रवाद का बिंब बनाया। 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के जनता दल को 143 सीटें मिलीं और वे नवगठित राष्ट्रीय मोर्चा के नेता के तौर पर भारत के प्रधानमंत्री बने। इस मोर्चे को भाजपा ने बाहर से समर्थन दिया। बाहर से समर्थन देने वाला एक और दल था वह था वाम दल। दोनों एक दूसरे के वैचारिक तौर पर घोर विरोधी थे लेकिन दोनों का उद्देश्य एक था इसलिए दोनों ने विश्वनाथ प्रताप सिंह का बाहर से समर्थन किया। उस  दौर का अगर राजनीतिक समीकरण देखें तो पता चलेगा कि जनता दल और उसके छोटे-छोटे सहयोगी दलों को अधिकांश सीटें समाजवादियों और बागी कांग्रेसियों के कारण प्राप्त हुई थीं। यह सभी भाजपा से अलग रहना चाहते थे। उसी वक्त कश्मीर में अलगाववाद का उभार शुरू हुआ और बीपी सिंह सरकार के गृहमंत्री तथा कश्मीर के वरिष्ठ नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबैया सईद का आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया।  उसे छुड़ाने के लिए सरकार ने आतंकियों के सामने घुटने टेक दिए। यह राजनीतिक दिशा परिवर्तन के लिए एक नया मोड़ था। बीपी सिंह के अधिकांश साथी जो लोहिया वादी थे उन्होंने भाजपा और कांग्रेसी  विरोधी एक नई राजनीति का मंच तैयार करने का प्रयास आरंभ कर दिया। उन्होंने मंडल रिपोर्ट को लागू करवा दिया। समाज के सवर्णों के लिए खलबली मच गई और उन्होंने बीपी सिंह के खिलाफ झंडा उठा लिया। कई छात्रों ने आत्मदाह किए तथा हिंदू बिरादरी में एक तरह से युद्ध आरंभ हो गया।  इसी युद्ध की पृष्ठभूमि में ओबीसी वोट बैंक उभरकर आया। अब हिंदू वोट बैंक के विभाजित होने का खतरा पैदा हो गया। उधर आडवाणी जी हिंदू मुस्लिम ध्रुवीकरण में जुटे थे और  विभाजित होते हिंदू वोट को देख कर वे क्षुब्ध हो गए। उनकी मंदिर की राजनीति विश्वनाथ प्रताप सिंह की मंडल की राजनीति से सीधा टकरा रही थी।  राजनीति को परिभाषित करने के लिए मंडल - मंदिर एक नया सूत्र बन गया। यह 2019  के चुनाव के पहले  तक कायम था। अगर राजनीतिक आचरण का मनोविज्ञान देखें तो पता चलेगा कि जाति के नाम पर विभाजित हिंदू समाज जब जब आस्था के नाम पर एकजुट हुआ है तो भाजपा की ताकत बढ़ी है और कई मौकों पर भाजपा सत्ता में आई है।
         भाजपा के रणनीतिकारों ने इस मनोविज्ञान को भांप लिया और मंदिर के औजार से मंडल के व्यूह को भेद दिया। यह केवल सत्ता की सोच में बदलाव नहीं है बल्कि यह पूरे देश की सोच में परिवर्तन है। यह एक नई राजनीतिक सोच की शुरुआत है। 2019  के चुनाव परिणाम में विजयी के रूप में उभरने वाले नरेंद्र मोदी ने शाम को जो भाषण दिया उसकी एक पंक्ति पर गौर करें उन्होंने कहा कि "भारत में केवल दो जातियां हैं एक गरीबों की और दूसरी गरीबों की मदद करने के लिए संसाधन जुटाने वालों की।" दूसरी बात उन्होंने कही कि "सेकुलर का चोगा पहनकर सामने आने वाले लोग हार गए। इन पंक्तियों का संदेश स्पष्ट है कि जातियां खत्म हो गयीं। यह मोदी जी ने अपने दम पर किया। इसके लिए विपक्ष को दोषी कहना उचित नहीं है।  चुनाव से पहले जो गठजोड़ बनते हैं वह तभी प्रभावशाली होते हैं जब मुकाबला किसी सिद्धांत ,किसी विचारधारा या किसी दल से हो लेकिन मुकाबला जब 1971 इंदिरा गांधी या 2019 के नरेंद्र मोदी जैसे नेताओं से  ऐसे गठजोड़ प्रभावहीन हो जाते हैं। यहां आकर भारतीय राजनीति समाप्त हो जाती है। मोदी की विजय के बाद बस यही हुआ है कि मंडल- मंदिर युग खत्म हो गया। अब अगर मोदी को पराजित करना है तो नई तरह की राजनीति का आविष्कार करना होगा। अब इस नई राजनीति का स्वरूप क्या होगा ? इस स्वरूप को कौन बनाएगा। इसके लिए जरा चुनाव के नतीजों की व्याख्या करें। इसमें सबसे महत्वपूर्ण 2 अंक है पहला अंक जो भाजपा को मिला। यानी उसको प्राप्त 303 सीटें और दूसरा अंक जो कांग्रेस को मिला यानी उसे प्राप्त 52 सीटें। 2014 में भाजपा के वोट की संख्या 17.1 करोड़ थी जो अब बढ़कर 22.6 करोड़ हो गई कांग्रेस के वोट 10.69 करोड़ से बढ़कर 11. 86 करोड़ हो गया। यानी दोनों के संयुक्त वोट 5 वर्षों में 27.79 करोड़ से बढ़कर 34.46 करोड़ हो गया। अगर इसे प्रतिशत का रूप दें तो दोनों के संयुक्त वोट 2014 में 50.3 प्रतिशत थे जो 5 वर्षों में बढ़कर 57% हो गया। क्षेत्रीय ताकतें जो अक्सर वोट खींच लेती थी वे अब राष्ट्रीय दलों में वापस आ रही हैं। इसलिए जो लोग कांग्रेस को अप्रासंगिक समझ रहे हैं वह शायद राजनीतिक तौर पर कहीं न कहीं गलती कर रहे हैं। क्योंकि विचार मरते नहीं है बेशक निरूपाय हो जाते हैं या पुराने पड़ जाते हैं। भारत में वर्तमान में हिंदू पथ पर एक दल ने कब्जा कर लिया और मुस्लिम पथ पर दूसरे दल ने लेकिन बीच का धर्मनिरपेक्ष पथ सुनसान है। इस पर चलने वाला कोई नहीं है । अगर कोई पार्टी सचमुच इस पर चले और इस बात की परवाह न करें की किस जाति के नेता इस यात्रा से नाखुश हैं तो हालात बदल सकते हैं।

Friday, May 24, 2019

मोदी यानी भारत

मोदी यानी भारत

बांग्लादेश युद्ध में विजय के बाद भारत के प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बारे में डी के बरुआ ने कहा था " इंदिरा इज इंडिया" आज लगभग साढे चार दशक के बाद थोड़े से हेरफेर के साथ कहा जा सकता है "मोदी यानी भारत या मोदी इज इंडिया।" मोदी ने विकासशील हिंदुत्व को अपनाने के लिए देश के लोगों तैयार कर लिया और इसी बल पर  रायसिना हिल्स लौट आए । अगर संसदीय चुनाव के इतिहास को देखें तो नरेंद्र मोदी की यह विजय जवाहरलाल नेहरू की विजय  में से बड़ी कही जा सकती है। स्वतंत्रता के बाद 1951 में पहला आम चुनाव हुआ। उस समय संसद में 489 सीटें थी और इनमें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को 364 सीटें मिली थीं। करीब तीन चौथाई की बढ़त थी और नेहरू जब तक जीवित रहे लगभग उन्हें ऐसा ही बहुमत मिलता रहा । उनकी मृत्यु के बाद इंदिरा गांधी को भी अपने दम पर बहुमत मिले। 1967 में इंदिरा जी को 283 सीटें मिली थीं और 1971 में तो 518 में से 352 सीटें।  यह बांग्लादेश युद्ध के बाद के चुनाव की स्थिति थी। जब इंदिरा और इंडिया में कोई भी भेद नहीं रह गया था। 1984 में उनकी हत्या के बाद उनके पुत्र राजीव गांधी को आजादी के बाद का सबसे बड़ा जनादेश मिला।   1984 में उन्हें 514 सीटों में से 404 सीटें मिलीं। 1985 में  हुए  पंजाब और असम  लोकसभा चुनाव में प्राप्त सीटों को भी मिला लें  तो  उस समय कांग्रेस को 414 सीटें मिली थीं। लेकिन इसमें राजीव गांधी की कोई भूमिका नहीं कही जा सकती है। इसके बाद 2009 तक सात चुनाव हुए लेकिन किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला। 2014 में लोकसभा चुनाव में 283 सीटें जीतने के बाद नरेंद्र मोदी नेहरू और इंदिरा के बाद अकेले ऐसे नेता बने जिनकी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला। लेकिन 2019 में उनकी विजय 2014 से भी बड़ी है । इस बार  पूरे देश में उनके पांव जम गए हैं और यही नहीं  भाजपा को मिलने वाले मतों का हिस्सा भी बढ़ा है यानी वोट प्रतिशत बढ़े हैं। यही नहीं नेहरू और इंदिरा के बाद मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने लगातार दो बार बहुमत हासिल किया। मोदी ने अपनी मेहनत और प्रचार अभियान में अपनी वाकपटुता से 543 लोकसभा चुनाव क्षेत्रों को एक राष्ट्रवादी चुनाव क्षेत्र में बदल दिया और इसका उन्हें बहुत ज्यादा लाभ मिला।
        मोदी ने एक ऐसा विचार हिंदू  मतदाताओं के मन में बैठा दिया कि उन्हें भीतरी और बाहरी दुश्मनों से खतरा है । उन्होंने एक ताकतवर नव हिंदुत्ववाद को विकसित किया और इस प्रक्रिया में मोदी जी ने भारत में बहुलतावाद, विविधता और धर्मनिरपेक्षता के विचारों को चुनौती दे दी।  याद रखने की बात है कि हिंदुत्व का विकास सदा पुराने ढांचे को तोड़कर ही हुआ है। मीडिया ने ,चाहे वह टेलीविजन हो या सोशल मीडिया सबने, लगातार मोदी जी के नेतृत्व को नई कथाओं और बिंबो   के रूप में देशभर में समस्याओं को हल करने वाले  एक व्यक्ति  के तौर पर एक नई छवि तैयार की है। विश्लेषक मोदी की शैलीगत मिलनसारिता को  समझ नहीं पाए। उनका विख्यात रेडियो शो "मन की बात" ने उन्हें लोगों के करीब ला दिया। इसने मोदी जी की छवि नए युग के पश्चिमी टेलीविजनलिस्ट के रूप में तैयार कर दी। इसमें सर्जिकल स्ट्राइक ने लोगों में पारिवारिक और सामाजिक तनाव से थोड़ी देर के लिए ही सही एक गंभीर संज्ञानात्मक और मनोवैज्ञानिक राहत दिलाई । विभिन्न हिंदू जातियों को एकजुट होने के लिए एक सही मंच प्रदान किया और इस मंच ने भाजपा के प्रसार में बहुत बड़ा सहयोग किया। मोदी जी ने इस चुनाव को समाज की बुराइयों के खिलाफ एक जंग के समतुल्य बना दिया। इस नए वैचारिक औजार ने विपक्ष को सत्ता के लोभी के रूप में जनता के समक्ष खड़ा कर दिया। इससे नरेंद्र मोदी की जो नई छवि बनी उसने चुनाव अभियान में चमत्कार कर दिया। इस का सबसे बड़ा उदाहरण भदोही में उनका भाषण था जिसमें उन्होंने कहा कि आजादी के बाद देश में 4 तरह कि राजनीतिक संस्कृति  और शासन व्यवस्था रही है ,वह है "नाम पंथी, वामपंथी दाम और दमन पंथी एवं चौथी विकास पंथी।" उन्होंने अपनी छवि विकास पंथी के रूप में प्रस्तुत की।
            दूसरी तरफ कांग्रेस के नेतृत्व वाले विपक्षी दल कृषिपीड़ा, बेरोजगारी और नोटबंदी का राग अलापते रहे। विपक्षी दल अपना ध्यान नकारात्मक राजनीति पर ज्यादा लगाए रखे।  भारतीय राजनीति और लोकतंत्र चूंकि संस्कृति उन्मुख रहा है इसलिए वह आरंभ से ही जाति ,भ्रष्टाचार और अपराध  (थ्री सी यानी कास्ट करप्शन एंड क्राइम)    से घिरा रहा ।  इस बार मोदी जी ने उसका स्वरूप बदल दिया उन्होंने इस 3 सी का मतलब बदल दिया । उन्होंने इसे मिलो, जोड़ो और अपने साथ ले लो ( कैच कनेक्ट एंड क्लोज)। पूरे अभियान को ध्वनि, विजुअल और भाषण  से एक उत्पाद बना दिया और मतदाता उसके उपभोक्ता बन गए । बाजार का एक बहुत चतुराई पूर्ण तरीका है।  कांग्रेस पार्टी यहां कामयाब नहीं हो सकी।
       मोदी जी की विजय में फिर से  बन रहे  एक नए भारत के सभी चिन्ह मौजूद हैं। इसमें लोकतांत्रिक तानाशाही, अफसरशाही अधिनायकवाद के लक्षण भी दिखाई पड़ रहे हैं। इसमें व्यक्तिगत नेतृत्व को विकसित होता हुआ भी देखा जा सकता है जो भारत में शासन के राष्ट्रपति - प्रधानमंत्री मॉडल के रूप में परिलक्षित हो रहा है। इसलिए नरेंद्र मोदी को अपने शासन काल के इस दूसरे दौर में थोड़ा सचेत रहना पड़ेगा।  इस नई ताकत में भाजपा और खुद उनके नाम का आतंक फैलाकर अल्पसंख्यकों को दबाने वाली सोच भी दिखाई पड़ रही है। अगर मोदी जी भारत को टुकड़े टुकड़े में देखने के बदले उसे एक समन्वित तौर पर देखने वाली सोच से ऊपर उठते हैं तो इतिहास में महानायक बन जाएंगे वरना भारत के लोकतंत्र के इतिहास के नायक तो बन ही गए हैं । मोदी जी की इस बात से आशा व्यक्ति है जिसमें उन्होंने कहा है यह विजय हिंदुस्तान उस की जनता और लोकतंत्र की विजय है। उन्होंने कहा कि वह संघवाद और संविधान के प्रति समर्पित हैं तथा केंद्र एवं राज्य  विकास में कंधे से कंधा मिलाकर काम करेंगे। मोदी जी ने कहा कि सरकार भले ही बहुमत से चलती है लेकिन देश सर्वमत से चलता है और वह इस विचार के साथ सबको साथ लेकर चलेंगे। मोदी जी ने अपने विशेष अंदाज में कहा कि जो बीत गई वह बात गई। विरोधियों को भी देश हित में एक साथ लेकर चलना है बेशक कोई गलती हो सकती है लेकिन वह इरादतन नहीं होगी । मोदी जी की बात बहुत उम्मीद जगाने वाली है।

Thursday, May 23, 2019

मोदी की भारी विजय से कई मिथक टूटे

मोदी की भारी विजय से कई मिथक टूटे

भारत के सियासी सागर में नरेंद्र मोदी की सुनामी आ गई। उम्मीद से ज्यादा सीटें हासिल हुईं और यह प्रमाणित हो गया की मोदी है तो मुमकिन है। यह  नरेंद्र मोदी का करिश्मा कहा जाएगा। इस बात को मानने के लिए कई ज्ञान गुमानी तैयार नहीं थे कि नरेंद्र मोदी के पक्ष में अंडर करंट चल रहा है। एग्जिट पोल के नतीजों को भी लोग नहीं मान रहे थे और खम ठोक कर कह रहे थे कि यह इस बार जनता का मूड एंटी इनकंबेंसी का है। उन्हें क्या मालूम कि इस प्रो इनकंबेंसी लहर में विरोधी दल के अच्छे-अच्छे तैराक डूब जाएंगे। जो लोग मोदी जी की सीट कम आने की बात कर रहे थे और उस पर लंबी लंबी दलीलें दे रहे थे वे अब इसका कारण तलाशने के बहाने खोज रहे हैं। बेशक एग्जिट पोल के नतीजों को नकारा जा सकता है लेकिन वास्तविक नतीजों को तो चुनौती नहीं दी जा सकती है। यहां एक सवाल है अगर नकारात्मक और सकारात्मक दृष्टिकोण से देखें तो एक पक्ष यह मानता है कि यह मोदी जी का करिश्मा है दूसरा पक्ष यह भी मानता है कि विपक्षी ताकतों की अक्षमताओं का नतीजा है। दरअसल 2014 के चुनाव में पराजय के बाद विपक्ष लगभग 5 बरस तक ठिठका सा रहा। विपक्षी दलों के भीतर यह आत्मविश्वास ही नहीं जग पाया कि वे नरेंद्र मोदी को हरा भी लेंगे। नरेंद्र मोदी सरकार के कई कार्यक्रमों और कदमों को जनविरोधी घोषित कर दिया गया। लेकिन उन्हें लेकर कोई भी जन संघर्ष देश में होता नहीं दिखा। पिछले साल पांच राज्यों में विपक्षी दल कांग्रेस की सरकार बनी। इससे कांग्रेस के भीतर थोड़ा आत्मविश्वास जगा। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। इसके बाद कांग्रेस को लगा कि वह चुनावी मैदान में मोदी को मात दे देंगे। लेकिन इस सियासी जंग की शुरुआत में देर हो गई । लगभग 365 दिनों में आखिर कितनी रणनीतियां बना सकेंगे और कितनी ब्यूह रचना कर सकेंगे। कांग्रेस इसी कारण पिछड़ गई। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा सरकारों के प्रति व्यापक जनाक्रोश था।  इसी जनाक्रोश के कारण वहां भाजपा की सरकारें गिरी। लेकिन कांग्रेस को यह आकलन करने में गलती हुई  कि यह जन आक्रोश केंद्र सरकार पर नहीं टूटेगा और इससे नरेंद्र मोदी का रास्ता रोकना कठिन है। यकीनन कुछ क्षेत्रों में नरेंद्र मोदी के खिलाफ आक्रोश था लेकिन उस आक्रोश के चलते कांग्रेस को या अन्य विपक्षी दल को लाना जनता ने उचित नहीं समझा। क्योंकि जिन स्थितियों के कारण 2014 में मोदी जी को सत्ता  तक आने का रास्ता बना था वह स्थितियां तो कायम थीं फिर कांग्रेस कैसे आती ?
        नरेंद्र मोदी या कहें भाजपा की इस विजय से कई पुराने मिथक खंड खंड हो गए। राजनीतिक पंडित यह कहते सुने जाते थे कि जहां  कांग्रेस से भाजपा आमने-सामने मुकाबला करती है वहां उसे आसानी से हरा देती है लेकिन जहां तीसरी ताकतें होती हैं वहां जीतना मुमकिन नहीं होता। लेकिन इस बार भाजपा ने पश्चिम बंगाल, बिहार ,उत्तर प्रदेश और उड़ीसा में इस मिथक को भंग कर दिया। इन चारों राज्यों में कांग्रेस के बदले एक तीसरी पार्टी भाजपा  से मुकाबले में थी। मोदी ने अपनी चतुराई पूर्ण रणनीति से गठबंधन की राजनीति को भी धूल चटा दी। कहते हैं कि सत्ता पर कब्जा करने की कला ही राजनीति है।  यह मानना पड़ेगा कि मोदी जी को इस कला में महारत हासिल है।  उनमें भारी इच्छाशक्ति भी है। वे चुनाव में साम ,दाम, दंड भेद सब का इस्तेमाल करते हैं। जब जैसी जरूरत आई है उसका उपयोग कर लिया।  जबकि विपक्षी दलों के कई बड़े नेताओं को अपने निजी महत्वाकांक्षाओं को ही दबाने में काफी मशक्कत करनी पड़ी और फिर भी वह उसे दबा नहीं सके इसके अलावा जमीनी हकीकत के आकलन में वे पीछे पड़ गए। कई ऐसे नेता जिनका जनता से कटाव रहा है वे प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे थे। कैसी   व्यावहारिक स्थिति है कि विपक्ष का कोई भी नेता जनता का मूड नहीं पढ़ पाया । जो नेता इतना अक्षम हो वह सत्ता के साम, दाम, दंड, भेद से कैसे निपट सकता है। खास करके ऐसी स्थिति में जब वोट बटोरने के सभी समीकरणों को सत्ता पक्ष ने असंतुलित कर दिया हो। भाजपा ने धर्म संस्कृति और सेना का अपने चुनावी मंसूबे के लिए  उपयोग किया लेकिन विपक्ष उसे उसी के हथियार से पराजित नहीं कर सका। यही नहीं विपक्षी दलों में वैचारिक दृढ़ता भी नहीं दिखी । उसके पास यह कहने के लिए कोई आधार नहीं है कि उसने लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए संघर्ष किया, बेशक उसे जीत नहीं मिली। आज भाजपा के सामने सभी विपक्षी दलों का कद बहुत छोटा हो गया है।
           लेकिन इस विजय का एक दूसरा पक्ष भी है। वह कि नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार इस विषय को जनता का एक ऐसा जनादेश मानने का भ्रम पाल लेगी कि उसने अब तक जो किया उसे जनता ने स्वीकार किया । कई ऐसे राज्य हैं जो फिलहाल भाजपा की राजनीतिक प्रयोगशाला हैं और वहां अगले 5 वर्षों में क्या-क्या प्रयोग होंगे इसका अंदाजा नहीं है। इस विजय में नरेंद्र मोदी एक केंद्रीय बिंब हो कर उभरे हैं । यह किसी भी संगठन के लिए बहुत अच्छा नहीं है क्योंकि एक बड़ी पार्टी की सारी शिनाख्त एक आदमी में सिमट गई है। यह पार्टी के सांगठनिक चरित्र के लिए और स्वास्थ्य के लिए सही नहीं है लेकिन इससे ऐसा तो लगता कि कुछ हो रहा है ।
        किसी भी चुनाव को जीतने के लिए धन, विचार और कल्पनाओं की जरूरत होती है। विपक्ष के पास इन तीनों का अभाव था।  नरेंद्र मोदी की विजय की सबसे बड़ी खूबी यह है कि उन्होंने अपनी पार्टी के लिए जनता की  मानसिकता का निर्माण किया । जबकि विपक्ष ऐसा करने में कामयाब नहीं हो सका। वह आरंभ से ही जनता को खोता रहा है।विपक्ष भूल गया कि कोई भी विचार शाश्वत  नहीं होता। किसी को भी अपने विचार फैलाने और उसे जीवित रखने के लिए लगातार मेहनत करनी पड़ती है। यह एक सबक है जिसे विपक्ष को याद कर लेना चाहिए।

Wednesday, May 22, 2019

विकास के लिए ढांचागत सुधार जरूरी 

विकास के लिए ढांचागत सुधार जरूरी 

लोकसभा चुनाव 2019 मतों की गणना आज होगी और यकीनन कोई न कोई सरकार तो बनेगी ही। कोई भी सरकार बने उसे देश में आर्थिक मंदी का सामना करना पड़ेगा। इकोनॉमिस्ट पत्रिका के पिछले अंक में भारत की अर्थव्यवस्था की चर्चा करते हुए कहा गया था कि भारत की अर्थव्यवस्था का आकलन करना बड़ा ही नामुराद काम है। इसके सकल घरेलू उत्पाद का आधा हिस्सा अनौपचारिक उद्यमों से आता है और यह उद्योग सहज कराधान को नहीं मानते ही नहीं तथा अन्य हिस्सा सेवा क्षेत्र से प्राप्त होता है। जिसकी गणना करना और भी कठिन है। आंकड़े तैयार करने वाले लोगों ने 2016 -17 में सर्विस कंपनियों का एक व्यापक सर्वे किया। उन्होंने लगभग 35000 उद्योगों की सूची तैयार की। इन उद्योगों की सूची निबंधित कंपनियों की सूची से ली गई  थी जो कारपोरेट मंत्रालय की नई पहल एमसीए 21 के अनुसार ऑनलाइन अपने खाते जमा करते हैं। लेकिन इस तरह से तैयार आंकड़े जमीनी हकीकत से अलग थे। क्योंकि बाद में 12% कंपनियों को खोजा ही नहीं जा सका। शायद वे सिर्फ कागज पर थीं और 5% कंपनियां इस सूची के तैयार होने से पहले बंद हो चुकी थीं और अन्य 21% कंपनियां सर्विस कंपनी थी ही नहीं। इससे भारत के सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़ों पर संदेह होता है। क्योंकि यह आंकड़े भी एमसीए21 की सूची ही निर्भर हैं। इसलिए बहुतों का मानना है कि आंकड़े बढ़ाकर कर दिए गए हैं ताकि राजनीतिक लाभ प्राप्त हो सके। लेकिन इसी के साथ ही भारतीय सांख्यिकी की साख भी गिर गई । दोष दर्शी तो यह कह सकते हैं कि हजारों ऐसी सर्विस कंपनियां हैं जिनका कोई वजूद ही नहीं है। वह सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़ों को बढ़ा रही हैं। वर्तमान में ध्यान देने वाली बात है कि अब चर्चा का विषय होगा कि आर्थिक वृद्धि पुनः 7% कब होगी या 7% के निशान को कब पार कर जाएगी। लेकिन यहां यह मसला नहीं है। मसला है कि आर्थिक वृद्धि की दर साढे 6 प्रतिशत के आसपास कब तक घूमती रहेगी। यहां यह मानना जरूरी है कि पहले जहां अर्थव्यवस्था थी यानी जो उसका आंकड़ा था वहां अपने आप नहीं पहुंच जाएगी। दूसरी बात है कि जैसा कि इकोनॉमिस्ट पत्रिका ने कहा है कि भारत के सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़े अविश्वसनीय हो चुके हैं। अतएव हमें वास्तविक आंकड़ों पर ध्यान देना होगा और इसके आकलन की विधि तैयार करनी होगी। ऐसा तरीका निकालना होगा जिससे आंकड़ों से छेड़छाड़ संभव नहीं हो। पिछले 5 वर्षों में व्यापारिक वस्तुओं का निर्यात सुस्त रहा है यह हमारे घरेलू उत्पादन की नाकामी का प्रतीक है।  इसके कारण अर्थव्यवस्था अधोमुखी हो रही है।  वही हाल करों की उगाही का है। शुरुआती दौर में तो उगाही में वृद्धि दिखी फिर वह धीरे धीरे गिरने लगी। जीएसटी के मद में जो आमदनी है उससे स्पष्ट है कि व्यापार में तेजी नहीं है। उपभोग के आंकड़े कई क्षेत्रों में गिर रहे हैं और इससे कारपोरेट क्षेत्रों के उत्पादों  की बिक्री और लाभ पर असर पड़ रहा है। कर्ज़ का बोझ बढ़ता जा रहा है और उसी के साथ बैलेंस शीट पर दबाव भी। उद्यमी कर्ज का बोझ घटाने में लगे हैं। नतीजा यह हुआ कि कर्ज नहीं घटा पाने के कारण कई उद्यमी सब कुछ  बेचकर अपना धंधा समेट के लिए और कई दिवालिया हो गए। स्टील, बिजली और सीमेंट उत्पादन से आंकड़े में वृद्धि नहीं दिखाई पड़ रही है। भारतीय अर्थव्यवस्था पर निगरानी के लिए केंद्र सरकार ने जिन निगम परियोजनाओं को चुना था वह सुस्त पड़ी हैं। परियोजनाओं के लिए सरकारी कोष में मदद में कटौती की गई है । यहां तक कि कई परियोजनाओं को पिछले कार्यों के लिए भुगतान नहीं किया गया है। देश के राजस्व में कमी आ गई है। चालू खाता माथे पर पसीना ला रहा है।
           वित्त क्षेत्र भी बस घिसट  रहा है। क्रेडिट की आमद में सुधार हुआ है लेकिन बैंकों के सामने अभी भी मुश्किलें हैं। पिछली तिमाही तक सरकारी बैंकों ने 52 हजार करोड़ से ज्यादा कर्ज़ की रकम बट्टे खाते में डाल दी है जो पिछड़ी आंकड़े का लगभग दुगना है। अब गैर बैंकिंग वित्त कंपनियां कर्ज देने की कतार में खड़ी हैं । उन कंपनियों की बैलेंस शीट में जो रहस्य छिपे हैं उसके कारण उनमें आत्मविश्वास की कमी है और उन्हें भी लिक्विडिटी का मुकाबला करना पड़ रहा है। अब  चारों तरफ से मंदी दिखाई पड़ रही है और कोई सरकार इसका मुकाबला कैसे करेगी। अगर सरकार आर्थिक कारोबार को ताकत  प्रदान करने के लिए मौद्रिक और वित्तीय कदम उठाती है तो कुछ हल नहीं होगा।  बिना वित्तीय अनुशासन लागू किए सरकार टैक्स में छूट नहीं दे सकती है।  रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों में जो कटौती की है वह बाजार में वास्तविक दरों में दिखाई नहीं पड़ रही है। घाटा बढ़ता जा रहा है ऐसे में सरकार अगर मौद्रिक कदम उठाती है तो कर्ज इतना ज्यादा हो जाएगा की मौद्रिक नीति के लिए मुश्किलें खड़ी हो जाएंगी। एक और विकल्प अर्थ शास्त्री बताते हैं की रुपए का अवमूल्यन किया जाए। जिससे ग्लोबल खरीदारों को सस्ते खरीद के लिए उकसाया जा सकता है।  ऐसा करने से राजनीतिक दवाब बढ़ जाएगा। भय के कारण किसी भी सरकार ने इस दिशा में अभी तक सोचा नहीं है। इससे भी बड़ा खतरा है कि सरकार ने अपने पिछले दौर में आर्थिक सुधारों को जो गति प्रदान की थी कहीं उसमें त्वरण कम ना हो जाए या उसकी लय ना टूट जाए। इसलिए ज्यादा जरूरी है नए ढांचागत सुधार करना। पिछले 15 वर्षों में ढांचागत सुधार नहीं किया गया। नई सरकार को जमीन, श्रम और पूंजी के मामले में सुधार करना जरूरी होगा।  सरकार को महत्वपूर्ण कानूनों में परिवर्तन करना होगा। बड़ी सरकारी कंपनियों को उबारने के लिए उनके लिए बड़े बजट के प्रावधान करने होंगे । राजनीतिक रूप से यह भी मुमकिन नहीं लग रहा है। क्योंकि इससे मजदूरों और किसानों की परेशानियां बढ़ जाएंगी। यह दोनों पहले से ही दबाव में हैं। अब इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि भारत को धीमी गति के विकास के लिए तैयार रहना पड़ेगा । ऐसा पहले भी होता था लेकिन सरकार सकल घरेलू उत्पाद और बेरोजगारी के आंकड़ों में छेड़छाड़ कर इस पर पर्दा डाल देती है । मनमोहन सिंह के बाद आर्थिक वृद्धि दर 7% से नीचे चली गई। अब यह दर नौजवानों को रोजगार दिलाने में पर्याप्त नहीं है और अगर ऐसा नहीं हो पाता है यानी सरकार नौजवानों को रोजगार नहीं दे पाती है तो उसका व्यापक सामाजिक तथा राजनीतिक असर पड़ेगा। चुनाव के दौरान वादों की अगर व्याख्या करें तो एक खतरा साफ दिखाई पड़ रहा है । वह है वादों को पूरा करने के लिए सरकार हो सकता है आर्थिक वृद्धि के वास्तविक लक्ष्य की ओर ध्यान दें और इस चक्कर में कहीं विस्तारवादी नीतियों को ना अपना ले। इसलिए वायदों के पहाड़ से प्रभावित हुए बिना संतुलित ढंग से सरकार को देश में सबसे पहले ढांचागत सुधार करने की पहल करनी चाहिए।

Tuesday, May 21, 2019

अब मानसून का क्या होगा

अब मानसून का क्या होगा

चुनाव के बादल तो बरस चुके और किसकी सरकार बनेगी इसके भी कयास लगाए जा चुके।  जैसे ही यह सरगर्मियां खत्म होंगी वैसे ही सामने मानसून का मौसम होगा।  देश की अर्थव्यवस्था या सरकार की लोकप्रियता मानसून के मिजाज पर ही निर्भर करती है। हालांकि भारतीय मौसम  विभाग ने इस वर्ष सामान्य मानसून की भविष्यवाणी की है लेकिन यह अनिश्चित है क्योंकि मौसम विभाग की गणना मैं कई संभावनाएं हैं और कहा जा सकता है कि मानसून सामान्य से कम रहेगा। जैसी की भविष्यवाणी है बरसात पिछले 50 वर्षों की तुलना में 96% या 89 सेंटीमीटर होगी।  अक्सर देखा गया है कि मौसम विभाग की भविष्यवाणी  जब सामान्य वर्षा की होती है तो वह सामान्य से कम हुआ करती है। एक निजी संस्थान "स्काईमेट" ने भविष्यवाणी की है कि इस वर्ष जून से सितंबर के बीच सामान्य से कम वर्षा होगी। मौसम विभाग मानसून की पहली भविष्यवाणी अक्सर अप्रैल के महीने में करता है और जून के महीने में इसमें संशोधन किया करता है कि मौसम का किस क्षेत्र में क्या हाल है । इसकी अप्रैल वाली भविष्यवाणी विश्वसनीय नहीं है। पिछले साल भी मौसम विभाग में सामान्य वर्षा की बात कही थी और भारत में सामान्य से कम वर्षा हुई।
       देश में कृषि मानसून की वर्षा पर निर्भर करती है। यही नहीं देश में जंगलों की सेहत भी इसी से घटती बढ़ती है। पिछले कुछ वर्षों से वर्षा सामान्य से कम हुई है और इस का संभावित असर कई तरह के प्रदूषण और वातावरण   में परिवर्तन के रूप में दिखाई पड़ रहा है। दक्षिणी-पश्चिमी मानसून देश में कुल संपन्नता का निर्धारण करता है । वर्षा ही महत्वपूर्ण नहीं है, बरसात के पानी का लंबे समय तक उपयोग कृषि ,शहरों और उद्योगों के लिए महत्वपूर्ण है । चिंतनीय विषय है कि गत वर्ष की जांच से पता चला है के भूजल का स्तर 52% गिर चुका है। राज्य सरकारों को नए कुएं खोदने तथा मौजूदा कूपों को युद्ध स्तर पर सुधारने के लिए कहां गया है । राज्य सरकारों ने बरसात के पानी को जमा कर किसानों के लिए उपयोगी बनाने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया है या उठाया भी है तो वह पर्याप्त नहीं है। नतीजा यह है कि किसानों की दशा बिगड़ती जा रही है और चुनाव में उनकी भलाई के लिए केवल यह कहा जाता है कि छोटे किसानों को कुछ रकम नगदी दे दी जाएगी। भारतीय उपमहाद्वीप में अगर सामान्य वर्षा होती है तो इससे दूर दूर तक खुशहाली आएगी। जैसा कि वैज्ञानिक मानते हैं कि सामान्य वर्षा से जो जल कण वातावरण में फैलेंगे वे ना केवल वातावरण के ताप को सोख लेंगे बल्कि बरसात को भी बढ़ावा देंगे। इससे औद्योगिक प्रदूषण  कम हो सकता है साथ ही खेतों में कटाई के बाद बचे डंठल इत्यादि को जला देना से हुए प्रदूषण पर भी नियंत्रण रखता है। जिससे मानसून का स्थाईत्व बढ़ता जाता है। यही नहीं, घरों में पीने के लिए ताजा पानी भी उपलब्ध होता है । नीति आयोग के अनुसार वर्तमान जलापूर्ति का 4% पीने के लिए और 12% उद्योगों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। शहरीकरण से  यह पीड़ा और बढ़ती जा रही है। शहरों के लोग पानी की कमी को महसूस करने लगे हैं। इसलिए बरसात के जल को एकत्र कर उपयोग करने की नीति तथा प्रयास आवश्यक है। राज्य सरकारें नए-नए जल क्षेत्र बनाकर वर्षा के पानी को एकत्र कर सकती हैं। फिलहाल सरकारें जल क्षेत्रों को एक वस्तु के रूप में देख रही हैं और नदियों की दुरावस्था, पोखरों तथा झीलों के प्रति उदासीन है। वह नहीं समझती कि ये बेशकीमती हैं। साफ और स्वच्छ जल बहुत तेजी से प्रदूषित हो रहा है और जल संरक्षण  का सही इस्तेमाल, जल का पुनः इस्तेमाल और भूजल की रिचार्जिंग पर पूरा ध्यान नहीं दिया जाता है। राजनैतिक और प्रशासनिक इच्छा शक्ति में कमी के कारण गलत प्राथमिकताएं और जनता की उदासीनता सबसे प्रमुख हैं। इसमें ऊपर से नीचे तक फैली भ्रष्टाचार की संस्कृति और बढ़ावा देती है। जल संसाधन विकास योजनाओं पर करोड़ों रुपए खर्च होते हैं लेकिन समस्या ग्रस्त गांव की संख्या उतनी ही बनी रहती है। एक आंकड़े के मुताबिक यदि हम अपने देश के कुल क्षेत्रफल में से 5% क्षेत्र में होने वाली वर्षा के जल का संग्रहण कर सकें तो एक अरब लोगों को प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 100 लीटर पानी मिल सकेगा।
          मानसून सामान्य से कम होता जा रहा है और पानी तेजी से बर्बाद हो रहा है। भविष्य में कहीं ऐसा ना हो कि दुनिया में जल के लिए भी युद्ध हो। इसलिए हमें सचेत रहना जरूरी है ।

Monday, May 20, 2019

23 मई के बाद मोदी जी को क्या करना चाहिए

23 मई के बाद मोदी जी को क्या करना चाहिए

नरेंद्र मोदी को दोबारा सत्ता मैं लौट आना लगभग तय है। एग्जिट पोल में जो अभी दिखाया जा रहा है वह बात पहले से ही तय थी। यद्यपि कुछ नकारात्मक विचार वाले लोग विपरीत सोच रहे थे। गुरुवार को चुनाव समीक्षा का शोर आरंभ हो उससे पहले कुछ जरूरी बातें ,कुछ जरूरी विचार आवश्यक हैं। मोदी जी के सत्ता में आने पर यकीनन सुझावों का पहाड़ सामने खड़ा होगा और कम सीटें मिलने की सूरत में उसके कारणों का एक अलग ढेर जमा होगा। कुछ लोग नए मंत्रिमंडल के गठन को लेकर अपने विचार व्यक्त करने में मशगूल रहेंगे और कुछ लोग पराजित पक्ष खिल्ली उड़ाने में व्यस्त रहेंगे। ऐसे में कुछ कह पाना बड़ा कठिन होगा । पहली बात कि मोदी जी की विजय का श्रेय केवल उन्हीं को जाता है। अब जब मोदी जी प्रधानमंत्री बनते  हैं तो सब कुछ करने का भार भी उन पर ही होगा। पार्टी की भीतरी खींचतान और राजनीतिक व्यवहार कुशलता की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता। चुनाव को फिलहाल दरकिनार कर दें । मोदी जी की दूसरी पारी में सबसे जरूरी होगा कि उन्हें अपनी सरकार के कामकाज के लिए कुछ प्रतिभावान लोगों की जरूरत होगी और उन्हें तलाश कर अपने समूह में   शामिल करना होगा । इसके लिए उन्हें संघ के दायरे से बाहर निकलकर लोगों की तलाश करनी होगी हो। सकता है वह लोग किसी राजनीतिक पार्टी से संबद्ध ना हों और पेशेवर हों। ऐसे बहुत से लोग उद्योग, शिक्षा और यहां तक कि मीडिया में भी मिल जाएंगे। हो सकता है यह लोग उनकी आईडियोलॉजी के अनुरूप नहीं हों लेकिन उनकी योग्यता और क्षमता देश के काम आ सकती है। मोदी जी को एक शक्तिशाली मंत्रिमंडल की भी जरूरत पड़ेगी। अपनी पहली पारी में उन्होंने नितिन गडकरी, राजनाथ सिंह और सुषमा स्वराज जैसे लोगों को रखा इस बार वैसे ही कुछ और लोगों की जरूरत पड़ेगी ताकि उनकी टीम मजबूत बन सके और देश के लिए कुछ अच्छा कर सके। भाजपा में विधि विशेषज्ञों की बहुत बड़ी कतार नहीं है जबकि कांग्रेस वकीलों की ही पार्टी मानी जाती है। मोदी जी का सामना जब लीगल एक्टिविस्ट समुदाय से होता है तो मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं। इसके अलावा मोदी जी को बहुत ज्यादा बोलने वाले लोगों पर लगाम लगानी होगी मसलन साध्वी प्रज्ञा। इस चुनाव में भाजपा का हर उम्मीदवार राजनाथ सिंह और नितिन गडकरी को छोड़कर अपनी विजय का श्रेय मोदी जी और अमित शाह को देगा। अतः ऐसे लोगों को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किए जाने से भी कोई बड़ा जोखिम नहीं होने वाला। यदि पिछली सरकार को सिन्हा और शौरी नहीं गिरा सके तो इस सरकार को साध्वी और महाराजा जैसे लोग क्या गिरा पाएंगे। इसके अलावा कुछ राज्यों जैसे राजस्थान, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव से प्राप्त सबक से मोदी सरकार को यह सीखना चाहिए कि राज्यों में भी सुशासन जरूरी है। केवल साफ-सुथरी छवि वाला एक प्रधानमंत्री ही जरूरी नहीं है। क्योंकि शासन में कमजोर रहने वाले राज्य ,जहां कोई काम ना हो रहा हो और भ्रष्टाचार बढ़ता जा रहा हो वह  भी केंद्र सरकार की छवि को खराब करते हैं। इस चुनाव में मतदाताओं ने लोकसभा और विधानसभाओं को अलग अलग मानकर वोट दिया है लेकिन जरूरी नहीं कि अगली बार भी ऐसा हो। अभी उत्तर प्रदेश के चुनाव होने वाले हैं और इसके लिए मोदी जी और अमित शाह को अभी से तैयारी करनी पड़ेगी। मोदी जी को अपने दृष्टिकोण को राज्यों में भी लागू करने के लिए समझदार और योग्य राजनीतिज्ञों की जरूरत है।
           गोरक्षा और इस तरह की गतिविधियों से कठोरता से निपटना होगा। जिला प्रशासन को स्पष्ट निर्देश होना चाहिए कि उन्हें क्या करना है खासकर सांप्रदायिक मामलों में। महिलाओं, अल्पसंख्यक और दलितों की सुरक्षा से कोई समझौता नहीं होना चाहिए। कुछ वर्तमान मुख्यमंत्रियों को भी कड़ाई से यह बातें समझानी  होगी। नए मुख्यमंत्रियों को नियुक्त करने की स्थिति भी आ सकती है। इस चुनाव में विजय के बाद अब मोदी जी को विशिष्ट क्षेत्रों में क्षेत्रपों की इच्छा पर नहीं अपने निर्णय पर चलना होगा। इसके अलावा जनता की सबसे बड़ी अपेक्षा है कि सरकार भ्रष्टाचार और आर्थिक अपराधियों के खिलाफ कदम उठाए क्योंकि आम लोग यही मानते हैं कि इस दिशा में बहुत कम काम हुआ है। यद्यपि कानून के रास्ते को स्वीकार करना पड़ेगा और एकदम शिकंजा करने की भी जरूरत नहीं है लेकिन  लोगों के दिमाग में जो बात बैठी है उसे धीरे-धीरे खत्म करना भी सरकार के लिए जरूरी है। जनता को किसी भी विषय पर निर्णय होता दिखना चाहिए। सरकार को अपने इस दूसरे दौर में सरकार मीडिया रणनीति की भी समीक्षा करनी होगी। पिछले पांच वर्षों में उद्योगपतियों को यह संदेश मिल गया है कि दरबारी पूंजीवाद खत्म हो रहा है, लेकिन साथ ही यह महसूस हुआ है कि सरकार का उनसे  दुराव बढ़ रहा है। इसे खत्म करना होगा। एक स्पष्ट नियम बनाना होगा ताकि देश में दोबारा "पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप" ढंग से आरंभ हो सके। क्योंकि इससे न केवल विदेशी पूंजी का आगमन होगा बल्कि लोगों को रोजगार भी मिलेगा और अंत में मोदी जी को कुछ छुट्टियां भी मनानी चाहिए छुट्टी मनाना कोई पाप नहीं है।

Sunday, May 19, 2019

लिखा जा चुका है भारत का मुकद्दर

लिखा जा चुका है भारत का मुकद्दर

किसी भी चुनाव के दौरान आमतौर पर उदार नजरिया यह होता है कि चुनाव चल रहे हैं इसका जो नतीजा निकलेगा उसके बाद उसी  के आधार पर सरकार बनेगी, जो भारत का मुकद्दर तय करेगी। वर्तमान समय में यह भी सोचा जा सकता है कि चुनाव का नतीजा यह तय करेगा कि भारत एक हिंदू राष्ट्र बने जिसमें नागरिक स्वतंत्रता काम हो या अल्पसंख्यकों के प्रति सहिष्णुता कम हो।  भारत एक ऐसे देश में बदल जाएगा जहां धर्मनिरपेक्षता खत्म हो जाएगी, लेकिन शायद ऐसा नहीं होगा। अब बहुत देर हो चुकी है और फैसला हो चुका है। 23 मई को मतगणना होगी और उस दिन तीन संभावनाएं हैं। पहली कि मोदी जी दोबारा जीत जाएंगे और प्रधानमंत्री बनेंगे या फिर कांग्रेस विजई होगी और राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनेंगे जो शायद संभव नहीं है और तीसरी संभावना है  कि किसी को बहुमत ना मिले इसकी भी उम्मीद कम है । मोदी जी सशक्त जनादेश के आधार पर अगर फिर से प्रधानमंत्री बनते हैं तो देश हिंदू राष्ट्र के रूप में घोषित हो जाएगा और जो इस से मतभेद रखेंगे या स्वतंत्र मीडिया पर शिकंजा कसेगा, चुनिंदा पूंजीपतियों को विशेष सुविधाएं मिलेंगी तथा जम्मू और कश्मीर को प्राप्त विशेष दर्जा समाप्त होगा। इसके बाद देश में एक  बगावत भी हो सकती है। अगर मोदी ऐसा नहीं होने देते हैं तब भी उनके प्रधानमंत्री होने पर देश में हिंदू दृष्टिकोण का वर्चस्व होगा। नागरिक स्वतंत्रता कम हो जाएगी और अल्पसंख्यक समुदाय के साथ देश में बर्ताव बदल जाएगा। यहां एक नई सरकार कानून और टेक्नोलॉजी के दुरुपयोग को खत्म कर सकती है बशर्ते वह इसके लिए प्रतिबद्ध हो। लेकिन जो भी सरकार सहिष्णुता की तरफदार होगी उसके लिए विभाजन कारी नफरत और आजादी पर हमले से मुंह मोड़ना संभव नहीं होगा। एक सरकार संविधान की रक्षा के लिए प्रयास कर सकती है लेकिन कई बार वह इसमें असफल भी हो जाती है। खास करके जब जनसमर्थन उसके पक्ष में हो नागरिक शांति में विघ्न  का खतरा हो।  अल्पसंख्यकों से दुश्मनी मोदी जी के शासनकाल में बढ़ी है। उदाहरण हैं कि गैर भाजपाई सरकार के शासनकाल  में  भी ऐसा हुआ है।
       टॉमस हांसन ने अपनी पुस्तक "मेजॉरिटेरियन स्टेट" में लिखा है कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार 2014 में जब से सत्ता में आई तब से उसने नागरिक आजादी में कटौती को रोकने के लिए कोई महत्वपूर्ण कानून नहीं पारित किया। इसने मौजूदा कानूनों को लागू किया और बोलने की आजादी तथा किसी को भी राष्ट्र विरोधी कह दिया जाए उसके खिलाफ "पुलिस प्रोटोकोल"  बनाया । भाजपा ने ना केवल औपनिवेशिक काल के कानूनों पर भरोसा किया बल्कि कांग्रेस द्वारा 1960 से देश को पुलिस राज में बदलने की जो कोशिश हुई है उसे कायम रखा। बोलने की आजादी  को अवरुद्ध करने वाले विभिन्न कानूनों पर मोदी जी ने कोई टिप्पणी नहीं की। खासकर वे कानून जो राष्ट्रीय सुरक्षा की हिफाजत   करते हैं और आतंकवाद के खिलाफ अमल में लाये जाते हैं। लेकिन उनका  इस्तेमाल अक्सर अल्पसंख्यकों तथा मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के खिलाफ होता है। चाहे जिस पार्टी की सत्ता हो भारत में कुछ दिनों से यह देखा गया है कि भारत की पुलिस कई कानूनों अपने हाथ में लेती रही है और उसका दुरुपयोग करती रही है। अभी हाल में आईटी कानून के दुरुपयोग की कई घटनाएं सामने आई। कानूनों के गलत उपयोग से कई जिंदगियां और उनकी साख समाप्त हो गई है।  नई सरकार शायद से खत्म नहीं कर सकती किसी भी लोकतंत्र में कानून का दुरुपयोग दो ही शर्तों पर होता है पहला की जनता सत्ता के खिलाफ बगावत करने लगती है या दूसरा जनता कानूनी और संवैधानिक भ्रष्टाचार को स्वीकार कर लेती है । अल्पसंख्यकों मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और जो भी सत्ता के खास करके भाजपा के बहुसंख्यक वाद दृष्टिकोण की मुखालफत करता हो उनके खिलाफ बढ़ते अपमान का भाव स्पष्ट तौर पर देशवासियों को परेशान नहीं करता लेकिन सत्ता को परेशान करता है।
         यह स्पष्ट है कि भाजपा ने बहुत दिन से बढ़ते  असंतोष को हवा दिया क्योंकि ऐसी प्रवृतियां रातों-रात पैदा नहीं होतीं। बहुत लोगों को खासतौर पर भारतीय समाज के इस भाव को पाले रखने में मदद की। संघ परिवार का कई दशकों से समाज को संगठन के माध्यम से हथियार बंद करने और उन में हिंसा की क्षमता को बढ़ाने का नजरिया रहा है। यह नजरिया जातीय श्रेष्ठता को खास करके उच्च वर्गीय हिंदू समुदाय की प्रवृत्तियों को मजबूत बनाता है। यह प्रवृत्ति संचार के विकास खासकर  मोबाइल फोन  और सोशल मीडिया  के माध्यम से और ज्यादा फैलती है और समाज में नफरत को बढ़ावा मिलता है। अब इतिहास को नए तरीके से गढ़ने क्षमता हिंदुत्व में लगातार बढ़ रही है । अगर मोदी जी प्रधानमंत्री नहीं भी होते हैं तब भी यह प्रवृत्ति लगातार बढ़ती जाएगी।
          लोगों में एक विशेष भाव भर रहा है कि जो देशभक्त है वह भाजपा को वोट देता है। मोदी जी अपने भाषणों में लगातार कहते पाए गए हैं कि 70 वर्षों में कोई विकास नहीं हुआ। लेकिन कोई है सुनने को तैयार नहीं है कि जब आजाद हुए थे इस देश की क्या दशा थी।  जब यह बात कही जाती है तो लोग गला फाड़कर चिल्लाते हैं कि  जो दशा हुई थी वह महात्मा गांधी के कारण हुई थी। क्योंकि उन्होंने पाकिस्तान के मुसलमानों को एक हजार   करोड़ रुपए दे दिए थे । देश ऐसे मुकाम पर पहुंच गया है जहां मिथ्या सत्य बन गई है। बहुत कम लोग हैं जो सच को जानना चाहते हैं। बहस इस पर हो रही है कि गांधी हत्यारे थे  या  देशभक्त। प्रज्ञा सिंह ठाकुर इस कथन के अलावा एक पुलिस अधिकारी उस के श्राप से मारा जाता है। अगर हम सोचते हैं कि ऐसे लोग भारतीय विचारधारा का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं तो शायद हम अपने देश को सही ढंग से नहीं जान पाएंगे। सरकार अब जो भी बने समाज इसी तरह बढ़ता हुआ नजर आ रहा है और समाज की इस गति से स्पष्ट तौर पर देश का भविष्य समझा जा सकता है।

Friday, May 17, 2019

भद्रलोक की हिंसा का मनोविज्ञान

भद्रलोक की हिंसा का मनोविज्ञान

हरिराम पाण्डेय 
वर्तमान चुनाव में बंगाल में व्यापक हिंसा देखने को मिली है। लेकिन यह कोई नई बात नहीं है और ना ही यह कोई अजूबा है। पिछले डेढ़ सौ वर्षो का इतिहास अगर देखें तो पाएंगे कि  सत्ता की हर दौड़ के दौरान हिंसा होती रही है। यह सिलसिला 1857 के सिपाही विद्रोह के बाद से अब तक चला रहा है। बंगाल का भद्रलोक समाज राजनीतिक हिंसा को एक रूमानी स्वरूप देता रहा है । अगर बंगाल में राजनीतिक हिंसा का इतिहास देखें तो पाएंगे कि हर दौर में सिर्फ झंडे बदल जाते हैं डंडे और उनके काम उसी तरह रहते हैं। यह बंगाल का सामाजिक - मनोवैज्ञानिक चरित्र है। जंगे आजादी के समापन में जब भारत का बंटवारा हुआ तो जो हिंसा हुई वह इतिहास में "ग्रेट कलकत्ता किलिंग" के नाम से दर्ज है। इसके बाद शासन बदला लेकिन समाज का चरित्र वही रहा। कभी अंग्रेजों ने बंगाल को गैर दंगाई या मारपीट से दूर रहने वाली कौम बताया था लेकिन ऐसा था नहीं। हर बार जब भी शासन बदला है तो बस सत्ता के किरदार बदल जाते हैं लेकिन समाज  की प्रवृत्ति वही रहती है। लेकिन इसमें एक तथ्य काबिले गौर है कि जब  तक एक तरफा हिंसा होती रहती है कब तक सत्ता सुरक्षित रहती है और जैसे ही उस हिंसा का प्रतिरोध शुरू हो जाता है सत्ता के पाए डगमगाने लगते हैं और इसे सत्ता में परिवर्तन का संकेत माना जाता है।
  जिन लोगों ने बंगाल को देखा है उन्हें साठ का दशक याद होगा। उस समय यह कांग्रेस का शासन था और सत्ता को हासिल करने के लिए भारतीय मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में वाम मोर्चा ने पंजे लड़ाने शुरू किया था और यह पंजा लड़ाई खूनी संघर्ष में बदल गई। 1977 में वाममोर्चा सरकार पश्चिम बंगाल की सत्ता पर कायम हो गई। कांग्रेस एक तरह से निस्तेज हो गई । 34 वर्षों तक वाम मोर्चे का शासन चला। इस काल में राज्य में लगभग 28 हजार राजनीतिक हत्याएं हुईं।
        वर्तमान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की राजनीतिक दीक्षा कांग्रेस में ही हुई थी। बाद में उन्होंने कांग्रेस छोड़कर एक नई पार्टी- तृणमूल कांग्रेस- का गठन किया। वाममोर्चा के खिलाफ एक नई जंग शुरू हो गई जिसकी कमान ममता बनर्जी के हाथ में थी। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि लगभग हर वर्ष पश्चिम बंगाल में कुछ न कुछ राजनीतिक हत्याएं होती रही हैं। पीछे के आंकड़ों को छोड़ दें और 21वीं सदी की ही बात करें तो 2001 से 2009 तक यानी 8 वर्षों में 218 लोग हिंसा के शिकार हुए । केवल 2010 में 38 आदमी मारे गए तथा जिस साल यानी 2011 में बंगाल में लाल किला ध्वस्त हुआ उस समय जो फसाद हुए उनमें भी 38 आदमी मरे यानी 2010 से ही बदलाव की आहट आने लगी थी।  यह सिलसिला रुका नहीं। 2012 में 22, 2013 में 26 और 2014 में 10 आदमी मारे गए ।2015 और 16 में बहुत कुछ नहीं हुआ । 
     तृणमूल कांग्रेस की सत्ता सुरक्षित चल रही थी लेकिन यहां अचानक भाजपा का उदय हुआ और धीरे-धीरे हिंसा सुलगने लगी। जिसका सबूत पिछले साल के पंचायत चुनाव के दौरान हुई हिंसक घटनाएं हैं। 2019 में लोकसभा चुनाव के दौरान एक बार फिर हिंसा का दौर शुरू हो चुका है इसका कारण है कि जो लोग शुरुआती दौर में वामपंथी दलों को छोड़कर तृणमूल के झंडाबरदार बने थे आज अचानक उनमें से बड़ी संख्या में लोग भाजपा में आने लगे हैं और जो पहले वहां हथियार उठाया करते थे वे अब इधर से हथियार उठाने लगे हैं। आजादी के बाद से ही बंगाल में सत्ता हथियाने के लिए कांग्रेस और वाम मोर्चे मैं लड़ाई चली थी उसके बाद ही लड़ाई बदल कर वाममोर्चा और तृणमूल कांग्रेस के बीच हो गई। अब वह फिर एक नई शुरुआत हुई। उसे हम तृणमूल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की जंग के रूप में देख रहे हैं । 
     यहां की सबसे बड़ी खूबी यह है कि नेता बाद में टोपियां बदलते हैं समर्थक पहले झंडे बदल देते हैं। 2011 में जब सत्ता परिवर्तन हुआ तो लाल झंडे लेकर चलने वाले लोगों ने जोड़ा फूल वाला झंडा उठा लिया। क्लबों और पार्टी दफ्तरों के रंग रातों रात बदल गए। आज फिर वही स्थितियां बनने लगी है। 2011 में चाहे जितनी हिंसा हुई हो लेकिन ममता बनर्जी का एक नारा उस समय बड़ा कारगर हुआ था वह नारा था "बदला नोय, बदल चाई" यानी "बदला नहीं बदलाव चाहिए।" जनता ने इस नारे को पसंद किया था। अरे वाह एक ऐसी नेता जो खुद राजनीतिक हिंसा का कई बार शिकार हो चुकी है वह ऐसे सकारात्मक नारे लगा रही है।
लेकिन यह आशावाद कायम नहीं रह सका। सत्ता पर तृणमूल के आसीन होने के साथ ही मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने हिंसा का झंडा उठा लिया और ममता बनर्जी के शासनकाल के पहले दौर में कई जगह हिंसक घटनाएं हुईं। तृणमूल कांग्रेस ने अक्सर उन स्थानों पर कब्जा किया जो अब तक कम्युनिस्ट पार्टी के कब्जे में रहे थे ।
        यह तो सर्वविदित है कि केंद्र या राज्य सरकार द्वारा किसी भी तरह का अनुदान या सहायता का उपयोग ग्राम पंचायतों द्वारा ही किया जाता है। वाम मोर्चे के जमाने में कहा जाता था कि इस राशि का पंचायती राज प्रणाली द्वारा पूरी तरह उपयोग किया जाता है। तृणमूल कांग्रेस ने पहले पंचायतों पर ही कब्जा जमाना शुरू किया क्योंकि उसे यह मालूम था कि गांव के लोग पंचायतों पर ही निर्भर करते हैं।  अगर पंचायतों पर कब्जा कर लिया गया तो पूरे बंगाल पर खुद ब खुद कब्जा हो जाएगा। यह किसी भी जाति धर्म से परे बात थी। पश्चिम बंगाल में एक और खूबी है। वह है कि अन्य राज्यों की तरह यहां जाति और धर्म से परिचय नहीं होता।  राजनीतिक पार्टियों और उनके विचार बंगाल में सबसे बड़ी पहचान है । आजादी के बाद से ही राजनीतिक दल और उनके आदर्श बंगाल में जमीन के मसले से जुड़कर एक भावनात्मक मसला बन जाते हैं। इसीलिए ममता बनर्जी ने "मां माटी मानुष" का नारा गढ़ा ।
        1947 के आरंभ में बंगाल में ग्रामीण सियासत हिंसक "तेभागा" आंदोलन से जुड़ी थी। यह अविभाजित उत्तर बंगाल में बटाई खेतिहर मजदूरों का आंदोलन था इसका नेतृत्व भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की एक शाखा किसान सभा द्वारा किया जा रहा था । उस समय इसके नेता नक्सलबाड़ी आंदोलन के चारू मजूमदार और बंगाल के भविष्य के मुख्यमंत्री ज्योति बसु थे। भूमि से जुड़े भाव ने आंदोलन में नक्सल पंथी आंदोलन का स्वरूप दिया और यह आग की तरह बंगाल में फैल गया। इसमें छात्र, बुद्धिजीवी और राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने भाग लिया । कोलकाता की सड़कों पर खून बह चला। सैकड़ों लोग मारे गए। सिद्धार्थ शंकर राय की सरकार ने इस पर शिकंजा कसा। नक्सलबाड़ी आंदोलन ने ही माओवादी आंदोलन को जन्म दिया। जिसका नारा था "जल, जमीन और जंगल।" 1977 से वामपंथी शासन के दौरान बंगाल में व्यापक भूमि सुधार किया गया। बंगाल के गरीब किसान वाम मोर्चे के साथ हो गए। लेकिन जब नंदीग्राम और सिंगूर में खेती की जमीन को उद्योग के लिए वाम मोर्चा सरकार ने उद्योगपतियों को सौंपा तो तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी को मौका मिल गया और उन्होंने वामपंथियों के ही हथियार से उन्हें परास्त कर दिया।
       भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के नेताओं के बीच आरोप-प्रत्यारोप के दौर आरंभ हो चुके हैं । शाह और नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर  लगातार आरोप लगा रहे हैं। उधर ममता बनर्जी भी उनका मुंह तोड़ उत्तर दे रही हैं। सत्ता की रस्साकशी लगातार घातक होती जा रही है । प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पश्चिम बंगाल में वोट पाने के लिए जी तोड़ कोशिश में लगे हैं तथा इससे स्थिति और खतरनाक होती जा रही है। हकीकत तो यह है कि पश्चिम बंगाल में 42 सीटों के लिए 9 चरणों में मतदान का मतलब है यह लड़ाई लंबी चलेगी। दोनों तरफ से न केवल जबान चल रही है बल्कि हथियार भी चल रहे हैं और अब तो यह युद्ध साइबर स्पेस में भी पहुंच गया ।
    सच तो यह है कि पश्चिम बंगाल में जब भी कोई राजनीतिक परिवर्तन होता है खास करके सत्ता का परिवर्तन तो उस समय हिंसा होती है। अंग्रेज बंगाली कौम को शांतिप्रिय और डरपोक को मानते थे। शायद यही उनकी गलती थी। और जब 1857 का सिपाही विद्रोह हुआ तो कोलकाता और बैरकपुर में सेना की बंगाल टुकड़ी ने ही बगावत को फैलाया। अंग्रेजों को भगाने में बंगाल के क्रांतिकारियों ने सबसे पहले कदम आगे बढ़ाया था तब से अब तक जब भी सत्ता परिवर्तन हुआ है तो बंगाल में हिंसा हुई है।   बंगाली भद्रलोक समाज अच्छे कार्यों के लिए खून खराबे को रूमानी दृष्टिकोण से देखता रहा है। बंगाल का मानस इसी स्वरूप में ढल गया है।  क्रांति यहां रूमानी बन जाती है। यही कारण है कि हर चुनाव में बंगाल में हिंसा होती है।  जब सत्ता परिवर्तन का भय शुरू होता है तो हिंसा बढ़ जाती है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि बंगाल में जब किसी इलाके में पहले से स्थापित पार्टी को जोरदार चुनौती मिलती है तो वर्चस्व की लड़ाई में हिंसा का सहारा लिया जाता है। वर्तमान चुनाव के दौरान यह हिंसा कुछ ऐसा ही संकेत कर रही है।

गुस्से से भरा लोकतंत्र

गुस्से से भरा लोकतंत्र

इस चुनाव के दौरान देश के हर भाग में कहीं न कहीं फसाद हुए ।अभी दो दिन पहले की ही घटना है कोलकाता के कॉलेज स्ट्रीट में भारतीय जनता पार्टी और तृणमूल कांग्रेस के समर्थकों में संघर्ष हो गया। इस झगड़े में ईश्वर चंद विद्यानगर की प्रतिमा तोड़ दी गयी। दूसरे दिन इसके विरोध में तृणमूल कांग्रेस ने रैली का आयोजन किया। विगत कुछ वर्षों से यह सब चल रहा है। ऐसा लग रहा है कि पूरा देश गुस्से में है। है, भगवान क्या क्या हमारा देश गुस्से से भरे लोकतंत्र में बदल गया है? क्रोध अब आम हो गया है। देशभक्ति की अभिव्यक्ति का राष्ट्रीय उद्गार हो गया है। आज देशभक्त होने के लिए किसी को देश से प्रेम की जरूरत नहीं है बस देश के भीतरी और बाहरी कल्पित दुश्मनों के प्रति गुस्से का इजहार जरूरी है। किसी भी आरोप में किसी दलित या मुस्लिम को पकड़िए और मार मार कर उसकी जान ले लें , कोई कुछ नहीं करेगा। नेताओं के भाषण सुनिए, संसद की बहस सुनिए सदा गुस्सा उफनता सा दिखेगा। कहीं भी शांति या मैत्री की बाद सुनी ही नहीं गयी। सेनेका ने लिखा है,  सभी तरह के जुनून इंसानी तार्किकता पर हमले हैं जबकि गुस्सा मौषय के मानसिक स्वास्थ्य पर हमला है।
       देशभक्ति का अर्थ मातृभूमि से प्रेम है अब अगर मातृभूमि के लोग ही नहीं रहेंगे जो उसकी संतान हैं मातृभूमि क्या होगी? मातृभूमि का अर्थ की उसमें रहने वाला हर आदमी जरूरी है। लेकिन गुस्से से भरी देशभक्ति के मामले में या तर्क सही नहीं है। जो लोग आपके धर्म से , आपकी जाती से या आपके समाज से भिन्न हैं उन्हें आप पसंद नहीं करते, तो आपके विचार से वे देशभक्त हो ही नहीं सकते। उसे खदेड़ दें , मार डाले और यदि ऐसा ना कर सकें तो उसके प्रति गुस्से से भरे रहिये। उससे का मनोविज्ञान उदासीन विचारों की परंपरा है जो कुछ कल्पित भय पर आधारित होती है। जैसे आप सोचते हैं कि आप गलत नहीं हैं और आपको बदला लेने का अधिकार है। यह भाव कल्पित बे को समाप्त करने के लिए बदला लेने के जुनून में बदल जाता है। तमाचे के बदले एक तमाचा हो तब तक सही है लेकिन तमाचे के बदले के लिए पूरा गला ही काट दिया जाय तो क्या सही होगा? ऐसी स्थिति में इंसान अपने गुस्से के सामने घुटने टेक देता है। मनुष्य केवल गुस्से का औजार बन कर रह जाता है।  पूर्वज कह गए हैं कि गुस्सा विनाशक होता है। गुस्से के कारण जो हानि होती है उसकी जिम्मेदारी को सीकर नहीं करना व्यापक तौर पर गुमराह करना  होता है।  एक उदाहरण लें। यह केवल  पाकिस्तान ही नहीं है जो हमारी सीमाओं का उल्लंघन करता है चीन भी अक्सर ऐसा करता है। लेकिन कोई यह नहीं कहता कि जो चीनी ऐसा करते दिख जाए उसके टुकड़े कर दिया जाय। जब चीन की बात आती है तो संयम और शांति की दलील दी जाती है। 
       इसलिए ऐसा नहीं है कि हम अपने गुस्से पर नियंत्रण नहीं कर सकते। हैं सोचते हैं कि विचारों का वातावरण हमारे पक्ष में है तो गुस्सा दिखाने में हर्ज ही क्या है।  यह शाश्वत सत्य है कि कोई छोटा और बड़ा नहीं है बशर्ते किसीने खुद को आध्यात्मिक तौर पर अनुशासित नहीं किया हो। गुस्सा बताता है कि हम प्रेम में असफल हो गए हैं। संसद में राहुल गांधी का प्रधान मंत्री से गले मिलना एक आध्यात्मिक घटना थी पर बाद में जो दोनों के बयान आने लगे उसे लगा कि राहुल का अपने गुस्से पर काबू नहीं कर पाने की यह स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। हाल के दिनों में हमारे देश में असहिष्णुता और गुस्से का ज्वार आया हुआ है। अगर इसे नियंत्रित नहीं किया गया तो यह समझना जरूरी है कि क्रोध से भरे लोकतंत्र का कोई भविष्य नहीं है क्योंकि गुस्सा मनुष्य की आत्मशक्ति का विनाश है। हमने इतिहास से आंखें मूंद ली हैं और यह मान लिया है कि गुस्सा राहतरिय जिजीविषा को बल प्रदान करेगा या आने वाले दिनों में खुशी की ओर कदम बढ़ाने की शक्ति देगा, लेकिन यह विचार सही नहीं है।

Thursday, May 16, 2019

आखिरी चरण में गरमाता चुनाव

आखिरी चरण में गरमाता चुनाव

जैसे-जैसे चुनाव अभियान समापन की ओर बढ़ रहा है इसमें सरगर्मियां बढ़ती जा रही हैं। कहीं बातों के तीर चल रहे हैं तो कहीं सीधे हाथ चल रहे हैं। चारों तरफ एक अजीब सा माहौल हो गया है। इस माहौल में कुछ भी तय कर पाना बड़ा कठिन है। खासकर के पश्चिम बंगाल में हिंसा बढ़ती जा रही है और उसके साथ ही बढ़ रही है राजनीतिक बयानबाजियां।  अभी कुछ दिनों से यह भी कहा जा रहा है कि सीपीआईएम ने तृणमूल कांग्रेस और भाजपा को पराजित करने का आह्वान किया है। पूर्व मुख्यमंत्री एवं सीपीआई (एम) के वरिष्ठ नेता बुद्धदेव भट्टाचार्य ने पार्टी के अखबार गणशक्ति में एक लेख लिखकर यह आह्वान किया है। वहीं दूसरी तरफ यह भी हवा है कि सीपीआईएम के निराश  काडर भाजपा का साथ दे रहे हैं और तृणमूल कांग्रेस को हराने के लिए जुटे हुए हैं। इसी के साथ - साथ राज्य में हिंसा भी बढ़ती जा रही है। बात यहीं खत्म हो तो गनीमत है। यहां तो खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी तीखी बयानबाजी से गुरेज नहीं कर रहे हैं। उन्होंने पिछले हफ्ते से एक नया जुमला शुरू किया है वह है "हुआ तो हुआ।" इस जुमले में ऐसा तीखा व्यंग है जो विपक्ष को तार-तार कर देता है। सात चरणों के चुनाव अभियान में सबसे ज्यादा लाभ उन्हें ही मिला है।
       पिछले दिनों भटिंडा में उन्होंने कांग्रेस के सैम पित्रोदा पर  टिप्पणी की। यह 1984 के सिख दंगों पर पित्रोदा की टिप्पणी के जवाब में थी। नरेंद्र मोदी ने पंजाब की जनता से इस बहाने पूछा कि क्या राज्य में उनको ऐसी ही पार्टी की जरूरत है? पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कुशीनगर में 19 मई को चुनाव होने वाले हैं। यहां उन्होंने राजस्थान के अलवर में 19 वर्षीय युवती के सामूहिक बलात्कार  का किस्सा उठाया । साथ ही बहुजन समाजवादी पार्टी की नेता मायावती के साथ 1995 में गेस्ट हाउस कांड की घटना का जिक्र करते हुए सभा में उपस्थित जन समुदाय से पूछा कि आखिर क्यों बहन जी कांग्रेस की सरकार का राजस्थान में समर्थन कर रही हैं? चलिए हुआ सो हुआ। मोदी जी ने पूछा की क्या पंजाब 1984 के दंगों के लिए कांग्रेस को माफ कर देगा? क्या मायावती जी अलवर के सामूहिक बलात्कार पीड़ित महिला को देख कर मगरमच्छ की आंसू बहा रही हैं? जबकि मौजूदा गठबंधन के सदस्यों ने उन्हें कभी गालियां भी दी थी एक ऐसे चुनाव अभियान में जहां   कुछ वोटो के लिए ऐसी -ऐसी अमर्यादित बातें चारों तरफ कही- सुनी  जा रही हैं जिन्हें सुनकर आम आदमी के  पक  जाये। कान पर हाथ रख देने की इच्छा हो ।इतने पर ही बस नहीं है। प्रधानमंत्री जी कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। वह हर घाव को कुरेद रहे हैं। इस चुनाव की स्थिति देखकर ऐसा लग रहा है कि सत्ता हासिल करने के लोभ में कुछ भी किया जा सकता है। मोदी जी को यह मालूम है कि पंजाब और उत्तर प्रदेश में उनके पक्ष में चुनावी बयार थोड़ी धीमी है इसलिए ऐसे जख्म को कुरेदा  जा रहा है जिसे पंजाब की जनता आग बबूला हो जाए । वही हालत उत्तर प्रदेश में भी है । वहां भी जातियों के जो समीकरण है उसके आधार पर समाजवादी पार्टी और बसपा मोदी जी के रथ को रोक सकती है । यही कारण है की उनकी तरकस में जितने भी तीर हैं वह उनका इस्तेमाल कर रहे हैं । कुछ तीर बेशक निशाने पर नहीं लगे। जैसे राजीव गांधी पर आई एन एस विराट युद्धपोत पर अपने रिश्तेदारों के साथ छुट्टी मनाने वाली बात गलत हो गई। लेकिन तब भी कुछ लोगों को तो इस पर विश्वास हो ही गया तो फिर इसका भी प्रयोग करने में हर्ज क्या है? उसी तरह एक अंग्रेजी अखबार को दिए गए इंटरव्यू में उन्होंने "खान मार्केट गैंग" जुमले का इस्तेमाल किया। इससे उनका इशारा आत्म संतुष्ट, खानदानी नेताओं की ओर था। उन्होंने कहा कि ऐसे लोगों की निगाहें लंदन न्यूयॉर्क और पेरिस पर होती है ना कि भोपाल बेगूसराय भटिंडा पर।
          चुनाव के अंतिम चरण में पंजाब उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल पर सब कुछ निर्भर है। जो भी गठबंधन इन 59 सीटों पर विजयी होता है वही दिल्ली की गद्दी पर आसीन होगा। मोदी जी इस तथ्य को अच्छी तरह जानते हैं और इसलिए वे मायावती तथा ममता बनर्जी के खिलाफ तरह-तरह के उपाय कर रहे हैं। विपक्षी नेता भी इसी तरह के उपायों में मशगूल हैं। कहीं बातों के घाव बनाए जा रहे हैं कहीं  हिंसा का सहारा लिया जा रहा है। ममता बनर्जी और सुश्री मायावती अभी मोदी जी के निशाने पर हैं। चुनाव के अंतिम चरण में बहुत कम समय बचा क्या है और इतने कम समय में इन दोनों नेताओं के पास जमकर जवाब देने का वक्त नहीं रहा है। महाभारत का यह संदेश बहुतों को मालूम होगा कि प्रेम और राजनीति में सब कुछ जायज है। नतीजा चाहे जो हो चुनाव के बाद सामाजिक रूप से भारत वह नहीं रह जाएगा जो अब तक रहा है।

Wednesday, May 15, 2019

2019 में राजनीति की डगर 

2019 में राजनीति की डगर 

पता नहीं कितने लोगों ने इस बात पर ध्यान दिया है कि मौजूदा चुनाव अभियान के दौरान जितने भी तर्क दिए जा रहे हैं ,जितनी भी कहावतें  कहीं जा रही हैं उसी वजन के उनके विपरीत भी बातें हो रही हैं। लगता है न्यूटन के गति सिद्धांत के तीसरे नियम की यहां व्याख्या हो रही है। हर तर्क का उतनी ही मजबूती से जवाब सुनने को मिल रहा है। चुनाव अभियान के दौरान भाषणों की सबसे बड़ी खूबी यह होती है कि जो पुरानी धारणाएं हैं, पुराने विचार हैं नई अवधारणाओं पर हावी हो जाते हैं। कहावतें सिद्धांत बन जाती हैं।  जब चुनाव के नतीजे आ जाते हैं तो यह सारी चीजें समाप्त हो जाती हैं और राजनीतिज्ञों की पेशानी पर पड़े बल के रूप में हकीकत के निशान साफ दिख जाते हैं। 2019 के चुनाव परिणाम के आने में बस अब एक हफ्ता बाकी रह गया है। चुनाव अभियान के दौरान तरह -तरह के प्रवचन सभाओं में दिए गए और मतदाताओं को  लुभाने की कोशिश की गई। कहावतों का जमकर इस्तेमाल हुआ। कहते हैं कि चुनाव अभियान के दौरान दिए जाने वाले मुफ्त तोहफे चुनाव के बयार की दिशा तय करते हैं। जिस तरफ से जितना बड़ा तोहफा मिलेगा बयार उसी दिशा में बहेगी। कहा तो यह जाता है कि कई स्थानों पर मतदान के दिन मतदाताओं को नगदी भी दिए जाते हैं। कुछ राज्यों में सुना गया है कि 2000 रुपये प्रति मतदाता को नगद तक बांटे गए हैं। इसके अलावा सस्ती बिजली, न्यूनतम आमदनी,  महंगाई में कमी इत्यादि के वादे तो अपनी जगह कायम ही रहते हैं।
       राजनीतिक सिद्धांतों के मुताबिक  चुनाव के दौरान के हालात और जरूरतों के आधार पर रणनीति बनाई जाती है। खाते में कुछ रुपए और खेती के लिए दिए गए कर्ज की माफी की  बात आम है। कहते हैं कि 2009 में मनरेगा और खेती के लिए दी गई सुविधाओं के आधार पर कांग्रेस को विजय मिली थी। लेकिन शायद यह सच नहीं है। 2013 में कांग्रेस ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम की शुरुआत की।यह जनकल्याण की बहुत बड़ी योजना थी। लेकिन 2014 में कांग्रेस हार गई। 2014 के बाद से मोदी सरकार ने कल्याण की कई योजनाएं शुरू की हैं इनमें जन धन योजना, उज्जवला योजना, आयुष्मान भारत, सुरक्षा बीमा इत्यादि कई हैं जिन राज्यों में भाजपा की सरकार थी वहां इन योजनाओं को बहुत जोरदार ढंग से लागू किया गया है। इनके फायदों का जमकर प्रचार किया गया। लेकिन इसके बावजूद मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा हार गई थी।
           यह सच है कि लोग स्थाई सरकार चाहते हैं और उसके नाम पर वोट भी देते हैं। यही नहीं जब भी कोई  बाहर खतरा होता है या बाहरी खतरे का खौफ पैदा किया जाता है तो उसके बाद सरकार का जोश देखने के काबिल होता है। शुरू से ही देश में किसी भी गड़बड़ी के लिए कोई बाहरी हाथ की कहावत प्रचलित थी और अब तो पाकिस्तान और आतंकवादी गतिविधियों  का भय दिखाया जाना आम बात हो गई है। लेकिन यह जरूरी नहीं है कि यह जोश वोट में बदल जाए। 1965 की जंग  तो याद होगी। लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री थे और पाकिस्तान को जोरदार पटकी दी गई थी। इसके  बाद 67 में चुनाव हुए और इंदिरा गांधी की अगुआई वाली सरकार को उन चुनावों का सामना करना पड़ा था। चुनाव में कांग्रेस का वोट 44.7 प्रतिशत से घटकर 40% हो गया था। 1962 में लोकसभा के 488 सदस्यों में से 361 कांग्रेस के थे जबकि 67 में 516 सीटों पर चुनाव हुए और कांग्रेस के सांसदों की संख्या 283 हो गई। 8 राज्यों से कांग्रेस का पत्ता साफ हो गया। 1998 में भाजपा को 182 सीटें मिली थीं। 13 दलों के सहयोग से वाजपेई जी की सरकार बनी थी। 1998 में ही भारत ने परमाणु परीक्षण किया और सीना तान कर परमाणु शक्ति संपन्न देशों की कतार में खड़ा हो गया। लेकिन 1999 में बाजपेई जी की सरकार फकत 1 वोट के कारण गिर गई। अविश्वास प्रस्ताव पर उन्हें एक वोट कम मिले। 1999 की मई में पाकिस्तान ने कारगिल पर हमला किया। जंग में पाकिस्तानी सेना को भारतीय सेना ने धूल चटा दी और सितंबर 1999 में लोकसभा चुनाव हुए तथा उस चुनाव में 20 पार्टियों के गठबंधन वाली एनडीए को बहुमत मिला। लेकिन भाजपा उसी 182 सीट पर अटकी पड़ी रही। उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य में 1998 में भाजपा को महज 57 सीटें मिलीं। 1999 के चुनाव के बाद वहां भाजपा की सीटें घटकर 29 हो गई। सारे समीकरण वाजपेई और कल्याण सिंह के बीच तनाव की भेंट चढ़ गए।
          कई बार कहा जाता है कि आर्थिक सुधारों से भी विकास दर बढ़ती है और सकल घरेलू उत्पाद की ऊंची दर भी लोगों के लिए सहायक होती है, उनकी गरीबी दूर करने में मददगार होती है। लेकिन क्या इससे राजनीतिक लाभ मिल सकता है? शायद नहीं। वरना क्या बात है कि सकल घरेलू उत्पाद की दरों में सुधार का श्रेय राजनीतिक दल अपने ऊपर आसानी से क्यों नहीं लेते। भारत में राजीव गांधी के शासन के दौरान विकास दर 10 से 16% था। नरसिंह राव के जमाने में लाइसेंस राज खत्म हुआ और दोनों सरकारों को बुरी तरह पराजित होना पड़ा था। हालात यह हो गए थे कि कांग्रेस ने कहना शुरू कर दिया था कि सुधार गरीब विरोधी हैं। वाजपेई जी के शासनकाल में कई बड़े सुधार हुए। वित्तीय घाटा घटा, ब्याज दरें कम हुईं। 2004 में स्थिति यह हो गई भाजपा कार्यकर्ताओं ने और खुद बाजपेई जी ने "शाइनिंग इंडिया" के नारे लगाने शुरू किए। इस चुनाव का नतीजा बताने की जरूरत नहीं । मनमोहन सिंह की पहली पारी में भी सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि का आंकड़ा 9% हो गया लेकिन कांग्रेस या मनमोहन सिंह ने इसे प्रचारित नहीं किया। 2019 में चुनाव प्रचार में सकल घरेलू उत्पाद पर कोई बात ही नहीं हो रही है। क्योंकि एक कहावत चल रही है की अच्छी अर्थव्यवस्था सियासत के लिए अच्छी नहीं होती। गरीबी हटाओ के नारे आधी सदी तक चलते रहे आज भी इसकी गूंज है।
           चुनावी नतीजों की अगर व्याख्या की जाए तो उसमें कई कारक नजर आएंगे। इन कारकों में बहुत कुछ शामिल है जैसे जनसांख्यिकी, भूगोल, शिक्षा, आर्थिक विकास इत्यादि इत्यादि। सबके अलावा वादों का प्रचार और उसे वोटरों को विश्वास दिलाने की पार्टी मशीनरी की ताकत पर भी काफी कुछ निर्भर करता है । कई बार ऐसा होता है कि कई नेताओं की भूमिका एकदम विवाद हीन होती है लेकिन वोटर उनसे कुछ दूसरा चाहते हैं । लोकमत को पहचानने की ताकत जिस नेता में होती है वहीं सही नेता होता है। 2018 में  लुभावने कार्यक्रमों के बावजूद तीन राज्यों में भाजपा हार गई। पार्टी इसे सत्ता विरोधी लहर कहती है, लेकिन सच यह है कि कृषि आपदा में और कृषि पीड़ा ने सत्तारूढ़ दल को पराजित कर दिया। कृषि पीड़ा और भ्रष्टाचार के आरोप लगातार चुनाव को प्रभावित करते रहे हैं। 1965 की भारत-पाकिस्तान जंग के गौरवशाली नतीजों के बावजूद कांग्रेस को कई सीटें गंवानी पड़ी थी। कई राज्यों में हारना पड़ा था । क्योंकि चुनाव से पहले 2 वर्षों तक कृषि विकास दर नकारात्मक थी। आपातकाल के बाद इंदिरा जी की पराजय में जो जन आक्रोश था उसमें कृषि  विकास दर में गिरावट का की भी बहुत बड़ी भूमिका थी। करप्शन का भी चुनाव के नतीजों पर असर पड़ता है। 1989 में रक्षा सौदों में घोटाले को लेकर  राजीव गांधी की सरकार को हारना पड़ा था। भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण ही 2014 में यूपीए की सरकार हार गई थी। जो भी प्रचार होता है उसका एक क्रियात्मक गुणांक भी होता है और यह चुनाव के नतीजों को प्रभावित करता है। 23- 24 मई फैसले का दिन है। देखना यह है कि मतदाताओं की कलम से  क्या इतिहास लिखा गया। यही इतिहास राजनीति की नई डगर तय करेगा।

Tuesday, May 14, 2019

लोकतंत्र या धन तंत्र

लोकतंत्र या धन तंत्र

केवल पश्चिम बंगाल में विगत 2 दिनों में डेढ़ करोड़ पर पकड़े गए। चुनाव के अंतिम चरण में इस तरह की बरामदगी हमारे लोकतंत्र के बारे में एक अलग कहानी कहती है । अगर संपूर्ण देश की बात करें तो चुनावी बांड और नकदी रुपए मिलाकर अब तक सात हजार करोड़ जप्त किए गए हैं । हे भगवान 90 करोड़ मतदाताओं वाले इस देश में चुनाव के दौरान सात हजार करोड़ रुपयों का खेल। सुनकर बड़ा अजीब लगता है। किसी भी भारतीय के लिए चिंता का विषय हो सकता है। क्योंकि कोई भी राजनीतिक पार्टियों को दिल से चंदा नहीं देता। साफ जाहिर होता है कि कोई भी सरकार क्यों नहीं राजनीतिक धन के मामले को पारदर्शी बना सकती है। लेकिन जो हो रहा है उस मामले में राजनीतिक दल आम जनता को यह समझाने में कामयाब हो जा रहे हैं कि जनता इस पर ध्यान ही नहीं देती
       हम में से बहुतों को याद होगा कि नोटबंदी के समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि काले धन पर अंकुश के लिए यह कदम उठाया गया है। लेकिन ऐसा कुछ हो नहीं सका। नोट बंदी के पहले 2014 में चुनाव के दौरान बारह सौ करोड़ रुपए की नगदी और वस्तुएं जब्त हुई थी , लेकिन इस बार जबकि काले धन को समाप्त कर देने की बात है नजारा ही दूसरा है। इस चुनाव के दौरान अब तक तैंतीस सौ करोड़ रुपयों से ज्यादा नगदी जब्त की गई है और इसके अलावा 3622 करोड़ का चुनावी बांड है । यह तो कुल परिमाण का एक छोटा सा हिस्सा है । अशौच धन या कहें काला धन इससे बहुत बड़े परिमाण में चुनाव में लगा हुआ है। चुनाव दिनोंदिन महंगा होता जा रहा है। भारतीय जनता पार्टी  की सरकार ने राजनीति में धन की खत्म करने या उस में पारदर्शिता लाने के लिए एक प्रयास किया। उसने कॉरपोरेट्स चंदों की सीमा को  खत्म कर दिया और चुनावी बांड की शुरुआत की। यह एक तरह से अनाम गिफ्ट वाउचर है जो राजनीतिक दलों को दिया जा सकता है। लेकिन बात पारदर्शिता पर आकर रुक जाती है, क्योंकि इन बॉण्ड्स में भी पारदर्शिता नहीं है और बड़ी तेल कंपनियों को  पूरे सिस्टम में रुपया झोंक देने में सहूलियत हो रही है।  चुनाव आयोग ने भी चेताया कि यह प्रतिगामी है और बेहद खतरनाक है।  क्योंकि विदेशी कंपनियां भारतीय राजनीति को और भारतीय लोकतंत्र को प्रभावित करने के लिए अपने अकूत धन का उपयोग कर सकती हैं । इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया, जिसमें भारतीय जनता ने इसके विरोध में याचिका दी थी। सरकार ने केवल यह कह दिया कि भारतीय जनता को यह जानने का अधिकार नहीं है कि राजनीतिक दलों को कौन धन दे रहा है। अदालत चुप रह गयी। हमारे पास यह जानने का तब तक    कोई जरिया नहीं है कि इन बॉन्ड्स को कौन खरीद रहा है जब तक संबंधित राजनीतिक दल अपना रिटर्न दाखिल ना करें और रिटर्न दाखिल करते करते हो बहुत देर हो जाती है। इसलिए यह स्पष्ट है कि इस मामले में सत्तारूढ़ दल को ज्यादा लाभ पहुंचता है। अखबारों में यह खबर प्रकाशित होती है और पड़ी रहती है। कोई ध्यान नहीं देता। हाल में विख्यात टाइम पत्रिका में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर दो बहुत ही घटिया और तथ्य विहीन विश्लेषण प्रकाशित हुआ था उसी तरह एक अंग्रेजी दैनिक में भी जो मोदी जी का एक साक्षात्कार छपा था इन्हें देख कर यह समझा जा सकता है की सरकार समाचार पत्रों की परवाह क्यों नहीं करती।
           भारतीय चुनाव महंगे होते जा रहे हैं। पार्टी के टिकट से लेकर चुनाव लड़ने तक सिर्फ पैसे की जरूरत पड़ती है। यहां तक कि अगर दोबारा भी चुनाव लड़ा जाए तब भी पैसे बहुत ज्यादा लगते हैं। लेकिन क्यों भारतीय चुनाव महंगे क्यों है ? सरकारी तौर पर तो लोकसभा चुनाव में एक उम्मीदवार को 50 से 70 लाख रुपए तथा विधानसभा चुनाव में  20 28  लाख रुपए खर्च करने की अनुमति है लेकिन जो हम देख रहे हैं और जो खबरें मिलती हैं उससे साफ पता चलता है कि उम्मीदवारों ने जो 50 से 70 लाख या 20 से 28 लाख रुपया की रिपोर्ट जमा कराई है वह केवल दाल में नमक के बराबर है और इसी से पता चलता है की दाल में कुछ काला है।  सच तो यह है के जमा कराई गई रिपोर्ट मे  जितनी रकम का जिक्र है वह संपूर्ण खर्च का 50 वां हिस्सा भी नहीं है। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के एक अनुमान के मुताबिक 2019 के लोकसभा चुनाव में 50 हजार करोड़ से ज्यादा रुपए खर्च होंगे और यह पूरी रकम काले धन के रूप में पार्टियों को मिलती है तथा पार्टी या उम्मीदवार कहीं भी सरकारी तौर पर इसका जिक्र नहीं करते। राजनीति विज्ञान साइमन कॉकर्ड ने भारतीय चुनाव के लगातार महंगे होते जाने के कई कारण बताए हैं। जिसमें  चुनाव क्षेत्रों का लगातार बढ़ते जाना और साथ ही मतदाताओं की संख्या में वृद्धि इसी के साथ बढ़ती राजनीतिक प्रतियोगिता भी इसका कारण है। जैसे-जैसे नौजवान मतदाताओं की संख्या बढ़ रही है उन्हें लुभाने के लिए राजनीतिक नेता और दल अलग अलग तरीके अपनाते हैं जैसे उन्हें उपहार देते हैं इत्यादि इत्यादि। यही नहीं इन दिनों चुनाव में खड़े उम्मीदवारों को अपने चुनाव क्षेत्र में ज्यादा से ज्यादा दिखाई पड़ना ,बड़े नेताओं का राष्ट्रव्यापी दौरा ,अखबारों  तथा  इलेक्ट्रॉनिक  मीडिया में  बड़े-बड़े विज्ञापन- प्रचार, राजनीतिक परामर्श के लिए गठित दल इत्यादि। इनमें तो खर्च लगता ही है। राजनीतिक दल सरकारी तौर पर बताए बिना लगातार खर्च करते हैं और चुनाव आयोग कुछ नहीं कर पाता। यहां भी एक छोटी सी गड़बड़ी है। राजनीतिक उम्मीदवारों के लिए तो खर्च की सीमा तय कर दी गई है लेकिन राजनीतिक दलों के लिए ऐसा कुछ नहीं है। उम्मीद की जाती है राजनीतिक दल यह बताएं कि उसने चुनाव में कितना खर्च किया है और यह रुपए कहां से आए हैं। लेकिन जब तक यह रिपोर्ट बनती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। जून 2013 में केंद्रीय सूचना आयोग ने साफ कहा था कि राजनीतिक दल सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत आते हैं लेकिन वे इसका पालन नहीं करते हैं। आरंभ में तो वे इसे नजरअंदाज कर देते हैं जब बहुत दबाव पड़ता है तो सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे देते हैं। यह मामला अभी भी वहां लंबित है। नोटबंदी के बाद वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2017 के बजट में घोषणा के दौरान कहा कि राजनीतिक चंदों की भी खबर ली जाएगी और उसमें से काला धन समाप्त किया जाएगा। "आज आजादी के 70 वर्ष के बाद भी देश ने कोई ऐसा तंत्र नहीं विकसित किया जिससे राजनीतिक दलों को मिलने वाले धन में पारदर्शिता हो क्योंकि यह स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए आवश्यक है। " जेटली जी ने एक नई व्यवस्था शुरू कर दी-  चुनावी बांड की व्यवस्था। वे समझ गए की राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे में ज्यादा पारदर्शिता और जिम्मेदारी आ गई । लेकिन इससे कुछ नहीं हुआ। इसके अलावा भी कई संशोधन हुए लेकिन कुछ नहीं हो सका । राजनीतिक नेता कॉरपोरेट साधनों का खुलकर उपयोग करते हैं। उनके सत्ता में पहुंचने के बाद वही कारपोरेट इनका उपयोग करने लगते हैं। इन दिनों से एक नया जुमला चला है चौकीदार और चौकीदार के समर्थकों ने अपने ट्विटर हैंडल तक में चौकीदार जोड़ लिया है। यह प्रयास मनोवैज्ञानिक रूप से विभिन्न आरोपों को कुंद करने का प्रयास है। वे  आरोप चाहे जो भी हों।
          अब सवाल उठता है कि क्या मतदाता इस पर ध्यान देते हैं? यह कह सकते हैं कि चुनाव के दौरान रुपयों से मतदाताओं को प्रभावित किया जा सकता है। अरसे से बात कही जाती है कि वोट खरीदे जाते हैं और यही कारण है की राजनीतिक पार्टियां चुनाव के दौरान करोड़ों रुपए की शराब और अन्य वस्तुएं अपने चुनाव क्षेत्र में वितरित करती हैं। इसका असर पड़ता है क्या? भारत में गुप्त मतदान की व्यवस्था है । मतदाता पैसा भी ले ले और वोट भी ना डालें तो क्या होगा? लेकिन क्या यह भी हो सकता है कि सभी दल इस तरह से मतदाताओं को रिश्वत दे।
      कुछ भी हो। कोई इनकार नहीं कर सकता ही चुनाव में बहुत ज्यादा रुपए लगाया जा रहे हैं । लेकिन कैसे यह रुपए जाते कहां हैं। कुछ लोग कहते हैं कि प्रचार इत्यादि में खर्च होता है। लेकिन वस्तुतः मनोवैज्ञानिक तौर पर वोट खरीदे जाते हैं । दरअसल किसी भी उम्मीदवार को मतदाताओं तक पहुंचने के लिए रुपयों की जरूरत पड़ती है। यह ठीक उसी तरह है जैसे हम किसी परीक्षा के लिए प्रवेश शुल्क देते हैं। जब मतदाताओं को रुपए दे दिए गए  तो इससे लगता है की उम्मीदवार और मतदाताओं के बीच रिश्ता गाढ़ा हो गया । लेकिन प्रश्न है लोकतंत्र के 70 वर्ष के बाद भी हम इतने परिपक्व नहीं हुए हैं कि देश की राजनीतिक दिशा तय कर सकें यह भारतीय संस्कृति और भारतीय मेधा का सबसे बड़ा अपमान है।

Monday, May 13, 2019

राजनीति की चौकीदारी 

राजनीति की चौकीदारी 

इन दिनों चौकीदार शब्द  एक नया विमर्श बन गया है और नये अर्थ धारण करने वाला है। पूरी संभावना है कि चुनाव के बाद नये अर्थ के साथ यह शब्द हमारे सामने होगा। यद्यपि इसकी व्यापकता थोड़ी सीमित होगी और देश तथा काल के अनुरूप इसका स्वरूप बदलता रहेगा । शब्द  इसी तरह कोष के अंग बनते जाते हैं। हममे से बहुतों को स्मरण होगा कि 2012 से 2014  के अनंतर एक नया शब्द बना था "पोस्ट ट्रुथ " जिसका भारत में तर्जुमा हुआ था "सत्यातीत सत्य।"  यह प्रसंग यहां इसलिए उठाया गया कि इस चुनाव के दौरान झूठ या मिथ्या का जुलूस देखा जा सकता है , झूठ की संख्या , गति और व्यपति अत्यंत बढ़ चुकी है और अब जो हो रहा है और जिस काल में हो रहा है उसे किसी संज्ञा से अभिहीत करना बाकी रह गया है । कहा जा सकता है कि यह सत्यातीत समय है। एक ऐसा समय जब राजनेता और सच की हिफाजत के लिए तैनात  संस्थाएं ही झूठ को समर्थन दे रहीं हैं।  झूठ का भयानक गति से विस्तार हो रहा है और इसमें सच निस्तेज होता जा रहा है। सच की केन्द्रीयता और महत्व समाप्त हो गए हैं। जार्ज ऑरवेल ने दूसरे विश्व युद्ध के समय लिखा था कि " वस्तुनिष्ठ सत्य की अवधारणा दुनिया से समाप्त हो रही है और अब आने वाले समय में झूठ इतिहास बनाएंगे।" लेकिन इन दिनों समय और आगे बढ़ चुका है अब तथ्य एक नहीं रह गए हैं उसके कई विकल्प हो गए हैं और वैकल्पिक तथ्य वास्तविक तथ्य का स्थान लेते नजर आ रहे हैं। शब्द बिम्बों से पहचाने जाते हैं और इनदिनों बिम्ब स्थानांतरित हो रहे हैं। चौकीदार से पप्पू तक इसका उदाहरण है। इस समय की कई और विशेषताएं हैं। मसलन, भावनाओं के वजन बढ़ते जा रहे हैं और सबूत के वजन घटते जा रहे हैं। यही नहीं किसी भी सिद्ध वैज्ञानिक सिद्धान्त को एक वैकल्पिक सिद्धांत का छद्म खड़ा कर के संदिग्ध बनाया जा सकता है और चतुर जनसंपर्क द्वारा उसकी व्याप्ति बढ़ाई जा सकती है। यही नहीं इस सत्यातीत समय की एक खूबी यह भी है कि चुनिंदा तथ्यों के चालाकी नियोजन से नई सच्चाई गढ़ी जा सकती है और समान अवसर पर सच और झूठ  के बीच एक अवास्तविक समता बना दी जा सकती है।
   ये ताजा स्थितियां इस देश में व्यापक स्वरूप ग्रहण कर रहीं हैं। हमारे इतिहास या राष्ट्र के जो भी व्यापक मूल्य थे चाहे वह सत्य, अहिंसा ,समता, स्वतंत्रता या न्याय कुछ भी वह सब देखते-देखते संदिग्ध और विवादास्पद हो गए हैं। सांच बराबर तप नहीं और सत्यमेव जयते ये देखते संदिग्ध और विवास्पद बनते जा रहे हैं थता झूठा, विषम और हिंसक देश बनाने की कोशिश चल पड़ी है। यह सत्ता से लेकर संस्थानों तक से पोषित हो रहा है। अगर यह कायम रहा तो हम सत्यातीत भारत में रहने के लिए बाध्य हो जाएंगे। हमारी निष्क्रियता और उदासीनता के कारण यह एक ऐतिहासिक ट्रेजेडी होगी।
इन दिनों एक नवीन समाज वैज्ञानिक स्थिति उतपन्न हो रही है और उसे विमर्श का नाम दिया जा रहा है। इस विमर्श की मूलवृति विरोध है कोई विरोधात्मक प्रतिपादन नहीं है इसका उद्देश्य सभी विमर्शों को अप्रासंगिक बना देना है। इसकी मूल प्रवृति है जरेक के लिए दरवाजों को बंद कर देना क्योंकि इसका मानना है कि यदि सबके लिए दरवाजे खुले रहेंगे तो अराजकता फैल जाएगी। इसलिए सीमाएं होनी चाहिए। इस सीमांकन के लिए ज्ञान के वर्चस्व को कम करना अनिवार्य है। इसी उद्देश्य  की पूर्ति के लिए नई टेक्नोलॉजी और सोशल मीडिया आदि का उपयोग कर अज्ञान की वैकल्पिक व्यवस्था खड़ी करने का प्रयास हो रहा है।
जम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिस में
बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते
     एक छोटे से अर्धसत्य - अश्वत्थामा  हतो .... ने महाभारत का परिणाम बदल दिया था तो  सबने ध्यान दिया होगा कि चुनाव के इस महासमर में कितना असत्य बोला जा रहा है उसे देखते हुए यह स्पष्ट कल्पना की जा सकती है कि हमारा लोकतंत्र कैसा होगा। आज हम एक ऐसे मुकाम पर आ गए हैं जहां गली और लांछन की भाषा में लोकतंत्र बोलेगा। यह भाषा रोज खराब होगी और इसके घटिया होते जाने का  दृश्य देखने के लिये हम बाध्य होंगे। यह नाराज , आक्रामक और भक्त का भेड़ियाधसान शुरू हो चुका है इसमें सबसे ज्यादा विनाश लोकतांत्रिक परस्परता का हो रहा है । अगर यह रुका नहीं तो एक ऐसी पीढ़ी आएगी जिसे लोकतंत्र और संविधान में भरोसा ही नहीं रहेगा। चुनाव में भाषा की मर्यादा घट रही है और इस पर अंकुश लगाने में चुनाव आयोग विफल होता दिख रहा है। चुनाव का क्या होगा यह कहना कठिन है लेकिन इस दौरान लोकतंत्र पर जो भयानक आघात लग रहे हैं उनसे उत्पन्न घावों को भरना आसान नहीं होगा और उन घावों को भरने में सत्ता की दिलचस्पी नहीं रहेगी। वर्तमान समय में लोकतंत्र की चौकीदारी केवल सजग नागरिकता ही कर सकती है। लोकतंत्र खुद को परिवर्धित कर सकता है और इस लोकतांत्रिक आशा को छोड़ा नहीं जा सकता।हो सकता है कि अंदर ही अंदर नागरिकता सजग हो रही हो क्योंकि हम भरोसा करते हैं "संभवामि युगे युगे" पर। इस समय भी संभावनाएं सुलग रहीं हैं और समय आने पर निर्णायक रूप से प्रगट हों। यह उम्मीद गलत भी हो सकती है । फिर भी हम इस लोकतांत्रिक उम्मीद को छोड़ नहीं सकते।

Sunday, May 12, 2019

राहुल बड़े नेता हो ही गए

राहुल बड़े नेता हो ही गए

23 मई के बाद चुनाव का चाहे जो भी परिणाम हो, बेशक नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन जाएं पर इसमें भी कोई संदेह नहीं कि राहुल गांधी इस चुनाव के बाद भारत के एक बड़े नेता के रूप में दिखेंगे। राहुल गांधी इस लंबे चुनाव के दौरान चले व्यापक प्रचार अभियान में नरेंद्र मोदी के मुख्य प्रतिद्वंद्वी के तौर पर कायम रहे । जब मोदी जी ने राहुल के पिता राजीव गांधी, जिनकी 28 वर्ष पहले हत्या हो गयी थी ,  को " भ्रष्टाचारी नंबर एक " कहा  तो राहुल ने एक ट्वीट किया " मोदी जी अब जंग खत्म हो गयी,आपका आपकी प्रतीक्षा कर रहा है। आप अपने भीतर के आत्मबोध को मेरे पिता पर थोप रहे हैं यह आपकी रक्षा नहीं करेगा। आपको मेरा प्रेम और आलिंगन।"
   जब प्रधानमंत्री जी चुनाव के आखिरी दौर में राजीव गांधी को भ्रष्टाचारी कह कर शाबाशी लेनी चाही  तो राहुल ने बड़ी शांति ट्वीट किया कि " प्रिय मोदी जी , आपके हाल के बयान , इंटरव्यू, और वीडियो देश को यह साफ तौर पर बता रहे हैं कि आप दबाव से टूट रहे हैं।" उनका मंतव्य स्पष्ट था कि प्रधानमंत्री जी राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी को नीचा दिखाने के लिए  एक मृत नेता को भला बुरा कह कर तिनके का सहारा ले रहे हैं। राहुल गांधी ने इस चुनाव के दौरान मोदी जी के आरोपों का खंडन छोड़ दिया और केवल नपा तुला जवाब देते हैं। यह बताता है कि राहुल एक परिपक्व राजनीतिज्ञ और कांग्रेस के नेता बन गए हैं। भारत की राजनीति में एक हल्के फुल्के राजनीतिज्ञ के तौर पर प्रविष्ट  हुए राहुल ने खुद को एक ऐसे आत्मविश्वास पूर्ण नेता के रूप में बदल दिया जो यह भली प्रकार जानता है कि  चुनावी जंग में विपक्ष का जवाब कैसे दिया जाता है। उन्होंने देश के समक्ष उपस्थित बेरोजगारी,कृषि विपदा संस्थानों का अशक्त होता जाना ,कथित राफेल सौदे में भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर अपनी निगाह जमाये रखी  और इसकी परवाह नहीं कि मोदी जी और उनके चुनाव में राष्ट्रीय सुरक्षा को एक महत्वपूर्ण मसला बनाया है। हर चुनाव सभा में अपने प्रत्येक इंटरव्यू में राहुल ने सेना के राजनीतिकरण और नही पूरे हुए वायदों का जिक्र किया। सत्तरह ही उन्होंने यह बताया कि उनकी पार्टी की योजना क्या है। राहुल ने एक टी वी चैनल पर अपने इंटरव्यू में कहा कि अर्जुन की तरह मेरा निशाना केवल मछली की आंख पर है। कई लोगों को उन्होंने कहा कि " मैं प्रधानमंत्री जी को राफेल और अन्य मसलों पर बहस की चुनौती देता हूं। वे भारत के लोगों की आंखों में झांकें और मेरे सवालों का उत्तर दें।" एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि " मैने नहीं कहा कि चौकीदार चोर है बल्कि एक जनसभा मैन केवल कहा चौकीदार और भीड़ ने वाक्य पूरा किया चोर है।" राहुल गांधी ने एक अन्य इंटरव्यू में कहा कि त्रिशंकु लोकसभा की संभावना नहीं है । चूंकि लोग मोदी और अमित शाह से थोड़े डारे हुए हैं इसलिए खुल कर नहीं बोल रहे हैं। उन्होंने कहा कि भा ज पा नेताओं द्वारा आचार संहिता के उल्लंघन की शिकायत चुनाव आयोग से लगातार कर रही है पर आयोग क्लीन चिट दे रही है। राहुल ने आधा दर्जन शिकायतों को गिनाया। राहुल गांधी ने कहा कि यह दबाव है और उसकी छाप सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग और योजना आयोग पर साफ दिख रही है। राहुल गांधी ने कहा कि यह बोलना अच्छा नहीं लग रहा है फिर भी मुझे चुनाव आयोग से निष्पक्षता की आशा नहीं है। प्रधान मंत्री के कारण चुनाव आयोग थोड़े दबाव में है और जरा पक्षपाती ढंग से काम कर रहा है। उन्होंने कहा कि भारत के इतिहास में पहली बार यह है जब सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने सार्वजनिक रूप में कहा कि वे बहरत के लोगों से न्याय की मांग करते हैं।
       कुछ दिनों पहले तक पप्पू कह कर जिस राहुल की खिल्ली उड़ाई जाती थी आज उसी राहुल गांधी उन्होंने खुद को कितना विकसित किया है। 2015 में जब उन्होंने मोदी जी की सरकार को सूट-बूट की सरकार कहा था वही उनके बदलाव की शुरुआत थी। आज असफलताओं के कारण प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी पर हमले करने तथा अपनी पार्टी को एक विकल्प के रूप में पेश करने के अलावा वे कुछ और करने की कोशिश करते हैं। वे देश को यह दिखाना चाहते हैं कि वे एक आदर्श का पालन करते और मोदी जी नकी पार्टी उससे विपरीत है। बड़ी चालाकी से उन्होंने दक्षिणपंथी, मध्यमार्गी, उदार जैसे शब्दों को घृणा और प्रेम से बदल दिया है। अन्य शब्दों में कहें तो राहुल ने सत्ता की अपनी जद्दोजहद में नैतिक बल का सहारा लिया है। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि  हमारा देश भाईचारा और प्यार की भावना के लिए जाना जाता है। यह नये राहुल का प्रमाण है।23 मई के बाद चुनाव का नतीजा चाहे जो निकले पर राहुल गांधी एक बड़े राजनीतिज्ञ के रूप में जरूर दिखेंगे।





Friday, May 10, 2019

ये अंदाज ए गुफ्तगू क्या है

ये अंदाज ए गुफ्तगू क्या है

चुनाव जैसे-जैसे खत्म होने की ओर बढ़ रहा है बातचीत के अंदाज भी वैसे ही विचित्र होते जा रहे हैं । गालिब का एक बड़ा मशहूर शेर है -
"हर एक बात पे कहते हो तुम  कि तू क्या है,
तुम ही कहो ये अंदाज ए गुफ्तगू क्या है "

कुछ दिन पहले एक जुमला उठा कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री मोदी को कहा है कि उन्हें वह तमाचा मारेंगी। बाद में ममता बनर्जी ने सफाई दी कि उन्होंने कहा था कि लोकतंत्र का तमाचा मारेंगी । बात बढ़ती गई और प्रचारित होती गई। दोनों तरफ से सफाई तथा आरोप चलने लगे - "मैंने यह कहा और वह कहा। " गुरुवार को प्रधानमंत्री जी ने थप्पड़ वाली बात पर ममता जी पर जमकर हमला किया। बांकुड़ा और पुरुलिया में चुनावी सभाओं को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री जी ने कहा कि मुझे देश का प्रधानमंत्री ना मानकर ममता दीदी ने देश के संविधान का अपमान किया है । वह खुलेआम कहती हैं कि "उन्हें प्रधानमंत्री नहीं मानती, जबकि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को प्रधानमंत्री मानने में उन्हें गौरव होता है।" मोदी जी ने कहा कि हार के भय से ममता दीदी बौखला गई हैं और इसी कारण संविधान का अपमान कर रही हैं। उन्होंने कहा कि "सुना है की ममता दीदी मुझे थप्पड़ मारना चाहती हैं। मैं उनका सम्मान करता हूं उनका थप्पड़ भी मेरी आशीर्वाद होगा । " जबकि बात यह थी कि गत मंगलवार को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने  कहा था नरेंद्र मोदी को लोकतंत्र का करारा थप्पड़ लगाना चाहिए। इसके जवाब में मोदी जी ने कहा कि तृणमूल सुप्रीमो को उन लोगों को तमाचा मारना चाहिए जिन्होंने चिटफंड के नाम  पर लोगों की गाढ़ी कमाई के रुपए लूटे हैं। अगर आप तोला बाजों (जबरदस्ती वसूली करने वालों) को तमाचा मारती  तो आज ट्रिपल टी का दाग नहीं लगता। उन्होंने ट्रिपल टी  को स्पष्ट करते हुए बताया कि इसका अर्थ तृणमूल तोला बाज टैक्स है । उन्होंने कहा कि फनी तूफान के समय उन्होंने ममता बनर्जी को दो बार फोन किया था, लेकिन ममता बनर्जी ने बात नहीं की। उन्होंने सुपर साइक्लोन के बाद देश के प्रधानमंत्री से बात करना भी जरूरी नहीं समझा। सरकार वरिष्ठ अधिकारियों के साथ मिलकर हालात का जायजा लेना चाहती थी लेकिन दीदी ने ऐसा नहीं होने दिया। प्रधानमंत्री ने अपने विशेष अंदाज में कहा कि दीदी को 23 मई को पहला झटका लगेगा और उसी दिन से तृणमूल सरकार के अंत की शुरुआत होगी।  जो अवैध घुसपैठिए तृणमूल काडर बन गए हैं और बंगाल की बेटियों को परेशान कर रहे हैं उन्हें चिन्हित कर उनका हिसाब किया जाएगा। जिन्होंने यहां गणतंत्र को गुंडा तंत्र बनाया है उन के दिन पूरे हो गए हैं। 23 मई के बाद भारत का संविधान सभी का हिसाब करेगा।
        उधर दीदी ने इसका जमकर विरोध किया और पुरुलिया  में चुनाव सभाओं में कहा कि वह  प्रधानमंत्री को क्यों थप्पड़ मारेंगी? थप्पड़ तो लोकतंत्र का होगा और जनता मारेगी। ममता जी ने कहा, जरा भाषा को समझिए मैं आपको पत्थर क्यों मारूंगी? बंगाल की मिट्टी के लड्डू खिलाऊंगी । उन्होंने कहा कि " प्रधानमंत्री जी उन पर यानी उनकी पार्टी पर तोला बाजी के आरोप लगा रहे हैं । अगर यह आरोप प्रमाणित होता है तो वह अपने सभी उम्मीदवार वापस ले लेंगी, वरना वे (मोदी जी) सौ बार उठक बैठक करें। ममता जी ने अपने खास अंदाज में कहा, "मेरे पास भी एक पेन ड्राइव है जिसमें कई भाजपा नेताओं के कच्चे चिट्ठे हैं । अगर उसे बाजार में छोड़ दूं तो कई नेताओं और मंत्रियों के नाम सामने आएंगे। "
         यहां बात यह नहीं है कि किसने क्या कहा और सही क्या है बात है।   राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों पर हमले स्वाभाविक हैं लेकिन उस का एक स्तर होना चाहिए और उसकी सीमा होनी चाहिए। संविधानिक पदों पर आसीन व्यक्तियों को ऐसी बातें शोभा नहीं देती। बेशक हमें भ्रष्टाचार इत्यादि खत्म करना है लेकिन उससे भी पहले हमें झूठ की सियासत और धोखेबाजियों को खत्म करने के उपाय करने होंगे। जो लोग चुनाव प्रचार के दौरान आम जनता के बीच मिथ्या बोलें उन्हें दंडित किया जाए। तभी चुनाव में पारदर्शिता आएगी और लोग इस तरह की बातें नहीं कर सकेंगे। इन बातों को सुनकर ऐसा लग रहा है कि हम न जाने  इतिहास के किस मोड़ पर खड़े हैं ,नैतिकता का कितना पतन होगा और इस तरह के वाक युद्ध का अंत कहां होगा?  प्रश्न उठता है कि क्या 23 मई के बाद यह लोकतंत्र सही स्वरूप में कायम रहेगा, यह संविधान सही रूप में कायम रहेगा? हमारी जिम्मेदारी क्या है? राजनीतिक पार्टियां जिस तरह से नैतिक पतन की ओर बढ़ रही हैं उससे तो लगता है एक नई  तरह की हिंसा की शुरुआत होगी, जिसमें इंसान की या कहें आम जनता की प्रतिष्ठा की सबसे पहले हत्या होगी। यहां यह समझना बहुत जरूरी है कि हमारी संसद या विधान सभाएं राजनीतिक पार्टियों का जमावड़ा नहीं हैं। संसद या विधानसभाओं का हर सदस्य भारतीय जनता का प्रतिनिधित्व करता है और वह जिन शर्तों को पूरा करके वहां पहुंचा है उन्हीं शर्तों को पूरा करने के कारण ही सत्तारूढ़ दल या कहें प्रधान मंत्री या मुख्यमंत्री भी पहुंचते हैं। जब एक नेता अपने विपक्षी नेता के बारे में अपशब्द कहता है या मिथ्या आरोप लगाता है तो उसे इस बात के लिए भी सोचना चाहिए कि वह केवल उस नेता पर ही उंगली नहीं उठा रहा है या उसकी बेइज़्ज़ती नहीं कर है बल्कि वह उस पूरी जनता को भी अपशब्द कह रहा है जिसने उसे चुना है। वह देश की जनता का अपमान कर रहा है। वह नेता देश की जनता की वैचारिक क्षमताओं और मेधा का अपमान कर रहे हैं। यह वक्त आ गया है जब हमारी सिविल सोसायटी इस मामले को लेकर खड़ी हो।