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Sunday, March 25, 2012

घुटने टेकता ओडिशा, डरा हुआ बंगाल



हरिराम पाण्डेय (26.3.2012)
माओवादियों ने शनिवार को ओडिशा के सत्ताधारी दल के एक विधायक का अपहरण कर लिया। इसके पहले उन्होंने आंध्र ओडिशा बार्डर स्पेशल जोन के गंजम जिले के सरोदा इलाके से दो इतालवी पर्यटकों का अपहरण कर लिया था। पुलिस ने बताया कि इनमें से एक को रिहा कर दिया है। इसके पूर्व कोरापुट जिले के आलमपद इलाके में उनके द्वारा बिछायी गयी बारूदी सुरंग को हटाने के क्रम में दो पुलिसवाले मारे गये और एक घायल हो गया था। यही नहीं बरगढ़ में एक ठेकेदार की माओवादियों ने गोली मार कर हत्या कर दी। यह सब गत एक हफ्ते में हुआ। यह सब तब हुआ जब माओवादियों को गत एक साल में भारी नुकसान हो गया था, खासकर उनके नेतृत्व काडर में। इन घटनाओं को देखकर लगता है कि ओडिसा में उनकी क्षमता अभी भी सरकार को पंगु बना देने के लिये काफी है। माओवादियों द्वारा किसी विदेशी पर्यटक के अपहरण की यह पहली घटना थी। परंतु इस मामले में माओवादियों का प्रयास कम और अवसर का हाथ ज्यादा था। क्योंकि दोनों इतालवी पर्यटक उस क्षेत्र में क्यों गये थे यह अभी तक ज्ञात नहीं हो सका है। इनमें एक बासकुसो पाउलो मामूली 'एडवेंचर टूअर ऑपरेटरÓ है तथा दूसरा, क्लाउडियो कोलांगिलो एक पर्यटक हैं और उस क्षेत्र में उनका कोई प्रयोजन नहीं दिखता है। माओवादियों द्वारा जारी सी डी में उन्हें उस इलाके में घूमता हुआ पकड़ा गया था। माओवादियों द्वारा जारी सी डी में कहा गया गया था उनका अपराध है कि 'अन्य विदेशियों की तरह वे उस क्षेत्र के आदिवासियों से बंदरों की तरह बरताव कर रहे थे और उनका मजाक बना रहे थे।Ó इस क्षेत्र में बोंडा आदिवासी निवास करते हैं और जब इस वर्ष फरवरी में 'टूअर आपरेटरोंÓ ने इस क्षेत्र के पर्यटन की योजना प्रकाशित की तो सरकार ने इस पर तत्काल रोक लगा दी। सरकारी रेकाड्र्स के मुताबिक बासकुसो ने इस इलाके के पर्यटन के लिये अनुमति मांगी थी पर सरकार ने नामंजूर कर दिया था। परंतु उसने इस अस्वीकृति को ताक पर रख कर उस इलाके में पर्यटक को ले जाने का दुस्साहस किया। इन्हें रिहा करने के लिये माओवादियों ने 13 मांगें रखी हैं। इनमें अधिकांश वही हैं जो मलकान गिरि के जिला मजिस्ट्रेट विनील कृष्ण के अपहरण के समय पेश की गयीं थीं। विनील कृष्ण का अपहरण गत 16 फरवरी 2011 को हुआ था और लम्बी वार्ता चली थी और आठ दिन के बाद वे रिहा हो सके थे। माओवादियों ने इस बार सरकार की वार्ता की पेशकश को मानने से इनकार कर दिया है। उनका कहना है कि उस बार जो वायदे किये गये थे वे पूरे नहीं हुए। इस बार उन्होंने जो मांगें रखी हैं उनमें प्रमुख हैं , राज्य भर में माओवादियो के खिलाफ चलाये जा रहे अभियान को बंद किया जाय और शुभश्री पंडा उर्फ मिली सहित 600 माओवादियों को रिहा किया जाय। शुभश्री पंडा ओडिशा राज्य आार्गेनाइजिंग कमिटि के सचिव सब्यसाची पंडा की पत्नी है और इसके नियंत्रण में गंजाम जिला है जहां से दोनो इतालवी पर्यटकों का अपहरण किया गया है। इसके अलावा जिन लोगों को रिहा करने की मांग की गयी है वे हैं गणनाथ पात्र। गणनाथ पात्र नारायण पटना के 'चासी मुलिया आदिवासी संघÓ के सलाहकार हैं और नारायण पटना में नहीं घुसने की शर्त पर इनकी जमानत हो चुकी है पर उन्होंने जेल से निकलना स्वीकार नहीं किया। इनके अलावा है माओवादियों की केंद्रीय मिलिटरी कमीशन के सदस्य आशुतोष सौरेन। मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने मानवता के आधार पर अपहृत लोगों को रिहा कर देने की अपील की है। सरकार ने कहा है कि 'कानून के दायरे में उनसे बातचीत की जायेगी।Ó माओवादियों ने वार्ता के लिये तीन मध्यस्थों के नाम पेश किये हैं। इनमें से एक सी पी आई (माओवादी) की पोलित ब्यूरो का सदस्य नारायण सान्याल है जो कि फिलहाल झारखंड की गिरिडीह जेल में बंद है, दूसरा है, दंडपाणि मोहंती और तीसरा है विश्वप्रिय कानूनगो। मोहंती विनील कृष्ण के अपहरण के समय भी मध्यस्थ थे और मोहंती पेशे से वकील हैं तथा सब्यसाची पंडा की बीवी शुभश्री की पैरवी वही कर रहे हैं। यहां यह बता देना प्रासंगिक है कि विनील कृष्ण के अपहरण के समय हो रही वार्ता के दौरान केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने मुख्यमंत्री को सलाह दी थी कि वे किसी माओवादी की रिहाई न स्वीकारें क्योंकि इससे एक गलत नजीर बनेगी। लेकिन मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने उनकी सलाह नहीं मानी थी। इस बार भी लगता नहीं है कि सरकार कुछ ज्यादा दृढ़ता दिखायेगी, क्योंकि मसला दो विदेशियों का और एक विधायक का है और माओवादियों ने स्पष्टï चेतावनी दे दी है कि वे बंधकों को समाप्त कर देंगे। माओवादी अपनी बात से डिगेंगे या भविष्य में कोई बहुत बड़ा परिवर्तन आयेगा ऐसा नहीं लगता बशर्ते सरकार ने कोई बहुत बड़ी कमजोरी ना दिखायी। वैसे भी सब्यसाची पंडा अपनी पार्टी में बहुत उपेक्षित हैं और एक बार उनपर अनुशासनात्मक कार्रवाई भी हो चुकी है। हो सकता है कि उन्होंने अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिये ये अपहरण किया हो। ऐसी स्थिति में ओडिशा में भारी हिंसा की आशंका है और वह हिंसा पश्चिम बंगाल के सीमा क्षेत्रों में भी फैल सकती है।

क्या हम इस तंत्र को लोकतंत्र कह सकते हैं



हरिराम पाण्डेय ( 24.3.2012)
सरकार और जनता के रिश्तों पर बात करनी हो तो बड़ी कठिनाई होती है। अब पिछले साल राम लीला मैदान में आधी रात को हुई पुलिस कार्रवाई की ही बात लें। इस पर गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया। फैसले ने उस सबसे बड़े सवाल को रेखांकित कर दिया है जिससे हमारा लोकतंत्र मौजूदा दौर में जूझ रहा है। वह है विश्वास की कमी। देश की आम जनता अगर शांतिपूर्ण विरोध के मकसद से इक_ा होती है और वह किसी तरह की तोडफ़ोड़ जैसी गतिविधियों में शामिल नहीं होती, शांतिपूर्वक मैदान में बैठी रहती है तो यह सोचने का कोई कारण नहीं बनता कि अगले दिन कुछ ज्यादा लोग जमा हो जाएं तो कानून व्यवस्था के लिए खतरा पैदा हो जाएगा। आखिर सरकार अपने ही लोगों से इस कदर आशंकित क्यों रहती है कि शांति भंग होने की आशंका से निपटने के लिए उसकी पुलिस को शांति भंग करनी पड़ जाती है? इस आशंका को किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए स्वाभाविक तो नहीं ही कहा जाएगा।
मगर, बात दूसरी तरफ भी जाती है। लोगों का भी सरकार पर वैसा ही अविश्वास है। उनका अपने नेताओं पर, अपने मंत्रियों पर, अपने विधायकों-सांसदों पर कोई यकीन नहीं रह गया है। यह बात एक बार नहीं बार-बार रेखांकित हुई है। तो सवाल यह है कि आखिर जनता अविश्वसनीय नेताओं को क्यों स्वीकार किए हुए है? इस सवाल के दो ही जवाब हो सकते हैं। पहला जवाब तो वे सारे नेता और वे सब लोग देते हैं जिन्हें शासकों की जमात में शामिल किया जा सकता है। वह जवाब यह है कि दरअसल लोगों का अपने प्रतिनिधियों, नेताओं, मंत्रियों यानी शासकों पर अविश्वास है ही नहीं। मीडिया और अण्णाा हजारे, बाबा रामदेव जैसे चंद निहित स्वार्थी तत्व दुष्प्रचार करते हैं। अगर जनता का नेताओं पर भरोसा नहीं होता तो वह इन्हें क्यों कर बर्दाश्त करती? वह इन्हें बर्दाश्त किए जा रही है, अपने आप में यही एक तथ्य काफी है यह साबित करने को कि जनता नेताओं पर भरोसा करती है और कमोबेश असंतोष के साथ उनके नेतृत्व को स्वीकार करती है।
दूसरा जवाब यह है कि जनता का अपने नेताओं पर कोई भरोसा नहीं रहा है। वह अगर इन्हें बर्दाश्त कर रही है तो उसकी इकलौती वजह यह है कि उसके पास कोई बेहतर विकल्प नहीं है। इस जवाब के पक्ष में सबूत के तौर पर यह दलील ठोकी जाती है कि जब भी जनता को बेहतर विकल्प मिलता दिखता है - चाहे वह अण्णा हजारे हों या कोई और- तो वह उस विकल्प की ओर बढ़ती है। ऐसा गैर राजनीतिक विकल्प आम जनता में जिस तरह का जोश अचानक जगा देता है, उसी से साबित हो जाता है कि आज के पूरे राजनीतिक वर्ग से जनता किस कदर खफा है।
सबूतों के अभाव में किसी एक फैसले पर पहुंचना मुश्किल होने की वजह से हर कोई अपनी सुविधा और सहूलियत के हिसाब से किसी एक दलील को स्वीकार कर लेता है। इतना तय है कि अगर आप पहला जवाब चुनते हैं तो आपको यह मानना होगा कि आज के नेता-मंत्री जो भी कर रहे हैं उसी में देश का भला है। जहां तक थोड़े-बहुत असंतोष की बात है तो उससे निपटने के लिए कभी अलां, कभी फलां को चुनते रहें। 'सभी नेता चोर हैंÓ और 'सारे एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैंÓ जैसे बयान देने का अधिकार आपके पास नहीं रह जाएगा।
अगर आप दूसरे जवाब को चुनते हैं तो और बड़ी दिक्कत में फंसेंगे। उस केस में आप इतना कहकर नहीं बच पाएंगे कि जनता ने सभी दलों को खारिज कर दिया है। आपको नया लोकतांत्रिक विकल्प भी सुझाना पड़ेगा। अगर आपको भी कोई विकल्प नहीं सूझ रहा हो तो फिर नया विकल्प खोजने या नया विकल्प बनाने की जिम्मेदारी भी आपके सिर आएगी। इन दोनों कठिन जवाबों में से कौन सा जवाब चुनना चाहिए इस कठिन सवाल पर आप माथापच्ची करें, हम उस सवाल पर लौटते हैं जिसे सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने रेखांकित किया है, विश्सवनीयता की कमी का सवाल। तो अगर नेताओं को जनता पर और जनता को नेताओं पर भरोसा नहीं रह गया है और फिर भी दोनों एक-दूसरे का पल्लू थामे हुए हैं तो सोचिए क्या हम इस तंत्र को लोकतंत्र कह सकते हैं?

नहीं सुधरेगा उत्तर प्रदेश



हरिराम पाण्डेय ( 23.3.2012)
समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने अपनी पार्टी के नेताओं - कार्यकत्र्ताओं के लिये निर्देश जारी किया है कि वे आम जनता के बीच अच्छा आचरण प्रस्तुत करें। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भी कहा कि वे अपनी पार्टी के कार्यकत्र्ताओं की गुंडागर्दी बिल्कुल नहीं बर्दाश्त करेंगे। जातिगत और सांप्रदायिक राजनीति का गढ़ होने की वजह से देश की सबसे ज्यादा आबादी वाले इस महत्वपूर्ण प्रांत में काफी समय से वस्तुत: सरकार नाम की कोई चीज थी ही नहीं। चुनाव के दौरान उन्होंने वादा किया कि उनकी सरकार आयी तो विकास और उन्नति की बातें होंगी। बदले की राजनीति नहीं होगी, आपराधिक तत्वों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और उनसे सख्ती से निपटा जाएगा। जनता ने उनकी बातों पर एतबार कर लिया। चुनाव के दौरान डी पी यादव जैसे मंत्री को टिकट नहीं देकर उन्होंने अपने वायदों पर चलने की उम्मीद भी जगायी थी परंतु शपथ ग्रहण के बाद से जो कुछ भी हो रहा है वह बहुत खतरनाक संकेत है। अखिलेश को निर्णायक बहुमत मिलने के कुछ दिनों के भीतर ही दावों और वादों की हकीकत सामने आने लगी। समाजवादी पार्टी के जीतते ही उसके समर्थक गुंडागर्दी पर उतर आए। कुछ जगहों से रिपोर्टें आयीं कि विजय जुलूस के दौरान समर्थक हथियार लहराते देखे गए। यह एक तरह से चेतावनी थी कि अब हम से मत टकराना। बात यहीं नहीं रुकी। अखिलेश ने समझौता करने की पारंपरिक राजनीति के सामने हथियार डाल दिए और अपनी कैबिनेट में 'कुंडा का गुंडाÓ के नाम से मशहूर बाहुबली कुंवर रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया को शामिल कर लिया।
बात यहीं खत्म हो जाती, तो भी संतोष होता। इससे भी बुरा होना था। मंत्रियों में जब विभागों का बंटवारा हुआ तो राजा भैया को जेल मंत्री बनाया गया। अखिलेश और उनके विचारों के प्रबल समर्थकों के लिए भी यह किसी झटके से कम नहीं था।
राजा भैया का आपराधिक इतिहास रहा है। वह अब भंग हो चुके पोटा कानून के तहत जेल में रहे हैं और उनके घर पर रेड मारने वाले पुलिस ऑफिसर की हत्या के आरोपी हैं। संदेहास्पद परिस्थिति में पुलिस अधिकारी की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गयी थी। सीबीआई अभी भी इस मामले की जांच कर रही है। इसके अलावा भी उनके खिलाफ मुकदमों की लंबी लिस्ट है। इस विधानसभा चुनाव के दौरान राजा भैया ने चुनाव आयोग में जो हलफनामा जमा किया है, उसके मुताबिक उनके खिलाफ लंबित आठ मुकदमों में हत्या की कोशिश, अपहरण और डकैती के मामले भी शामिल हैं। उत्तर प्रदेश गैंगेस्टर ऐक्ट के तहत भी उनके खिलाफ मामला चल रहा है।
अखिलेश लंबे-चौड़े वादे के साथ सत्ता में आये हैं और शासन (सुशासन) के लिए तरस रही सूबे की जनता उनकी ओर उम्मीद भरी निगाह से देख रही है। जैसा कि पड़ोसी राज्य बिहार ने दिखाया है कि वोटर भी अंत में केस और संप्रदाय की राजनीति के बजाय उन्नति और विकास को तरजीह देते हैं। हो सकता है कि कुछ लोग तर्क दें कि उत्तर प्रदेश जैसे सूबे में जहां प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ आरोप तय किए जाने में जाति और दूसरी बातों का ध्यान रखा जाता है, राजा भैया एक पीडि़त हैं और उनके खिलाफ ज्यादातर मामले झूठे हैं। राजा भैया को कैबिनेट में शामिल किए जाने पर पूछे गए सवाल के जवाब में अखिलेश ने भी यही तर्क दिया। पर, क्या अखिलेश ने यह नहीं सुना है कि सार्वजनिक जीवन जीने वाले और उनके सहयोगियों को शंका से परे होना चाहिए। एक तो दागी को मंत्री बनाया, उस पर से उसे जेलों का इंचार्ज बना दिया। जहां तक लोगों के नजरिए की बात है, तो निश्चित रूप से यह उन्हें पचता नहीं दिख रहा है। और, नजरियों का प्रबंधन बेहद जरूरी है। यह एक चोर को पुलिस का दर्जा देने जैसा है। यानी आशंका है कि फिर वही सब होगा जो अबतक यूपी में होता आया है। महाकवि धूमिल से क्षमा याचना के साथ उनकी पंक्तियों में मामूली संशोधनों के बाद कह सकता हूं कि 'इतना बेशरम हूं कि उत्तर प्रदेश हूॅं....।Ó

प्रख्यात अालोचक डा नामवर सिंह के साथ एक सेमिनार में





महात्मा गांधी अंतरराष्टरीय विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित विचार गोष्ठी में विख्यात समालोचक एवं विश्वविद्यालय के कुलाधिपति डा. नामवर सिंह एवं सन्मार्ग हिंदी दैनिक के सम्पादक हरिराम पाण्डेय