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Sunday, October 20, 2013

एक परीकथा: सपने में सोना

21.10 2013 एक कथित साधु ने सपना देखा कि एक ताल्लुकदार के किले की नींव में सैकड़ों टन सोना दबा हुआ है और चूंकि देश की अर्थव्यवस्था खस्ताहाल है इसलिये इससे मदद मिल सकती है। अब कहने को उस साधु ने वक्त के हाकिम को और अन्य लोगों को लिखा नतीजतन खुदाई शुरू हो गई। सोना नहीं मिला क्योंकि सपने में सोना मिलना और जमीन के भीतर सोना मिलने में काफी फर्क है। अब किले की खुदाई करने वाली संस्था जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (जी एस आई) वाले यह कहते चल रहे हैं कि उनका सोने से कुछ लेना- देना नहीं है बल्कि वे तो ऐतिहासिक तथ्यों की पड़ताल के लिये खुदाई कर रहे हैं। अब जहां तक डौंडिया खेड़ा, जिवा उन्नाव , उत्तर प्रदेश के किले के इतिहास का सवाल है तो यह किला राजा रामबख्श का था और वहां सिपाही विद्रोह के जमाने में अंग्रेज कमांडर कॉलिन कैम्पबेल के सिपाहियों से रामबख्श के नेतृत्व में विद्रोहियों की जंग हुई थी। खजाने की तलाश में चलती सरकारी कुदालों का यह नजारा भारत की पूरी दास्तान बयां कर देता था। यह एक बेजोड़ नजारा है, जहां भारत के भूत, भविष्य और वर्तमान एक साथ झलक रहे थे, इससे हम जान सकते हैं कि हम जो हैं, वह क्यों हैं। उन्नाव का यह गांव भारत का मिनिएचर मॉडल बन गया है। यह दास्तान उसी अवैज्ञानिक सोच और भाग्यवाद की है, जिसने भारत का इतिहास गढ़ा। पुराने सबूत बहस, तर्क और बौद्धिक उत्तेजना की एक लंबी परंपरा की गवाही देते हैं, जो भारतीय दर्शनशास्त्र के छह अंगों के बीच चली। हालांकि साइंटिफिक थिंकिंग में भारत का दावा तब भी कमजोर ही रहा, लेकिन जब से मिथक और भाग्यवाद के आगे घुटने टेक दिये गए, तब से चेतना का अंधकार युग ही चलता गया। किसी समाज को कुएं में धकेलना हो तो भाग्यवाद की घुट्टी से बेहतर जहर कोई और नहीं हो सकता। भाग्यवाद हमारा कर्मों में यकीन खत्म कर देता है। वहां खजाने सिर्फ सपनों में दिखते हैं और वहीं दफन भी हो जाते हैं। हम जमींदोज दौलत के ऊपर घुटनों में सिर दिए ऊंघते रहते हैं। उसी ऊंघ में हम गौरव और महानता के भी सपने देखते हैं और हमारा खून खौलता रहता है। वही तंद्रा हमें जातीय या धार्मिक जोश भरते हुए कुर्बानी के लिए बेचैन बना देती है। हमारे सपनों में वक्त ठहर जाता है। हमारा अतीत ही हमारा भविष्य बन जाता है। इस मोड़ पर हम यह जानते हैं कि भारत की दुर्दशा का इतिहास क्या था, लेकिन यह घटना बताती है कि इक्कीसवीं सदी में भी हम उसी सपने में जी रहे हैं। भाग्यवाद पर हमारी आस्था और साइंटिफिक सोच को सस्पेंड रखने की हमारी काबिलियत में जरा भी फर्क नहीं आया है। हम इस छल को कायम रखे हुए हैं कि 'सोने की चिडिय़ाÓ के पंजों के नीचे सोने का ज्वालामुखी फूट पड़ेगा। यहां तक कि हम अपने साइंस(जी एस आई पढ़ें) को भी सपने के हवाले कर देते हैं। तरक्की नींद से बाहर घटने वाली घटना है। असल तरक्की उन्हीं समाजों की है, जो अपने काम पर यकीन करते हैं, जो अतीत की ओर मुंह किए नहीं रहते या फिर जिनके पास कोई अतीत होता ही नहीं। उजड़े हुए समुदाय इसीलिए पुरुषार्थी होते हैं कि भाग्य पहले ही उनका साथ छोड़ चुका होता है। भारत की ट्रेजिडी यह है कि हर चोट के साथ इसकी नींद लंबी होती चली गई। क्या इसे बेहोशी कहा जाए? हजार साल लंबी बेहोशी? कुछ बरस पहले ऐसा लगने लगा था कि भारत इस नींद से बाहर आ रहा है। इस जवान देश में पीढ़ीगत बदलाव के साथ बहुत से खानदानी दोष बेअसर होते दिख रहे थे। उम्मीद बनी थी कि भारत अब अतीत के नहीं भविष्य के सपने देखेगा। यह घटना इस उम्मीद के खिलाफ ऐलान की तरह है। अगर आप पॉजिटिव ख्याल के हैं तो बस इतना सोच सकते हैं कि यह घटना नींद और चेतना के बीच, सपने और हकीकत, भाग्य और पुरुषार्थ, अतीत और भविष्य के बीच एक टकराव है, एक जंग है। यह जंग, उम्मीद है कि, तरक्की के पाले में ही जाएगी। भारत को पीछे ले जाने वाले खयालात की हार हम पहले भी देख चुके हैं। सोने का यह सपना हमारे भविष्य को हमेशा के लिये खोने से पहले जगा भी सकता है।

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