15 अक्टूबर 2013 उत्साह से सराबोर दुर्गापूजा समाप्त हो गयी। चार दिनों तक महानगर के लाखों लोगों को केवल उत्सव की सुध थी और कुछ नहीं। इस बीच तूफान आया, बारिश हुई पर उत्साह की चमक कहीं फीकी होती नहीं दिखी। कहते हैं दुर्गापूजा का इतना उत्साह दुनिया में कहीं देखने को नहीं मिलता। लेकिन विजयादशमी के दिन से ही जो बात सबसे ज्यादा खटकने लगी वह थी पूजा के दौरान सड़कों पर लगे मां दुर्गा और अन्य देवी , देवताओं के चित्र जो फट कर बिखर गये थे और पैरों से रौंदे जा रहे थे। इस बीच एक सुधी पाठक एस पी बागला ने टेलीफोन कर पूछा कि क्या देवी- देवताओं के चित्रों का ऐसा अपमान उचित है और इसे रोकने के लिये क्या उपाय किये जाएं? अचानक उत्तर नहीं सूझा। सचमुच , यह एक विकट समस्या है कि उन्मुक्त समाज को किसी ऐसे नियम से आबद्ध नहीं किया जा सकता जो सर्वमान्य न हो साथ ही ऐसे मसलों को रोकने के लिये कानून बनाने की बात सोची भी नहीं जा सकती। तब इसका एक मात्र तरीका है कि आस्थावान जन समुदाय में देवी- देवताओं के चित्रों के अपमान को रोकने की चेतना जागृत की जाय। आखिर क्यों जिन देवी-देवताओं की मंगलमूर्तियां अपने मन मन्दिर में संजोकर नित्य आराधना में तल्लीन रहते हैं उन देवी-देवताओं का अपमान अनजाने में हम किस तरह कर बैठते हैं इस पर मनन की आवश्यकता है। जब विदेशों में चप्पलों और अन्त: वस्त्रों पर देवी-देवताओं के चित्र छपते हैं तो इसका घोर विरोध होता है लेकिन अपने ही देश में और अपने ही घर में हम अपने देवी-देवताओं का अनवरत अपमान करते जा रहे हैं। इसी तरह विवाह निमंत्रण पत्रों पर देवी-देवताओं के चित्र देना गलत है, लगभग हर निमंत्रण पत्र पर विघ्नविनाशक अपनी पूरी सुन्दरता के साथ मौजूद होते हैं। अब आखिर कितने कार्ड संभाल कर रखे जा सकते हैं और वो भी कितनी देर ? इससे धार्मिक मूल्यों का अपमान होता है। विवाह के कार्ड के निमंत्रण पत्र पर देवी-देवताओं के चित्र तो लगाए जाते हैं लेकिन कार्यक्रम समाप्ति के पश्चात उन्हें कूड़ेदान में फेंक कर स्वयं ही अपमानित कर बैठते हैं। लोग जहां थूकते हैं या अन्य तरह की गंदगी करते हैं तो उन्हें रोकने के लिये उन गंदे स्थानों पर विभिन्न देवी देवताओं के चित्र बने टाइल्स लगाये जाते हैं, क्या आप अपने स्वर्गीय मां- बाप के चित्र वहां लगाने देेंगे? इतना ही नहीं सरसों तेल के डब्बे पर भगवान के ट्रेड मार्क को दिखा - दिखा कर और प्रचारित कर उत्पादक और विक्रेता अमीर हो गये उसी सरसों तेल के भगवान के चित्र लगे डब्बे जब टॉयलेट में इस्तेमाल किये जाते हैं और हम जरा भी ध्यान नहीं देते। अगर देवी- देवताओं के चित्र वाले चुनाव चिन्हों पर रोक लग सकती है तो इन चित्रों के ट्रेडमार्क के रूप में उपयोग पर क्यों नहीं बंदिशें लगायी जा सकती हैं? यही नहीं, घरेलू उपयोग के अन्य सामान अथवा किराने के रैपर , चाबी के छल्ले , अखबार के विज्ञापन, की होल्डर आदि में भी अलग- अलग देवी- देवताओं की तस्वीर नजर आ जाती है अब इनमे से कितनी चीजें संभाल कर रखी जा सकती हैं ? आखिर मंदिर के अहाते में बने बरगद, पीपल के पेड़ों पर भी आप कितनी तस्वीरें अर्पण कर सकते हैं। वहां से भी साफ -सफाई के बाद कूड़ा घर में ही जाती है यह सामग्री। प्यार और सम्मान तो हम अपने अभिभावकों का भी करते हैं पर क्या उनकी तस्वीरों का इस तरह सार्वजनीकरण कर अपमानित होते देख सकते हैं ? अपने इष्ट देवों को हम आत्मीय और अभिभावकों से भी ऊंचा दर्जा देते हैं फिर उनका इस तरह अपमान क्यों ? इस प्रकार हर स्थान पर बेवजह उनकी तस्वीरों का प्रयोग कर हम उनके प्रति सम्मान प्रकट कर रहे हैं या अपमान? क्या इस तरह अपने देवी- देवताओं का सार्वजानिक उपयोग कर हम उनका अपमान नहीं कर रहे हैं? क्या अपने देवी- देवताओं के प्रति सम्मान और श्रद्धा प्रकट करने का और कोई बेहतर विकल्प हमारे पास नहीं है। जरा सोचिये।
Saturday, October 19, 2013
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