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Wednesday, April 7, 2010

6/4 : भारत के इतिहास में एक और काला दिवस

6 अप्रैल 2010 : भारत के इतिहास में एक और काला दिवस। यह कालिख विद्रोहियों से निपटने की क्षमता पर पुती है। लगभग 1000 माओवादियों- नक्सलियों के जत्थे ने रोड सुरक्षा से लौटी सी आर पी एफ की टीम पर घात लगाकर हमला किया और 75 जवानों को मौत के घाट उतार दिया। इनके अलावा दंतेवाड़ा जिले का एक पुलिस कर्मी भी मारा गया। हमलावरों ने पहाड़ी पर मोर्चा लगाया था। अब यह नहीं मालूम हो सका कि सी आर पी एफ के जवान जिस राह से जा रहे थे वह वस्तुत: पक्की सड़क थी या मोटर चलने लायक जंगली सड़क। जिस तरह से यह हमला हुआ और जिस परिमाण में नक्सली एकत्र हुये थे उससे साफ लगता है कि उन्हें सी आर पी एफ की गतिविधियों के बारे में पूरी जानकारी थी। विद्रोहियों के शमन की कार्रवाई के अंतर्गत पुलिस या सुरक्षा बलों को सबसे पहला अहतियात यह है कि किसी भी ऑपरेशनल इलाके में जाने के बाद कभी भी उस पथ का अनुसरण ना करें जिससे गये थे। हमले का शिकार हुए सी आर पी एफ के दल ने इस साधारण नियम का भी पालन नहीं किया। अब इसका कारण चाहे लापरवाही हो या माओवाद प्रभावित इलाके में विकास के अभाव में सड़कों की कमी हो। अबसे कोई दो साल पहले की घटना है कि आंध्र प्रदेश पुलिस का एक दल नौका से उड़ीसा गया था। माओवादियों ने भांप लिया कि वह दल उसी रास्ते लौट रहा है जिस राह गया था। बस क्या था उन्होंने हमला कर 50 पुलिस कर्मियों को मौत के घाट उतार दिया। हमने नदी में घटी उस घटना से कुछ नहीं सीखा और सड़क पर उसकी पुनरावृत्ति हो गयी। विद्रोहियों से निपटने के लिये बनाये गये नियमों का पालन तक नहीं कर पा रहे हैं ये सी आर पी एफ के जवान। सी आर पीएफ और जिला पुलिस वालों को बिना सड़क और बिना बेतार संचार के माओवाद प्रभावित इलाकों में ऐसे काम करने होते हैं जिसमें कभी प्रशंसा मिलने से रही। माओवादियों को जंगलों के रास्ते दूर- दूर तक पैदल चलने की आदत है जबकि हमारे सुरक्षा कर्मी मोटरों पर चलते हैं लिहाजा उनकी जल्द और आसानी से शिनाख्त हो सकती है। माओवादी उनपर विस्फोटकों और बारूदी सुरंगों से औचक हमला करते हैं और फिर बाकी बचे लोगों पर छोटे हथियारों से कहर ढा देते र्है। ऐसा शायद ही सुनने को मिला है कि माओवादियों के घेरे में फंसने के बाद कोई सुरक्षाकर्मी दल बच कर आ सका हो। ग्रामीण पुलिस व्यवस्था की अपनी मजबूरियां हैं और जिला पुलिस के नक्सली गिरोहों में घुसपैठ कर पाने में पुलिस की नाकामयाबी की अपनी कहानी है। विद्रोहियों को कुचलने में जुटी व्यवस्था के लिये सबसे जरूरी है ग्रामीण खुफियागिरी और माओवादियों की गतिविधियों पर निगाह रखने के लिये हेलीकॉप्टर से पेट्रोलिंग। इन नक्सलियों के पास भारी मात्रा में हथियार और गोला-बारूद है और साफ है कि नक्सलियों ने न केवल अपनी संगठित और बड़ी सेना बना ली है, बल्कि उन्हें जंगल वारफेयर में या जंगल में युद्ध लडऩे में भी महारत हासिल है। केंद्र और छत्तीसगढ़ सरकार को यहाँ तक मालूम नहीं कि एक हजार लोगों की इस नक्सली सेना को हथियार कहाँ से मिल रहे हैं। इसलिए यह कहना वाजिब होगा कि सरकार को नक्सलियों की असल ताकत का आभास तक नहीं था। जो प्रारंभिक तस्वीर उभर रही है, वह बताती है कि नक्सलियों ने अपने को कहीं तमिल मुक्ति चीतों (लिट्टे) की तरह तो संगठित नहीं कर लिया है? कहीं यह एक अपरिभाषित से गृहयुद्ध की दस्तक तो नहीं है? यदि सरकार को ऐसा जरा-सा भी संदेह लग रहा हो तो उसे अपनी लड़ाई को आमूल-चूल बदलना होगा और इन इलाकों में ऐसे लोगों को भेजना होगा, जो जंगल वारफेयर में दक्ष हों। उन्हें आधुनिकतम हथियार उपलब्ध कराने होंगे। आदिवासियों के हक की यह लड़ाई बंदूक के बल पर सत्ता परिवर्तन की लड़ाई के रूप में कहीं बदल तो नहीं रही है? ऐसा ही नेपाल में हो चुका है और नेपाली माओवादियों के साथ भारत के माओवादियों के सक्रिय संबंध रहे हैं। अतीत में भी उन्होंने अन्यत्र संघर्ष विराम के मौके का लाभ अपने को फिर से संगठित करने में किया है। सरकार एक मोटी-मोटी राजनीतिक सर्वानुमति बनाकर इस समस्या से निपटने के लिए जो भी उचित हो तत्काल करे। हां, यह ध्यान रखा जाए कि निर्दोष आबादी की जान-माल का नुकसान न हो।

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