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Sunday, January 17, 2010

बस, आंसुओं से भरा मेरा सलाम लेते जाइए...

यहां हमारा इरादा 'जो आता है उसको जाना हैÓ टाइप का शाश्वत ज्ञान देने का नहीं है। मुझे पता है कि एक बार कम्प्लीट लाइफ सपोर्ट सिस्टम (जिसमें दिल, फेफड़े और शरीर के बाकी अंगों को मशीन के सहारे जिंदा रखा जाता है) पर जाने के बाद कम ही लोग वापस लौटते हैं। ज्योति बाबू कई दिनों से लाइफ सपोर्ट पर ही थे। पहली जनवरी से रोज दफ्तर में न्यूजवायर पर बार-बार ज्योति बसु की हालत से जुड़े अपडेट देखता रहा था। लोग फोन भी करते और सही जानकारी चाहते। एक बार एक सहयोगी ने ाोषणा बी कर दी कि वे चले गये। मैनेजमेंट के लोगों ने सम्पादक की तवज्जो चाही ओर मैंने इनकार कर दिया तो वे कुछ निराश से हो गये। पता नहीं मेरे अनाड़ीपन पर या मेरे सहयोगी के ज्ञान पर। वैसे समझ में तो आ गया था कि अब पर्दा कभी भी गिरने वाला है। सुबह नफ्तर में आते ही फोन आया कि 'वे नहीं रहे।Ó टीवी पर ज्योति बाबू के जाने की खबर आ रही थी...
े ज्योति बाबू को देखने -समझने के कई अवसर आये हैं। दो एक बार मुलाकात भी हुई है। मीडिया से बातों! के दौरान सवालों- जुमलों! का लेना देना भी हुआ है। बंगाल के लिए उन्होंने जो किया या नहीं किया उसके बारे में पूरी जानकारी है पर कभी उनसे वह आस्था नहीं रही। लेकिन उनके निधन की खबर ने भावुक कर दिया। मुझे कम्युनिस्टों से न प्रेम है, न घृणा। मैंने कम्युनिस्ट साहित्य ज्यादा नहीं पढ़ा, खुद कम्युनिस्ट विचारधारा का नहीं रहा, कॉलेज में भी नहीं। उल्टे मुझे तो चिढ़ रही है उनके अत्यधिक बौद्धिकपन से। लेकिन एक मामले में मैं कम्युनिस्टों का कायल हूं और वह है सादगी, साधारण तरीके से रहने और जीने की विलक्षण क्षमता। बंगाल के मुख्यमंत्री बु्द्धदेव भट्टाचार्य अभी भी छोटे से फ्लैट में रहते हैं। कई बार दिल्ली में कम्युनिस्ट सांसदों के निवास में भी जाने का मौका मिला। वे अधिकतर छोटे सरकारी फ्लैट में रहना पसंद करते हैं। यहां अलीमुद्दीन स्ट्रीट में सीपीआईएम के मुख्यालय में! भी अकसर जाना होता है। अकसर वर्तमान मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टïाचार्य को बिना दूदावाली चाय पीते या पार्टी सचिव बिमान बोस को आलू और चावल खाते देखा। एक दिन अखबार में छपी तस्वीर देखी, सोमनाथ चटर्जी किसी गांव में घूम रहे थे। एक पार्टी कार्यकर्ता की मोटरसाइकिल पर पीछे बैठकर। इस उम्र में तमाम दूसरे नेता जेनुइन लेदर की मुलायम गद्दी वाली शानदार कार में घूमते हों, यह अचंभा ही तो है!
ज्योति बसु भी ऐसे ही थे भद्रलोक। आज के दौर में जहां गाडिय़ों के काफिले से आपके प्रभाव की पहचान होती है, ऐसे नेता न के बराबर हैं। दो दशक से ज्यादा किसी राज्य का मुख्यमंत्री बने रहना और प्रधानमंत्री बनते-बनते रह जाना, किसी भी नेता का दिमाग खराब करने के लिए काफी है। लेकिन ज्योति बाबू के बारे में ऐसा कभी सुनने में नहीं आया। पोलित ब्यूरो का ज्योति बसु को प्रधानमंत्री न बनाने का फैसला भले ही 'ऐतिहासिक भूलÓ हो, ज्योति बाबू का उसको बिना प्रतिवाद किए मान लेना अनुशासन की मिसाल है। किसी और पार्टी के बड़े नेता के साथ ऐसा हो तो उन्हें नई पार्टी बनानें में मिनटों का वक्त भी नहीं लगेगा।
ज्योति बाबू का जाना इसलिए और भी खलता है क्योंकि उनके जैसे नेता अब हिंदुस्तान में इक्का-दुक्का ही हैं। जाते-जाते भी ज्योति बाबू अपने शरीर का दान कर गए मेडिकल रिसर्च के लिए। ऐसी महान आत्मा की विदाई के लिए शब्द नहीं हैं मेरे पास। बस, आंसुओं से भरा मेरा सलाम लेते जाइए...

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