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Sunday, July 26, 2015

पत्र पत्रिकाओं का साहित्य की भाषा को अवदान


 उत्तर प्रदेश ​​हिन्दी संस्थान द्वारा 23-24 जुलाई 2015 को वाराणसी में आयोजित राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन में ‘समाचार पत्र और साहित्य : बदलते आयाम ’ संगोष्ठी में ब्लागर हरिराम पाण्डेय द्वारा ‘पत्र पत्रिकाओं का साहित्य की भाषा को अवदान’ विषय पर दिया गया व्याख्यान।

पत्र पत्रिकाओं का साहित्य की भाषा को अवदान

- हरिराम पाण्डेय

सम्पादक सन्मार्ग, कोलकाता

यहां स्पष्ट कर दें कि मीडिया का सामान्य अभिप्राय समाचारपत्र, पत्रिकाओं, टेलीविजन, रेडियो, इंटरनेट आदि से लिया जाता है। ये आधुनिक मीडिया के चर्चित और प्रभावशाली रूप हैं, जो सूचनाओं के संग्रहण एवं संप्रेषण का दायित्व बाखूबी निभाते हैं। समाचार पत्र और पत्रिकाएं आज समाज के सभी वर्गों के बीच रुचि से पढ़े जाते हैं । यहां यह बहुत महत्वपूर्ण है कि पत्रकारिता की भाषा कोई वायवीय आ आकाशीय भाषा नहीं है न ही व विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की तरह अलग है । उसका संबंध तो सीधा जनता एवं उसके सरोकारों से है । पत्रकारिता की भाषा जीवन की भाषा से अलग नहीं है, वह जिंदगी के साथ हंसती, खेलती, बतियाती हुई चलने वाली भाषा है । समाचार पत्रों की भाषा न तो सर्वथा और शुद्ध साहित्यिक है न ही आम-फहम । वह दोनों के बीच की एक चीज है जो वस्तुतः लोकव्यवहार से प्रभावित होती है। डेनियल डेफो के अनुसार – ‘यदि कोई मुझसे पूछे कि भाषा का सर्वोत्तम रूप क्या हो, तो मैं कहूँगा कि वह भाषा, जिसे सामान्य वर्ग के भिन्न-भिन्न क्षमता वाले पांच सौ व्यक्ति (मूर्खों एवं पागलों को छोड़कर) अच्छी तरह समझ सकें।’ जहां तक ,साहित्य का शब्दार्थ है, सबका कल्याण, सः हितः, यानी ऐसी युक्ति ऐसा नियोजन, ऐसा माध्यम, ऐसी संप्रेरणा जिसके पीछे किसी एक वर्ग-जाति-धर्म-समाज-समूह-संप्रदाय-देश के बजाय समस्त विश्व-समाज के कल्याण की भावना सन्निहित हो। साहित्यकार के पास भरपूर कल्पनाशीलता और विश्वदृष्टि होती है। अपनी नैतिक चेतना से अभिप्रेत, कल्पनाशीलता के सहयोग से वह श्रेयस् के स्थायित्व एवं उसकी सार्वत्रिक व्याप्ति के लिए शब्दों तथा अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमों द्वारा प्राणीमात्र के कल्याण का प्रयोजन रचता रहता है। संपूर्ण चराचर जगत के कल्याण यानी ‘सर्व भूत हिते रतः’ की सद्कामना ही साहित्यकार का अभीष्ठ होती है। सृजन के आनंदोत्सव के दौरान वह न तो ‘राजपाट की वांछा रखता है, न स्वर्ग, न ही मोक्ष आदि की। वह सच्चे मन से कामना करता है कि प्राणिमात्र के दुःखों और व्याधियों का अंत हो। सभी सुखी हों, सभी निर्भीक होकर मुक्त विचरण करें।
समाचार पत्र  जीवन के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, व्यावसायिक, खेलकूद एवं चलचित्र आदि सभी पक्षों की प्रस्तुति करते हैं । इसलिए एक औसत भारतीय की समझ एवं परिवार के समस्त सदस्यों की रुचि के विषय एवं उनकी समझ में आने वाली भाषा का विचार यहाँ निरंतर चलता रहा है । भाषा के सवाल पर अखबार को सदैव अपने पाठकों की बौद्धिक क्षमता और अवधारणा शक्ति के अनुरूप बनने के प्रयास करना होता है । ऐसे अनेक कारणों से उसकी भाषा में व्यापकता, सर्वजन सुबोधता, प्रयोगधर्मिता और लचीलापन होता है, जो उसे एक विशिष्टता प्रदान करता है । भाषा शास्त्रियों ने इस तथ्य की ओर बराबर संकेत किया है कि प्रयोग क्षेत्रों के अनुसार भाषा एक विशिष्ट स्वरूप धारण कर लेती है । इसी प्रकार उसकी शब्दावली एवं भाषायिक समझ का विकास होता चला जाता है । पत्रकारिता की भाषा की यही स्थिति है । हालांकि पत्रकारिता के भाषायी स्वरूप एवं उसके जन सरोकारों को लेकर बराबर बहस चलती रही है पर वह आज तक किसी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंची है। साहित्य की भांति पत्र-पत्रिकाओं को भी समाज का दर्पण कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। पत्र-पत्रिकाओं में प्रारंभ से ही साहित्य का एक निश्चित हस्तक्षेप रहा है। प्रारम्भिक दौर के प्राय: अनेक महत्वपूर्ण साहित्यकार या तो पत्र-पत्रिकाओं के संपादक रहे हैं, या किसी न किसी रूप में पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े रहे हैं। साहित्य की विकास यात्रा को समझने के लिए पत्र-पत्रिकाओं को महत्वपूर्ण माध्यम के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। साहित्य में जहां प्राणिमात्र का अंत: और बाह्य जगत चित्रित होता है, वहीं पत्र-पत्रिकाओं में समाज एवं जीवन का प्रतिबिम्ब अंकित होता है। हिंदी समाज, भाषा और साहित्य की संरचना में पत्र-पत्रिकाओं ने महती भूमिका निभाई है। पत्र-पत्रिकाओं से नवजागरण का कार्य तो होता रहा, इसके साथ साहित्य और भाषा में संशोधन भी होता रहा। विदेशी साहित्य के संपर्क में आए हिन्दी के साहित्यकारों के लेखन पर इस साहित्य का प्रभाव स्वाभाविक रूप से पड़ रहा था। विदेशी साहित्य से प्राप्त ज्ञान को इन पत्र-पत्रिकाओं ने दूर-दूर तक पहुँचाने का कार्य किया, अनेक नवोदित रचनाकार पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से ही जाने गए। पत्रिकाओं के माध्यम से सामान्य जन की समस्याओं को भी प्रभावकारी ढंग से जनमानस और शासन के सामने रखा जा सका। इससे समाज में व्यक्ति स्वातंत्र्य की चेतना पैदा हुई । हिंदी साहित्य को 1886-1900 ई. के बीच विशेष दिशा मिली और नवजागरण में तेजी आई। इस समय पत्र-पत्रिकाओं के लेखों और उनकी रचना प्रक्रिया में भी परिवर्तन हुआ, साथ ही साहित्यिक पत्रिकाओं के प्रकाशन में भी वृद्धि हुई। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी पत्रकारिता को एक महत्वपूर्ण स्थान पर प्रतिष्ठित किया । उन्होंने लेखों और पुस्तकों में व्याकरण और भाषा की अशुद्धियाँ दिखाकर लेखकों को सावधान किया, जिसके जरिये भाषा में एक व्यवस्था स्थापित करने का प्रयास किया। सरस्वती पत्रिका में जो लेख छपते थे, उनके विषय विविध होते थे। महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित सरस्वती बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक चरण का विश्वकोष है। वे विविध विषयों के विद्वानों से हिंदी में लेख लिखवाकर छापते थे। द्विवेदी जी शास्त्र और सर्जना दोनों पर ध्यान देते थे। उन्होंने सरस्वती के माध्यम से साहित्यिक रचनाओं की अशुद्धियों को दूर करने का कार्य किया, जिससे हिंदी साहित्य को संशोधित, प्रचारित और प्रसारित होने का अवसर मिला। अनेक शास्त्रीय रूढिय़ां टूटीं, जिससे साहित्यिक उद्देश्य व्यापक हुआ। इस पत्रिका के माध्यम से खड़ी बोली में राष्ट्रभाषा और राजभाषा बनने की क्षमता प्राप्त हुई। पहली हिंदी कहानी भी सरस्वती पत्रिका में ही प्रकाशित हुई। पत्रिकाओं से भाषा और साहित्य का साथ-साथ विकास हुआ। पत्रिकाओं का मूल लक्षण भावों और विचारों का सटीक एवं व्यापक संप्रेषण है जो मानव हित में हो। पत्र-पत्रिकाओं ने साहित्य की विधाओं के विकास में सहयोग किया है। इनके प्रारंभ के बाद से ही कहानी, उपन्यास, जीवनी, आत्मकथा, यात्रा वृत्तांत, संस्मरण, गद्यगीत, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आलोचना, समालोचना, डायरी और निबंध आदि विधाओं को पल्लवित और पुष्पित करने में पत्रिकाएं सदैव अग्रणी रहीं हैं। साहित्य जीवन को प्रतिबिंबित करता है और इसके जरिये  समाज का बौद्धिक विकास होता है। साहित्य और पत्रिकाओं का मुख्य लक्ष्य मानव समाज में एकता एवं पारस्परिकता की भावना स्थापित करना है । मानव के भावों विचारों की सरल अभिव्यक्ति का प्रमुख साधन साहित्य है, जो अपनी विभिन्न विधाओं द्वारा रचनाकार की लेखनी से प्रकाशित होता है।
इसके लिए रचनाकार को उसकी रचनाओं के लिये कच्चा माल आपूर्ति करने की गरज से  एक ओर  समाचार पत्र और पत्रिकाएं जहां सरकार और सत्ता-केंद्रों यथा धर्मसत्ता, राजसत्ता, अर्थसत्ता आदि की योजनाओं, कार्यक्रमों तथा उपलब्धियों को जनता के बीच ले जाती है। उनकी विशेषताओं, कमजोरियों और खामियों पर समालोचनात्मक विमर्श करता है, वहीं वह जनता की इच्छा-आकांक्षाओं, सपनों, उसकी अंदरूनी हलचलों और विभ्रमों को भी उसके दूसरे वर्गों एवं विभिन्न सत्ता-केंद्रों तक पहुंचाने का कार्य करती है। संवादवहन की इस प्रक्रिया में तथ्यों एवं घटनाओं के प्रस्तुतीकरण की ईमानदारी और निस्पृहता ही उसकी व्यावसायिक नैतिकता को रेखांकित करती है। लोकतांत्रिक समाजों में जनता चूंकि अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से स्वयंशासित होती है, इसलिए उनमें मीडिया का दायित्व और भी बढ़ जाता है। इतिहास में ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं जब मीडिया की शक्ति एवं लोकमानस पर उसकी पकड़ को पहचानते हुए महान लोगों ने उसका उपयोग लोक-परिवर्तन के अहिंसक, प्रभावशाली और भरोसेमंद हथियार के रूप में किया है। यहीं  साहित्य इस परिवर्तन को रेखांकित करते हुये कालजयी रचनाओं को जन्म देता है।
शब्द से भाषा का सृजन होता है। शब्द  अपने आप अर्थ नहीं ग्रहण करते , वे सदा एक खास प्रकार के कॉन्सेप्ट से जड़े होती हैं। शब्दों के अर्थ सदा एक बिम्ब तैयार करते हैं और वही बिम्ब अर्थ बन कर हमारे मन में उभरते हैं। अगर शब्दों की बात करते हैं तों तो 70 के दशक के पहले तक उसका अर्थ एक रचनात्मक और सोद्देश्यपूर्ण क्रांतिकारी के रूप में उभरता था और अचानक वह आज के नौजवानों के बीच विध्वंसक अर्थ लेकर प्रगट होता है। यह नया अर्थ उसे मीडिया ने ही दिया। जैसे नवजागरण काल के पहले की खाक और खाकी नवजागरण काल में खाकी वर्दी के रोब और आदर्शों का बिम्ब था और अब जुल्म तथा भ्रष्टाचार का बिम्ब पैदा करता है। यहां कहने का अर्थ है कि साहि​त्यिक बिम्ब विधान के लिये शब्द बिम्बों की आपूर्ति समाचार पत्र और पत्रिकाएं ही करतीं हैं।
बेशक आप पत्र पत्रिकाओं की भाषा को चाहे जितना कोस लें लेकिन यह स्वीकार करने में संकोच नहीं होना चाहिये कि वस्तुत: पत्रपत्रिकाएं जितनी बड़ी जनसंख्या को छूती हैं, विशुद्ध साहित्य का उतनी बड़ी जनसंख्या तक पहुँचना असंभव है।  समाज के जिस वर्णपट तक इसकी पहुंच होती है और जिस स्तर से इसका संवाद हाता है वहां साहित्य नहीं पहुंच सकता और उस वर्ग की अशाओं, सपनों एवं पीड़ा  को चित्रित करने के लिये साहित्य को माटी के शब्द सदा पत्र पत्रिकाओं से ही लेने होते हैं। बस हमें याद रखना होगा कि मीडिया और साहित्य दोनों अन्योन्याश्रित हैं, उनके बीच अटूट-सी सहसंबद्धता है, उनके वर्तमान संबंध भले ही अस्पष्ट और दुविधामय नजर आते हों।


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