CLICK HERE FOR BLOGGER TEMPLATES AND MYSPACE LAYOUTS »

Saturday, January 7, 2012

31 दिसम्बर 2011 को दिल्ली और चंडीगढ़ से प्रकाशित आज समाज में सम्पादकीय पेज पर प्रकाशित लेख


व्यापक मानवाधिकार क्रांति की जरूरत
- हरिराम पाण्डेय
आजादी के तुरत बाद नेता और प्रशासन मीडिया को 'मैनेजÓ कर समाज और विभिन्न जनसमुदायों में अपने कार्यो के प्रति धारणाओं का निर्माण करती थी। इसी 'मैनेजमेंटÓ के बल पर कई शासनकाल स्वर्णिम हो गये। इसके बाद एक परिवर्तन आया। उसमें सरकार मडिया से मिलकर जनता में बनने वाली धारणाओं को 'मैनेजÓ करती थी। आपातस्थिति के दौरान यह प्रयोग नाकाम साबित हुआ। अब एक नयी स्थिति पैदा हो गयी है। अब धारणाओं को ही नियंत्रित करने का प्रयास किया जा रहा है। पश्चिम बंगाल की ताजा राजनीति में दो स्थितियां इसका स्पष्टï उदाहरण हैं। पहली स्थिति है उद्योगीकरण के विरोध में ममता बनर्जी का लोगों के दिलो दिमाग पर छा जाना और दूसरा अस्पताल अग्निकांड में सरकार के कामकाज के प्रति प्रकार के विरोध के स्वर का अभाव।
वाम मोर्चा ने विगत 30 वर्षों के शासन काल में यहां के समाज की सामाजिक धारणाओं को एक रेखीय कर दिया था। जिसमें सत्ता को आदर्शों से जोड़ कर जनधारणाओं में विरोध को न्यूनतम कर दिया गया था। वर्ग संघर्ष का नारा देने वाली सरकार ने सबसे ज्यादा हानि संघर्ष को ही पहुंचायी लेकिन तब भी कुछ नहीं हुआ। समाजिक स्तर पर किसी प्रकार के विप्लव की चिंगारी नहीं दिखी। धारणाओं को 'मैनेजÓ करने का इससे बढिय़ा उदाहरण नहीं मिलेगा। उद्योगीकरण के उद्देश्य से भूमि अधिग्रहण को ममता जी ने बंगाल के विपन्न समाज की एक रेखीय मानसिकता को जनता के अस्तित्व से जोड़ दिया और उससे उत्पन्न स्थिति को बदलाव का कारक बना दिया। लेकिन समाज के सोच का ढांचा नहीं नहीं बदल सका। ममता जी ने इसके लिये ठीक वही 'ऑडियो- विजुअल Ó तरीका अपनाया जो आजादी की लड़ाई के आखिरी दिनों में महात्मा गांधी ने अपनाया था। इसमें धारणाओं को 'मैनेजÓ नहीं बल्कि उन्हें नियंत्रित किया जाता है। इसका ताजा उदाहरण है आमरी अस्पताल कांड।
इस अस्पताल के बेसमेंट में एक रात अचानक आग लग गयी और पूरा अस्पताल गाढ़े धुएं से भर गया। दर्जनों मरीज मारे गये। सरकार ने आनन-फानन में अस्पताल प्रबंधन के लोगों को गिरफ्तार करने का आदेश दिया और मुआवजे की घोषणा कर दी। विदेशी नेताओं ने भी सहानुभूति जाहिर की। सरकार से किसी को भी कोई शिकायत नहीं। लेकिन इस डर से इंकार नहीं किया जा सकता कि अगले चंद दिनों में ऐसी भयानक घटना फिर होगी। यह घटना इतिहास में गुम हो जायेगी। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
इसमें सबसे हैरतअंगेज बात है कि यह कांड प्रशासन और सिविल सोसायटी के सामुदायिक चिंतन की असफलता का प्रतीक है। धारणाओं को नियंत्रित करने वाले इस शासन तंत्र में उम्मीद है कि इस दिशा में कभी भी जोरदार ढंग से बात नहीं उठेगी। लोकतंत्र में ऐसी घटना हुई और अब तक कोई सार्थक कारवाई नहीं हो पायी यह न केवल स्तम्भित करने वाली घटना है बल्कि निंदनीय भी है। हमारा राज्य या हमारा मुल्क कहां है और उसका भविष्य क्या होगा वह इसीसे पता चलता है कि ऐसी घटनाओं पर सरकार क्या कार्रवाई करती है और इसके रोकथाम के लिये कितने कारगर कदम उठाये जा रहे हैं। इस घटना के प्रति जो रुख देखा गया है उससे नहीं लगता कि भविष्य सही है। आखिर क्यों?
चलिये डाक्टरों से शुरू करते हैं, क्योंकि यह एक वर्ग है जिस पर हमारे देश का स्वास्थ्य टिका है। डाक्टर जब स्नातक हो कर निकलते हैं तो 'हिप्पोके्रटीजÓ की शपथ लेते हैं। इस शपथ में कहा जाता है कि 'वे अपने रोगियों को किसी भी तरह का नुकसान नहीं पहुंचने देंगे।Ó लेकिन जो खबरें मिल रहीं हैं उससे तो लगता है कि आग लगने के बाद फायर ब्रिगेड को बुलाने के बदले वहां से डाक्टर ही सबसे पहले भागे। क्या यह मामला गैर इरादतन हत्या का नहीं है? क्या उनपर मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिये? यही बात अस्पताल के कर्मचारियों और पहरेदारों पर भी लागू होती है। हैरत होती है कि क्या प्रभावित रोगियों के परिजनों की ओर से एक सामूहिक याचिका क्यों नहीं दायर की गयी और यह भी नहीं लगता कि हमारी अदालतें इसे समुचित अवधि , मान लें कि 6 माह में, निपटा सकेगी। अब बात आती है अस्पताल के मालिकों की। जो पता चला है उसके मुताबिक अस्पताल में कई नियमों का उल्लंघन किया गया था। अग्निशमन नियमों! की पूरी अनदेखी की गयी थी। भवन निर्माण कानून की बिल्कुल परवाह नहीं की गयी थी। ऐसा लगता है कि मालिकों ने किसी भी नियम या कानून की परवाह नहीं की। वरना कोई भी सोचने समझने वाला इंसान इस घटना की पहले ही कल्पना कर सकता था। यह स्थिति साफ बताती है कि उनपर भी गैर इरादतन मानव वध का मुकदमा चलाया जाना चाहिये। दुनिया के हर सभ्य देश में इस अपराध के लिये मृत्युदंड है। अब आती है बात सरकार की। वर्तमान राज्य सरकार ने राज्य की बीमार स्वास्थ्य सेवा को ठीक करने के लिये कई कदम उठाये। उन कदमों का जम कर प्रचार भी हुआ। अस्पताल में जब आग लगी तो मुख्यमंत्री अविलम्ब घटनास्थल पर पहुंच गयीं। उन्होंने मुआवजा भी घोषित किया और दोषियों कठोर दंड की भी घोषणा की। लेकिन क्या सरकार दोषी नहीं है। सरकारी महकमों को मालूम था कि इस अस्पताल में अग्निशमन और भवन कानूनों का पूरी तरह उल्लंघन हुआ है। तब उन्होंने अस्पताल को इतने दिनों तक क्यों चलने दिया जबकि वे अनुमान लगा सकते थे कि इतनी बड़ी घटना हो सकती है। अथवा यह सरकार इतनी नाकारा है कि उसकी एजेंसियों ने कोई खबर ही नहीं दी और इतने लोगों की जान चली गयी। अगर ऐसा है तो अभी कहां - कहां कितने लोगों की जानें जाएंगी यह भगवान ही जानें। अगर सरकार जानती थी तो उसने आंखें क्यों मूंद रखी थी। बेशक किसी सरकार पर गैर इरादतन हत्या का मुकदमा नहीं चलाया जा सकता लेकिन कोई सरकार अगर ऐसे संस्थानों! को बढ़ावा देती है तो क्या होगा इसका अंदाजा सहज ही लगया जा सकता है। सरकार को इतनी आसानी से नहीं बख्शा जा सकता। यह सिविल सोसायटी और कोर्ट दोनों के लिये अवसर है कि अपनी ताकत दिखाये और सरकार को इसके किये की सजा दे।
लोकतंत्र का मूल उद्देश्य जनता के जीवन, स्वतंत्रता और खुशी की पड़ताल है। जनता के प्रतिनिधियों का यह कर्तव्य है कि वह लोकतंत्र के इन आदर्शों की रक्षा करें। सरकार इस कसौटी पर बिल्कुल नाकार साबित होती है। एक अस्पताल जो अपने यहां इलाज के लिये काफी ऊंची कीमत वसूलता है वह नियमों! को ताक पर रख कर अपना कारगोबार करता है और सरकार को कोई चिंता नहीं। इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है? लोकतंत्र में सरकार द्वारा जनता के विश्वास के सर्वनाश का इससे बड़ा उदाहरण हो ही नहीं सकता।
यही हाल ह हमारी केंद्र सरकार का। रिकार्ड तोड़ घोटाले और उसके बाद भी नीचता भरी बेशर्मी से शासन करना यह लोकतंत्र के साथ गद्दारी नहीं तो और क्या है। सरकारों के इस रवैये से आम जनता के भीतर इतनी कुंठा व्याप गयी है कि उसका विरोध मर गया। यही कारण है कि लाशों पर लाशों के अंबार लग रहे हैं और जनता के बीच से आवाज नहीं उठ रही है। सिविल सोसायटी चुप है। इसके लिये कौन दोषी है? या भारत की जनता की किस्मत ही है कि उस पर वही सरकार शासन करेगी जिसमें अपनी सुरक्षा और उसके अधिकारों का कोई ख्याल नहीं है। यह बेहद खतरनाक स्थिति है। ज्वभिन्न सरकारों ने देश की सामूहिक अभिज्ञा को लगभग समाप्त कर दिया है और अब विभिन्न तंत्रों से उसे जो सूचनाएं दी जा रहीं हैं वह धारणाओं को नियंत्रित कर उसके प्रभावों को निर्देशित कर रहीं हैं। हमारे देश में एक शून्य निर्मित हो गया है। इस शून्य को भरने के लिये एक अभिज्ञ और सक्रिय सिविल सोसायटी की जरूरत है जो सूचना के निश्चेतना जनक प्रभावों को समझे। एक ऐसी सिविल सोसायटी जिसका मुख्य उद्देश्य अपने समाज के लोगों की हिफाजत , अभिव्यक्ति की आजादी और मानवाधिकार की रक्षा हो तथा जो एक ऐसे स्वतंत्र न्यायिक प्रणाली का भागीदार हो जो मुख्य उद्दश्यों! को आघात पहुंचाने वाले तत्वों को निर्दयतापूर्वक कुचल दे। बस केवल आशा की जा सकती है कि ये घटनाएं देश में एक नयी सिविल सासायटी के उद्भव का पथ तैयार करेगी और इसके बाद एक शक्तिशाली मानवाधिकार क्रांति आयेगी जो वास्तविक अर्थों में भारत को स्वतंत्र बना देगी। अगर ऐसा नहीं होता है तो हम इससे भी खराब स्थिति में जीने के लिये अभिशप्त होंगे। - लेखक वरिष्ठï पत्रकार हैं

0 comments: