30नवम्बर 2015
राजनीति शास्त्र में एक शब्द है ‘कोर्स करेक्शन।’ यानी जनता से जुड़ने के क्रम में जो गलती हो रही हो उसे साथ ही साथ सुधार लेना। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का शुक्रवार को भाषण इसी ‘कोर्स करेक्शन’ का उदाहरण है। देश के मौजूदा सामाजिक और राजनीतिक माहौल में शुक्रवार का दिन पूरी तरह से मोदी के नाम रहा। पहले लोकसभा में, फिर घर पर विपक्षी नेताओं सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के साथ जीएसटी से जुड़े गतिरोध पर सीधी बातचीत करके। लेकिन मुमकिन है कि मोदी भक्तों को यह भाषण उतना नहीं भाया होगा, जैसा अभ्यास उन्हें बीते डेढ़ साल से होता रहा है। मोदी ने देशवासियों को एक और बहुत ही सकारात्मक सन्देश दिया कि हर वक्त ये सोचना बन्द करें कि उनके अधिकार क्या-क्या हैं? बल्कि अपने गिरेबान में झांककर देखें कि हमारे कर्तव्य क्या-क्या हैं? इस लिहाज से प्रधान सेवक ने नौकरशाही में बैठी अपनी पूरी सेवक-मंडली को एक ही झटके में बुरी तरह से आड़े-हाथों ले लिया। मोदी जी की ये बेजोड़ नसीहत है। सच पूछिए, तो देश को नयी ऊंचाइयों पर ले जाने का सारा मंत्र इसी बात में समाहित है। भारत का यही सबसे कमजोर पहलू है कि हमें अपने कर्तव्य का होश नहीं रहता और दूसरों में ऐब ढूंढ़ने निकल पड़ते हैं। जिस दिन ये प्रवृत्ति बदलेगी, उस दिन भारत महाशक्ति और विश्व-गुरु दोनों बन जाएगा। मोदी जी ने अपने 60 मिनट के भाषण में कहा कि 60 सालों में कुछ न कुछ जरूर हुआ। सिर्फ कचड़ा नहीं फैला। 26 मई 2014 से पहले भी देश उतना ही महान था, जितना आज है। नेहरू से लेकर सोनिया तक मोदी ने तंज नहीं कसा। जहां जरूरत हुई, उनकी तारीफ की। राहुल की तारीफ की। सबकी तारीफ की। पूरी समग्र राजनीतिक सिस्टम की बात की जिसमें कांग्रेस हो या बीजेपी या लेफ्ट, सबको एक तराजू पर तौला। राहुल ने दागी नेताओं को संसद में आने से रोकने वाला ऑर्डिनेंस फाड़ा तो उसका जिक्र किया। नेहरू किस तरह विपक्ष को स्पेस देते थे, इसका भी जिक्र आया। सोनिया की बात में बात मिलायी। लोकसभा में यह ऐसा शायद ही देखा गया है, जब पूरा सदन मोदी से सहमत था। 'रेयरेस्ट ऑफ रेयर' पोजिटिविटी थी माहौल में। लोकतंत्र अपने सबसे खूबसरूत रूप में था, लेकिन इस 60 मिनट में उनके समर्थकों की एक टोली को ताली बजाने का मौका नहीं मिला, जिसके लिए वे मोदी का भाषण सुनने के लिए हर बार बैठते रहे हैं। मोदी जी के हर भाषण के बाद सपोर्टरों की यह टोली भुजाएं फड़काते हुए नेहरू से लेकर राहुल तक की कुंडली निकालती है। हम जैसे लोग ऐसे अगर सवाल उठाएं, तो तुरंत आईएस से सहानुभूति रखने वाला कह देंगे। कांग्रेसी, खुजलीवाल का एजेंट कह देते हैं। चंद साल पहले जब रेप की कई घटनाओं के बाद एक निर्भया गैंगरेप के बाद पूरे देश में सड़क पर उग्र आंदोलन होता है तो पूरा देश एक साथ एक मंच पर आता है। इस मुद्दे पर आंदोलन करने वालों को किसी ने किसी का एजेंट नहीं कहा, न देश को बदनामी का खतरा बताया गया, न इसमें साजिश दिखी, न असहिष्णुता दिखी। लेकिन दादरी जैसी घटना और भड़काने वाले बयानों के बाद जब शांति तरीके से आंदोलन हुआ तो इसमें उनके समर्थकों को साजिश दिखी। विरोध करने वालों में आतंकी दिखा। सोचिए, अगर कोई आपके मत के विरोध में है तो आप उसे आईएस से जोड़ें, देशद्रोही बोलें तो क्या असहिष्णुता का मामला नहीं है? शुक्रवार को प्रधानमंत्री जिस संविधान की बात कर रहे थे, जिस लोकतंत्र को इस देश की आत्मा बता रहे थे, वह सुनने की परंपरा के बीच ही बना और विकसित हुआ है। जिसे अज्ञान में हिंदुत्व की परंपरा कहा जाता है- जो बहुत सारी वैचारिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक शाखाओं के मेल से बनी है, उसमें सुनने पर बहुत जोर है। लोकतंत्र कहने और देखने से ज्यादा सुनने से बनता है। लेकिन हम सुनने को तैयार नहीं। हम बस बोलते जाने के हामी हैं। पिछले दो महीने में जिन लेखकों- बौद्धिकों- वैज्ञानिकों- कलाकारों को लगातार असहिष्णु बताकर उन पर हमले होते रहे, जिन्हें बनावटी विद्रोह और कागजी क्रांति का गुनहगार ठहरा दिया गया, वे बस इस लोकतंत्र की परंपरा के मुताबिक कुछ कहना भर चाह रहे थे। वे याद दिलाना चाह रहे थे कि समाज के सड़े -गलेपन के खिलाफ, उसकी सांप्रदायिक जकड़न के खिलाफ जो लोग बोल रहे हैं, जो नई परिपाटी बनाने की कोशिश कर रहे हैं, उन पर हमले हो रहे हैं, उन्हें मारा जा रहा है, उनकी बात तक नहीं सुनी जा रही है। इस देश के लोकतंत्र के लिए, इस देश की जनता के लिए और उन मूल्यों के लिए वह सब जरूरी है, शुक्रवार को प्रधानमंत्री लगातार जिनकी बात करते रहे। लेकिन यह जवाब सिर्फ भाषणों से नहीं मिलेगा, अन्याय और हिंसा के विरुद्ध न्याय और शांति की उन वास्तविक पहलकदमियों से मिलेगा, जो लोगों के भीतर यह भरोसा जगाए कि लोकतंत्र की मजबूरियां और संविधान की समझ वाकई प्रधानमंत्री को बदल रही हैं।
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