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Saturday, December 5, 2015

3 डिसेंबर 2015

सार्वजनिक अभिव्यक्ति हिंसा मुक्त हो

 

3 दिसम्बर 2015

 

असहिष्णुता पर बढ़ते विवाद के बीच राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा कि लोगों को अपने मन मस्तिष्क से विभाजनकारी विचारों को हटाना चाहिए तथा सार्वजनिक अभिव्यक्ति को सभी तरह की हिंसा से मुक्त करना चाहिए। उन्होंने विभाजनकारी विचारों को असल गंदगी करार दिया जो गलियों में नहीं, बल्कि हमारे दिमाग में और समाज को विभाजित करने वाले विचारों को दूर करने की अनिच्छा में है। प्रणब ने कार्यक्रमों की श्रृंखला को संबोधित करते हुए भारत के बारे में महात्मा गांधी की सोच का जिक्र किया और कहा कि उन्होंने एक समावेशी राष्ट्र की कल्पना की थी जहां देश का हर वर्ग समानता के साथ रहे और उसे समान अवसर मिलें। सरकार के स्वच्छता अभियान का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा, बापू के अनुसार स्वच्छ भारत का मतलब स्वच्छ दिमाग, स्वच्छ शरीर और स्वच्छ वातावरण से था। साबरमती आश्रम में अभिलेखागर और शोध केंद्र का उद्घाटन करते हुए प्रणब ने कहा, भारत की असल गंदगी हमारी गलियों में नहीं, बल्कि हमारे दिमागों में और समाज को ‘‘उनके’ तथा ‘‘हमारे’ और ‘‘शुद्ध’ एवं ‘‘अशुद्ध’ के बीच बांटने के विचारों से मुक्ति पाने की अनिच्छा में है। प्रणब ने कहा, हमें प्रशंसनीय और स्वच्छ भारत मिशन को हर हाल में सफल बनाना चाहिए। हालांकि इसे मस्तिष्कों को स्वच्छ करने और गांधी जी की सोच के सभी पहलुओं को पूरा करने के लिए एक अत्यंत बड़े और वृहद प्रयास की महज शुरुआत के रूप में देखना चाहिए।राष्ट्रपति ने कहा, गांधी ने अपने जीवन में और मृत्यु के समय भी साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए संघर्ष किया। शांति एवं सद्भाव की शिक्षा ही समाज में विघटनकारी ताकतों को नियंत्रित करने और उन्हें नई दिशा देने की कुंजी है। उन्होंने कहा कि अहिंसा नकारात्मक शक्ति नहीं है। हमें सार्वजनिक अभिव्यक्ति को सभी तरह की हिंसा, शारीरिक और मौखिक हिंसा से मुक्त करना चाहिए। केवल एक अहिंसक समाज ही हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में खासकर वंचित लोगों समेत सभी वगरें के लोगों की भागीदारी सुनिश्चित कर सकता है। यहां प्रश्न सहिष्णुता या असहिष्णुता का नहीं है। आज हमारी सबसे बड़ी समस्या है समाज के कई कोनों से आती दुर्गंध। एक ऐसी दुर्गंध जिसे फैलाने में कई राजनैतिक दल और तथाकथित बौद्धिक वर्ग, जिसमें कुछ साहित्यकार और कलाकार भी आते हैं, अपना भरपूर योगदान दे रहे हैं।आप कौन हैं और आपके पास क्या है, इसे भूलकर यदि आप अपनी मनोवृत्ति की गहराई में जाकर वस्तुस्थिति को सही-सही रूप में जांचेंगे तो आपको पता चलेगा। आप में शक्ति न हो, संयोग न हो, साधन का अभाव हो, तो आपसे ऐसे पाप न हों, यह बात अलग है। लेकिन, आप स्वयं ही उस परिस्थिति में हों तो क्या करोगे, इसे आप अपने हृदय की गहराई में छिपी वृत्ति के आधार पर जांचिए। जब आपके पास शक्ति, सामग्री, संयोगादि उपलब्ध हों, तब परीक्षा होती है। तो क्या असहनशीलता के मसले को बेवजह तवज्जो दी गई? प्रधानमंत्री मंगलवार को भी असहनशीलता पर बहस में तो शामिल नहीं हुए, लेकिन राज्यसभा में उन्होंने संविधान दिवस पर कहा कि संविधान देश को जोड़ने का काम करता है। इसको मनाने के पीछे हमारा मकसद आगे की पीढ़ियों को अपने संविधान बनाने वालों के योगदान और अपनी संस्कृति के बारे में बताना है। हममें कमियां हैं। संविधान रचने वालों के सामर्थ्य को हमें समझना होगा। हमें ऊपर उठने की जरूरत है। हम कानून बनाते हैं फिर दूसरे सत्र में और शब्द जोड़ने पड़ते हैं। अब राजनीतिक स्थितियां हावी हो जाती हैं। बहरहाल प्रधानमंत्री ने हाल में अपने भाषणों में सरकारों पर राजनीति हावी होने की बात बार-बार कही है। असहनशीलता पर विपक्ष का वार सरकार पर तीव्र रहा है। राहुल गाधी ने बहस के दौरान सरकार पर विपक्ष की आवाज दबाने का आरोप लगाया। वित मंत्री कहते हैं कि ये बनावटी है। आवाजों को कुचलना नहीं चाहिए। राहुल गांधी ने कहा, मैं सरकार से कहता हूं कि लोगों की सुनों। पहले की ओर मत देखो। प्रधानमंत्री गाधी जी की सराहना करते हैं। उनका उदाहरण देते हैं, लेकिन जब साक्षी महाराज गोडसे को राष्ट्रभक्त बताते हैं तो प्रधानमंत्री चुप होकर सुनते हैं।केंद्र सरकार में मंत्री वी.के. सिह दलित बच्चों की तुलना पशुओं से करते हैं। ये बयान संविधान को सीधे चुनौती देता है। सुरक्षा हमारे लिए बहुत अहम है, लेकिन जब एक सैनिक के पिता को मार दिया जाता है तब भी प्रधानमंत्री चुप रहते हैं। सरकार स्किल इंडिया की बात करती है, लेकिन जबएफ टी आई आई के छात्र एक औसत व्यक्ति को प्रमुख बनाने का विरोध करते हैं तो प्रधानमंत्री चुप रहते हैं। तो क्या संविधान को सुशोभित कर सिर्फ संविधान दिवस तक सीमित रखना चाहिए? पीएम मोदी के स्तर पर जिस तरह का परिवर्तन सदन के अंदर प्रदर्शित किया जा रहा है संभवतः अब वह देश के पीएम की गरिमा के अनुकूल अधिक लग रहा है पर क्या उनका यह स्वरुप तब भी दिखाई देने वाला है जब उन्हें जीएसटी पर विपक्ष का समर्थन मिल जायेगा या वे भी केवल अपने बडे हित को साधने के लिए ही विपक्ष के साथ तालमेल बिठाने की किसी जुगत में ही लगे हुए हैं ? भूमि अधिग्रहण और जीएसटी जैसे मुद्दों पर सरकार को जिस कुशलता के साथ काम करना चाहिए वह आज तक नहीं कर पायी है क्योंकि राजग और संप्रग के दोनों विधेयकों में केवल कुछ मुद्दों पर ही व्यापक असहमति सामने आ रही है जिसे आम सहमति से देश हित में बीच के रास्ते के साथ शुरू किया जा सकता है क्योंकि इससे जहां सरकार को बदलाव को महसूस करने का अवसर भी मिलेगा वहीं विपक्ष भी अपनी आशंकाओं की समीक्षा करने में सफल हो सकेगा। यह मुद्दे आज सदन में जितना महत्व पा रहे हैं उससे यही लगता है कि आने वाले समय में कोई भी राजनैतिक दल दूसरे पर हमलावर होने का कोई भी अवसर छोड़ना नहीं चाह रहा है जिसके परिणीति देश के लिए इतनी बुरी साबित हो रही है।

 

 

सम्पादकीय 5-12-2015

Wednesday, December 2, 2015

नमो-नवाज मुलाकात : अच्छे संकेत


2 नवम्बर 2015
सोमवार को पेरिस की सर्द सुबह अचानक भारत-पाक रिश्तों में ‘डिप्लोमेटिक क्लाइमेट चेंज’ हुआ। जलवायु परिवर्तन पर हो रही बैठक से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पाकिस्तान में उनके समकक्ष नवाज शरीफ अचानक आमने-सामने आ गए। हाथ मिले। इस मुलाकात ने कड़ाके की सर्दी के बावजूद दोनों देशों के रिश्तों पर जमी बर्फ को कुछ हद तक पिघला दिया। पहले खड़े-खड़े कुछ बतियाए, फिर दोनों एक सोफे पर जा बैठे और घुल-मिलकर बात करने लगे। दोनों के बीच क्या बातचीत हुई इसका ब्योरा तो नहीं मिल पाया है, लेकिन मौजूदा दौर में भारत और पाकिस्तान के तल्ख रिश्तों की पृष्ठभूमि में इस भेंट को खासा अहम् माना जा रहा है। उफा में तय पांच सूत्रीय समझौते के तहत दोनों देशों के बीच एनएसए स्तर की बातचीत होनी थी, लेकिन हुर्रियत से पाकिस्तानी एनएसए की मुलाकात को भारत की लाल झंडी दिखाए जाने और कश्मीर के बजाए आतंकवाद पर फोकस होने के मुद्दे पर यह बातचीत पाकिस्तान की तरफ से तोड़ दी गई। पेरिस की मुलाकात से दोनों प्रधानमंत्रियों ने एक नया संदेश देने की कोशिश की है। एक तरफ जहां प्रतिनिधिमंडल स्तर की बातचीत परवान नहीं चढ़ रही ऐसे में दोनों प्रधानमंत्री अपने स्तर पर इसे पटरी पर लाने की कोशिश कर सकते हैं। खासतौर पर तब जब अगले साल पाकिस्तान में सार्क समिट होना है जिसमें प्रधानमंत्री मोदी की शिरकत पर सबकी निगाह है। मोदी पाकिस्तान जाएं इससे पहले जरूरी है कि दोनों देश आपसी भरोसा बहाली की दिशा में कुछ कदम आगे बढ़ाएं। सीमा पर सीज फायर उल्लंघन और आतंकी वारदात होते रहे तो रिश्तों को आगे बढ़ाना मुश्किल होगा। जड़ता को तोड़ने के लिए सबसे ऊपरी स्तर पर बोल्ड स्टेप लेने की जरूरत है ताकि बातचीत की शुरुआत हो सके। दोनों प्रधानमंत्री इस बात को समझते हैं। दो दिन पहले ही शरीफ की तरफ से यह बयान आया है कि शांति और बेहतर रिश्ते के लिए वे भारत के साथ बिना शर्त बातचीत को तैयार हैं। खबर है कि इन दिनों भारत और पाकिस्तान के बीच ट्रैक टू डिप्लोमेसी के कई दौर हुए हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि आगे जब भी बातचीत तय होती है हुर्रियत से मुलाकात जैसे मुद्दों पर जिद की वजह से वह नहीं टूटेगी। दोनों अकेले में मिले हैं और उन्हें देखकर लगता है कि गंभीर चर्चा हो रही है। दोनों के हाव-भाव देखकर लगता है शायद यह मुलाकात भारत-पाक संबंधों के बीच एक नया रास्ता खोले। मुलाकात का पेरिस में होना भी अपने आप में काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि पेरिस अभी-अभी आतंकवाद का शिकार हुआ है। अब सबसे बड़ा सवाल है कि क्या इससे भारत-पाकिस्तान संबंधों पर जमी हुई बर्फ पिघलेगी? अभी तक भारत सरकार दोनों देशों के बीच बातचीत तो छोड़िए, श्रीलंका में पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलने के लिए भी तैयार नहीं है। इस मुलाकात से यह बात भी साबित की जा सकती है कि भारत बातचीत के लिए गंभीर है क्योंकि नवाज यह संकेत देने में सफल रहे हैं कि पाकिस्तान भारत से बिना शर्त बातचीत करने के लिए तैयार है। हमें इसका जरूर ख्याल रखना होगा कि पाकिस्तान किसी विदेशी दबाव में तो ऐसा नहीं कर रहा है। इतिहास गवाह है कि अभी तक भारत-पाक के बीच की बातचीत कभी सफल नहीं हो पाई, वजह है पाकिस्तान की नापाक हरकतें, जो कुछ ऐसी होती हैं कि बात बिगड़ जाती है। लेकिन पाकिस्तान में नये सुरक्षा सलाहकार के आने के बाद नवाज शरीफ का सुर बदलना लाजिमी है। अगस्त में कश्मीर समेत सभी विवादित मुद्दों पर बातचीत का बहाना बनाकर पाक ने आतंकवाद पर एनएसए लेवल की बातचीत रद्द कर दी थी। तब सरताज अजीज पाक के एनएसए थे। वहां की सरकार को पता था कि अजीज भारत के एनएसए अजित डोभाल का मुकाबला नहीं कर पाएंगे। इसलिए पहले उन्हें बदला गया। उनकी जगह रिटा. लेफ्टिनेंट जनरल नासिर खान जंजुआ को लाया गया। अब पाकिस्तान आतंकवाद पर भी बात करने को राजी है। पाक मीडिया की मानें तो प्रधानमंत्री मोदी ने पहले पहल की इस मुलाकात की। सही है बातचीत का कौन स्वागत नहीं करेगा, मगर सवाल वही है कि जब सीमा पार से बार-बार सीज फायर का उल्लंघन हो, जिसमें आम लोग मारे जाएं और आतंकवाद से लड़ते-लड़ते जवान और अफसर शहीद हो रहे हों तो क्या यह सही वातावरण होगा बातचीत के लिए? आतंकवाद और बातचीत साथ-साथ चल सकते हैं, क्योंकि पाकिस्तान में नवाज शरीफ से अधिक ताकतवर सेना प्रमुख राहिल शरीफ हैं और पाक सेना का रवैया भारत के प्रति कैसा है यह पूरी दुनिया जानती है। इसलिए यह मुलाकात महज एक राजनैतिक संकेत है दुनिया के लिए, क्योंकि मोदी और शरीफ पेरिस में हाथ न मिलाते तो कुछ और ही चर्चा हो रही होती।

असहिष्णुता और सेक्युलर का छद्म छोड़ें


1दिसम्बर 2015
देश में इस समय असहिष्णुता को लेकर बवाल मचा हुआ है। संसद से लेकर सड़क तक यह शब्द छाया हुआ है। असहिष्णुता को लेकर प्रश्न उठता है कि जिस शब्द को लेकर देश का बड़ा वर्ग माथापच्ची कर रहा है, उस शब्द को आम आदमी तो दूर की बात है, बहुसंख्यक पढ़े-लिखे लोग भी नहीं समझ पा रहे हैं। इन हालात में बवाल मचाने से ज्यादा असहिष्णुता के बारे में लोगों को जाग्रत करने की जरूरत है। जरूरत इस बात की है कि कैसे इस पर अंकुश लगाया जाए? कैसे यह समस्या बढ़ी है? इस समस्या के बढ़ने की मुख्य वजह क्या है? ऐसे कौन लोग हैं? असहिष्णुता के बढ़ने का दारोमदार किसी एक वर्ग या कौम पर नहीं है, यह बात साफ है। असहिष्णुता का विरोध करने वाले लेखक, साहित्यकार, अभिनेता व अन्य लोग जो केंद्र सरकार पर निशाना साध रहे हैं, यदि इस मुद्दे पर केंद्र सरकार को घेरने के बजाय समाज में असहिष्णुता को खत्म करने पर बल दें तो यह ज्यादा कारगर होगा। केंद्र सरकार को झुकना भी पड़ेगा। पर देखा जाए तो किसी स्तर पर यह काम नहीं हो रहा है। अलबत्ता, विरोध के लिए विरोध हो रहा है। देश की बढ़ती असहिष्णुता से पीड़ित इन महान गैर-भाजपाई केंद्र सरकार विरोधी सहिष्णुओं के पास बढ़ती असहिष्णुता की काट का न कोई कारगर उपाय है, न कोई सक्षम सूत्र है और न कोई सामाजिक सिद्धांत है। जो कुछ है भी वह क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों और आपसी नफरत से संचालित है। रही मीडिया की बात, तो मीडिया हर उस घटना को, हर उस व्यक्ति को और हर उस बयान को जो सहिष्णुता की धज्जियां उड़ा सकता हो, आपसी नफरत को बढ़ा सकता हो, सियासी जंग में जहर घोल सकता हो, सुर्खियां बनाकर परोस देता है। आमिर के प्रकरण में एआर रहमान ने कहा कि कुछ महीने पहले उन्होंने भी ऐसी ही स्थिति का सामना किया था। उनका इशारा मुस्लिम असहिष्णुता की ओर था, लेकिन साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि कुछ भी हिंसक नहीं होना चाहिए। हम बहुत ही सभ्य लोग हैं और हमें दुनिया को दिखाना चाहिए कि हमारी सभ्यता सर्वश्रेष्ठ सभ्यता है। अभी यह चल ही रहा था कि राजनाथ सिंह ने संविधान में लिखित सेक्युलर शब्द के अर्थ को लेकर एक नया शिगूफा पैदा कर दिया। धर्मनिरपेक्षता बनाम पंथनिरपेक्षता पर बहस चली है। सामाजिकता के विकास में भाषा और शब्दों की सार्वजनिक भूमिका है। योग विज्ञानी पतंजलि ने ‘महाभाष्य’ में कहा कि शब्द का सम्यक् ज्ञान और सम्यक् प्रयोग ही हितकारी होता है। वाल्टेयर ने कहा, यदि आप मुझसे तर्क करना चाहते हैं तो पहले अपने शब्दों की परिभाषा करो। सेक्युलरवाद या पंथनिरपेक्षता भारतीय विचारधारा नहीं है। अंग्रेजी शब्दकोशों में ‘सेक्युलर’ का अर्थ भौतिक/ इहलौकिक बताया गया है। सेक्युलर भौतिक संसार का पर्यायवाची है। भारत में भौतिकता और आस्था के बीच कभी कोई संघर्ष नहीं चला। भारत का धर्म संगठित पंथ नहीं है। इसलिए ‘धर्मनिरपेक्षता’ भारतीय जीवन पद्धति नहीं है। यहां धर्म का सतत विकास हुआ। ऋग्वैदिक काल में ही यहां जिज्ञासा व वैज्ञानिक दृष्टिकोण का वातावरण व यथार्थवादी दर्शन का विकास हुआ। भारत ने प्रकृति के नियमों को ऋत या धर्म कहा। डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा, नियमों का पालन करना भी एक नियम है, एक कर्म है। धर्म का अर्थ कर्म है। अथर्ववेद कम से कम 3-4 हजार वर्ष पहले लिखा गया। तब ईसाइयत नहीं थी, इस्लाम भी नहीं था, लेकिन इसके पृथ्वी सूक्त में कहा गया है कि -हे धरती मां! आप विभिन्न भाषा- भाषी और विभिन्न धर्म वाले मनुष्यों को एक परिवार की तरह आश्रय व ऐश्वर्य दें। संविधान निर्माता इस तथ्य से परिचित थे। इसीलिए प्रस्तावना में प्रभुत्व सम्पन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य का उल्लेख हुआ। असहिष्णुता और सेक्युलर शब्दों काे इस तरह मसला बनाने से साफ जाहिर है कि इसके पीछे कोई एजेंडा है। देश एजेंडे पर नहीं चलता वह जनता के कल्याण से चलता है।

क्या वाकई प्रधानमंत्री बदल रहे हैं?


30नवम्बर 2015
राजनीति शास्त्र में एक शब्द है ‘कोर्स करेक्शन।’ यानी जनता से जुड़ने के क्रम में जो गलती हो रही हो उसे साथ ही साथ सुधार लेना। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का शुक्रवार को भाषण इसी ‘कोर्स करेक्शन’ का उदाहरण है। देश के मौजूदा सामाजिक और राजनीतिक माहौल में शुक्रवार का दिन पूरी तरह से मोदी के नाम रहा। पहले लोकसभा में, फिर घर पर विपक्षी नेताओं सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के साथ जीएसटी से जुड़े गतिरोध पर सीधी बातचीत करके। लेकिन मुमकिन है कि मोदी भक्तों को यह भाषण उतना नहीं भाया होगा, जैसा अभ्यास उन्हें बीते डेढ़ साल से होता रहा है। मोदी ने देशवासियों को एक और बहुत ही सकारात्मक सन्देश दिया कि हर वक्त ये सोचना बन्द करें कि उनके अधिकार क्या-क्या हैं? बल्कि अपने गिरेबान में झांककर देखें कि हमारे कर्तव्य क्या-क्या हैं? इस लिहाज से प्रधान सेवक ने नौकरशाही में बैठी अपनी पूरी सेवक-मंडली को एक ही झटके में बुरी तरह से आड़े-हाथों ले लिया। मोदी जी की ये बेजोड़ नसीहत है। सच पूछिए, तो देश को नयी ऊंचाइयों पर ले जाने का सारा मंत्र इसी बात में समाहित है। भारत का यही सबसे कमजोर पहलू है कि हमें अपने कर्तव्य का होश नहीं रहता और दूसरों में ऐब ढूंढ़ने निकल पड़ते हैं। जिस दिन ये प्रवृत्ति बदलेगी, उस दिन भारत महाशक्ति और विश्व-गुरु दोनों बन जाएगा। मोदी जी ने अपने 60 मिनट के भाषण में कहा कि 60 सालों में कुछ न कुछ जरूर हुआ। सिर्फ कचड़ा नहीं फैला। 26 मई 2014 से पहले भी देश उतना ही महान था, जितना आज है। नेहरू से लेकर सोनिया तक मोदी ने तंज नहीं कसा। जहां जरूरत हुई, उनकी तारीफ की। राहुल की तारीफ की। सबकी तारीफ की। पूरी समग्र राजनीतिक सिस्टम की बात की जिसमें कांग्रेस हो या बीजेपी या लेफ्ट, सबको एक तराजू पर तौला। राहुल ने दागी नेताओं को संसद में आने से रोकने वाला ऑर्डिनेंस फाड़ा तो उसका जिक्र किया। नेहरू किस तरह विपक्ष को स्पेस देते थे, इसका भी जिक्र आया। सोनिया की बात में बात मिलायी। लोकसभा में यह ऐसा शायद ही देखा गया है, जब पूरा सदन मोदी से सहमत था। 'रेयरेस्ट ऑफ रेयर' पोजिटिविटी थी माहौल में। लोकतंत्र अपने सबसे खूबसरूत रूप में था, लेकिन इस 60 मिनट में उनके समर्थकों की एक टोली को ताली बजाने का मौका नहीं मिला, जिसके लिए वे मोदी का भाषण सुनने के लिए हर बार बैठते रहे हैं। मोदी जी के हर भाषण के बाद सपोर्टरों की यह टोली भुजाएं फड़काते हुए नेहरू से लेकर राहुल तक की कुंडली निकालती है। हम जैसे लोग ऐसे अगर सवाल उठाएं, तो तुरंत आईएस से सहानुभूति रखने वाला कह देंगे। कांग्रेसी, खुजलीवाल का एजेंट कह देते हैं। चंद साल पहले जब रेप की कई घटनाओं के बाद एक निर्भया गैंगरेप के बाद पूरे देश में सड़क पर उग्र आंदोलन होता है तो पूरा देश एक साथ एक मंच पर आता है। इस मुद्दे पर आंदोलन करने वालों को किसी ने किसी का एजेंट नहीं कहा, न देश को बदनामी का खतरा बताया गया, न इसमें साजिश दिखी, न असहिष्णुता दिखी। लेकिन दादरी जैसी घटना और भड़काने वाले बयानों के बाद जब शांति तरीके से आंदोलन हुआ तो इसमें उनके समर्थकों को साजिश दिखी। विरोध करने वालों में आतंकी दिखा। सोचिए, अगर कोई आपके मत के विरोध में है तो आप उसे आईएस से जोड़ें, देशद्रोही बोलें तो क्या असहिष्णुता का मामला नहीं है? शुक्रवार को प्रधानमंत्री जिस संविधान की बात कर रहे थे, जिस लोकतंत्र को इस देश की आत्मा बता रहे थे, वह सुनने की परंपरा के बीच ही बना और विकसित हुआ है। जिसे अज्ञान में हिंदुत्व की परंपरा कहा जाता है- जो बहुत सारी वैचारिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक शाखाओं के मेल से बनी है, उसमें सुनने पर बहुत जोर है। लोकतंत्र कहने और देखने से ज्यादा सुनने से बनता है। लेकिन हम सुनने को तैयार नहीं। हम बस बोलते जाने के हामी हैं। पिछले दो महीने में जिन लेखकों- बौद्धिकों- वैज्ञानिकों- कलाकारों को लगातार असहिष्णु बताकर उन पर हमले होते रहे, जिन्हें बनावटी विद्रोह और कागजी क्रांति का गुनहगार ठहरा दिया गया, वे बस इस लोकतंत्र की परंपरा के मुताबिक कुछ कहना भर चाह रहे थे। वे याद दिलाना चाह रहे थे कि समाज के सड़े -गलेपन के खिलाफ, उसकी सांप्रदायिक जकड़न के खिलाफ जो लोग बोल रहे हैं, जो नई परिपाटी बनाने की कोशिश कर रहे हैं, उन पर हमले हो रहे हैं, उन्हें मारा जा रहा है, उनकी बात तक नहीं सुनी जा रही है। इस देश के लोकतंत्र के लिए, इस देश की जनता के लिए और उन मूल्यों के लिए वह सब जरूरी है, शुक्रवार को प्रधानमंत्री लगातार जिनकी बात करते रहे। लेकिन यह जवाब सिर्फ भाषणों से नहीं मिलेगा, अन्याय और हिंसा के विरुद्ध न्याय और शांति की उन वास्तविक पहलकदमियों से मिलेगा, जो लोगों के भीतर यह भरोसा जगाए कि लोकतंत्र की मजबूरियां और संविधान की समझ वाकई प्रधानमंत्री को बदल रही हैं।