भारत गांवों का देश है। यहां फौज के जवानों की अगर इज्जत है तो गांवों में अन्न उपजाने वाले किसानों की भी बराबर प्रतिष्ठा है। इसी कारण लाल बहादुर शास्त्री ने नारा दिया था‘जय जवान , जय किसान।’ यही नहीं जवानों और किसानों की तुलना करते हुये पेशे से सख्त पुलिस अफसर और दिल से बेहद कोमल कवि एवं गायक मृत्युंजय कुमार सिंह ने लिखा :
तोहsरो बलम कप्तान सुनs सजनी
हमsरो बलमुआ किसान, हो सजनी,
तोहsरो बलsमुआ के मथवा पs टोपिया
करेले ऊ खूनsवा के दान
तs हमsरो बलsमुआ के माथे रे पगड़िया
करे ले ऊ अनsवा के दान सुन सजनी
इस बेहद संवेदनशील गीत में जो सामाजिक सामंजस्य है वह अब खत्म होता जा रहा है या कहें खत्म हो गया। अब सियासत ने अन्नदाता को मतदाता बना दिया तथा मत ले कर उनसे अन्न छीनने के बाद उनके ऋण माफ कर स्वयं का जय-घोष करने वाले क्या अब कुछ मानवीय होंगे? किसान की आत्म हत्या हमारी संवेदना की मौत का दृश्य है । सूखे, फटे, उजड़े, खेतों के किसी अनजान कोने में वह मर जाने वाले उस किसान की पीड़ा से राष्ट्र अनजान ही रहता है। उसके खाली बर्तनों में अन्न नहीं है। कुचले डिब्बों में दाना नहीं, फटे कुर्ते में सिक्के नहीं। वह क्या करेगा। राजधानी के मध्य में बदलाव लाने का दावा करने वाली सरकार की सभा में एक किसान की खुदकुशी चाहे जितने कानूनी और सियासी पहलुओं के दरवाजे खोलती है लेकिन इसका सबसे बड़ा पक्ष है कि अब तक जिन किसानों को सरकारें इस्तेमाल करती रही हैं ये मौतें उनका पीछा करेंगी। किसानों की आमदनी के स्रोत राजनीतिज्ञों की बनायी नीतियों ने सोख लिया अब किसान विवश हैं। दिल्ली में जो आत्महत्या हुई है वह इसी विवशता का प्रतिबिम्ब है। वह प्रयास बना जीवन से मुंह मोड़ने का। वह प्रथम रहा जो हजारों किसानों को जिंदा जता गया कि जितने भी उन्हें इकट्ठे कर जोड़ने का जतन दिखा रहे हैं, वे उन्हें तोड़ने का तांडव कर रहे हैं। किसान जुड़ जाएंगे तो खेतों में पसीना बहाकर सोना निकालेंगे। रैलियों में क्यों जाएंगे? दिल्ली एक किसान मरता रहा और और मुख्यमंत्री भाषण देते रहे। गुरूवार को संसद में शोर मचा यानी मौत भी उनके लिये अवसर बन गयी है।
मृत्युंजय अपने धुन में गाते हैं
तोहsरो बलsमुआ के छाती पs के तsकमा में
चमsकेला देसवा के सान
तs हमsरो बलsमुआ के गेहूँआ के बलिया में
दमsकेला धरsती के जान सुनs सजनी
लेकिन सुनता कौन है। जिसे सुनना है वह तो मौके की तलाश में है। जिन देशवासियों ने रात को समाचार देखे-सुने, उन्हें भरोसा नहीं हुआ कि नेता, हर एक पार्टी के नेता, ‘किसान आत्महत्या क्यों करते हैं’ पर भयानक आरोप-प्रत्यारोप में लीन थे।
जंतर मंतर पर हजारों लोगों की भीड़ के सामने पेड़ से लटक कर खुदकुशी कर लेने वाले राजस्थान के किसान गजेंद्र सिंह की मौत अपने पीछे कई सवाल भी छोड़ गई है । ये सवाल एक तरफ जहां आम आदमी पार्टी और उसके नेताओं के रवैये को लेकर हैं, तो दूसरी तरफ पुलिस प्रशासन और व्यवस्था संभाल रहे लोगों के साथ-साथ आसपास मौजूद अन्य लोग भी सवालों के घेरे में हैं। सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि जब गजेंद्र फांसी लगा रहे थे, तब किसी ने उन्हें रोकने की कोशिश क्यों नहीं की? ऐसा कैसे हुआ कि हजारों लोगों की भीड़ के बीच पेड़ पर चढ़े एक शख्स ने खुदकुशी कर ली और करीब 15-20 मिनट तक किसी का उस तरफ ध्यान ही नहीं दिया। कहते हैं कि, अपनों के मरने पर जानवर तक दुखी हो जाते हैं लेकिन ये दुखी नहीं हुये , कौन सी प्रजाति के जानवर हैं ये। जय-जवान, जय-किसान का देश हमेशा याद रखेगा। जिस राष्ट्र का किसान हताश, वहां हर तरक्की बिखरते परिवारों को रौंदकर होगी।
तोहsरो बलम कप्तान सुनs सजनी
हमsरो बलमुआ किसान, हो सजनी,
तोहsरो बलsमुआ के मथवा पs टोपिया
करेले ऊ खूनsवा के दान
तs हमsरो बलsमुआ के माथे रे पगड़िया
करे ले ऊ अनsवा के दान सुन सजनी
इस बेहद संवेदनशील गीत में जो सामाजिक सामंजस्य है वह अब खत्म होता जा रहा है या कहें खत्म हो गया। अब सियासत ने अन्नदाता को मतदाता बना दिया तथा मत ले कर उनसे अन्न छीनने के बाद उनके ऋण माफ कर स्वयं का जय-घोष करने वाले क्या अब कुछ मानवीय होंगे? किसान की आत्म हत्या हमारी संवेदना की मौत का दृश्य है । सूखे, फटे, उजड़े, खेतों के किसी अनजान कोने में वह मर जाने वाले उस किसान की पीड़ा से राष्ट्र अनजान ही रहता है। उसके खाली बर्तनों में अन्न नहीं है। कुचले डिब्बों में दाना नहीं, फटे कुर्ते में सिक्के नहीं। वह क्या करेगा। राजधानी के मध्य में बदलाव लाने का दावा करने वाली सरकार की सभा में एक किसान की खुदकुशी चाहे जितने कानूनी और सियासी पहलुओं के दरवाजे खोलती है लेकिन इसका सबसे बड़ा पक्ष है कि अब तक जिन किसानों को सरकारें इस्तेमाल करती रही हैं ये मौतें उनका पीछा करेंगी। किसानों की आमदनी के स्रोत राजनीतिज्ञों की बनायी नीतियों ने सोख लिया अब किसान विवश हैं। दिल्ली में जो आत्महत्या हुई है वह इसी विवशता का प्रतिबिम्ब है। वह प्रयास बना जीवन से मुंह मोड़ने का। वह प्रथम रहा जो हजारों किसानों को जिंदा जता गया कि जितने भी उन्हें इकट्ठे कर जोड़ने का जतन दिखा रहे हैं, वे उन्हें तोड़ने का तांडव कर रहे हैं। किसान जुड़ जाएंगे तो खेतों में पसीना बहाकर सोना निकालेंगे। रैलियों में क्यों जाएंगे? दिल्ली एक किसान मरता रहा और और मुख्यमंत्री भाषण देते रहे। गुरूवार को संसद में शोर मचा यानी मौत भी उनके लिये अवसर बन गयी है।
मृत्युंजय अपने धुन में गाते हैं
तोहsरो बलsमुआ के छाती पs के तsकमा में
चमsकेला देसवा के सान
तs हमsरो बलsमुआ के गेहूँआ के बलिया में
दमsकेला धरsती के जान सुनs सजनी
लेकिन सुनता कौन है। जिसे सुनना है वह तो मौके की तलाश में है। जिन देशवासियों ने रात को समाचार देखे-सुने, उन्हें भरोसा नहीं हुआ कि नेता, हर एक पार्टी के नेता, ‘किसान आत्महत्या क्यों करते हैं’ पर भयानक आरोप-प्रत्यारोप में लीन थे।
जंतर मंतर पर हजारों लोगों की भीड़ के सामने पेड़ से लटक कर खुदकुशी कर लेने वाले राजस्थान के किसान गजेंद्र सिंह की मौत अपने पीछे कई सवाल भी छोड़ गई है । ये सवाल एक तरफ जहां आम आदमी पार्टी और उसके नेताओं के रवैये को लेकर हैं, तो दूसरी तरफ पुलिस प्रशासन और व्यवस्था संभाल रहे लोगों के साथ-साथ आसपास मौजूद अन्य लोग भी सवालों के घेरे में हैं। सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि जब गजेंद्र फांसी लगा रहे थे, तब किसी ने उन्हें रोकने की कोशिश क्यों नहीं की? ऐसा कैसे हुआ कि हजारों लोगों की भीड़ के बीच पेड़ पर चढ़े एक शख्स ने खुदकुशी कर ली और करीब 15-20 मिनट तक किसी का उस तरफ ध्यान ही नहीं दिया। कहते हैं कि, अपनों के मरने पर जानवर तक दुखी हो जाते हैं लेकिन ये दुखी नहीं हुये , कौन सी प्रजाति के जानवर हैं ये। जय-जवान, जय-किसान का देश हमेशा याद रखेगा। जिस राष्ट्र का किसान हताश, वहां हर तरक्की बिखरते परिवारों को रौंदकर होगी।