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Monday, February 29, 2016

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी

कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी
मंगलवार को कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्यालय में वैसे ही कथित राष्ट्र विरोधी नारे लगे। यानी दिल्ली की आंच कोलकाता तक पहुंच गयी, अभी कहां- कहां जायेगी यह तो समय बतायेगा। इस पूरे प्रकरण में दो बातें देखने को मिल रही हैं, पहली कि जे एन यू से गिरफ्तार छात्र नेता कन्हैया कुमार के बारे में खुफिया विभाग की रपट है कि उसने नारे नहीं लगाये थे, यानी उसे केवल शक के बिना पर पकड़ लिया गया। दूसरी बात कि भाजपा विरोधी राजनीतिक दलों ने एक नयी तरह की सियासत की शुरुआत की है वह है दुश्मनी की सियासत। भाजपा का राजनीतिक विरोध करने के बजाय उससे राजनीतिक दुश्मनी की जाये, देश की चिन्ता करने की जरूरत तो आज किसी को भी नहीं है, चाहे वो भाजपा ही क्यों न हो। भाजपा के राजनीतिक सोच को भी जैसे लकवा मार गया है, उसे यही नहीं पता कि किस मामले में कितना आगे जाना है और किसको जाना है। इसकी शरुआत रोहित वेमुला की मौत से हुई। मामला यहां तक बिगड़ गया कि भाजपा उस मुद्दे से बचने के रास्ते ढूंढ़ने लगी और उसे अचानक बैठे बिठाये जेएनयू मुद्दा हाथ लग गया । जैसे राहुल गांधी और केजरीवाल को रोहित वेमुला का मुद्दा हाथ लग गया था । कितनी अजीब बात है कि जब एक पत्रकार केजरीवाल से पठानकोट हमले पर उनकी राय जानना चाहता है तो वो कहते हैं कि वे दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं और उन्हें केवल दिल्ली से मतलब है, लेकिन जब उन्हे रोहित की आत्महत्या की खबर मिलती है तो वो कूड़े के ढेर पर बैठी दिल्ली को लावारिस छोड़कर हैदराबाद पहुंच जाते हैं। यह ठीक है कि जेएनयू मुद्दे पर सभी राजनीतिक पार्टियां सक्रिय हो गई हैं, लेकिन इससे संसद के बजट सत्र से पहले अगर किसी एक पार्टी की राजनीतिक मुश्किलें बढ़ने की आशंका होती है, तो वह भाजपा ही है। यह ध्यान देने की बात है कि मोदी सरकार के कार्यकाल में पहली बार किसी मुद्दे पर कांग्रेस, जदयू, आप और वाम पार्टियां एकजुट हुई हैं। बल्कि जेएनयू में नारेबाजी को देशद्रोह का मुद्दा बना चुकी भाजपा अगर इस मामले में अकेली पड़ जाती है, उसका कोई गठबंधन सहयोगी भी इस मुद्दे पर उसके साथ नहीं होता, तो उसका यह दांव गलत ही माना जाएगा। फिलहाल वह इस मुद्दे पर भले ही मजबूत जमीन पर खड़ी दिख रही हो, लेकिन आगामी बजट सत्र उसके लिए मुश्किल होने वाला है। संसद के पिछले सत्रों में भी कामकाज नहीं हुए थे। यहां एक सवाल बड़ी शिद्दत के साथ उठता है कि जेएनयू में जो भी घटनाक्रम चल रहा है, धीरे-धीरे उसकी असलियत सामने आ जाएगी लेकिन उस घटना के बाद आम लोग इस तरह भड़के हुए हैं कि खुलेआम गोली मार देने की बात करने लगे हैं। राष्ट्रवाद और देशप्रेम के अंतर को समझने की कोशिश कीजिये। देश प्रेम एक अमूर्त्त ​स्थिति है, इसमें देश के हर नागरिक से प्रेम की बात होती है, यह मानवता है और राष्ट्रवाद एक तरह से मूर्त्त अवस्था है। इसमें आहिस्ता निषेध पैदा होता है। इसमें एक बेसबब परंपरावाद का जन्म होता है और इंसान अतीत का बंदी हो जाता है। अमर्त्य सेन ने अपनी पुस्तक ‘द आग्यूमेंटेटिव इंडियंस’ में रवींद्र नाथ टैगोर पर लिखे एक अध्याय में यह बताने का प्रयास किया है कि ‘आजादी की लड़ाई के दौरान होने वाले आंदोलनों में अतिरेक राष्ट्रवादी रुख की टैगोर हमेशा निंदा करते थे। यही वजह थी कि वह समकालीन राजनीति से खुद को दूर भी रखते थे। वह आज़ाद भारत की कल्पना करते थे, लेकिन वह यह भी मानते थे कि घोर राष्ट्रवादी रवैये और स्वदेशी भारतीय परंपरा की चाह में पश्चिम को पूरी तरह नकार देने से कहीं न कहीं हम खुद को सीमित कर देंगे। यही नहीं स्वदेशी की इस अतिरिक्त चाह में हम अलग-अलग शताब्दी में भारत पर अपनी छाप छोड़ चुके ईसाई, यहूदी, पारसी और इस्लाम धर्म के प्रति भी असहिष्णु रवैया पैदा कर लेंगे।’ जरा सोचिये, जिस दिन सरकार आपको रोटी मुहैया नहीं करवा पायेगी, साफ पानी उपलब्ध नहीं करवा पायेगी, 10 घंटे के लिए बिजली काटने लगेगी, सोचियेगा कि क्या तब आप इस देश के सिस्टम पर सवाल उठाएंगे या नहीं। क्या आपने कभी सवाल उठाए हैं या नहीं? सवाल उठाते हैं तो आप देशद्रोही नहीं हो जाते हैं। इस देश में हर तरह के असामाजिक तत्व हैं, अपराधी हैं, बलात्कारी हैं, भ्रष्टाचारी हैं, दंगाई हैं। इनके होने से भी इस देश के टुकड़े नहीं हुए और किसी के नारे लगाने से भी नहीं होंगे। बाकी देशों की तरह हमारे देश में भी कमियां हैं, इस पर बात होनी चाहिए ताकि उन्हें दूर किया जा सके। राजनीति के लिए धर्म और राष्ट्रवाद तो हथियार रहा है, दुनिया का इतिहास इसका गवाह है। जब बात सत्ता की आती है तो अपराधियों से भी समझौते कर लिए जाते हैं। हम लोग नासमझी में किसी का एजेंडा पूरा करने लगते हैं। उनका अपना एक वैल्यू सिस्टम है। जैसे परिवार में सब लड़ते-झगड़ते हैं। उतना ही एक-दूसरे का ध्यान भी रखते हैं। त्याग करते हैं। फैमिली वैल्यू सिस्टम है। यही फिर बड़ा आकार लेकर भारतीय समाज की रचना करता है। जो देश का, सभी धर्मों, सभी संस्कृतियों का सम्मान करने के आधार पर बना समाज है। इसीलिए भारत की ‘बर्बादी’ हो ही नहीं सकती।
कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी।
सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-जमां हमारा।।