21.10 2013 एक कथित साधु ने सपना देखा कि एक ताल्लुकदार के किले की नींव में सैकड़ों टन सोना दबा हुआ है और चूंकि देश की अर्थव्यवस्था खस्ताहाल है इसलिये इससे मदद मिल सकती है। अब कहने को उस साधु ने वक्त के हाकिम को और अन्य लोगों को लिखा नतीजतन खुदाई शुरू हो गई। सोना नहीं मिला क्योंकि सपने में सोना मिलना और जमीन के भीतर सोना मिलने में काफी फर्क है। अब किले की खुदाई करने वाली संस्था जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (जी एस आई) वाले यह कहते चल रहे हैं कि उनका सोने से कुछ लेना- देना नहीं है बल्कि वे तो ऐतिहासिक तथ्यों की पड़ताल के लिये खुदाई कर रहे हैं। अब जहां तक डौंडिया खेड़ा, जिवा उन्नाव , उत्तर प्रदेश के किले के इतिहास का सवाल है तो यह किला राजा रामबख्श का था और वहां सिपाही विद्रोह के जमाने में अंग्रेज कमांडर कॉलिन कैम्पबेल के सिपाहियों से रामबख्श के नेतृत्व में विद्रोहियों की जंग हुई थी। खजाने की तलाश में चलती सरकारी कुदालों का यह नजारा भारत की पूरी दास्तान बयां कर देता था। यह एक बेजोड़ नजारा है, जहां भारत के भूत, भविष्य और वर्तमान एक साथ झलक रहे थे, इससे हम जान सकते हैं कि हम जो हैं, वह क्यों हैं। उन्नाव का यह गांव भारत का मिनिएचर मॉडल बन गया है। यह दास्तान उसी अवैज्ञानिक सोच और भाग्यवाद की है, जिसने भारत का इतिहास गढ़ा। पुराने सबूत बहस, तर्क और बौद्धिक उत्तेजना की एक लंबी परंपरा की गवाही देते हैं, जो भारतीय दर्शनशास्त्र के छह अंगों के बीच चली। हालांकि साइंटिफिक थिंकिंग में भारत का दावा तब भी कमजोर ही रहा, लेकिन जब से मिथक और भाग्यवाद के आगे घुटने टेक दिये गए, तब से चेतना का अंधकार युग ही चलता गया। किसी समाज को कुएं में धकेलना हो तो भाग्यवाद की घुट्टी से बेहतर जहर कोई और नहीं हो सकता। भाग्यवाद हमारा कर्मों में यकीन खत्म कर देता है। वहां खजाने सिर्फ सपनों में दिखते हैं और वहीं दफन भी हो जाते हैं। हम जमींदोज दौलत के ऊपर घुटनों में सिर दिए ऊंघते रहते हैं। उसी ऊंघ में हम गौरव और महानता के भी सपने देखते हैं और हमारा खून खौलता रहता है। वही तंद्रा हमें जातीय या धार्मिक जोश भरते हुए कुर्बानी के लिए बेचैन बना देती है। हमारे सपनों में वक्त ठहर जाता है। हमारा अतीत ही हमारा भविष्य बन जाता है। इस मोड़ पर हम यह जानते हैं कि भारत की दुर्दशा का इतिहास क्या था, लेकिन यह घटना बताती है कि इक्कीसवीं सदी में भी हम उसी सपने में जी रहे हैं। भाग्यवाद पर हमारी आस्था और साइंटिफिक सोच को सस्पेंड रखने की हमारी काबिलियत में जरा भी फर्क नहीं आया है। हम इस छल को कायम रखे हुए हैं कि 'सोने की चिडिय़ाÓ के पंजों के नीचे सोने का ज्वालामुखी फूट पड़ेगा। यहां तक कि हम अपने साइंस(जी एस आई पढ़ें) को भी सपने के हवाले कर देते हैं। तरक्की नींद से बाहर घटने वाली घटना है। असल तरक्की उन्हीं समाजों की है, जो अपने काम पर यकीन करते हैं, जो अतीत की ओर मुंह किए नहीं रहते या फिर जिनके पास कोई अतीत होता ही नहीं। उजड़े हुए समुदाय इसीलिए पुरुषार्थी होते हैं कि भाग्य पहले ही उनका साथ छोड़ चुका होता है। भारत की ट्रेजिडी यह है कि हर चोट के साथ इसकी नींद लंबी होती चली गई। क्या इसे बेहोशी कहा जाए? हजार साल लंबी बेहोशी? कुछ बरस पहले ऐसा लगने लगा था कि भारत इस नींद से बाहर आ रहा है। इस जवान देश में पीढ़ीगत बदलाव के साथ बहुत से खानदानी दोष बेअसर होते दिख रहे थे। उम्मीद बनी थी कि भारत अब अतीत के नहीं भविष्य के सपने देखेगा। यह घटना इस उम्मीद के खिलाफ ऐलान की तरह है। अगर आप पॉजिटिव ख्याल के हैं तो बस इतना सोच सकते हैं कि यह घटना नींद और चेतना के बीच, सपने और हकीकत, भाग्य और पुरुषार्थ, अतीत और भविष्य के बीच एक टकराव है, एक जंग है। यह जंग, उम्मीद है कि, तरक्की के पाले में ही जाएगी। भारत को पीछे ले जाने वाले खयालात की हार हम पहले भी देख चुके हैं। सोने का यह सपना हमारे भविष्य को हमेशा के लिये खोने से पहले जगा भी सकता है।
Sunday, October 20, 2013
Saturday, October 19, 2013
प्रचार की झंझा में मोदी का झांसा
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यह कैसी आस्था है?
15 अक्टूबर 2013 उत्साह से सराबोर दुर्गापूजा समाप्त हो गयी। चार दिनों तक महानगर के लाखों लोगों को केवल उत्सव की सुध थी और कुछ नहीं। इस बीच तूफान आया, बारिश हुई पर उत्साह की चमक कहीं फीकी होती नहीं दिखी। कहते हैं दुर्गापूजा का इतना उत्साह दुनिया में कहीं देखने को नहीं मिलता। लेकिन विजयादशमी के दिन से ही जो बात सबसे ज्यादा खटकने लगी वह थी पूजा के दौरान सड़कों पर लगे मां दुर्गा और अन्य देवी , देवताओं के चित्र जो फट कर बिखर गये थे और पैरों से रौंदे जा रहे थे। इस बीच एक सुधी पाठक एस पी बागला ने टेलीफोन कर पूछा कि क्या देवी- देवताओं के चित्रों का ऐसा अपमान उचित है और इसे रोकने के लिये क्या उपाय किये जाएं? अचानक उत्तर नहीं सूझा। सचमुच , यह एक विकट समस्या है कि उन्मुक्त समाज को किसी ऐसे नियम से आबद्ध नहीं किया जा सकता जो सर्वमान्य न हो साथ ही ऐसे मसलों को रोकने के लिये कानून बनाने की बात सोची भी नहीं जा सकती। तब इसका एक मात्र तरीका है कि आस्थावान जन समुदाय में देवी- देवताओं के चित्रों के अपमान को रोकने की चेतना जागृत की जाय। आखिर क्यों जिन देवी-देवताओं की मंगलमूर्तियां अपने मन मन्दिर में संजोकर नित्य आराधना में तल्लीन रहते हैं उन देवी-देवताओं का अपमान अनजाने में हम किस तरह कर बैठते हैं इस पर मनन की आवश्यकता है। जब विदेशों में चप्पलों और अन्त: वस्त्रों पर देवी-देवताओं के चित्र छपते हैं तो इसका घोर विरोध होता है लेकिन अपने ही देश में और अपने ही घर में हम अपने देवी-देवताओं का अनवरत अपमान करते जा रहे हैं। इसी तरह विवाह निमंत्रण पत्रों पर देवी-देवताओं के चित्र देना गलत है, लगभग हर निमंत्रण पत्र पर विघ्नविनाशक अपनी पूरी सुन्दरता के साथ मौजूद होते हैं। अब आखिर कितने कार्ड संभाल कर रखे जा सकते हैं और वो भी कितनी देर ? इससे धार्मिक मूल्यों का अपमान होता है। विवाह के कार्ड के निमंत्रण पत्र पर देवी-देवताओं के चित्र तो लगाए जाते हैं लेकिन कार्यक्रम समाप्ति के पश्चात उन्हें कूड़ेदान में फेंक कर स्वयं ही अपमानित कर बैठते हैं। लोग जहां थूकते हैं या अन्य तरह की गंदगी करते हैं तो उन्हें रोकने के लिये उन गंदे स्थानों पर विभिन्न देवी देवताओं के चित्र बने टाइल्स लगाये जाते हैं, क्या आप अपने स्वर्गीय मां- बाप के चित्र वहां लगाने देेंगे? इतना ही नहीं सरसों तेल के डब्बे पर भगवान के ट्रेड मार्क को दिखा - दिखा कर और प्रचारित कर उत्पादक और विक्रेता अमीर हो गये उसी सरसों तेल के भगवान के चित्र लगे डब्बे जब टॉयलेट में इस्तेमाल किये जाते हैं और हम जरा भी ध्यान नहीं देते। अगर देवी- देवताओं के चित्र वाले चुनाव चिन्हों पर रोक लग सकती है तो इन चित्रों के ट्रेडमार्क के रूप में उपयोग पर क्यों नहीं बंदिशें लगायी जा सकती हैं? यही नहीं, घरेलू उपयोग के अन्य सामान अथवा किराने के रैपर , चाबी के छल्ले , अखबार के विज्ञापन, की होल्डर आदि में भी अलग- अलग देवी- देवताओं की तस्वीर नजर आ जाती है अब इनमे से कितनी चीजें संभाल कर रखी जा सकती हैं ? आखिर मंदिर के अहाते में बने बरगद, पीपल के पेड़ों पर भी आप कितनी तस्वीरें अर्पण कर सकते हैं। वहां से भी साफ -सफाई के बाद कूड़ा घर में ही जाती है यह सामग्री। प्यार और सम्मान तो हम अपने अभिभावकों का भी करते हैं पर क्या उनकी तस्वीरों का इस तरह सार्वजनीकरण कर अपमानित होते देख सकते हैं ? अपने इष्ट देवों को हम आत्मीय और अभिभावकों से भी ऊंचा दर्जा देते हैं फिर उनका इस तरह अपमान क्यों ? इस प्रकार हर स्थान पर बेवजह उनकी तस्वीरों का प्रयोग कर हम उनके प्रति सम्मान प्रकट कर रहे हैं या अपमान? क्या इस तरह अपने देवी- देवताओं का सार्वजानिक उपयोग कर हम उनका अपमान नहीं कर रहे हैं? क्या अपने देवी- देवताओं के प्रति सम्मान और श्रद्धा प्रकट करने का और कोई बेहतर विकल्प हमारे पास नहीं है। जरा सोचिये।
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अपने मन का रावण मारें
Posted by pandeyhariram at 3:03 AM 0 comments